
क्या ईश्वर सचमुच मर गया?
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इक्कीसवीं सदी की और बढ़ते कदमों के साथ यह सोच उठना स्वाभाविक है, कि नए युग की विचारधारा क्या होगी? किस सोच को लेकर नया जमाना अपने उज्ज्वल भविष्य की रचना करेगा? इन सवालों का जवाब पाने से पहले जरूरी है कि बीसवीं सदी की चिन्तन प्रणालियों की छान बीन करें। आखिरकार अपने समय में नितान्त मूल्यवान समझी जाने वाली इन चिन्तन धाराओं पर अब क्यों ढेर सारे सवालिया निशान लग गए?
आज स्थिति कुछ भी क्यों न हों, पर पिछले दिनों बीसवीं सदी का समूचा ताना बाना रूस के प्रजातंत्र मार्क्स के साम्यवाद और नास्तिकवाद के इर्द गिर्द बुना जाता रहा है। इनके प्रतिपादनों पर विचार करने के लिए हर किसी को बाध्य होना पड़ा है। क्या समर्थक क्या विरोधी दोनों ही पक्ष प्रस्तुत तर्कों पर विचार करने के लिए बाध्य हुए हैं।
इस तिकड़ी के प्रतिपादनों को उपहास उपेक्षा भर्त्सना के प्रहार कम नहीं सहने पड़े परम्परा समर्थक लोगों ने उनका विरोध करने में कुछ कमी नहीं रखी। पर कुछ कारण ऐसे हैं जिनके कारण वे समस्त प्रतिबन्धों का उल्लंघन करते हुए आगे बढ़ते चले गए। प्रजातन्त्रवाद की पिछली दशाब्दियों में अच्छी खासी धूम रही है। युग-युग से चले आ रहे राजतंत्र की जड़ें उस प्रजातन्त्रवादी तूफान ने उखाड़ कर फेंक दी। दुनिया के अधिकांश देशों में प्रजातंत्र शासन स्थापित हुए। यों अब अनुभव ने उसमें भी खोट निकाल दी है कि अज्ञ और अनुत्तरदायी लोगों के हाथ में वोट का अधिकार चले जाने से चुने हुए लोगों में अवांछनीय तत्त्वों की भरमार हो जाती है। फिर तो जिन लोगों द्वारा प्रजा पर राज्य होने के पवित्र उद्देश्य से भटक कर निहित स्वार्थों की पूर्ति में लग जाते हैं और प्रजा के हाथ ऐसा कुछ नहीं लगता जिसे पाने के उसे स्वप्न दिखाए गए थे। इस खोट के निराकरण का उपाय न देखकर अब प्रजातन्त्र के प्रति आरम्भिक आकर्षक शिथिल होने लगा है और यह सोचा जा रहा है कि चुनाव पद्धति में कोई ऐसा मौलिक और क्रान्तिकारी परिवर्तन होना चाहिए जिससे प्रजाद्रोही तत्त्वों को प्रजापति बनने की घुसपैठ से रोका जा सके।
दूसरी विचारधारा है मार्क्स का साम्यवाद। इसके लिए भी लोगों का आरम्भिक उत्साह कम नहीं था। आर्थिक समानता का नारा निर्धन और अभावग्रस्त वर्ग को बहुत आकर्षक लगा। गरीबों! तुम्हें साम्यवादी बनकर सिर्फ गरीबी ही खोनी है। “इस आश्वासन ने सहज अर्थ लाभ के सुखद स्वप्नों की वजह से बहुमत को साम्यवाद समर्थक बना दिया। इस की राज्य क्रान्ति के बाद साम्यवाद मात्र दर्शन न बनकर प्रचण्ड तूफान बन गया। एक के बाद एक देश उसकी चपेट में आने लगे। जहाँ शासन सत्ता नहीं हथियाई जा सकी, वहाँ भी साम्यवादियों की मान्यताओं से प्रभावित लोगों की संख्या कम नहीं रहीं।
परन्तु समय बदलते देर नहीं लगी। प्रजातंत्र की तरह साम्यवादी तंत्र के खोट भी अनुभव ने सामने लाकर रख दिए। व्यक्ति को शासन का मूक बधिर गुलाम बनाकर जिस प्रकार अनुगमन के लिए प्रताड़ित होना पड़ा है, उस लोभहर्षक दबाव के कारण लोक चेतना भयाकुल होकर थर्रा उठी। साम्यवादी बनने का मतलब है व्यक्तिगत चेतना की समाप्ति। वह कुछ नए सुधार, सुझाव संशोधन प्रस्तुत करने में असमर्थ होकर बौद्धिक अपंग की तरह सिर्फ जी सकता है। उच्च सत्ता के विरुद्ध कुछ करना तो दूर सोचा भी नहीं जा सकता। साम्यवाद के साथ अधिनायकवाद, जिस प्रकार अविच्छिन्न बनकर प्रकट हुआ, उससे सम्भव है उन देशों की आर्थिक वैज्ञानिक अथवा दूसरी प्रगतियों में सहायक हुई हो। पर व्यक्ति की मौलिकता एवं
स्वतन्त्रता का एक प्रकार से अन्त हो गया है।
यह घाटा इतना बड़ा था जिसकी वजह से सामान्यजन विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह का ही परिणाम रहा कि
रूस में उपजे साम्यवाद की कब्रगाह भी वहीं बन गई। प्रख्यात बर्लिन की दीवार टूटने के साथ ही एक मृग मरीचिका का समापन हो गया।
यूँ सम्पन्न वर्ग की समाप्ति से विपन्न वर्ग की ईर्ष्या को थोड़ा समाधान जरूर मिलता है। हम दुखी तो दूसरे सुखी भी क्यों रहें इस भाव विद्रोह से अवश्य ही साम्य सिद्धान्तों को राहत मिलती है, किन्तु दूसरा स्वप्न पूरा नहीं होता। प्रजा की स्थिति सुधारने की क्वचित् ही गुँजाइश बचती है। राजतंत्र या प्रजातन्त्र वाले देशों की तुलना में साम्यतंत्र के अंतर्गत रहने वाली प्रजा की स्थिति कुछ अच्छी नहीं गई जरूरी ही है। प्रतिपादन ने साम्यतंत्र को अंगीकार करने का अर्थ स्वर्ग राज्य में प्रवेश करना बताया था। पर अनुभव ने बताया कि वह सामंती गुलाम प्रथा की दुःखद स्मृतियाँ ही ताजा कर रही है।
प्रजातंत्र और साम्यवाद की तरह ही तीसरी प्रचण्ड विचारधारा नास्तिकवाद की है। जिसने बुद्धिवाद को बहुत प्रभावित किया है। यों अनीश्वरवाद कोई शासन पद्धति नहीं है फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि जीवन की गतिविधियों को प्रभावित करने में उसका बहुत बड़ा हाथ है। ईश्वरवाद मात्र पूजा उपासना की क्रिया-प्रक्रिया नहीं हैं। उसके पूछे एक प्रबल दर्शन भी जुड़ा हुआ है जो मनुष्य की आकांक्षा, चिन्तन, प्रक्रिया और कर्म पद्धति को प्रभावित करता है। समाज संस्कृति, चरित्र, संयम, सेवा, पुण्य, परमार्थ आदि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने से व्यक्ति की भौतिक सुख सुविधाओं में निश्चित रूप से कमी आती हैं। भले ही उस बचत का उपयोग लोक कल्याण में कितनी ही अच्छाई के साथ क्यों न होता हो। आदर्शवादिता के मार्ग पर चलते हुए जो प्रत्यक्ष क्षति होती है उसकी पूर्ति ईश्वरवादी स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वरीय प्रसन्नता आदि विश्वासों के आधार कार्य करने के आकर्षण सामने आने पर वह ईश्वर के दण्ड से डरता है। नास्तिकवादी के लिए न तो पाप के दण्ड से डरने की जरूरत रह जाती है और न पुण्य परमार्थ का कुछ आकर्षण रहता है। आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करने और शरीर की मृत्यु हो जाने की मान्यता उसे यही सुझाव देती है कि जब तक जीना हो अधिकाधिक मौज मजा उड़ाना चाहिए।
उपासना से भक्ति को अथवा भगवान को क्या लाभ होता है यह सवाल पीछे का है। प्रधान तथ्य यह है कि आत्मा ओर परमात्मा की मान्यता मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व की एक रीति नियम के अंतर्गत बहुत हद तक जकड़े रहने में सफल होती है। इन दार्शनिक बंधनों को उठा लिया जाय तो मनुष्य की पशुता कितनी उद्धत हो सकती है और उसका दुष्परिणाम किस प्रकार समस्त संसार को भुगतना पड़ सकता है। इसकी कल्पना भी कँपा देने वाली है।
निःसन्देह इस युग के महान् दार्शनिकों में से रूसो और मार्क्स की भाँति ही फ्रेडरिक ीनत से की भी गणना की जाती हैं इन तीनों ने ही समय की विकृतियों को ओर उसके कारण उत्पन्न होने वाली व्यथा-वेदनाओं को सहानुभूति के साथ समझने का प्रयत्न किया है। उन्होंने मनःस्थिति के अनुरूप उपाय भी सुझाए है। दुर्बलता बस इतनी रहीं कि समग्रता के स्थान एक पक्षीय सोच प्रस्तुत की गई।
शासन तन्त्र पिछले दिनों निरंकुश राजाओं और सामंतों के हाथ चल रहा था उनके स्वेच्छाचार का दुष्परिणाम निरीह प्रजा को भुगतना पड़ता था। प्रजातंत्र का एवं तदुपरान्त साम्यतंत्र का विकल्प सामने आया। बौद्धिक जगत में ईश्वर की मान्यता सबसे पुरानी और सबसे सबल लोक समर्थित होने के कारण बहुत प्रभावशाली रहीं। लोक मानस को दिशा देने में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि ईश्वरवाद के नाम पर भ्रान्तियों का इतना बड़ा जंजाल खड़ा कर दिया गया हैं। जिससे आस्तिकवादी दर्शन का मूल प्रयोजन ही नष्ट हो गया। निहित स्वार्थी ने नष्ट हो गया। निहित स्वार्थों ने भावुक जनता का शोषण करने में कोई कसर न रखी। इतना ही नहीं अनैतिक ओर अवांछनीय कार्य भी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करने का विधान बन गए। राजतंत्र की दुर्गति ने जिस प्रकार
रूसो और मार्क्स को उत्तेजित किया। ठीक वैसी ही चोटीनत से को ईश्वरवाद के नाम पर चल रही विकृतियों ने पहुँचाई।
उसने अनीश्वरवाद का नारा बुलन्द किया और जनमानस पर से ईश्वरवाद की छाया उतार फेंकने के लिए तर्क शास्त्र एवं भावुकता का खुलकर प्रयोग किया। उसने जन चेतना को पुकारते हुए कहा-ईश्वर की सत्ता मर गई, उसे दिमाग से निकाल फेंको, नहीं तो शरीर पूरी तरह गल जाएगा। स्वयं को ईश्वर के अतीव में जीवित रहने का अभ्यास डालो। अपने पैरों पर खड़े होओ। अपनी उन्नति आप करो और अपनी समस्याओं का समाधान आप ढूँढ़ो अपने सत् को अपनी इच्छाशक्ति से स्वयं जगाओ और उसे ईश्वर की सत्ता के समकक्ष प्रतिद्वन्द्वी के रूप में प्रस्तुत करो। अतिमानव बनने की दिशा में बढ़ो पर जमीन से पाँव उखाड़कर आसमान में मत उड़ो वस्तुस्थिति की उपेक्षा कर कल्पना के आकाश में उड़ोगे तो तुम्हारा भी वहीं हश्र होगा जो ईश्वर का हुआ हैं।”
नीत्से की संगीत की आत्मा से त्रासदी का जन्म प्रकाश की पहली झलक जरथुस्त्र बोला, प्रफुल्लता विवेक पुण्य और पाप से दूर नीति वाक्यों की वंश परम्परा वैग्नर एक चरित्र एंटीक्राइस्ट एके होमों’ इच्छा शक्ति से समग्र समर्थता तक’ पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई। इन सबमें उसने प्रचलित ईश्वरवाद के साथ जुड़ी हुई भ्रान्तियों और तथ्य परक विश्लेषण किया है और बताया है कि इस मान्यता को इसी रूप में अपनाने से व्यक्ति और समाज की कोई भलाई नहीं हो सकती। एक कदम और आगे बढ़कर उसने एक आकर्षक घोषणा की और लोगों से कहा ईश्वर मर गया। हमने और तुमने मिलकर उसे मार दिया।”
जहाँ तक घोषणा की बात थी लोगों को विपर्यवादी मनोवृत्ति को बहुत भाई और उनके प्रतिपादन खूब पढ़े गए। उन पर घर-घर में, चौराहे-चौराहे पर चर्चा हुई। किसी ने भला कहा-किसी ने बुरा माना। जो हो इस प्रतिपादन ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। सर्वत्र उसमें पूछा जाने लगा-यदि ईश्वर नहीं रहा तो उसका स्थानापन्न कौन बनेगा?
जीवन का लक्ष्य क्या रहेगा? संस्कृति किस आधार पर टिकेगी? मर्यादाओं की रक्षा कैसे होगी? समाज का बिखराव कैसे रुकेगा? धर्म आर नीति को किसका आश्रम मिलेगा? प्रेम परमार्थ में किसे क्यों रुचि रहेगी? यही प्रश्न भीतर से भी उभरे। कुछ दिन तो हेकड़ी से वह यही कहता रहा -” जो सत्य है वह असत्य नहीं हो सकता। समस्याओं की आशंका से यथार्थता को झुठलाया नहीं जा सकता। ईश्वर तो मर ही गया है, अब अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझाओ।”
नीत्से की विचारता क्रमशः यह स्वीकार करती चली गई कि ईश्वर भले ही मर गया हो, पर एक अनुशासन के निर्धारक कर्ता का स्थान रिक्त होने से जो शून्यता उत्पन्न होगी, उसे सहज ही न मारा जा सकेगा। उद्देश्य, आदर्श और नियंत्रण हट जाने से मनुष्य जो कर गुजरेगा, वह ईश्वरवादी भ्रान्तियों की अपेक्षा अधिक दुखदायी ही सिद्ध होगा। इसके समाधान में उसने अतिमानव बनने का लक्ष्य सामने रखा। मनुष्य को अपनी इच्छाशक्ति इतनी प्रखर बनानी चाहिए जो उसके व्यक्तित्व को अतिमानव स्तर का बना सके। वह निखरा हुआ व्यक्ति इतना प्रचण्ड होना चाहिए कि जन प्रवाह के साथ बहती हुई विकृतियों पर नियंत्रण स्थापित करने के साधन जुटा सके। मनुष्य जीवन का लक्ष्य अतिमानव के रूप में विकास होना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में उसे इतनी इच्छा शक्ति, उत्पन्न करनी चाहिए जो संकल्पों के मार्ग में आने वाले हर प्रतिरोध का निराकरण कर सके। सामाजिक जीवन में उसे इतना प्रतिभाशाली और साधन सम्पन्न होना चाहिए कि प्रचलित अवांछनीयताओं पर नियंत्रण कर सकने की क्षमता का अभाव अखरे नहीं।
अतिमानववादी की बैसाखी के सहारे लंगड़ा अनीश्वरवाद समग्र माना जाने लगा। इसका पोषण भौतिक विज्ञान ने यह कह कर किया कि ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जो प्रकृति के प्रचलित नियमों से आगे तक जाता हो। इस वैज्ञानिक प्रतिपादन ने मनुष्य की उच्छृंखल अनैतिकता पर और भी अधिक गहरा रंग चढ़ा दिया। तदनुसार वह मान्यता एक बार तो ऐसी लगने लगी कि आस्थाओं का अन्त वाला समय अब निकट ही आ पहुँचा। अतिमानववाद के अर्थ का भी अनर्थ हुआ और यूरोप में हिटलर मुसोलिनी जैसे लोगों के नेतृत्व में नृशंस अतिमानवों की एक ऐसी सेना खड़ी हो गई जिसने समस्त संसार को अपने पैरों तले कुचल देने की हुंकारें भरना आरम्भ कर दिया।
खोट प्रजातंत्र और साम्यवाद की तरह अनीश्वरवाद में भी है। इसका उचित समाधान “आध्यात्मिक समाजवाद” में ही निहित है।
इक्कीसवीं सदी के इस तत्त्वदर्शन को यदि युग दर्शन कहें तो अत्युक्ति न होगी। आध्यात्मिक समाजवाद के तत्त्वचिंतन में आध्यात्मिकता को वैयक्तिक और सामाजिक क्रिया–कलापों का प्रेरणा केन्द्र ऊर्जा स्रोत माना गया है। इससे समर्थता पाकर परिष्कृत और समाज में अनोखी जीवन कला को शिल्प कर सकेगी। समाजवाद को प्रजातंत्र एवं साम्यवाद के मिले-जुले रूप में समझा जा सकता है इसमें आध्यात्मिकता का समावेश होने से एक ऐसी रचना सम्भव हो सकेगी जिसमें व्यक्ति की मौलिकता नष्ट न ही-वह अपने
उत्कर्ष और उन्नति के चरम तक पहुँच सके। साथ ही उसमें ऐसी कोमल भावनाएँ विकसित हो सकें कि वह अपनी उपलब्धियों को सर्व जन हिताय-सर्वजन सुखाय प्रस्तुत करे। साथ ही इस तत्त्व चिन्तन से प्रेरित हुआ समाज स्वयं को ऐसी प्रयोगशाला के रूप विकसित करें जहाँ सभी सुविकसित और सुव्यवस्थित हो रह सकें। नए युग की इस विचार पद्धति में जहाँ प्रचलित दर्शन अपनी पूर्णता खोज सकते है। समाधान तलाशे जा सकते है।