
हम कभी भी पूर्णतया आत्मनिर्भर नहीं!
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संसार का सर्वाधिक गौरव प्राप्त प्राणी होने की विशेषता के साथ ही मनुष्य कितना छोटा है? यह हमें उस समय स्पष्ट दिखाई देता है जब हम उसे जीवन के प्रारंभ से निर्वाण तक परावलंबित निर्भर ही पाते है। मनुष्य का कितना असहाय दीन-हीन स्वरूप उभर कर सामने आता है उसके जीवन का कोई अंश कहीं से भी पूर्णतया आत्म निर्भर नहीं है संसार के अन्य प्राणी जन्म के कुछ समय बाद ही आत्म निर्भर हो जाते है पर मनुष्य तो वर्षों की लंबी सेवा शुश्रूषा लेकर भी पूर्ण स्वावलंबी नहीं बन पाता।
मनुष्य रूप धारण करने की प्रक्रिया में सर्वप्रथम वह मातृ-शक्ति का सहारा पाता हैं। शिशु काल में धाय माँ कुटुंब परिवार की दया तथा स्नेह पाकर बढ़ता है। बालक बनकर माता पिता मित्रों तथा गुरुजनों की दया पर सुसंस्कृत बनता है। किशोर तथा युवा अवस्थाओं में भी उसे अभिभावकों की कमाई देख-भाल द्वारा ही स्वावलंबी बनने की दिशा प्राप्त होती है। अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य बनने तक वह पूर्ण आश्रित ही रहता है इस निर्भरता से मुक्ति पाना भी तो उसके वश की बात नहीं है। उसे इस सामाजिक सहयोग सद्भावना का सदा ही आभारी रहना है। यह ऋण उसके निर्माण के गरिमा के साथ कितना भारी है यह तो मनुष्य अपनी अपनी स्थिति दशा के अनुसार समझ ही सकता है।
कुछ करने की योग्यता पाकर क्यों वह आत्म निर्भर बन जाता है? शरीर को चलाने के लिए उसे भोजन चाहिये भोजन जीवन को जाग्रत ही रखता है उसकी रक्षा नहीं कर सकता। जीवन ज्वाला की जाग्रति मनुष्य के अस्तित्व हेतु अति आवश्यक है। किंतु यदि उसे वस्त्र निवास आदि सहित रक्षा कि साधन न प्राप्त हुए तो वह जीवित कैसे रह सकता है? उसका जीना असंभव यदि नहीं तो कठिन अवश्य हो जायेगा। पेट भरा होने पर भी, ग्रीष्म की लू-लपट शीत की बर्फीली ठंड तथा वर्षा की अति वृष्टि अनावृष्टि आदि से रक्षा के साधनों से हीन कितने ही मनुष्य प्रति-वर्ष जीवन से हाथ धो बैठते हैं। भोजन द्वारा पोषित जीवन को सुरक्षित तथा गतिमान रखने के लिए मनुष्य को अन्य अनेक साधनों की आवश्यकता है। इन साधनों का भी मनुष्य के जीवन में महत्त्व है।
गतिमान, प्रगतिशील जीवन के लिए बहुत कुछ चाहिये और वह सब उसे एक साथ चाहिये तभी यह गाड़ी चलेगी। अन्यथा केवल पेट्रोल-तेल से भरी उस मोटर-गाड़ी की सी दशा होगी जिसके ऊपर न कोई ड्राइवर था। और न छाया की व्यवस्था। कुछ दिनों बाद ही उसके कल पुर्जे जम गये, तेल भी जमने लगा और चलने वाली मोटर गाड़ी अचल बन कर कबाड़ के रूप में नीलाम कर दी गई। कबाड़ी चतुर था। पूरी मोटर गाड़ी की धुलाई सफाई कराकर जाँच लिया। जमा हुआ तेल निकलवा कर गाड़ी पर छाया की व्यवस्था के साथ-साथ अच्छा पेट्रोल तथा तेल भरवा दिया। चलाना वह स्वयं जानता था। प्रयास करने पर गाड़ी चलने लगी। अब वह सवारियाँ ढोती थी। अच्छा लाभ होता देख स्वामी भी सुखी था। इस शरीर रूपी गाड़ी को भी सुचारु रूप से चलाने के लिये इसकी प्रकृति के अनुकूल अनिवार्य साधनों की आवश्यकता है शिक्षा उचित देख-भाल और सुरक्षा भी तो महत्त्वपूर्ण आवश्यकतायें है।
शरीर को रक्षा, सज्जा तथा लोक मर्यादा के निर्वाह हेतु मनुष्य को वस्त्र चाहिये वस्त्रों का निर्माण वृक्षों की छाल पशु चर्म ऊँट भेड़ आदि पशुओं के बाल रेशम के कीड़े वृक्षों के दूध लकड़ी बाँस कपास आदि के अलावा कृत्रिम यार्न द्वारा भी होता है। इनके लिये बड़े-बड़े कल-कारखानों की स्थापना की गई है। औद्योगीकरण की दिशा यहीं से प्रारंभ होती है। बड़े शहरों में कपड़ा मिलों का जाल फैला हुआ है और देहातों में हाथ से वस्त्र उद्योग चलता है। इस बस में लगे कर्मचारी, प्रशासक, नियंत्रक निरीक्षक आदि ओर इसके द्वारा फैलने वाले वायु दूषण से प्रभावित नागरिकों का योग दान वस्त्र धारण करने वाले मनुष्य के जीवन में ही है। इतना तो वस्त्र के सादे रूप में ही है। उसकी काट छाँट साज सज्जा तथा सिलाई में भी अलग-अलग शिल्पकारों का सहयोग लेना होगा। इस सहयोग का प्रतिफल मनुष्य को देना ही है। इस दिशा में भी हम किसी न किसी स्तर पर ऋणी हो रहे है।
आवास के लिए झोपड़ी ही बनाई जाय तो क्या किसी अवलंबन की आवश्यकता नहीं होती? किसी न किसी पर आश्रित तो होना ही पड़ेगा हवेली बनाने में बड़े बड़े सहयोग सहारे चाहिये तो झोपड़ी के लिये भी तो कुछ सहयोग सहारा अवश्य ही लेना होगा। जिन अवलंबी की देन आवास जैसी महान् वस्तु के रूप में हो मनुष्य उन अवलम्बनों का ऋणी ही कहलायेगा। हम उनके ऋण को नकार नहीं सकते। ऐसी स्थिति में हमारा मानवीय कर्तव्य होता है कि हम उस ऋण का भुगतान भी कर दे।
भावनात्मक ऋण की माप तौल और उसका मूल्यांकन बुद्धिमानी की बात नहीं है। उपकार का कोई मूल्य नहीं हो सकता। सद्भावना सहयोग-वृत्ति की जाग्रति में छिपे हृदय के करुणा दया तथा ममत्व जैसे कोमल भावों का मूल्य आँकना सर्वथा उपहासास्पद ही है गणित के सूत्र में तो ऋण तथा धन के अंकों की समानता शून्य का परिणाम देती है। यह गणित की शैली हमारे दैवी-गुणों की सूक्ष्मता को छूने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकती। अतः जब परंपरा गुण तथा स्वरूप से रहित अदृश्य भावना की तौल करनी है तो वह हमारी भावानुभूति पर आधारित आंतरिक संतुष्टि के रूप में ही हो सकती हैं जितना लिया है उतना ही देंगे यह बात इस संबंध में कभी नहीं लागू होती। इस सबके लिए हृदय की उदात्त भावना से प्रेरित सद्विचारों के संकल्प का निर्वाह कार्यों में कर देना ही सीधा और सरल उपाय है इस उपाय द्वारा मनुष्यता को ऋण मुक्त कर के देवत्व में बदला जा सकता है।
कहा जा सकता है कि ऋण किसका और कैसा? प्रकृति प्रदत्त गुणों के द्वारा या ईश्वर की प्रेरणा से सब अपने कर्तव्यों का पालन अलग-अलग रुचि तथा ढंग से कर रहे है। ठीक है कर्तव्यों का पालन अलग-अलग रुचि तथा ढंग से कर रहे है। ठीक है कर्तव्यों के पालन का ही निर्वाह तो वाँछित है फिर तो हमारा ऋण चुकाने का हल स्वयं प्रस्तुत हो जाएगा पड़ोसी का बच्चा चोट खाने वाला था कि आपने उसे झपट कर बचा लिया। हो सकता था कि आप झपट कर क्रिया करने में स्वयं चोट खा जाते पर उस समय आपको अपने लिये सोचने का अवसर ही न था। एक क्षण भी रुक कर अपना हित-अनहित सोचे बिना ही कर्तव्य बोध और निर्वाह स्तुत्य है। किसी ने किसी असहाय की सहायता की निःशुल्क पाठशालाओं द्वारा निर्धनों की शिक्षा का प्रबंध कर दिया तो क्या वह अपना ऋण चुकाने में नहीं लगा हुआ है।
मनुष्य की भावनात्मक दृष्टि में समस्त संसार का हित निहित है। मनुष्य को अपने जाग्रत अंतःकरण द्वारा प्राणि जगत मात्र की सेवा हेतु स्पष्ट संकेत मिलते रहते है इस सेवा भावना का ऋणी प्रत्येक मनुष्य है। समाज सेवित जब समाज सेवी का स्पष्ट संकेत रूप प्रदर्शित करता हुआ अपना अस्तित्व समाज में आवश्यक सिद्ध कर देता है तो समाज उसकी प्रशंसा करता नहीं अघाता। उपकार के बदले उपकार सिद्ध कर देता है तो समाज उसकी प्रशंसा करता नहीं अघाता। उपकार के बदले उपकार की भावना निकृष्ट बात है। यह बिलकुल साधारण स्तर तक ही सीमित है। यही प्रत्युपकार ही सीमित है। यही प्रत्युपकार की भावना है। विचारों में केवल कल्याणकारी कार्यों द्वारा लाभ हित तथा सुख पहुँचाने की दृढ़ता ही श्रेष्ठ है। यथेष्ट भी यही है। अँगरेजी कहावत जियो और जीने दो की भावना इसी आधार पर परिकल्पित पढ़ता सुनता दुहराता देखता हुआ भी अपने कर्मों की अनुरूपता देकर अपना बोझ नहीं उतारता। संकोच लोभ भय आदि के भूतो द्वारा वह आंतरिक शुद्ध प्रेरणा से विलग ही कर्मरत रहता है।
मर्यादा का निर्वाह तथा उत्कृष्टता की स्थापना अपने उत्तर दायित्वों तथा दायित्वों के निर्वाह द्वारा ही होती है। इसके लिए कठोर साधना से सधा हुआ तन और मन चाहिये। विवेक का तराजू देकर ईश्वर ने मनुष्य में अपनी स्थिति जताई है। फिर हम उसका निर्वाह करने में पीछे क्यों रहें? क्यों न आलस्य निद्रा मोह त्याग कर अदम्य साहस और श्रम द्वारा समाज को युग-बौद्ध युग निर्माण की सज्जा के उपयुक्त बना डाले। यही वस्तुतः युगधर्म है आज के लिए हम सबके लिए निर्धारित एक राजमार्ग जिस पर चलकर परमार्थ करते हुए कोई भी सच्चे अर्थों में स्वार्थ निभाता चल सकता है। जीवन दर्शन का सार यही है।