
हम सतत् चलते रहेंगे प्रज्ञावतरण (Kavita)
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रात हो कितनी भयंकर, हो चुका अवतार प्रज्ञा रूप रखकर प्रभु पधारे।
वायु का विकराल हो स्तर, तभी जागृति शंख बजता हर नगर हर द्वार द्वारे॥
माँ! प्रतिज्ञा है हमारी, हम सतत् चलते रहेंगे, हम सतत् चलते रहेंगे।
घर बने मंदिर मनों के दीप अर्चन के जले है।
माँ! तुम्हीं ने तो हमें तप-त्याग का जीवन सिखाया,
लोकहित चिंतन-समर्पण स्नेह अपनापन सिखाया।
इस धरा के व्यक्ति ही अब देवता बनने चले है॥
आरती के स्वर सुनो प्रति गेह में संध्या सकारे॥
पाठ वह भूलें अगर हम, स्वार्थ की पकड़े डगर हम,
ते अविद्या है हमारी जन्म-जन्मों का जमा था धुल गया वह जाप से मल।
हम सतत् चलते रहेंगे दीप से जलाते रहेंगे।
की कृपा गुरु ने बना दी आत्मा यह अधिक प्रांजल
निष्कपट मन से सभी से प्यार हम करते रहेंगे,
नवल स्त्रजन में लगाया-भाग्य ही खोले हमारे।
हर दुःखी जन के दुखों का भार कम करते रहेंगे, श्रेष्ठ ब्राह्मण बन रहेंगे,
कष्ट हँस हँस कर सहेंगे लिख सविता साहित्य नाम मिटा दिया अज्ञान-तम का।
यह प्रव्रज्या है हमारी, दी-विवेक फुहार-मिटा इस जगत से ताप गम का दीप्ति-विजय मशाल की-दुर्भावना के असुर हारे॥
हम सतत् चलते रहेंगे, बीज-से गलते रहेंगे
माँ! तुम्हारे नयन तारे पूत बनकर जाएँगे हम,
विश्व के हर देश में युग-दूत बनकर जाएँगे हम।
विश्व से मिटा असुन्दर-ताज सत शिव को पहनाया॥
सो गया था सतोगुण-गाकर प्रभाती वह जगाया॥
दुष्ट की अन्त्येष्टि सज्जन साधु खुद गह बाँहें तारे॥
यदि न माँ की बात मानी,
पीर औरों की न जानी, तो अवज्ञा है हमारी,
हम सतत् चलते रहेंगे अब न प्रण टलते रहेंगे।
शचीन्द्र भटनागर-माया वर्मा