
शतहस्तं समाहर, सहस्त्रहस्तं संकिर
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हममें से न जानें कितने लोग यह सोचते रहते हैं कि उनके पास जितनी धन सम्पत्ति इकट्ठी होगी, उसी हिसाब से उनके भाग्य और पुरुषार्थ का लोहा मानेंगे। उन्हें बड़प्पन का गौरव मिलेगा। इनमें से ज्यादातर अपनी इस सोच को पूरा करने के लिए कुछ भी करने के लिए उतारू हो जाते है। भले इसके लिए उन्हें खुद को कितना भी बुरा और घिनौना क्यों न बनाना पड़े? इसी सनक ने अनेकों को बढ़-चढ़ कर बहुमूल्य सम्पदा का स्वामी बनने के लिए प्रोत्साहित किया। वे उस संचय का उद्धत प्रदर्शन करके लोगों की आँखों को चौंधियाने की कोशिश भी करके रहे। हो सकता है उनके आस-पास घिरे चापलूसों ने उनकी इन सनक का समर्थन भी किया हो। पर अन्ततः इसके जो परिणाम सामने आए, उस समय इनका साथ देने वाला कोई न रहा।
ऐसों का साथ देता भी कौन है? इनकी सम्पत्ति का प्रदर्शन देखकर तो लोगों के मन में ईर्ष्या ही पैदा होती है। उसे अपने अधिकार में करने के लिए अनेकों के मुँह में से लार टपकती है और जैसे भी बने वैसे उसे हथियाने के लिए दाँव–घातों में से हर एक का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार के आक्रमणों को आमंत्रित करने का श्रेय या दोष उस अनावश्यक सम्पत्ति के संग्रह और उसके उद्धत प्रदर्शन को दिया जा सकता है।
कोहिनूर हीरे की कहानी कुछ इसी तरह की है। वह जहाँ भी गया, जहाँ भी रहा अपने साथ अनेकों विपत्तियाँ समेट बटोर कर ले गया और उसे रखने वाले के लिए प्राण संकट के सरंजाम जुटाता रहा। शाहजहाँ ने तख्तोतास इसीलिए बनवाया था कि वह संसार के सबसे वैभवशाली लोगों में गिना जा सके। उसकी पीढ़ियाँ उस पर बैठकर पुरखों के पुरुषार्थ के गीत गाती रहे। पर वैसा हो न सका जैसा चाहा गया था। वैभव का सम्पादन करने वालों की दुर्भाग्य से एक आँख कानी होती है। वे एक पक्षीय एकांगी विचार करते है। यह नहीं देख सोच पाते कि सम्पत्ति संग्रह का एक विपरीत पक्ष भी है और वह इतना घातक है कि महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति को अत्यन्त कष्टकारक परिस्थितियों में बदल सकता है।
कोहिनूर की बात भी कुछ ऐसी ही है। भागवत् पुराण में इसका उल्लेख स्यमतं मणि के रूप में मिलता है। द्वारिका के एक नागरिक सत्राजित के पास वह थीं। कृष्ण ने उससे कहा यह मणि राजा के लायक हैं। उसे महाराज उग्रसेन के पास पहुँचाना चाहिए। सत्राजित इस पर तैयार न हुआ, तो घटनाक्रम ने दूसरा ही मोड़ ले लिया। सत्राजित का भाई प्रसेनजित उसे सदा छाती से लगाए फिरता था। एक दिन सिंह ने प्रसेनजित को मार कर वह मणि छीनी, सिंह को रीछ ने मारकर उस पर कब्जा जमाया। रीछ की भी खैर नहीं रहीं। श्रीकृष्ण भी उसे पाकर चैन से न बैठ सके और बहेलिए के हाथों मारे गए। इसके बाद वह पाण्डुवंशियों के पास पहुँचा। परीक्षित जन्मेजय चन्द्रगुप्त मौर्य, बिम्बसार अशोक ब्रहद्रथ पुष्पमित्र एक के बाद एक के पास पहुँचने की कथाएँ भी बड़ी कष्टकर है। उसका हस्तांतरण शान्ति और सद्भावना पूर्ण नहीं हुआ वरन् दुरभिसंधियाँ और हत्याएँ ही उसे इधर उधर लिए फिरी।
कनिष्क, चन्द्रगुप्त, हर्षवर्धन के बाद वह मालव नरेश यशोवर्मा के पास पहुँचा। उनके वंशज राजा रामदेव पर अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया और मालव देश को पद दलित करके उस हीरे को हथिया लिया। इसके बाद दिल्ली के बादशाहों के अधिकार में वह देर तक बना रहा इब्राहिम लोदी की पराजय के बाद उसकी बेगम दिल्ली छोड़कर आगरा आ गयी थी। उस पर हुमायूं ने हमला कर दिया। इज्जत बचाने के लिए बेगम को हीरा हुमायूं को भेंट करना पड़ा।
हुमायूं की मौत सीढ़ी पर से फिसलने के कारण हो गयी। वह कई पीढ़ियों तक उसके वंशजों के पास बना रहा। मुहम्मदशाह पर ईरानी लुटेरे नादिरशाह ने हमला कर दिया और उसकी पगड़ी में छिपा हीरा झटक कर अपने कब्जे में कर लिया। नादिरशाह के मुँह से उसे देखते ही शब्द निकला कोह ए नूर अर्थात् प्रकाश का पर्वत। इसे लेकर प्रचुर सम्पदा के साथ वह वापिस लौटा तो रास्ते में भयानक तूफान में उसकी सेना तथा सम्पदा का बड़ा भाग नष्ट हो गया। वह चैन से न बैठ सका। उसके भतीजे अली कुलीखाँ ने ही उसका काम तमाम कर दिया। उसका यह लाभ अफ़गान सेनापति अहमदशाह अब्दाली से न देखा गया, उसने अली कुली खाँ को मौत के घाट उतारा और कोह-ए-नूर अपने कब्जे में कर लिया।
अहमदशाह अब्दाली के बाद उसका पुत्र तैमूरशाह उस हीरे का अधिकारी बना। वह जब मरा तो अपने पीछे तेईस बेटे छोड़ गया। उनमें सत्ता के लिए घमासान युद्ध हुआ। उसमें जमानशाह जीता। उससे हीरा छीनने के लिए उसके विश्वासी भाई महमूदशाह ने ही उसे कैद में डाल दिया और यंत्रणा देकर आँखे निकलवाई। महमूद को कुचल कर शाहशुजा ने उसे पाया। शुजा कैद में पड़ा हुआ था। उसने अपनी मुक्ति के लिए पंजाब के महाराज रणजीत सिंह से अपनी बेगम को कोहिनूर देने का वायदा किया। महाराजा ने काबुल के वजीर फतह खाँ को साथ लेकर शाहशुजा ने छूटने पर हीरा देने में आनाकानी की तो उसे महाराज ने यंत्रणा देकर विवश कर दिया। उसे देना तो पड़ा पर वह अन्य हीरों के साथ भाग खड़ा हुआ और अंग्रेजों के साथ जा मिला।
महाराजा रणजीतसिंह के मरने के बाद उनका राज्य अंग्रेजों के हाथों में चला गया और साथ ही बहुमूल्य हीरा भी। कोहिनूर प्रख्यात है बड़ा है इसलिए उसकी चर्चा भी बड़ी है। छोटी-मोटी रत्न राशियाँ भी ऐसी ही विपत्ति भी ऐसी होती है जो सम्बद्ध लोगों को संत्रस्त करें पर ऐतिहासिक घटनाओं में स्थान न पा सके। हश्र प्रायः एक जैसा ही होती है।
ऐसी ही दुर्गति शाहजहाँ के उन अरमानों की हुई जिनमें वह विपुल सम्पदा का स्वामी बनकर गौरवशाली बनने के स्वप्न देखता रहता था। मयूर सिंहासन शाहजहाँ ने बनवाया था। उसमें 12 करोड़ रुपए के रत्न जड़े थे। उसके निर्माण में सात वर्ष लगें और तत्कालीन श्रेष्ठतम रत्नशिल्पियों ने उसे बनाने में अपना पूरा श्रम, समय एवं मनोयोग लगाया। इसमें पन्ने से बने पाँच मनोयोग लगाया। इसमें पन्ने से बने पाँच खम्भों पर मीनाकारी का छत्र बना हुआ था। पाये ठोस सोने के बने थे। खम्भों पर दो-दो मोर नृत्य करते हुए बनाए गए थे। प्रत्येक जोड़े के बीच में हीरे लाल मोती पन्ने आदि रत्नों से जड़ा एक एक पेड़ था। बैठने के स्थान तक पहुँचने के लिए तीन रत्न जटित सीढ़ियाँ थी। उसमें कुल मिलाकर ग्यारह चौखटें थी। मीनाकारी का स्वर्ण छत्र देखते ही बनता था। तख्तताऊस को अपने समय की अद्भुत और बहुमूल्य कलाकृति माना जाता था।
जिन अरमानों के साथ शाहजहाँ ने उसे बनवाया था, वे पूरे न हुए। वह कुछ ही दिन उस पर बैठ पाया था कि उसके बेटे औरंगजेब ने उसे पकड़ कर कैद में डाल दिया। औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ। मुहम्मदशाह राज्याधिकारी था। उस पर ईरान का नादिरशाह चढ़ दौड़ा और भारी लूट खसोट के अतिरिक्त तख्त ताऊस भी फारस उठा ले गया। उसी के एक कुटुम्बी ने उसकी हत्या कर दी और उसका सारा माल असबाब छीन लिया, जिसमें यह मयूर सिंहासन भी सम्मिलित था। लुटेरों ने उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले और उन्हें आपस में बाँट दिया। बटवारे में उस शानदार शामियाने की भी कतख्योत कर दी गई जो उस सिंहासन के ऊपर ताना जाता था और रत्नों की झिलमिलाहट में आकाश में चमकने वाले सितारों की बहार देता था।
इसके कुछ समय बाद ईरान की सत्ता आगा मुहम्मद शाह ने सम्हाली। उसने नादिरशाह के लुटेरे वंशजों को पकड़ कर भारी यातनाएँ दी और लूट का सारा माल उगलवा लिया। इस वापसी में मयूर सिंहासन के टुकड़े शामिल थे। जौहरियों ने उन टुकड़ों की जोड़ गाँठ कर एक नया सिंहासन बनाया इसके बाद कभी वहाँ अराजकता और गृह युद्ध का सिलसिला चलता रहा और उसे फिर लूट लिया। रत्नों को उखाड़ लिया और कीमती पत्थरों को फिर भी काम आने की दृष्टि से समुद्र में किसी खास जगह छिपा दिया गया। छिपाने वाले उस स्थान को बता नहीं सके और वे अवशेष अभी भी ईरान के समुद्र तट के निकट उथली जल राशि में छिपे पड़े हैं। ढूँढ़-खोज में अभी तक उनका पता नहीं चल सका।
सम्पत्ति का जखीरा जमा करने की सोच मनुष्यता पर न जाने कितने आघात करती रहेगी। बड़ा आदमी बनने की साध में न जाने कितने आघात करती रहेगी। बड़ा आदमी बनने की साथ में न जाने कितने रावण हिरण्यकश्यप से लेकर नेपोलियन सिकन्दर अपनी प्रतिभा को नष्ट कर चुके और दुखदायी अन्त देख चुके। हमारी आंखें यदि उनके अनुभवों से सीख सकें और संग्रह की अपेक्षा सदुपयोग के लिए अपना उपार्जन प्रयुक्त कर सके तो कितना अच्छा है।