Magazine - Year 1999 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
परमेश्वर विष्णु के वाहन! अपने ही इस आत्मपरिचय ने गरुड़ को गर्व से भर दिया। वह सोचने लगे, विष्णु का काम मेरे बिना चलना संभव नहीं। मेरी सेवा के बिना विष्णु एक डग भी नहीं चल सकते। संसार में मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, विष्णु स्वयं मेरे अधीन है। मैं सब कुछ कर सकता हूँ। यही सोच कर गरुड़ ने साँपों का नाश करना शुरू कर दिया। जहाँ कहीं कोई साँप मिलता गरुड़ उसे निगल जाते, मार डालते। साँपों में हाहाकार मचाना स्वाभाविक था। वे गरुड़ से भयभीत हो इधर-उधर भागने लगे और अपनी सुरक्षा के उपाय खोजने लगे। साँपों का बाहर घूमना-फिरना बंद हो गया।
आखिर साँपों ने एक सभा की। सभा का अध्यक्ष शिव के प्रमुख मणि को बनाया गया। साँपों ने गरुड़ से मुक्ति पाने के उपायों पर विचार करना शुरू किया। कई प्रकार के उपाय सोचे गए, पर कोई भी उपाय गरुड़ को वश में करने का सही प्रतीत नहीं हुआ। अंततः अध्यक्ष मणि ने कहा- मैं साँप जाति के विध्वंस को रोकूँगा। आप चिंता न करें, मणि अश्वासन पर सभा उठ गई।
मणि ने शिव की भक्ति की। मणि की भक्ति से शिव प्रसन्न हुए। उन्होंने मणि से वरदान माँगने को कहा, मणि ने शिव से वर माँगा- भगवान्! मुझे वर दें की गरुड़ मुझे मार न सके। शिव ने तथास्तु कहा और अपने लोक चले गए।
मणि घूमते हुए तुरंत विष्णुलोक पहुँचा। विष्णुलोक में वह इधर-उधर घूमने-फिरने लगा। घूमते-घूमते उसे गरुड़ ने देख लिया। अपने शत्रु को अपने ही लोक में देख गरुड़ का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसने कहा अरे मणि! तेरी इतनी हिम्मत की तू मेरे ही लोक में इस तरह स्वतंत्रता से घूम रहा है।
इतना क्रोध न करें, महाराज! आप शाँत हो। हमारी जाति का नाश करके आप को क्या लाभ होगा? मणि ने विनम्रता से कहा।
गरुड़ कहने लगे- मैं साँपों का शत्रु हूँ। मैं उनकी जाति का नाश करके ही चैन की साँस लूँगा। मैं तुझे भी खाऊंगा, पर इस समय नहीं। इस समय मुझे भूख नहीं है। मैं आज शाम को तेरे नरम-गरम ताजे माँस से अपनी भूख शाँत करूँगा और गरुड़ ने मणि को एक सुरक्षित स्थान में बंद कर दिया। शाम हुई, शिवलोक में आज मणि नहीं था। नंदी को इसकी जानकारी मिली। वह शिव के पास पहुँचे उन्होंने शिव को मणि के शिवलोक में न होने की बात कही। शिव ने ध्यान लगाया, पता लगा की मणि विष्णुलोक में बंदी हैं। उन्होंने नंदी को कहा- नंदी! मणि को गरुड़ ने विष्णुलोक में बंदी बना लिया है। वह उसको खाना चाहता है अतः तुम जल्दी से विष्णुलोक जाओ। भगवान् विष्णु को हमारा सन्देश कहना कि वे मणि को गरुड़ से मुक्त करवा दें।
विष्णु ने नंदी से शिव का संदेश सुनकर तुरंत गरुड़ को बुलाया और मणि को मुक्त करने का आदेश दिया।
गरुड़ ने विष्णु की बात सुनी, बात सुनकर वह आग बबूला हो गया। आवेश में बोला- आप कैसी बातें करते हैं। मैं मणि को आज मुक्त नहीं करूंगा। आज मैं उसे खाकर अपनी भूख शाँत करूंगा। भगवान् मैंने आपकी बहुत सहायता की है। आप यह न भूलें कि आपकी हर विजयश्री के लिए मैं ही निमित्त हूँ, आपकी सभी यात्राएँ मेरे ही कारण संपन्न हुई हैं। विष्णु गरुड़ की बात सुनकर शाँत रहे। वे मन-ही-मन सोचने लगे की गरुड़ को अहंकार हो गया है। अहंकार दूर न होने पर इसका अनिष्ट हो जाएगा। अतः उन्होंने गरुड़ को शाँत होने को कहा। गरुड़ के कुछ शाँत होने पर उसे थपथपाकर विष्णु बोले- गरुड़ हमें तुम पर गर्व है! तुम्हारे कारण ही हम इधर-उधर घूम सकते हैं। यह सच है कि कई विजय हमें तुम्हारे कारण ही मिली हैं। तुमने हमारे भारी-भरकम शरीर को कोसों दूर तक ढोया है और प्यार भरी बातों में विष्णु ने केवल अपने दाहिने पैर का अंगूठा गरुड़ पर रख दिया।
भगवान् विष्णु ने अपना अंगूठा गरुड़ की पीठ पर रखा ही था कि गरुड़ तिलमिला उठे। उनको लगा कि भारी बोझ उन पर आ गया है। वह बोझ के नीचे दबकर मर जाएगा, उसके प्राण निकल जाएँगे। वह क्षणभर तो छुप रहा। भगवान् से भला अपना अंगूठा हटाने को कैसे कहें, पर जब उससे सहन नहीं हुआ तो बड़ी दीनता से बोले- भगवान् जरा अंगूठा........ मैं दबकर पिसा जा रहा हूँ।
क्यों अंगूठे से क्या हुआ? तुमने तो हमारा शरीर कोसों दूर ढोया है। घोर आश्चर्य! भगवान् बोले।
गरुड़ अब तक सारी बातें समझ चुके थे। वह धीरे-धीरे बोले- भगवान् मुझे क्षमा कर दें, मुझे अहंकार हो गया था। आपने मेरा अहंकार नष्ट कर के मेरा उपकार किया है मैं मणि को अभी मुक्त कर दूँगा। मुझे क्षमा कर दें भगवान्!
भगवान् विष्णु ने अपना अंगूठा गरुड़ के शरीर से हटाया तो उनकी रुकती हुई सांसें चलने लगी। उन्होंने इस सत्य का गहराई से अनुभव कर लिया कि भगवत्कार्य में कोई भी कर्ता नहीं, मात्र निमित्त ही होता है। अपने से कितना भी बड़ा एवं विशिष्ट कार्य सम्पन्न हो जाने पर भी यदि स्वयं को निमित्त मात्र ही माना जाए, तो अहंकार नहीं होता।