Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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महाविनाश समीप लाती है महामारी
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आज उपभोक्तावाद की भरमार है। उपभोक्तावाद की इस दौड़ में लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। लाभ कमाने की इस होड़ ने लोभवृत्ति को जन्म दिया है। लोभ एवं लालच स्वस्थ समाज के निर्माण में हमेशा से ही एक बड़ी बाधा रहे है। लालच उत्पादन और इसके अनुपात में आय को नहीं देखता, बल्कि अधिक-से-अधिक मुनाफ़ा करना चाहता है। वह ओर अधिक पा लेने की कोशिश एवं प्रयास में जुट जाता है। अधिक मुनाफे का निर्धारण अधिकतम होने तक भी नहीं हो पाता। यही वह निश्चित वजह है, जिसके कारण खाद्य–पदार्थों में अपमिश्रण का कर्म चल पड़ा है। इससे समाज में रोग दूर रोगियों की संख्या में भारी वृद्धि हो रही है। इसका प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट प्रमाण पिछले दिनों आई भयानक रोगों की बाढ़ है। दूध में पानी, चावल में कंकड़, हल्दी में लाल मट्टी आदि की मिलावट अब तो पुरानी बात हो गयी है। इन दिनों तमाम तरह के रासायनिक पदार्थों को भोज्यपदार्थों में मिलाये जाने का प्रचलन है। विकसित देशों में खाद्य-पदार्थों में मिलाये जाने वाले अप्राकृतिक तत्वों की संख्या २०००० से भी अधिक है। आज से ३ वर्ष पूर्व प्रमुख चिकित्सा पत्रिका लैंसेट ने चेतावनी दी थी कि ब्रिटेन में एक व्यक्ति औसतन पौंड जहर प्रतिवर्ष खा रहा है। आज सारे संसार में ५ लाख से भी अधिक रसायन व्यवहार में लाये जाते है। यदि इन रसायनों को एक साथ वातावरण में छोड़ दिया जाए, तो यह मानव-जीवन के साथ-साथ वनस्पति एवं जीव-जंतु तक का जीवन खतरे में डाल सकते है।
प्रसिद्ध पत्रिका 'आउटलुक' के अनुसार, आज बाजार में उपलब्ध कोई भी खाद्य-पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें घातक रासायनिक पदार्थों की उपस्थिति न हो। भोजन जो जीवनदायक होता है वह विषाक्त एवं घातक होने लगा है। विभिन्न आइसक्रीमों, बिरयानी, जलेबी, समोसे और मिठाइयों में जो चटक रंग प्रयोग किये जा रहे हैं, ये रसायन विषैले और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। बैंगलोर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के विशेषज्ञों के अनुसार, मिठाइयों में प्रयुक्त रंग औद्योगिक डाई श्रेणी में आते हैं। इन्हें मुख्यतया वस्त्र रंगने के लिए बनाया जाता है। इन विषैले रंगों से गुर्दे एवं कैंसर के रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है। नमकीन, सेब, जलेबी और मुगलई पुलाव का पीलापन देने के लिए इनमें टानील येलो रंग मिलाया जाता है। इससे कैंसर, एनीमिया, लकवा और युवाओं में दिमागी पिछड़ा जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। दाल को गाढ़ा पीला करने के लिए भी इस रंग का प्रयोग किया जाता है। लाल- मिर्च में सुडान रेड की मिलावट की जाती है, जिससे लकवा और कैंसर की शिकायतें मिली है। समोसा, टमाटर कैचप, चीज़, मशरूम आदि में नाइट्रोसोमाइन्स मिलाये जाते हैं। ये रसायन कैंसर जनक होते है। मिलावट का सिलसिला यही नहीं थमा है, बल्कि इसने काफी विकराल रूप धारण कर लिया है। यह अपमिश्रित चीनी में चाक पाउडर, सिरके में मिनरल एसिड, नमक में सफेद पत्थरों का चूरा, केसर में मक्के के फूल, हिंग में खड़िया मिट्टी, पीसी मिर्च में ईंट का चूरा, हल्दी में गेरू, काली मिर्च में पपीते के बीज, पीसी हुई धनिया में लकड़ी का बुरादा, मीठी सुपारी में सेक्रीन आदि की मिलावट का रूप लेता है।
दूध में पानी की मिलावट तो आम बात हो गयी है लेकिन अब तो इसमें कास्टिक सोडा, यूरिया, हाइड्रोजन पराक्साइड, पामोलिन, तथा डिटरजेंट पाउडरों का भी इकरना शुरू कर दिया है। इंडियन-काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च द्वारा की गयी जाँच-पड़ताल के उपरांत स्पष्ट किया गया है कि गर्भस्थ एवं दूध पीते शिशु भी मिलावट एवं भोजन की विषाक्तता से मुक्त नहीं है। भारत में माताओं के दूध में डी. डी. टी. तथा डी. डी. एल. की मात्रा कही अधिक होती है। लुधियाना व फरीदकोट में किये गए अध्ययन में यह मात्रा क्रमशः १७ण्१८ तथा २६ण्६६ पी. पी. एम. है। इसका कारण है - भोजन में मिलावट।
यह मिलावट माताओं में कैंसर एवं बच्चों में शारीरिक व मानसिक विकलांगता बढ़ा रही है दूध एवं इससे निर्मित खाद्यपदार्थों में ५ से ३ फीसदी तक वर्जित रंगों का प्रयोग किया जाता है।
पिछले दिनों हुई तेल में मिलावट ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए तथा सभी सामाजिक पहलुओं को दरकार कर दिया। अभी हाल में ही सरसों के तेल में आर्जीमोन ( भटकैया ) के बीजों से निकले तेल कि ४० प्रतिशत की मिलावट पायी गयी है। वैज्ञानिकों के अनुसार सरसों के तेल में १.१७ प्रतिशत की मिलावट भी ड्रोप्सी महामारी के पनपने के लिए पर्याप्त होती है। इसके अलावा सरसों के तेल में बटर येलो, अलसी तेल और अन्य प्रकार के विषैले कचरों की भी मिलावट पायी गयी है यह स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है। ड्राप्सी का इतिहास आर्जीमोन से जुड़ा हुआ है। आज से १२१ वर्ष पूर्व ड्राप्सी को भारत में ही पहचाना गया था। १८७७ में मुँबई में पाश्चात्य वैज्ञानिक लिओन ने इसके विषाक्त प्रभाव का उल्लेख किया था। सन ११८० के दशक में इस बीमारी को टॉक्सिक ऑयल सिल्ड्रोम का नाम दिया था। ११८८ में भारत में पुनः इसका पदार्पण हुआ।