Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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अखंड ज्योतिः आज से पचास वर्ष पूर्व - आपको यज्ञोपवीत धारण करना ही चाहिए
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है। इसे द्विजत्व का प्रतीक माना गया है। द्विजत्व का अर्थ है- दूसरा जन्म, मनुष्यता के उत्तरदायित्वों को स्वीकार करके नयी भूमिका में प्रवेश। जो लोग मनुष्यता की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार नहीं, पाशविक वृत्तियों में इतने जकड़े हुए है कि तहँ मानवता का भार वहाँ अनहित कर सकते, उनको अन्प्वीतश् शब्द से शास्त्रकारों ने तिरस्कृत किया है और उनके लिए आदेश किया है कि वे आत्मोन्नति करने वाली मंडली से अपने पृथक-बहिष्कृत एवं निकृष्ट स्तर का मानें।
ऐसे लोगों को वेदपाठ-यज्ञ-ताप आदि सत्साधनाओं का भी अनाधिकारी ठहराया गया है, क्योंकि जिसका आधार ही मजबूत नहीं, वह स्वयं खड़ा कैसे रह सकता है, धार्मिक कृत्यों का भार कैसे वहाँ कर सकता है?
भारतीय धर्मशास्त्रों की दृष्टि में मनुष्य का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वह अनेक योनियों में भ्रमण करने के कारण संचित हुए पाशविक संस्कारों का परिमार्जन करके मनुष्योचित संस्कारों को धारण करे। इस धारणा को ही उन्होंने द्विजत्व के नाम से घोषित किया है। कोई भी व्यक्ति जन्म से द्विज नहीं होता है, माता के गर्भ से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते है, शुभ संस्कारों को धारण करने से वे द्विज बनते है। एक स्थिति से दूसरी स्थिति में पदार्पण करने के परिवर्तन पद्धति को उपनयन कहा गया है।
देखने में यज्ञोपवीत कुछ लड़ों का सूत्र मात्र है, जो कंधे पर पड़ा रहता है। इसमें स्थूलरूप से कोई विशेषता नहीं मालूम पड़ती। बाज़ार में दो-दो चार-चार पैसे के जनेऊ बिकते है। स्थूल दृष्टि से यही उसकी कीमत है तथा मोटेतौर से वह उस वर्ण की पहचान है, जिसमें उसका जन्म हुआ है। वस्तुतः बात इतनी मात्र नहीं है, इसके पीछे एक जीवित-जाग्रत दर्शन-शास्त्र छिपा पड़ा है, जो मानवजीवन का उत्तम रीति से गठन-निर्माण विकास कराता हुआ उस स्थान तक ले जाता है, जो जीवधारी का परमलक्ष्य है। यज्ञोपवीत एक ऐसा प्रतीक है, जो बाजारू कीमत से भले ही दो-चार पैसे का हो, पर उनके पीछे एक महान तत्वज्ञान जुड़ा है। इसलिए ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि जनेऊ पहनना कंधे पर एक डोर लटका लेना है, वरन् इस प्रकार सोचना चाहिये कि मनुष्य की दैवी- जिम्मेदारियों का एक प्रतीक हमारे कंधे पर अवस्थित है।
मंदिर में जाकर प्रभुप्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता है, वह बिना मंदिर में जाए, चाहे जब कठिनता से प्राप्त होगा। गंगातट पर बैठकर जो पवित्र भावनाएँ उत्पन्न होती है, वे हर स्थान पर मुश्किल से हो सकती है। इसी प्रकार यद्यपि बिना यज्ञोपवीत धारण किये हुए भी दैवी भावनाएँ कोई मनुष्य बेरोक-टोक अपने में उत्पन्न कर सकता है। पर इस परम-पवित्र दिव्यभावना-संपन्न सूत्र को माध्यम बनाकर, हर समय कंधे पर धारण किये रखकर, जितना अपने उत्तरदायित्व को स्मरण रखना सुगम है, उतना बिना उसे धारण किये सुगम नहीं। इसी दृष्टि से हमारे आचार्यों ने प्रत्येक भारतीय मनुष्य बेरोक-टोक अपने में उत्पन्न कर सकता है। पर इस परम-पवित्र दिव्यभावना-संपन्न सूत्र को माध्यम बनाकर, हर समय कंधे पर धारण किये रखकर, जितना अपने उत्तरदायित्व को स्मरण रखना सुगम है, उतना बिना उसे धारण किये सुगम नहीं। इसी दृष्टि से हमारे आचार्यों ने प्रत्येक भारतीय धर्मावलम्बी को यह आदेश दिया था कि वह द्विजत्व की जिम्मेदारी का बोझ अपने कंधे पर अनुभव करे, सतत् इस बात का स्मरण रखे कि हमें शपथपूर्वक दिव्यत्व की जिम्मेदारी जीवन भर वहन करनी है। जिस प्रकार किसी बात को याद रखने के लिए कपड़े में गाँठ लगाकर स्मरण रखने का माध्यम नियुक्त कर लेते है, उसी प्रकार कंधे पर यज्ञोपवीत धारण करके उपयुक्त बातों को स्मरण रखें। जनेऊ एक ऐसी तख्ती है, जो रोज हमारे जीवनोद्देश्य और जीवनक्रम को व्यवस्थित रखने की याद हर घड़ी दिलाती है।
जिन उच्च भावनाओं के साथ वेद-मन्त्र के माध्यम से अग्नि और देवताओं को साक्षी मानकर यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, उससे मनुष्य के सुप्तमानस पर एक विशेष छाप पड़ती है। यह सूत्र यज्ञमय एवं अत्यंत पवित्र है इसके धारण करने से मेरा शरीर पवित्र है, इसलिए इस शरीर को सब प्रकार की अपवित्रताओं से बचाना चाहिये। यह भावना हर उस व्यक्ति के मन में उठनी चाहिए जो जनेऊ धारण करता है। जहाँ इस प्रकार की सात्विक आकांक्षा होगी, वहाँ दैवी-शक्तियाँ इसके संकल्प को पूरा करने में सहायक होगी, उसे प्रेरणा और साहस देंगी। जहाँ वह फिसलेगा उसे रोकेंगी और यदि गिरेगा भी तो उसे फिर उठाएंगी। मनुष्यों! अपने साधारण जन्म से संतुष्ट न रहो। हमारा धर्म हमें आदेश देता है कि श्रेष्ठ जीवन जियो, देवत्व को प्राप्त करो, नरदेह को सफल बनाओ। प्रतिज्ञा करो कि हम इस का अवलंबन करेंगे, जो कल्याणकारी है। इस प्रतिज्ञा के भावों को अपने दिव्यत्व को, पुष्ट और विकसित करने के लिए आपको यज्ञोपवीत धारण करना ही चाहिए।
( कुकर्मों के दुष्परिणाम अदूरदर्शियों को जन्मांधों की तरह नहीं दिख पाते, किन्तु जिनके ज्ञानचक्षु खुले है, वे सम्भलकर पैर रखते है और परमलक्ष्य तक पहुँचते है