Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्ञान व कर्म (Kahani)
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कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में तपस्यारत ऋषि मुदगल धर्माचरण, आराधना और उदारवृत्ति द्वारा जीवन निर्वाह, उनके आदर्श थे। मास के पहले पक्ष में वे खेतों से बीन-बीन कर चावल एकत्र करते, दूसरे पक्ष में उसे यज्ञ और अतिथि सत्कार में व्यय कर देते। ऋषि श्रेष्ठ दुर्वासा छः हज़ार शिष्यों सहित मुदगल की परीक्षा हेतु उनके आश्रम पर कई बार गए और निस्पृह मुदगल ने उन्हें हर बार आतिथ्य द्वारा पूर्णतः संतुष्ट कर दिया।
दुर्वासा ऋषि मुदगल पर कृपालु हुए। उन्होंने कुरुक्षेत्र के इस तपस्वी को स्वर्गप्राप्ति का वरदान दिया। मुदगल ने स्वर्ग ले जाने आये देवदूत को नम्रतापूर्वक नमन करते हुए कहा-हे दूत! खेद है तुम्हें एकाकी ही स्वर्ग लौटना पड़ेगा, मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकूँगा। जिस लोक कर्म को स्थान नहीं, वहाँ केवल सुख भोगने मैं नहीं जाना चाहता। कर्म करते ही मैं सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखता हूँ। मुझे अपना यह कर्मलोक ही प्रिय है, जहाँ कर्म-साधना और भक्ति के अवलंबन द्वारा मैं निर्वाण प्राप्त कर सकता हूँ। तपस्वी मुदगल मृत्युलोक में ही लोकमंगल के लिए चिर-साधना करते हुए निर्वाण को प्राप्त हुए।
ज्ञान व कर्म को जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में सत्प्रयोजनों से जोड़ दिया हो, भक्ति की भावतरंगें स्वतः ऊपर उमड़ आतीं हैं। ज्ञान, कर्म व भक्ति की यह त्रिवेणी तथा ऐसा तीर्थराज हम सबके अन्दर विराजमान है जिसमें स्नान-अवगाह कर हम अपने जीवन को कृत्य-कृत्य बना सकते हैं।