Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - गुरुवर का अंतिम सन्देश पुनः पढ़ा व हृदयंगम किया जाना चाहिए
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अपने अंतिम सन्देश में, जो जुलाई १९० की अखंड ज्योति में प्रकाशित हुआ था, परमपूज्य गुरुदेव जी ने कहा कि हमारी शरीरयात्रा होने से किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि ज्योति बुझ गई। अब तक के जीवन में जितना कार्य इस स्थूल शरीर ने किया है, उससे सौ गुना सूक्ष्म अंतःकरण से संभव हुआ है। आगे का लक्ष्य विराट है। संसार भर के छह अरब मनुष्यों को अन्तश्चेतना को प्रभावित और प्रेरित करने, उनमें आध्यात्मिक प्रकाश और ब्रह्मवर्चस जगाने का कार्य परमशक्ति से ही संभव है। हम अपने परिजनों को विश्वास दिलाते है कि इस शताब्दी के अंत तक, जब तक सूक्ष्मशरीर कारण के स्तर तक न पहुँच जाए, हम शाँतिकुँज परिसर एवं प्रत्येक परिजन के अंतःकरण में विमान रहकर अपने बालकों में नवजीवन और उत्साह भरते रहेंगे। उनकी समस्या का समाधान इसी प्रकार निकलता रहेगा, जैसा कि हमारी उपस्थिति में उन्हें उपलब्ध होता। हमारे आपसी सम्बन्ध अब और भी प्रगाढ़ हो जायेंगे, क्योंकि हम बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े थे। हमें एक क्षण के लिए भी भुला पाना आत्मीय परिजनों के लिए कठिन हो जाएगा। जिनने पूज्यवर को देखा है, उनका प्यार भरा स्पर्श-ममत्व पाया है, वे ऊपर की पंक्तियों में एक अभिभावक-एक पिता की छलकती भावसंवेदना का दर्शन कर सकते है। जिनने उन्हें नहीं देखा, मात्र उनके कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व का दिग्दर्शन उनके लिखे विराट साहित्य या अमृतवाणी के माध्यम से किया है, वे भी अपने लिए सुनिश्चित आश्वासन इन पंक्तियों में पढ़ सकते है। आज जब उनके महाप्रयाण को नौ वर्ष पूरे हो रहे है- संधिकाल की अंतिम घड़ियों में, जहाँ उलटी गिनती आरम्भ हो जाती है, हम प्रवेश कर चुके- हम भली-भाँति अपने कर्तव्य को बार-बार यादकर अपनी दिशा का निर्धारण कर सकते हैं। पिता के देहावसान के बाद पुत्र को, जो सबसे बड़ा है, पगड़ी पहना दी जाती है एवं सारे दायित्व उस पर आ जाते है। धीरे -धीरे ही सही, पर उसमें गंभीरता व प्रौढ़ता विकसित होती चली जाती है एवं पिता की तरह ही सारी जीवन-व्यापार की विभिन्न गतिविधियों का संचालन करता हुआ वह उम्र के पड़ाव पार करता चला जाता है। जहाँ महाशक्ति का अवतरण एक युगपुरुष में हुआ हो व उन्होंने अपनी मात्र स्थूलकाया छोड़ी हो, उनके सूक्ष्म-अस्तित्व के प्रमाण के रूप में शाँतिकुँज, गायत्री तपोभूमि, आँवलखेड़ा, अखंड ज्योति संस्थान एवं ब्रह्मवर्चस रूपी भव्य तीर्थ-स्थापनाएं प्रत्यक्ष सभी को दिखाई पड़ रही हो, किसी को भी मन में यह असमंजस नहीं रखना चाहिए कि अब हमारा क्या होगा, कौन हमें देखेगा। यह इसलिए भी मन में आ सकता है कि परमवन्दनीय माताजी ने भी तो मात्र चार वर्ष बाद अपनी चेतना को उसमें विलीन कर दिया था? शक्ति का उत्तराधिकारी कोई व्यक्ति नहीं, वह शक्तिशाली संगठन होता है, जो ऐसी अवतारी-सत्ताएँ अपने सामने खड़ा कर सकती है। अखंड–ज्योति पाठक-परिजनों का विराट गायत्री परिवार उस अंश को धारण कर वही कार्य विगत नौ वर्ष से पहले अपनी आराध्य मातृसत्ता के साथ एवं पिछले पाँच वर्षों से एक संयुक्त शक्ति के प्रतीक लाल मशाल के साथ करता चला आया है। इस अवधि में गायत्री परिवार के विराट रूप लेने, अखिल विश्व तक उसका विस्तार होने, देवसंस्कृति दिग्विजय के उपक्रम के रूप में गुरुसत्ता के सूक्ष्म साहचर्य व कर्तृत्व को कौन नकार सकता है। यह कार्य जो विगत पाँच वर्षों में सम्पन्न हुआ है, कोई व्यक्ति थोड़े ही कर सकता था। यदि कोई ऐसा समझता है व कहता है कि ऐसा उसके कारण ही संभव हो पाया है, तो उससे बड़ी मूढ़ता व आत्मप्रवंचना ओर क्या हो सकती है। जिस विराट जनमेदनी ने परमपूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीय माताजी के आदर्शों को अपना इष्ट-लक्ष्य मानकर
उस वटवृक्ष को सींचा, अपने समयदान-साधनदान-अंशदान से परिपुष्ट किया है-वह भली-भाँति जानती है कि अंतिम सन्देश में जो अभिव्यक्ति गुरुसत्ता ने दी है, वही अब साकार होती चली जा रही है एवं उसकी भवितव्यता की ओर बढ़ रही है, जिसे विराट-विराटतम कहा जा सके। इस पूरी अवधि में किसी भी निष्ठावान् परिजन ने गुरुसत्ता के संदेशानुसार ही एक पल के लिए भी उनको भुला पाने में असमर्थ पाया है। सोते-जागते काम करते, पढ़ाई करते सभी समय मानो वे ही मन-मस्तिष्क पर छाए रहे है। जिस किसी ने भी उनके आदर्शों-निर्धारणों को परे रख थोड़ा भी चिंतन किया है अथवा जीवनशैली बदली है, उसे लोकभर्त्सना के साथ आत्मा की धिक्कार भी सुननी पड़ी है। ( प्रतिभाओं को प्रशिक्षण हेतु भावभरा आमन्त्रण )
ब्रह्मांड जगत की एक बड़ी सुहानी व आकर्षक घटना है-सूर्यग्रहण। ग्रहण सूर्य व चाँद को ही लगता है, तारों को और क्षुद्रग्रहों को नहीं। ग्रहण एक खगोलीय घटना है। विधि के सुनिश्चित क्रमों में विज्ञानजगत द्वारा प्रतिपादित यह विधाता की ऐसी झाँकी है, जिससे ज्ञानीजन-प्रज्ञावान-समझदार प्रभावित नहीं होते। हाँ कुछ प्रभाव पड़ता है, तो शूद्र जीवों पर, पक्षियों पर, वृक्ष-वनस्पतियों पर जो उसे वास्तव में सूर्य का छिप जाना व अन्धकार का आ जाना मान बैठते है। उनकी समझदारी वही तक विकसित है, अतः अधिक-से-अधिक साढ़े सात मिनट की अवधि वाले सूर्यग्रहण की घड़ी में उनका व्यवहार विचित्र-सा दीख पड़ता है, पर वास्तविकता स्पष्ट होते ही थोड़े ही क्षणों बाद उनका सहज जीवनक्रम चल पड़ता है। जीव-जंतु भयभीत हो जाते है-छिपने का प्रयास करते है-अपने घरों की ओर लौटने लगते है, चारों ओर नीरव शाँति छा जाती है। एक सन्नाटा-सा व्याप्त हो जाता है, किन्तु उसी समय ब्रह्माण्डविज्ञानी सौरज्वालाओं का, सूर्य की किरणों का, सूर्य की शाँत व उग्र परिस्थितियों का परीक्षण बड़ी गहराई से, इसे एक अमोल घड़ी मानकर कर रहे होते है। ऐसे अवसर जब भी आते है, वे अपने उपकरण लादकर द्वीप हो तो वहाँ, पहाड़ी हो तो वहाँ जा पहुँचते है व समस्त असुविधाओं में भी इस खगोलीय घटना का बड़ा गहन विश्लेषण व अध्ययन करके ब्रह्मांड के रहस्यों का उद्घाटन करने का प्रयास करते है। इसी समय धर्मपरायण-आस्तिक-निष्ठावान् समझे जाने वाले व्यक्ति जाप करते एवं भगवान से सद्बुद्धि की प्रार्थना करते देखे जाते है। ग्रहण के तुरंत बाद दान-पुण्य भी करते है। एक दूसरा इनसे ऊँचा वर्ग जो ज्ञानी-परमहंसों का होता है, उनके लिए यह रोज की घटना की तरह आ कर चला जाता है व उन पर कहीं इसका प्रभाव नहीं देखा जाता। हमें अपना मूल्याँकन स्वयं करना है। हमारी गुरुसत्ता व उनके द्वारा स्थापित यह विराट मिशन एक ज्वलंत, जाज्वल्यमान सूर्य के सामान है। एक नए जमाने का स्वप्न लेकर इसका अधिष्ठाता इस धरती पर आया था। हम सबको उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा ही नहीं दे गया, सारा ग्राउण्डवर्क स्वयं कर गया अब सूक्ष्मशरीर से वह जो कुछ भी कर रहा है, उसे साधनावर्ष में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जब सूर्य को ही ग्रहण लगता है- भरे उजाले में एवं अन्धकार में किन्तु पूर्णिमा के प्रकाश के बीच चंद्रमा को, तो यह क्षणिक है- सामयिक है एवं सृष्टिक्रम का दैनंदिन जीवन का अंग है, ऐसा आचरण हमारा होना चाहिए। मान लीजिये हम परमहंस नहीं है, ज्ञानी नहीं है, तो एक अध्यात्म में आस्था रखने वाले चिरपुरातन रीति-रिवाजों को मानने वाले कर्मकाण्डी धर्मभीरु तो है ही। तो हम अपने को गायत्री-जप अनुष्ठान-उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए आगे सुखद समय के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए। यही हम सभी ने, अधिकाँश परिजनों ने इस साधनावर्ष के सामान्यक्रम में किया भी तो है। बस यह वर्ष एक अद्भुत विलक्षणताओं, दैवी आपदाओं प्रतिकूलताओं से भरा होने के कारण हमसे कुछ अतिरिक्त आध्यात्मिक पुरुषार्थ की अपेक्षा रखता है। युगसंधि महापुरश्चरण के अंतिम दो वर्ष के कारण भी इस विषम समय में हम सभी को स्वयं को श्रेष्ठ-प्रौढ़ स्टार के साधक बनाने का पुरुषार्थ निभाना चाहिए, तब तक जब तक कि उज्ज्वल भविष्य से भरा सतयुग नहीं आ जाता। हाँ यदि हम उन क्षुद्र-नासमझ जीव- जंतुओं जैसा व्यवहार कर रहे हो, जो ग्रहण की अवधि को अन्धकार मान बैठते है, तो यह आत्मसमीक्षा-अपने आत्मिक विकास हेतु कुछ कदम उठाने का समय है। यदि ऐसा न किया गया तो नियति उन्हीं नरकीटकों-नरपशुओं जैसे होनी है।
बार-बार जब दृष्टि आ जाती है पूज्यवर के अंतिम सन्देश पर, तो उनके द्वारा दिया दायित्व याद आने लगता है। कहीं हम भूल तो नहीं कर रहे, कहीं हम पर तो प्रमाद तो हावी नहीं हो रहा है, कहीं हम सनक तो नहीं रहे, कहीं हम ढेरों दिग्विजय, पराक्रमसंपन्न कर मदोन्मत्त तो नहीं हो गए, समीक्षा करने की वेला है यह, क्योंकि शक्ति के उत्तराधिकारी का आचरण, सिंहरूपी गुरुसत्ता के सिंहशावकों का व्यवहार वैसा ही होना चाहिए, विशेषकर तब जबकि विषम वेला सामने आ पहुँची। अपने अंतिम सन्देश में पूज्यवर ने कहा है- ब्रह्मनिष्ठ आत्माओं का उत्पादन, प्रशिक्षण एवं युगपरिवर्तन के महान कार्य में उनका नियोजन बड़ा कार्य है। यह कार्य हमारे उत्तराधिकारी को करना है। शक्ति हमारा काम करेंगी तथा प्रचंड शक्तिप्रवाह अगणित देवात्माओं को इस मिशन से अगले दिन जोड़ेगी। उपयुक्त शब्द हमें बार-बार अपने कर्तव्य की याद कराते है। ब्रह्मनिष्ठ आत्माएँ, उच्चस्तरीय प्रतिभायें क्षेत्र में छुपी पड़ी है। कौन परिवर्तन नहीं चाहता? कौन चाहता है खूनी विध्वंस और महाविनाश? सभी चाहते है परिस्थितियाँ बदलें-विषमताओं का घनघोर-घटाटोप मिटे एवं स्वर्णिम उज्ज्वल प्रभात आये। लगभग सभी ओर से स्वर भी प्रायः यही उभरकर आ रहा है कि इस वर्ष वसंत से आरम्भ हुआ एक विराट परिवार के गायत्री परिजनों का प्रखर साधना वर्ष, एक जनवरी से आरम्भ हुआ १९९९ का नववर्ष, भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत् २०५६ को चैत्र प्रतिपदा से विगत माह आरम्भ हुआ तथा साथ ही कालगणनानुसार युगाब्द ५२०१ जिसका शुभारम्भ भी इसके साथ हुआ अगली शताब्दी के रूप में भारतीय अध्यात्म के सारे विश्वभर छा जाने की प्रक्रिया हिन्दू-संस्कृति के विश्वसंस्कृति बनने के क्रियान्वयन रूप में आया है। यह स्वर मात्र भारत से उठ रहा है, यह बात भी नहीं, पाश्चात्य तत्वचिंतक व द्रष्टास्तर के मनीषी भी अब प्रायः इसी स्तर की चर्चा कर रहे है। भारत के महाशक्ति बनकर उभर कर आने-सारे विश्व के एक विराट कुटुंब के रूप में बंधकर एक संस्कृति- एक भाषा- एक व्यवस्था, एक आचारसंहिता बनने की बात अगले दिनों साकार होती दिखे तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
प्रतिभाओं को आत्मबोध हो एवं वे युगपरिवर्तन के कार्य में हाथ बटाना आरम्भ कर दे, यही हम सबको सौंपा गया इस संधिवेला का विशिष्ट दायित्व है। इसी एक सूत्र कार्यक्रम में पूरी शक्ति झोंककर ज्ञानयज्ञ को प्रज्वलित ही नहीं उसकी लपटों को आकाश तक पहुँचा देना हम सबका इस समय का कर्तव्य होना चाहिए। इससे इतर न किसी को सोचना है, न अपनी ओर से कोई कल्पना करनी है तथा अगणित देवात्माएँ इस प्रचंड शक्तिप्रवाह से जुड़ने को तैयार है, तो हम सभी को संचालन-साधक स्तर की प्रौढ़ता अपने अन्दर विकसित करना एवं फिर ऐसे नवरत्नों को खोज-खोजकर नवनिर्माण के कार्य में जुटाना है। इतना स्पष्ट मार्गदर्शन है कि कहीं किसी शक की कोई गुँजाइश ही नहीं।
परमपूज्य गुरुदेव ने अक्टूबर १९८९ की अखंड ज्योति में लिखा है- सन २००० के अंत में युगसंधि-महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति होगी, जिसमें एक करोड़ साधक होंगे। इन ग्यारह वर्षों में एक लाख प्राणवान कार्यकर्ता कार्यक्षेत्र में उतार दिये जाएँगे। इक्कीसवीं सदी इस विश्व की सबसे बड़ी, सबसे व्यापक और सबसे आश्चर्यजनक उथल-पुथलों से भरी क्राँति है। इस अवधि में इतने महामानव दूध में से मलाई की तरह उछलकर ऊपर आयेंगे, जिन्हें देखते हुए श्रेय साधकों द्वारा भगीरथ जैसे गंगावतरण का नाम दिया जा सके। बगीचा लगाने वाले की तीन पीढ़ियाँ मूड मानती है। स्वतंत्रता सैनिक इन दिनों भी गौरवान्वित हो रहे है। यह सृजन कार्य में जुड़े श्रेय का ही कमाल है।
जो भी कुछ वर्णित है, इतना साफ है कि किसी को भी समझाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। कैसे होगा यह, कौन करेगा यह- यदि यह असमंजस मन में हो तो पूज्यवर के शब्दों से ही उसे दूर भी किया जा सकता है। अक्टूबर १९८८ की अखंड ज्योति में पूज्यवर लिखते है- प्रतिभाएँ अनायास ही नहीं बरस पड़ती, न ही वे उद्भिजों की तरह उग पड़ती है। उन्हें प्रयत्नपूर्वक खोजा, उभारा और खरीदा जाता है। इसके लिए आवश्यक एवं उपयुक्त वातावरण का सृजन किया जाता है इन दिनों शाँतिकुँज में कुछ ऐसा चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए महाकाल की कोई बड़ी योजना बन रही है। उसे मूर्तरूप देने के लिए दो छोटे, किन्तु अतिमहत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सामने आये है, एक आदर्शवादी सहायकों में उमंगों का उभारना और एक सूत्र में, एक परिसर में सम्बन्ध होना, साथ ही कुछ नियमित एवं सृजनात्मक गतिविधियों का आरम्भ करना, जो सद्विचारों को, सत्कार्यों में परिणत कर सकने की भूमिका बना सके। दूसरा कार्य यह कि अनीति विरोधी मोर्चा खड़ा किया जाए, उसे एक प्रयास से आरंभ करके विशाल बनाया जाए। यही है वह अग्रगमन, जिसमें शालीनता के सृजन व अनीति के दमन को दो स्तर की रीति-नीति अपनायी जानी है जिस पर कदम-कदम बढ़ाते हुए नवयुग का अवतरण संभव हो सकता है इस महाजागरण से ही प्रतिभाओं की मूर्छना जगेगी, वे अंगड़ाई लेती हुई दिनमान की ऊर्जा-प्रेरणा से कार्य-क्षेत्र में पौरुष का परिचय देती दृष्टिगोचर होगी।
यदि हमारा विश्वास प्रबल है एवं प्रतिभाएँ कहीं मौजूद है, जो स्वयं को पहचान पा रही है, शाँतिकुँज उन्हें नवयुग के अवतरण की वेला में विशिष्ट प्रशिक्षण हेतु भावभरा आमंत्रण देता है। इन दिनों समाज की हर क्षेत्र से जुड़ी विभूति के लिए संगठन द्वारा अनेकानेक रचनात्मक कार्यक्रमों के प्रशिक्षण की बहुमुखी प्रक्रिया शाँतिकुँज में चली आ रही है। जिसमें भी देश-समाज-संस्कृति के लिए थोड़ी पीड़ा है, कसक है, एवं कुछ कर गुजरने की उमंग मौजूद हो, चाहे आयु कुछ भी हो उसे शाँतिकुँज के विशिष्ट प्रशिक्षणों में भागीदारी करने की बात मन में सोचनी चाहिए। प्रशिक्षण यहाँ लेकर क्षेत्रों में जाकर करने के कितने अनंत अवसर है यह यहाँ आकर ही जाना जा सकता है।
( राजगृह पथ पर जा रहे गौतम बुद्ध ने देखा, एक गृहस्थ भीगे वस्त्र पहने सभी दिशाओं को नमस्कार कर रहा था।
बुद्ध ने पूछा- महाशय! दिशाओं की पूजा का अर्थ क्या है? यह पूजा क्यों करनी चाहिए?
गृहस्थ बोला- यह तो मैं नहीं जानता।
बुद्ध ने कहा- बिना जाने पूजा से क्या लाभ होगा।
गृहस्थ ने कहा - आप ही कृपाकर बतलाए कि दिशाओं की पूजा क्यों करनी चाहिए?
तथागत बोले - पूजा करने की दिशाएँ भिन्न है। माता-पिता और गृहपति पूर्व दिशा है, आचार्य दक्षिण, स्त्री-पुत्र पश्चिम और मित्र आदि उत्तर दिशा में है। सेवक नीची तथा ब्राह्मण ऊँची दिशा है - इनकी पूजा से लाभ होता है। गृहस्थ बोला-ओर तो सब ठीक है, परन्तु सेवकों की पूजा कैसे? वे तो स्वयं मेरी पूजा करते है?
*समाप्त*