Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरुद्रोह कि परिणति
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गुरु अर्जुनदेव जी विनम्रता कि मूर्ति थे। उनके शब्द -कीर्तन में जो भी योगी -कीर्तनकार भाग लेते थे, वे उनका पूरा सम्मान करते थे ऐसे ही दो योगी, जिनके कीर्तन से सम्मा बंध जाता था बल्कि भक्ति का वातावरण ऐसा अद्भुत बन जाता था कि नास्तिक भी कुछ क्षण वहाँ बैठने को राजी हो जाए, वे सत्ता व बलवंड थे, जो गुरुजी के सत्संग में कीर्तन करते थे। प्रतिभा जब तक समर्पित रहती है -गुरु के प्रति निष्ठावान् होती है एवं उसमें श्रद्धा-समर्पण का भाव रहता है, तभी तक उसमें प्रभावोत्पादक सामर्थ्य होती है। जहाँ उसे घमंड आया - अपने को ही सब कुछ मान लेने कि विषवृति ने उसे धर दबाया, वही उसका पतन-सर्वनाश आरम्भ हो जाता है।
ऐसा ही कुछ सत्ता-बलवंड के साथ भी हुआ।वे गुरुनानक के दरबार में उनके चहेते कीर्तनकार व शिष्य रहे मर्दाना के वंशज थे। किन्तु उनकी दुर्बुद्धि ने उस दिन उनसे कुछ ऐसा कहलवा दिया, जो उनके महानाश का कारण बन गया। गुरुजी के बुलावे पर भी दरबार में न पहुँचने पर गुरु अर्जुनदेव स्वयं पैदल चल पड़े। डेरे पर गुरुजी आगे आगे व पीछे शिष्य समुदाय। जिन गुरु कि एक झलक पाने के लिए देवता भी नर रूप धारण कर नरसेवा में भाग लेने आए थे, उनके द्वार पर पहुँचकर आवाज लगाने पर भी दोनों कीर्तनकार बहार नहीं निकले। दो -तीन बार आवाज दी जाने पर बाहर आये भी तो गुरु के चरणों को नमन करने के स्थान पर तानकर खड़े होकर कहने लगे कि आप हमारे साथ धोखा करते है। चढ़ावे कि सारी रकम संगत ने रख ली एवं हमारे कीर्तन में कुछ गिने चुने व्यक्ति भेजकर हमारा अपमान भी कराया।
गुरुजी बड़े विनम्र स्वर में बोले कि भाई! आप तो हमारे आदरणीय है क्योंकि आपने गुरुनानक के घर कीर्तन करने वालों के यहाँ जन्म लिया है। चढ़ावे कि रकम संगत को दी जाये, यह तो आपका ही आग्रह था। यदि आप चाहते है तो वापस ले लेंगे। राशि कम हो तो ओर ले लेना। गर्वोन्नत दोनों बोल पड़े, अरे! हमारे बिना संगत कभी हो ही नहीं सकती, फिर यह अपमान करने कि हिम्मत कैसे किसी की हुई? यह तो हमारा ही प्रताप है ( कीर्तन-संगीत-शब्दपाठ का ) कि आपको लोग गुरु मानते है अन्यथा आपको कौन पूछे? हम जिसे चाहे गुरुपद पर बिठा दे, गुरुनानक जी को भी तो हमारे पूर्वज मर्दाना ने ही कीर्तन करके गुरु बनाया था, नहीं तो उन्हें कौन पूछता।
किसी ने सच ही कहा है कि विनाशकाल में बुद्धि विपरीत ही चलने लगती है गीता कार ने भी तो कहा है -
क्रोधादिभवति सम्मोह सम्मोहत्स्म्रतिभिभ्रम्ह।
स्मृतिभ्रन्शाद बुद्धिनासो बुद्धिनाश्त्प्रन्श्यती॥
अर्थात् क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृतिभ्रम से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है, और बुद्धि का नाश हो जाने से वह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।
गुरुजी ने दोनों अहंकारियों के द्वारा किया गया अपना अपमान तो बर्दाश्त कर लिया था, परन्तु उनसे अपने जगद्गुरु नानकदेव जी के प्रति कहे गए वे शब्द बर्दाश्त नहीं हुए। उनके मुख से निकल ही पड़ा - तुम दोनों द्रष्टा कि सीमा पारकर गुरुनानक जी के प्रति कुवचन कहते हो, अहंकार के वशीभूत तुम द्रष्टा कि चरम सीमा पर पहुँच गए हो। जाओ तुम्हें कोढ़ फूट जायेगा। कोई तुम्हारी सुधि नहीं लेगा, इतना कहकर गुरु जी अपने सिखों के साथ वापस लौट आये। जिनने कभी वाद्य-यंत्र छुए भी न थे,उनसे बजाने को कहा एवं ऐसा दिव्य संगीत बजा कि लोग सत्ता व बलवंड को भूल गए व मंत्रमुग्ध हो गए। गुरुजी ने एक बात और कही कि कीर्तन अब किसी विशेष कुल -घराने कि थाती नहीं है, सभी इसे सीखे। सारे शिष्यों को शब्द-कीर्तन -गुरुवाणी का अभ्यास होना चाहिए। सत्ता -बलवंड कि सिफारिश भी कोई लेकर न आये, इसकी भी विशेष ताकीद कर दी गई।
गुरु जी के श्राप का समाचार जन जन तक पहुँच गया। दो दिन तक तो सत्ता -बलवंड प्रतीक्षा करते रहे कि शायद गुरु अर्जुनदेव किसी से बुलावा भेजे, फिर उनका कीर्तन चल पड़े किन्तु कोई नहीं आया तीसरे दिन उनके सारे शरीर पर चकत्ते दिखाई दिए, जो कि गलित कुष्ठ के चिन्ह थे। चौथे दिन उनमें मवाद भर गयी एवं एक हफ्ते के भीतर कोई उन्हें पहचान नहीं सकता था कि ये वे ही सत्ता -बलवंड है, जो कभी गर्व से कीर्तन में गाते व लोग उनकी आवाज पर झूमते थे। जिधर वे रहते थे, दुर्गन्ध के मारे लोगों ने निकलना छोड़ दिया, अन्न-वस्त्र समाप्त हो गए। दवा करने के पैसे भी न बचे-स्त्री -बच्चे भूख से मरने लगे। गुरुनिन्दक के पास कौन जाता?
इतिहास बताता है कि इन दोनों गुरुद्रोहियों को सच्चे पश्चाताप कि अग्नि में जलते देखकर लाहौर के भाई लद्धाजी ने ही उबारा। यह उन्हीं कि हिम्मत थी कि गुरु अर्जुनदेव के शब्दों का मान रख उनसे क्षमा माँगने वे अपमानित स्थिति में उनके पास पहुँचे व बारम्बार इन दोनों गुरुनिन्दकों को क्षमा करने की भीख माँगी। क्षमा भूषण -भक्तवत्सल गुरुजी कि कृपा से दोनों का कष्ट तो समाप्त हो गया, किन्तु वे पुनः वह स्थान न पा सके, जहाँ उनके गुरु के नाम ने पहुँचा दिया था। गुरुद्रोह कि क्या परिणति हो सकती है, यह सभी के लिए एक सबक है।