Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरु ही सच्चा रक्षक
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बात अतीत की है, परन्तु वर्तमान का है। एक गुरु और शिष्य निरंतर चलते हुए बहुत थक गए थे। अतः गुरु उपयुक्त स्थान देखकर विश्राम करने कि लिए रुके। जब शिष्य गहरी नींद में था, तब गुरु जाग रहे थे। इतने में एक काला सर्प सरसराता हुआ शिष्य की ओर आने लगा, तो गुरु ने धीरे धीरे एक ओर हटकर उसे मार्ग देना चाहा किन्तु सर्प तो एकदम निकट आ गया। गुरु ने उसे रोकने का प्रयत्न किया तो, वह मनुष्यवाणी में बोला, हेे मुनिश्रेष्ठ! मुझे तुम्हारे इस शिष्य को काटना है, अतः रोकिये मत। इसे काटने का आखिर कुछ कारण तो होगा? गुरु ने सर्प से प्रश्न किया। कारण यही है कि पूर्वजन्म में इसने मेरा रक्त पिया था, अब मुझे इसका रक्त पीना है। पूर्व जन्म में इसने मुझे बहुत सताया था, बदले के लिए ही मैंने सर्प योनी में जन्म लिया है आप कृपया मुझे रोके नहीं। रोकेंगे तो मैं ओर किसी समय आपकी अनुपस्थित में आकर इसे काटूँगा। पूर्वजन्म में मैं एक बकरा था, इसने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए मुझे निर्दयतापूर्वक तलवार से काटकर मेरा लहू पिया, इसके देखते देखते मैंने तड़फ तड़फ कर प्राण त्याग दिए, सर्प ने आक्रोश प्रकट करते हुए बताया।पूर्वजन्म का कोष अभी तक है?
गुरु ने मनोआत्मलीन होकर कहा। इसी के साथ क्रुद्ध सर्प की बदला लेने की आत्मपीड़ा की बात सुनकर गुरु ने सर्प दर्शन कस शाश्वत रहस्य समझाया -बन्धु! अपनी आत्मा ही अपना शत्रु है, अन्य कोई नहीं। तू इसे कटेगा, तेरे प्रति इसके हृदय में बैर जगेगा यह इस शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करेगा,फिर बैर का बदला लेगा। फिर तू भी बैर का भाव लिए हुए मरकर दूसरे जन्म में बैर का बदला लेगा, उसके पश्चात यह लेगा, इस तरह बैर की परंपरा बढ़ती रहेगी, लाभ क्या होगा?
सन्तप्रवर! आपकी बात सत्य है, पर मैं इतना अज्ञानी नहीं हूँ। आप समर्थ पुरुष है, मैं नहीं, क्षमा कीजिए, मैं बैर का बदला लिए बिना इसे नहीं छोड़ूंगा, सर्प ने कहा।
गुरु ने कहा तो बन्धु! इसके बदले मुझे कट लो। आप जैसे पवित्र पुरुष को काट कर मैं घोर नरक में नहीं जाना चाहता। मैं अपने अपराधी को ही काटूँगा। इसी का खून पीऊँगा, सर्प ने कहा।पंख कटे जटायु को गोद में लेकर भगवान राम ने उसका अभिषेक आँसुओं से किया, स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए, भगवान राम ने कहा - तात! तुम जानते थे रावण दुर्दश और महाबलवान है, फिर उससे तुमने युद्ध क्यों किया?
अपनी आँखों से मोती छलकाते हुए जटायु ने गर्वोन्नत वाणी में कहा प्रभो! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, भय तो तब था जब अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं जागती?
भगवान राम ने कहा -तात! तुम धन्य हो। तुम्हारी जैसे संस्कारवान आत्माओं से संसार को कल्याण का मार्ग -दर्शन मिलेगा।
अंत में जब सर्प को बहुत समझाने पर भी न माना तो गुरु ने कहा -यदि मैं तुम्हें इसी का रक्त निकालकर दे दूं तो तुम्हारी प्रतिहिंसा संतुष्ट हो जाएगी?
हां ऐसा कर सकते हैं। सर्प ने गुरु की बात स्वीकार कर ली।
ज्ञानी गुरु, शिष्य की छाती पर चढ़ बैठा और पत्ते का डोंगा उसके गले के पास रखकर एक चाकू से गले के पास चीरा लगाया, फिर डोंगे में एकत्रित रक्त को सर्प को पिलाने लगा। गले पर चाकू लगते ही शिष्य की नींद उड़ गई, पर गुरुसत्ता को देख वह आश्वस्त एवं शाँत बना रहा। छाती पर चढ़कर गले से खून निकलकर गुरु सर्प को पिला रहे है। यह सब देखकर वह तत्काल आँखें बंदकर चुपचाप सोया रहा। सर्प को जब तृप्ति हो गयी तो वह वापस चला गया। गुरु ने शल्य चिकित्सक की बहती उस घाव को बंद करके उस पर वनौषधि की पट्टी बाँध दी गुरु जब छाती पर से नीचे उतर गए, तब शिष्य उठ बैठा।
गुरु ने उलाहने की मुद्रा में उससे कहा -कितनी गहरी नींद है तेरी?
हाँ गुरुदेव! आपकी छत्रछाया में मैं सुरक्षित सब देख रहा था आप मेरी छाती पर बैठे थे। हाथ में चाकू था गले के पास चीरा लगाकर रक्त निकाल रहे थे। शिष्य ने कहा -गले पर चाकू लगते ही मैं जाग गया था। वत्स! तब तू बोला क्यों नहीं?, गुरु ने पूछा।
गुरुदेव मुझे आप पर आस्था है, मैंने अपना हित आपको अर्पित कर दिया है और इसी से सर्प की बात सुन,उसका कृत्य देख, आपके बैर त्याग के उपदेश को सुन सर्प की भाँति मेरा भी प्रतिशोध भाव शाँत हो गया है। मैं धन्य हो गया।
आपके हाथों मेरा अनिष्ट कभी हो ही नहीं सकता। आप मेरी आत्मा के उद्धारक ही नहीं अपितु शरीर के भी रक्षक है मेरा सब कुछ आपका है - शरीर भी और जीवन भी इसका जैसा उपयुक्त समझे आप उपयोग करे। आपकी परम समझ को भला मैं अल्पज्ञ प्राणी कहाँ समझ सकता हूँ? मुझे अपनी कोई चिंता नहीं है। शिष्य के इस वचनों को सुनकर गुरुदेव की अंत करण से आशीष का स्रोत प्रस्फुटित हो उठा।