Books - संस्कृति की सीता को वापस लाएँ
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Language: HINDI
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प्रवचन के साथ आचरण भी करें
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जब भारतीय संस्कृति का लोग महत्त्व समझते थे, उस पर विश्वास करते थे, उसको आचरण में लाते हुए अपना गौरव समझते थे, तब इस देश में घर-घर महापुरुष उत्पन्न होते थे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख-शांति की कमी न थी। इस संस्कृति के ढाँचे में ढले हुए नर-रत्न अपने प्रकाश से समस्त संसार में प्रकाश उत्पन्न करते थे और उसी आकर्षण के कारण विश्व की जनता उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं भूसुर, पृथ्वी के देवता मानती थी। यह देश स्वर्ग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता था। अतीत का इतिहास इस तथ्य का मुक्त कंठ से उद्घोष कर रहा है।
अपने स्वार्थ, सुख-साधन, धन-संपदा संग्रह, ऐश-आराम को लात मारकर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोकसेवा और परमार्थ में जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की सफलता मानते रहे हैं।
सदा अपने को तप से तप्त करके अपनी महान सेवाएँ विश्वमानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अंतरात्मा उनके चरणों पर लोट जाने को करती है। विश्वामित्र, वसिष्ठ ,जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पराशर, याज्ञवल्क्य, शंख, कात्यायन, गोमिल, पिप्पलाद, शुकदेव, मृगी, लोमश, धौम्य, जरुत्कार, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिए वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शौनक निरंतर प्राचीनकाल के महापुरुषों की गाथाएँ विरुदावलियाँ, धर्म-चर्चाएँ सुना-सुनाकर मानव जाति की सुप्त अंतरात्माओं को जगाया करते थे।
आज अधिकांश पंडित, पुरोहित, साधू ,, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुए मुफ्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य-प्रमाद से चित्त हटाकर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करते। पर भारतीय संस्कृति की परंपरा इससे सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानंद, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य, कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि असंख्य धर्मगुरु लोकहित के लिए जीवनभर घोर परिश्रम, प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोकसेवा को एकांत मुक्ति से अधिक महत्त्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा- ''आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।'' बुद्ध ने उत्तर दिया-''जब तक संसार में एक भी प्राणी बंधन में बँधा हुआ है, तब तक मुझे मुक्ति की कोई कामना नहीं है। मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिए बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।'' स्वामी दयानंद सरस्वती भी योग साधना करने हिमालय में गए थे, पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि ''लोकसेवा ही सर्वोत्तम योग साधना है।'' स्वामी जी तपस्या से लौट आए और अज्ञानग्रस्त जनता में ज्ञान प्रसार करने को ही अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया।
अपने स्वार्थ, सुख-साधन, धन-संपदा संग्रह, ऐश-आराम को लात मारकर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोकसेवा और परमार्थ में जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की सफलता मानते रहे हैं।
सदा अपने को तप से तप्त करके अपनी महान सेवाएँ विश्वमानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अंतरात्मा उनके चरणों पर लोट जाने को करती है। विश्वामित्र, वसिष्ठ ,जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पराशर, याज्ञवल्क्य, शंख, कात्यायन, गोमिल, पिप्पलाद, शुकदेव, मृगी, लोमश, धौम्य, जरुत्कार, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिए वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शौनक निरंतर प्राचीनकाल के महापुरुषों की गाथाएँ विरुदावलियाँ, धर्म-चर्चाएँ सुना-सुनाकर मानव जाति की सुप्त अंतरात्माओं को जगाया करते थे।
आज अधिकांश पंडित, पुरोहित, साधू ,, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुए मुफ्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य-प्रमाद से चित्त हटाकर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करते। पर भारतीय संस्कृति की परंपरा इससे सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानंद, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य, कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि असंख्य धर्मगुरु लोकहित के लिए जीवनभर घोर परिश्रम, प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोकसेवा को एकांत मुक्ति से अधिक महत्त्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा- ''आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।'' बुद्ध ने उत्तर दिया-''जब तक संसार में एक भी प्राणी बंधन में बँधा हुआ है, तब तक मुझे मुक्ति की कोई कामना नहीं है। मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिए बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।'' स्वामी दयानंद सरस्वती भी योग साधना करने हिमालय में गए थे, पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि ''लोकसेवा ही सर्वोत्तम योग साधना है।'' स्वामी जी तपस्या से लौट आए और अज्ञानग्रस्त जनता में ज्ञान प्रसार करने को ही अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया।