आवेशग्रस्त न रहें, सौम्य जीवन जियें (अन्तिम भाग)
भय में अपनी दुर्बलता की अनुभूति प्रथम कारण है और दूसरा है- हर स्थिति को अपने विपरीत मान बैठना। आशंकाग्रस्त व्यक्ति भोजन में विष मिला होने की कल्पना करके स्त्री द्वारा बनाये, परोसे जाने पर भी शंकाशील रहते हैं। ग्रह नक्षत्रों तक के प्रतिकूल होने दूरस्थ होने पर भी विपत्ति खड़ी करने की कल्पना करते रहते हैं। जैसा का तैसा मिल भी जाता है। डरपोकों को और अधिक डराने वाली उक्तियाँ बताने और घटनाएँ सुनाने वाले भी कहीं न कहीं से आ टपकते हैं।
अपने ऊपर भूत के आक्रमण की आशंका हो तो वैसी चर्चा करते ही ऐसे लोग तत्काल मिल जायेंगे जो उस भय का समर्थन करने वाले संस्मरण सुनाने लगे। भले ही वे सर्वथा कपोल कल्पित ही क्यों न हों। हाँ में हाँ मिलाने की आदत आम लोगों की होती है। भ्रान्तियों का खण्डन करके सही मार्गदर्शन कर सकने योग्य बुद्धिमानों और सत्याग्रहियों की बेतरह कमी हो गई है। गिरे को गिराने वाले ‘शाह मदारों’ की ही भरमार पाई जाती है। फलतः भ्रमग्रस्तों को और अधिक उलझन में फँसा देने वाले ही राह चलते मिल जाते हैं। भ्रान्तियों के बढ़ने का सिलसिला इसी प्रकार चलता रहता है।
ताओ धर्म के प्रवर्तक लाओत्स ने एक दृष्टान्त लिखा है- यमराज ने प्लेग को दस हजार व्यक्ति मार लाने के लिए हुक्म दिया। वह काम पूरा करके लौटे तो साथ में एक लाख मृतकों का समुदाय था। यमराज ने क्रुद्ध होकर इतनी अति करने का कारण पूछा। मौत ने दृढ़ता पूर्वक कहा- “उसने दस हजार से एक भी अधिक नहीं मारा। शेष लोग तो डर के मारे खुद ही मर गये हैं।”
मस्तिष्क को शान्त रखने में इच्छित परिस्थितियों की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए अपने सोचने का तरीका बदल देने और तालमेल बिठाते हुए सौम्य और शान्त स्तर का जीवनयापन करने की कला सीखने और अभ्यास में उतारने भर से काम चल सकता है।
.... समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1984 पृष्ठ 40
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