Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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Language: HINDI
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2. (ब, भ, म) सविता अवतरण का ध्यान
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आनन्दमय कोश यों तो अपने स्थूल शरीर में ही समाया हुआ एक दिव्य शरीर है, पर उसे पकड़ना, प्रभावित करना हो तो उसके केन्द्र स्थान सहस्रार चक्र से सम्बन्ध मिलाना होगा। सहस्रार चक्र मस्तिष्क के मध्य भाग में माना गया है, उसे ब्रह्मरन्ध्र भी कहते हैं।
पृथ्वी के उत्तर ध्रुव पर अन्तर्ग्रही शक्तियों का अवतरण होता है। उसी अनुदान पर पृथ्वी अपनी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं का एक बड़ा भाग पूरा करती है। मनुष्य भी पृथ्वी के समान ही एक पूरा ग्रह है। उसका मस्तिष्कीय मध्य केन्द्र ब्रह्मरन्ध्र उसी प्रकार है जैसे पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव प्रदेश का वह केन्द्र जिसे धुरी कहा जाता है और उसकी भ्रमणशीलता का सारा सन्तुलन बना हुआ है। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु सहस्रार है। इसी स्थल के साथ ब्रह्मसत्ता के साथ उसका सम्बन्ध जुड़ता है। नाभिनाल से माता और भ्रूण का सम्बन्ध जुड़ता है, ठीक इसी प्रकार ब्रह्मसत्ता और आत्मसत्ता के बीच का आदान-प्रदान इसी ब्रह्मरंध्र के मध्यवर्ती सहस्रार घटक पर निर्भर रहता है। पुराणों में ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और रुद्रलोक का बड़ा आकर्षक एवं विचित्र वर्णन है। अनन्त जलराशि—सहस्र दल कमल पुष्प—उस पर ब्रह्माजी का स्थान—तप साधन—यही है ब्रह्मलोक। सहस्र फन वाला शेष सर्प की शैया—विष्णु भगवान् का शयन यही है विष्णुलोक। कैलाश पर्वत, मानसरोवर, सर्प मालाओं का धारण शिवलोक। इन तीनों देवताओं के लोकों का वर्णन मस्तिष्क मध्य के सहस्रार चक्र के साथ ठीक प्रकार बैठ जाता है। मस्तिष्क में भरी हुई मज्जा को जल-राशि, समुद्र मानसरोवर समझा जाना चाहिए। सहस्र फन वाला सर्प—सहस्र दल-कमल—शंकर के गले का सर्प—महाकाल कुण्डलिनी का महासर्प—इन आसनों पर विराजमान ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सद्गुरु आदि यह सारा अलंकारिक चित्रण मस्तिष्क के मध्य भरे हुए गीले पदार्थ का उसके मध्य सहस्रार बिन्दु का और उसके साथ जुड़े हुए ब्राह्मी आदान-प्रदान का—परिचय देता है। सहस्रार स्थल पर गढ़ी हुई कीर्ति ध्वजा शिखा है। जिसे हिन्दू धर्म में साक्षात् देव प्रतिमा के तुल्य पवित्र माना जाता है और मुण्डन संसार के साथ समारोहपूर्वक प्रतिष्ठापित किया जाता है।
सविता शक्ति का आनन्दमय कोश में प्रवेश करने का मार्ग यही सहस्रार चक्र है। अन्य चक्रों की तरह इसका स्वरूप भी शक्ति भंवर-समर्थ चक्रवात जैसा है। विशेषता के अनुरूप उसे सहस्र दल कमल कहा जाता है। सूर्य की हजारों किरणें—समुद्र की हजारों लहरें—ब्रह्म की हजारों आंखें एवं भुजाएं प्रख्यात हैं। इस केन्द्र से भी सहस्रों दिव्य धाराएं विशिष्ट फुहारें की तरह छूटती हैं। इन सब तथ्यों का ध्यान रखते हुए उसे सहस्र दल कमल की संज्ञा दी गई है। सहस्रार का अर्थ है सहस्र आरे वाला। आरे में छोटे-छोटे दांते होते हैं। इन्हें कमल-पुष्प की पंखुरियों के समतुल्य माना गया है। आतिशबाजी की फुलझड़ी में जिस प्रकार एक साथ सहस्रों चिनगारियां छूटती हैं उसी प्रकार इस सहस्रार से भी अगणित शक्ति प्रवाह छूटते हैं और आत्मसत्ता के विभिन्न केन्द्रों को विभिन्न प्रकार से लाभान्वित करते हैं।
आनन्दमय कोश की ध्यान धारणा में सविता का सहस्रार मार्ग से प्रवेश करके समस्त कोश सत्ता पर छा जाने—ओत-प्रोत होने का ध्यान किया जाता है। यदि संकल्प में श्रद्धा, विश्वास की प्रखरता हो तो सहस्रार का चुम्बकत्व सविता शक्ति के प्रचुर परिमाण में आकर्षित करने और धारण करने में सफल हो जाता है। इसकी अनुभूति कान्ति रूप में होती है। कान्ति सामान्यतया सौन्दर्य मिश्रित प्रकाश को कहते हैं और किसी आकर्षण एवं प्रभावशाली चेहरे को कान्तिवान कहते हैं। पर यहां शरीर की नहीं आत्मा की कान्ति का प्रसंग है इसलिए वह तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति के रूप में देखी जाती है। तृप्ति अर्थात् संतोष। तुष्टि अर्थात् प्रसन्नता। शान्ति अर्थात् उद्वेग रहित, सुस्थिर मनःस्थिति। यह तीनों वरदान, तीनों शरीरों में काम करने वाली चेतना के सुसंस्कृत उत्कृष्ट चिन्तन का परिचय देती हैं। स्थूल शरीर सन्तुष्ट तृप्त। सूक्ष्म शरीर प्रसन्न तुष्ट। कारण शरीर शान्त समाहित। यही वह स्थिति है जिसमें सहज मुस्कान बनी रहती है। हलकी-सी मस्ती छाई रहती है। कबीर ने इसी को सहज समाधि कहा है।
सहस्रार को अन्तर्जगत का सविता माना गया है। प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता कहा गया है। ब्रह्माण्ड का सूर्य आकाश में चमकता है। जीव पिण्ड का सविता सहस्रार है उसे भी उदीयमान स्वर्णिम सूर्य की संज्ञा दी गई है। ब्रह्माण्ड की अपनी सीमा में जो कार्य सविता करता है लगभग वैसा ही सहस्रार द्वारा आत्मसत्ता के पांचों कोशों—छहों चक्रों तथा अन्य स्थूल सूक्ष्म अवयवों में सम्पन्न किया जाता है।
आनन्दमय कोश की जागृति में आत्मबोध, तत्वबोध, ब्रह्मबोध का त्रिविधि उद्बोधन समन्वित है। सविता का दिव्य प्रकाश इन त्रिविधि अनुदानों से साधकों को लाभान्वित कर सके इसी के लिए यह ध्यान धारणा की जाती है।
सविता शक्ति का किरण पुंज सहस्रार चक्र में प्रविष्ट, मस्तिष्क के मध्य में दिव्य आलोक की तरंगें, फुहारें अधिक स्पष्ट, अधिक प्रखर हो रही हैं। वही आलोक की तरंगें दूर-दूर तक फैल रही हैं। सर्वत्र आत्मतत्व सर्वत्र अपनी सत्ता की अनुभूति। अद्भुत शान्ति, तुष्टि, तृप्ति का बोध, पूर्ण काम, स्थित प्रज्ञ, अवधूत स्थिति का बोध। आत्मसत्ता एवं ब्रह्मसत्ता में अभेद का अनुभव।
पृथ्वी के उत्तर ध्रुव पर अन्तर्ग्रही शक्तियों का अवतरण होता है। उसी अनुदान पर पृथ्वी अपनी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं का एक बड़ा भाग पूरा करती है। मनुष्य भी पृथ्वी के समान ही एक पूरा ग्रह है। उसका मस्तिष्कीय मध्य केन्द्र ब्रह्मरन्ध्र उसी प्रकार है जैसे पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव प्रदेश का वह केन्द्र जिसे धुरी कहा जाता है और उसकी भ्रमणशीलता का सारा सन्तुलन बना हुआ है। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु सहस्रार है। इसी स्थल के साथ ब्रह्मसत्ता के साथ उसका सम्बन्ध जुड़ता है। नाभिनाल से माता और भ्रूण का सम्बन्ध जुड़ता है, ठीक इसी प्रकार ब्रह्मसत्ता और आत्मसत्ता के बीच का आदान-प्रदान इसी ब्रह्मरंध्र के मध्यवर्ती सहस्रार घटक पर निर्भर रहता है। पुराणों में ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और रुद्रलोक का बड़ा आकर्षक एवं विचित्र वर्णन है। अनन्त जलराशि—सहस्र दल कमल पुष्प—उस पर ब्रह्माजी का स्थान—तप साधन—यही है ब्रह्मलोक। सहस्र फन वाला शेष सर्प की शैया—विष्णु भगवान् का शयन यही है विष्णुलोक। कैलाश पर्वत, मानसरोवर, सर्प मालाओं का धारण शिवलोक। इन तीनों देवताओं के लोकों का वर्णन मस्तिष्क मध्य के सहस्रार चक्र के साथ ठीक प्रकार बैठ जाता है। मस्तिष्क में भरी हुई मज्जा को जल-राशि, समुद्र मानसरोवर समझा जाना चाहिए। सहस्र फन वाला सर्प—सहस्र दल-कमल—शंकर के गले का सर्प—महाकाल कुण्डलिनी का महासर्प—इन आसनों पर विराजमान ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सद्गुरु आदि यह सारा अलंकारिक चित्रण मस्तिष्क के मध्य भरे हुए गीले पदार्थ का उसके मध्य सहस्रार बिन्दु का और उसके साथ जुड़े हुए ब्राह्मी आदान-प्रदान का—परिचय देता है। सहस्रार स्थल पर गढ़ी हुई कीर्ति ध्वजा शिखा है। जिसे हिन्दू धर्म में साक्षात् देव प्रतिमा के तुल्य पवित्र माना जाता है और मुण्डन संसार के साथ समारोहपूर्वक प्रतिष्ठापित किया जाता है।
सविता शक्ति का आनन्दमय कोश में प्रवेश करने का मार्ग यही सहस्रार चक्र है। अन्य चक्रों की तरह इसका स्वरूप भी शक्ति भंवर-समर्थ चक्रवात जैसा है। विशेषता के अनुरूप उसे सहस्र दल कमल कहा जाता है। सूर्य की हजारों किरणें—समुद्र की हजारों लहरें—ब्रह्म की हजारों आंखें एवं भुजाएं प्रख्यात हैं। इस केन्द्र से भी सहस्रों दिव्य धाराएं विशिष्ट फुहारें की तरह छूटती हैं। इन सब तथ्यों का ध्यान रखते हुए उसे सहस्र दल कमल की संज्ञा दी गई है। सहस्रार का अर्थ है सहस्र आरे वाला। आरे में छोटे-छोटे दांते होते हैं। इन्हें कमल-पुष्प की पंखुरियों के समतुल्य माना गया है। आतिशबाजी की फुलझड़ी में जिस प्रकार एक साथ सहस्रों चिनगारियां छूटती हैं उसी प्रकार इस सहस्रार से भी अगणित शक्ति प्रवाह छूटते हैं और आत्मसत्ता के विभिन्न केन्द्रों को विभिन्न प्रकार से लाभान्वित करते हैं।
आनन्दमय कोश की ध्यान धारणा में सविता का सहस्रार मार्ग से प्रवेश करके समस्त कोश सत्ता पर छा जाने—ओत-प्रोत होने का ध्यान किया जाता है। यदि संकल्प में श्रद्धा, विश्वास की प्रखरता हो तो सहस्रार का चुम्बकत्व सविता शक्ति के प्रचुर परिमाण में आकर्षित करने और धारण करने में सफल हो जाता है। इसकी अनुभूति कान्ति रूप में होती है। कान्ति सामान्यतया सौन्दर्य मिश्रित प्रकाश को कहते हैं और किसी आकर्षण एवं प्रभावशाली चेहरे को कान्तिवान कहते हैं। पर यहां शरीर की नहीं आत्मा की कान्ति का प्रसंग है इसलिए वह तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति के रूप में देखी जाती है। तृप्ति अर्थात् संतोष। तुष्टि अर्थात् प्रसन्नता। शान्ति अर्थात् उद्वेग रहित, सुस्थिर मनःस्थिति। यह तीनों वरदान, तीनों शरीरों में काम करने वाली चेतना के सुसंस्कृत उत्कृष्ट चिन्तन का परिचय देती हैं। स्थूल शरीर सन्तुष्ट तृप्त। सूक्ष्म शरीर प्रसन्न तुष्ट। कारण शरीर शान्त समाहित। यही वह स्थिति है जिसमें सहज मुस्कान बनी रहती है। हलकी-सी मस्ती छाई रहती है। कबीर ने इसी को सहज समाधि कहा है।
सहस्रार को अन्तर्जगत का सविता माना गया है। प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता कहा गया है। ब्रह्माण्ड का सूर्य आकाश में चमकता है। जीव पिण्ड का सविता सहस्रार है उसे भी उदीयमान स्वर्णिम सूर्य की संज्ञा दी गई है। ब्रह्माण्ड की अपनी सीमा में जो कार्य सविता करता है लगभग वैसा ही सहस्रार द्वारा आत्मसत्ता के पांचों कोशों—छहों चक्रों तथा अन्य स्थूल सूक्ष्म अवयवों में सम्पन्न किया जाता है।
आनन्दमय कोश की जागृति में आत्मबोध, तत्वबोध, ब्रह्मबोध का त्रिविधि उद्बोधन समन्वित है। सविता का दिव्य प्रकाश इन त्रिविधि अनुदानों से साधकों को लाभान्वित कर सके इसी के लिए यह ध्यान धारणा की जाती है।
सविता शक्ति का किरण पुंज सहस्रार चक्र में प्रविष्ट, मस्तिष्क के मध्य में दिव्य आलोक की तरंगें, फुहारें अधिक स्पष्ट, अधिक प्रखर हो रही हैं। वही आलोक की तरंगें दूर-दूर तक फैल रही हैं। सर्वत्र आत्मतत्व सर्वत्र अपनी सत्ता की अनुभूति। अद्भुत शान्ति, तुष्टि, तृप्ति का बोध, पूर्ण काम, स्थित प्रज्ञ, अवधूत स्थिति का बोध। आत्मसत्ता एवं ब्रह्मसत्ता में अभेद का अनुभव।