Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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Language: HINDI
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2. (झ, ञ, ट) सविता अवतरण का ध्यान
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बिजली यों मोटर के सभी तारों में दौड़ती है, पर उसका नियन्त्रण स्टाटर या स्विच से होता है। ताला एक पूर्ण यन्त्र है, पर उसके खुलने, बन्द होने की क्रिया ताली के छिद्र से होती है। आहार का परिपाक एवं उपयोग पूरे शरीर में होता है, पर उसे ग्रहण मुख मार्ग से ही किया जाता है। इसी प्रकार प्राणमय कोश यों एक पूरा शरीर है किन्तु उसका नियन्त्रण केन्द्र मूलाधार चक्र है।
मूलाधार चक्र मल-मूत्र छिद्रों के मध्य भाग में माना गया है। यह त्वचा से सटा गुंथा नहीं, वरन् गुदा गह्वर में प्रायः तीन अंगुल की गहराई पर होता है। इसे मेरुदण्ड के अन्तिम अस्थि भाग के समीप कहा जा सकता है। प्रत्यक्षतः तो यहां कुछ नाड़ी गुच्छक, प्लेसस, हारमोन ग्रन्थियों तथा योनिकन्द का अस्तित्व है। पर इनमें से एक को भी मूलाधार चक्र नहीं कहा जा सकता। चक्र सूक्ष्म हैं। वे परमाणु घटकों की तरह आंखों से नहीं देखे जा सकते, प्रतिक्रियाओं के आधार पर उनके अस्तित्व स्वरूप एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण किया जा सकता है। जिस क्षेत्र में यह चक्र होते हैं वहां के सूक्ष्म अवयवों की क्रियाएं मिलती-जुलती हो जाती हैं जैसे कि चन्दन की सुगन्ध से समीपवर्ती वातावरण भी वैसा ही सुगन्धमय हो जाता है। नाड़ी गुच्छक ‘प्लेक्सस’ शरीर में मेरुदण्ड के इर्द-गिर्द पाये जाते हैं, कइयों ने उन्हें ही चक्र संज्ञा दी है, पर वस्तुतः वैसे हैं नहीं। वे सूक्ष्म शरीर के महत्वपूर्ण अवयव एवं शक्ति केन्द्र हैं। मूलाधार चक्र उन्हीं में से एक है।
प्राणमय शरीर का केन्द्र मूलाधार चक्र है। प्राणमय कोश का प्रवेश द्वार भी उसे कह सकते हैं। प्रवेश द्वार से तात्पर्य है व्यष्टि और समष्टि का सम्पर्क बिन्दु। जिस प्रकार गर्भस्थ बालक नाभि नाल के माध्यम से माता के साथ जुड़ा रहता है, उसी प्रकार इन प्रवेश द्वारों को व्यष्टि और समष्टि के बीच का समन्वय संस्थान इन चक्रों को कहा जा सकता है। जिस प्रकार परमाणु अपनी धुरी पर घूमता है उसी प्रकार यह चक्र भी नदी के भंवर की तरह निरन्तर गतिशील रहते हैं। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में गरम हवा के प्रवाह की उलझन चक्रवात, साइक्लोन उत्पन्न करती है, उसी प्रकार इन चक्रों की स्थिति भी शक्ति भंवर एवं समर्थ चक्रवात जैसी होती है। इसी द्रुतगामी परिभ्रमण के कारण उनके मध्य वह सशक्तता उत्पन्न होती है; जिसके सहारे अनेक प्रकार के दिव्य एवं चमत्कारी प्रयोजन पूरे होते हैं।
प्राणमय कोश की ध्यान धारणा में भावना करनी पड़ती है कि सविता शक्ति मूलाधार चक्र के माध्यम से समस्त प्राणमय कोश में प्रवेश करते और संव्याप्त होते हैं। प्राण—चूंकि एक प्रकार की विद्युत शक्ति है। इसलिए सविता देव का स्वरूप भी प्राणमय कोश में विद्युत रूप में ही रहता है। भावना करते हैं कि सविता की विद्युत शक्ति काया में संव्याप्त बिजली के साथ मिलकर उसकी क्षमता को असंख्य गुना बढ़ा देती है। सारा प्राण शक्ति विद्युत से भरा जाता है और उसकी स्थिति विद्युत पुंज एवं विद्युत पिण्ड जैसी बन जाती है। अध्यात्म शास्त्रों में प्राण विद्युत को तेजस् कहा गया है। साधक ध्यान करता है कि मेरे कण-कण में, नस-नस में, रोम-रोम में सविता से अवतरित विशिष्ट विद्युत शक्ति का प्रवाह गतिशील हो रहा है और आत्मसत्ता प्राण विद्युत से ओत-प्रोत एवं आलोकित हो रही है। यह दिव्य विद्युत प्रतिभा बनकर व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाती है। अपने पराक्रम और साहस का जागरण तथा दूसरों को उच्चस्तरीय सहयोग, प्रोत्साहन दे सकना इसी बढ़ी हुई प्राण विद्युत के सहारे सहज सम्भव हो जाता है।
प्राणमय कोश की ध्यान धारणा के समय अपने प्राण में सविता प्राण की प्रचुर मात्रा भरती और बढ़ती जाने की आस्था जमाई जाती है। यह कल्पना की उड़ान नहीं, वरन् एक सुनिश्चित यथार्थता है। यदि इस भावना के साथ श्रद्धा का समुचित समावेश हो तो साधन सहज ही अपने में प्राण तत्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता जायगा। धारणा का अन्तिम चरण ‘जागृत’ आत्म संकेत के साथ पूरा किया जाता है। निर्देश है—‘‘प्राणमय कोश जागृत, मूलाधार चक्र जागृत, प्राण विद्युत जागृत, प्रतिभा जागृत, पराक्रम जागृत, साहस जागृत।’’ इन्हें शब्दों के रूप में ही दुहरा नहीं देना चाहिए, वरन् समग्र निष्ठा के साथ यह अनुभव करना चाहिए कि सचमुच ही वे सभी तत्व जागृत हो चलें जिनके सम्बन्ध में यह निर्देशन किये गये हैं।
ध्यान करें—शरीर विद्युत संचार का केन्द्र मूलाधार चक्र, सविता देवता का प्रकाश नुकीले किरण पुंज के रूप में प्रविष्ट होता है। प्रतिक्रिया दिव्य प्राण विद्युत की प्रचुर उत्पत्ति हो रही है, सारे शरीर में उसका संचार होता है, प्राण तेजस् कण-कण को संस्कारित कर रहा है। अन्तःकरण में तेजस्विता, प्रतिभा, साहस के उभार एवं संचार की अनुभूति होती है। आदर्शों के लिए कुछ भी कर-गुजरने के अनुपम साहस का स्पष्ट बोध होता है।
मूलाधार चक्र मल-मूत्र छिद्रों के मध्य भाग में माना गया है। यह त्वचा से सटा गुंथा नहीं, वरन् गुदा गह्वर में प्रायः तीन अंगुल की गहराई पर होता है। इसे मेरुदण्ड के अन्तिम अस्थि भाग के समीप कहा जा सकता है। प्रत्यक्षतः तो यहां कुछ नाड़ी गुच्छक, प्लेसस, हारमोन ग्रन्थियों तथा योनिकन्द का अस्तित्व है। पर इनमें से एक को भी मूलाधार चक्र नहीं कहा जा सकता। चक्र सूक्ष्म हैं। वे परमाणु घटकों की तरह आंखों से नहीं देखे जा सकते, प्रतिक्रियाओं के आधार पर उनके अस्तित्व स्वरूप एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण किया जा सकता है। जिस क्षेत्र में यह चक्र होते हैं वहां के सूक्ष्म अवयवों की क्रियाएं मिलती-जुलती हो जाती हैं जैसे कि चन्दन की सुगन्ध से समीपवर्ती वातावरण भी वैसा ही सुगन्धमय हो जाता है। नाड़ी गुच्छक ‘प्लेक्सस’ शरीर में मेरुदण्ड के इर्द-गिर्द पाये जाते हैं, कइयों ने उन्हें ही चक्र संज्ञा दी है, पर वस्तुतः वैसे हैं नहीं। वे सूक्ष्म शरीर के महत्वपूर्ण अवयव एवं शक्ति केन्द्र हैं। मूलाधार चक्र उन्हीं में से एक है।
प्राणमय शरीर का केन्द्र मूलाधार चक्र है। प्राणमय कोश का प्रवेश द्वार भी उसे कह सकते हैं। प्रवेश द्वार से तात्पर्य है व्यष्टि और समष्टि का सम्पर्क बिन्दु। जिस प्रकार गर्भस्थ बालक नाभि नाल के माध्यम से माता के साथ जुड़ा रहता है, उसी प्रकार इन प्रवेश द्वारों को व्यष्टि और समष्टि के बीच का समन्वय संस्थान इन चक्रों को कहा जा सकता है। जिस प्रकार परमाणु अपनी धुरी पर घूमता है उसी प्रकार यह चक्र भी नदी के भंवर की तरह निरन्तर गतिशील रहते हैं। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में गरम हवा के प्रवाह की उलझन चक्रवात, साइक्लोन उत्पन्न करती है, उसी प्रकार इन चक्रों की स्थिति भी शक्ति भंवर एवं समर्थ चक्रवात जैसी होती है। इसी द्रुतगामी परिभ्रमण के कारण उनके मध्य वह सशक्तता उत्पन्न होती है; जिसके सहारे अनेक प्रकार के दिव्य एवं चमत्कारी प्रयोजन पूरे होते हैं।
प्राणमय कोश की ध्यान धारणा में भावना करनी पड़ती है कि सविता शक्ति मूलाधार चक्र के माध्यम से समस्त प्राणमय कोश में प्रवेश करते और संव्याप्त होते हैं। प्राण—चूंकि एक प्रकार की विद्युत शक्ति है। इसलिए सविता देव का स्वरूप भी प्राणमय कोश में विद्युत रूप में ही रहता है। भावना करते हैं कि सविता की विद्युत शक्ति काया में संव्याप्त बिजली के साथ मिलकर उसकी क्षमता को असंख्य गुना बढ़ा देती है। सारा प्राण शक्ति विद्युत से भरा जाता है और उसकी स्थिति विद्युत पुंज एवं विद्युत पिण्ड जैसी बन जाती है। अध्यात्म शास्त्रों में प्राण विद्युत को तेजस् कहा गया है। साधक ध्यान करता है कि मेरे कण-कण में, नस-नस में, रोम-रोम में सविता से अवतरित विशिष्ट विद्युत शक्ति का प्रवाह गतिशील हो रहा है और आत्मसत्ता प्राण विद्युत से ओत-प्रोत एवं आलोकित हो रही है। यह दिव्य विद्युत प्रतिभा बनकर व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाती है। अपने पराक्रम और साहस का जागरण तथा दूसरों को उच्चस्तरीय सहयोग, प्रोत्साहन दे सकना इसी बढ़ी हुई प्राण विद्युत के सहारे सहज सम्भव हो जाता है।
प्राणमय कोश की ध्यान धारणा के समय अपने प्राण में सविता प्राण की प्रचुर मात्रा भरती और बढ़ती जाने की आस्था जमाई जाती है। यह कल्पना की उड़ान नहीं, वरन् एक सुनिश्चित यथार्थता है। यदि इस भावना के साथ श्रद्धा का समुचित समावेश हो तो साधन सहज ही अपने में प्राण तत्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता जायगा। धारणा का अन्तिम चरण ‘जागृत’ आत्म संकेत के साथ पूरा किया जाता है। निर्देश है—‘‘प्राणमय कोश जागृत, मूलाधार चक्र जागृत, प्राण विद्युत जागृत, प्रतिभा जागृत, पराक्रम जागृत, साहस जागृत।’’ इन्हें शब्दों के रूप में ही दुहरा नहीं देना चाहिए, वरन् समग्र निष्ठा के साथ यह अनुभव करना चाहिए कि सचमुच ही वे सभी तत्व जागृत हो चलें जिनके सम्बन्ध में यह निर्देशन किये गये हैं।
ध्यान करें—शरीर विद्युत संचार का केन्द्र मूलाधार चक्र, सविता देवता का प्रकाश नुकीले किरण पुंज के रूप में प्रविष्ट होता है। प्रतिक्रिया दिव्य प्राण विद्युत की प्रचुर उत्पत्ति हो रही है, सारे शरीर में उसका संचार होता है, प्राण तेजस् कण-कण को संस्कारित कर रहा है। अन्तःकरण में तेजस्विता, प्रतिभा, साहस के उभार एवं संचार की अनुभूति होती है। आदर्शों के लिए कुछ भी कर-गुजरने के अनुपम साहस का स्पष्ट बोध होता है।