Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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ध्यान धारणा का आधार और प्रतिफल
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भूमि का उर्वर और रत्न गर्भा होना सर्वविदित है। आकाश से जल और जीवन बरसने की बात भी सभी जानते हैं। समुद्र के उत्पादनों, अनुदानों का कोई वारापार नहीं। मानवीसत्ता इन सबसे बढ़ कर है। यदि व्यक्तित्व की गुप्त प्रकट परतों को ठीक तरह समझा और संजोया जा सके तो इस हाड़-मांस की काया में देवताओं और अवतारों की झांकी हो सकती है। पराक्रम और पुरुषार्थ के आधार पर ही सम्पदाएं कमाई और सफलताएं पाई जाती हैं।
काया का प्रत्येक अवयव अद्भुत है। उसकी संरचना और क्रिया शक्ति को जितना ही गहराई से देखा जाता है, उतना ही उसे रहस्यमय और आश्चर्यजनक पाया जाता है। इन सब अवयवों में मस्तिष्क सर्वोपरि है। उसके चेतन, अचेतन और उच्च चेतन की गतिविधियों को देखने से पता चलता है कि इसका अधिष्ठाता सूत्र संचालक जीवात्मा कितना महान होना चाहिए। लोक-व्यवहार की कुशलता, शिक्षा, अनुभव, कला, शिल्प आदि की अर्थ उपार्जन, यश सम्पादन, सुख-साधन जैसी क्षमताओं से सभी परिचित हैं। फलतः प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति अपनी और अपने स्वजनों की बौद्धिक क्षमता विकसित करने के लिए समुचित प्रयत्न करता है। शरीर सभी के लगभग एक जैसे—मिलते-जुलते हैं। विशेषता मानसिक धरातल की है जो उसे विकसित कर लेते हैं, वे अनेकानेक सफलताएं पाते हैं जो इस क्षेत्र में पिछड़े रह जाते हैं उन्हें अभावग्रस्त, कष्टसाध्य एवं घटिया स्तर पर गुजारा करना पड़ता है। जीवन की प्रगति अवगति का बहुत कुछ आधार मनुष्य के बौद्धिक स्तर पर निर्भर रहता है।
यह सचेतन मस्तिष्क की प्रक्रिया हुई। अचेतन के आधार पर अवयवों की आन्तरिक गतिविधियां चलती हैं। भली-बुरी आदतें उसी में जड़ें जमाये पड़ी रहती हैं। रुचियों एवं आकांक्षाओं की पटरी जिधर भी मुड़ती है, जीवन की रेल उसी भली-बुरी दिशा में दौड़ती चली जाती है। काय कलेवर का स्वरूप, आकर्षण, उसका पौरुष, कौशल बहुत करके अचेतन मस्तिष्क का निर्माण कौशल होता है। विधि का विधान और भाग्य निर्धारण किन्हीं अज्ञात शक्तियों द्वारा बना कहा जाता है। यह रहस्यमय अज्ञात—व्यक्तित्व का सृष्टा और कोई नहीं, मात्र अचेतन ही है जो मस्तिष्क की गहन कन्दराओं में बैठा जीवन की दिशा धाराओं का निर्धारण-सूत्र संचालन करता रहता है। मस्तिष्क विज्ञान के ज्ञाता कहते हैं कि मनःसंस्थान के रहस्यों का बहुत थोड़ा अंश अभी जाना जा सका है। ज्ञात की तुलना में अविज्ञात कहीं अधिक विस्तृत है। मस्तिष्कीय क्षमताओं का एक अति स्वल्प भाग ही काम में आता है, यदि उसकी मूर्छाग्रस्त परतें जगाई और काम में लाई जा सकें तो सामान्य दीखने वाली मानवी काया में दैत्याकार शक्ति-सत्ता के दर्शन हो सकते हैं। यदि अचेतन पर नियन्त्रण कर सकना सम्भव हो सके तो वह उक्ति अक्षरशः सत्य सिद्ध हो सकती है, जिसमें मनुष्य को अपने भाग्य का स्वयं निर्माता कहा गया है।
चेतन और अचेतन से ऊपर की परत उच्च चेतन (सुपर कांशस) की है। यह ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ अपना सम्पर्क साधती और आदान-प्रदान का द्वार खोलती है। सूक्ष्म-जगत में भरी हुए पदार्थ और चलते हुए प्रवाह अपने इस स्थूल जगत की तुलना में अत्यन्त उच्चकोटि के हैं। उनके साथ आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़े तो मनुष्य उन रहस्यमय जानकारियों से परिचित हो सकता है जो सर्वसाधारण को विदित नहीं। उन दिव्य सहायताओं को प्राप्त कर सकता है जो सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं। स्थूल शक्तियों के सहारे—स्थूल जगत के कुछ पदार्थ साधन ही उपलब्ध हो पाते हैं, पर सूक्ष्म शक्तियों के सहारे-सूक्ष्म जगत से ऐसे अनुदान प्राप्त किये जा सकते हैं जिन्हें देव वरदान की संज्ञा दी जा सके। अतीन्द्रिय ज्ञान एवं आत्मबल के सहारे कितने ही चमत्कारी व्यक्तियों एवं घटना-क्रमों के विवरण देखने-सुनने में आते रहते हैं। यह अपने ही उच्च चेतन मन की विशिष्टता है जो सक्रिय होने पर अलौकिकता का परिचय देती है।
मस्तिष्कीय नियन्त्रण अति कठिन है। आत्मसत्ता सर्व समर्थ होते हुए भी असहायों, अनाथों, असमर्थों और अभावग्रस्तों जैसा जीवनयापन करती है, इसका सर्व प्रमुख कारण एक ही है आत्म-नियन्त्रण का अभाव। प्रवृत्तियां उच्छृंखल घोड़े की तरह मनमानी उछल-कूद मचाती रहती हैं। जब मनःस्थिति पर ही नियन्त्रण नहीं तो परिस्थितियों पर काबू कैसे पाया जाय? परिस्थितियों में सुधार तो हर कोई चाहता है, पर मनःस्थिति में हेर-फेर करना बन नहीं पड़ता, ऐसी दशा में सुख-शान्ति के मनोरथ अधूरे ही बने रहते हैं। तत्वदर्शी कहते रहे हैं जिसने ‘आत्म—विजय कर ली उसने संसार जीत लिया।’ इस उक्ति में इतनी सचाई तो है कि आत्म-नियन्त्रण कर सकने पर अपने व्यक्तिगत संसार को इच्छानुकूल ढालना—इच्छानुरूप बनाना—सम्भव हो जाता है। आत्म–नियन्त्रण का अर्थ है अपने चिन्तन तन्त्र पर अपना अधिकार—अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेना। यह कार्य विचारों की अनियन्त्रित उछल-कूद को इच्छित दिशा धारा में लगा सकने के रूप में सम्पन्न होता है। इसका अभ्यास ध्यान योग के द्वारा किया जाता है। मन के सामने कुछ स्वरूप कुछ विचार प्रस्तुत किये जाते हैं और उस पर दबाव डाला जाता है कि वह उसी केन्द्र तक अपनी गतिविधियां सीमित रखे। अनियंत्रित उछल-कूद बन्द करे। यों यह कार्य अति कठिन है, पर सुदृढ़ संकल्प एवं सतत प्रयत्न से इसमें भी धीरे-धीरे सरलता होती और सफलता मिलती जाती है। मनोनिग्रह की आदत कभी रही नहीं। मन के पीछे ही अपना व्यक्तित्व घिसटता रहा है। कुसंस्कारी मन आलस्य प्रमाद से लेकर दुर्व्यसनों, दुष्कर्मों और दुष्प्रवृत्तियों में रस लेने का अभ्यस्त रहा है। उसे रोका, संभाला; साधा गया होता तो कब का सुसंस्कृत बन गया होता और अपनी गणना श्रद्धास्पद सज्जनों में हो चुकी होती। अजस्र सहयोग और सम्मान सब ओर से बरस रहा होता। मन का अनगढ़पन ही है, जिसने प्रवृत्तियों और गतिविधियों को हेय स्तर का बनाकर पिछड़ेपन की वर्तमान दुर्दशा में पड़े रहने के लिए विवश कर दिया। परिस्थितियों में यदि चिरस्थायी सुधार करना हो तो मनःस्थिति में घुसी हुई विकृतियों का परिमार्जन करना होता है। इस परिमार्जन के लिए अपने ऊपर आप नियन्त्रण स्थापित करने की कला सीखनी होती है। ध्यानयोग का समूचा शास्त्र इसी उद्देश्य के लिए गढ़ा गया है।
ध्यान के कई उद्देश्य हैं—(1) अनगढ़ दिमागी उछल-कूद को नियन्त्रित करना (2) नियन्त्रित विचार शक्ति को अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित कर सकना (3) एकाग्रता द्वारा बौद्धिक प्रखरता उत्पन्न करना (4) संकल्प-शक्ति को किसी भी केन्द्र पर केन्द्रित करके वहां चमत्कारी हलचलें उत्पन्न करना (5) चेतना की रहस्यमयी परतों को अपने ही मनोबल से उभारना, उछालना (6) अवांछनीय कुसंस्कारों का उन्मूलन (7) सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन (8) प्रतिकूलताओं के बीच भी सन्तुलन बनाये रहना (9) हर स्थिति में आनन्द और उल्लास भरी मनोभूमि बनाये रहना (10) अपनी विचार विद्युत से सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करना और वातावरण में सुख शान्ति सम्वर्धक तत्वों को बढ़ा कर लोक-मंगल का पथ-प्रशस्त करना।
यह ध्यान धारणा के लौकिक-बौद्धिक प्रयोग हैं। यह लाभ थोड़ी-सी सावधानी एवं तन्मयता के सहारे कोई नास्तिक समझा जाने वाला व्यक्ति भी उठा सकता है। यह ध्यान प्रक्रिया के सामान्य एवं माध्यमिक स्तर का प्रयोग मात्र है, किन्तु आज के बुद्धि एवं तर्क प्रधान व्यक्ति भी इसकी उपयोगिता से इनकार नहीं कर सकते। यह लाभ सामान्य श्रद्धा सम्वेदना युक्त व्यक्ति भी प्राप्त कर सकता है।
इससे आगे ध्यान के उच्चस्तरीय लाभ हैं। उसके लिए विशिष्ट श्रद्धा एवं भाव-सम्वेदनाओं से सम्पन्न अन्तःकरण की आवश्यकता पड़ती है। उसके अन्तर्गत साधक अपनी चेतना को महत् चेतना से जोड़ सकता है। गुरु एवं इष्ट की शक्तियों को आकर्षित करना, उन्हें धारण करना इसी स्तर के ध्यान प्रयोग से सम्भव होता है। आत्मतत्व को परमात्म तत्व से एकाकार करना इसी के सहारे सम्भव होता है। यह बात ठीक है कि मनुष्य में स्वतः ही अद्भुत शक्तियों का भण्डार विद्यमान है और वह उन्हें अपने ही प्रयत्न पुरुषार्थ से जागृत भी कर सकता है। प्राथमिक, माध्यमिक स्तर का ध्यान प्रयोग इसीलिए है। किन्तु उच्चस्तरीय ध्यान प्रयोग में दिव्यात्माओं का प्रत्यक्ष संयोग पा सकना, मनुष्य की सीमित सत्ता से असीमसत्ता का योग-संयोग सम्भव है। ईश्वर प्राप्ति, जीवन-लक्ष्य प्राप्ति, आत्मा का परमात्मा से योग आदि ध्यान धारण के उच्चस्तरीय उद्देश्य हैं।
जिस प्रकार शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सुसम्पन्नता के सम्वर्धन में अपने-अपने सम्पर्क क्षेत्र की और सार्वजनिक हित साधन की संगठना बढ़ती है, उसी प्रकार मनःसंस्थान के परिष्कृत और प्रखर बनने से भी व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारक परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। स्थूल जगत से हम अनेकों प्रकार के लाभ अपने प्रत्यक्ष पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहते हैं। सूक्ष्म जगत की विभूतियां और भी बढ़ी-चढ़ी हैं। उन्हें आकर्षित कर सकना जिस प्रचण्ड मनोबल द्वारा सम्भव होता है उसे उत्पन्न करने के लिए ध्यान योग की प्रक्रिया अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होती है। अनियन्त्रित वन्य पशु अपने लिए हानिकारक ही बने रहते हैं, पर जब उन्हें पालतू प्रशिक्षित कर लिया जाता है तो अनेक प्रकार के लाभ देने लगते हैं। ठीक इसी प्रकार अपनी अनेकों क्षमताओं को जब इच्छानुसार नियन्त्रित एवं नियोजित करने की कुशलता हस्तगत हो जाती है तो उतने भर से व्यक्तित्व असाधारण रूप से समर्थ एवं सुसंस्कृत दृष्टिगोचर होने लगता है। बिना किसी दूसरे की सहायता के अपनी ऐसी आन्तरिक प्रगति कर सकना मानवी जीवन की बहुत बड़ी सफलता है। इस उपलब्धि के सहारे कितने प्रकार की—कितनी अधिक मात्रा में सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं, इसे देखते हुए ध्यानयोग को किसी चमत्कारी देवता की सुनिश्चित आराधना करने के समतुल्य ही ठहराया जा सकता है।
ध्यान से भगवान् प्राप्त होते हैं—आत्म-साक्षात्कार का अवसर मिलता है, निरोगता और बलिष्ठता का लाभ मिलता है, गुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, ऋद्धि-सिद्धियों भरे वरदान प्राप्त होते हैं जैसे अनेकों लाभ साधना शास्त्र में गिनाये गये हैं। यह कथन यथार्थ है। चेतना की सामर्थ्य अनन्त है। उससे लाभान्वित होने में एक ही बाधा है कि मनोनिग्रह की कला हस्तगत नहीं होती। जिसने इस कौशल में प्रवीणता प्राप्त करली समझना चाहिए कि उसने अनेकों देव-दानव वशवर्ती कर लिए।
पंचकोशों की ध्यान धारणा से अपनी ही चेतना के पांच प्राण—अपनी ही काया के पंच तत्व इतने प्रखर, परिष्कृत हो जाते हैं कि उन्हें दश दिकपाली की—दश दिग्गजों की उपमा दी जा सके। गायत्री माता की पांच मुखी प्रतिमाओं में अलंकारिक रूप से इन्हीं अन्तर्जगत के पांच देवों की शक्तियां सन्निहित होने का संकेत है। इस ध्यान धारणा को यदि ठीक तरह किया जा सके तो उससे अन्तर्जगत का शासन हाथ में आता है और साथ ही सूक्ष्म जगत से महत्वपूर्ण आदान-प्रदान का लाभ मिलता है।
कुण्डलिनी जागरण की ध्यान साधना में—काय-कलेवर में—बीज रूप से समाहित असंख्य शक्तियों के उद्भव एवं उपयोग का द्वार खुलता है। कुण्डलिनी शरीरगत ऊर्जा है जिसके सहारे भौतिक जगत की अनेक शक्तियों को आकर्षित करके समर्थ शक्तिवान बना जा सकता है। पंचकोश अनावरण में चेतना शक्ति की रहस्यमय परतों को उभारा जाता है। आत्मसत्ता को पंचकोशों के और काय सत्ता को कुण्डलिनी के माध्यम से प्रखर बनाया जाता है। इस उभय-पक्षीय प्रयोजन की सिद्धि में अन्य साधनाओं के अतिरिक्त ध्यान धारणा का सर्वोपरि स्थान है।
ध्यान की मोटी जानकारी सामान्य लोगों को इतनी ही होती है कि उस समय कोई तस्वीर सामने खड़ी रहनी चाहिए और मन उसमें रमा रहना चाहिए। यह आंशिक सत्य है और ध्यान का यह भी एक उपाय है। यह स्थिति आती भी हैं, पर जिनकी मानसिक संरचना इस प्रकार के चित्र अपने संकल्प-बल से उभारने की होती है, उन्हीं को ऐसे कल्पना चित्र आरम्भ में धुंधले पीछे अधिक स्पष्ट दीखते हैं। पर यह स्थिति हर किसी को प्राप्त नहीं हो सकती, यह मस्तिष्कीय विशिष्ट प्रकार की संरचना से ही सम्भव है। उनमें भी ऐसा तभी होता है जब वे अपनी समस्त भावना, कल्पना, श्रद्धा एवं एकाग्रता का समन्वय करके इष्टदेव के अथवा दूसरे प्रकार के चित्रों को उभारने की सतत् साधना जारी रखें।
ध्यान पर बैठते ही हर साधक को अभीष्ट दृश्य अनायास ही प्रकट होने लगेंगे और वे मजे-मजे में फिल्म की तरह उसे देखते रहा करेंगे, ऐसी मान्यता बना लेना नितान्त उपहासास्पद है और ऐसी है जिसका पूरा हो सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। भाव चित्र आरम्भ में मूर्तियों या तस्वीरों के माध्यम से मस्तिष्क पर जमाये जाते हैं। उन्हें आंख खोलकर देखने और फिर आंखें बन्द करके उसी दृश्य को देखने के त्राटक प्रयोग की तरह अभ्यास में उतारा जाता है, तब कहीं धीरे-धीरे आधे-अधूरे भाव चित्रों का निर्माण होता है और वह क्रमिक प्रगति आगे बढ़ती है।
हर मस्तिष्क की संरचना भाव चित्र उभारने, ध्यान में अभीष्ट दृश्य देखने की नहीं होती। अस्तु उनके लिए ध्यान को केन्द्रित करने के लिए दृश्ययोग का—बिन्दुयोग का—अभ्यास नहीं कराया जाता है। मूल उद्देश्य विचार प्रवाह के बिखराव को रोक कर एक सीमित प्रयोजन में केन्द्रित होने का अभ्यास कराया जाता है। यह पांचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकता है। कर्णेन्द्रिय के माध्यम से नादयोग—नासिका द्वारा गन्धयोग—जिह्वा द्वारा रसनायोग—त्वचा द्वारा स्पर्शयोग के अनेकों विधि-विधान हैं, जिनमें सूक्ष्म नेत्रों द्वारा दृश्यों को देखा जाता है।
आरम्भ के साधकों के लिए यह अधिक उपयुक्त है कि एक श्रेष्ठ विचारधारा के प्रवाह में बहने के लिए रास्ता बना दिया जाय। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, दार्शनिकों की ध्यान धारणा इसी प्रकार की होती है कि वे एक सीमित विचार-पद्धति को अपनाकर उसी दायरे में अपने चिन्तन क्रम को नियोजित किये रहते हैं और उसके आश्चर्यजनक सत्परिणाम उपलब्ध करते हैं। पंचकोशों और कुण्डलिनी जागरण की ध्यान धारणा में यही नीति अपनाई गई है। उसमें चिन्तन प्रवाह मुख्य है। उसी के अनुरूप मानचित्र जितने कुछ उभर सके एक फिल्म कथानक की तरह उभरते रहने चाहिए। उसमें इष्टदेव दर्शन की तरह किसी चित्र विशेष का कोई साक्षात्कार होना आवश्यक नहीं है। किसी विशेष चिन्तन में सहज ही क्षण-क्षण में असंख्यों चित्र उभरते और लिप्त होते रहते हैं; इतने पर भी उसे ध्यान ही कहा जाता है। प्रस्तुत ध्यान धारणा का भी यही स्वरूप है। उसमें जो निर्देश—संकेत दिये गये हैं, उनको यदि समुचित महत्व दिया जाय और तद्नुरूप गहरा चिन्तन चलता रहे तो समझना चाहिए कि ध्यान धारणा का अभीष्ट प्रयोजन बिलकुल ठीक तरह पूरा हो रहा है और उसका सत्परिणाम निश्चित रूप से उपयुक्त ही होगा।
काया का प्रत्येक अवयव अद्भुत है। उसकी संरचना और क्रिया शक्ति को जितना ही गहराई से देखा जाता है, उतना ही उसे रहस्यमय और आश्चर्यजनक पाया जाता है। इन सब अवयवों में मस्तिष्क सर्वोपरि है। उसके चेतन, अचेतन और उच्च चेतन की गतिविधियों को देखने से पता चलता है कि इसका अधिष्ठाता सूत्र संचालक जीवात्मा कितना महान होना चाहिए। लोक-व्यवहार की कुशलता, शिक्षा, अनुभव, कला, शिल्प आदि की अर्थ उपार्जन, यश सम्पादन, सुख-साधन जैसी क्षमताओं से सभी परिचित हैं। फलतः प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति अपनी और अपने स्वजनों की बौद्धिक क्षमता विकसित करने के लिए समुचित प्रयत्न करता है। शरीर सभी के लगभग एक जैसे—मिलते-जुलते हैं। विशेषता मानसिक धरातल की है जो उसे विकसित कर लेते हैं, वे अनेकानेक सफलताएं पाते हैं जो इस क्षेत्र में पिछड़े रह जाते हैं उन्हें अभावग्रस्त, कष्टसाध्य एवं घटिया स्तर पर गुजारा करना पड़ता है। जीवन की प्रगति अवगति का बहुत कुछ आधार मनुष्य के बौद्धिक स्तर पर निर्भर रहता है।
यह सचेतन मस्तिष्क की प्रक्रिया हुई। अचेतन के आधार पर अवयवों की आन्तरिक गतिविधियां चलती हैं। भली-बुरी आदतें उसी में जड़ें जमाये पड़ी रहती हैं। रुचियों एवं आकांक्षाओं की पटरी जिधर भी मुड़ती है, जीवन की रेल उसी भली-बुरी दिशा में दौड़ती चली जाती है। काय कलेवर का स्वरूप, आकर्षण, उसका पौरुष, कौशल बहुत करके अचेतन मस्तिष्क का निर्माण कौशल होता है। विधि का विधान और भाग्य निर्धारण किन्हीं अज्ञात शक्तियों द्वारा बना कहा जाता है। यह रहस्यमय अज्ञात—व्यक्तित्व का सृष्टा और कोई नहीं, मात्र अचेतन ही है जो मस्तिष्क की गहन कन्दराओं में बैठा जीवन की दिशा धाराओं का निर्धारण-सूत्र संचालन करता रहता है। मस्तिष्क विज्ञान के ज्ञाता कहते हैं कि मनःसंस्थान के रहस्यों का बहुत थोड़ा अंश अभी जाना जा सका है। ज्ञात की तुलना में अविज्ञात कहीं अधिक विस्तृत है। मस्तिष्कीय क्षमताओं का एक अति स्वल्प भाग ही काम में आता है, यदि उसकी मूर्छाग्रस्त परतें जगाई और काम में लाई जा सकें तो सामान्य दीखने वाली मानवी काया में दैत्याकार शक्ति-सत्ता के दर्शन हो सकते हैं। यदि अचेतन पर नियन्त्रण कर सकना सम्भव हो सके तो वह उक्ति अक्षरशः सत्य सिद्ध हो सकती है, जिसमें मनुष्य को अपने भाग्य का स्वयं निर्माता कहा गया है।
चेतन और अचेतन से ऊपर की परत उच्च चेतन (सुपर कांशस) की है। यह ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ अपना सम्पर्क साधती और आदान-प्रदान का द्वार खोलती है। सूक्ष्म-जगत में भरी हुए पदार्थ और चलते हुए प्रवाह अपने इस स्थूल जगत की तुलना में अत्यन्त उच्चकोटि के हैं। उनके साथ आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़े तो मनुष्य उन रहस्यमय जानकारियों से परिचित हो सकता है जो सर्वसाधारण को विदित नहीं। उन दिव्य सहायताओं को प्राप्त कर सकता है जो सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं। स्थूल शक्तियों के सहारे—स्थूल जगत के कुछ पदार्थ साधन ही उपलब्ध हो पाते हैं, पर सूक्ष्म शक्तियों के सहारे-सूक्ष्म जगत से ऐसे अनुदान प्राप्त किये जा सकते हैं जिन्हें देव वरदान की संज्ञा दी जा सके। अतीन्द्रिय ज्ञान एवं आत्मबल के सहारे कितने ही चमत्कारी व्यक्तियों एवं घटना-क्रमों के विवरण देखने-सुनने में आते रहते हैं। यह अपने ही उच्च चेतन मन की विशिष्टता है जो सक्रिय होने पर अलौकिकता का परिचय देती है।
मस्तिष्कीय नियन्त्रण अति कठिन है। आत्मसत्ता सर्व समर्थ होते हुए भी असहायों, अनाथों, असमर्थों और अभावग्रस्तों जैसा जीवनयापन करती है, इसका सर्व प्रमुख कारण एक ही है आत्म-नियन्त्रण का अभाव। प्रवृत्तियां उच्छृंखल घोड़े की तरह मनमानी उछल-कूद मचाती रहती हैं। जब मनःस्थिति पर ही नियन्त्रण नहीं तो परिस्थितियों पर काबू कैसे पाया जाय? परिस्थितियों में सुधार तो हर कोई चाहता है, पर मनःस्थिति में हेर-फेर करना बन नहीं पड़ता, ऐसी दशा में सुख-शान्ति के मनोरथ अधूरे ही बने रहते हैं। तत्वदर्शी कहते रहे हैं जिसने ‘आत्म—विजय कर ली उसने संसार जीत लिया।’ इस उक्ति में इतनी सचाई तो है कि आत्म-नियन्त्रण कर सकने पर अपने व्यक्तिगत संसार को इच्छानुकूल ढालना—इच्छानुरूप बनाना—सम्भव हो जाता है। आत्म–नियन्त्रण का अर्थ है अपने चिन्तन तन्त्र पर अपना अधिकार—अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेना। यह कार्य विचारों की अनियन्त्रित उछल-कूद को इच्छित दिशा धारा में लगा सकने के रूप में सम्पन्न होता है। इसका अभ्यास ध्यान योग के द्वारा किया जाता है। मन के सामने कुछ स्वरूप कुछ विचार प्रस्तुत किये जाते हैं और उस पर दबाव डाला जाता है कि वह उसी केन्द्र तक अपनी गतिविधियां सीमित रखे। अनियंत्रित उछल-कूद बन्द करे। यों यह कार्य अति कठिन है, पर सुदृढ़ संकल्प एवं सतत प्रयत्न से इसमें भी धीरे-धीरे सरलता होती और सफलता मिलती जाती है। मनोनिग्रह की आदत कभी रही नहीं। मन के पीछे ही अपना व्यक्तित्व घिसटता रहा है। कुसंस्कारी मन आलस्य प्रमाद से लेकर दुर्व्यसनों, दुष्कर्मों और दुष्प्रवृत्तियों में रस लेने का अभ्यस्त रहा है। उसे रोका, संभाला; साधा गया होता तो कब का सुसंस्कृत बन गया होता और अपनी गणना श्रद्धास्पद सज्जनों में हो चुकी होती। अजस्र सहयोग और सम्मान सब ओर से बरस रहा होता। मन का अनगढ़पन ही है, जिसने प्रवृत्तियों और गतिविधियों को हेय स्तर का बनाकर पिछड़ेपन की वर्तमान दुर्दशा में पड़े रहने के लिए विवश कर दिया। परिस्थितियों में यदि चिरस्थायी सुधार करना हो तो मनःस्थिति में घुसी हुई विकृतियों का परिमार्जन करना होता है। इस परिमार्जन के लिए अपने ऊपर आप नियन्त्रण स्थापित करने की कला सीखनी होती है। ध्यानयोग का समूचा शास्त्र इसी उद्देश्य के लिए गढ़ा गया है।
ध्यान के कई उद्देश्य हैं—(1) अनगढ़ दिमागी उछल-कूद को नियन्त्रित करना (2) नियन्त्रित विचार शक्ति को अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित कर सकना (3) एकाग्रता द्वारा बौद्धिक प्रखरता उत्पन्न करना (4) संकल्प-शक्ति को किसी भी केन्द्र पर केन्द्रित करके वहां चमत्कारी हलचलें उत्पन्न करना (5) चेतना की रहस्यमयी परतों को अपने ही मनोबल से उभारना, उछालना (6) अवांछनीय कुसंस्कारों का उन्मूलन (7) सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन (8) प्रतिकूलताओं के बीच भी सन्तुलन बनाये रहना (9) हर स्थिति में आनन्द और उल्लास भरी मनोभूमि बनाये रहना (10) अपनी विचार विद्युत से सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करना और वातावरण में सुख शान्ति सम्वर्धक तत्वों को बढ़ा कर लोक-मंगल का पथ-प्रशस्त करना।
यह ध्यान धारणा के लौकिक-बौद्धिक प्रयोग हैं। यह लाभ थोड़ी-सी सावधानी एवं तन्मयता के सहारे कोई नास्तिक समझा जाने वाला व्यक्ति भी उठा सकता है। यह ध्यान प्रक्रिया के सामान्य एवं माध्यमिक स्तर का प्रयोग मात्र है, किन्तु आज के बुद्धि एवं तर्क प्रधान व्यक्ति भी इसकी उपयोगिता से इनकार नहीं कर सकते। यह लाभ सामान्य श्रद्धा सम्वेदना युक्त व्यक्ति भी प्राप्त कर सकता है।
इससे आगे ध्यान के उच्चस्तरीय लाभ हैं। उसके लिए विशिष्ट श्रद्धा एवं भाव-सम्वेदनाओं से सम्पन्न अन्तःकरण की आवश्यकता पड़ती है। उसके अन्तर्गत साधक अपनी चेतना को महत् चेतना से जोड़ सकता है। गुरु एवं इष्ट की शक्तियों को आकर्षित करना, उन्हें धारण करना इसी स्तर के ध्यान प्रयोग से सम्भव होता है। आत्मतत्व को परमात्म तत्व से एकाकार करना इसी के सहारे सम्भव होता है। यह बात ठीक है कि मनुष्य में स्वतः ही अद्भुत शक्तियों का भण्डार विद्यमान है और वह उन्हें अपने ही प्रयत्न पुरुषार्थ से जागृत भी कर सकता है। प्राथमिक, माध्यमिक स्तर का ध्यान प्रयोग इसीलिए है। किन्तु उच्चस्तरीय ध्यान प्रयोग में दिव्यात्माओं का प्रत्यक्ष संयोग पा सकना, मनुष्य की सीमित सत्ता से असीमसत्ता का योग-संयोग सम्भव है। ईश्वर प्राप्ति, जीवन-लक्ष्य प्राप्ति, आत्मा का परमात्मा से योग आदि ध्यान धारण के उच्चस्तरीय उद्देश्य हैं।
जिस प्रकार शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सुसम्पन्नता के सम्वर्धन में अपने-अपने सम्पर्क क्षेत्र की और सार्वजनिक हित साधन की संगठना बढ़ती है, उसी प्रकार मनःसंस्थान के परिष्कृत और प्रखर बनने से भी व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारक परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। स्थूल जगत से हम अनेकों प्रकार के लाभ अपने प्रत्यक्ष पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहते हैं। सूक्ष्म जगत की विभूतियां और भी बढ़ी-चढ़ी हैं। उन्हें आकर्षित कर सकना जिस प्रचण्ड मनोबल द्वारा सम्भव होता है उसे उत्पन्न करने के लिए ध्यान योग की प्रक्रिया अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होती है। अनियन्त्रित वन्य पशु अपने लिए हानिकारक ही बने रहते हैं, पर जब उन्हें पालतू प्रशिक्षित कर लिया जाता है तो अनेक प्रकार के लाभ देने लगते हैं। ठीक इसी प्रकार अपनी अनेकों क्षमताओं को जब इच्छानुसार नियन्त्रित एवं नियोजित करने की कुशलता हस्तगत हो जाती है तो उतने भर से व्यक्तित्व असाधारण रूप से समर्थ एवं सुसंस्कृत दृष्टिगोचर होने लगता है। बिना किसी दूसरे की सहायता के अपनी ऐसी आन्तरिक प्रगति कर सकना मानवी जीवन की बहुत बड़ी सफलता है। इस उपलब्धि के सहारे कितने प्रकार की—कितनी अधिक मात्रा में सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं, इसे देखते हुए ध्यानयोग को किसी चमत्कारी देवता की सुनिश्चित आराधना करने के समतुल्य ही ठहराया जा सकता है।
ध्यान से भगवान् प्राप्त होते हैं—आत्म-साक्षात्कार का अवसर मिलता है, निरोगता और बलिष्ठता का लाभ मिलता है, गुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, ऋद्धि-सिद्धियों भरे वरदान प्राप्त होते हैं जैसे अनेकों लाभ साधना शास्त्र में गिनाये गये हैं। यह कथन यथार्थ है। चेतना की सामर्थ्य अनन्त है। उससे लाभान्वित होने में एक ही बाधा है कि मनोनिग्रह की कला हस्तगत नहीं होती। जिसने इस कौशल में प्रवीणता प्राप्त करली समझना चाहिए कि उसने अनेकों देव-दानव वशवर्ती कर लिए।
पंचकोशों की ध्यान धारणा से अपनी ही चेतना के पांच प्राण—अपनी ही काया के पंच तत्व इतने प्रखर, परिष्कृत हो जाते हैं कि उन्हें दश दिकपाली की—दश दिग्गजों की उपमा दी जा सके। गायत्री माता की पांच मुखी प्रतिमाओं में अलंकारिक रूप से इन्हीं अन्तर्जगत के पांच देवों की शक्तियां सन्निहित होने का संकेत है। इस ध्यान धारणा को यदि ठीक तरह किया जा सके तो उससे अन्तर्जगत का शासन हाथ में आता है और साथ ही सूक्ष्म जगत से महत्वपूर्ण आदान-प्रदान का लाभ मिलता है।
कुण्डलिनी जागरण की ध्यान साधना में—काय-कलेवर में—बीज रूप से समाहित असंख्य शक्तियों के उद्भव एवं उपयोग का द्वार खुलता है। कुण्डलिनी शरीरगत ऊर्जा है जिसके सहारे भौतिक जगत की अनेक शक्तियों को आकर्षित करके समर्थ शक्तिवान बना जा सकता है। पंचकोश अनावरण में चेतना शक्ति की रहस्यमय परतों को उभारा जाता है। आत्मसत्ता को पंचकोशों के और काय सत्ता को कुण्डलिनी के माध्यम से प्रखर बनाया जाता है। इस उभय-पक्षीय प्रयोजन की सिद्धि में अन्य साधनाओं के अतिरिक्त ध्यान धारणा का सर्वोपरि स्थान है।
ध्यान की मोटी जानकारी सामान्य लोगों को इतनी ही होती है कि उस समय कोई तस्वीर सामने खड़ी रहनी चाहिए और मन उसमें रमा रहना चाहिए। यह आंशिक सत्य है और ध्यान का यह भी एक उपाय है। यह स्थिति आती भी हैं, पर जिनकी मानसिक संरचना इस प्रकार के चित्र अपने संकल्प-बल से उभारने की होती है, उन्हीं को ऐसे कल्पना चित्र आरम्भ में धुंधले पीछे अधिक स्पष्ट दीखते हैं। पर यह स्थिति हर किसी को प्राप्त नहीं हो सकती, यह मस्तिष्कीय विशिष्ट प्रकार की संरचना से ही सम्भव है। उनमें भी ऐसा तभी होता है जब वे अपनी समस्त भावना, कल्पना, श्रद्धा एवं एकाग्रता का समन्वय करके इष्टदेव के अथवा दूसरे प्रकार के चित्रों को उभारने की सतत् साधना जारी रखें।
ध्यान पर बैठते ही हर साधक को अभीष्ट दृश्य अनायास ही प्रकट होने लगेंगे और वे मजे-मजे में फिल्म की तरह उसे देखते रहा करेंगे, ऐसी मान्यता बना लेना नितान्त उपहासास्पद है और ऐसी है जिसका पूरा हो सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। भाव चित्र आरम्भ में मूर्तियों या तस्वीरों के माध्यम से मस्तिष्क पर जमाये जाते हैं। उन्हें आंख खोलकर देखने और फिर आंखें बन्द करके उसी दृश्य को देखने के त्राटक प्रयोग की तरह अभ्यास में उतारा जाता है, तब कहीं धीरे-धीरे आधे-अधूरे भाव चित्रों का निर्माण होता है और वह क्रमिक प्रगति आगे बढ़ती है।
हर मस्तिष्क की संरचना भाव चित्र उभारने, ध्यान में अभीष्ट दृश्य देखने की नहीं होती। अस्तु उनके लिए ध्यान को केन्द्रित करने के लिए दृश्ययोग का—बिन्दुयोग का—अभ्यास नहीं कराया जाता है। मूल उद्देश्य विचार प्रवाह के बिखराव को रोक कर एक सीमित प्रयोजन में केन्द्रित होने का अभ्यास कराया जाता है। यह पांचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकता है। कर्णेन्द्रिय के माध्यम से नादयोग—नासिका द्वारा गन्धयोग—जिह्वा द्वारा रसनायोग—त्वचा द्वारा स्पर्शयोग के अनेकों विधि-विधान हैं, जिनमें सूक्ष्म नेत्रों द्वारा दृश्यों को देखा जाता है।
आरम्भ के साधकों के लिए यह अधिक उपयुक्त है कि एक श्रेष्ठ विचारधारा के प्रवाह में बहने के लिए रास्ता बना दिया जाय। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, दार्शनिकों की ध्यान धारणा इसी प्रकार की होती है कि वे एक सीमित विचार-पद्धति को अपनाकर उसी दायरे में अपने चिन्तन क्रम को नियोजित किये रहते हैं और उसके आश्चर्यजनक सत्परिणाम उपलब्ध करते हैं। पंचकोशों और कुण्डलिनी जागरण की ध्यान धारणा में यही नीति अपनाई गई है। उसमें चिन्तन प्रवाह मुख्य है। उसी के अनुरूप मानचित्र जितने कुछ उभर सके एक फिल्म कथानक की तरह उभरते रहने चाहिए। उसमें इष्टदेव दर्शन की तरह किसी चित्र विशेष का कोई साक्षात्कार होना आवश्यक नहीं है। किसी विशेष चिन्तन में सहज ही क्षण-क्षण में असंख्यों चित्र उभरते और लिप्त होते रहते हैं; इतने पर भी उसे ध्यान ही कहा जाता है। प्रस्तुत ध्यान धारणा का भी यही स्वरूप है। उसमें जो निर्देश—संकेत दिये गये हैं, उनको यदि समुचित महत्व दिया जाय और तद्नुरूप गहरा चिन्तन चलता रहे तो समझना चाहिए कि ध्यान धारणा का अभीष्ट प्रयोजन बिलकुल ठीक तरह पूरा हो रहा है और उसका सत्परिणाम निश्चित रूप से उपयुक्त ही होगा।