Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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Language: HINDI
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2. (छ) प्राणमय कोश
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प्राणमय कोश—सूक्ष्म शरीर का वह भाग है जिसे विद्युत भाण्डागार कह सकते हैं। शरीर भी एक मशीन है। मशीनों के चलने में कोयला, भाप, तेल, बिजली आदि के आधार पर उत्पन्न ऊर्जा काम करती है। मनुष्य या पशु के शरीर से ही आरम्भिक दिनों में यह शक्ति प्राप्त होती थी, इसलिए उसे अश्व शक्ति के नाम से नापा-तोला जाता था। मनुष्य शरीर के कलपुर्जे इतने अधिक हैं कि यदि उनकी छोटी इकाइयों को भी गिना जाय तो वे अरबों की संख्या में जा पहुंचेगी। इन सभी का संयुक्त अस्तित्व तो अवयवों के रूप में है ही वे स्वतन्त्र घटक के रूप में भी अपने अद्भुत क्रिया-कलापों को चलाते हैं। इनकी गतिशीलता एक विशेष प्रकार की बिजली के आधार पर चलती है। विशेष प्रकार की इसलिए कि मशीनों को चलाने वाली स्थूल बिजली से बहुत अंशों में मिलती-जुलती होते हुए भी उसकी मौलिक विशेषताएं और भिन्नताएं भी हैं। इसलिए उसे प्राणि विद्युत कहा जाता है। अध्यात्म विज्ञान में इसे ‘प्राण’ कहा गया है। इसी सामर्थ्य के सहारे काया के समस्त अवयव और घटक अपना-अपना काम अनवरत रूप से चलाते रहने में समर्थ होते हैं।
कारखाने में काम करने वाली मशीनों का अपना विज्ञान है। उन्हें चलाने वाली बिजली भी मोटी दृष्टि से देखने में मशीनों के साथ अपना कार्य संयुक्त रूप से करती दीखती है, फिर भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व और स्वतन्त्र विज्ञान है। मशीनें और बिजली मिल जुलकर काम जरूर करती हैं फिर भी दोनों की स्वतन्त्र सत्ता को भली प्रकार देखा, समझा जा सकता है। प्राण विद्युत के सहारे शरीर की समस्त इकाइयां काम करती हैं इसलिए उसे काय सत्ता में घुला-मिला समझा जा सकता है इतने पर भी यह प्राण विद्युत अपने आप में एक विशिष्ट क्षमता ही कही जायगी। यह समस्त शरीर के अन्तराल में छाई रहती है और उसका प्रभाव, प्रकाश बाहर भी एक सीमा तक काम करता रहता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उसके भीतर भी काम करती है और बहुत दूर तक उससे बाहर भी फैली रहती है। ग्रह-नक्षत्र परस्पर इसी आकर्षण शक्ति से बंधे रहते हैं और अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण आदान-प्रदान उसी के आधार पर चलते रहते हैं। इस प्रकार प्राण विद्युत का कार्य क्षेत्र शरीर के भीतर ही नहीं बाहर भी है। शरीर के अन्तर और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई इस जैव विद्युत की परिधि को ‘प्राणमय कोश’ कहा जाता है।
मस्तिष्कीय संरचना का जिन्हें ज्ञान है वे जानते हैं कि समस्त शरीर में मकड़ी के जाले की तरह फैले हुए ज्ञान तन्तुओं का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा रहता है और वे टेलीफोन के तारों की तरह संचार का कार्य करते हैं। शरीर में कहीं कुछ हलचल हो उसकी सूचना मस्तिष्क तक पहुंचती है और स्थिति के अनुरूप जो कुछ करना है उसका निर्णय विभिन्न अवयवों को भेजा जाता है। जैसे किसी स्थान पर चींटी काटे तो उसकी सूचना मस्तिष्क को पहुंचेगी और वहां से हाथ को उठने, उंगलियों को मुड़ने, चींटी हटाने और काटे स्थान को खुजली कर विष को हटा देने का आदेश मिलेगा। यह सब कुछ थोड़ी-सी सैकिण्डों में ही हो जाता है। इस कार्य को सम्पन्न करने में ज्ञान तन्तुओं से लेकर मस्तिष्क तन्त्र तक को जो शक्ति लगानी पड़ती है वह संव्याप्त प्राण विद्युत की ही होती है। सोचने, विचारने के लिए काम आने वाले मस्तिष्कीय भाग को सचेतन कहा जाता है। शरीर के भीतर अनवरत रूप से चलने वाले क्रिया-कलापों के पीछे अचेतन मस्तिष्क काम करता है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष पाचन, विसर्जन आदि के अनेकों क्रिया-कलापों को सम्पन्न करना अचेतन का काम है। सचेतन और अचेतन दोनों ही मस्तिष्कों को अपना काम करते रहने की सामर्थ्य प्राण विद्युत से ही मिलती है। न केवल मस्तिष्क वरन् शरीर के सभी अवयव और घटक इसी बिजली के सहारे गतिशील रहते हैं। मस्तिष्क में (ई.ई.जी.) के और हृदय में (ई.सी.जी.) के सहारे इस विद्युत प्रवाह की नाप-तौल की जाती है। सामान्यतः इसे ताप के रूप में अनुभव किया जाता है। गतिशीलता इसी की प्रतिक्रिया है।
प्राण विद्युत का अनुपात एवं सन्तुलन ठीक बना रहने से ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। उसमें गड़बड़ी होने से अवयवों की गतिशीलता लड़खड़ाती है। और कई प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं। औषधियां रासायनिक गड़बड़ियों को ठीक कर पाती हैं क्योंकि वे रासायनिक पदार्थों की बनी होती हैं और अपने क्षेत्र में ही काम करती हैं। प्राण विद्युत की गड़बड़ी से उत्पन्न रोगों पर औषधियों का प्रभाव अत्यन्त स्वल्प पड़ता है और उस तरह की बीमारियों को कष्टसाध्य या असाध्य कहकर औषधि विज्ञानी हार मान लेते हैं। यदि इन रोगों का प्राण उपचार सम्भव रहा होता तो उनकी निवृत्ति आसानी से सम्भव रही होती। मैस्मरेजम वर्ग के कितने ही ऐसे उपचार अब प्रकाश में आने लगे हैं जो प्राण विद्युत को प्रभावित करके उस क्षेत्र में उत्पन्न व्याधियों का निराकरण करते हैं। मस्तिष्क रोग एवं नाड़ी संस्थान की व्याधियां तो प्रायः इस विद्युत क्षेत्र के असन्तुलन से ही उत्पन्न होती हैं।
शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता इसी प्राण प्राण विद्युत के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है। बढ़ने पर मनुष्य उत्तेजित और चंचल दिखाई पड़ता है। घटने से आत्महीनता, संकोच, अन्यमनस्कता, उदासीनता, भीरुता, आशंका आदि बुराइयां पैदा हो जाती हैं। चेहरे पर चमक, आंखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस, प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत प्रवाह का उपयुक्त मात्रा में प्रवाहित होना सिद्ध करता है। एक शब्द में इसे प्रतिभा कहा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान में इस तत्व को तेजस् कहा गया है। तेजस् और कुछ नहीं प्राण शक्ति की उपयुक्त मात्रा का प्रमाण भर है। शरीर के इर्द-गिर्द फैला हुआ विद्युत प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। इसका बाहुल्य चेहरे के इर्द-गिर्द रहता है। देवताओं एवं महापुरुषों के चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा आभा-मण्डल चित्रित किया जाता है। यह इस तेजोवलय का ही प्रदर्शन है। यह तो हुआ काय-कलेवर के भीतर काम करने वाली विद्युत प्रवाह का संक्षिप्त एवं आंशिक परिचय। अब कार्य से बाहर के क्षेत्र में इस शक्ति के क्रिया-कलापों की बात आती है। सम्पर्क और संगति की निकटता और घनिष्ठता के भले-बुरे प्रतिफलों की बात सभी जानते हैं। इसका आधार सम्पर्क क्षेत्र के प्राणियों के बीच चलने पर यह विद्युतीय आदान-प्रदान ही होता है। आग अपने समीपवर्ती क्षेत्र पर प्रभाव डालती और उसे गरम करती है। बर्फ की ठण्डक भी अपने प्रभाव क्षेत्र को ठण्डा करती है। मनुष्य की प्राण विद्युत व्यक्ति की प्रखरता के अनुरूप एक छोटे या बड़े क्षेत्र में फैली रहती है और उस वातावरण के सम्पर्क में आने वाले लोग किसी न किसी प्रकार प्रभावित होते हैं। प्रतिभाशाली लोग प्रभावशाली भी होते हैं, वे दूसरों पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हैं, ऋषियों के आश्रमों में सिंह, गाय साथ पानी पीते और बिना वैर-भाव के साथ-साथ रहते थे। मनुष्यों पर, मनुष्येत्तर अन्य प्राणियों पर, यहां तक कि स्थानों एवं पदार्थों पर भी प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों का प्रभाव पड़ता है। तीर्थों की गरिमा का आधार यही है। वहां किसी समय कोई प्रखर व्यक्तित्व रहे हैं और उनका प्रभाव अभी तक दृष्टिगोचर होता है। समय बीतने के साथ-साथ यह झीना भी होता जाता है, पर जीवित व्यक्तित्वों का प्रभाव तो उनके समीपवर्ती क्षेत्र में बना ही रहता है। वेश्याओं का कामुक आकर्षण—आततायियों का आतंक—सज्जनों का सत्प्रभाव—बिना कुछ कहे-सुने ही मात्र समीपता के आधार पर काम करते देखा जाता है। इसे प्राण विद्युत का ही चमत्कार कहा जा सकता है।
अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं में कितनी ही ऐसी हैं जो प्राचीन काल में इस प्राण विद्युत के बुरे प्रभाव से बचने एवं अच्छे प्रभाव से लाभान्वित होने की दृष्टि से ही बनाई गई थीं। तब वे उपयोगी भी थीं, पर आज तो वे मात्र रूढ़ियां रह गई हैं और अन्ध परम्परा के रूप में विकृत हो जाने पर निरर्थक ही नहीं हानिकारक भी बन गई हैं। छूत-अछूत का भेद किसी समय दुष्टता एवं पतनोन्मुख प्रभाव क्षेत्र से बचने के लिए था। भोजन पकाने और परोसने के सम्बन्ध में किन व्यक्तियों का सहयोग लिया जाय—किसका न लिया जाय इसका निर्णय भी इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किया जाता था। विवाह में वर-वधू के व्यक्तित्वों की समता का महत्व भी इसी आधार पर था। शैयाशायी होने पर विद्युत प्रवाह परस्पर अति तीव्रता से दौड़ता है और घटिया स्तर के सम्पर्क में बढ़िया स्तर वाला अपनी जमा पूंजी गंवाता है। सत्संग, श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरण-स्पर्श आदि में यह विद्युत प्रवाह ही प्रधान रूप से काम करता है।
प्राणवान्, तपस्वी एवं तेजस्वी व्यक्ति अपने जमाने का वातावरण ही बदल देते हैं। ग्रीष्म ऋतु में हर वस्तु का तापमान बढ़ जाता है—वर्षा के दिनों हवा में नमी भरी रहती है—सर्दियों में ठण्डक का दौर कहीं भी देखा जा सकता है। महामानव भी अपने समय में ऋतु प्रभाव की तरह काम करते हैं और लोक-मानस को—वातावरण को—प्रभावित करते हैं। सज्जनों की तरह दुर्जनों का भी दुष्ट प्राण होता है और वह भी समीपवर्ती प्राणियों एवं पदार्थों को प्रभावित करता है। दुर्जनों और सज्जनों के छोड़े हुए प्राण बहुधा आकाश में टकराते रहते हैं। उस टकराव को ही देवासुर संग्राम कहा जाता है।
शरीर के पोषण, अभिवर्धन के लिए, उसकी आधि-व्याधियों का निवारण करने के लिए विविध उपाय, उपचार किये जाते हैं। प्राण शरीर का कार्य क्षेत्र प्रत्यक्ष शरीर से कहीं बड़ा है। उसका महत्व एवं प्रभाव भी अधिक है। दुर्बल और रुग्ण काया में भी समर्थ प्राण ही तो वह आद्य शंकराचार्य की तरह रुग्ण एवं अल्पजीवी होते हुए भी आश्चर्यचकित कर देने वाले कार्य कर सकता है। किन्तु यदि प्राण शक्ति दुर्बल रही हो तो फिर स्थूल कार्य प्राणी भी दीन-दरिद्रों की तरह-अनाथ, असहायों की तरह दयनीय स्थिति में पड़ा हुआ किसी प्रकार जिन्दगी की लाश ढो रहा होगा।
प्राण ही जीवन है। उसके निकल जाने पर मृतक काया तत्काल सड़ने-गलने लग जाती है। विश्व प्राण के रूप में वह समस्त ब्रह्माण्ड में भरा पड़ा है। इसमें से अपनी पात्रता के अनुरूप जितना अभीष्ट हो उतना अपने लिए उपलब्ध कर सकते हैं। मरने के बाद प्रेत शरीर में प्रायः प्राणमय कोश ही अपना अस्तित्व बनाये और परिचय देते रहता है। प्राणमय कोश को महाप्राण का भाण्डागार बना देने की—प्राण विद्युत के चमत्कारी सत्परिणाम प्राप्त करने की—विद्या को प्राण विद्या कहते हैं। कठोपनिषद् में जिज्ञासु नचिकेता को प्राणाग्नि विद्या का प्रशिक्षण दिया और उसे धन्य बनाया था। यही प्राणमय कोश की साधना योगशास्त्र का महत्वपूर्ण अंग है। प्राणयोग के विभिन्न उपचारों से इसी की सिद्धि का प्रयास किया जाता है। ब्रह्म वर्चस् साधना में प्राणमय कोश की ध्यान धारणा से इसी दिशा में आशाजनक प्रति कर सकने का पथ-प्रशस्त होता है।
ध्यान करें शरीर में एक दिव्य विद्युत संचार व्यवस्था है, प्राण विद्युत का हर छोटी से छोटी इकाई में प्रवाह होता रहता है, शरीर भर में अगणित चमकीले प्रवाह अनुभव करें। इन प्रवाहों का शरीरस्थ केन्द्र मूलाधार चक्र। वहां दिव्य प्राण की स्व प्रकाशित भंवर। भंवर की गति के साथ उससे छूटती, फैलती प्राण धाराएं सारे संस्थान में फैलती हुईं परिलक्षित होती हैं।
कारखाने में काम करने वाली मशीनों का अपना विज्ञान है। उन्हें चलाने वाली बिजली भी मोटी दृष्टि से देखने में मशीनों के साथ अपना कार्य संयुक्त रूप से करती दीखती है, फिर भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व और स्वतन्त्र विज्ञान है। मशीनें और बिजली मिल जुलकर काम जरूर करती हैं फिर भी दोनों की स्वतन्त्र सत्ता को भली प्रकार देखा, समझा जा सकता है। प्राण विद्युत के सहारे शरीर की समस्त इकाइयां काम करती हैं इसलिए उसे काय सत्ता में घुला-मिला समझा जा सकता है इतने पर भी यह प्राण विद्युत अपने आप में एक विशिष्ट क्षमता ही कही जायगी। यह समस्त शरीर के अन्तराल में छाई रहती है और उसका प्रभाव, प्रकाश बाहर भी एक सीमा तक काम करता रहता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उसके भीतर भी काम करती है और बहुत दूर तक उससे बाहर भी फैली रहती है। ग्रह-नक्षत्र परस्पर इसी आकर्षण शक्ति से बंधे रहते हैं और अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण आदान-प्रदान उसी के आधार पर चलते रहते हैं। इस प्रकार प्राण विद्युत का कार्य क्षेत्र शरीर के भीतर ही नहीं बाहर भी है। शरीर के अन्तर और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई इस जैव विद्युत की परिधि को ‘प्राणमय कोश’ कहा जाता है।
मस्तिष्कीय संरचना का जिन्हें ज्ञान है वे जानते हैं कि समस्त शरीर में मकड़ी के जाले की तरह फैले हुए ज्ञान तन्तुओं का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा रहता है और वे टेलीफोन के तारों की तरह संचार का कार्य करते हैं। शरीर में कहीं कुछ हलचल हो उसकी सूचना मस्तिष्क तक पहुंचती है और स्थिति के अनुरूप जो कुछ करना है उसका निर्णय विभिन्न अवयवों को भेजा जाता है। जैसे किसी स्थान पर चींटी काटे तो उसकी सूचना मस्तिष्क को पहुंचेगी और वहां से हाथ को उठने, उंगलियों को मुड़ने, चींटी हटाने और काटे स्थान को खुजली कर विष को हटा देने का आदेश मिलेगा। यह सब कुछ थोड़ी-सी सैकिण्डों में ही हो जाता है। इस कार्य को सम्पन्न करने में ज्ञान तन्तुओं से लेकर मस्तिष्क तन्त्र तक को जो शक्ति लगानी पड़ती है वह संव्याप्त प्राण विद्युत की ही होती है। सोचने, विचारने के लिए काम आने वाले मस्तिष्कीय भाग को सचेतन कहा जाता है। शरीर के भीतर अनवरत रूप से चलने वाले क्रिया-कलापों के पीछे अचेतन मस्तिष्क काम करता है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष पाचन, विसर्जन आदि के अनेकों क्रिया-कलापों को सम्पन्न करना अचेतन का काम है। सचेतन और अचेतन दोनों ही मस्तिष्कों को अपना काम करते रहने की सामर्थ्य प्राण विद्युत से ही मिलती है। न केवल मस्तिष्क वरन् शरीर के सभी अवयव और घटक इसी बिजली के सहारे गतिशील रहते हैं। मस्तिष्क में (ई.ई.जी.) के और हृदय में (ई.सी.जी.) के सहारे इस विद्युत प्रवाह की नाप-तौल की जाती है। सामान्यतः इसे ताप के रूप में अनुभव किया जाता है। गतिशीलता इसी की प्रतिक्रिया है।
प्राण विद्युत का अनुपात एवं सन्तुलन ठीक बना रहने से ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। उसमें गड़बड़ी होने से अवयवों की गतिशीलता लड़खड़ाती है। और कई प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं। औषधियां रासायनिक गड़बड़ियों को ठीक कर पाती हैं क्योंकि वे रासायनिक पदार्थों की बनी होती हैं और अपने क्षेत्र में ही काम करती हैं। प्राण विद्युत की गड़बड़ी से उत्पन्न रोगों पर औषधियों का प्रभाव अत्यन्त स्वल्प पड़ता है और उस तरह की बीमारियों को कष्टसाध्य या असाध्य कहकर औषधि विज्ञानी हार मान लेते हैं। यदि इन रोगों का प्राण उपचार सम्भव रहा होता तो उनकी निवृत्ति आसानी से सम्भव रही होती। मैस्मरेजम वर्ग के कितने ही ऐसे उपचार अब प्रकाश में आने लगे हैं जो प्राण विद्युत को प्रभावित करके उस क्षेत्र में उत्पन्न व्याधियों का निराकरण करते हैं। मस्तिष्क रोग एवं नाड़ी संस्थान की व्याधियां तो प्रायः इस विद्युत क्षेत्र के असन्तुलन से ही उत्पन्न होती हैं।
शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता इसी प्राण प्राण विद्युत के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है। बढ़ने पर मनुष्य उत्तेजित और चंचल दिखाई पड़ता है। घटने से आत्महीनता, संकोच, अन्यमनस्कता, उदासीनता, भीरुता, आशंका आदि बुराइयां पैदा हो जाती हैं। चेहरे पर चमक, आंखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस, प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत प्रवाह का उपयुक्त मात्रा में प्रवाहित होना सिद्ध करता है। एक शब्द में इसे प्रतिभा कहा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान में इस तत्व को तेजस् कहा गया है। तेजस् और कुछ नहीं प्राण शक्ति की उपयुक्त मात्रा का प्रमाण भर है। शरीर के इर्द-गिर्द फैला हुआ विद्युत प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। इसका बाहुल्य चेहरे के इर्द-गिर्द रहता है। देवताओं एवं महापुरुषों के चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा आभा-मण्डल चित्रित किया जाता है। यह इस तेजोवलय का ही प्रदर्शन है। यह तो हुआ काय-कलेवर के भीतर काम करने वाली विद्युत प्रवाह का संक्षिप्त एवं आंशिक परिचय। अब कार्य से बाहर के क्षेत्र में इस शक्ति के क्रिया-कलापों की बात आती है। सम्पर्क और संगति की निकटता और घनिष्ठता के भले-बुरे प्रतिफलों की बात सभी जानते हैं। इसका आधार सम्पर्क क्षेत्र के प्राणियों के बीच चलने पर यह विद्युतीय आदान-प्रदान ही होता है। आग अपने समीपवर्ती क्षेत्र पर प्रभाव डालती और उसे गरम करती है। बर्फ की ठण्डक भी अपने प्रभाव क्षेत्र को ठण्डा करती है। मनुष्य की प्राण विद्युत व्यक्ति की प्रखरता के अनुरूप एक छोटे या बड़े क्षेत्र में फैली रहती है और उस वातावरण के सम्पर्क में आने वाले लोग किसी न किसी प्रकार प्रभावित होते हैं। प्रतिभाशाली लोग प्रभावशाली भी होते हैं, वे दूसरों पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हैं, ऋषियों के आश्रमों में सिंह, गाय साथ पानी पीते और बिना वैर-भाव के साथ-साथ रहते थे। मनुष्यों पर, मनुष्येत्तर अन्य प्राणियों पर, यहां तक कि स्थानों एवं पदार्थों पर भी प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों का प्रभाव पड़ता है। तीर्थों की गरिमा का आधार यही है। वहां किसी समय कोई प्रखर व्यक्तित्व रहे हैं और उनका प्रभाव अभी तक दृष्टिगोचर होता है। समय बीतने के साथ-साथ यह झीना भी होता जाता है, पर जीवित व्यक्तित्वों का प्रभाव तो उनके समीपवर्ती क्षेत्र में बना ही रहता है। वेश्याओं का कामुक आकर्षण—आततायियों का आतंक—सज्जनों का सत्प्रभाव—बिना कुछ कहे-सुने ही मात्र समीपता के आधार पर काम करते देखा जाता है। इसे प्राण विद्युत का ही चमत्कार कहा जा सकता है।
अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं में कितनी ही ऐसी हैं जो प्राचीन काल में इस प्राण विद्युत के बुरे प्रभाव से बचने एवं अच्छे प्रभाव से लाभान्वित होने की दृष्टि से ही बनाई गई थीं। तब वे उपयोगी भी थीं, पर आज तो वे मात्र रूढ़ियां रह गई हैं और अन्ध परम्परा के रूप में विकृत हो जाने पर निरर्थक ही नहीं हानिकारक भी बन गई हैं। छूत-अछूत का भेद किसी समय दुष्टता एवं पतनोन्मुख प्रभाव क्षेत्र से बचने के लिए था। भोजन पकाने और परोसने के सम्बन्ध में किन व्यक्तियों का सहयोग लिया जाय—किसका न लिया जाय इसका निर्णय भी इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किया जाता था। विवाह में वर-वधू के व्यक्तित्वों की समता का महत्व भी इसी आधार पर था। शैयाशायी होने पर विद्युत प्रवाह परस्पर अति तीव्रता से दौड़ता है और घटिया स्तर के सम्पर्क में बढ़िया स्तर वाला अपनी जमा पूंजी गंवाता है। सत्संग, श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरण-स्पर्श आदि में यह विद्युत प्रवाह ही प्रधान रूप से काम करता है।
प्राणवान्, तपस्वी एवं तेजस्वी व्यक्ति अपने जमाने का वातावरण ही बदल देते हैं। ग्रीष्म ऋतु में हर वस्तु का तापमान बढ़ जाता है—वर्षा के दिनों हवा में नमी भरी रहती है—सर्दियों में ठण्डक का दौर कहीं भी देखा जा सकता है। महामानव भी अपने समय में ऋतु प्रभाव की तरह काम करते हैं और लोक-मानस को—वातावरण को—प्रभावित करते हैं। सज्जनों की तरह दुर्जनों का भी दुष्ट प्राण होता है और वह भी समीपवर्ती प्राणियों एवं पदार्थों को प्रभावित करता है। दुर्जनों और सज्जनों के छोड़े हुए प्राण बहुधा आकाश में टकराते रहते हैं। उस टकराव को ही देवासुर संग्राम कहा जाता है।
शरीर के पोषण, अभिवर्धन के लिए, उसकी आधि-व्याधियों का निवारण करने के लिए विविध उपाय, उपचार किये जाते हैं। प्राण शरीर का कार्य क्षेत्र प्रत्यक्ष शरीर से कहीं बड़ा है। उसका महत्व एवं प्रभाव भी अधिक है। दुर्बल और रुग्ण काया में भी समर्थ प्राण ही तो वह आद्य शंकराचार्य की तरह रुग्ण एवं अल्पजीवी होते हुए भी आश्चर्यचकित कर देने वाले कार्य कर सकता है। किन्तु यदि प्राण शक्ति दुर्बल रही हो तो फिर स्थूल कार्य प्राणी भी दीन-दरिद्रों की तरह-अनाथ, असहायों की तरह दयनीय स्थिति में पड़ा हुआ किसी प्रकार जिन्दगी की लाश ढो रहा होगा।
प्राण ही जीवन है। उसके निकल जाने पर मृतक काया तत्काल सड़ने-गलने लग जाती है। विश्व प्राण के रूप में वह समस्त ब्रह्माण्ड में भरा पड़ा है। इसमें से अपनी पात्रता के अनुरूप जितना अभीष्ट हो उतना अपने लिए उपलब्ध कर सकते हैं। मरने के बाद प्रेत शरीर में प्रायः प्राणमय कोश ही अपना अस्तित्व बनाये और परिचय देते रहता है। प्राणमय कोश को महाप्राण का भाण्डागार बना देने की—प्राण विद्युत के चमत्कारी सत्परिणाम प्राप्त करने की—विद्या को प्राण विद्या कहते हैं। कठोपनिषद् में जिज्ञासु नचिकेता को प्राणाग्नि विद्या का प्रशिक्षण दिया और उसे धन्य बनाया था। यही प्राणमय कोश की साधना योगशास्त्र का महत्वपूर्ण अंग है। प्राणयोग के विभिन्न उपचारों से इसी की सिद्धि का प्रयास किया जाता है। ब्रह्म वर्चस् साधना में प्राणमय कोश की ध्यान धारणा से इसी दिशा में आशाजनक प्रति कर सकने का पथ-प्रशस्त होता है।
ध्यान करें शरीर में एक दिव्य विद्युत संचार व्यवस्था है, प्राण विद्युत का हर छोटी से छोटी इकाई में प्रवाह होता रहता है, शरीर भर में अगणित चमकीले प्रवाह अनुभव करें। इन प्रवाहों का शरीरस्थ केन्द्र मूलाधार चक्र। वहां दिव्य प्राण की स्व प्रकाशित भंवर। भंवर की गति के साथ उससे छूटती, फैलती प्राण धाराएं सारे संस्थान में फैलती हुईं परिलक्षित होती हैं।