Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
2. (ठ) मनोमय कोश
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनोमय कोश में अकेला मन नहीं, वरन् मन, बुद्धि और चित्त तीन का संगम है। अन्तःकरण में इनके अतिरिक्त एक चौथा घटक ‘अहंकार’ भी आता है। यह विज्ञानमय कोश का भाग गिना गया है। यहां अहंकार का अर्थ घमण्ड नहीं, वरन् स्वानुभूति है—जिसे अंग्रेजी में ‘ईगो’ कहते हैं।
मन कल्पना करता है बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुंचती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है। सामान्यतया मस्तिष्कीय संस्थान की चेतन-अचेतन प्रवृत्तियों के समन्वय को मनोमय कोश कहा जा सकता है। चेतना का यह सारा परिकर शिर की खोपड़ी के सुरक्षित दुर्ग में सृष्टा ने बहुत ही समझ-बूझ के साथ संभाल कर रखा है।
इसका प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र माना गया है। इसे दोनों भृकुटियों के मध्य भाग में माना गया है। इसे तृतीय नेत्र भी कहा गया है। शंकर एवं दुर्गा की प्रतिमाओं में तीसरे नेत्र का चित्रण इसी स्थान पर किया जाता है। तृतीय नेत्र से तात्पर्य दूरदर्शिता से है। प्रायः लोग अदूरदर्शी होते हैं। तनिक से प्रत्यक्ष लाभ के लिए परोक्ष की भारी हानि करते हैं। तात्कालिक तनिक से लाभ के लिए अवांछनीय कार्य करते और मर्यादाएं तोड़ते हैं फलस्वरूप उसके चिरकाल तक कष्ट देने वाले दुष्परिणाम भुगतते हैं। दूरदर्शिता मनुष्य को किसान, विद्यार्थी, माली, पहलवान, व्यापारी आदि के समान बुद्धिमान बनाती है जो आरम्भ में तो कष्ट सहते हैं, पर पीछे महत्वपूर्ण लाभ उठाते हैं। यह दूरदर्शिता यदि किसी को उपलब्ध हो सके तो वह जीवन सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की योजना बनायेगा और इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ उठाकर धन्य बनेगा।
शंकर जी के चित्रों में तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। कथा है कि उन्हें काम-विकार ने पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला और उस विकार को जला कर भस्म कर दिया। इस अलंकार का भावार्थ इतना ही है कि अदूरदर्शिता के कारण जो बात बड़ी आकर्षक लुभावनी लगती है वही विवेकशीलता की कसौटी पर कसने से विष तुल्य हानिकारक लग सकती है। जब किसी बात की—वस्तु की—हानि स्पष्ट हो जाय तो उसके प्रति घृणा का उभरना और परित्याग करना स्वाभाविक है। जिस प्रकार शिव जी ने कामदेव को तृतीय नेत्र के सहारे जला कर अपने ऊपर बरसने वाली विपत्ति से छुटकारा पा लिया था, उसी प्रकार जिस किसी को भी यह दूरदर्शिता प्राप्त होगी वह अवांछनीय आकर्षणों से आत्म-रक्षा करके उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकेगा। आमतौर से यह तृतीय नेत्र बन्द एवं प्रसुप्त रहता है उसका जागरण एवं उन्मीलन करना मनोमय कोश की ध्यान धारणा का उद्देश्य है। यह देखने में छोटी बात लगती है, पर वस्तुतः है इतनी बड़ी कि उसके सत्परिणाम को ध्यान में रखने से इसे दैवी सिद्धि से किसी भी प्रकार कम नहीं माना जा सकता।
अज्ञाचक्र की संगति—शरीर शास्त्री आप्टिक चियाज्मा, पिच्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ मिलाते हैं। यह ग्रंथियां भ्रूमध्य भाग की सीध में थोड़ी गहराई में हैं इनसे स्रवित होने वाले हारमोन स्राव समस्त शरीर के अति महत्वपूर्ण मर्मस्थलों को प्रभावित करते हैं। अन्यान्य ग्रंथियों के स्रावों पर भी नियन्त्रण करते हैं। इनकी विकसित एवं अविकसित स्थिति का पूरे व्यक्तित्व पर भला-बुरा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया इन रहस्यमयी ग्रंथियों और उनके उत्पादनों को अति महत्वपूर्ण मानते हुए भी मानवी नियन्त्रण के बाहर समझा जाता है। ऐसा कोई उपाय अभी हाथ नहीं लगा है कि इन ग्रंथियों की स्थिति को संभाला, सुधारा जा सके। यदि वैसा उपाय हाथ लगा होता तो सचमुच ही मनुष्य को अपने हाथों अपना व्यक्तित्व, भाग्य और भविष्य बनाने की कुंजी हाथ लग जाती।
आत्मसत्ता के विज्ञानवेत्ता—सूक्ष्मदर्शी योगीजनों ने यह जाना है कि मस्तिष्क ही नहीं शरीर के किसी भी अवयव पर—मनःसंस्थान के किसी भी केन्द्र पर प्रभाव डाला जा सकता है और उसमें अभीष्ट परिवर्तन हो सकता है। यह कार्य केन्द्रित संकल्प-शक्ति के प्रयोग एवं प्रहार की क्षमता उपलब्ध होने से सरल एवं सम्भव हो सकता है। इस प्रकार के नियन्त्रण एवं प्रयोग की क्षमता ध्यानयोग के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है। बिखरी विचार शक्ति, फैली हुई भाप, धूप एवं बारूद की तरह है बिखराव की स्थिति में इन तीनों ही वस्तुओं का प्रभाव नगण्य होता है किन्तु जब इन्हें केन्द्रित करके एक लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित किया जाता है तो उनकी सामर्थ्य असंख्य गुनी प्रचण्ड होती देखी गई है। भाप से रेल का इंजन चलता है, प्रेशर कुकर जैसे छोटे-छोटे प्रयोग तो कितने ही होते रहते हैं। कुछ इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप को आतिशी शीशों पर केन्द्रित करने से आग जलने लगती है। तनिक-सी बारूद कारतूस में केन्द्रित होकर और बन्दूक की नली द्वारा दिशा विशेष में फेंकी जाने पर वज्रपात जैसा प्रहार करती तो निशाने को धराशायी बनाती देखी जाती है। ध्यानयोग द्वारा विचार-शक्ति को केन्द्रित करके जब किसी लक्ष्य विशेष पर प्रयुक्त किया जाता है तो उसके परिणाम भी वैसे ही होते हैं जैसे कि ध्यानयोग के माहात्म्य में अध्यात्म शास्त्र वेत्ताओं ने विस्तारपूर्वक बताये हैं।
ध्यानयोग की सहायता से केन्द्रीकृत संकल्प शक्ति को अपने शरीर के किसी भी अवयव पर प्रयुक्त करके उसकी दुर्बलता एवं रुग्णता का निराकरण किया जा सकता है उसे अधिक बलिष्ठ एवं सक्षम बनाया जा सकता है। मनोमय कोश के क्षेत्र में ध्यान धारणा का प्रयोग करके समूचे मस्तिष्क क्षेत्र की बुद्धिमत्ता एवं प्रखरता विकसित की जा सकती है। उसके किसी केन्द्र विशेष में सन्निहित प्रसुप्त क्षमताओं को उभारा और बढ़ी हुई विकृतियों को शान्त किया जा सकता है। जिस प्रकार इन्जेक्शन की पतली एवं तीक्ष्ण सुई शरीर के किसी भी भाग में चुभाई जा सकती है उसी प्रकार ध्यानयोग द्वारा केन्द्रीकृत संकल्प शक्ति का इस प्रयोजन के लिए सफलतापूर्वक उपयोग हो सकता है जिसे आमतौर से मानवी नियन्त्रण से बाहर माना जाता है। इस सफलता को दैवी एवं अति मानवी कहा जाता है क्योंकि इसके सहारे वे कार्य हो सकते हैं जिन्हें साधारणतया दैवी अनुग्रह से ही सम्भव माना जाता है।
मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। विचार शक्ति का केन्द्र यों तो मस्तिष्क को ही माना गया है, पर वस्तुतः वह शरीर के प्रत्येक क्षेत्र में फैली हुई है। मस्तिष्क अपनी प्रेरणा से उसे ही उत्तेजित करता और विभिन्न प्रकार के काम लेता है। मस्तिष्कीय प्रेरणा और अवयवों में फैली चेतना के बीच जब उपयुक्त ताल मेल होता है तो उस पारस्परिक सहयोग से मस्तिष्क की इच्छा आकांक्षा को अवयवों का अन्तराल सहज ही पूरा करने लगता है और मनोवांछाओं की पूर्ति का बहुत बड़ा आधार बन जाता है। किन्तु यदि असामंजस्य असहयोग रहा तो फिर इच्छा उठते और आकांक्षा रहते हुए भी अवयवों का सहयोग नहीं मिलता। अपना ही शरीर अपने काबू में न होने की कठिनाई हर किसी के सामने है। दूसरे कहना न मानें यह बात समझ में आती है, पर अपना शरीर तो मस्तिष्क का वशवर्ती है फिर उस पर अपना शासन क्यों नहीं चलना चाहिए? इस विडम्बना का कारण पारस्परिक ताल-मेल का अभाव है। नियन्त्रणकर्त्ता की दुर्बलता का अनुचित लाभ उठा कर कर्मचारी भी तो अनुशासन हीनता फैलाते हैं। ठीक यही स्थिति अपने शरीर और मन की होती है। इस स्वेच्छाचारी उच्छृंखलता को समाप्त करके सुव्यवस्थित अनुशासन स्थापित करने का कार्य मनोमय कोश की साधना द्वारा सम्पन्न होता है। आत्म-विजय के समतुल्य माना गया है। मनोनिग्रह को योग शक्ति की आत्मा कहा जाता है। इन्द्रिय निग्रह कर सकने वाले को चमत्कारी योग सिद्ध कहते हैं। भुजाओं के बल से अनेकों प्रकार के पराक्रम सधते और पुरुषार्थ बनते हैं। धन-बल से कितनी सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं। यह सभी जानते हैं। मनोबल के चमत्कार इन सबसे ऊंचे हैं। सर्वतोमुखी मनोबल मनोमय कोश की साधना से सम्पन्न होता है। मस्तिष्क के किसी केन्द्र विशेष को ही भौतिक प्रयोजनों के लिए प्रशिक्षित करना ही अभीष्ट हो तो बात दूसरी है। यह कार्य स्कूली प्रशिक्षण से या उस विषय के जानकारों से सीखे जा सकते हैं। किन्तु मनःसत्ता को उच्चस्तरीय प्रगति तक पहुंचाना मनोमय कोश की साधना जैसे सूक्ष्म प्रयोगों से ही सम्भव हो सकता है।
अन्नमय कोश का शरीर बल—प्राणमय कोश का प्रतिभा बल जीवन को सुखी, समुन्नत बनाने में कितना सहायक सिद्ध होता है इसे सभी जानते हैं। मनोमय कोश को परिष्कृत करके प्राप्त किया जाने वाला उच्चस्तरीय मनोबल का प्रभाव और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा है। साधारणतम मनोबल—साहस के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पर उसका वास्तविक स्वरूप समग्र काय-कलेवर में संव्याप्त मनःसत्ता को उत्कृष्ट एवं प्रखर बना देने के रूप में समझा जाना चाहिए। इस विकास को व्यक्तित्व के अन्तराल का ऐसा उभार कह सकते हैं जिसके कारण मनुष्य अपने आप में सुसंस्कृत और दूसरों की दृष्टि में दिव्य-चेतना सम्पन्न समझा जाता है। प्रत्यक्ष शरीर से अप्रत्यक्ष शरीरों का महत्व क्रमशः बढ़ता ही जाता है। अन्नमय—प्राणमय के आगे की सूक्ष्म काया मनोमय है उसकी साधना को शारीरिक समर्थता से भी अधिक महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। शरीर को वाहन और मन को शासक होने की वस्तुस्थिति को जो समझते हैं उनके लिए मनोमय कोश की प्रगति और उसके लिए की जाने वाली ध्यान धारणा का महत्व भी अविदित नहीं होना चाहिए।
(ठ) शरीर की हर इकाई—हर कोशिका में व्याप्त मनःतत्व, आकांक्षा चिन्तन सूत्रों की अनुभूति करें। उनका सम्बन्ध मस्तिष्क से, भ्रूमध्य स्थित आज्ञाचक्र से। अनुभव करें कि वहां एक दिव्य भंवर जिससे उठती विचार तरंगें सारे संस्थान में दौड़ रही हैं।
मन कल्पना करता है बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुंचती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है। सामान्यतया मस्तिष्कीय संस्थान की चेतन-अचेतन प्रवृत्तियों के समन्वय को मनोमय कोश कहा जा सकता है। चेतना का यह सारा परिकर शिर की खोपड़ी के सुरक्षित दुर्ग में सृष्टा ने बहुत ही समझ-बूझ के साथ संभाल कर रखा है।
इसका प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र माना गया है। इसे दोनों भृकुटियों के मध्य भाग में माना गया है। इसे तृतीय नेत्र भी कहा गया है। शंकर एवं दुर्गा की प्रतिमाओं में तीसरे नेत्र का चित्रण इसी स्थान पर किया जाता है। तृतीय नेत्र से तात्पर्य दूरदर्शिता से है। प्रायः लोग अदूरदर्शी होते हैं। तनिक से प्रत्यक्ष लाभ के लिए परोक्ष की भारी हानि करते हैं। तात्कालिक तनिक से लाभ के लिए अवांछनीय कार्य करते और मर्यादाएं तोड़ते हैं फलस्वरूप उसके चिरकाल तक कष्ट देने वाले दुष्परिणाम भुगतते हैं। दूरदर्शिता मनुष्य को किसान, विद्यार्थी, माली, पहलवान, व्यापारी आदि के समान बुद्धिमान बनाती है जो आरम्भ में तो कष्ट सहते हैं, पर पीछे महत्वपूर्ण लाभ उठाते हैं। यह दूरदर्शिता यदि किसी को उपलब्ध हो सके तो वह जीवन सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की योजना बनायेगा और इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ उठाकर धन्य बनेगा।
शंकर जी के चित्रों में तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। कथा है कि उन्हें काम-विकार ने पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला और उस विकार को जला कर भस्म कर दिया। इस अलंकार का भावार्थ इतना ही है कि अदूरदर्शिता के कारण जो बात बड़ी आकर्षक लुभावनी लगती है वही विवेकशीलता की कसौटी पर कसने से विष तुल्य हानिकारक लग सकती है। जब किसी बात की—वस्तु की—हानि स्पष्ट हो जाय तो उसके प्रति घृणा का उभरना और परित्याग करना स्वाभाविक है। जिस प्रकार शिव जी ने कामदेव को तृतीय नेत्र के सहारे जला कर अपने ऊपर बरसने वाली विपत्ति से छुटकारा पा लिया था, उसी प्रकार जिस किसी को भी यह दूरदर्शिता प्राप्त होगी वह अवांछनीय आकर्षणों से आत्म-रक्षा करके उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकेगा। आमतौर से यह तृतीय नेत्र बन्द एवं प्रसुप्त रहता है उसका जागरण एवं उन्मीलन करना मनोमय कोश की ध्यान धारणा का उद्देश्य है। यह देखने में छोटी बात लगती है, पर वस्तुतः है इतनी बड़ी कि उसके सत्परिणाम को ध्यान में रखने से इसे दैवी सिद्धि से किसी भी प्रकार कम नहीं माना जा सकता।
अज्ञाचक्र की संगति—शरीर शास्त्री आप्टिक चियाज्मा, पिच्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ मिलाते हैं। यह ग्रंथियां भ्रूमध्य भाग की सीध में थोड़ी गहराई में हैं इनसे स्रवित होने वाले हारमोन स्राव समस्त शरीर के अति महत्वपूर्ण मर्मस्थलों को प्रभावित करते हैं। अन्यान्य ग्रंथियों के स्रावों पर भी नियन्त्रण करते हैं। इनकी विकसित एवं अविकसित स्थिति का पूरे व्यक्तित्व पर भला-बुरा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया इन रहस्यमयी ग्रंथियों और उनके उत्पादनों को अति महत्वपूर्ण मानते हुए भी मानवी नियन्त्रण के बाहर समझा जाता है। ऐसा कोई उपाय अभी हाथ नहीं लगा है कि इन ग्रंथियों की स्थिति को संभाला, सुधारा जा सके। यदि वैसा उपाय हाथ लगा होता तो सचमुच ही मनुष्य को अपने हाथों अपना व्यक्तित्व, भाग्य और भविष्य बनाने की कुंजी हाथ लग जाती।
आत्मसत्ता के विज्ञानवेत्ता—सूक्ष्मदर्शी योगीजनों ने यह जाना है कि मस्तिष्क ही नहीं शरीर के किसी भी अवयव पर—मनःसंस्थान के किसी भी केन्द्र पर प्रभाव डाला जा सकता है और उसमें अभीष्ट परिवर्तन हो सकता है। यह कार्य केन्द्रित संकल्प-शक्ति के प्रयोग एवं प्रहार की क्षमता उपलब्ध होने से सरल एवं सम्भव हो सकता है। इस प्रकार के नियन्त्रण एवं प्रयोग की क्षमता ध्यानयोग के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है। बिखरी विचार शक्ति, फैली हुई भाप, धूप एवं बारूद की तरह है बिखराव की स्थिति में इन तीनों ही वस्तुओं का प्रभाव नगण्य होता है किन्तु जब इन्हें केन्द्रित करके एक लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित किया जाता है तो उनकी सामर्थ्य असंख्य गुनी प्रचण्ड होती देखी गई है। भाप से रेल का इंजन चलता है, प्रेशर कुकर जैसे छोटे-छोटे प्रयोग तो कितने ही होते रहते हैं। कुछ इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप को आतिशी शीशों पर केन्द्रित करने से आग जलने लगती है। तनिक-सी बारूद कारतूस में केन्द्रित होकर और बन्दूक की नली द्वारा दिशा विशेष में फेंकी जाने पर वज्रपात जैसा प्रहार करती तो निशाने को धराशायी बनाती देखी जाती है। ध्यानयोग द्वारा विचार-शक्ति को केन्द्रित करके जब किसी लक्ष्य विशेष पर प्रयुक्त किया जाता है तो उसके परिणाम भी वैसे ही होते हैं जैसे कि ध्यानयोग के माहात्म्य में अध्यात्म शास्त्र वेत्ताओं ने विस्तारपूर्वक बताये हैं।
ध्यानयोग की सहायता से केन्द्रीकृत संकल्प शक्ति को अपने शरीर के किसी भी अवयव पर प्रयुक्त करके उसकी दुर्बलता एवं रुग्णता का निराकरण किया जा सकता है उसे अधिक बलिष्ठ एवं सक्षम बनाया जा सकता है। मनोमय कोश के क्षेत्र में ध्यान धारणा का प्रयोग करके समूचे मस्तिष्क क्षेत्र की बुद्धिमत्ता एवं प्रखरता विकसित की जा सकती है। उसके किसी केन्द्र विशेष में सन्निहित प्रसुप्त क्षमताओं को उभारा और बढ़ी हुई विकृतियों को शान्त किया जा सकता है। जिस प्रकार इन्जेक्शन की पतली एवं तीक्ष्ण सुई शरीर के किसी भी भाग में चुभाई जा सकती है उसी प्रकार ध्यानयोग द्वारा केन्द्रीकृत संकल्प शक्ति का इस प्रयोजन के लिए सफलतापूर्वक उपयोग हो सकता है जिसे आमतौर से मानवी नियन्त्रण से बाहर माना जाता है। इस सफलता को दैवी एवं अति मानवी कहा जाता है क्योंकि इसके सहारे वे कार्य हो सकते हैं जिन्हें साधारणतया दैवी अनुग्रह से ही सम्भव माना जाता है।
मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। विचार शक्ति का केन्द्र यों तो मस्तिष्क को ही माना गया है, पर वस्तुतः वह शरीर के प्रत्येक क्षेत्र में फैली हुई है। मस्तिष्क अपनी प्रेरणा से उसे ही उत्तेजित करता और विभिन्न प्रकार के काम लेता है। मस्तिष्कीय प्रेरणा और अवयवों में फैली चेतना के बीच जब उपयुक्त ताल मेल होता है तो उस पारस्परिक सहयोग से मस्तिष्क की इच्छा आकांक्षा को अवयवों का अन्तराल सहज ही पूरा करने लगता है और मनोवांछाओं की पूर्ति का बहुत बड़ा आधार बन जाता है। किन्तु यदि असामंजस्य असहयोग रहा तो फिर इच्छा उठते और आकांक्षा रहते हुए भी अवयवों का सहयोग नहीं मिलता। अपना ही शरीर अपने काबू में न होने की कठिनाई हर किसी के सामने है। दूसरे कहना न मानें यह बात समझ में आती है, पर अपना शरीर तो मस्तिष्क का वशवर्ती है फिर उस पर अपना शासन क्यों नहीं चलना चाहिए? इस विडम्बना का कारण पारस्परिक ताल-मेल का अभाव है। नियन्त्रणकर्त्ता की दुर्बलता का अनुचित लाभ उठा कर कर्मचारी भी तो अनुशासन हीनता फैलाते हैं। ठीक यही स्थिति अपने शरीर और मन की होती है। इस स्वेच्छाचारी उच्छृंखलता को समाप्त करके सुव्यवस्थित अनुशासन स्थापित करने का कार्य मनोमय कोश की साधना द्वारा सम्पन्न होता है। आत्म-विजय के समतुल्य माना गया है। मनोनिग्रह को योग शक्ति की आत्मा कहा जाता है। इन्द्रिय निग्रह कर सकने वाले को चमत्कारी योग सिद्ध कहते हैं। भुजाओं के बल से अनेकों प्रकार के पराक्रम सधते और पुरुषार्थ बनते हैं। धन-बल से कितनी सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं। यह सभी जानते हैं। मनोबल के चमत्कार इन सबसे ऊंचे हैं। सर्वतोमुखी मनोबल मनोमय कोश की साधना से सम्पन्न होता है। मस्तिष्क के किसी केन्द्र विशेष को ही भौतिक प्रयोजनों के लिए प्रशिक्षित करना ही अभीष्ट हो तो बात दूसरी है। यह कार्य स्कूली प्रशिक्षण से या उस विषय के जानकारों से सीखे जा सकते हैं। किन्तु मनःसत्ता को उच्चस्तरीय प्रगति तक पहुंचाना मनोमय कोश की साधना जैसे सूक्ष्म प्रयोगों से ही सम्भव हो सकता है।
अन्नमय कोश का शरीर बल—प्राणमय कोश का प्रतिभा बल जीवन को सुखी, समुन्नत बनाने में कितना सहायक सिद्ध होता है इसे सभी जानते हैं। मनोमय कोश को परिष्कृत करके प्राप्त किया जाने वाला उच्चस्तरीय मनोबल का प्रभाव और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा है। साधारणतम मनोबल—साहस के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पर उसका वास्तविक स्वरूप समग्र काय-कलेवर में संव्याप्त मनःसत्ता को उत्कृष्ट एवं प्रखर बना देने के रूप में समझा जाना चाहिए। इस विकास को व्यक्तित्व के अन्तराल का ऐसा उभार कह सकते हैं जिसके कारण मनुष्य अपने आप में सुसंस्कृत और दूसरों की दृष्टि में दिव्य-चेतना सम्पन्न समझा जाता है। प्रत्यक्ष शरीर से अप्रत्यक्ष शरीरों का महत्व क्रमशः बढ़ता ही जाता है। अन्नमय—प्राणमय के आगे की सूक्ष्म काया मनोमय है उसकी साधना को शारीरिक समर्थता से भी अधिक महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। शरीर को वाहन और मन को शासक होने की वस्तुस्थिति को जो समझते हैं उनके लिए मनोमय कोश की प्रगति और उसके लिए की जाने वाली ध्यान धारणा का महत्व भी अविदित नहीं होना चाहिए।
(ठ) शरीर की हर इकाई—हर कोशिका में व्याप्त मनःतत्व, आकांक्षा चिन्तन सूत्रों की अनुभूति करें। उनका सम्बन्ध मस्तिष्क से, भ्रूमध्य स्थित आज्ञाचक्र से। अनुभव करें कि वहां एक दिव्य भंवर जिससे उठती विचार तरंगें सारे संस्थान में दौड़ रही हैं।