Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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Language: HINDI
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2. (ख) अन्नमय कोश
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अन्नमय कोश—प्रत्यक्ष शरीर को—स्थूल शरीर को कहते हैं। क्योंकि यह अन्न अर्थात् आहार के ऊपर निर्भर है। आहार न मिले तो उसका मरण निश्चित है। अच्छा-बुरा अन्न मिलने से वह स्वस्थ-अस्वस्थ बनता है। यहां अन्न की परिधि में ठोस खाद्य-पदार्थ ही नहीं—जल और वायु भी आते हैं। तीनों को मिलाकर ही शरीर की आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं इसलिए वे तीनों ही अन्न हैं। अथवा तीनों से मिलकर अन्न बनता है। इन पर निर्भर रहने वाली काया को अन्नमय कोश कहा गया है।
आंखों से जो दिखाई पड़ता है वह अन्नमय कोश का सर्वविदित इन्द्रियगम्य स्वरूप है। इसे देखा, जाना, समझा और औजारों से काटा बदला जा सकता है। इसके भीतर एक और सत्ता है जिसे जीवन कहते हैं। यह जीवन आत्मा और शरीर के सम्मिश्रण से बनता है। जब तक दोनों संयुक्त हैं तब तक प्राणी जीवित कहा जाता है, जब दोनों एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं तो जीवन की समाप्ति हो जाती है। जीवित रहने की स्थिति तक आत्मा को जीवात्मा कहते हैं। यह स्थिति बदल जाने पर उसे मात्र आत्मा अथवा प्रेतात्मा आदि कहने लगते हैं। यह जीवन शरीर के कण-कण में संव्याप्त है। कोशिकाओं—तन्तुओं में यह जीवन अपना काम करता है। ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करने वाली सत्ता अपने ढंग से अपना काम कर रही है। उसकी प्रेरणा से ग्रह-नक्षत्रों, निहारिकाओं की ज्ञात-अविज्ञात हलचलें होती रहती हैं और उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन का क्रम चलता रहता है। ठीक इसी प्रकार काया में मस्तिष्कीय नीहारिका की मूल सत्ता के साथ जुड़े हुए हृदय, फुफ्फुस, यकृत, आमाशय, गुर्दे आदि अवयव अपने-अपने क्षेत्रों का शासन संभालते हैं। उनकी गतिविधियां और कार्य-पद्धति अपने-अपने ढंग की अनोखी है। उनका सृजन, अभिवर्धन, परिवर्तन अपने क्षेत्र में ऐसा है जिसे विलक्षण एवं परिपूर्ण कहा जा सकता है। इतने पर भी वे सभी अवयव और उनके साथ जुड़े हुए घटक अन्यान्य क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति में पूर्ण सहकारिता का परिचय देते हैं। जिस प्रकार सृष्टि की विभिन्न शक्तियां और गतिविधियां इस विराट् के साथ सन्तुलन मिला कर चलती हैं वही बात अपने शरीर में भी है। इकोलॉजी—सन्तुलन विज्ञान के आधार पर जाना जा सकता है कि इस समूचे ब्रह्माण्ड की स्थिति किसी विराट् पुरुष के शरीर जैसी है और यहां जो कुछ है—जो कुछ हो रहा है वह एक दूसरे का पूरक है। ठीक इसी प्रकार इस शरीर के अवयव और परमाणु सभी अपने-अपने स्तर की स्वतन्त्र गति-विधियां चलाते हुए भी समग्र शरीर की सुव्यवस्था में पूर्ण रूप से सहयोगी हैं।
एनाटॉमी शरीर रचना का एक शास्त्र है। इस संरचना के कौशल को देखकर चकित रह जाना पड़ता है कि किसी कलाकार ने कितनी कुशलता एवं दूरदर्शिता के साथ इसे संजोया है और इसका प्रत्येक अंग कितने कार्य में कितना समर्थ एवं कितना कुशल है। इससे आगे का शास्त्र ‘फिजियोलॉजी’ है। इसे अवयवों की आचार संहिता रीति-नीति एवं स्वाभाविक गुण धर्म कह सकते हैं। यह अवयवों का अध्यात्म एवं धर्म-शास्त्र है। फिजियोलॉजी और एनाटॉमी दोनों का समन्वय ही शरीर-शास्त्र के सामान्य ज्ञान की आवश्यकता पूरी करता है।
शरीर का जितना परिचय यन्त्रों की सहायता से समझा जा सकता है, उससे अधिक वह भाग है जो बुद्धिगम्य है। इसे काया का तत्व ज्ञान कह सकते हैं। इस कायिक तत्वज्ञान द्वारा जिस सत्ता की विवेचना होती है, उसे तत्व शरीर कह सकते हैं। काया को पांच तत्वों से विनिर्मित कहा जाता है। यह तात्विक सम्मिश्रण भी प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष है। स्थूल नहीं सूक्ष्म है।
इन सब रहस्यों पर विचार करने पर एक रहस्यमय काय सत्ता का अस्तित्व सामने आता है। इसे ही अन्नमय कोश कह सकते हैं। संक्षेप में अन्नमय कोश के दो भाग किये जा सकते हैं—एक प्रत्यक्ष—स्थूल। दूसरा परोक्ष—सूक्ष्म। दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण काया बनती है। शरीर-शास्त्र स्थूल है। अध्यात्म शास्त्र सूक्ष्म। साधना क्षेत्र में स्थूल का उपयोग परिशोधन एवं सन्तुलन भर के लिए होता है। यथा आसन, प्राणायाम, नेति, धोति, वस्ति, वज्रोली, कपाल भाति, ब्रह्मचर्य, व्रत, उपवास, स्नान आदि की क्रियाएं अध्यात्म की परिधि में गिने जाने पर भी स्थूल शरीर के परिशोधन और सन्तुलन की आवश्यकता ही पूरी कर पाती है। इन क्रियाओं के पीछे जो दर्शन, प्रकाश एवं संकेत है सूक्ष्म अध्यात्म के साथ उतना भाग ही जुड़ता है। अध्यात्म शास्त्र की उच्च भूमिकाएं वे हैं जो शरीर की अपेक्षा चेतना को अधिक प्रभावित करती हैं। पंचकोशों की चर्चा अध्यात्म शास्त्र के अन्तर्गत आती है। वे शरीर शास्त्र से भिन्न हैं। अस्तु अन्नमय कोश को काय-कलेवर के साथ जोड़ा तो जा सकता है किन्तु शरीर ही अन्नमय कोश है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। अन्नमय कोश का स्थूल पक्ष यह शरीर भी है, इतना कहकर ही सन्तोष करना पड़ेगा।
पंचकोशों की ध्यान धारण में जिस अन्नमय कोश का ऊहापोह किया गया है उसे जीवन शरीर कहना अधिक उपयुक्त होगा। जीवन सत्ता इन्द्रियगम्य, वही बुद्धिगम्य है। यही है वह गहन स्तर जिसके आधार पर काया की स्थिति बहुत कुछ निर्भर रहती है। कई बार आहार बिहार की अनुकूलता रहने पर भी शरीर अस्वस्थ रहता है और उपयुक्त चिकित्सा करने पर भी दुर्बलता एवं रुग्णता से छूट नहीं पाता। इसका कारण इसी जीवन शरीर में विकृतियों का घुसा होना होता है। योगी लोगों का आहार-विहार बहुत बार ऐसा देखा जाता है जिसे शरीर शास्त्र की दृष्टि से हानिकारक कहा जा सकता है फिर भी वे निरोग और दीर्घजीवी देखे जाते हैं, इसका कारण उनके जीवन शरीर का परिपुष्ट होना ही होता है। इतना परिपुष्ट जिसके ऊपर प्रकृति के विपरीत गतिविधियों का भी विशेष प्रभाव न पड़े। हिमाच्छादित प्रदेश में नंगे रहने पर सामान्य मनुष्य एक दिन में शीतग्रस्त हो जायगा, किन्तु योगी लोग चिरकाल तक वहां नग्न स्थिति में बिना किसी कठिनाई के निवास करते रहते हैं, इसी प्रकार उदर पूर्ति ऐसे घास-पात से कर लेते हैं जो आहार शास्त्र की दृष्टि से अखाद्य एवं कुपोषण वर्ग का कहा जा सकता है, इस पर भी उनका निरोग तथा दीर्घजीवी बने रहना यह सिद्ध करता है कि उनका जीवन शरीर इतना परिपुष्ट है जिस पर इन प्रतिकूलताओं का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
वस्तुतः अध्यात्म शास्त्र में इसी जीवन शरीर को प्रधान माना गया है और अन्नमय कोश के नाम से इसी की चर्चा की गई है। यों प्रत्यक्ष शरीर को भी उसकी परिधि से बाहर नहीं किया जा सकता। उपमा के रूप में इन दोनों को आत्मा और शरीर की तरह एक दूसरे का पूरक सहयोगी कहा जा सकता है।
अन्नमय कोश के इसी सूक्ष्म भोग को—जीवन शरीर को—जागृत, परिपुष्ट, प्रखर एवं परिष्कृत करने की विधि-व्यवस्था है। इस प्रयास में जितनी सफलता मिलती है उसी अनुपात से शरीर इस योग्य बना रहता है कि आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति भली-भांति कर सके। अन्नमय कोश की साधना एवं ध्यान धारणा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाती है।
(ख) ध्यान करें स्थूल शरीर, छोटे-बड़े अंग, नसों, नाड़ियों, मांस-पेशियों का जाल। यह सभी छोटी-छोटी जीव-कोशिकाओं से बने हुए। हर कोशिका एक स्वतन्त्र इकाई। उनकी अपनी-अपनी सामर्थ्य, गुण, स्वभाव। हर इकाई को दिव्य सत्ता से प्रभावित करने का संकल्प युक्त तैयारी। इनका केन्द्र नाभि हर अंग का उससे सूक्ष्म सम्बन्ध। नाभि में दिव्य प्रकाश की भंवर जैसी शक्ति।
आंखों से जो दिखाई पड़ता है वह अन्नमय कोश का सर्वविदित इन्द्रियगम्य स्वरूप है। इसे देखा, जाना, समझा और औजारों से काटा बदला जा सकता है। इसके भीतर एक और सत्ता है जिसे जीवन कहते हैं। यह जीवन आत्मा और शरीर के सम्मिश्रण से बनता है। जब तक दोनों संयुक्त हैं तब तक प्राणी जीवित कहा जाता है, जब दोनों एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं तो जीवन की समाप्ति हो जाती है। जीवित रहने की स्थिति तक आत्मा को जीवात्मा कहते हैं। यह स्थिति बदल जाने पर उसे मात्र आत्मा अथवा प्रेतात्मा आदि कहने लगते हैं। यह जीवन शरीर के कण-कण में संव्याप्त है। कोशिकाओं—तन्तुओं में यह जीवन अपना काम करता है। ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करने वाली सत्ता अपने ढंग से अपना काम कर रही है। उसकी प्रेरणा से ग्रह-नक्षत्रों, निहारिकाओं की ज्ञात-अविज्ञात हलचलें होती रहती हैं और उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन का क्रम चलता रहता है। ठीक इसी प्रकार काया में मस्तिष्कीय नीहारिका की मूल सत्ता के साथ जुड़े हुए हृदय, फुफ्फुस, यकृत, आमाशय, गुर्दे आदि अवयव अपने-अपने क्षेत्रों का शासन संभालते हैं। उनकी गतिविधियां और कार्य-पद्धति अपने-अपने ढंग की अनोखी है। उनका सृजन, अभिवर्धन, परिवर्तन अपने क्षेत्र में ऐसा है जिसे विलक्षण एवं परिपूर्ण कहा जा सकता है। इतने पर भी वे सभी अवयव और उनके साथ जुड़े हुए घटक अन्यान्य क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति में पूर्ण सहकारिता का परिचय देते हैं। जिस प्रकार सृष्टि की विभिन्न शक्तियां और गतिविधियां इस विराट् के साथ सन्तुलन मिला कर चलती हैं वही बात अपने शरीर में भी है। इकोलॉजी—सन्तुलन विज्ञान के आधार पर जाना जा सकता है कि इस समूचे ब्रह्माण्ड की स्थिति किसी विराट् पुरुष के शरीर जैसी है और यहां जो कुछ है—जो कुछ हो रहा है वह एक दूसरे का पूरक है। ठीक इसी प्रकार इस शरीर के अवयव और परमाणु सभी अपने-अपने स्तर की स्वतन्त्र गति-विधियां चलाते हुए भी समग्र शरीर की सुव्यवस्था में पूर्ण रूप से सहयोगी हैं।
एनाटॉमी शरीर रचना का एक शास्त्र है। इस संरचना के कौशल को देखकर चकित रह जाना पड़ता है कि किसी कलाकार ने कितनी कुशलता एवं दूरदर्शिता के साथ इसे संजोया है और इसका प्रत्येक अंग कितने कार्य में कितना समर्थ एवं कितना कुशल है। इससे आगे का शास्त्र ‘फिजियोलॉजी’ है। इसे अवयवों की आचार संहिता रीति-नीति एवं स्वाभाविक गुण धर्म कह सकते हैं। यह अवयवों का अध्यात्म एवं धर्म-शास्त्र है। फिजियोलॉजी और एनाटॉमी दोनों का समन्वय ही शरीर-शास्त्र के सामान्य ज्ञान की आवश्यकता पूरी करता है।
शरीर का जितना परिचय यन्त्रों की सहायता से समझा जा सकता है, उससे अधिक वह भाग है जो बुद्धिगम्य है। इसे काया का तत्व ज्ञान कह सकते हैं। इस कायिक तत्वज्ञान द्वारा जिस सत्ता की विवेचना होती है, उसे तत्व शरीर कह सकते हैं। काया को पांच तत्वों से विनिर्मित कहा जाता है। यह तात्विक सम्मिश्रण भी प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष है। स्थूल नहीं सूक्ष्म है।
इन सब रहस्यों पर विचार करने पर एक रहस्यमय काय सत्ता का अस्तित्व सामने आता है। इसे ही अन्नमय कोश कह सकते हैं। संक्षेप में अन्नमय कोश के दो भाग किये जा सकते हैं—एक प्रत्यक्ष—स्थूल। दूसरा परोक्ष—सूक्ष्म। दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण काया बनती है। शरीर-शास्त्र स्थूल है। अध्यात्म शास्त्र सूक्ष्म। साधना क्षेत्र में स्थूल का उपयोग परिशोधन एवं सन्तुलन भर के लिए होता है। यथा आसन, प्राणायाम, नेति, धोति, वस्ति, वज्रोली, कपाल भाति, ब्रह्मचर्य, व्रत, उपवास, स्नान आदि की क्रियाएं अध्यात्म की परिधि में गिने जाने पर भी स्थूल शरीर के परिशोधन और सन्तुलन की आवश्यकता ही पूरी कर पाती है। इन क्रियाओं के पीछे जो दर्शन, प्रकाश एवं संकेत है सूक्ष्म अध्यात्म के साथ उतना भाग ही जुड़ता है। अध्यात्म शास्त्र की उच्च भूमिकाएं वे हैं जो शरीर की अपेक्षा चेतना को अधिक प्रभावित करती हैं। पंचकोशों की चर्चा अध्यात्म शास्त्र के अन्तर्गत आती है। वे शरीर शास्त्र से भिन्न हैं। अस्तु अन्नमय कोश को काय-कलेवर के साथ जोड़ा तो जा सकता है किन्तु शरीर ही अन्नमय कोश है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। अन्नमय कोश का स्थूल पक्ष यह शरीर भी है, इतना कहकर ही सन्तोष करना पड़ेगा।
पंचकोशों की ध्यान धारण में जिस अन्नमय कोश का ऊहापोह किया गया है उसे जीवन शरीर कहना अधिक उपयुक्त होगा। जीवन सत्ता इन्द्रियगम्य, वही बुद्धिगम्य है। यही है वह गहन स्तर जिसके आधार पर काया की स्थिति बहुत कुछ निर्भर रहती है। कई बार आहार बिहार की अनुकूलता रहने पर भी शरीर अस्वस्थ रहता है और उपयुक्त चिकित्सा करने पर भी दुर्बलता एवं रुग्णता से छूट नहीं पाता। इसका कारण इसी जीवन शरीर में विकृतियों का घुसा होना होता है। योगी लोगों का आहार-विहार बहुत बार ऐसा देखा जाता है जिसे शरीर शास्त्र की दृष्टि से हानिकारक कहा जा सकता है फिर भी वे निरोग और दीर्घजीवी देखे जाते हैं, इसका कारण उनके जीवन शरीर का परिपुष्ट होना ही होता है। इतना परिपुष्ट जिसके ऊपर प्रकृति के विपरीत गतिविधियों का भी विशेष प्रभाव न पड़े। हिमाच्छादित प्रदेश में नंगे रहने पर सामान्य मनुष्य एक दिन में शीतग्रस्त हो जायगा, किन्तु योगी लोग चिरकाल तक वहां नग्न स्थिति में बिना किसी कठिनाई के निवास करते रहते हैं, इसी प्रकार उदर पूर्ति ऐसे घास-पात से कर लेते हैं जो आहार शास्त्र की दृष्टि से अखाद्य एवं कुपोषण वर्ग का कहा जा सकता है, इस पर भी उनका निरोग तथा दीर्घजीवी बने रहना यह सिद्ध करता है कि उनका जीवन शरीर इतना परिपुष्ट है जिस पर इन प्रतिकूलताओं का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
वस्तुतः अध्यात्म शास्त्र में इसी जीवन शरीर को प्रधान माना गया है और अन्नमय कोश के नाम से इसी की चर्चा की गई है। यों प्रत्यक्ष शरीर को भी उसकी परिधि से बाहर नहीं किया जा सकता। उपमा के रूप में इन दोनों को आत्मा और शरीर की तरह एक दूसरे का पूरक सहयोगी कहा जा सकता है।
अन्नमय कोश के इसी सूक्ष्म भोग को—जीवन शरीर को—जागृत, परिपुष्ट, प्रखर एवं परिष्कृत करने की विधि-व्यवस्था है। इस प्रयास में जितनी सफलता मिलती है उसी अनुपात से शरीर इस योग्य बना रहता है कि आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति भली-भांति कर सके। अन्नमय कोश की साधना एवं ध्यान धारणा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाती है।
(ख) ध्यान करें स्थूल शरीर, छोटे-बड़े अंग, नसों, नाड़ियों, मांस-पेशियों का जाल। यह सभी छोटी-छोटी जीव-कोशिकाओं से बने हुए। हर कोशिका एक स्वतन्त्र इकाई। उनकी अपनी-अपनी सामर्थ्य, गुण, स्वभाव। हर इकाई को दिव्य सत्ता से प्रभावित करने का संकल्प युक्त तैयारी। इनका केन्द्र नाभि हर अंग का उससे सूक्ष्म सम्बन्ध। नाभि में दिव्य प्रकाश की भंवर जैसी शक्ति।