Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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2. (च) अन्तिम चरण-परिवर्तन
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साधना सफल हो रही है या असफल? इस प्रश्न का उत्तर एक ही आधार पर दिया जा रहा है कि नर-पशु जैसी स्थिति का परिष्कार नर-नारायण बनने की दिशा में हो रहा है या नहीं। यदि चिन्तन पशु प्रवृत्तियों में ही उलझा रहता हो। लोभ और मोह के अतिरिक्त और किसी में रुचि न हो—पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ कर्त्तव्य सूझता ही न हो—वासना और तृष्णा की खुमारी हलकी न पड़ रही हो तो समझना चाहिए कि आत्म-साधना के सारे प्रयास कल्पना एवं बाल-क्रीड़ा बनकर मात्र मनोविनोद का प्रयोजन पूरा कर रहे हैं। उनका वास्तविक सत्परिणाम उत्पन्न नहीं हो रहा है। ईश्वरीय अनुग्रह और दैवी अनुदानों का आरम्भ होने जा रहा है या नहीं इसकी परख इसी कसौटी पर हो सकती है कि चिन्तन और कर्म में उत्कृष्टता का समावेश हुआ या नहीं। स्पष्ट है कि पशु प्रवृत्तियों में जकड़ा हुआ कोई मनुष्य आज तक कभी भी आत्म-कल्याण का ईश्वरीय अनुग्रह का अनुदान प्राप्त कर सकने में सफल नहीं हुआ। भले ही वह पूजा-पाठ के कितने ही उपचार रचता और बदलता रहता हो। सोने के खरेपन की परख उसे आग में तपाने और कसौटी पर कसने से होती है। ठीक उसी प्रकार साधना मार्ग पर चलते हुए आत्म-परिष्कार की प्रगति का स्तर इस आधार पर आंका जाता है कि साधक ने अपने दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में उत्कृष्टता का कितना समावेश किया। पशु प्रवृत्तियों का देव वृत्तियों में परिवर्तन कितने परिमाण में सम्भव हो सका?
गीता में आत्म मार्ग के पथिकों की गतिविधियां—भव-बन्धनों में जकड़े हुए मायाग्रस्त सामान्य नर-वानरों से भिन्न प्रकार की बताई है। अलंकारिक रूप से कहा है जब संसारी सोते हैं तब योगी जगते हैं। जब योगी जगते हैं तब संसारी सोते हैं। इस पहेली का अर्थ यह है कि मोहान्ध संसारियों से विवेकवान् आत्मवानों का दृष्टिकोण, लक्ष्य, स्वभाव एवं प्रयत्न भिन्न प्रकार का प्रायः विपरीत स्तर का होता है। जिन बातों को संसारी प्राण प्रिय मानते हैं और उनके लिए जीवन सम्पदा निछावर कर देते हैं; उनमें आत्मवानों को न तो रुचि होती है और न रस। वे उस ओर से उदासीन रहते हैं और महामानवों के द्वारा अपनाये गये उस मार्ग पर साहसपूर्वक चलते हैं जिसे चतुर लोगों की दृष्टि में ‘मूर्खता’ ही समझा जा सकता है। ऐसी दशा में स्पष्ट है कि साधक के जीवन-क्रम में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। सामान्य व्यक्ति अपनी तुलना में उसे असाधारण रूप में भिन्न एवं बदला हुआ देखे तो यह स्वाभाविक ही है।
कुण्डलिनी आत्म-शक्ति है। जब वह प्रखर होती है तो उन आन्तरिक दुर्बलताओं को निरस्त होना पड़ता है—जो आदर्श जीवन के मार्ग पर बढ़ चलने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधाएं हैं। आकर्षणों का लोभ और तथाकथित ‘मित्रों’ का दबाव यही दो कारण हैं—जिनमें उत्कृष्टता के देव मार्ग पर चलने वाली आन्तरिक उमंगों में पग-पग पर पद-दलित होना पड़ता है। इच्छा और सुविधा रहते हुए भी मनुष्य कुछ कर नहीं पाता और पेट प्रजनन के पशुलोक में किसी प्रकार जीवन का भार ढोते हुए—पाप का भार और भी अधिक बढ़ाते हुए—अन्धकार भरे भविष्य की दिशा में संसार से कूच करता है। इसी प्रवाह में जन-जीवन बहता रहता है। उसे चीरकर उलटे चलने की मछली जैसी क्षमता जिनमें उग सके समझना चाहिए इसका आत्मबल जगा और कुण्डलिनी जागरण का चिह्न प्रकट हुआ। बढ़ी हुई आत्म–शक्ति कितने ही चमत्कार दिखाती है। इनमें सबसे पहला यह होता है कि अपने—आन्तरिक दुस्साहस के बलबूते ‘अकेला चलो रे’ का मन्त्र जपते हुए आत्म, श्रेय पथ पर एकाकी चल पड़ता है। अपने निश्चय भगवान् के संकेत के अतिरिक्त और किसी के परामर्श एवं सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती। आवश्यक ही हुआ तो देव परम्परा के महामानवों की साहसिक साक्षियां, उक्तियां, स्मृतियां इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त मात्रा में सहज ही मिल जाती हैं। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ इसकी साक्षी देने के लिए प्रस्तुत हैं। उनमें साहसिक प्रेरणा देने वाले तत्व प्रचुर परिणाम में कभी भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
श्रेष्ठता की कल्पना करते रहना और निकृष्टता के मार्ग पर चलते रहना यही है आत्मिक दुर्बलता का सबसे बड़ा प्रमाण। कुण्डलिनी जागरण की आन्तरिक प्रखरता इस विडम्बना को लात मार कर भगा देती है और शूरवीरों जैसे दूरदर्शी निर्णय और साहस भरे संकल्प लेकर सामने आती है। इतनी सामग्री जहां जुट सकेगी वहां नरक की कीचड़ में सड़ते रहने की विवशता का और कोई बाहरी कारण बाधक न रह जायगा। इस जागरण की प्रतिक्रिया ऐसे परिवर्तन के रूप में सामने आती है जिसे ‘काया-कल्प’ कहा जा सके। बूढ़े शरीर को औषधियों के सहारे युवा बनाने के प्रयत्नों को काया-कल्प कहा जाता है। उसमें तो कोई कहने लायक सफलता अभी तक नहीं मिली है, पर आन्तरिक काया-कल्प के उपचार से थके-हारे बूढ़े मन, नव युवकों जैसी अभिनव उमंगों से भरे-पूरे निश्चय ही बन सकते हैं। लिप्साओं और ललकों में जकड़ा—लोभ और मोह द्वारा पकड़ा—निरीह दयनीय जीव जब आत्म-गौरव को समझने लगता है और आत्मावलम्बन के सहारे आत्म-निर्माण के लिए तनकर खड़ा होता है तो इसे काया-कल्प की संज्ञा दी जा सकती है। यह परिवर्तन आत्मबल की प्रचुरता के बिना सम्भव हो ही नहीं सकता। कुण्डलिनी जागरण की सूक्ष्म प्रक्रिया को स्थूल परिचय के रूप में जानना हो तो जीवन-धारा को आदर्शवादिता की दिशा में मोड़ देने के रूप में ही उसे परखा जाना चाहिए। दृष्टिकोण, लक्ष्य, रुझान एवं क्रिया-कलाप का यह उच्चस्तरीय परिवर्तन ही कुण्डलिनी जागरण का अन्तिम चरण है। ध्यान धारणा में इसी आस्था को परिपक्व किया जाता है। सर्वतोमुखी परिवर्तन के उज्ज्वल भविष्य का स्वर्णिम भाव चित्र अन्तःलोक में विनिर्मित किया जाता है ताकि उसी प्रकार का प्रत्यक्ष परिवर्तन भी सम्भव हो सके।
मूलाधार शक्ति का—सहस्रार में जा मिलना परिवर्तित होना—यह बताता है कि काम-बीज, ज्ञान-बीज के रूप में परिवर्तित हो रहा है। क्षुद्र प्राणी कामनाओं के—कामुकता के—कल्पना रस में ललचाते रहते हैं और बेतरह चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह फंसते और दुर्गति भुगतते हैं। आटे की गोली के लोभ में जान गंवाने वाली मछली की तरह इन कामग्रस्तों की दुर्दशा होती है। आत्म-जागृति में विवेक के नेत्र खुलते हैं और परिणाम की प्रतिक्रिया सूझ पड़ती है। ऐसी दशा में रस का केन्द्र काम बिन्दु न रहकर ज्ञान बिन्दु बन जाता है। सद्ज्ञान के अवगाहन में उससे कहीं अधिक उच्चस्तरीय आनन्द आता है जैसा कि लोलुपों को कामनाओं से डूबते, तिरते हुए कुछ-कुछ अनुभव होता है। भावी जीवन की सुनिश्चित रूपरेखा—विवेकशीलता के आधार पर बनना और उस पर बिना लड़खड़ाये आजीवन चलते रहने का संकल्प करना इसी मनोभूमि में बन पड़ता है। कुण्डलिनी जितने अंशों में जागृत होती है उतने ही अनुपात से यह सर्वतोमुखी परिवर्तन की प्रक्रिया प्रखर होती है। तब सद्ज्ञान ही भावी यात्रा का एक मात्र मार्ग-दर्शक होता है। यह महान् परिवर्तन सबको अपने में दीखता है। हर कोई इस परिवर्तन को अनुभव करता है। इतना ही नहीं अपने को भी शरीर, संसार, सम्पर्क के साधन, सम्बद्ध प्राणी प्रायः बदले हुए ही दीखते हैं। मोह नेत्रों के स्थान पर जब दिव्य चक्षु लगते हैं तो संसार का स्वरूप पहले जैसा न रहकर सर्वथा भिन्न एवं विचित्र प्रकार का लगता है। इसी विराट् विश्व में परब्रह्म की झांकी अहिर्निशि होने लगती है।
क्षुद्रता का महानता में परिवर्तन, कामना का भावना में परिवर्तन, नर का नारायण में परिवर्तन जैसे महान् परिवर्तनों का अन्तःक्षेत्र में होना सच्चे अर्थों में आत्मिक काया-कल्प है। इसी को तमसाच्छन्न की सत्व सम्पदा में, नरक की स्वर्ग में, बन्धनों की मुक्ति में परिणिति भी कह सकते हैं। आत्मा का परमात्म स्वरूप में अपूर्णता का पूर्णता में परिवर्तन होना यही वह जीवन-लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति के लिए यह सुरदुर्लभ मानव जन्म प्राप्त हुआ है। कुण्डलिनी जागरण को ध्यान धारणा के अन्तिम चरण—परिवर्तन इसी स्थिति को प्राप्त करने की आतुरता, उत्कण्ठा उत्पन्न करता है। चाह की उत्कृष्टता स्वयमेव राह बनाती और लक्ष्य तक पहुंचने का साधन जुटाती है। ध्यान करें—शक्ति क्षेत्र मूलाधार को तरंगों का, शिव क्षेत्र-सहस्रार में विलय हो रहा है। शक्ति शिव एक हो गये हैं। शरीर संस्थान पर दिव्यसत्ता के आधिपत्य का बोध। ब्रह्म-ज्योति में तप कर आत्मसत्ता, कामना, वासना आदि कलुषों से मुक्त होकर ब्रह्मसत्ता से एक रूप हो रही है। स्वार्थ परमार्थ में, अपने सुख की कामना—सबके हित की आकांक्षा में, वासना, तृष्णा—शान्ति सन्तोष में, परिवर्तित हो रहे हैं। आत्म–वर्चस् असीम से एकाकार होकर ब्रह्म वर्चस् के रूप में बदल रहा है।
गीता में आत्म मार्ग के पथिकों की गतिविधियां—भव-बन्धनों में जकड़े हुए मायाग्रस्त सामान्य नर-वानरों से भिन्न प्रकार की बताई है। अलंकारिक रूप से कहा है जब संसारी सोते हैं तब योगी जगते हैं। जब योगी जगते हैं तब संसारी सोते हैं। इस पहेली का अर्थ यह है कि मोहान्ध संसारियों से विवेकवान् आत्मवानों का दृष्टिकोण, लक्ष्य, स्वभाव एवं प्रयत्न भिन्न प्रकार का प्रायः विपरीत स्तर का होता है। जिन बातों को संसारी प्राण प्रिय मानते हैं और उनके लिए जीवन सम्पदा निछावर कर देते हैं; उनमें आत्मवानों को न तो रुचि होती है और न रस। वे उस ओर से उदासीन रहते हैं और महामानवों के द्वारा अपनाये गये उस मार्ग पर साहसपूर्वक चलते हैं जिसे चतुर लोगों की दृष्टि में ‘मूर्खता’ ही समझा जा सकता है। ऐसी दशा में स्पष्ट है कि साधक के जीवन-क्रम में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। सामान्य व्यक्ति अपनी तुलना में उसे असाधारण रूप में भिन्न एवं बदला हुआ देखे तो यह स्वाभाविक ही है।
कुण्डलिनी आत्म-शक्ति है। जब वह प्रखर होती है तो उन आन्तरिक दुर्बलताओं को निरस्त होना पड़ता है—जो आदर्श जीवन के मार्ग पर बढ़ चलने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधाएं हैं। आकर्षणों का लोभ और तथाकथित ‘मित्रों’ का दबाव यही दो कारण हैं—जिनमें उत्कृष्टता के देव मार्ग पर चलने वाली आन्तरिक उमंगों में पग-पग पर पद-दलित होना पड़ता है। इच्छा और सुविधा रहते हुए भी मनुष्य कुछ कर नहीं पाता और पेट प्रजनन के पशुलोक में किसी प्रकार जीवन का भार ढोते हुए—पाप का भार और भी अधिक बढ़ाते हुए—अन्धकार भरे भविष्य की दिशा में संसार से कूच करता है। इसी प्रवाह में जन-जीवन बहता रहता है। उसे चीरकर उलटे चलने की मछली जैसी क्षमता जिनमें उग सके समझना चाहिए इसका आत्मबल जगा और कुण्डलिनी जागरण का चिह्न प्रकट हुआ। बढ़ी हुई आत्म–शक्ति कितने ही चमत्कार दिखाती है। इनमें सबसे पहला यह होता है कि अपने—आन्तरिक दुस्साहस के बलबूते ‘अकेला चलो रे’ का मन्त्र जपते हुए आत्म, श्रेय पथ पर एकाकी चल पड़ता है। अपने निश्चय भगवान् के संकेत के अतिरिक्त और किसी के परामर्श एवं सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती। आवश्यक ही हुआ तो देव परम्परा के महामानवों की साहसिक साक्षियां, उक्तियां, स्मृतियां इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त मात्रा में सहज ही मिल जाती हैं। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ इसकी साक्षी देने के लिए प्रस्तुत हैं। उनमें साहसिक प्रेरणा देने वाले तत्व प्रचुर परिणाम में कभी भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
श्रेष्ठता की कल्पना करते रहना और निकृष्टता के मार्ग पर चलते रहना यही है आत्मिक दुर्बलता का सबसे बड़ा प्रमाण। कुण्डलिनी जागरण की आन्तरिक प्रखरता इस विडम्बना को लात मार कर भगा देती है और शूरवीरों जैसे दूरदर्शी निर्णय और साहस भरे संकल्प लेकर सामने आती है। इतनी सामग्री जहां जुट सकेगी वहां नरक की कीचड़ में सड़ते रहने की विवशता का और कोई बाहरी कारण बाधक न रह जायगा। इस जागरण की प्रतिक्रिया ऐसे परिवर्तन के रूप में सामने आती है जिसे ‘काया-कल्प’ कहा जा सके। बूढ़े शरीर को औषधियों के सहारे युवा बनाने के प्रयत्नों को काया-कल्प कहा जाता है। उसमें तो कोई कहने लायक सफलता अभी तक नहीं मिली है, पर आन्तरिक काया-कल्प के उपचार से थके-हारे बूढ़े मन, नव युवकों जैसी अभिनव उमंगों से भरे-पूरे निश्चय ही बन सकते हैं। लिप्साओं और ललकों में जकड़ा—लोभ और मोह द्वारा पकड़ा—निरीह दयनीय जीव जब आत्म-गौरव को समझने लगता है और आत्मावलम्बन के सहारे आत्म-निर्माण के लिए तनकर खड़ा होता है तो इसे काया-कल्प की संज्ञा दी जा सकती है। यह परिवर्तन आत्मबल की प्रचुरता के बिना सम्भव हो ही नहीं सकता। कुण्डलिनी जागरण की सूक्ष्म प्रक्रिया को स्थूल परिचय के रूप में जानना हो तो जीवन-धारा को आदर्शवादिता की दिशा में मोड़ देने के रूप में ही उसे परखा जाना चाहिए। दृष्टिकोण, लक्ष्य, रुझान एवं क्रिया-कलाप का यह उच्चस्तरीय परिवर्तन ही कुण्डलिनी जागरण का अन्तिम चरण है। ध्यान धारणा में इसी आस्था को परिपक्व किया जाता है। सर्वतोमुखी परिवर्तन के उज्ज्वल भविष्य का स्वर्णिम भाव चित्र अन्तःलोक में विनिर्मित किया जाता है ताकि उसी प्रकार का प्रत्यक्ष परिवर्तन भी सम्भव हो सके।
मूलाधार शक्ति का—सहस्रार में जा मिलना परिवर्तित होना—यह बताता है कि काम-बीज, ज्ञान-बीज के रूप में परिवर्तित हो रहा है। क्षुद्र प्राणी कामनाओं के—कामुकता के—कल्पना रस में ललचाते रहते हैं और बेतरह चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह फंसते और दुर्गति भुगतते हैं। आटे की गोली के लोभ में जान गंवाने वाली मछली की तरह इन कामग्रस्तों की दुर्दशा होती है। आत्म-जागृति में विवेक के नेत्र खुलते हैं और परिणाम की प्रतिक्रिया सूझ पड़ती है। ऐसी दशा में रस का केन्द्र काम बिन्दु न रहकर ज्ञान बिन्दु बन जाता है। सद्ज्ञान के अवगाहन में उससे कहीं अधिक उच्चस्तरीय आनन्द आता है जैसा कि लोलुपों को कामनाओं से डूबते, तिरते हुए कुछ-कुछ अनुभव होता है। भावी जीवन की सुनिश्चित रूपरेखा—विवेकशीलता के आधार पर बनना और उस पर बिना लड़खड़ाये आजीवन चलते रहने का संकल्प करना इसी मनोभूमि में बन पड़ता है। कुण्डलिनी जितने अंशों में जागृत होती है उतने ही अनुपात से यह सर्वतोमुखी परिवर्तन की प्रक्रिया प्रखर होती है। तब सद्ज्ञान ही भावी यात्रा का एक मात्र मार्ग-दर्शक होता है। यह महान् परिवर्तन सबको अपने में दीखता है। हर कोई इस परिवर्तन को अनुभव करता है। इतना ही नहीं अपने को भी शरीर, संसार, सम्पर्क के साधन, सम्बद्ध प्राणी प्रायः बदले हुए ही दीखते हैं। मोह नेत्रों के स्थान पर जब दिव्य चक्षु लगते हैं तो संसार का स्वरूप पहले जैसा न रहकर सर्वथा भिन्न एवं विचित्र प्रकार का लगता है। इसी विराट् विश्व में परब्रह्म की झांकी अहिर्निशि होने लगती है।
क्षुद्रता का महानता में परिवर्तन, कामना का भावना में परिवर्तन, नर का नारायण में परिवर्तन जैसे महान् परिवर्तनों का अन्तःक्षेत्र में होना सच्चे अर्थों में आत्मिक काया-कल्प है। इसी को तमसाच्छन्न की सत्व सम्पदा में, नरक की स्वर्ग में, बन्धनों की मुक्ति में परिणिति भी कह सकते हैं। आत्मा का परमात्म स्वरूप में अपूर्णता का पूर्णता में परिवर्तन होना यही वह जीवन-लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति के लिए यह सुरदुर्लभ मानव जन्म प्राप्त हुआ है। कुण्डलिनी जागरण को ध्यान धारणा के अन्तिम चरण—परिवर्तन इसी स्थिति को प्राप्त करने की आतुरता, उत्कण्ठा उत्पन्न करता है। चाह की उत्कृष्टता स्वयमेव राह बनाती और लक्ष्य तक पहुंचने का साधन जुटाती है। ध्यान करें—शक्ति क्षेत्र मूलाधार को तरंगों का, शिव क्षेत्र-सहस्रार में विलय हो रहा है। शक्ति शिव एक हो गये हैं। शरीर संस्थान पर दिव्यसत्ता के आधिपत्य का बोध। ब्रह्म-ज्योति में तप कर आत्मसत्ता, कामना, वासना आदि कलुषों से मुक्त होकर ब्रह्मसत्ता से एक रूप हो रही है। स्वार्थ परमार्थ में, अपने सुख की कामना—सबके हित की आकांक्षा में, वासना, तृष्णा—शान्ति सन्तोष में, परिवर्तित हो रहे हैं। आत्म–वर्चस् असीम से एकाकार होकर ब्रह्म वर्चस् के रूप में बदल रहा है।