Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
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पौराणिक प्रतिपादन के अनुसार ब्रह्मा जी की दो पत्नियां हैं—एक गायत्री, दूसरी सावित्री। इस अलंकार से तत्व दर्शन के रूप में यह समझना चाहिए कि परब्रह्म—परमात्मा की दो प्रमुख शक्तियां हैं एक भाव चेतना-परा प्रकृति, दूसरी पदार्थ चेतना-अपरा प्रकृति। परा प्रकृति के अन्तर्गत व्यक्ति सम्पर्क से उसे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार एवं आत्मा का परिकर कहा जा सकता है। अपरा प्रकृति के रूप में वही महत्तत्व बनकर इस विराट् ब्रह्माण्ड में क्रियाशील दृष्टिगोचर होता है। इसी अपरा प्रकृति को पदार्थ सत्ता एवं जड़ प्रकृति कहते हैं। पदार्थों की समस्त हलचलें—इसी पर निर्भर हैं। परमाणुओं का अपनी धुरी पर घूमना—उनके द्वारा विविध-विधि क्रिया-कलापों का संचालन होगा उसी अपरा प्रकृति की सूक्ष्म प्रेरणा से सम्भव होता है। विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, रसायन, ईथर आदि उसी के विभाग हैं। पदार्थ विज्ञान—इन्हीं शक्तियों को काम में लाकर अगणित आविष्कार करने और यान्त्रिक सुविधा साधन उत्पन्न करने में लगा हुआ है। इस अपरा प्रकृति को अध्यात्म की भाषा में सावित्री कहा गया है। कुण्डलिनी इसी दूसरी शक्ति का नाम है।
गायत्री और सावित्री का अन्तर और भी स्पष्ट समझना हो तो गायत्री को ज्ञान-शक्ति और सावित्री को क्रिया-शक्ति कह सकते हैं। गायत्री चेतना की सामर्थ्य है और सावित्री पदार्थ के अन्तराल में काम करने वाली क्षमता। इन्हीं दोनों के प्रभाव से यह समस्त संसार और मानवी काय-कलेवर अपनी हलचलों को जीवित रखे हुए हैं। गायत्री चेतना का शास्त्र ब्रह्म विद्या है और सावित्री शक्ति की व्याख्या कुण्डलिनी विज्ञान के रूप में की जाती है। गायत्री को पंचकोशी साधना के अन्तर्गत और सावित्री को कुण्डलिनी विज्ञान के अन्तर्गत प्रखर परिष्कृत बनाया जाता है। गायत्री साधना चेतनात्मक रहस्यों का—दिव्य विभूतियों का—अनुदान प्रस्तुत करती है और कुण्डलिनी भौतिक सिद्धियों के लिए आवश्यक पथ-प्रशस्त करती है। एकांगी प्रति अपर्याप्त है। उत्कर्ष उभय-पक्षीय होना चाहिए। इसलिए ब्रह्म-विज्ञान के माध्यम से पंचकोशी गायत्री उपासना के साथ-साथ ब्रह्म तेजस् की—कुण्डलिनी जागरण साधना को चलाते रहने का भी निर्देश है। इसे विरोधाभास की दृष्टि से नहीं वरन् पूरक प्रक्रिया का शुभारम्भ ही समझना चाहिए।
समन्वयात्मक साधना का जितना महत्व है उतना एकांगी का असम्बद्ध का नहीं। प्रायः साधना क्षेत्र में इन दोनों में यही भूल होती रही है। ज्ञान मार्गी—राजयोगी—भक्ति-परक साधना तक सीमित रह जाते हैं और हठयोगी, कर्मकाण्डी—तप साधनाओं में निमग्न रहते हैं। उपयोगिता दोनों की है। महत्ता किसी की भी कम नहीं, पर उनका एकांगीपन उचित नहीं, दोनों को जोड़ा और मिलाया जाना चाहिए। यह शिव पार्वती विवाह ही गणेश जैसा भावनात्मक वरदान और कार्तिकेय जैसे पदार्थात्मक अनुदानों की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।
गायत्री साधना का उद्देश्य मानसिक चेतनाओं का जागरण और कुण्डलिनी साधना का प्रयोजन पदार्थगत सक्रियताओं का अभिवर्धन है। दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। समर्थ शरीर और समर्थ मस्तिष्क परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इन्हें गाड़ी के दो पहिये कहना चाहिए। एक के बिना दूसरा निरर्थक रहता है। रुग्ण रहने वाला तत्व ज्ञानी और मूढ़ मति नर पशु दोनों ही अधूरे हैं। आवश्यकता दोनों के समन्वय की है। यों वरिष्ठ और कनिष्ठ का चुनाव करना है तो प्राथमिकता मानसिक चेतना को ही मिलेगी। मस्तिष्क मार्ग से प्रकट होने वाली चेतनात्मक शक्तियों की सिद्धियों का वारापार नहीं। योगी, तत्वज्ञानी पारदर्शी, मनीषी विज्ञानी, कलाकार, आत्मवेत्ता, महामानव इसी शक्ति का उपयोग करके अपने वर्चस्व को प्रखर बनाते हैं। ज्ञान शक्ति के चमत्कारों से कौन अपरिचित है? मस्तिष्क का महत्व किसे मालूम नहीं? उसके विकास के लिए स्कूली प्रशिक्षण से लेकर स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन और साधना समाधि तक के अगणित प्रयोग किये जाते रहते हैं। इस व्यावहारिक क्षेत्र को गायत्री उपासना-परा प्रकृति की साधना ही कहना चाहिए।
दूसरी क्षमता है, क्रिया शक्ति। अपरा प्रकृति। शरीरगत अवयवों का सारा क्रिया-कलाप इसी से चलता है। श्वास-प्रश्वास, रक्त–संचार, निद्रा, जागृति, मलों का विसर्जन, ऊष्मा, ज्ञान तत्व, विद्युत प्रवाह आदि अगणित प्रकार के क्रिया-कलाप शरीर में चलते रहते हैं। उन्हें अपरा प्रकृति का कर्तृत्व कहना चाहिए, इसे जड़ पदार्थों को गतिशील रखने वाली ‘क्रिया शक्ति’ कहना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में इसका महत्व भी कम नहीं। आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति—साहसिकता, सौन्दर्य आदि कितनी ही शरीरगत विशेषताएं इसी पर निर्भर हैं। इसे व्यावहारिक रूप से कुण्डलिनी शक्ति कहना चाहिए। आहार, व्यायाम, विश्राम आदि द्वारा साधारणतया इसी शक्ति की साधना, उपासना की जाती है।
यों प्रधान तो मस्तिष्क स्थित दिव्य चेतना ही है। वह बिखर जाय तो तत्काल मृत्यु आ खड़ी होगी। पर कम उपयोगिता शरीरगत पदार्थ चेतना की भी नहीं है। उसकी कमी होने से मनुष्य दुर्बल, रुग्ण, अकर्मण्य, निस्तेज कुरूप और कायर बनकर रह जायगा। निरर्थक, निरुपयोगी—भारभूत जिन्दगी की लाश ही ढोता रहेगा।
गायत्री का केन्द्र सहस्रार—मस्तिष्क का मस्तिष्क—ब्रह्मरन्ध्र है। कुण्डलिनी का केन्द्र काम बीज—मूलाधार चक्र। गायत्री ब्रह्म चेतना की और सावित्री ब्रह्म तेज की प्रतीक हैं। दोनों में परस्पर सघन एकता और अविच्छिन्न घनिष्ठता है। एक को उत्तर ध्रुव और दूसरी को दक्षिण ध्रुव कह सकते हैं। पृथ्वी की धुरी के यह दोनों ही छोर हैं। मानवी सत्ता के भी यही दो ध्रुव मिल-जुलकर जीवन का समग्र संचार करते हैं। गायत्री से दिव्य आध्यात्मिक विभूतियां उपलब्ध होती हैं और सावित्री से भौतिक ऋषि-सिद्धियां। गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना पंचकोशों की पंचयोगों की साधना बन जाती है। सावित्री कुण्डलिनी है और उसे पांच तप साधनों द्वारा जगाया जाता है। योग और तप के समन्वय से ही सम्पूर्ण आत्म–साधना का स्वरूप बनता और समग्र प्रतिफल मिलता है। इसलिए पंचकोशों की गायत्री और कुण्डलिनी जागरण की सावित्री विद्या का समन्वित अवलम्बन अपनाना ही हितकर है। बिजली की दो धाराएं मिलने पर ही शक्ति प्रवाह में परिणत होती है। आत्मिक प्रगति का रथ भी इन्हीं दो पहियों के सहारे महान् लक्ष्य की दिशा में गतिशील होता है।
उल्लेख किया जा चुका है कि कुण्डलिनी को परा प्रकृति कहा जाता है और शरीर में उसका स्थान मूलाधार में है। इसे जीवन अग्नि ‘लाइफ फायर’ के नाम से भी जाना जाता है। मूलाधार क्षेत्र में त्रिकोण शक्ति बीज है, जिसकी संगति सुमेरु से बिठाई जाती है।
एक सर्पाकार विद्युत प्रवाह इस सुमेरु के आस-पास लिपटा बैठा है। इसी को महासर्पिणी कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विद्युत भ्रमर भी कह सकते हैं। तेज बहने वाली नदियों में कहीं-कहीं बड़े भंवर पड़ते हैं जहां भंवर पड़ते हैं, वहां पानी की चाल सीधी अग्रगामी न होकर गोल गह्वर की गति में बदल जाती है। मनुष्य शरीर में सर्वत्र तो नाड़ी संस्थान के माध्यम से सामान्य गति से विद्युत-प्रवाह बहता है, पर उस मूलाधार स्थित सुमेरु के समीप जाकर वह भंवर गह्वर की तरह चक्राकार घूमती रहती है। इसे सर्पिणी कहते हैं। कुण्डलिनी की आकृति, सर्प की-सी आकृति मानी गई है।
नदी प्रवाह में भंवरों की शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फंसकर बड़े बड़े जहाज भी संभल नहीं पाते और देखते-देखते डूब जाते हैं। साधारण नदी प्रवाह में जितनी शक्ति और गति रहती है उससे 60 गुनी अधिक शक्ति भंवर में पाई जाती है। शरीरगत विद्युत प्रवाह में अन्यत्र पाई जाने वाली क्षमता की तुलना में कुण्डलिनी की शक्ति हजारों गुनी बड़ी है। उसका स्वरूप एवं विज्ञान यदि ठीक तरह समझा जा सके और उस विद्युत प्रवाह का प्रयोग उपयोग जाना जा सके तो निःसन्देह व्यक्ति सर्व सामर्थ्य सम्पन्न सिद्ध पुरुष बन सकता है।
कुण्डलिनी का मध्यवर्ती जागरण मनुष्य शरीर में एक अद्भुत प्रकार की तड़ित उत्पन्न कर देता है।
वस्तुतः स्थूल कुण्डलिनी का महासर्पिणी स्वरूप मूलाधार से लेकर मेरुदण्ड समेत ब्रह्मरन्ध्र तक फैले हुए सर्पाकृति कलेवर में ही पूरी तरह देखा जा सकता है। ऊपर नीचे मुड़े हुए दो महान् शक्तिशाली केन्द्र चक्र ही उसके आगे-पीछे वाले दो मुख हैं।
मेरुदण्ड पोला है, उसके भीतर जो कुछ है उसकी चर्चा शरीर शास्त्र के स्थूल प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर दूसरे ढंग से की जा सकती है। शल्य–क्रिया द्वारा जो देखा जा सकता है, वह रचना क्रम दूसरा है। इसमें सूक्ष्म प्रक्रिया के अन्तर्गत योगशास्त्र की दृष्टि से परिधि में सन्निहित दिव्य-शक्तियों की चर्चा करनी है। योगशास्त्र के अनुसार मेरुदण्ड में एक ब्रह्म-नाड़ी है। उसके अन्तर्गत इड़ा और पिंगला दो शिरायें गतिशील हैं। यह नाड़ियां रक्तवाहिनी शिरायें नहीं समझी जानी चाहिए। वस्तुतः ये विद्युत-धाराएं हैं। जैसे बिजली के तार में ऊपर एक-एक रबड़ का खोल चढ़ा होता है और उसके भीतर जस्ते तथा तांबे का ठण्डा-गरम तार रहता है, उसी प्रकार इन नाड़ियों को समझा जाना चाहिए। ब्रह्म नाड़ी रबड़ का खोल हुआ, उसके भीतर इड़ा और पिंगला ठण्डे गरम तारों की तरह हैं। इनका स्थूल कलेवर या अस्तित्व नहीं है। शल्य क्रिया द्वारा यह नाड़ियां नहीं देखी जा सकतीं। इस रचना क्रम को सूक्ष्म विद्युत-धाराओं की दिव्य रचना ही कहना चाहिए।
मस्तिष्क के भीतरी भाग में यों कतिपय ‘कोष्ठकों’ के अन्तर्गत भरा हुआ मज्जा भाग ही देखने को मिलेगा। खुर्दबीन से और कुछ नहीं देखा जा सकता, पर सभी जानते हैं उस दिव्य संस्थान के नगण्य से दीखने वाले घटकों के अन्तर्गत विलक्षण शक्तियां भरी पड़ी हैं। मनुष्य का सारा व्यक्तित्व, सारा चिन्तन, सारा क्रिया-कलाप और सारा शारीरिक, मानसिक अस्तित्व इन घटकों के ऊपर ही अवलम्बित रहता है। देखने में सभी का मस्तिष्क लगभग एक जैसा दीखेगा, पर उसकी सूक्ष्म स्थिति में पृथ्वी, आकाश जैसा अन्तर दीखता है, उसके आधार पर व्यक्तित्वों का घटिया-बढ़िया होना सहज आंका जा सकता है। यही सूक्ष्मता कुण्डलिनी के सम्बन्ध में व्यक्त की जा सकती है। मूलाधार, सहस्रार, ब्रह्म नाड़ी, इड़ा पिंगला इन्हें शल्य-क्रिया द्वारा नहीं देखा जा सकता। यह सारी दिव्य-रचना ऐसी सूक्ष्म है, जो देखी तो नहीं जा सकती, पर उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
मलद्वार और जननेन्द्रिय के बीच जो लगभग चार अंगुल जगह खाली पड़ी है, उसी के गह्वर में एक त्रिकोण परमाणु पाया जाता है। सारे शरीर में गोल कण हैं, यह एक ही तिकोना है। यहां एक प्रकार का शक्ति-भ्रमर है। शरीर में प्रवाहित होने वाली तथा मशीनों में संचारित बिजली की गति का क्रम यह है कि वह आगे बढ़ती है, फिर तनिक पीछे हटती है और फिर उसी क्रम से आगे बढ़ती, पीछे हटती हुई अपनी अभीष्ट दिशा में दौड़ती चली जाती है। किन्तु मूलाधार स्थित त्रिकोण कण के शक्ति-भंवर में सन्निहित बिजली गोल घेरे में पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह घूमती हुई संचारित होती है। यह संचार क्रम प्रायः 3।। लपेटों का है। आगे चलकर यह विद्युतधारा इस विलक्षण गति को छोड़कर सामान्य रीति से प्रवाहित होने लगते है।
यह प्रवाह निरन्तर मेरुदण्ड में होकर मस्तिष्क के उस मध्य बिन्दु तक दौड़ता रहता है, जिसे ब्रह्मरन्ध्र या सहस्रार कमल कहते हैं। इस शक्ति केन्द्र का मध्य अणु भी शरीर के अन्य अणुओं से भिन्न रचना का है। वह गोल न होकर चपटा है। उसके किनारे चिकने न होकर खुरदरे हैं—आरी के दांतों से उस खुरदरेपन की तुलना की जा सकती है, योगियों का कहना है कि उन दांतों की संख्या एक हजार हैं। अलंकारिक दृष्टि से इसे एक ऐसे कमल पुष्प की तरह चित्रित किया जाता है, जिसमें पंखुरियां खिली हुई हों। इस अलंकार के आधार पर ही इस अणु का नामकरण सहस्रार-कमल किया गया है।
दूसरा दक्षिणी ध्रुव मूलाधार चक्र, सुमेरु संस्थान, सुषुम्ना केन्द्र है; जो मल-मूत्र के—संस्थानों के बीचों बीच अवस्थित है। कुण्डलिनी, महासर्पिणी, प्रचण्ड क्रिया-शक्ति इसी स्थान पर सोई पड़ी है। उत्तरी ध्रुव का महा सर्प अपनी सहचरी सर्पिणी के बिना और दक्षिणी ध्रुव की महासर्पिणी अपने सहचर महासर्प के बिना निरानन्द मूर्च्छित जीवन व्यतीत करते हैं। मनुष्य शरीर विश्व की समस्त विशेषताओं का प्रतीक प्रतिबिम्ब होते हुए भी तुच्छ-सा जीवन व्यतीत करते हुए कीट-पतंगों की मौत मर जाता है। कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाता, इसका एकमात्र कारण यही है कि हमारे पिंड के, देह के दोनों ध्रुव मूर्च्छित पड़े हैं, यदि वे सजग हो गये होते तो ब्रह्माण्ड जैसी महान् चेतना अपने पिंड में भी परिलक्षित होती।
मूत्र स्थान यों एक प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान है। पर तत्वतः उसकी सामर्थ्य मस्तिष्क में अवस्थित ब्रह्मरन्ध्र जितनी ही है। वह हमारी सक्रियता का केन्द्र है। यों नाक, कान आदि छिद्र भी मल विसर्जन के लिए प्रयुक्त होते हैं, पर उन्हें कोई ढकता नहीं। मूत्र यन्त्र को ढकने की अनादि एवं आदिम परिपाटी के पीछे वह सतर्कता है, जिसमें यह निर्देश है कि इस संस्थान से जो अजस्र शक्ति-प्रवाह बहता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिए। शरीर के अन्य अंगों की तरह यों प्रजनन अवयव भी मांस-मज्जा मात्र से ही बने हैं, पर उनके दर्शन मात्र से मन विचलित हो उठता है। अश्लील चित्र अथवा अश्लील चिन्तन जब मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा कर देता है, तब उन अवयवों का दर्शन यदि भावनात्मक हलचल को उच्छृंखल बना दे तो आश्चर्य ही क्या है? यहां यह रहस्य जान लेना ही चाहिए। मूत्र स्थान में बैठी हुई कुण्डलिनी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में भी इतनी तीव्र है कि उसकी प्रचण्ड धाराएं खुली प्रवाहित नहीं रहने दी जा सकतीं। उन्हें आवरण में रखने से उनका अपव्यय बचता है और अन्यों के मानसिक सन्तुलन को क्षति नहीं पहुंचती। छोटे बच्चों को कटिबन्ध इसीलिए पहनाते हैं। ब्रह्मचारियों को धोती के अतिरिक्त लंगोट भी बांधे रहना पड़ता है। पहलवान भी ऐसा ही करते हैं। संन्यास और वानप्रस्थ में भी यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।
उत्तरी ध्रुव सहस्रार-कमल में विक्षोभ उत्पन्न करने और उसकी शक्ति को अस्त-व्यस्त करने का दोष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृत्तियों का है। मस्तिष्क उन चिन्ताओं में दौड़ जाता है, तो उसे आत्म-चिन्तन के लिए—ब्रह्म-शक्ति के संचय के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव मूलाधार में भरी प्रचण्ड क्षमता को कार्य-शक्ति में लगा दिया जाय तो मनुष्य पर्वत उठाने एवं समुद्र मथने जैसे कार्यों को कर सकता है। क्रिया-शक्ति मानव प्राणी में असीम है। किन्तु उसका क्षय कामुक विषय-विकारों में होता रहता है। यदि इस प्रवाह को गलत दिशा से रोक कर सही दिशा में लगाया जा सके, तो मनुष्य की कार्य-क्षमता साधारण न रहकर दैत्यों अथवा देवताओं जैसी हो सकती है।
पुराणों में समुद्र-मन्थन की कथा आती है। वह सारा चित्रण सूक्ष्म रूप से मानव शरीर में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति के प्रयोग-प्रयोजन का है। हमारा मूत्र संस्थान—खारी जल से भरा समुद्र है। उसे अगणित रत्नों का भाण्डागार कह सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों की सुविस्तृत रत्न राशि इसमें छिपी हुई है। प्रजापति के संकेत पर एकबार समुद्र मथा गया। देव और दानव इसका मंथन करने जुट गये। असुर उसे अपनी ओर खींचते थे अर्थात् कामुकता की ओर घसीटते थे और देवता उसे रचनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने के लिए तत्पर थे। यह खींच-तान दूध में से मक्खन निकालने वाली बिलोने की, मन्थन की क्रिया चित्रित की गई है।
समुद्र मन्थन उपाख्यान में यह भी वर्णन है कि भगवान ने कछुआ का रूप बनाकर आधार स्थापित किया, उनकी पीठ पर सुमेरु पर्वत ‘रई’ के स्थान पर अवस्थित हुआ। शेषनाग के साढ़े तीन फेरे उस पर्वत पर लगाये गये और उसके द्वारा मंथन कार्य सम्पन्न हुआ। कच्छप और सुमेर मूलाधार चक्र में अवस्थित वह शक्ति बीज है जो दूसरे कणों की तरह गोल न होकर चपटा है और जिसकी पीठ, नाभि ऊपर की ओर उभरी हुई है। इसके चारों ओर महासर्पिणी, कुण्डलिनी साड़े तीन फेरे लपेट कर चढ़ी हुई है। इसे जगाने का कार्य, मंथन का प्रकरण उद्दाम वासना के उभार और दमन के रूप में होता है। देवता असुर दोनों ही मनोभाव अपना-अपना जोर अजमाते हैं और मन्थन आरम्भ हो जाता है। कृष्ण की रासलीला का अध्यात्म रहस्य कुछ इसी प्रकार का है। उस प्रकरण की गहराई में जाने और विवेचन करने का यह अवसर नहीं है अभी तो इतना ही समझ लेना पर्याप्त होगा कि कामुकता की उद्दीप्त स्थिति को प्रतिरोध द्वारा नियन्त्रित करने का पुरुषार्थ समुद्र मन्थन से रत्न राशि निकालने का प्रयोजन पूरा करता है। पंचकोशी साधना के अन्तर्गत मानवी सत्ता के अन्तर्गत विशिष्ट शक्ति स्रोतों—अद्भुत व्यक्तित्वों का विकार किया जाता है। कुण्डलिनी साधना के अन्तर्गत अपने अन्दर बीज रूप में सन्निहित महाशक्ति को जागृत करके, उसके अधोगामी प्रवाह को रोक कर बलपूर्वक ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। यह साधनाएं आत्मसत्ता को परमात्मसत्ता से जोड़ने, उस स्तर तक पहुंचाने में समर्थ हैं। इनके लिए सामान्य साधना-क्रम से ऊपर उठ कर कुछ विशिष्ट साधना प्रक्रियाएं भी अपनानी पड़ती हैं। उन्हें बहुत कठिन एवं दुर्लभ माना जाता है। ब्रह्म वर्चस् साधनाक्रम के अन्तर्गत उन्हें यथासाध्य सुलभ एवं सुगम बनाकर प्रस्तुत किया गया है। ताकि हर स्थिति का व्यक्ति, थोड़ी तत्परता बरत कर उनका लाभ निर्भय होकर उठा सके।
गायत्री और सावित्री का अन्तर और भी स्पष्ट समझना हो तो गायत्री को ज्ञान-शक्ति और सावित्री को क्रिया-शक्ति कह सकते हैं। गायत्री चेतना की सामर्थ्य है और सावित्री पदार्थ के अन्तराल में काम करने वाली क्षमता। इन्हीं दोनों के प्रभाव से यह समस्त संसार और मानवी काय-कलेवर अपनी हलचलों को जीवित रखे हुए हैं। गायत्री चेतना का शास्त्र ब्रह्म विद्या है और सावित्री शक्ति की व्याख्या कुण्डलिनी विज्ञान के रूप में की जाती है। गायत्री को पंचकोशी साधना के अन्तर्गत और सावित्री को कुण्डलिनी विज्ञान के अन्तर्गत प्रखर परिष्कृत बनाया जाता है। गायत्री साधना चेतनात्मक रहस्यों का—दिव्य विभूतियों का—अनुदान प्रस्तुत करती है और कुण्डलिनी भौतिक सिद्धियों के लिए आवश्यक पथ-प्रशस्त करती है। एकांगी प्रति अपर्याप्त है। उत्कर्ष उभय-पक्षीय होना चाहिए। इसलिए ब्रह्म-विज्ञान के माध्यम से पंचकोशी गायत्री उपासना के साथ-साथ ब्रह्म तेजस् की—कुण्डलिनी जागरण साधना को चलाते रहने का भी निर्देश है। इसे विरोधाभास की दृष्टि से नहीं वरन् पूरक प्रक्रिया का शुभारम्भ ही समझना चाहिए।
समन्वयात्मक साधना का जितना महत्व है उतना एकांगी का असम्बद्ध का नहीं। प्रायः साधना क्षेत्र में इन दोनों में यही भूल होती रही है। ज्ञान मार्गी—राजयोगी—भक्ति-परक साधना तक सीमित रह जाते हैं और हठयोगी, कर्मकाण्डी—तप साधनाओं में निमग्न रहते हैं। उपयोगिता दोनों की है। महत्ता किसी की भी कम नहीं, पर उनका एकांगीपन उचित नहीं, दोनों को जोड़ा और मिलाया जाना चाहिए। यह शिव पार्वती विवाह ही गणेश जैसा भावनात्मक वरदान और कार्तिकेय जैसे पदार्थात्मक अनुदानों की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।
गायत्री साधना का उद्देश्य मानसिक चेतनाओं का जागरण और कुण्डलिनी साधना का प्रयोजन पदार्थगत सक्रियताओं का अभिवर्धन है। दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। समर्थ शरीर और समर्थ मस्तिष्क परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इन्हें गाड़ी के दो पहिये कहना चाहिए। एक के बिना दूसरा निरर्थक रहता है। रुग्ण रहने वाला तत्व ज्ञानी और मूढ़ मति नर पशु दोनों ही अधूरे हैं। आवश्यकता दोनों के समन्वय की है। यों वरिष्ठ और कनिष्ठ का चुनाव करना है तो प्राथमिकता मानसिक चेतना को ही मिलेगी। मस्तिष्क मार्ग से प्रकट होने वाली चेतनात्मक शक्तियों की सिद्धियों का वारापार नहीं। योगी, तत्वज्ञानी पारदर्शी, मनीषी विज्ञानी, कलाकार, आत्मवेत्ता, महामानव इसी शक्ति का उपयोग करके अपने वर्चस्व को प्रखर बनाते हैं। ज्ञान शक्ति के चमत्कारों से कौन अपरिचित है? मस्तिष्क का महत्व किसे मालूम नहीं? उसके विकास के लिए स्कूली प्रशिक्षण से लेकर स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन और साधना समाधि तक के अगणित प्रयोग किये जाते रहते हैं। इस व्यावहारिक क्षेत्र को गायत्री उपासना-परा प्रकृति की साधना ही कहना चाहिए।
दूसरी क्षमता है, क्रिया शक्ति। अपरा प्रकृति। शरीरगत अवयवों का सारा क्रिया-कलाप इसी से चलता है। श्वास-प्रश्वास, रक्त–संचार, निद्रा, जागृति, मलों का विसर्जन, ऊष्मा, ज्ञान तत्व, विद्युत प्रवाह आदि अगणित प्रकार के क्रिया-कलाप शरीर में चलते रहते हैं। उन्हें अपरा प्रकृति का कर्तृत्व कहना चाहिए, इसे जड़ पदार्थों को गतिशील रखने वाली ‘क्रिया शक्ति’ कहना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में इसका महत्व भी कम नहीं। आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति—साहसिकता, सौन्दर्य आदि कितनी ही शरीरगत विशेषताएं इसी पर निर्भर हैं। इसे व्यावहारिक रूप से कुण्डलिनी शक्ति कहना चाहिए। आहार, व्यायाम, विश्राम आदि द्वारा साधारणतया इसी शक्ति की साधना, उपासना की जाती है।
यों प्रधान तो मस्तिष्क स्थित दिव्य चेतना ही है। वह बिखर जाय तो तत्काल मृत्यु आ खड़ी होगी। पर कम उपयोगिता शरीरगत पदार्थ चेतना की भी नहीं है। उसकी कमी होने से मनुष्य दुर्बल, रुग्ण, अकर्मण्य, निस्तेज कुरूप और कायर बनकर रह जायगा। निरर्थक, निरुपयोगी—भारभूत जिन्दगी की लाश ही ढोता रहेगा।
गायत्री का केन्द्र सहस्रार—मस्तिष्क का मस्तिष्क—ब्रह्मरन्ध्र है। कुण्डलिनी का केन्द्र काम बीज—मूलाधार चक्र। गायत्री ब्रह्म चेतना की और सावित्री ब्रह्म तेज की प्रतीक हैं। दोनों में परस्पर सघन एकता और अविच्छिन्न घनिष्ठता है। एक को उत्तर ध्रुव और दूसरी को दक्षिण ध्रुव कह सकते हैं। पृथ्वी की धुरी के यह दोनों ही छोर हैं। मानवी सत्ता के भी यही दो ध्रुव मिल-जुलकर जीवन का समग्र संचार करते हैं। गायत्री से दिव्य आध्यात्मिक विभूतियां उपलब्ध होती हैं और सावित्री से भौतिक ऋषि-सिद्धियां। गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना पंचकोशों की पंचयोगों की साधना बन जाती है। सावित्री कुण्डलिनी है और उसे पांच तप साधनों द्वारा जगाया जाता है। योग और तप के समन्वय से ही सम्पूर्ण आत्म–साधना का स्वरूप बनता और समग्र प्रतिफल मिलता है। इसलिए पंचकोशों की गायत्री और कुण्डलिनी जागरण की सावित्री विद्या का समन्वित अवलम्बन अपनाना ही हितकर है। बिजली की दो धाराएं मिलने पर ही शक्ति प्रवाह में परिणत होती है। आत्मिक प्रगति का रथ भी इन्हीं दो पहियों के सहारे महान् लक्ष्य की दिशा में गतिशील होता है।
उल्लेख किया जा चुका है कि कुण्डलिनी को परा प्रकृति कहा जाता है और शरीर में उसका स्थान मूलाधार में है। इसे जीवन अग्नि ‘लाइफ फायर’ के नाम से भी जाना जाता है। मूलाधार क्षेत्र में त्रिकोण शक्ति बीज है, जिसकी संगति सुमेरु से बिठाई जाती है।
एक सर्पाकार विद्युत प्रवाह इस सुमेरु के आस-पास लिपटा बैठा है। इसी को महासर्पिणी कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विद्युत भ्रमर भी कह सकते हैं। तेज बहने वाली नदियों में कहीं-कहीं बड़े भंवर पड़ते हैं जहां भंवर पड़ते हैं, वहां पानी की चाल सीधी अग्रगामी न होकर गोल गह्वर की गति में बदल जाती है। मनुष्य शरीर में सर्वत्र तो नाड़ी संस्थान के माध्यम से सामान्य गति से विद्युत-प्रवाह बहता है, पर उस मूलाधार स्थित सुमेरु के समीप जाकर वह भंवर गह्वर की तरह चक्राकार घूमती रहती है। इसे सर्पिणी कहते हैं। कुण्डलिनी की आकृति, सर्प की-सी आकृति मानी गई है।
नदी प्रवाह में भंवरों की शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फंसकर बड़े बड़े जहाज भी संभल नहीं पाते और देखते-देखते डूब जाते हैं। साधारण नदी प्रवाह में जितनी शक्ति और गति रहती है उससे 60 गुनी अधिक शक्ति भंवर में पाई जाती है। शरीरगत विद्युत प्रवाह में अन्यत्र पाई जाने वाली क्षमता की तुलना में कुण्डलिनी की शक्ति हजारों गुनी बड़ी है। उसका स्वरूप एवं विज्ञान यदि ठीक तरह समझा जा सके और उस विद्युत प्रवाह का प्रयोग उपयोग जाना जा सके तो निःसन्देह व्यक्ति सर्व सामर्थ्य सम्पन्न सिद्ध पुरुष बन सकता है।
कुण्डलिनी का मध्यवर्ती जागरण मनुष्य शरीर में एक अद्भुत प्रकार की तड़ित उत्पन्न कर देता है।
वस्तुतः स्थूल कुण्डलिनी का महासर्पिणी स्वरूप मूलाधार से लेकर मेरुदण्ड समेत ब्रह्मरन्ध्र तक फैले हुए सर्पाकृति कलेवर में ही पूरी तरह देखा जा सकता है। ऊपर नीचे मुड़े हुए दो महान् शक्तिशाली केन्द्र चक्र ही उसके आगे-पीछे वाले दो मुख हैं।
मेरुदण्ड पोला है, उसके भीतर जो कुछ है उसकी चर्चा शरीर शास्त्र के स्थूल प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर दूसरे ढंग से की जा सकती है। शल्य–क्रिया द्वारा जो देखा जा सकता है, वह रचना क्रम दूसरा है। इसमें सूक्ष्म प्रक्रिया के अन्तर्गत योगशास्त्र की दृष्टि से परिधि में सन्निहित दिव्य-शक्तियों की चर्चा करनी है। योगशास्त्र के अनुसार मेरुदण्ड में एक ब्रह्म-नाड़ी है। उसके अन्तर्गत इड़ा और पिंगला दो शिरायें गतिशील हैं। यह नाड़ियां रक्तवाहिनी शिरायें नहीं समझी जानी चाहिए। वस्तुतः ये विद्युत-धाराएं हैं। जैसे बिजली के तार में ऊपर एक-एक रबड़ का खोल चढ़ा होता है और उसके भीतर जस्ते तथा तांबे का ठण्डा-गरम तार रहता है, उसी प्रकार इन नाड़ियों को समझा जाना चाहिए। ब्रह्म नाड़ी रबड़ का खोल हुआ, उसके भीतर इड़ा और पिंगला ठण्डे गरम तारों की तरह हैं। इनका स्थूल कलेवर या अस्तित्व नहीं है। शल्य क्रिया द्वारा यह नाड़ियां नहीं देखी जा सकतीं। इस रचना क्रम को सूक्ष्म विद्युत-धाराओं की दिव्य रचना ही कहना चाहिए।
मस्तिष्क के भीतरी भाग में यों कतिपय ‘कोष्ठकों’ के अन्तर्गत भरा हुआ मज्जा भाग ही देखने को मिलेगा। खुर्दबीन से और कुछ नहीं देखा जा सकता, पर सभी जानते हैं उस दिव्य संस्थान के नगण्य से दीखने वाले घटकों के अन्तर्गत विलक्षण शक्तियां भरी पड़ी हैं। मनुष्य का सारा व्यक्तित्व, सारा चिन्तन, सारा क्रिया-कलाप और सारा शारीरिक, मानसिक अस्तित्व इन घटकों के ऊपर ही अवलम्बित रहता है। देखने में सभी का मस्तिष्क लगभग एक जैसा दीखेगा, पर उसकी सूक्ष्म स्थिति में पृथ्वी, आकाश जैसा अन्तर दीखता है, उसके आधार पर व्यक्तित्वों का घटिया-बढ़िया होना सहज आंका जा सकता है। यही सूक्ष्मता कुण्डलिनी के सम्बन्ध में व्यक्त की जा सकती है। मूलाधार, सहस्रार, ब्रह्म नाड़ी, इड़ा पिंगला इन्हें शल्य-क्रिया द्वारा नहीं देखा जा सकता। यह सारी दिव्य-रचना ऐसी सूक्ष्म है, जो देखी तो नहीं जा सकती, पर उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
मलद्वार और जननेन्द्रिय के बीच जो लगभग चार अंगुल जगह खाली पड़ी है, उसी के गह्वर में एक त्रिकोण परमाणु पाया जाता है। सारे शरीर में गोल कण हैं, यह एक ही तिकोना है। यहां एक प्रकार का शक्ति-भ्रमर है। शरीर में प्रवाहित होने वाली तथा मशीनों में संचारित बिजली की गति का क्रम यह है कि वह आगे बढ़ती है, फिर तनिक पीछे हटती है और फिर उसी क्रम से आगे बढ़ती, पीछे हटती हुई अपनी अभीष्ट दिशा में दौड़ती चली जाती है। किन्तु मूलाधार स्थित त्रिकोण कण के शक्ति-भंवर में सन्निहित बिजली गोल घेरे में पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह घूमती हुई संचारित होती है। यह संचार क्रम प्रायः 3।। लपेटों का है। आगे चलकर यह विद्युतधारा इस विलक्षण गति को छोड़कर सामान्य रीति से प्रवाहित होने लगते है।
यह प्रवाह निरन्तर मेरुदण्ड में होकर मस्तिष्क के उस मध्य बिन्दु तक दौड़ता रहता है, जिसे ब्रह्मरन्ध्र या सहस्रार कमल कहते हैं। इस शक्ति केन्द्र का मध्य अणु भी शरीर के अन्य अणुओं से भिन्न रचना का है। वह गोल न होकर चपटा है। उसके किनारे चिकने न होकर खुरदरे हैं—आरी के दांतों से उस खुरदरेपन की तुलना की जा सकती है, योगियों का कहना है कि उन दांतों की संख्या एक हजार हैं। अलंकारिक दृष्टि से इसे एक ऐसे कमल पुष्प की तरह चित्रित किया जाता है, जिसमें पंखुरियां खिली हुई हों। इस अलंकार के आधार पर ही इस अणु का नामकरण सहस्रार-कमल किया गया है।
दूसरा दक्षिणी ध्रुव मूलाधार चक्र, सुमेरु संस्थान, सुषुम्ना केन्द्र है; जो मल-मूत्र के—संस्थानों के बीचों बीच अवस्थित है। कुण्डलिनी, महासर्पिणी, प्रचण्ड क्रिया-शक्ति इसी स्थान पर सोई पड़ी है। उत्तरी ध्रुव का महा सर्प अपनी सहचरी सर्पिणी के बिना और दक्षिणी ध्रुव की महासर्पिणी अपने सहचर महासर्प के बिना निरानन्द मूर्च्छित जीवन व्यतीत करते हैं। मनुष्य शरीर विश्व की समस्त विशेषताओं का प्रतीक प्रतिबिम्ब होते हुए भी तुच्छ-सा जीवन व्यतीत करते हुए कीट-पतंगों की मौत मर जाता है। कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाता, इसका एकमात्र कारण यही है कि हमारे पिंड के, देह के दोनों ध्रुव मूर्च्छित पड़े हैं, यदि वे सजग हो गये होते तो ब्रह्माण्ड जैसी महान् चेतना अपने पिंड में भी परिलक्षित होती।
मूत्र स्थान यों एक प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान है। पर तत्वतः उसकी सामर्थ्य मस्तिष्क में अवस्थित ब्रह्मरन्ध्र जितनी ही है। वह हमारी सक्रियता का केन्द्र है। यों नाक, कान आदि छिद्र भी मल विसर्जन के लिए प्रयुक्त होते हैं, पर उन्हें कोई ढकता नहीं। मूत्र यन्त्र को ढकने की अनादि एवं आदिम परिपाटी के पीछे वह सतर्कता है, जिसमें यह निर्देश है कि इस संस्थान से जो अजस्र शक्ति-प्रवाह बहता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिए। शरीर के अन्य अंगों की तरह यों प्रजनन अवयव भी मांस-मज्जा मात्र से ही बने हैं, पर उनके दर्शन मात्र से मन विचलित हो उठता है। अश्लील चित्र अथवा अश्लील चिन्तन जब मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा कर देता है, तब उन अवयवों का दर्शन यदि भावनात्मक हलचल को उच्छृंखल बना दे तो आश्चर्य ही क्या है? यहां यह रहस्य जान लेना ही चाहिए। मूत्र स्थान में बैठी हुई कुण्डलिनी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में भी इतनी तीव्र है कि उसकी प्रचण्ड धाराएं खुली प्रवाहित नहीं रहने दी जा सकतीं। उन्हें आवरण में रखने से उनका अपव्यय बचता है और अन्यों के मानसिक सन्तुलन को क्षति नहीं पहुंचती। छोटे बच्चों को कटिबन्ध इसीलिए पहनाते हैं। ब्रह्मचारियों को धोती के अतिरिक्त लंगोट भी बांधे रहना पड़ता है। पहलवान भी ऐसा ही करते हैं। संन्यास और वानप्रस्थ में भी यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।
उत्तरी ध्रुव सहस्रार-कमल में विक्षोभ उत्पन्न करने और उसकी शक्ति को अस्त-व्यस्त करने का दोष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृत्तियों का है। मस्तिष्क उन चिन्ताओं में दौड़ जाता है, तो उसे आत्म-चिन्तन के लिए—ब्रह्म-शक्ति के संचय के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव मूलाधार में भरी प्रचण्ड क्षमता को कार्य-शक्ति में लगा दिया जाय तो मनुष्य पर्वत उठाने एवं समुद्र मथने जैसे कार्यों को कर सकता है। क्रिया-शक्ति मानव प्राणी में असीम है। किन्तु उसका क्षय कामुक विषय-विकारों में होता रहता है। यदि इस प्रवाह को गलत दिशा से रोक कर सही दिशा में लगाया जा सके, तो मनुष्य की कार्य-क्षमता साधारण न रहकर दैत्यों अथवा देवताओं जैसी हो सकती है।
पुराणों में समुद्र-मन्थन की कथा आती है। वह सारा चित्रण सूक्ष्म रूप से मानव शरीर में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति के प्रयोग-प्रयोजन का है। हमारा मूत्र संस्थान—खारी जल से भरा समुद्र है। उसे अगणित रत्नों का भाण्डागार कह सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों की सुविस्तृत रत्न राशि इसमें छिपी हुई है। प्रजापति के संकेत पर एकबार समुद्र मथा गया। देव और दानव इसका मंथन करने जुट गये। असुर उसे अपनी ओर खींचते थे अर्थात् कामुकता की ओर घसीटते थे और देवता उसे रचनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने के लिए तत्पर थे। यह खींच-तान दूध में से मक्खन निकालने वाली बिलोने की, मन्थन की क्रिया चित्रित की गई है।
समुद्र मन्थन उपाख्यान में यह भी वर्णन है कि भगवान ने कछुआ का रूप बनाकर आधार स्थापित किया, उनकी पीठ पर सुमेरु पर्वत ‘रई’ के स्थान पर अवस्थित हुआ। शेषनाग के साढ़े तीन फेरे उस पर्वत पर लगाये गये और उसके द्वारा मंथन कार्य सम्पन्न हुआ। कच्छप और सुमेर मूलाधार चक्र में अवस्थित वह शक्ति बीज है जो दूसरे कणों की तरह गोल न होकर चपटा है और जिसकी पीठ, नाभि ऊपर की ओर उभरी हुई है। इसके चारों ओर महासर्पिणी, कुण्डलिनी साड़े तीन फेरे लपेट कर चढ़ी हुई है। इसे जगाने का कार्य, मंथन का प्रकरण उद्दाम वासना के उभार और दमन के रूप में होता है। देवता असुर दोनों ही मनोभाव अपना-अपना जोर अजमाते हैं और मन्थन आरम्भ हो जाता है। कृष्ण की रासलीला का अध्यात्म रहस्य कुछ इसी प्रकार का है। उस प्रकरण की गहराई में जाने और विवेचन करने का यह अवसर नहीं है अभी तो इतना ही समझ लेना पर्याप्त होगा कि कामुकता की उद्दीप्त स्थिति को प्रतिरोध द्वारा नियन्त्रित करने का पुरुषार्थ समुद्र मन्थन से रत्न राशि निकालने का प्रयोजन पूरा करता है। पंचकोशी साधना के अन्तर्गत मानवी सत्ता के अन्तर्गत विशिष्ट शक्ति स्रोतों—अद्भुत व्यक्तित्वों का विकार किया जाता है। कुण्डलिनी साधना के अन्तर्गत अपने अन्दर बीज रूप में सन्निहित महाशक्ति को जागृत करके, उसके अधोगामी प्रवाह को रोक कर बलपूर्वक ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। यह साधनाएं आत्मसत्ता को परमात्मसत्ता से जोड़ने, उस स्तर तक पहुंचाने में समर्थ हैं। इनके लिए सामान्य साधना-क्रम से ऊपर उठ कर कुछ विशिष्ट साधना प्रक्रियाएं भी अपनानी पड़ती हैं। उन्हें बहुत कठिन एवं दुर्लभ माना जाता है। ब्रह्म वर्चस् साधनाक्रम के अन्तर्गत उन्हें यथासाध्य सुलभ एवं सुगम बनाकर प्रस्तुत किया गया है। ताकि हर स्थिति का व्यक्ति, थोड़ी तत्परता बरत कर उनका लाभ निर्भय होकर उठा सके।