Books - ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान - धारणा
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ब्रह्म वर्चस् साधना का उपक्रम
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गायत्री उपासना के तीन चरण हैं—(1) नित्यकर्म, सन्ध्या वन्दन (2) संकल्पित अनुष्ठान पुरश्चरण (3) उच्चस्तरीय योग साधना। नित्य कर्म को अनिवार्य धर्म कर्त्तव्य माना गया है। आये दिन अन्तःचेतना पर वातावरण के प्रभाव से चढ़ते रहने वाले कषाय-कल्मषों का निराकरण नित्य कर्म से, सन्ध्या वन्दन से होता है। इससे अधःपतन की आशंका पर अंकुश लगता है।
संकल्पित पुरश्चरणों से प्रसुप्त चेतना उभरती है और फलतः साधक ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी बनता है। साहस और पराक्रम की अभिवृद्धि आत्मिक एवं भौतिक क्षेत्र में अनेकानेक सफलताओं का पथप्रशस्त करती है। विशेष प्रयोजनों के लिए किये गये पुरश्चरणों की सफलता इसी संकल्प शक्ति के सहारे उपलब्ध होती है जिसे प्रतिज्ञाबद्ध, अनुशासित एवं आत्म-निग्रह के विभिन्न नियमोपनियमों के सहारे सम्पन्न किया जाता है।
नित्य कर्म को स्कूलों की प्राथमिक और पुरश्चरणों को माध्यमिक शिक्षा कहा जा सकता है। जूनियर, हाईस्कूल, मैट्रिक—हायर सेकेंडरी का प्रशिक्षण माध्यमिक स्तर का समझा जाता है। इसके उपरान्त कालेज की—विश्वविद्यालय की पढ़ाई का क्रम आरम्भ होता है। इसे उच्चस्तरीय साधना कह सकते हैं। योग और तप इस स्तर के साधकों को क्रियान्वित होते हैं। योग में जीव चेतना को ब्रह्म चेतना से जोड़ने के लिए स्वाध्याय, मनन से लेकर ध्यान धारणा तक के अवलम्बन अपनी मनःस्थिति के अनुरूप अपनाने पड़ते हैं। विचारणा, भावना एवं आस्था की प्रगाढ़ प्रतिष्ठापना इसी आधार पर सम्भव होती है।
आत्मिक प्रगति के लिए प्रचलित अनेकानेक उपायों और विधानों में गायत्री विद्या अनुपम है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने, आत्मविज्ञानियों ने प्रधानतया इसी का अवलम्बन लिया है और सर्वसाधारण को इसी आधार को अपनाने का निर्देश दिया है। भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं। शिखा और यज्ञोपवीत। दोनों को गायत्री की ऐसी प्रतिमा कहा जा सकता है; जिसकी प्रतीक धारणा को अनिवार्य धर्म चिह्न बताया गया है। मस्तिष्क दुर्ग के सर्वोच्च शिखर पर गायत्री रूपी विवेकशीलता की ज्ञान-ध्वजा ही शिखा के रूप में प्रतिष्ठापित की जाती है। यज्ञोपवीत की गायत्री का कर्म पक्ष-यज्ञ संकेत है। उसकी तीन लड़ें गायत्री के तीन चरण और नौ धागे इस महामन्त्र के नौ शब्द कहे गये हैं। उपासना में सन्ध्या वन्दन नित्य कर्म है। वह गायत्री के बिना सम्पन्न नहीं होता। चारों वेद भारतीय धर्म और संस्कृति के मूल आधार है और उन चारों की जन्मदात्री वेदमाता गायत्री है। वेदों की व्याख्या अन्यान्य शास्त्र पुराणों में हुई है इस प्रकार आर्षवाङ्गमय के सारे कलेवर को ही गायत्रीमय कहा जा सकता है। गायत्री और भारतीय धर्म संस्कृति को बीज और वृक्ष की उपमा दी जा सकती है।
यह सर्वसाधारण के लिए भारतीय संस्कृति के—विश्व मानवता के प्रत्येक अनुयायी के लिए सर्वजनीन प्रयोग उपयोग हुआ। गायत्री के 24 अक्षरों में बीज रूप में भारतीय तत्व ज्ञान के समस्त सूत्र सन्निहित हैं। इस महामन्त्र के विधि साधना उपचारों में तपश्चर्या को श्रेष्ठतम आधार कहा जा सकता है। उनमें बाल, वृद्ध, रोगी, नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी के लिए छोटे-बड़े प्रयोग मौजूद हैं। सरल से सरल और कठिन से कठिन ऐसे विधानों का उल्लेख है; जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपनी-अपनी स्थिति एवं पात्रता के अनुरूप अपना सकता है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के दो पक्ष हैं। एक गायत्री, दूसरी सावित्री अथवा कुण्डलिनी। गायत्री की प्रतिमाओं में पांच मुख चित्रित किये गये हैं। यह मानवी चेतना के पांच आवरण हैं। इन्हें पांच आवरण कह सकते हैं। जिनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पांच कोश—पांच खजाने भी कह सकते हैं। अन्तःचेतना में एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियां प्रसुप्त-अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इन्हें जगाने पर अन्तर्जगत के पांच देवता जग पड़ते हैं और उनकी विशेषताओं के कारण मानवीसत्ता देवोपम स्तर पर पहुंची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होने लगती है। चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पांच प्राण करते हैं। इन्हें पांच कोश कहा जाता है। शरीर पांच तत्व देवताओं के समन्वय से बना है। अग्नि, वरुण, वायु, अनन्त और पृथ्वी यह पांच तत्व, पांच देवता ही काय कलेवर का और सृष्टि में बिखरे पड़े दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है। इस विज्ञान को तत्व साधना अथवा ‘प्रयन्त्र विज्ञान’ कहा गया है। पंचकोश उपासना से चेतना पंचक और पदार्थ पंचक के दोनों ही क्षेत्रों को समर्थ परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है। सावित्री साधना यही है। इसका देवता सविता है। सावित्री और सविता का युग्म है। इस उपासना में सूर्य को प्रतीक और तेजस्वी परब्रह्म को सविता को इष्ट मान कर उस स्रोत से ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता आकर्षित की जाती है। इस क्षेत्र की तपश्चर्या से उस ब्रह्म तेजस् की प्राप्ति होती है। जो इस जड़ चेतन जगत की सर्वोपरि शक्ति है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की दूसरी प्रक्रिया है कुण्डलिनी। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बांधे रहने वाली सूत्र शृंखला कह सकते हैं। प्रकारान्तर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुम्बकीय शक्ति काम करती रहती है। इसी के दबाव से युग्मों का बनना और प्रजनन क्रम चलना सम्भव होता है। उदाहरण के लिए इस नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुम्बकीय धारा प्रवाह को कुण्डलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं। प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का सरंजाम खड़ा करा लेना इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी कुण्डलिनी का काम है। व्यक्ति सत्ता में भी काया और चेतना की घनिष्ठता बनाये रहना और शरीर में लिप्सा—मन में ललक और अन्तःकरण में लिप्सा उभारना इसी कुण्डलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन उत्पादन कुण्डलिनी ही करती है। अन्यथा जड़ पंच तत्वों में पुलकन कहां—निर्लिप्त आत्मा में उद्विग्न आतुरता कैसी? दृष्टि जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में ‘माया’ कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का—मानवी गतिविधियों का—उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। यह प्रमुख कुंजी मास्टर को—हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बन्द किये रहने वाले सभी ताले खुलते चले जाते हैं। इस स्वेच्छाचारिणी महाशक्ति को वशवर्ती बनाने वाले साधक आत्मसत्ता पर नियन्त्रण करने और जागतिक हलचलों को प्रभावित करने में समर्थ हो सकते हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतम्भरा प्रज्ञा उभारने के लिए पंचकोशी उपासना प्रक्रिया काम में आती है और प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुण्डलिनी साधना की कार्य-पद्धति काम में लाई जाती है। ब्रह्म वर्चस् साधना में इन दोनों का ही समावेश किया गया है। साधकों को इन साधनाओं में प्रविष्ट होने के पूर्व उनका स्वरूप एवं तत्व ज्ञान भी भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए।
संकल्पित पुरश्चरणों से प्रसुप्त चेतना उभरती है और फलतः साधक ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी बनता है। साहस और पराक्रम की अभिवृद्धि आत्मिक एवं भौतिक क्षेत्र में अनेकानेक सफलताओं का पथप्रशस्त करती है। विशेष प्रयोजनों के लिए किये गये पुरश्चरणों की सफलता इसी संकल्प शक्ति के सहारे उपलब्ध होती है जिसे प्रतिज्ञाबद्ध, अनुशासित एवं आत्म-निग्रह के विभिन्न नियमोपनियमों के सहारे सम्पन्न किया जाता है।
नित्य कर्म को स्कूलों की प्राथमिक और पुरश्चरणों को माध्यमिक शिक्षा कहा जा सकता है। जूनियर, हाईस्कूल, मैट्रिक—हायर सेकेंडरी का प्रशिक्षण माध्यमिक स्तर का समझा जाता है। इसके उपरान्त कालेज की—विश्वविद्यालय की पढ़ाई का क्रम आरम्भ होता है। इसे उच्चस्तरीय साधना कह सकते हैं। योग और तप इस स्तर के साधकों को क्रियान्वित होते हैं। योग में जीव चेतना को ब्रह्म चेतना से जोड़ने के लिए स्वाध्याय, मनन से लेकर ध्यान धारणा तक के अवलम्बन अपनी मनःस्थिति के अनुरूप अपनाने पड़ते हैं। विचारणा, भावना एवं आस्था की प्रगाढ़ प्रतिष्ठापना इसी आधार पर सम्भव होती है।
आत्मिक प्रगति के लिए प्रचलित अनेकानेक उपायों और विधानों में गायत्री विद्या अनुपम है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने, आत्मविज्ञानियों ने प्रधानतया इसी का अवलम्बन लिया है और सर्वसाधारण को इसी आधार को अपनाने का निर्देश दिया है। भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं। शिखा और यज्ञोपवीत। दोनों को गायत्री की ऐसी प्रतिमा कहा जा सकता है; जिसकी प्रतीक धारणा को अनिवार्य धर्म चिह्न बताया गया है। मस्तिष्क दुर्ग के सर्वोच्च शिखर पर गायत्री रूपी विवेकशीलता की ज्ञान-ध्वजा ही शिखा के रूप में प्रतिष्ठापित की जाती है। यज्ञोपवीत की गायत्री का कर्म पक्ष-यज्ञ संकेत है। उसकी तीन लड़ें गायत्री के तीन चरण और नौ धागे इस महामन्त्र के नौ शब्द कहे गये हैं। उपासना में सन्ध्या वन्दन नित्य कर्म है। वह गायत्री के बिना सम्पन्न नहीं होता। चारों वेद भारतीय धर्म और संस्कृति के मूल आधार है और उन चारों की जन्मदात्री वेदमाता गायत्री है। वेदों की व्याख्या अन्यान्य शास्त्र पुराणों में हुई है इस प्रकार आर्षवाङ्गमय के सारे कलेवर को ही गायत्रीमय कहा जा सकता है। गायत्री और भारतीय धर्म संस्कृति को बीज और वृक्ष की उपमा दी जा सकती है।
यह सर्वसाधारण के लिए भारतीय संस्कृति के—विश्व मानवता के प्रत्येक अनुयायी के लिए सर्वजनीन प्रयोग उपयोग हुआ। गायत्री के 24 अक्षरों में बीज रूप में भारतीय तत्व ज्ञान के समस्त सूत्र सन्निहित हैं। इस महामन्त्र के विधि साधना उपचारों में तपश्चर्या को श्रेष्ठतम आधार कहा जा सकता है। उनमें बाल, वृद्ध, रोगी, नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी के लिए छोटे-बड़े प्रयोग मौजूद हैं। सरल से सरल और कठिन से कठिन ऐसे विधानों का उल्लेख है; जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपनी-अपनी स्थिति एवं पात्रता के अनुरूप अपना सकता है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के दो पक्ष हैं। एक गायत्री, दूसरी सावित्री अथवा कुण्डलिनी। गायत्री की प्रतिमाओं में पांच मुख चित्रित किये गये हैं। यह मानवी चेतना के पांच आवरण हैं। इन्हें पांच आवरण कह सकते हैं। जिनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पांच कोश—पांच खजाने भी कह सकते हैं। अन्तःचेतना में एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियां प्रसुप्त-अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इन्हें जगाने पर अन्तर्जगत के पांच देवता जग पड़ते हैं और उनकी विशेषताओं के कारण मानवीसत्ता देवोपम स्तर पर पहुंची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होने लगती है। चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पांच प्राण करते हैं। इन्हें पांच कोश कहा जाता है। शरीर पांच तत्व देवताओं के समन्वय से बना है। अग्नि, वरुण, वायु, अनन्त और पृथ्वी यह पांच तत्व, पांच देवता ही काय कलेवर का और सृष्टि में बिखरे पड़े दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है। इस विज्ञान को तत्व साधना अथवा ‘प्रयन्त्र विज्ञान’ कहा गया है। पंचकोश उपासना से चेतना पंचक और पदार्थ पंचक के दोनों ही क्षेत्रों को समर्थ परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है। सावित्री साधना यही है। इसका देवता सविता है। सावित्री और सविता का युग्म है। इस उपासना में सूर्य को प्रतीक और तेजस्वी परब्रह्म को सविता को इष्ट मान कर उस स्रोत से ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता आकर्षित की जाती है। इस क्षेत्र की तपश्चर्या से उस ब्रह्म तेजस् की प्राप्ति होती है। जो इस जड़ चेतन जगत की सर्वोपरि शक्ति है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की दूसरी प्रक्रिया है कुण्डलिनी। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बांधे रहने वाली सूत्र शृंखला कह सकते हैं। प्रकारान्तर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुम्बकीय शक्ति काम करती रहती है। इसी के दबाव से युग्मों का बनना और प्रजनन क्रम चलना सम्भव होता है। उदाहरण के लिए इस नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुम्बकीय धारा प्रवाह को कुण्डलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं। प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का सरंजाम खड़ा करा लेना इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी कुण्डलिनी का काम है। व्यक्ति सत्ता में भी काया और चेतना की घनिष्ठता बनाये रहना और शरीर में लिप्सा—मन में ललक और अन्तःकरण में लिप्सा उभारना इसी कुण्डलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन उत्पादन कुण्डलिनी ही करती है। अन्यथा जड़ पंच तत्वों में पुलकन कहां—निर्लिप्त आत्मा में उद्विग्न आतुरता कैसी? दृष्टि जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में ‘माया’ कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का—मानवी गतिविधियों का—उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। यह प्रमुख कुंजी मास्टर को—हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बन्द किये रहने वाले सभी ताले खुलते चले जाते हैं। इस स्वेच्छाचारिणी महाशक्ति को वशवर्ती बनाने वाले साधक आत्मसत्ता पर नियन्त्रण करने और जागतिक हलचलों को प्रभावित करने में समर्थ हो सकते हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतम्भरा प्रज्ञा उभारने के लिए पंचकोशी उपासना प्रक्रिया काम में आती है और प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुण्डलिनी साधना की कार्य-पद्धति काम में लाई जाती है। ब्रह्म वर्चस् साधना में इन दोनों का ही समावेश किया गया है। साधकों को इन साधनाओं में प्रविष्ट होने के पूर्व उनका स्वरूप एवं तत्व ज्ञान भी भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए।