Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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Language: HINDI
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अनन्त आनन्द की साधना
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तैत्तिरियोपनिषद् की तृतीय बल्ली (भृगु बल्ली) में एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण आख्यायिका आती है। उसमें पंचकोशों की साधना पर मार्मिक प्रकाश डाला गया है।वरुण के पुत्र भृगु ने अपने पिता के निकट जाकर प्रार्थना की कि '' अधीहि भगवो ब्रह्मोति अर्थात हे भगवान् ! मुझे ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीजिए।
वरुण ने उत्तर दिया- 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, एन जातानि, जीवन्ति तत्प्रन्तय भिसं विशति तद्विजिज्ञासस्व तदबृह्योति। 'अर्थात- हे भृगु जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं और अन्त में जिसमें विलीन हो जाते हैं, तू उस ब्रह्म को जानने की इच्छा कर।
पिता के आदेशानुसार पुत्र ने, उस ब्रह्म को जानने के लिए तप आरम्भ कर दिया। दीर्घकालीन तप के उपरान्त भृगु ने अन्नमय जगत (स्थूल संसार) में फैली ब्रह्म विभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुँचा। वरुण ने भृगु से फिर कहा- 'तपसो ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्मेति' अर्थात है पुत्र ! तू तप करके ब्रह्म को जानने का प्रयत्न कर, क्योंकि ब्रह्म को तप द्वारा ही जाना जाता है।
भृगु ने फिर तपस्या की और "प्राणमय जगत्" की ब्रह्म विभूति को जान लिया और फिर वह पिता के पास पहुँचा। वरुण ने फिर उसे तप द्वारा ब्रह्म को जानने का उपदेश दिया।
पुत्र ने पुनः कठोर तप किया और 'मनोमय जगत' की ब्रह्म विभूति का अभिज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता ने उसे फिर तप में लगा दिया। अब उसने विज्ञानमय जगत की ईश्वरीय विभूति को प्राप्त कर लिया, अन्त में पाँचवीं बार भी पिता ने उसे तप में ही प्रवृत्त किया और भृगु ने उस आनन्दमयी विभूति को भी उपलब्ध कर लिया।
'आनन्दमय' जगत की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचने से किस प्रकार पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है इसका वर्णन करते हुए 'तैत्तिरियोपनिषद्' की तृतीय बल्ली के पाँचवें मन्त्र में बताया गया है कि-
"आनन्दो ब्रह्मेति विजानात्- आनन्दाद्धेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि, जीवन्ति आनन्द श्रयन्त्यभि सविशन्तीति। सैषां भार्गेवी वारूणी विद्या परमेव्योमन प्रतिष्ठता।"
अर्थात उस (भृगु) ने जाना कि आनन्द ही ब्रह्म है। आनन्द से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनन्द में ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं।
उपनिषद्कार ने उपर्युक्त आख्यायिका में ब्रह्मानन्द, परमानन्द, आत्मानन्द में ही ब्रह्मज्ञान का अन्तिम लक्ष्य बताया है। आनन्दमय जगत के कोश में पहुँचने के लिए तप करने का संकेत किया है। कोशों की सीढ़ियाँ जैसे- जैसे पार होती जाती हैं वैसे ही वैसे ब्रह्म की उपलब्धि निकट आती जाती है। आगे बताया है कि-
'सय एतं दित् अस्मांलोकात्प्रेत्य
ऐतमन्नमयमात्मानमुप संक्रामति, एतं
प्राणभयमात्मानमुपसंक्रामति एतं
मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति, एत विज्ञान
मयमात्मानमुपसंक्रामति, एतमानन्द
मयमात्मानमुपसंक्रामति।
अर्थात्- इस प्रकार जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है वह इस अन्नमय कोश को पार करता है, इस प्राणमय कोश को पार करता है, इस मनोमय कोश को पार करता है। इस विज्ञानमय कोश को पार करता है, इस आनन्दमय कोश को पार कर सकता है।
जीवन इसलिए है कि ब्रह्म रूपी आनन्द को प्राप्त किया जाय, न कि इसलिए कि पग- पग पर अभाग्य, दुःख- दारिद्र्य और दुर्भाग्य का अनुभव किया जाय। जीवन को लोग सांसारिक सुविधाओं के संचय में लगाते हैं पर उनके भोगने से पूर्व ही ऐसी समस्यायें उठ खड़ी होती हैं कि वह अभिलाषित सुख जब प्राप्त होता है, तो उसमें कुछ सुख नहीं रह जाता और सारा प्रयत्न मृगतृष्णावत व्यर्थ गया मालूम देता है।
संसार के पदार्थों में जितना सुख है उससे अधिक गुना सुख आत्मिक उन्नति में है। स्वस्थ पंच कोशों से सम्पन्न आत्मा जब अपने वास्तविक स्वरूप में पहुँचता है तो उसे अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है। यह अनुभव होता है कि ब्राह्मी स्थिति का क्या मूल्य और क्या महत्त्व है? संसार में क्षुद्र सुखों की अपेक्षा असंख्य गुने सुख के आत्मानन्द के लिए अधिकतम त्याग एवं तप करने में किसी प्रकार का संकोच क्यों हो? विज्ञ पुरुष ऐसा भी करते हैं।
तैत्तिरीयोपनिषद की भृगु बल्ली में आनन्द की मीमांसा करते हुए कहा गया है कि कोई मनुष्य यदि पूर्ण स्वस्थ सुशिक्षित, गुणवान, सामर्थ्यवान, सौभाग्यवान, एवं समस्त संसार की धन- सम्पत्ति का स्वामी हो तो उसे जो आनन्द हो सकता है उसे एक मानुषी आनन्द कहते हैं। उससे करोड़ों- अरबों गुने आनन्द को ब्रह्मानन्द कहते हैं। ब्रह्मानन्द का ऐसा ही वर्णन शतपथ ब्राह्मण १५ | १७ | ३१ में तथा बृहदारण्यक उपनिषद् ४ | ३ | ३२ में भी आया है।
पंचमुखी गायत्री की साधना, पंच कोशों की साधना है। एक- एक ब्रह्म- विभूति है। ये ब्रह्म विभूतियाँ वे सीढ़ी हैं जो साधक को अपना सुखास्वादन कराती हुई अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए अग्रसर करती हैं।
जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पदा कीट- पतंगों की तरह व्यतीत करने के लिए नहीं है। चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करते हुए नर- तन बड़ी कठिनाई से मिलता है। इसको तुच्छ स्वार्थ में नहीं परम स्वार्थ में, परमार्थ में लगाना चाहिए। गायत्री साधना ऐसा परमार्थ है जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सुख- शान्ति और समृद्धि से भर देता है।
यदि विचार किया जाय तो यह आश्चर्य और खेद का विषय है कि ऐसा साधन सुलभ होने पर भी मनुष्य केवल पेट भरने और निकृष्ट भोग करने की स्थिति में ही पड़ा रहे, अथवा इससे भी नीचे उतर कर छल, कपट, चोरी, हत्या आदि जैसे जघन्य कृत्य करके नरक वास करने के दण्ड का भागी बन जाय। ईश्वर ने हमको इस कार्यभूमि में मुख्यतः इसलिए भेजा है कि हम सत्कर्म और सात्विक साधना तथा उपासना करके दैवी- मार्ग पर अग्रसर हों और जीवन को उच्चतर बनाते हुए अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करें। दैवी मार्ग को अपनाने और जीवन को शुद्ध पवित्र परोपकारमय बनाने में ऐसी कोई बात नहीं है जो हमारी प्रगति में बाधा स्वरूप सिद्ध हो। गरीब और सांसारिक साधनों से रहित व्यक्ति भी इसको अपना सकता है और गायत्री उपासना तथा सेवामय जीवन के द्वारा निरन्तर ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। इसके लिए मुख्य आवश्यकता श्रद्धा, लगन व दृढ़ आत्म- विश्वास की ही है जिसको मनुष्य अभ्यास द्वारा प्राप्त कर सकता है। पैंगल्योपनिषद् में लिखा है-
अथान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयाः
पंचकोशाः। अन्नरसेन व भूत्वाsन्नरसेना भिवृद्धि
प्राप्यान्नरसमयपृथ्वियां यद्विलीयतेसोsन्नमयकोशः। तदेव
स्थूलशरीरम् कर्मेन्द्रियैः सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोशः।
ज्ञानेन्द्रियः सह मनो मनोमयकोशः। ज्ञानेन्द्रियः
सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोशः। एतत्कोशत्रयं
लिंगशरीरम्। स्वरूपाज्ञानमानन्दमयकोशः।
तत कारणशरीरम् || ३ ||
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय यह पाँच कोश हैं। अन्न में बनने वाला, अन्न से बढ़ने वाला, अन्नमय से धरती में सभा जाने वाला यह अन्नमय कोश है। इसी को स्थूल शरीर कहते हैं। पाँच प्राण और पाँच कर्मेन्द्रियों से प्राणमय कोश मिलकर बना है। ज्ञानेन्द्रियाँ और मन के मिलने से मनोमय कोश बनता है। ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि मिलने से विज्ञानमय कोश बना है। इन तीनों के मिलने से सूक्ष्म शरीर बना है जिसके कारण ज्ञान होता है वह आनन्दमय कोश हैं इसी को शरीर कहते हैं-
अस्थिस्नाय्मबादिरूपोsयं शरीरं भाति देहिनाम्।
योsयमन्नमयो ह्यात्मा भाति सर्वशरीरिणः।। २१।।
ततः प्राणमयो ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थितः।
ततो मनोमय ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थितः ।।२२।।
ततो विज्ञान आत्मा तु ततो न्तश्चान्तरस्थितः।
आनन्दमयआत्मा तु ततोsन्यश्चान्तरस्थितः ।।२३।।
योsयमन्नमयः सो यं पूर्णः प्राणमयेन तु।
मनोमयेन प्राणोsपि तथा पूर्ण: स्वभावतः।।२४।।
ततो मनोमयो ह्यात्मा पूर्ण ज्ञानमयेन तु ।।
आनन्देन सदा पूर्ण ज्ञानमयेनः सुर्खी।।२५।।
तथानन्दमयश्चापि ब्रह्मणानेन साक्षिणा।
सर्वान्तरेण पूर्णश्च ब्रह्म नान्येन केनचित।।२६।।
कठ रूद्रोपनिषद २१ से २६
प्राणियों में यह स्थूल अन्नमय शरीर दिखाई दे रहे हैं। इससे पृथक एक प्राणमय शरीर है। इससे आगे मनोमय शरीर है। फिर विज्ञानमय और उसके भीतर आनन्दमय शरीर हैं। प्राणमय से अन्नमय पूर्ण होता है। मनोमय से प्राणमय पूर्ण होता है। विज्ञानमय से मनोमय पूर्ण होता है और आनन्दमय शरीर मनोमय शरीर को पूर्ण करता है। इन पाँच शरीरों से ऊपर एक सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी, परब्रह्म है। वह अपने आप पूर्ण है उसे अन्य कोई पूर्ण नहीं करता।
गायत्री के पाँच मुख इन पाँच कोषों के अलंकारिक चित्रण हैं। और इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जो इन पाँच कोषों का अनावरण कर लेता है, वही अनन्त आनन्द की प्राप्ति करता है। अवतार श्रेणी के महापुरुषों को इसी महान उपलब्धि ने अवतार बनाया। शिव सिद्ध के प्रतीक माने जाते हैं उस पद की प्राप्ति के पीछे यह पंचकोशों की अनावरण साधना की ही भूमिका प्रमुख है। गायत्री मंजरी में इस सन्दर्भ में इन शब्दों पर प्रकाश डाला गया है।
गायत्री मंजरी में शिव पार्वती का महत्त्वपूर्ण उपाख्यान आता है। पार्वती जी शिव जी से पूछती हैं आप किस योग की उपासना करते हैं। आपको किस तरह सिद्धि प्राप्त हुई है। शिवजी ने ४६ श्लोकों में इस पंचकोशी साधना का सारा मर्म स्पर्श कर दिया है। पाँच कोशों की स्थिति तत्त्वज्ञान और साधना विज्ञान के साथ उनकी सिद्धियों का बहुत ही क्रमबद्ध ज्ञान दिया है। गायत्री महाविज्ञान तृतीय खण्ड उसी के आधार पर लिखा गया है। इस पुस्तक के सभी बीज वस्तुतः गायत्री मंजरी में हैं। उससे इनकी असाधारण महत्ता का पता चलता है।
यों तो गायत्री के पाँच मुखों में अनेक पंचकों के अद्भुत रहस्य छिपे हुए हैं, पर इन सबकी चर्चा यहाँ नहीं हो सकती। यहाँ तो हमें इन पाँचों कोशों पर ही कुछ प्रकाश डालना है। कोष खजाने को भी कहते हैं। आत्मा के पास यह पाँच खजाने हैं, इनमें से हर एक में बहुमूल्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। जैसे धन- कुबेरों के यहाँ नोट रखने की, चाँदी रखने की, सोना रखने की, जवाहरात रखने की, हुण्डी- चेक आदि रखने की जगह अलग- अलग होती है, वैसे ही आत्मा के पास भी पाँच खजाने हैं। सिद्ध किए हुए पाँच कोषों के द्वारा ऐसी अगणित सम्पदाएँ सुख- सुविधाएँ मिलती हैं, जिनको पाकर इसी जीवन में स्वर्गीय आनन्द की उपलब्धि होती है। योगी लोग उसी आनन्द के लिए तप करते हैं और देवता लोग उसी आनन्द के लिए नर- तन धारण करने को तरसते रहते हैं कोशों का सदुपयोग अनन्त आनन्द का उत्पादक है। और उनका दुरुपयोग पाँच परकोटों वाले कैदखाने के रूप में बन्धनकारक बन जाता है।
वरुण ने उत्तर दिया- 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, एन जातानि, जीवन्ति तत्प्रन्तय भिसं विशति तद्विजिज्ञासस्व तदबृह्योति। 'अर्थात- हे भृगु जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं और अन्त में जिसमें विलीन हो जाते हैं, तू उस ब्रह्म को जानने की इच्छा कर।
पिता के आदेशानुसार पुत्र ने, उस ब्रह्म को जानने के लिए तप आरम्भ कर दिया। दीर्घकालीन तप के उपरान्त भृगु ने अन्नमय जगत (स्थूल संसार) में फैली ब्रह्म विभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुँचा। वरुण ने भृगु से फिर कहा- 'तपसो ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्मेति' अर्थात है पुत्र ! तू तप करके ब्रह्म को जानने का प्रयत्न कर, क्योंकि ब्रह्म को तप द्वारा ही जाना जाता है।
भृगु ने फिर तपस्या की और "प्राणमय जगत्" की ब्रह्म विभूति को जान लिया और फिर वह पिता के पास पहुँचा। वरुण ने फिर उसे तप द्वारा ब्रह्म को जानने का उपदेश दिया।
पुत्र ने पुनः कठोर तप किया और 'मनोमय जगत' की ब्रह्म विभूति का अभिज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता ने उसे फिर तप में लगा दिया। अब उसने विज्ञानमय जगत की ईश्वरीय विभूति को प्राप्त कर लिया, अन्त में पाँचवीं बार भी पिता ने उसे तप में ही प्रवृत्त किया और भृगु ने उस आनन्दमयी विभूति को भी उपलब्ध कर लिया।
'आनन्दमय' जगत की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचने से किस प्रकार पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है इसका वर्णन करते हुए 'तैत्तिरियोपनिषद्' की तृतीय बल्ली के पाँचवें मन्त्र में बताया गया है कि-
"आनन्दो ब्रह्मेति विजानात्- आनन्दाद्धेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि, जीवन्ति आनन्द श्रयन्त्यभि सविशन्तीति। सैषां भार्गेवी वारूणी विद्या परमेव्योमन प्रतिष्ठता।"
अर्थात उस (भृगु) ने जाना कि आनन्द ही ब्रह्म है। आनन्द से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनन्द में ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं।
उपनिषद्कार ने उपर्युक्त आख्यायिका में ब्रह्मानन्द, परमानन्द, आत्मानन्द में ही ब्रह्मज्ञान का अन्तिम लक्ष्य बताया है। आनन्दमय जगत के कोश में पहुँचने के लिए तप करने का संकेत किया है। कोशों की सीढ़ियाँ जैसे- जैसे पार होती जाती हैं वैसे ही वैसे ब्रह्म की उपलब्धि निकट आती जाती है। आगे बताया है कि-
'सय एतं दित् अस्मांलोकात्प्रेत्य
ऐतमन्नमयमात्मानमुप संक्रामति, एतं
प्राणभयमात्मानमुपसंक्रामति एतं
मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति, एत विज्ञान
मयमात्मानमुपसंक्रामति, एतमानन्द
मयमात्मानमुपसंक्रामति।
अर्थात्- इस प्रकार जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है वह इस अन्नमय कोश को पार करता है, इस प्राणमय कोश को पार करता है, इस मनोमय कोश को पार करता है। इस विज्ञानमय कोश को पार करता है, इस आनन्दमय कोश को पार कर सकता है।
जीवन इसलिए है कि ब्रह्म रूपी आनन्द को प्राप्त किया जाय, न कि इसलिए कि पग- पग पर अभाग्य, दुःख- दारिद्र्य और दुर्भाग्य का अनुभव किया जाय। जीवन को लोग सांसारिक सुविधाओं के संचय में लगाते हैं पर उनके भोगने से पूर्व ही ऐसी समस्यायें उठ खड़ी होती हैं कि वह अभिलाषित सुख जब प्राप्त होता है, तो उसमें कुछ सुख नहीं रह जाता और सारा प्रयत्न मृगतृष्णावत व्यर्थ गया मालूम देता है।
संसार के पदार्थों में जितना सुख है उससे अधिक गुना सुख आत्मिक उन्नति में है। स्वस्थ पंच कोशों से सम्पन्न आत्मा जब अपने वास्तविक स्वरूप में पहुँचता है तो उसे अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है। यह अनुभव होता है कि ब्राह्मी स्थिति का क्या मूल्य और क्या महत्त्व है? संसार में क्षुद्र सुखों की अपेक्षा असंख्य गुने सुख के आत्मानन्द के लिए अधिकतम त्याग एवं तप करने में किसी प्रकार का संकोच क्यों हो? विज्ञ पुरुष ऐसा भी करते हैं।
तैत्तिरीयोपनिषद की भृगु बल्ली में आनन्द की मीमांसा करते हुए कहा गया है कि कोई मनुष्य यदि पूर्ण स्वस्थ सुशिक्षित, गुणवान, सामर्थ्यवान, सौभाग्यवान, एवं समस्त संसार की धन- सम्पत्ति का स्वामी हो तो उसे जो आनन्द हो सकता है उसे एक मानुषी आनन्द कहते हैं। उससे करोड़ों- अरबों गुने आनन्द को ब्रह्मानन्द कहते हैं। ब्रह्मानन्द का ऐसा ही वर्णन शतपथ ब्राह्मण १५ | १७ | ३१ में तथा बृहदारण्यक उपनिषद् ४ | ३ | ३२ में भी आया है।
पंचमुखी गायत्री की साधना, पंच कोशों की साधना है। एक- एक ब्रह्म- विभूति है। ये ब्रह्म विभूतियाँ वे सीढ़ी हैं जो साधक को अपना सुखास्वादन कराती हुई अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए अग्रसर करती हैं।
जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पदा कीट- पतंगों की तरह व्यतीत करने के लिए नहीं है। चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करते हुए नर- तन बड़ी कठिनाई से मिलता है। इसको तुच्छ स्वार्थ में नहीं परम स्वार्थ में, परमार्थ में लगाना चाहिए। गायत्री साधना ऐसा परमार्थ है जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सुख- शान्ति और समृद्धि से भर देता है।
यदि विचार किया जाय तो यह आश्चर्य और खेद का विषय है कि ऐसा साधन सुलभ होने पर भी मनुष्य केवल पेट भरने और निकृष्ट भोग करने की स्थिति में ही पड़ा रहे, अथवा इससे भी नीचे उतर कर छल, कपट, चोरी, हत्या आदि जैसे जघन्य कृत्य करके नरक वास करने के दण्ड का भागी बन जाय। ईश्वर ने हमको इस कार्यभूमि में मुख्यतः इसलिए भेजा है कि हम सत्कर्म और सात्विक साधना तथा उपासना करके दैवी- मार्ग पर अग्रसर हों और जीवन को उच्चतर बनाते हुए अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करें। दैवी मार्ग को अपनाने और जीवन को शुद्ध पवित्र परोपकारमय बनाने में ऐसी कोई बात नहीं है जो हमारी प्रगति में बाधा स्वरूप सिद्ध हो। गरीब और सांसारिक साधनों से रहित व्यक्ति भी इसको अपना सकता है और गायत्री उपासना तथा सेवामय जीवन के द्वारा निरन्तर ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। इसके लिए मुख्य आवश्यकता श्रद्धा, लगन व दृढ़ आत्म- विश्वास की ही है जिसको मनुष्य अभ्यास द्वारा प्राप्त कर सकता है। पैंगल्योपनिषद् में लिखा है-
अथान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयाः
पंचकोशाः। अन्नरसेन व भूत्वाsन्नरसेना भिवृद्धि
प्राप्यान्नरसमयपृथ्वियां यद्विलीयतेसोsन्नमयकोशः। तदेव
स्थूलशरीरम् कर्मेन्द्रियैः सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोशः।
ज्ञानेन्द्रियः सह मनो मनोमयकोशः। ज्ञानेन्द्रियः
सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोशः। एतत्कोशत्रयं
लिंगशरीरम्। स्वरूपाज्ञानमानन्दमयकोशः।
तत कारणशरीरम् || ३ ||
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय यह पाँच कोश हैं। अन्न में बनने वाला, अन्न से बढ़ने वाला, अन्नमय से धरती में सभा जाने वाला यह अन्नमय कोश है। इसी को स्थूल शरीर कहते हैं। पाँच प्राण और पाँच कर्मेन्द्रियों से प्राणमय कोश मिलकर बना है। ज्ञानेन्द्रियाँ और मन के मिलने से मनोमय कोश बनता है। ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि मिलने से विज्ञानमय कोश बना है। इन तीनों के मिलने से सूक्ष्म शरीर बना है जिसके कारण ज्ञान होता है वह आनन्दमय कोश हैं इसी को शरीर कहते हैं-
अस्थिस्नाय्मबादिरूपोsयं शरीरं भाति देहिनाम्।
योsयमन्नमयो ह्यात्मा भाति सर्वशरीरिणः।। २१।।
ततः प्राणमयो ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थितः।
ततो मनोमय ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थितः ।।२२।।
ततो विज्ञान आत्मा तु ततो न्तश्चान्तरस्थितः।
आनन्दमयआत्मा तु ततोsन्यश्चान्तरस्थितः ।।२३।।
योsयमन्नमयः सो यं पूर्णः प्राणमयेन तु।
मनोमयेन प्राणोsपि तथा पूर्ण: स्वभावतः।।२४।।
ततो मनोमयो ह्यात्मा पूर्ण ज्ञानमयेन तु ।।
आनन्देन सदा पूर्ण ज्ञानमयेनः सुर्खी।।२५।।
तथानन्दमयश्चापि ब्रह्मणानेन साक्षिणा।
सर्वान्तरेण पूर्णश्च ब्रह्म नान्येन केनचित।।२६।।
कठ रूद्रोपनिषद २१ से २६
प्राणियों में यह स्थूल अन्नमय शरीर दिखाई दे रहे हैं। इससे पृथक एक प्राणमय शरीर है। इससे आगे मनोमय शरीर है। फिर विज्ञानमय और उसके भीतर आनन्दमय शरीर हैं। प्राणमय से अन्नमय पूर्ण होता है। मनोमय से प्राणमय पूर्ण होता है। विज्ञानमय से मनोमय पूर्ण होता है और आनन्दमय शरीर मनोमय शरीर को पूर्ण करता है। इन पाँच शरीरों से ऊपर एक सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी, परब्रह्म है। वह अपने आप पूर्ण है उसे अन्य कोई पूर्ण नहीं करता।
गायत्री के पाँच मुख इन पाँच कोषों के अलंकारिक चित्रण हैं। और इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जो इन पाँच कोषों का अनावरण कर लेता है, वही अनन्त आनन्द की प्राप्ति करता है। अवतार श्रेणी के महापुरुषों को इसी महान उपलब्धि ने अवतार बनाया। शिव सिद्ध के प्रतीक माने जाते हैं उस पद की प्राप्ति के पीछे यह पंचकोशों की अनावरण साधना की ही भूमिका प्रमुख है। गायत्री मंजरी में इस सन्दर्भ में इन शब्दों पर प्रकाश डाला गया है।
गायत्री मंजरी में शिव पार्वती का महत्त्वपूर्ण उपाख्यान आता है। पार्वती जी शिव जी से पूछती हैं आप किस योग की उपासना करते हैं। आपको किस तरह सिद्धि प्राप्त हुई है। शिवजी ने ४६ श्लोकों में इस पंचकोशी साधना का सारा मर्म स्पर्श कर दिया है। पाँच कोशों की स्थिति तत्त्वज्ञान और साधना विज्ञान के साथ उनकी सिद्धियों का बहुत ही क्रमबद्ध ज्ञान दिया है। गायत्री महाविज्ञान तृतीय खण्ड उसी के आधार पर लिखा गया है। इस पुस्तक के सभी बीज वस्तुतः गायत्री मंजरी में हैं। उससे इनकी असाधारण महत्ता का पता चलता है।
यों तो गायत्री के पाँच मुखों में अनेक पंचकों के अद्भुत रहस्य छिपे हुए हैं, पर इन सबकी चर्चा यहाँ नहीं हो सकती। यहाँ तो हमें इन पाँचों कोशों पर ही कुछ प्रकाश डालना है। कोष खजाने को भी कहते हैं। आत्मा के पास यह पाँच खजाने हैं, इनमें से हर एक में बहुमूल्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। जैसे धन- कुबेरों के यहाँ नोट रखने की, चाँदी रखने की, सोना रखने की, जवाहरात रखने की, हुण्डी- चेक आदि रखने की जगह अलग- अलग होती है, वैसे ही आत्मा के पास भी पाँच खजाने हैं। सिद्ध किए हुए पाँच कोषों के द्वारा ऐसी अगणित सम्पदाएँ सुख- सुविधाएँ मिलती हैं, जिनको पाकर इसी जीवन में स्वर्गीय आनन्द की उपलब्धि होती है। योगी लोग उसी आनन्द के लिए तप करते हैं और देवता लोग उसी आनन्द के लिए नर- तन धारण करने को तरसते रहते हैं कोशों का सदुपयोग अनन्त आनन्द का उत्पादक है। और उनका दुरुपयोग पाँच परकोटों वाले कैदखाने के रूप में बन्धनकारक बन जाता है।