Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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Language: HINDI
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आनन्दमय कोश अनावरण
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आनन्दमय कोश के अनावरण में प्रेम और तन्मयता की वृद्धि करनी पड़ती है। एकाग्रता की साधना से बिखरी हुई शक्ति एकत्रित होती हैं और उसका चमत्कारी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार ‘प्रेम’ आत्मा की दिव्य अवभूति होने के कारण आनन्द की उत्पत्ति का अमोघ साधन सिद्ध होता है। जिस हृदय में प्रेम की धारा बहेगी वह अमृत के सरोवर में स्नान करने जैसा उल्लास हर घड़ी अनुभव करेगा। प्रेम जिससे होता है, वह जड़ पदार्थ भी आनन्दायक लगता है। जिस मनुष्य से प्रेम हो जाता है, वह अनुपयुक्त और गुणहीन होने पर भी प्राणप्रिय लगता है। ईश्वर की प्राप्ति का उपाय तो प्रेम ही है। भगवान भक्ति के वश में रहते हैं। जहाँ भक्ति-भावना की आवश्यक मात्रा मौजूद है, वहाँ भगवान दौड़े चले आते हैं। प्रेम से अधिक प्रिय भगवान को और कुछ नहीं। हम प्रेमी बन कर ही भगवान को प्राप्त कर सकते हैं।
संसार में आनन्द का जीवन व्यतीत करने के लिए, सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण बनाये रहने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य का अन्तःकरण प्रेम भावनाओं से भरा रहे। परमात्मा की प्रतिमूर्ति प्राणी मात्र को समझने की मान्यता यदि अपने भीतर जम जाय तो फिर किसी के साथ दुर्व्यवहार कर सकना संभव नहीं हो सकेगा। अपनी ओर से सद्भावना रहेगी और उसकी प्रतिक्रिया भी प्रेमपूर्ण ही होगी। और फिर आनन्द का स्वर्गिक वातावरण ही चारों ओर बिखरा रहने लगेगा।
लोक- व्यवहार में प्राणी मात्र के साथ प्रेम एवं आत्मीयता भरा व्यवहार और साधना- विधान में परमात्मा के साथ अनन्य प्रेम- भावना के साथ तन्मयता, यही आनन्दमय कोश के अनावरण की साधना का विधान है। व्यावहारिक जीवन में अपने परिवार तथा समाज के साथ प्रेम, उदारता, सेवा- मधुरता और आत्मीयता का व्यवहार करना दैनिक कार्यक्रम का अंश बना लेना चाहिए और साधना में बहते हुए इस प्रकार ध्यान किया जाय कि परमात्मा के साथ एकाग्रता और तन्मयतापूर्वक प्रेम- विभोर समीपता का अनुभव होता रहे। आनन्दमय कोश का अनावरण इसी विधान को अपनाने से होता है।
आनन्दमय कोश की साधना में साधकों को सर्व-प्रथम गायत्री जप करते हुए अपने को एक वर्ष के बालक के रूप में निर्मल, निष्काम मानना चाहिए और गायत्री माता को अपनी सगी जननी मानकर उसके साथ क्रीड़ा-विनोद करते हुए पयपान एवं स्नेहपान की ध्यान-धारणा करते रहना चाहिए।
इस ध्यान के साथ जप में मन भी लगता है और आनन्द में वृद्धि होती है। मन प्रेम का गुलाम है। जो भी वस्तु प्यारी लगती है, मन भाग-भाग कर वही जाता है। सूखे नीरस, व्यर्थ और उपेक्षणीय समझे जाने वाले कार्य में ही मन नहीं लगता है। यदि गायत्री माता के प्रति सचमुच ही अपनी आत्मीयता, एवं भक्ति भावना हो तो उसके चरण छोड़कर मन अन्यत्र जाना ही न चाहेगा। जप के साथ, प्रेम- भावना के साथ एकाग्रतापूर्वक माता का ध्यान करने से साधक का चित्त स्थिर रहने लगता है, और साधना में आत्म-विभोर कर देने वाला रस मिलने लगता है।
साधना के द्वितीय चरण में “सूर्य प्रकाश के मध्य में गायत्री माता के सुन्दर मुख मण्डल मात्र का ध्यान करना चाहिए और उनके दाहिने नेत्र की पुतली में जो काला बिन्दु होता है, उस पर मन को एकाग्र करना चाहिए। यह तिल आरम्भ में काला ही दृष्टिगोचर होगा, पीछे वह श्वेत प्रकाश के रूप में बढ़ने और बिखरने लगेगा, ऐसा अनुभव होने लगेगा कि दाहिने नेत्र की पुतली में भरा हुआ प्रकाश सुविस्तृत होकर अपने चारों ओर ज्योतिर्मय आभा उत्पन्न कर रहा है और उस प्रकाश से स्फुल्लिंग छिटक-छिटक पर अपने अन्तःकरण में प्रवेश कर रहे हैं।”
जप के साथ इस प्रकार की भावनाऐं करते रहने से चित्त में निरन्तर उल्लास उमड़ता रहता है और साधना बहुत ही सरल बन जाती है। प्रथम और द्वितीय चरण की यह दोनों ही साधनाऐं अभ्यास में लाने योग्य हैं। जिसने भी इन विधियों को अपनाते हुए ध्यान भावनाओं के साथ साधना की है, उसने बहुत कुछ पाया है, पर जिसने उपेक्षा की है, किसी तरह केवल चिन्ह पूजा की तरह माला ही फेरते रहे हैं, उन्हें न तो मन की चञ्चलता से छुटकारा मिला है, न एकाग्रता ही प्राप्त हुई है और न वह रस ही अनुभव हुआ है, जो आनन्दमय कोश के विकास होने पर स्वयमेव उपलब्ध होने लगता है। इसलिए उपरोक्त दोनों ही ध्यानों का अभ्यास करना अनिवार्य है।
तीसरे चरण में पंचकोशी गायत्री साधनों के साधकों को अन्तःत्राटक द्वारा ज्योति पुंज का ध्यान करते हुए उसमें लय होने का अभ्यास करना चाहिए। इसका विधान इस प्रकार है।
इस साधना के लिए रात्रि का वह समय नियत कीजिए जब आपके घर में शान्ति रहती हो। एकान्त स्थान ही इसके लिए उपयुक्त है। घर छोटा हो और वैसी सुविधा न मिले तो बाहर में ऐसा स्थान तलाश किया जा सकता है। पालथी मारकर सीधे बैठिये। कमर झुकी न रहे। दोनों हाथ गोदी में रख लेने चाहिए। अपने शरीर से तीन फुट आगे, तेल के कनस्टर जितनी कोई ऊँची वस्तु रख लीजिए और उस पर घी का दीपक जलाकर रखिए। प्रयत्न करना चाहिए कि दीपक रखने की वस्तु काले रंग से रंगी हो, ताकि दृष्टि इधर-उधर न जावे और प्रकाश अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर हो।
लगभग १० सैकिण्ड खुली आँख से दीपक की लौ को देखिए और फिर बीस सैकिण्ड के लिए आँखें बन्द कर लीजिए। बन्द नेत्रों से उस दीपक के प्रकाश का ध्यान कीजिए। फिर नेत्र खोलिए दस सैकिण्ड लौ को फिर देखिए और नेत्र बन्द करके बीस सैकिण्ड फिर उस लौ का ध्यान कीजिए। इस प्रकार दीपक के माध्यम से प्रकाश का ध्यान करने का अभ्यास दों- तीन महीने में परिपक्व हो जाता है, फिर दीपक की जरूरत नहीं रहती। ध्यान पर बैठते ही प्रकाश की सामने उपस्थिति अनुभव होने लगती है। दस और बीस सैकिण्ड की बात दस- पाँच दिन घड़ी का सहारा लेने से अभ्यास में आ जाती है। फिर पड़ी की जरूरत नहीं रहती। अन्दाज से ही सब क्रम चलने लगता है। इसमें समय न्यूनाधिक हो जाय, तो भी कुछ हर्जा नहीं है।
जब नेत्र बन्द करने पर प्रकाश ठीक तरह सामने दृष्टि गोचर होने लगे, तो धारणा करनी चाहिए कि यह प्रकाश परब्रह्य परमात्मा का, गायत्री माता का प्रतीक है। उसमें अपनी आत्मा को मिलाना एवं लय करना है। भावना कीजिए कि आपकी जीवात्मा आपके हृदय- स्थल में से पतंगे की तरह बाहर निकलती हैं और उस प्रकाश पर अपना आत्म समर्पण कर देती है। उसका सारा कलेवर जलकर नष्ट हो जाता है और आत्मा की ज्योति परमात्मा-स्वरूप उस महा प्रकाश में लय हो जाती है। दूसरा ध्यान यह भी हो सकता है “कि ध्यान में प्रस्तुत प्रकाश यज्ञ की ज्वलन्त अग्नि के रूप के सामने विद्यमान हैं और हमारा जीवात्मा घृत के रूप में आहुति प्रदान कर रहा है। अग्नि में पड़ने के बाद घृत का अपना स्वरूप और अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उसकी परिणति ज्योति का स्वरूप बढ़ने के रूप में ही दिखाई देती है। हमने अपनी आत्मा उस प्रकाश में होम दिया, तो अपना आपा समाप्त हुआ और वह उस पूर्व प्रकाश में लय होकर ब्रह्म-भाव में बदल गया।”
यह ध्यान पन्द्रह मिनट से बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचा देना चाहिए। अन्य अवकाश के समयों में भी प्रकाश, ज्योति और उसके साथ आत्म आहुति का ध्यान करते रहना चाहिए। आनन्दमय कोश के अनावरण में इस ध्यान से आशाजनक सहायता मिलेगी।
उपासना के तीन प्रकार हैं- १- त्रैत २- द्वैत ३- अद्वैत। त्रैत पूजा वह कहलाती है, जिसमें उपासक, उपास्य और उपकरण की तीनों आवश्यकताऐं रहती हैं। मूर्ति-पूजा, देव-पूजा जो वस्तुओं और उपकरणों के माध्यम से की जाती है, त्रैत है। धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, चन्दन, रोली, जल, शंख, घड़ियाल, आरती आदि पूजा उपकरण प्रकृति के प्रतीक हैं। उपासक जीव-इनमें से अलग हैं। ब्रह्म तो अलग था ही, उसी को प्राप्त करने के लिए जो उपासना का विधान एकत्रित किया था, यह त्रैत साधना हुई।
द्वैत साधना में पूजा उपकरणों की आवश्यकता नहीं रहती। जीव-और ब्रह्म दोनों का आप द्वारा सन्निध्य- समागम होता रहता है। किसी पूजा उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। गायत्री माता की प्रतिमा का पूजन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। चित्र या मूर्ति का षोडशोपचार पूजा सामिग्री से पूजन करना, माला, हवन, ब्रह्मभोज, तर्पण, मार्जन आदि कर्मकाण्ड गायत्री की त्रैत साधना के अन्तर्गत आते हैं। संसार भर में केवल गायत्री माता की ही स्थिति अनुभव करना और उसकी गोदी में छोटे बालक की तरह क्रीड़ा- विनोद करना द्वैत- साधना कहलायेगी। जीव और ब्रह्म की स्थिति, प्रकृति की समाप्ति को ही द्वैत कहते हैं। अब द्वैत को हटाकर अद्वैत साधना में प्रवेश किया जाता है, परब्रह्म परमात्मा का प्रकाश रूप में ध्यान करते हुए आत्म- समर्पण करना, ‘अहम्’ को उसी में लीन कर देना, दोनों को मिटाते हुए एक की स्थिति शेष रहने देना अद्वैत उपासना है।
अब चौथे चरण में विश्वात्म-दर्शन का अभ्यास हमें आनंदमय कोश के अनावरण के लिए करना चाहिए। अर्जुन को कृष्ण ने गीता सुनाते समय अपना विराट स्वरूप दिखाया था। यशोदा द्वारा माटी खाते हुए धमकाये जाने पर भी भगवान ने अपना वही रूप उन्हें दर्शाया, कौशिल्या ने राम को पालने में खिलाते हुए भी वही रूप देखा था और काकभुशुण्डिजी ने भगवान राम के मुख में प्रवेश करके भी उसी स्वरूप की झाँकी की थी। यह विश्व ब्रह्माण्ड ही परमात्मा का स्वरूप है। संसार के कण-कण में, प्रत्येक जीव में भगवान की झाँकी करना और तदनुरूप प्रत्येक के साथ सद्-व्यवहार करना विश्वात्मा की सच्ची आराधना है। अपने में सबकी और सब में अपने को समाया हुआ दीखने का अभ्यास करना चाहिए।
प्राथमिक अवस्था में प्रतिमाओं के आधार पर भगवान की स्थापना की जाती है और चंदन, अक्षत, धूप- दीप से उसका पूजन होता है। पीछे ऊँची स्थिति में पहुँचने पर इस विराट विश्व को ही परमात्मा का साक्षात् स्वरूप मानना पड़ता है और उसके चरणों पर अपने शरीर, मन, वचन, कर्म और धन को समर्पित करना पड़ता है। भगवान पत्र-पुष्पों के बदले नहीं, भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं। और वे भावनाऐं, आवेश उन्माद या कल्पना जैसी नहीं वरन् सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिए। उनकी सच्चाई परीक्षा मनुष्य के त्याग, बलिदान, संयम, सदाचार एवं व्यवहार से होती है। भक्ति भावना को इसी कसौटी पर परखा जाता है और यदि वह खरी होती है, तो उसके बदले में आनन्दमय परमात्मा अवश्य मिलता है। सच्चिदानन्द की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है।
गायत्री की पंचकोशी साधना में पाँचवा कोश आनंदमय कोश है। उसके अनावरण से वह सच्चिदानन्द स्थिति प्राप्त होती है, जिसे आत्मज्ञान की मस्ती कहते हैं। वास्तविक आनन्द यही है। अपने आप की पवित्रता और महानता का अनुभव करते हुए शान्ति सन्तोष उल्लास और आनन्द में निमग्न रहने की स्थिति ही जीवनमुक्ति कहलाती है। उस अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।
संसार में आनन्द का जीवन व्यतीत करने के लिए, सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण बनाये रहने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य का अन्तःकरण प्रेम भावनाओं से भरा रहे। परमात्मा की प्रतिमूर्ति प्राणी मात्र को समझने की मान्यता यदि अपने भीतर जम जाय तो फिर किसी के साथ दुर्व्यवहार कर सकना संभव नहीं हो सकेगा। अपनी ओर से सद्भावना रहेगी और उसकी प्रतिक्रिया भी प्रेमपूर्ण ही होगी। और फिर आनन्द का स्वर्गिक वातावरण ही चारों ओर बिखरा रहने लगेगा।
लोक- व्यवहार में प्राणी मात्र के साथ प्रेम एवं आत्मीयता भरा व्यवहार और साधना- विधान में परमात्मा के साथ अनन्य प्रेम- भावना के साथ तन्मयता, यही आनन्दमय कोश के अनावरण की साधना का विधान है। व्यावहारिक जीवन में अपने परिवार तथा समाज के साथ प्रेम, उदारता, सेवा- मधुरता और आत्मीयता का व्यवहार करना दैनिक कार्यक्रम का अंश बना लेना चाहिए और साधना में बहते हुए इस प्रकार ध्यान किया जाय कि परमात्मा के साथ एकाग्रता और तन्मयतापूर्वक प्रेम- विभोर समीपता का अनुभव होता रहे। आनन्दमय कोश का अनावरण इसी विधान को अपनाने से होता है।
आनन्दमय कोश की साधना में साधकों को सर्व-प्रथम गायत्री जप करते हुए अपने को एक वर्ष के बालक के रूप में निर्मल, निष्काम मानना चाहिए और गायत्री माता को अपनी सगी जननी मानकर उसके साथ क्रीड़ा-विनोद करते हुए पयपान एवं स्नेहपान की ध्यान-धारणा करते रहना चाहिए।
इस ध्यान के साथ जप में मन भी लगता है और आनन्द में वृद्धि होती है। मन प्रेम का गुलाम है। जो भी वस्तु प्यारी लगती है, मन भाग-भाग कर वही जाता है। सूखे नीरस, व्यर्थ और उपेक्षणीय समझे जाने वाले कार्य में ही मन नहीं लगता है। यदि गायत्री माता के प्रति सचमुच ही अपनी आत्मीयता, एवं भक्ति भावना हो तो उसके चरण छोड़कर मन अन्यत्र जाना ही न चाहेगा। जप के साथ, प्रेम- भावना के साथ एकाग्रतापूर्वक माता का ध्यान करने से साधक का चित्त स्थिर रहने लगता है, और साधना में आत्म-विभोर कर देने वाला रस मिलने लगता है।
साधना के द्वितीय चरण में “सूर्य प्रकाश के मध्य में गायत्री माता के सुन्दर मुख मण्डल मात्र का ध्यान करना चाहिए और उनके दाहिने नेत्र की पुतली में जो काला बिन्दु होता है, उस पर मन को एकाग्र करना चाहिए। यह तिल आरम्भ में काला ही दृष्टिगोचर होगा, पीछे वह श्वेत प्रकाश के रूप में बढ़ने और बिखरने लगेगा, ऐसा अनुभव होने लगेगा कि दाहिने नेत्र की पुतली में भरा हुआ प्रकाश सुविस्तृत होकर अपने चारों ओर ज्योतिर्मय आभा उत्पन्न कर रहा है और उस प्रकाश से स्फुल्लिंग छिटक-छिटक पर अपने अन्तःकरण में प्रवेश कर रहे हैं।”
जप के साथ इस प्रकार की भावनाऐं करते रहने से चित्त में निरन्तर उल्लास उमड़ता रहता है और साधना बहुत ही सरल बन जाती है। प्रथम और द्वितीय चरण की यह दोनों ही साधनाऐं अभ्यास में लाने योग्य हैं। जिसने भी इन विधियों को अपनाते हुए ध्यान भावनाओं के साथ साधना की है, उसने बहुत कुछ पाया है, पर जिसने उपेक्षा की है, किसी तरह केवल चिन्ह पूजा की तरह माला ही फेरते रहे हैं, उन्हें न तो मन की चञ्चलता से छुटकारा मिला है, न एकाग्रता ही प्राप्त हुई है और न वह रस ही अनुभव हुआ है, जो आनन्दमय कोश के विकास होने पर स्वयमेव उपलब्ध होने लगता है। इसलिए उपरोक्त दोनों ही ध्यानों का अभ्यास करना अनिवार्य है।
तीसरे चरण में पंचकोशी गायत्री साधनों के साधकों को अन्तःत्राटक द्वारा ज्योति पुंज का ध्यान करते हुए उसमें लय होने का अभ्यास करना चाहिए। इसका विधान इस प्रकार है।
इस साधना के लिए रात्रि का वह समय नियत कीजिए जब आपके घर में शान्ति रहती हो। एकान्त स्थान ही इसके लिए उपयुक्त है। घर छोटा हो और वैसी सुविधा न मिले तो बाहर में ऐसा स्थान तलाश किया जा सकता है। पालथी मारकर सीधे बैठिये। कमर झुकी न रहे। दोनों हाथ गोदी में रख लेने चाहिए। अपने शरीर से तीन फुट आगे, तेल के कनस्टर जितनी कोई ऊँची वस्तु रख लीजिए और उस पर घी का दीपक जलाकर रखिए। प्रयत्न करना चाहिए कि दीपक रखने की वस्तु काले रंग से रंगी हो, ताकि दृष्टि इधर-उधर न जावे और प्रकाश अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर हो।
लगभग १० सैकिण्ड खुली आँख से दीपक की लौ को देखिए और फिर बीस सैकिण्ड के लिए आँखें बन्द कर लीजिए। बन्द नेत्रों से उस दीपक के प्रकाश का ध्यान कीजिए। फिर नेत्र खोलिए दस सैकिण्ड लौ को फिर देखिए और नेत्र बन्द करके बीस सैकिण्ड फिर उस लौ का ध्यान कीजिए। इस प्रकार दीपक के माध्यम से प्रकाश का ध्यान करने का अभ्यास दों- तीन महीने में परिपक्व हो जाता है, फिर दीपक की जरूरत नहीं रहती। ध्यान पर बैठते ही प्रकाश की सामने उपस्थिति अनुभव होने लगती है। दस और बीस सैकिण्ड की बात दस- पाँच दिन घड़ी का सहारा लेने से अभ्यास में आ जाती है। फिर पड़ी की जरूरत नहीं रहती। अन्दाज से ही सब क्रम चलने लगता है। इसमें समय न्यूनाधिक हो जाय, तो भी कुछ हर्जा नहीं है।
जब नेत्र बन्द करने पर प्रकाश ठीक तरह सामने दृष्टि गोचर होने लगे, तो धारणा करनी चाहिए कि यह प्रकाश परब्रह्य परमात्मा का, गायत्री माता का प्रतीक है। उसमें अपनी आत्मा को मिलाना एवं लय करना है। भावना कीजिए कि आपकी जीवात्मा आपके हृदय- स्थल में से पतंगे की तरह बाहर निकलती हैं और उस प्रकाश पर अपना आत्म समर्पण कर देती है। उसका सारा कलेवर जलकर नष्ट हो जाता है और आत्मा की ज्योति परमात्मा-स्वरूप उस महा प्रकाश में लय हो जाती है। दूसरा ध्यान यह भी हो सकता है “कि ध्यान में प्रस्तुत प्रकाश यज्ञ की ज्वलन्त अग्नि के रूप के सामने विद्यमान हैं और हमारा जीवात्मा घृत के रूप में आहुति प्रदान कर रहा है। अग्नि में पड़ने के बाद घृत का अपना स्वरूप और अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उसकी परिणति ज्योति का स्वरूप बढ़ने के रूप में ही दिखाई देती है। हमने अपनी आत्मा उस प्रकाश में होम दिया, तो अपना आपा समाप्त हुआ और वह उस पूर्व प्रकाश में लय होकर ब्रह्म-भाव में बदल गया।”
यह ध्यान पन्द्रह मिनट से बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचा देना चाहिए। अन्य अवकाश के समयों में भी प्रकाश, ज्योति और उसके साथ आत्म आहुति का ध्यान करते रहना चाहिए। आनन्दमय कोश के अनावरण में इस ध्यान से आशाजनक सहायता मिलेगी।
उपासना के तीन प्रकार हैं- १- त्रैत २- द्वैत ३- अद्वैत। त्रैत पूजा वह कहलाती है, जिसमें उपासक, उपास्य और उपकरण की तीनों आवश्यकताऐं रहती हैं। मूर्ति-पूजा, देव-पूजा जो वस्तुओं और उपकरणों के माध्यम से की जाती है, त्रैत है। धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, चन्दन, रोली, जल, शंख, घड़ियाल, आरती आदि पूजा उपकरण प्रकृति के प्रतीक हैं। उपासक जीव-इनमें से अलग हैं। ब्रह्म तो अलग था ही, उसी को प्राप्त करने के लिए जो उपासना का विधान एकत्रित किया था, यह त्रैत साधना हुई।
द्वैत साधना में पूजा उपकरणों की आवश्यकता नहीं रहती। जीव-और ब्रह्म दोनों का आप द्वारा सन्निध्य- समागम होता रहता है। किसी पूजा उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। गायत्री माता की प्रतिमा का पूजन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। चित्र या मूर्ति का षोडशोपचार पूजा सामिग्री से पूजन करना, माला, हवन, ब्रह्मभोज, तर्पण, मार्जन आदि कर्मकाण्ड गायत्री की त्रैत साधना के अन्तर्गत आते हैं। संसार भर में केवल गायत्री माता की ही स्थिति अनुभव करना और उसकी गोदी में छोटे बालक की तरह क्रीड़ा- विनोद करना द्वैत- साधना कहलायेगी। जीव और ब्रह्म की स्थिति, प्रकृति की समाप्ति को ही द्वैत कहते हैं। अब द्वैत को हटाकर अद्वैत साधना में प्रवेश किया जाता है, परब्रह्म परमात्मा का प्रकाश रूप में ध्यान करते हुए आत्म- समर्पण करना, ‘अहम्’ को उसी में लीन कर देना, दोनों को मिटाते हुए एक की स्थिति शेष रहने देना अद्वैत उपासना है।
अब चौथे चरण में विश्वात्म-दर्शन का अभ्यास हमें आनंदमय कोश के अनावरण के लिए करना चाहिए। अर्जुन को कृष्ण ने गीता सुनाते समय अपना विराट स्वरूप दिखाया था। यशोदा द्वारा माटी खाते हुए धमकाये जाने पर भी भगवान ने अपना वही रूप उन्हें दर्शाया, कौशिल्या ने राम को पालने में खिलाते हुए भी वही रूप देखा था और काकभुशुण्डिजी ने भगवान राम के मुख में प्रवेश करके भी उसी स्वरूप की झाँकी की थी। यह विश्व ब्रह्माण्ड ही परमात्मा का स्वरूप है। संसार के कण-कण में, प्रत्येक जीव में भगवान की झाँकी करना और तदनुरूप प्रत्येक के साथ सद्-व्यवहार करना विश्वात्मा की सच्ची आराधना है। अपने में सबकी और सब में अपने को समाया हुआ दीखने का अभ्यास करना चाहिए।
प्राथमिक अवस्था में प्रतिमाओं के आधार पर भगवान की स्थापना की जाती है और चंदन, अक्षत, धूप- दीप से उसका पूजन होता है। पीछे ऊँची स्थिति में पहुँचने पर इस विराट विश्व को ही परमात्मा का साक्षात् स्वरूप मानना पड़ता है और उसके चरणों पर अपने शरीर, मन, वचन, कर्म और धन को समर्पित करना पड़ता है। भगवान पत्र-पुष्पों के बदले नहीं, भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं। और वे भावनाऐं, आवेश उन्माद या कल्पना जैसी नहीं वरन् सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिए। उनकी सच्चाई परीक्षा मनुष्य के त्याग, बलिदान, संयम, सदाचार एवं व्यवहार से होती है। भक्ति भावना को इसी कसौटी पर परखा जाता है और यदि वह खरी होती है, तो उसके बदले में आनन्दमय परमात्मा अवश्य मिलता है। सच्चिदानन्द की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है।
गायत्री की पंचकोशी साधना में पाँचवा कोश आनंदमय कोश है। उसके अनावरण से वह सच्चिदानन्द स्थिति प्राप्त होती है, जिसे आत्मज्ञान की मस्ती कहते हैं। वास्तविक आनन्द यही है। अपने आप की पवित्रता और महानता का अनुभव करते हुए शान्ति सन्तोष उल्लास और आनन्द में निमग्न रहने की स्थिति ही जीवनमुक्ति कहलाती है। उस अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।