Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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प्राण शक्ति का स्वरूप और अभिवर्धन
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प्राण साधना योगशास्त्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके लाभों का विस्तार, अणमादि अगणित ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में किया गया है और ब्रह्मतेजस् के रूप में उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों की चर्चा की गई है। प्राणायाम इस दिशा में प्रथम सोपान है। दुर्बल विकृत प्राण को बहिष्कृत कर उसके स्थान पर महाप्राण की स्थापना करना इस साधना का लथ्य है। संध्या-वंदना जैसे नित्यकर्मो का उसे अनिवार्य आधार इसलिए बनाया गया है कि इस प्रकार प्रारम्भिक परिचय तथा अभ्यास करते हुए क्रमशः आगे बढ़ा जाये और प्राणवान् बनते हुए जीवन लक्ष्य को पूर्ण करने की दिशा में अनवरत रूप से गतिशील रहा जाए।
प्राणतत्व समस्त भौतिक और आत्मिक सम्पदाओं का उद्गम केन्द्र है। वह सर्वत्र सव्याप्त है। उसमें से जो जितनी अञ्जलि भरने और उसे पीने में समर्थ होता है वह उसी स्तर का महामानव बनता चला जाता है। प्राण शक्ति का पर्यायवाची है। उसकी परिधि में भौतिक सम्पदाएँ और आत्मिक विभूतियाँ दोनों ही आती हैं।
शारीरिक परिपुष्टि के रूप में ओजस्वी, मनोबल, सम्पन्नता के रूप में मनस्वी, सामाजिक सहयोग सम्मान के रूप में यशस्वी और आत्मिक उत्कृष्टता रूप में तेजस्वी बन जाता है। यह चतुर्विधि क्षमताएँ जिस मूल स्रोत में उत्पन्न होती हैं उसे प्राण शक्ति कहते हैं। प्राण साधना इन्हीं सिद्धियों का प्राप्त कर सकना सम्भव बनाती हैं।
अँग्रेजी में श्वास के अर्थ में प्राण का प्रयोग होता है। यह भ्रम शायद इसलिए पैदा हुआ कि प्राणायाम में श्वास प्रश्वास क्रिया ही प्रधान होती है। रेचक, पूरक, कुम्भक के माध्यम से प्राणायाम किया जाता है। उसमें सांस को अमुक क्रम से छोड़ने, खींचने की विधि की प्रमुखता से प्राण को उसी रूप में समझ लिया गया है।
स्वामी विवेकानन्द ने प्राण की विवेचना ‘साइकिक फोर्स’ के रूप में की है। इसका मोटा अर्थ ‘मानसिक शक्ति’ हुआ। मोटे रूप से तो यह कोई मस्तिष्कीय हलचल हुई। पर प्राण तो विश्व-व्यापी है। यदि समष्टि को मन की शक्ति कहें या सर्वव्यापी चेतना शक्ति का नाम दें तो ही यह अर्थ ठीक बैठ सकता है। व्यक्तिगत मस्तिष्कों की प्रथम मानसिक शक्ति की क्षमता प्राण के रूप में नही हो सकती। सम्भवतः स्वामी जीं का संकेत समष्टि मन की सर्वव्यापी क्षमता की ओर ही रहा होगा।
मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के रूप में प्राण शक्ति के प्रकट होने का, प्रखर होने का परिचय प्राप्त किया जा सकता है, पर वह मूलतः इन सब जाने हुए विवरणों से कहीं अधिक सूक्ष्म।
वैदिक साहित्य में प्राण के साथ वायु विशेषण भी लगा है और उसे ‘प्राण वायु’ कहा गया है। उनका तात्पर्य ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि वायु विकारों से नही वरन् उस प्रवाह से है जिसकी गतिशील विद्युत तरंगों के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते हैं। अणु विकरण, ताप, प्रकाश आदि को शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता से कहा जा सकता है। यदि अध्यात्म स्वरूप का विवेचन किया जाए तो अँग्रेजी का ‘लेटन्ट लाइट’ शब्द इसके लिए लगभग अधिक उपयुक्त बैठता है। प्रश्नोपनिषद् में प्राण का उद्गम केन्द्र सूर्य को माना गया है-
स एष वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणोऽग्निरुद यते।
-प्रश्न० १-७
यह भौतिक व्याख्या है। सभी जानते हैं कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति का श्रेय सूर्य किरणों को है।
स्थूल जगत की जीवनी शक्ति का केन्द्र सूर्य है। उसके पाँच प्राण पाँच तत्व हैं। आदित्यो हवै वाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येन चाक्षुषं प्राण।
मनु नृहणान्ः पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापान।
मवस्टभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायु व्यनिः
तेजो हवै उदानः
-प्रश्नोपनिषद्
यह सूर्य ही बाह्य प्राण है। उदय होकर दृश्य जगत की हलचलों को क्रियाशील करता है। इस विश्व रूपी शरीर को यह सूर्य का महाप्राण ही जीवन्त रखता है। पाँच तत्वों में वह पाँच प्राण बनकर संव्याप्त है।
प्राण को तत्वदर्शियों ने दो भागों में विभक्त किया है- (१) अणु (२) विभु। अणु वह है जो पदार्थ जगत में सक्रिय बनकर परिलक्षित होता है। विभु वह है जो चेतन जगत में जीवन बनकर लहलहा रहा है। इन दो विभागों को आधिदैविक कास्मिक और आध्यात्मिक माइक्रोकास्मिक अथवा हिरण्य गर्भ कहा जाता है।
आधि दैविकेन समष्टि व्यष्टि रूपेण हैरण्य गर्भेण
प्राणात्मनेवैतद् विभुत्व माम्नायते नाध्यात्मिकेन। -ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य
समष्टि रूप हिरण्य गर्भ विभु है। व्यष्टि रूप आधिदैविक अणु।
इस अणु शक्ति को लेकर ही पदार्थ विज्ञान का सारा ढाँचा खड़ा किया गया है। विद्युत ताप, प्रकाश, विकरण आदि की अनेकानेक शक्तियाँ उसी स्रोत में गतिशील रहती हैं। अणु के भीतर जो सक्रियता है वह सूर्य की है। यदि सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक न पहुँचे तो यह सर्वथा नीरव स्तब्धता परिलक्षित होगी। कहीं कुछ भी हलचल दिखाई न पड़ेगी। अणुओं की जो सक्रियता पदार्थो का आविर्भाव, अभिवर्धन एवं परिवर्तन करती है उसका कोई अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ेगा। भौतिक विज्ञान से इस सूर्य द्वारा पृथ्वी को प्रदत्त अणु शक्ति के रूप में पहचाना है और उसे विभिन्न प्रकार के आविष्कार करके सुख साधनों का आविर्भाव किया है। शक्ति के कितने ही प्रचण्ड स्रोत करतल गत किये हैं। पर यह नहीं मान बैठना चाहिये। विश्व- व्यापी शक्ति भण्डार मात्र अणु शक्ति की भौतिक सामर्थ्य तक ही सीमाबद्ध है।
जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण का परिचय दिया जा सकता है और चेतन जगत में सम्वेदना उसे कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया इसी सम्वेदना के तीन रूप में है। जीवन्त प्राणी इसी के आधार पर जीवित रहते हैं। उसी के सहारे चाहतें, सोचते और प्रयत्नशील होते हैं। इस जीवन शक्ति की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है वह उतना ही अधिक प्राणवान् कहा जाता है। आत्मा को महात्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने का अवसर इस प्राण शक्ति की अधिक मात्रा उपलब्ध करने पर ही सम्भव होता है। चेतना की विभु सत्ता जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है चेतन प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्न पूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी-प्राणवान् एवं महाप्राण बनता है।
वह प्राण हमारे अनुभव में जड़ पदार्थो की सक्रियता के रूप में और चेतन प्राणियों की सजगता के रूप में दिखाई पड़ता है। इससे प्रतीत होता है कि वस्तुओं एवं प्राणियों के उत्पन्न होने के उपरान्त ही इस शक्ति का उद्भव हुआ होगा पर बात ऐसी नहीं है। वह सृष्टि से पहले ही मौजूद तो था। उसी सूक्ष्म प्राण शक्ति ने समयानुसार परा और अपरा प्रकृति का रूप धारण करके इस दृश्य जगत का सृजन किया है। शास्त्र में इसका वर्णन इस प्रकार आता है-
असद्वा इदमग्न आसात् तदाहुः कि तदसदासीदित्युषयो वा व।
तेऽग्नेऽसदासीत् तदाहुः के ते ऋषभ इति
प्राणा वा ऋषय।
-शतपथ
सृष्टि से पहले ‘असत्’ था। यह असत् क्या ? उत्तर में कहा गया वे ऋषि थे। ये ऋषि क्या थे ? तब उत्तर में कहा गया-वे प्राण थे। प्राण ही ऋषि है।
यहाँ असत् शब्द अभाव के अर्थ में नहीं-अव्यक्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्राण से पूर्व भी विद्यमान था। जब दृश्य पदार्थ विनिर्मित हुए तो उनमें प्राण को हलचल करता हुआ देखा गया। यह देखना ही ‘व्यक्त’ है।
प्राणको ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कहा गया है-
प्राणो या व ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च।
-छांदोग्य ५, १, १
सृष्टि से पूर्व उसकी सत्ता विद्यमान होने से वह ज्येष्ठ है। श्रेष्ठ इसलिए कि समस्त पदार्थो और शरीरों में, उसी की विभिन्न हलचलें दृष्टिगोचर हो रही हैं। वस्तुतः जीवन के अर्थ में ही प्राण का प्रयोग होता रहा है।
यस्मात्कस्माच्चांगात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यति। -वृहदारण्यक
जिस किसी अंग से प्राण निकल जाता है, वह सूख जाता है।
संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु (प्राणने) जीवनी शक्ति-चेतना वाचक हैं। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है। जीवधारियों को प्राणी कहते हैं। प्राण और जीवन दोनों एक् ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
प्राण आत्मा का गुण है। वह परम आत्मा से(परब्रह्म से) निसृत होता है। आत्मा भी परमात्मा का एक अविच्छिन्न घटक है। उसके अंश रूप होते हुए भी मूल सत्ताधीश के सारे गुण विद्यमान हैं। व्यक्तिगत प्राण धारण करने वाला प्राणी जब सुविकसित होता है तो वह बूँद के समुद्र में पड़ने पर सुविस्तृत होने की तरह व्यापक बन जाता है। व्यापक महाप्राण का अंश प्राणी है अथवा प्राणधारियों की समष्टि चेतना महाप्राण है, इसमें तात्विक कोई अन्तर नहीं यह शब्दों की ही हेरा-फेरी है।
प्राण के स्वरूप को समझाते हुए शास्त्रकारों ने उसका परिचय कई प्रकार दिया है। उसे सृष्टि का सूत्र संचालक और परब्रह्म से निसृत जीवन सत्ता के रूप में समझाने के लिए ही यह कई प्रकार के प्रतिपादन प्रस्तुत किये हैं- यथा-
स प्राणमसृजत प्राणाच्छद्धां खं वायुर्ज्योति
रूपः पृथिविन्द्रिय मनोऽन्नम्।
-प्रश्न ६-४
उसने प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी इन्द्रिय, मन और अन्न आदि बने।
जड़ से चेतन उत्पन्न होने की बात भौतिक विज्ञानी कहते हैं। आत्म विज्ञान का मत इससे भिन्न है। वह कहता है चेतना से जड़ की उत्पत्ति हुई है। जड़ में न कुछ सोचने की शक्ति है न करने की। चह निर्जीव होने के कारण अवतरण, अभिवर्धन एवं परिवर्तन की कोई क्रिया नहीं कर सकता, उसकी हलचलें चेतना की ही देन है। चेतना की इच्छा एवं आवश्यकता के अनुसार प्राणियों के शरीर बनते और बदलते रहे हैं। इस तथ्य को तो भौतिक विज्ञानी भी मानते हैं। ऐसी दशा में चेतन प्राणी को ही प्रथम मानना पड़ेगा। सृष्टि से पूर्व निस्सन्देह उसकी सत्ता सूक्ष्म चेतना के रूप में रही है और महाप्राण इस विश्व के सूत्र संचालक परब्रह्म का-परमात्मा अथवा आत्मा का ही ब्रह्म तेजस् रहा है। वह कोई भौतिक शक्ति नहीं है।
आत्मन एषः प्राणो जायते।
-प्रश्न ३-३
इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है
यदिदं किंच जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।
-कठ० ६-३
यह समस्त जगत प्राण के स्पन्दन से निःसृत होता है।
यथाग्ने क्षुद्रा विस्कुलिंगा व्युच्चरन्त्येव मेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणः। -वृहदारण्यक
जैसे अग्नि से छोटी-छोटी चिनगारियाँ निकलती हैं वैसे ही आत्मा से सब प्राण निकलते हैं।
इस प्राण सत्ता का जब जिस प्रयोजन के लिए प्रयोग होता है तब उसके नाम उसी क्रिया आधार को ध्यान में रखते हुए रख दिये जाते हैं। एक व्यक्ति दुकानदारी, रसोइया, चोरी आदि कई काम करता है। जिस समय उसे जो काम करते देखा जाता है तब उसे उसी आधार पर दुकानदार, रसोइया चोर आदि कहा जाता है। ताँगे वाला उसे सवारी, व्यापारी उसे ग्राहक, डाक्टर उसे रोगी, अध्यापक उसे विद्यार्थी के नाम से पुकारता है। इतने पर भी वह एक ही व्यक्ति होता है। इसी प्रकार प्राण की जहाँ जो गतिविधियाँ होती हैं उसी प्रकार उसे नाम दिया जाता है। साधारणतया पाँच, दस या ग्यारह प्रकार से उसके वर्गीकरण होते रहे हैं-
यः प्राणः ए वायुः स एष वायुः पंचविधिः।
प्राणोऽपानोव्यान उदानः समानः।
-शतपथ
यह प्राण वायु पाँच प्रकार का हैं-प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
दशये पुरुषे प्राणा आत्मैकादश।
-वृहदारण्यक
मनुष्य में रहने वाली दस इन्द्रियाँ और ग्याहरवाँ मन यह सब प्राण हैं।
इतने पर भी उसे वायुः इन्द्रियाँ या मन नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह इस सबके भीतर काम करने वाली जीवनी शक्ति है।
न वायु क्रिये पृथगुपदेशात।
-ब्रह्मसूत्र २-४
यह प्राण वायु या इन्द्रियाँ नहीं हैं। शास्त्रों में उसका उपदेश भिन्न रूप से किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में यह तथ्य और भी अधिक स्पष्ट कर दिया गया है-
तान्वरिष्ठः प्राण उवाच मा मोहमा पद्य था
अहमेवैतत्पंचधात्मानं प्रविभज्यैत
द्वाणमवष्टथ्य विधार यामि।
-प्रश्न० २-३
उस वरिष्ठ प्राण ने मन और इन्द्रियों से कहा- तुम मोह में मत पड़ो। मैं ही पाँच रूप बनाकर इस शरीर को धारण किये हुए हूँ।
न वायु प्राणो नापि करण व्यापारः।
-ब्रह्म सूत्र २-४-९
यह प्राण, वायु नहीं है और न वह इन्द्रियों का व्यापार ही है।
एत समाञ्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
-मुण्डक २, १, ३
यह प्राण मन और इन्द्रियों से भिन्न है।
प्राणायाम को गहरी साँस लेने का-फेफड़े पुष्ट करने वाला व्यायाम नहीं माना जाना चाहिये। वस्तुतः वह निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त चेतना कें समुद्र से बड़ी मात्रा में जीवनी शक्ति अपने भीतर धारण करके सामान्य लोगों की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान बनने का परिष्कृत विज्ञान सम्मत सुनिश्चित प्रयास है। इसे यदि विधिपूर्वक जाना और अपनाया जाए तो उसमें हमारे महत्वपूर्ण अभावों की पूर्ति हो सकती है।
प्राणतत्व समस्त भौतिक और आत्मिक सम्पदाओं का उद्गम केन्द्र है। वह सर्वत्र सव्याप्त है। उसमें से जो जितनी अञ्जलि भरने और उसे पीने में समर्थ होता है वह उसी स्तर का महामानव बनता चला जाता है। प्राण शक्ति का पर्यायवाची है। उसकी परिधि में भौतिक सम्पदाएँ और आत्मिक विभूतियाँ दोनों ही आती हैं।
शारीरिक परिपुष्टि के रूप में ओजस्वी, मनोबल, सम्पन्नता के रूप में मनस्वी, सामाजिक सहयोग सम्मान के रूप में यशस्वी और आत्मिक उत्कृष्टता रूप में तेजस्वी बन जाता है। यह चतुर्विधि क्षमताएँ जिस मूल स्रोत में उत्पन्न होती हैं उसे प्राण शक्ति कहते हैं। प्राण साधना इन्हीं सिद्धियों का प्राप्त कर सकना सम्भव बनाती हैं।
अँग्रेजी में श्वास के अर्थ में प्राण का प्रयोग होता है। यह भ्रम शायद इसलिए पैदा हुआ कि प्राणायाम में श्वास प्रश्वास क्रिया ही प्रधान होती है। रेचक, पूरक, कुम्भक के माध्यम से प्राणायाम किया जाता है। उसमें सांस को अमुक क्रम से छोड़ने, खींचने की विधि की प्रमुखता से प्राण को उसी रूप में समझ लिया गया है।
स्वामी विवेकानन्द ने प्राण की विवेचना ‘साइकिक फोर्स’ के रूप में की है। इसका मोटा अर्थ ‘मानसिक शक्ति’ हुआ। मोटे रूप से तो यह कोई मस्तिष्कीय हलचल हुई। पर प्राण तो विश्व-व्यापी है। यदि समष्टि को मन की शक्ति कहें या सर्वव्यापी चेतना शक्ति का नाम दें तो ही यह अर्थ ठीक बैठ सकता है। व्यक्तिगत मस्तिष्कों की प्रथम मानसिक शक्ति की क्षमता प्राण के रूप में नही हो सकती। सम्भवतः स्वामी जीं का संकेत समष्टि मन की सर्वव्यापी क्षमता की ओर ही रहा होगा।
मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के रूप में प्राण शक्ति के प्रकट होने का, प्रखर होने का परिचय प्राप्त किया जा सकता है, पर वह मूलतः इन सब जाने हुए विवरणों से कहीं अधिक सूक्ष्म।
वैदिक साहित्य में प्राण के साथ वायु विशेषण भी लगा है और उसे ‘प्राण वायु’ कहा गया है। उनका तात्पर्य ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि वायु विकारों से नही वरन् उस प्रवाह से है जिसकी गतिशील विद्युत तरंगों के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते हैं। अणु विकरण, ताप, प्रकाश आदि को शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता से कहा जा सकता है। यदि अध्यात्म स्वरूप का विवेचन किया जाए तो अँग्रेजी का ‘लेटन्ट लाइट’ शब्द इसके लिए लगभग अधिक उपयुक्त बैठता है। प्रश्नोपनिषद् में प्राण का उद्गम केन्द्र सूर्य को माना गया है-
स एष वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणोऽग्निरुद यते।
-प्रश्न० १-७
यह भौतिक व्याख्या है। सभी जानते हैं कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति का श्रेय सूर्य किरणों को है।
स्थूल जगत की जीवनी शक्ति का केन्द्र सूर्य है। उसके पाँच प्राण पाँच तत्व हैं। आदित्यो हवै वाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येन चाक्षुषं प्राण।
मनु नृहणान्ः पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापान।
मवस्टभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायु व्यनिः
तेजो हवै उदानः
-प्रश्नोपनिषद्
यह सूर्य ही बाह्य प्राण है। उदय होकर दृश्य जगत की हलचलों को क्रियाशील करता है। इस विश्व रूपी शरीर को यह सूर्य का महाप्राण ही जीवन्त रखता है। पाँच तत्वों में वह पाँच प्राण बनकर संव्याप्त है।
प्राण को तत्वदर्शियों ने दो भागों में विभक्त किया है- (१) अणु (२) विभु। अणु वह है जो पदार्थ जगत में सक्रिय बनकर परिलक्षित होता है। विभु वह है जो चेतन जगत में जीवन बनकर लहलहा रहा है। इन दो विभागों को आधिदैविक कास्मिक और आध्यात्मिक माइक्रोकास्मिक अथवा हिरण्य गर्भ कहा जाता है।
आधि दैविकेन समष्टि व्यष्टि रूपेण हैरण्य गर्भेण
प्राणात्मनेवैतद् विभुत्व माम्नायते नाध्यात्मिकेन। -ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य
समष्टि रूप हिरण्य गर्भ विभु है। व्यष्टि रूप आधिदैविक अणु।
इस अणु शक्ति को लेकर ही पदार्थ विज्ञान का सारा ढाँचा खड़ा किया गया है। विद्युत ताप, प्रकाश, विकरण आदि की अनेकानेक शक्तियाँ उसी स्रोत में गतिशील रहती हैं। अणु के भीतर जो सक्रियता है वह सूर्य की है। यदि सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक न पहुँचे तो यह सर्वथा नीरव स्तब्धता परिलक्षित होगी। कहीं कुछ भी हलचल दिखाई न पड़ेगी। अणुओं की जो सक्रियता पदार्थो का आविर्भाव, अभिवर्धन एवं परिवर्तन करती है उसका कोई अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ेगा। भौतिक विज्ञान से इस सूर्य द्वारा पृथ्वी को प्रदत्त अणु शक्ति के रूप में पहचाना है और उसे विभिन्न प्रकार के आविष्कार करके सुख साधनों का आविर्भाव किया है। शक्ति के कितने ही प्रचण्ड स्रोत करतल गत किये हैं। पर यह नहीं मान बैठना चाहिये। विश्व- व्यापी शक्ति भण्डार मात्र अणु शक्ति की भौतिक सामर्थ्य तक ही सीमाबद्ध है।
जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण का परिचय दिया जा सकता है और चेतन जगत में सम्वेदना उसे कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया इसी सम्वेदना के तीन रूप में है। जीवन्त प्राणी इसी के आधार पर जीवित रहते हैं। उसी के सहारे चाहतें, सोचते और प्रयत्नशील होते हैं। इस जीवन शक्ति की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है वह उतना ही अधिक प्राणवान् कहा जाता है। आत्मा को महात्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने का अवसर इस प्राण शक्ति की अधिक मात्रा उपलब्ध करने पर ही सम्भव होता है। चेतना की विभु सत्ता जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है चेतन प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्न पूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी-प्राणवान् एवं महाप्राण बनता है।
वह प्राण हमारे अनुभव में जड़ पदार्थो की सक्रियता के रूप में और चेतन प्राणियों की सजगता के रूप में दिखाई पड़ता है। इससे प्रतीत होता है कि वस्तुओं एवं प्राणियों के उत्पन्न होने के उपरान्त ही इस शक्ति का उद्भव हुआ होगा पर बात ऐसी नहीं है। वह सृष्टि से पहले ही मौजूद तो था। उसी सूक्ष्म प्राण शक्ति ने समयानुसार परा और अपरा प्रकृति का रूप धारण करके इस दृश्य जगत का सृजन किया है। शास्त्र में इसका वर्णन इस प्रकार आता है-
असद्वा इदमग्न आसात् तदाहुः कि तदसदासीदित्युषयो वा व।
तेऽग्नेऽसदासीत् तदाहुः के ते ऋषभ इति
प्राणा वा ऋषय।
-शतपथ
सृष्टि से पहले ‘असत्’ था। यह असत् क्या ? उत्तर में कहा गया वे ऋषि थे। ये ऋषि क्या थे ? तब उत्तर में कहा गया-वे प्राण थे। प्राण ही ऋषि है।
यहाँ असत् शब्द अभाव के अर्थ में नहीं-अव्यक्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्राण से पूर्व भी विद्यमान था। जब दृश्य पदार्थ विनिर्मित हुए तो उनमें प्राण को हलचल करता हुआ देखा गया। यह देखना ही ‘व्यक्त’ है।
प्राणको ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कहा गया है-
प्राणो या व ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च।
-छांदोग्य ५, १, १
सृष्टि से पूर्व उसकी सत्ता विद्यमान होने से वह ज्येष्ठ है। श्रेष्ठ इसलिए कि समस्त पदार्थो और शरीरों में, उसी की विभिन्न हलचलें दृष्टिगोचर हो रही हैं। वस्तुतः जीवन के अर्थ में ही प्राण का प्रयोग होता रहा है।
यस्मात्कस्माच्चांगात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यति। -वृहदारण्यक
जिस किसी अंग से प्राण निकल जाता है, वह सूख जाता है।
संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु (प्राणने) जीवनी शक्ति-चेतना वाचक हैं। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है। जीवधारियों को प्राणी कहते हैं। प्राण और जीवन दोनों एक् ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
प्राण आत्मा का गुण है। वह परम आत्मा से(परब्रह्म से) निसृत होता है। आत्मा भी परमात्मा का एक अविच्छिन्न घटक है। उसके अंश रूप होते हुए भी मूल सत्ताधीश के सारे गुण विद्यमान हैं। व्यक्तिगत प्राण धारण करने वाला प्राणी जब सुविकसित होता है तो वह बूँद के समुद्र में पड़ने पर सुविस्तृत होने की तरह व्यापक बन जाता है। व्यापक महाप्राण का अंश प्राणी है अथवा प्राणधारियों की समष्टि चेतना महाप्राण है, इसमें तात्विक कोई अन्तर नहीं यह शब्दों की ही हेरा-फेरी है।
प्राण के स्वरूप को समझाते हुए शास्त्रकारों ने उसका परिचय कई प्रकार दिया है। उसे सृष्टि का सूत्र संचालक और परब्रह्म से निसृत जीवन सत्ता के रूप में समझाने के लिए ही यह कई प्रकार के प्रतिपादन प्रस्तुत किये हैं- यथा-
स प्राणमसृजत प्राणाच्छद्धां खं वायुर्ज्योति
रूपः पृथिविन्द्रिय मनोऽन्नम्।
-प्रश्न ६-४
उसने प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी इन्द्रिय, मन और अन्न आदि बने।
जड़ से चेतन उत्पन्न होने की बात भौतिक विज्ञानी कहते हैं। आत्म विज्ञान का मत इससे भिन्न है। वह कहता है चेतना से जड़ की उत्पत्ति हुई है। जड़ में न कुछ सोचने की शक्ति है न करने की। चह निर्जीव होने के कारण अवतरण, अभिवर्धन एवं परिवर्तन की कोई क्रिया नहीं कर सकता, उसकी हलचलें चेतना की ही देन है। चेतना की इच्छा एवं आवश्यकता के अनुसार प्राणियों के शरीर बनते और बदलते रहे हैं। इस तथ्य को तो भौतिक विज्ञानी भी मानते हैं। ऐसी दशा में चेतन प्राणी को ही प्रथम मानना पड़ेगा। सृष्टि से पूर्व निस्सन्देह उसकी सत्ता सूक्ष्म चेतना के रूप में रही है और महाप्राण इस विश्व के सूत्र संचालक परब्रह्म का-परमात्मा अथवा आत्मा का ही ब्रह्म तेजस् रहा है। वह कोई भौतिक शक्ति नहीं है।
आत्मन एषः प्राणो जायते।
-प्रश्न ३-३
इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है
यदिदं किंच जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।
-कठ० ६-३
यह समस्त जगत प्राण के स्पन्दन से निःसृत होता है।
यथाग्ने क्षुद्रा विस्कुलिंगा व्युच्चरन्त्येव मेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणः। -वृहदारण्यक
जैसे अग्नि से छोटी-छोटी चिनगारियाँ निकलती हैं वैसे ही आत्मा से सब प्राण निकलते हैं।
इस प्राण सत्ता का जब जिस प्रयोजन के लिए प्रयोग होता है तब उसके नाम उसी क्रिया आधार को ध्यान में रखते हुए रख दिये जाते हैं। एक व्यक्ति दुकानदारी, रसोइया, चोरी आदि कई काम करता है। जिस समय उसे जो काम करते देखा जाता है तब उसे उसी आधार पर दुकानदार, रसोइया चोर आदि कहा जाता है। ताँगे वाला उसे सवारी, व्यापारी उसे ग्राहक, डाक्टर उसे रोगी, अध्यापक उसे विद्यार्थी के नाम से पुकारता है। इतने पर भी वह एक ही व्यक्ति होता है। इसी प्रकार प्राण की जहाँ जो गतिविधियाँ होती हैं उसी प्रकार उसे नाम दिया जाता है। साधारणतया पाँच, दस या ग्यारह प्रकार से उसके वर्गीकरण होते रहे हैं-
यः प्राणः ए वायुः स एष वायुः पंचविधिः।
प्राणोऽपानोव्यान उदानः समानः।
-शतपथ
यह प्राण वायु पाँच प्रकार का हैं-प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
दशये पुरुषे प्राणा आत्मैकादश।
-वृहदारण्यक
मनुष्य में रहने वाली दस इन्द्रियाँ और ग्याहरवाँ मन यह सब प्राण हैं।
इतने पर भी उसे वायुः इन्द्रियाँ या मन नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह इस सबके भीतर काम करने वाली जीवनी शक्ति है।
न वायु क्रिये पृथगुपदेशात।
-ब्रह्मसूत्र २-४
यह प्राण वायु या इन्द्रियाँ नहीं हैं। शास्त्रों में उसका उपदेश भिन्न रूप से किया गया है। प्रश्नोपनिषद् में यह तथ्य और भी अधिक स्पष्ट कर दिया गया है-
तान्वरिष्ठः प्राण उवाच मा मोहमा पद्य था
अहमेवैतत्पंचधात्मानं प्रविभज्यैत
द्वाणमवष्टथ्य विधार यामि।
-प्रश्न० २-३
उस वरिष्ठ प्राण ने मन और इन्द्रियों से कहा- तुम मोह में मत पड़ो। मैं ही पाँच रूप बनाकर इस शरीर को धारण किये हुए हूँ।
न वायु प्राणो नापि करण व्यापारः।
-ब्रह्म सूत्र २-४-९
यह प्राण, वायु नहीं है और न वह इन्द्रियों का व्यापार ही है।
एत समाञ्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
-मुण्डक २, १, ३
यह प्राण मन और इन्द्रियों से भिन्न है।
प्राणायाम को गहरी साँस लेने का-फेफड़े पुष्ट करने वाला व्यायाम नहीं माना जाना चाहिये। वस्तुतः वह निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त चेतना कें समुद्र से बड़ी मात्रा में जीवनी शक्ति अपने भीतर धारण करके सामान्य लोगों की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान बनने का परिष्कृत विज्ञान सम्मत सुनिश्चित प्रयास है। इसे यदि विधिपूर्वक जाना और अपनाया जाए तो उसमें हमारे महत्वपूर्ण अभावों की पूर्ति हो सकती है।