Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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Language: HINDI
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पंच तन्मात्राओं का पंच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्ध
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आकाश की तन्मात्रा 'शब्द' है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय हैं।
अग्नि तत्व की तन्मात्रा 'रूप' है। यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा 'रस' है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है, षटरसों का खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा 'गन्ध' को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा 'स्पर्श' का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
इन्द्रियों में तन्मात्राओं का अनुभव कराने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाय। जीव को संसार में जीवन-यापन की सुविधा भले ही हो पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एकमात्र कारण 'तन्मात्र' शक्ति है। कल्पना कीजिये कि हम संसार के किसी पदार्थ के रूप में को न देख सकें तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही रहेगी। स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गंध का अनुभव न हो तो हानिकारक सड़ाँध और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सकेगा। त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु- सेवन, कोमल शैय्या के सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जायेगा।
परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है। यदि पंचतत्व केवल स्कूल ही होते, उनमें तन्मात्रायें न होतीं तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न आता। सब कुछ नीरस निरर्थक और बेकार-सा दीख पड़ता। यदि तत्वों में तन्मात्रायें होती पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ न होतीं तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव-जीवन भी नीरस हो जाता है। इन्द्रियों की संवेदना-शक्ति और तत्वों की तन्मात्रायें मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं जिनके लोभ से वह जीवन धारण किये रहता है। इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म-मरण के चक्र में भव-बन्धन में बँधे रहने के लिए बाध्य करती है।
आत्मा की ओर न मुड़कर, आत्म-कल्याण में प्रवृत्त न होकर सांसारिक वस्तुओं को संग्रह करने की, उनका स्वामी बनने की, उनके सम्पर्क की रसानुभूति को चखते रहने की लालसा में मनुष्य डूबा रहता है। रंग-बिरगे खिलौने से खेलने में जैसे बच्चे बेतरह तन्मय हो जाते हैं और खाना-पीना सभी भूलकर खेल में लगे रहते हैं, उसी प्रकार तन्मात्राओं के खिलौने मन में ऐसे बस जाते हैं, इतने सुहावने लगते हैं कि उनसे खेलना छोड़ने की इच्छा नहीं होती, कई दृष्टियों से कष्टकर जीवन व्यतीत करते हुए भी लोग मरने को तैयार नहीं होते, मृत्यु का नाम सुनते ही काँपते हैं, इसको एकमात्र कारण यही है कि सांसारिक पदार्थों की तन्मात्राओं में जो मोहक आकर्षण हैं, वह कष्ट और अभाव की तुलना में मोहक और सरल है। कष्ट सहते हुए भी प्राणी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होता।
पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं, इन रस्सों में चमकीला रंगीन रेशम और सुनहरी कलावत्तू लगा हुआ है। खूँटे चाँदी सोने के बने हुए हैं, उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं। जीवनरूपी घोड़ा इन रस्सों से बँधा है। वह बन्धन के दुःख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूँटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा तक करना छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है। दिन भर गाड़ी में जुतने और चाबुक खाने के कष्टों को भी इन चमकीले रस्सों और खूँटों की तुलना में कुछ नहीं समझता। इसी बुद्धि की अदूरदर्शिता की, वास्तविकता न समझने को शास्त्रों में अविद्या माया, भ्रान्ति आदि नियमों को पुकारा गया है और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा, गाथाओं, उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है।
इन्द्रिय तथा तन्मात्राओं के मिश्रण से खुजली उत्पन्न होती है, उसे खुजाने के लिए मनुष्य के विविध विचार और कार्य होते हैं, वह दिन रात इसी खाज को खुजाने के लिए गोरख धन्धे में लगा रहता है, मन को वश में करने एवं एकाग्र करने में बड़ी बाधा यह खुजली है जो दूसरी और चित्त को जाने ही नहीं देती। खुजाने में जो मजा आता है, उसकी तुलना में और सब बातें हल्की मालूम होती हैं। इसलिए एकाग्रता की साधना पर से मन अक्सर उचट जाता है
तन्मात्राओं की रसानुभूति घोड़े की रस्सी अथवा खुजली के समान है। यह बहुत ही हल्की, छोटी और महत्व हीन वस्तु है। यह भावना अन्त:भूति में जमाने के लिए मनोमय कोश की सुव्यवस्था के लिए तन्मात्राओं की साधना के अभ्यास बताये गये हैं। इन साधनाओं से अन्तःकरण यह अनुभव कर लेता है कि ''तन्मात्रायें अनात्म वस्तु हैं।'' यह जड़ पंच-तत्वों की सूक्ष्म प्रक्रिया मात्र है। यह मनोमय कोश में खुजली की तरह चिपट जाती है और एक निरर्थक से झमेले गोरखधन्धे में हमें फँसा कर लक्ष्य प्राप्ति से वंचित कर देती है। इसलिए इनकी वास्तविकता व्यर्थता एवं तुच्छता को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।
आगे चलकर पाँचों तन्मात्राओं की छोटी- छोटी सरल साधनायें बताई जायेंगी, जिनकी साधना करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है कि शब्द रूप रस, गंध, स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोग है, जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यक नहीं है।
दूसरी बात यह भी है कि: मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाय तो वह अपने विषय में भी लगता है और जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनःशक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं।
अग्नि तत्व की तन्मात्रा 'रूप' है। यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा 'रस' है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है, षटरसों का खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा 'गन्ध' को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा 'स्पर्श' का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
इन्द्रियों में तन्मात्राओं का अनुभव कराने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाय। जीव को संसार में जीवन-यापन की सुविधा भले ही हो पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एकमात्र कारण 'तन्मात्र' शक्ति है। कल्पना कीजिये कि हम संसार के किसी पदार्थ के रूप में को न देख सकें तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही रहेगी। स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गंध का अनुभव न हो तो हानिकारक सड़ाँध और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सकेगा। त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु- सेवन, कोमल शैय्या के सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जायेगा।
परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है। यदि पंचतत्व केवल स्कूल ही होते, उनमें तन्मात्रायें न होतीं तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न आता। सब कुछ नीरस निरर्थक और बेकार-सा दीख पड़ता। यदि तत्वों में तन्मात्रायें होती पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ न होतीं तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव-जीवन भी नीरस हो जाता है। इन्द्रियों की संवेदना-शक्ति और तत्वों की तन्मात्रायें मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं जिनके लोभ से वह जीवन धारण किये रहता है। इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म-मरण के चक्र में भव-बन्धन में बँधे रहने के लिए बाध्य करती है।
आत्मा की ओर न मुड़कर, आत्म-कल्याण में प्रवृत्त न होकर सांसारिक वस्तुओं को संग्रह करने की, उनका स्वामी बनने की, उनके सम्पर्क की रसानुभूति को चखते रहने की लालसा में मनुष्य डूबा रहता है। रंग-बिरगे खिलौने से खेलने में जैसे बच्चे बेतरह तन्मय हो जाते हैं और खाना-पीना सभी भूलकर खेल में लगे रहते हैं, उसी प्रकार तन्मात्राओं के खिलौने मन में ऐसे बस जाते हैं, इतने सुहावने लगते हैं कि उनसे खेलना छोड़ने की इच्छा नहीं होती, कई दृष्टियों से कष्टकर जीवन व्यतीत करते हुए भी लोग मरने को तैयार नहीं होते, मृत्यु का नाम सुनते ही काँपते हैं, इसको एकमात्र कारण यही है कि सांसारिक पदार्थों की तन्मात्राओं में जो मोहक आकर्षण हैं, वह कष्ट और अभाव की तुलना में मोहक और सरल है। कष्ट सहते हुए भी प्राणी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होता।
पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं, इन रस्सों में चमकीला रंगीन रेशम और सुनहरी कलावत्तू लगा हुआ है। खूँटे चाँदी सोने के बने हुए हैं, उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं। जीवनरूपी घोड़ा इन रस्सों से बँधा है। वह बन्धन के दुःख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूँटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा तक करना छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है। दिन भर गाड़ी में जुतने और चाबुक खाने के कष्टों को भी इन चमकीले रस्सों और खूँटों की तुलना में कुछ नहीं समझता। इसी बुद्धि की अदूरदर्शिता की, वास्तविकता न समझने को शास्त्रों में अविद्या माया, भ्रान्ति आदि नियमों को पुकारा गया है और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा, गाथाओं, उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है।
इन्द्रिय तथा तन्मात्राओं के मिश्रण से खुजली उत्पन्न होती है, उसे खुजाने के लिए मनुष्य के विविध विचार और कार्य होते हैं, वह दिन रात इसी खाज को खुजाने के लिए गोरख धन्धे में लगा रहता है, मन को वश में करने एवं एकाग्र करने में बड़ी बाधा यह खुजली है जो दूसरी और चित्त को जाने ही नहीं देती। खुजाने में जो मजा आता है, उसकी तुलना में और सब बातें हल्की मालूम होती हैं। इसलिए एकाग्रता की साधना पर से मन अक्सर उचट जाता है
तन्मात्राओं की रसानुभूति घोड़े की रस्सी अथवा खुजली के समान है। यह बहुत ही हल्की, छोटी और महत्व हीन वस्तु है। यह भावना अन्त:भूति में जमाने के लिए मनोमय कोश की सुव्यवस्था के लिए तन्मात्राओं की साधना के अभ्यास बताये गये हैं। इन साधनाओं से अन्तःकरण यह अनुभव कर लेता है कि ''तन्मात्रायें अनात्म वस्तु हैं।'' यह जड़ पंच-तत्वों की सूक्ष्म प्रक्रिया मात्र है। यह मनोमय कोश में खुजली की तरह चिपट जाती है और एक निरर्थक से झमेले गोरखधन्धे में हमें फँसा कर लक्ष्य प्राप्ति से वंचित कर देती है। इसलिए इनकी वास्तविकता व्यर्थता एवं तुच्छता को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।
आगे चलकर पाँचों तन्मात्राओं की छोटी- छोटी सरल साधनायें बताई जायेंगी, जिनकी साधना करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है कि शब्द रूप रस, गंध, स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोग है, जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यक नहीं है।
दूसरी बात यह भी है कि: मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाय तो वह अपने विषय में भी लगता है और जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनःशक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं।