Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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सूक्ष्म शरीर के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि
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सूक्ष्म शरीर अर्थात चेतना क्षेत्र का विचार तन्त्र। इसे क्रियाशील शरीर से कहीं अधिक बढ़ चढ़ कर माना गया है। काया सुडौल और सुगढ़ हो तो उससे परिश्रम परक कार्य भी लिए जा सकते हैं। उसका उपार्जन भी श्रमिक स्तर का ही हो सकता है, पर यदि व्यक्तित्व प्रतिभावान है। मानसिक स्तर की शिक्षा, समझदारी, सुव्यवस्था और शालीनता की है तो उस आधार पर हर किसी की दृष्टि बढ़ चढ़ कर मूल्यांकन होता है। बहुमूल्य वस्तुऐं हर जगह सम्मान पाती हैं। सम्पर्क में आने वाले को अलंकृत करतीं हैं और अपने मूल्य के अनुरूप ऊँचे स्तर की उपलब्धि भी हस्तगत करती हैं। शरीरगत सुडौलता न होने पर भी मनस्वी व्यक्ति अपनी विशिष्टता के बल पर समुदाय की वरिष्ठता उपलब्ध करते हैं, सम्मान भी पाते हैं और सहयोग भी। सम्पन्नता के बल पर लोग अहंकार का प्रदर्शन करते देखे गए हैं, किन्तु परिष्कृत मानसिकता के बलबूते अपने को सन्तुष्ट भी रखा जा सकता है और प्रसन्न भी। तृप्ति तुष्टि और शान्ति प्राप्त करने के लिए एक ही उपाय उपचार है कि अपनी मानसिकता को आदर्शों की शालीनता से भरा पूरा रखा जाय। चिन्तन तन्त्र को इतना सुसंस्कृत बनाया जाय कि प्रस्तुत समस्याओं का हल और आवश्यकताओं का सरंजाम जुटाने में उन्मुक्त दृष्टिकोण अपनाया जा सकना सम्भव हो सके। सूक्ष्म शरीर के मनन संस्थान को समुन्नत इसी प्रकार रखा जा सकता है।
व्यावहारिक जीवन भी एक साधना क्षेत्र है। इतना ही मन बना लेना उपयुक्त नहीं कि किन्हीं विशेष साधना उपचारों से ही स्थूल सूक्ष्म एवम् कारण शरीरों को समर्थ सुव्यवस्थित बनाया जा सकता है। इनकी भी उपयोगिता है पर यह सम्भव नहीं कि व्यावहारिक जीवन गया गुजरा बना रहे और पूजा उपचारों की सहायता भर से समग्र उत्कर्ष के लक्ष्य तक पहुँचा जा सके। अखाड़े में पहलवानी सीखी और सिखाई जाती है। सर्वसाधारण को मोटी दृष्टि से यही प्रतीत होता है कि अखाड़े के साथ सम्बन्ध जोड़ना, वहाँ बताए जाने वाला क्रिया कलाप अपनाना किसी को भी पहलवान बना सकता है। ऐसा ही कुछ साधनाओं के सम्बन्ध में सोचा जाता है और माना जाता है कि अमुक साधनाऐं करने से अमुक प्रतिफल प्राप्त हो जाता है। पर इस प्रकार का गणित फैलाने वालों से एक भूल रह जाती है कि वे यह नहीं सोचते कि साधना के अतिरिक्त और भी कुछ करना आवश्यक होता है क्या ? समझा जाना चाहिए कि पहलवानी के शौकीनों को पौष्टिक खुराक बढ़ानी पड़ती है। ब्रह्मचर्य से रहना पड़ता है। थके अंगों को चैतन्य करने के लिए मालिश कराने जैसे उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। यदि यह सब न किया जाय तो मात्र दण्ड पेलने बैठक करने भर से दंगल पछाड़ने की स्थिति प्राप्त कर लेना सम्भव नहीं। कई बार तो दुर्बलाकाय व्यक्ति उस दबाव को असाधारण रूप से बढ़ा लेने पर व्यायाम का अतिरिक्त दबाव सहन नहीं कर पाते उल्टे शरीर में, जोड़ी में दर्द उत्पन्न कर लेने जैसे संकटों में फँस जाते हैं।
स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों को असाधारण रूप से सशक्त बनाने वाली साधनाऐं तो हैं, पर उन्हें बताने अपनाने से पूर्व अपनी स्थिति का पर्यवेक्षण करना चाहिए और विकास परिष्कार के लिए जो मध्यवर्ती अनुबन्ध पालना होता है उसकी तैयारी करनी चाहिए। सूक्ष्म शरीर को, मानस तन्त्र को प्रगतिशील बनाने के लिए उस क्षेत्र की स्थिरता, एकाग्रता, समस्वरता सही बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। देखना चाहिए कि किस प्रकार मानसिक उद्वेगों से बचा जा सकता है। समुद्र में जोरदार ज्वार भाटे उठ रहे हों तो नाव खेने वाले को डंडा चलाते हुए असाधारण परिश्रम करना पड़ता है। कई बार तो किसी चट्टान से टकरा जाने पर उसके डूबने तक का खतरा सामने आ खडा़ होता है। हिलोरें लेते जलाशय में सूर्य, चन्द्रमा की परछाई यथावत नहीं दीख सकती। दौड़ते घोडे़ पर सवारी गाठे रहना कोई साधारण काम नहीं है। उसमें सवार के गिर जाने और घोड़े के ठोकर खा जाने का आशंका बनी रहती है। दृश्य स्थिर रहे तो ही उसकी छवि ठीक से देख पड़ना आँखों के लिए सम्भव हो पाता है, धावक की दौड़ छवि ठीक तरह देखते नहीं बन पड़ती। उद्विग्न मन सामयिक समस्याओं का समाधान तक ठीक तरह ढूँढ नहीं पाता। दूसरों के साथ उसका व्यवहार असंगत हो जाता है। वस्तुस्थिति को समझने एवं भविष्य की सम्भावनाओं के उतार चढ़ावों का अनुमान लगाते नहीं बन पड़ता। ऐसी दशा में उसके मिश्रण, निर्णय, निर्धारण भी सही स्तर के होंगे, इसकी आशा नहीं की जा सकती। जब लोक व्यवहार में मन की अस्थिरता इतनी अधिक होती है तो आध्यात्मिक साधनाऐं ठीक प्रकार बन पड़ेगी, इसकी आशा कैसे की जाय ? चित्तवृत्ति निरोध किए बिना, मनोनिग्रह किए बिना साधना कर पाना शक्य नहीं है।
मन में उद्वेग अनायास ही नहीं उठते । उनका कुछ कारण होता है, जलाशयों से लहरें तब उठती हैं, जब कोई भारी वस्तु गेरे अथवा तेज हवा चले। गर्मियों में चक्रवात स्वेच्छापूर्वक अनायास ही नहीं उठते वरन् गरम हवा का तीखा प्रवाह उनका निमित्त कारण होता है। इसी प्रकार मानसिक उद्विग्नता भी किन्हीं अन्य कारणों के साथ जुड़ी हुई होती है।
सृष्टि व्यवस्था के साथ जीवनक्रम की संगति सरलता पूर्वक बिठाई जा सकती है। वह सर्वथा सम्भव है कि बिना उत्तेजित हुए या दूसरों को उत्तेजित किए पहिया अपनी लकीर पर लुढ़कता रहे। न हम किसी से टकराऐं और न कोई हमसे टकराए। ऐसा सुयोग आसानी से बन सकता है। रोग को मारने और रोगी को बचा लेने की नीति चिकित्सक अपनाते हैं। यह विद्या न तो असाध्य है न असम्भव। बच्चे को कीचड़ में सन जाने पर कीचड़ धोई जाती है, और बच्चे को किसी प्रकार कोई क्षति नहीं पहुँचने दी जाती है। यह कौशल ऐसा है जिसे तनिक से अभ्यास द्वारा स्वभाव का अंग बनाया जा सकता है।
उत्तेजनाऐं परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं या व्यक्ति ही उस हेतु आड़े आते हैं, ऐसी बात नहीं है। कई बार अपना मानस ही ऐसा दुर्बल होता है कि स्थिति का आकलन करने में असाधारण रूप से चूक कर जाता है। आँखों पर रंगीन चश्मा पहन लेने पर वस्तुऐं उसी रंग में रंगी हुई दीखती हैं। यह भ्रान्ति है। वस्तुऐं अपने अपने रंग की होती हैं किन्तु चश्मा रंगीन पहन लेने पर जो प्रतीत होता है, वह अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक जैसा लगता है। इसके बारे में हम जो सोचते हैं, जैसा उन्हें मान बैठते हैं वस्तुतः वे वैसे नहीं होते। आकलन सही कर सकने की क्षमता रहने पर यहाँ सब कुछ सरल एवं स्वाभाविक प्रतीत होता है। इतना बन पड़ने पर वे उत्तेजनाऐं नहीं उभरती हैं जो चढ़ दौड़ने पर मानसिकता को तनाव से भर देती हैं। आवेश ग्रस्त करके रेखा कुछ कर गुजरने के लिए बाधित करती है जिसके लिए पीछे शर्म करने या पछताने की आवश्यकता अनुभव होती है।
मनोविकारों को शारीरिक रोगों से भी अधिक अनर्थकारी कहा गया है। शरीर में ताप बढ़ने, रक्त चाप ऊँचा होने पर जो स्थिति बनती है, उससे रोगी किसी काम धाम के योग्य नहीं रह पाता है ठीक यही बात मानसिक आवेशों के सम्बन्ध में भी है। इस उत्तेजना में विचार तन्त्र बुरी तरह लड़खड़ा जाता है। दूसरों पर दोषारोपण करता है। भविष्य को भयंकर देखता है और अपने दुर्भाग्य को कोसता है।
चूल्हे पर जब दूध उबलता है तो उसके उठते हुए झाग पहले की अपेक्षा बढ़े चढ़े मालूम होते हैं, पर वस्तुतः वह जलने लगता है, चूल्हे में गिरता है, आग बुझाता और उसमें दरार डालता है। ठण्डा होते होते उसकी परत पतीली की दीवारों से चिपक जाती है। इस प्रकार उफान के बाद वह पहले की अपेक्षा कहीं कम मात्रा में रह जाता है। इसी प्रकार मन में उफान आने से शरीर को हर दृष्टि से घाटा ही घाटा रहता है। शरीर को चढ़ा हुआ बुखार जलाता है। मन: संस्थान को सूक्ष्म शरीर की उत्तेजनाऐं जलाती रहती हैं। उसकी विशेषताएँ इसी उष्णता में जल जाती है। ऐसी दशा में सूक्ष्म शरीर के प्रसक्त होने पर प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ जो मिल सकते थे उन सबका द्वार बन्द हो जाता है। इसलिए अपनी दिव्य विशिष्टताओं को समुन्नत् करने के लिए प्रथम चरण वह उठना चाहिए कि मानसिक सन्तुलन किसी भी कारण गड़बड़ाने न पाए।
चर्म चक्षुओं से देखने पर शरीर की सुडौलता सुन्दरता समर्थता आकर्षक लग सकती है, पर जहाँ तक व्यक्तित्व की वरिष्ठता और प्रतिभा की विशिष्टता का सम्बन्ध है वहाँ मानसिकता का क्षेत्र ही मणि-माणिकों से भरा पूरा सिद्ध होता है। जिसमें दूरदर्शिता विवेकशीलता होती है, गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से जो गुणवत्ता, विभूतिमत्ता विकसित होती है, वह इसी आधार पर निर्भर है कि मनुष्य का मानसिक धरातल सुसंयत सुसन्तुलित रहे।
मानसिक विक्षेपों से एक सीमा तक सांसारिक परिस्थितियाँ, प्रतिकूलताऐ भी कारण हो सकती हैं, किन्तु उनका समाधान सरल और सम्भव है। अड़चनों से बचकर निकला जा सकता है। काँटे नहीं बीने जा सकते तो पैर में जूता पहना जा सकता है। अपना कार्य क्षेत्र व्यवसाय भी टकराव से बचाते हुए निर्धारित किया जा सकता है। सम्भावित सशक्तता अर्जित करके विग्रहियों से संघर्ष भी किया जा सकता है और उपयुक्त रणनीति बनाकर उन्हें परास्त भी किया जा सकता है। यह सामान्य व्यवहार कुशलता है, जिसके सहारे परिस्थितियों की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदला जा सकता है। किन्तु बड़ी कठिनाई तब उपस्थित होती है, जब अपना ही स्वाभाव अभ्यास, दृष्टिकोण, विसंगतियों से भर जाता है।
अहंता पग पग पर बाधक होता है। वह आत्मविज्ञापन चाहती है। वाह वाही लूटने में रस लेती है। दूसरों को पिछड़ी स्थिति में रखकर ही अपना बड़प्पन उभरता है। इसके लिए वे सभी उपाय अपनाने होते हैं जिनमें छल छद्म अपनाने होते हैं। आक्रमण करने होते हैं और खर्चीले ठाट-बाठ के सरंजाम जुटाने पड़ते हैं। अंहकार की तुष्टि तब होती है जब दूसरों को अपने से हेय सिद्ध किया जाय। यह आक्रामक मार्ग है, जिसमें प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिशोध का जोखिम भी सामने आता रहता है। अपने को विनम्र, सज्जन, उदार बनाने वाले के लिए यह पुरुषार्थ कतई असम्भव नहीं। वस्तुतः लिप्सा, तृष्णा और विलासिता की ललक ऐसी है, जो सदा अपूर्ण ही रहती है और महत्त्वाकाँक्षी को उद्विग्न, असन्तुष्ट और आवेशग्रस्त बनाए रहती हैं इन दुरितों को निरस्त एवम् परास्त करने के उपरान्त ही सूक्ष्म शरीर का उत्कर्ष सम्भव हो सकता है।
व्यावहारिक जीवन भी एक साधना क्षेत्र है। इतना ही मन बना लेना उपयुक्त नहीं कि किन्हीं विशेष साधना उपचारों से ही स्थूल सूक्ष्म एवम् कारण शरीरों को समर्थ सुव्यवस्थित बनाया जा सकता है। इनकी भी उपयोगिता है पर यह सम्भव नहीं कि व्यावहारिक जीवन गया गुजरा बना रहे और पूजा उपचारों की सहायता भर से समग्र उत्कर्ष के लक्ष्य तक पहुँचा जा सके। अखाड़े में पहलवानी सीखी और सिखाई जाती है। सर्वसाधारण को मोटी दृष्टि से यही प्रतीत होता है कि अखाड़े के साथ सम्बन्ध जोड़ना, वहाँ बताए जाने वाला क्रिया कलाप अपनाना किसी को भी पहलवान बना सकता है। ऐसा ही कुछ साधनाओं के सम्बन्ध में सोचा जाता है और माना जाता है कि अमुक साधनाऐं करने से अमुक प्रतिफल प्राप्त हो जाता है। पर इस प्रकार का गणित फैलाने वालों से एक भूल रह जाती है कि वे यह नहीं सोचते कि साधना के अतिरिक्त और भी कुछ करना आवश्यक होता है क्या ? समझा जाना चाहिए कि पहलवानी के शौकीनों को पौष्टिक खुराक बढ़ानी पड़ती है। ब्रह्मचर्य से रहना पड़ता है। थके अंगों को चैतन्य करने के लिए मालिश कराने जैसे उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। यदि यह सब न किया जाय तो मात्र दण्ड पेलने बैठक करने भर से दंगल पछाड़ने की स्थिति प्राप्त कर लेना सम्भव नहीं। कई बार तो दुर्बलाकाय व्यक्ति उस दबाव को असाधारण रूप से बढ़ा लेने पर व्यायाम का अतिरिक्त दबाव सहन नहीं कर पाते उल्टे शरीर में, जोड़ी में दर्द उत्पन्न कर लेने जैसे संकटों में फँस जाते हैं।
स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों को असाधारण रूप से सशक्त बनाने वाली साधनाऐं तो हैं, पर उन्हें बताने अपनाने से पूर्व अपनी स्थिति का पर्यवेक्षण करना चाहिए और विकास परिष्कार के लिए जो मध्यवर्ती अनुबन्ध पालना होता है उसकी तैयारी करनी चाहिए। सूक्ष्म शरीर को, मानस तन्त्र को प्रगतिशील बनाने के लिए उस क्षेत्र की स्थिरता, एकाग्रता, समस्वरता सही बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। देखना चाहिए कि किस प्रकार मानसिक उद्वेगों से बचा जा सकता है। समुद्र में जोरदार ज्वार भाटे उठ रहे हों तो नाव खेने वाले को डंडा चलाते हुए असाधारण परिश्रम करना पड़ता है। कई बार तो किसी चट्टान से टकरा जाने पर उसके डूबने तक का खतरा सामने आ खडा़ होता है। हिलोरें लेते जलाशय में सूर्य, चन्द्रमा की परछाई यथावत नहीं दीख सकती। दौड़ते घोडे़ पर सवारी गाठे रहना कोई साधारण काम नहीं है। उसमें सवार के गिर जाने और घोड़े के ठोकर खा जाने का आशंका बनी रहती है। दृश्य स्थिर रहे तो ही उसकी छवि ठीक से देख पड़ना आँखों के लिए सम्भव हो पाता है, धावक की दौड़ छवि ठीक तरह देखते नहीं बन पड़ती। उद्विग्न मन सामयिक समस्याओं का समाधान तक ठीक तरह ढूँढ नहीं पाता। दूसरों के साथ उसका व्यवहार असंगत हो जाता है। वस्तुस्थिति को समझने एवं भविष्य की सम्भावनाओं के उतार चढ़ावों का अनुमान लगाते नहीं बन पड़ता। ऐसी दशा में उसके मिश्रण, निर्णय, निर्धारण भी सही स्तर के होंगे, इसकी आशा नहीं की जा सकती। जब लोक व्यवहार में मन की अस्थिरता इतनी अधिक होती है तो आध्यात्मिक साधनाऐं ठीक प्रकार बन पड़ेगी, इसकी आशा कैसे की जाय ? चित्तवृत्ति निरोध किए बिना, मनोनिग्रह किए बिना साधना कर पाना शक्य नहीं है।
मन में उद्वेग अनायास ही नहीं उठते । उनका कुछ कारण होता है, जलाशयों से लहरें तब उठती हैं, जब कोई भारी वस्तु गेरे अथवा तेज हवा चले। गर्मियों में चक्रवात स्वेच्छापूर्वक अनायास ही नहीं उठते वरन् गरम हवा का तीखा प्रवाह उनका निमित्त कारण होता है। इसी प्रकार मानसिक उद्विग्नता भी किन्हीं अन्य कारणों के साथ जुड़ी हुई होती है।
सृष्टि व्यवस्था के साथ जीवनक्रम की संगति सरलता पूर्वक बिठाई जा सकती है। वह सर्वथा सम्भव है कि बिना उत्तेजित हुए या दूसरों को उत्तेजित किए पहिया अपनी लकीर पर लुढ़कता रहे। न हम किसी से टकराऐं और न कोई हमसे टकराए। ऐसा सुयोग आसानी से बन सकता है। रोग को मारने और रोगी को बचा लेने की नीति चिकित्सक अपनाते हैं। यह विद्या न तो असाध्य है न असम्भव। बच्चे को कीचड़ में सन जाने पर कीचड़ धोई जाती है, और बच्चे को किसी प्रकार कोई क्षति नहीं पहुँचने दी जाती है। यह कौशल ऐसा है जिसे तनिक से अभ्यास द्वारा स्वभाव का अंग बनाया जा सकता है।
उत्तेजनाऐं परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं या व्यक्ति ही उस हेतु आड़े आते हैं, ऐसी बात नहीं है। कई बार अपना मानस ही ऐसा दुर्बल होता है कि स्थिति का आकलन करने में असाधारण रूप से चूक कर जाता है। आँखों पर रंगीन चश्मा पहन लेने पर वस्तुऐं उसी रंग में रंगी हुई दीखती हैं। यह भ्रान्ति है। वस्तुऐं अपने अपने रंग की होती हैं किन्तु चश्मा रंगीन पहन लेने पर जो प्रतीत होता है, वह अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक जैसा लगता है। इसके बारे में हम जो सोचते हैं, जैसा उन्हें मान बैठते हैं वस्तुतः वे वैसे नहीं होते। आकलन सही कर सकने की क्षमता रहने पर यहाँ सब कुछ सरल एवं स्वाभाविक प्रतीत होता है। इतना बन पड़ने पर वे उत्तेजनाऐं नहीं उभरती हैं जो चढ़ दौड़ने पर मानसिकता को तनाव से भर देती हैं। आवेश ग्रस्त करके रेखा कुछ कर गुजरने के लिए बाधित करती है जिसके लिए पीछे शर्म करने या पछताने की आवश्यकता अनुभव होती है।
मनोविकारों को शारीरिक रोगों से भी अधिक अनर्थकारी कहा गया है। शरीर में ताप बढ़ने, रक्त चाप ऊँचा होने पर जो स्थिति बनती है, उससे रोगी किसी काम धाम के योग्य नहीं रह पाता है ठीक यही बात मानसिक आवेशों के सम्बन्ध में भी है। इस उत्तेजना में विचार तन्त्र बुरी तरह लड़खड़ा जाता है। दूसरों पर दोषारोपण करता है। भविष्य को भयंकर देखता है और अपने दुर्भाग्य को कोसता है।
चूल्हे पर जब दूध उबलता है तो उसके उठते हुए झाग पहले की अपेक्षा बढ़े चढ़े मालूम होते हैं, पर वस्तुतः वह जलने लगता है, चूल्हे में गिरता है, आग बुझाता और उसमें दरार डालता है। ठण्डा होते होते उसकी परत पतीली की दीवारों से चिपक जाती है। इस प्रकार उफान के बाद वह पहले की अपेक्षा कहीं कम मात्रा में रह जाता है। इसी प्रकार मन में उफान आने से शरीर को हर दृष्टि से घाटा ही घाटा रहता है। शरीर को चढ़ा हुआ बुखार जलाता है। मन: संस्थान को सूक्ष्म शरीर की उत्तेजनाऐं जलाती रहती हैं। उसकी विशेषताएँ इसी उष्णता में जल जाती है। ऐसी दशा में सूक्ष्म शरीर के प्रसक्त होने पर प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ जो मिल सकते थे उन सबका द्वार बन्द हो जाता है। इसलिए अपनी दिव्य विशिष्टताओं को समुन्नत् करने के लिए प्रथम चरण वह उठना चाहिए कि मानसिक सन्तुलन किसी भी कारण गड़बड़ाने न पाए।
चर्म चक्षुओं से देखने पर शरीर की सुडौलता सुन्दरता समर्थता आकर्षक लग सकती है, पर जहाँ तक व्यक्तित्व की वरिष्ठता और प्रतिभा की विशिष्टता का सम्बन्ध है वहाँ मानसिकता का क्षेत्र ही मणि-माणिकों से भरा पूरा सिद्ध होता है। जिसमें दूरदर्शिता विवेकशीलता होती है, गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से जो गुणवत्ता, विभूतिमत्ता विकसित होती है, वह इसी आधार पर निर्भर है कि मनुष्य का मानसिक धरातल सुसंयत सुसन्तुलित रहे।
मानसिक विक्षेपों से एक सीमा तक सांसारिक परिस्थितियाँ, प्रतिकूलताऐ भी कारण हो सकती हैं, किन्तु उनका समाधान सरल और सम्भव है। अड़चनों से बचकर निकला जा सकता है। काँटे नहीं बीने जा सकते तो पैर में जूता पहना जा सकता है। अपना कार्य क्षेत्र व्यवसाय भी टकराव से बचाते हुए निर्धारित किया जा सकता है। सम्भावित सशक्तता अर्जित करके विग्रहियों से संघर्ष भी किया जा सकता है और उपयुक्त रणनीति बनाकर उन्हें परास्त भी किया जा सकता है। यह सामान्य व्यवहार कुशलता है, जिसके सहारे परिस्थितियों की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदला जा सकता है। किन्तु बड़ी कठिनाई तब उपस्थित होती है, जब अपना ही स्वाभाव अभ्यास, दृष्टिकोण, विसंगतियों से भर जाता है।
अहंता पग पग पर बाधक होता है। वह आत्मविज्ञापन चाहती है। वाह वाही लूटने में रस लेती है। दूसरों को पिछड़ी स्थिति में रखकर ही अपना बड़प्पन उभरता है। इसके लिए वे सभी उपाय अपनाने होते हैं जिनमें छल छद्म अपनाने होते हैं। आक्रमण करने होते हैं और खर्चीले ठाट-बाठ के सरंजाम जुटाने पड़ते हैं। अंहकार की तुष्टि तब होती है जब दूसरों को अपने से हेय सिद्ध किया जाय। यह आक्रामक मार्ग है, जिसमें प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिशोध का जोखिम भी सामने आता रहता है। अपने को विनम्र, सज्जन, उदार बनाने वाले के लिए यह पुरुषार्थ कतई असम्भव नहीं। वस्तुतः लिप्सा, तृष्णा और विलासिता की ललक ऐसी है, जो सदा अपूर्ण ही रहती है और महत्त्वाकाँक्षी को उद्विग्न, असन्तुष्ट और आवेशग्रस्त बनाए रहती हैं इन दुरितों को निरस्त एवम् परास्त करने के उपरान्त ही सूक्ष्म शरीर का उत्कर्ष सम्भव हो सकता है।