Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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Language: HINDI
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पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
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अग्नि की उष्णता से संसार के सभी पदार्थ जल, बदल या गल जाते हैं। वे कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जिसमें अग्नि का संसर्ग होने पर भी परिवर्तन न होता हो। तपस्या की अग्नि भी ऐसी ही है। वह पापों के समूह को निश्चित रूप से गलाकर नरम कर देती है, बदल कर मनोभावना बना देती है अथवा जलाकर भस्म कर देती है।
जो प्रारब्ध- कर्म समय के परिपाक से प्रारब्ध और भवतव्यता बन चुके हैं, जिनका भोगा जाना अमिट रेखा की भाँति सुनिश्चित हो चुका है, कष्ट साध्य भोग, तपस्या की अग्नि के कारण गल कर नरम हो जाते हैं। उन्हें भोगना आसान हो जाता है। जो पाप परिणाम दो महीने तक भयकंर उदरशूल होकर प्रकट होने वाला था यह साधारण कब्ज बनकर दो महीने तक मामूली गड़बड़ करके आसानी से चला जाता है। जिस पाप के कारण हाथ या पैर कट जाते, भारी रक्तस्राव होने की सम्भावना थी, वह मामूली ठोकर लगने से या चाकू आदि चुभने से दस बीस बूँंद खून बहकर निवृत हो जाता है। जन्म जन्मान्तरों के सञ्चित वे पाप जो कई-कई जन्मों तक भारी कष्ट देते रहने वाले थे, वे थोड़ी-थोड़ी चिह्न-पूजा के रूप में प्रकट होकर इसी जन्म में निवृत हो जाते हैं और मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग मुक्ति का अत्यन्त वैभवशाली जन्म मिलने का मार्ग साफ हो जाता है। देखा गया है कि तपस्वियों को इस जन्म में प्राय: कुछ असुविधाएँ रहती हैं। इसका कारण है कि जन्म-जन्मान्तरों के समस्त पाप-समूह का भुगतान इसी जन्म में होकर आगे का मार्ग साफ हो जाय इसलिए ईश्वरीय वरदान की तरह हलके फुलके कष्ट तपस्वियों को मिलते रहते हैं। यह पापों का गलना हुआ।
बदलना इस प्रकार होता है कि पाप का फल जो सहना पड़ता है उसका स्वाद बड़ा स्वादिष्ट हो जाता है। धर्म के लिए कर्तव्य के लिये, यश, कीर्ति और परोपकार के लिए जो कष्ट सहने पड़ते हैं, वे ऐसे ही हैं जैसे प्रसव पीड़ा। प्रसूता को प्रसवकाल में पीड़ा तो होती है, पर उसके साथ-साथ एक उल्लास भी रहता है। चन्द्र से मुख का सुन्दर बालक देख कर तो वह पीड़ा बिल्कुल भुलादी जाती है। राजा हरिश्चन्द्र, दधीचि, प्रहलाद, मोरध्वज आदि को जो कष्ट सहने पड़े, वे उनके लिये उस काल में भी उल्लासमय थे और अन्तत: अमरकीर्ति ओर सद्गति की दृष्टि से तो वे कष्ट उनके लिये सब प्रकार मगंलमय ही रहे। दान देने में जहाँ ऋणमुक्ति होती है वहाँ यश तथा शुभ गति की भी प्राप्ति होती है। तप द्वारा इस प्रकार 'उधार पट जाना और मेहमान जीम जाना' दो कार्य एक साथ हो जाते हैं।
जल जाना इस प्रकार का होता है कि जो पाप अभी प्रारब्ध नहीं बने हैं, भूल, अज्ञान या मजबूरी में हुए हैं, वे छोटे-मोटे अशुभ कर्म तप की अग्नि में जल-बलकर अपने आप भस्म हो जाते हैं। सूखे हुए घास-पात के ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिनगारी जला डालती है, वैसे ही इस श्रेणी के पाप कर्म तपश्चर्या, प्रायश्चित्त और भविष्य में वैसा न करने के दृढ़ निश्चय से अपने आप नष्ट हो जाते हैं। प्रकाश के सम्मुख जिस प्रकार अन्धकार विलीन हो जाता है, वैसे ही तपस्वी अन्तःकरण की प्रखर किरणों से पिछले कुसंस्कार नष्ट हो जाते हैं और साथ ही उन कुसंस्कारों की छाया, दुर्गन्ध, कष्टकारक परिणामों की घटा का भी अन्त हो जाता है।
तपश्चर्या से पूर्वकृत पापों का गलना, बदलना एवं जलना होता हो सो ऐसी बात नहीं है, वरन् तपस्वी में एक नई परम सात्विक अग्नि पैदा होती है। इस अग्नि को दैवी विद्युत शक्ति, आत्म-तेज, ब्रह्म-तेज, तपोबल आदि नामों से भी पुकारते हैं। इस बल से अन्तःकरण में छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं, दिव्य सतोगुणों का विकास होता है। स्फूर्ति उत्साह, साहस, धैर्य, दूरदर्शिता, संयम सन्मार्ग में प्रवृत्ति आदि अनेकों गुणों की विशेषता प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है, कुसंस्कार, कुविचार, कुटेव, कुकर्म से छुटकारा पाने के लिये तपश्चर्या एक रामबाण अस्त्र है। प्राचीन काल में अनेकों देव- दानवों ने तपस्यायें करके मनोरथ पूरा करने के वरदान पाये हैं।
घिसने की रगड़ से गर्मी पैदा होती है। अपने को तपस्या के पत्थर पर घिसने से आत्म-शक्ति का उद्भव होता है। समुद्र को मथने से चौदह रत्न मिले। दूध के मथने से घी निकलता है। काम मन्थन से प्राणधारी बालक की उत्पत्ति होती है। भूमिः मन्थन से अन्न उपजता है। तपस्या द्वारा आत्म-मन्थन से उच्च आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि का लाभ प्राप्त होता है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है। अग्नि में तपाने से सोना निर्मल बनता है। तप से तपा हुआ मनुष्य भी पापमुक्त, तेजस्वी और विवेकवान बन जाता है। अपनी तपस्याओं में गायत्री तपस्या का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। नीचे कुछ पाप-नाशिनी और ब्रह्मतेज- वर्द्धिनी तपश्चर्याएँ बताई जाती हैं-
(१) अस्वाद तप
तप उन कष्टों को कहते हैं, जो अभ्यस्त वस्तुओं के अभाव में सहने पड़ते हैं। भोजन में नमक और मीठा या स्वाद की प्रधान वस्तुयें हैं। इनमें से एक भी वस्तु न डाली जाय तो वह भोजन स्वाद रहित होता है। प्राय: लोगों को स्वादिष्ट भोजन करने का अभ्यास होता है। इन दोनों स्वाद तत्वों को या इनमें से एक को छोड़ देने से जो भोजन बनता है, उसे सात्विक प्रकृति वाला ही कर सकता है। राजसिक प्रकृति वाले का मन उससे नहीं भरेगा। जैसे-जैसे स्वाद रहित भोजन में सन्तोष पैदा होता है, वैसे ही वैसे सात्विकता बढ़ती जाती है। सबसे प्रारम्भ में एक सप्ताह, एक मास या एक ऋतु के लिए इसका प्रयोग करना चाहिये। आरम्भ में बहुत लम्बे समय के लिए नहीं करना चाहिये। यह अस्वाद-तप हुआ।
(२) तितीक्षा तप
सर्दी या गर्मी के कारण शरीर को जो कष्ट होता है उसे थोड़ा-थोड़ा सहन करना चाहिये। जाड़े की ऋतु में धोती और दुपट्टा या कुर्ता दो वस्त्रों में गुजारा करना, रात को रुई का कपड़ा ओढ़कर कम्बल से काम चलाना, गरम पानी का प्रयोग न करके ताजे जल से स्नान करना, अग्नि पर न तपना, यह शीत सहन के तप हैं। पंखा, छाता और बर्फ का त्याग यह गर्मी की तपश्चर्या है।
( ३) कर्षण तप
प्रातःकाल एक-दो घण्टे रात रहे उठकर नित्यकर्म में लग जाना अपने हाथ से बनाया भोजन करना अपने लिये स्वयं जल भरकर लाना, अपने हाथ से वस्त्र धोना, अपने बर्तन स्वयं मलना आदि अपनी सेवा के काम दूसरों से कम से कम कराना। जूता न पहनकर खड़ाऊँ या चट्टी से काम चलाना। पलंग पर शयन न करके तख्त या भूमि पर शयन करना। धातु के बर्तन प्रयोग न करके पत्तल या हाथ भोजन करना, पशुओं की सवारी न करना, खादी पहनना, पैदल यात्रा करना आदि कर्षण तप हैं। इसमें प्रतिदिन शारीरिक सुविधाओं का त्याग और असुविधाओं को सहन करना पड़ता है।
(४) उपवास
गीता में उपवास को विषय विकार से निवृत करने वाला बताया गया है। एक़ समय अन्नहार और एक समय फलाहार आरम्भिक उपवास है। धीरे-धीरे इसकी कठोरता बढ़ानी चाहिये। दो समय फल, दूध, दही आदि का आहार इससे कठिन है। केवल दूध या छाछ पर रहना हो तो उसे कई बार सेवन किया जा सकता है। जल हर एक उपवास में कई बार अधिक मात्रा में बिना प्यास के भी पीना चाहिए। जो लोग उपवास में जल नहीं पीते या कम पीते हैं वे भारी भूल करते हैं। इससे पेट की अग्नि आँंतों में पड़े मल को सुखाकर गाँठें बना देती हैं। इसीलिये उपवास में कई बार पानी पीना चाहिये। उसमें नींबू, सोडा, शक्कर मिला लिया जाय तो स्वास्थ्य और आत्म-शुद्धि के लिये और भी अच्छा है।
(५) गव्य कल्प तप
शरीर और मन के अनेक विकारों को दूर करने के लिए गव्यकल्प अभूतपूर्व है। राजा दिलीप जब निस्सन्तान रहे तो उन्होंने कुल गुरु के आश्रम में गौ चराने की तपस्या पत्नी सहित की थी। नन्दिनी गौ को वे चराते थे और गौ-रस का सेवन करके ही रहते थे। गाय का दूध गाय का दही, गाय की छाछ, गाय का घी सेवन करना, गाय के गोबर के कण्डों से दूध गरम करना चाहिए। गौमूत्र की शरीर पर मालिश करके सिर में डालकर स्नान करना, चर्म, रोगों तथा रक्त-विकारों के लिये बड़ा लाभदायक है। गाय के शरीर से निकलने वाला तेज बड़ा सात्विक एवं बलदायक होता है, इसलिये गौ-चराने का भी बड़ा सूक्ष्म लाभ है। गौ के दूध, दही, घी, छाछ पर मनुष्य तीन मास निर्वाह करे तो उसके शरीर का एक प्रकार से कल्प हो जाता है।
(६) प्रदातव्य तप
अपने पास जो शक्ति हो उसमें से कम मात्रा में अपने लिये रखकर दूसरों को अधिक मात्रा में दान देना है। धनी आदमी धन का दान करते हैं। जो धनी नहीं हैं वे अपने समय, बुद्धि, ज्ञान, चातुर्य, सहयोग आदि को उधार दान देकर दूसरों को लाभ पहुँचा सकते हैं। शरीर का, मन का दान भी धन दान की ही भाँति महत्त्वपूर्ण है। अनीति उपार्जित धन का सबसे अच्छा प्रायश्चित यही है कि उसको सत्कार्य के लिये दान कर दिया जाय। समय का कुछ न कुछ भाग लोक सेवा के लिये लगाना आवश्यक है। दान देते समय पात्र और कार्य का ध्यान करना आवश्यक है। कुपात्र को दिया हुआ, अनुपयुक्त कर्म के लिये दिया गया दान व्यर्थ है। मनुष्येतर प्राणी भी दान के अधिकारी हैं। गौ, चींटी, चिड़ियाँ, कुत्ते आदि उपकारी जीव-जन्तुओं को भी अन्न-जल का दान देने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। स्वयं कष्ट सहकर, अभावग्रस्त रहकर भी दूसरों की उचित सहायता करना उन्हें उन्नतिशील, सात्विक, सद्गुणी बनाने में सहायता करना, सुविधा देना दान का वास्तविक उद्देश्य है। दान प्रशंसा में धर्म शास्त्रों का पन्ना-पन्ना भरा हुआ है।
उसके पुण्य के सम्बन्ध में अधिक क्या कहा जाय। वेद ने कहा हैं- ''सौ हाथों से कमाये और हजारों हाथों से दान करे।''
(७) निष्कासन तप
अपनी बुराइयों और पापों को गुप्त रखने से मन भारी रहता है। पेट में मल भरा रहे तो उससे नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, वैसे ही अपने पापों को छुपाकर रखा जाय तो यह गुप्तता रुके हुए मल की तरह गन्दगी और सड़न पैदा करने वाले समस्त मानसिक क्षेत्र को दूषित कर देती है। इसलिए कुछ ऐसे मित्र चुनने चाहिये जो काफी गम्भीर और विश्वस्त हों। उनसे अपनी पाप कथायें कह देनी चाहिए। अपनी कठिनाइयों, दुःख गाथायें, इच्छायें अनुभूतियाँ भी इसी प्रकार किन्हीं ऐसे लोगों से कहते रहना चाहिए जो उतने उदार हों कि उन्हें सुनकर घृणा न करें और कभी विरोधी हो जाने पर उन्हें दूसरों पर प्रकट करके हानि न पहुँचावें। यह गुप्त बातों का प्रकटीकरण एक प्रकार का आध्यात्मिक जुलाब है जिससे मनोभूमि निर्मल होती है।
प्रायश्चितों में ''दोष प्रकाशन'' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गौहत्या हो जाने का प्रायश्चित शास्त्रों ने यह बताया है कि मरी गौ की पूँछ हाथ में लेकर एक सौ गाँवों में वह व्यक्ति उच्च स्वर से चिल्लाकर यह कहे कि मुझसे गौ- हत्या हो गयी। इस दोष प्रकाशन से गौ-हत्या दोष छूट जाता है। जिसके साथ बुराई की हो उससे क्षमा माँगनी चाहिये, क्षतिपूर्ति करनी चाहिए और जिस प्रकार वह संतुष्ट हो सके वह करना चाहिये। यदि वह भी न हो तो कम से कम दोष प्रकाशन द्वारा अपनी अन्तरात्मा का एक भारी बोझ हल्का करना ही चाहिये। इस प्रकार के दोष प्रकाशन के लिए इस पुस्तक के लेखक को एक विश्वसनीय मित्र समझकर पत्र द्वारा अपने दोषों को लिखकर उनके प्रायश्चित तथा सुधार की सलाह प्रसन्नतापूर्वक ली जा सकती है।
(८) साधना तप
गायत्री का चौबीस हजार जप नौ दिन में पूरा करना सवालक्ष जप चालीस दिन में पूरा करना, गायत्री यज्ञ, गायत्री की योग साधनायें, पुरश्चरण, पूजन, स्तोत्र पाठ आदि साधनाओं से पाप घटता है और पुण्य बढ़ता है। कम पढ़े लोग गायत्री-चालीसा' का पाठ नित्य करके अपनी गायत्री भक्ति को बढ़ा सकते हैं और इस महामन्त्र से बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा तपो बल के अधिकारी बन सकते हैं।
(९) ब्रह्मचर्य तप
वीर्य रक्षा, मैथुन से बचना, काम विकार पर काबू रखना ब्रह्मचर्य व्रत है। मानसिक काम-सेवन शारीरिक काम सेवन की ही भाँति हानिकारक है। मन को काम क्रीड़ा की ओर न जाने देने का सबसे अच्छा उपाय उसे उच्च आध्यात्मिक एवं नैतिक विचारों में लगाये रहना है। बिना इसके ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती। मन को ब्रह्म में- सत् तत्व में लगाये रहने से आत्मोन्नति भी होती है, धर्म-साधन भी और वीर्य रक्षा भी। इस प्रकार एक ही उपाय से तीन लाभ कराने वाला यह तप गायत्री- साधना करने वालों कें लिए सब प्रकार उत्तम है।
(१०) चन्द्रायण तप
यह व्रत पूर्णमासी से प्रारम्भ किया जाता है। पूर्णमासी को अपनी जितनी पूर्ण खुराक हो, उसका सोलहवाँ भाग प्रतिदिन कम करते जाना चाहिए। जैसे अपना पूर्ण आहार एक सेर है तो प्रतिदिन एक छटाँक आहार कम करते जाना चाहिये। कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा जैसे १- १ कला नित्य घटता है, वैसे ही १- १ षोडसांश नित्य कम करते चलना चाहिए। अमावस्या और पड़वा को चन्द्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता। उन दो दिनों बिल्कुल भी आहार न लेना चाहिए। फिर शुक्लपक्ष की दौज को चन्द्रमा एक कला निकलता है और धीरे-धीरे बढ़ता है। वैसे ही १- १ षोडसांश बढ़ाते हुए पूर्णमासी तक पूर्ण आहार पर पहुँच जाना चाहिए। इस एक मास में आहार-विहार का संयम, स्वाध्याय, सत्संग में प्रवृत्ति, सात्विक जीवनचर्या तथा गायत्री-साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न रहना चाहिए।
अर्ध चन्द्रायण व्रत पन्द्रह दिन का होता है। उसमें भोजन का आठवाँ भाग आठ दिन कम करना और आठ दिन बढ़ाना होता है। आरम्भ में अर्ध चन्द्रायण ही करना चाहिए। जब एक बार सफलता मिल जावे तो पूर्ण चन्द्रायण के लिये कदम बढ़ाना चाहिए
(११) मौन तप
मौन से शक्तियों का क्षरण रुकता है, आत्मा- बल का संयम होता है, दैवी तत्वों की वृद्धि होती है, चित्त की एकाग्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रादुर्भाव होता है, बहिर्मुखी वृत्तियाँ अन्तमुरर्वी होने से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रतिदिन या सप्ताह में अथवा माँस में कोई नियत समय मौन रहने के लिये निश्चित करना चाहिए। कई दिन या लगातार भी ऐसा व्रत रखा जा सकता है। अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार मौन की अवधि निर्धारित करनी चाहिए। मौन काल का अधिकांश भाग एकान्त में, स्वाध्याय अथवा ब्रह्म चिन्तन में व्यतीत करना चाहिये।
मौन एक श्रेष्ठ तप साधना
वाणी और मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य जो भी कुछ सोचता और विचारता है, उसकी अभिव्यक्ति वाणी के माध्यम से करता है। भावनाएँ वाणी के द्वारा ही प्रकट होती हैं और अन्तराल की उत्कृष्टता-निकृष्टता का परिचय देती हैं। वासना, तृष्णा, अहंता आदि की ज्वालाएँ अन्दर ही अन्दर धधकती रहती हैं और जब-तब अवसर पाकर वाणी के माध्यम से बाहर फूट पड़ती हैं अथवा मानसिक शक्तियों को धुन की तरह चाटती-कुतरती रहती हैं। अध्यात्म साधनाओं में इसीलिए वाणी के संयम को मानसिक संयम के साथ सम्बद्ध रखा गया है और कहा गया है कि विचारणा, भावना और आकांक्षा पक्ष से मानसिक शाक्तियों का क्षरण रोका जाय, पर अभिव्यक्ति पक्ष से वाक् संचय न किया जाय, तो शक्ति संचय की साधना अधूरी एवं एकांगी रह जायेगी। इसलिए मानसिक संयम के साथ-साथ वाणी का संयम भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मौन साधना इसी की पूर्ति करती है।
मौन की गणना मानसिक तप के रूप में की गई है। गीताकार ने कहा है 'मन प्रसाद: सौमत्व्यं मौनमात्म विनिग्रह:।' अर्थात् मनकी प्रसन्नता, सौम्य शालीनता. मौन मनोनिग्रह और विचारों की शुद्धि मानसिक तप कहे जाते हैं। इससे न केवल एकाग्रता सधती है, वरन् शक्ति का अपव्यय भी रुकता है मानसिक संयम साधने में मौन का असाधारण महत्त्व है। शास्त्रों में इसके अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं। महर्षि व्यास की वह कथा प्रसिद्ध है, जिसमें महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ की रचना कर लेने के पश्चात् उनने गणेश जी से लेखन कार्य पूरा न होने तक एक शब्द भी न बोलने का कारण पूछा था। प्रत्युत्तर में गणेश जी ने कहा था यदि मैं बीच-बीच में बोलता जाता, तो आपका यह कार्य न केवल कठिन हो जाता, वरन् एक भार ही बन जाता। महर्षि रमण के बारे में प्रसिद्ध है कि वे सर्वथा मौन रहते हुए भी आगन्तुकों की समस्याओं का समाधान कर देते थे। सभी पूर्ण सन्तुष्ट होकर जाते और अपने प्रश्नों के उत्तर मौन वाणी से ही प्राप्त कर लेते थे। तभी तो मनीषियों ने मौन को पवित्रतमू विचारों का मन्दिर कहा है।
शरीर-क्रिया विज्ञानियों का कहना है कि शरीर के जिन कार्यों में सर्वाधिक शक्ति खर्च होती है, वह वाणी ही है। इसके संयम का महत्त्व न समझने वालों की प्राय: यही मान्यता होती है कि बोलने में क्या लगता है ? उन्हें यह ज्ञात नहीं कि बोलने में कितनी अधिक मानसिक शक्ति खर्च होती है। एक घण्टे लगातार बोलने पर व्यक्ति इतना थक जाता है मानो चार घण्टे तक शारीरिक श्रम किया हो। कारण वायतंत्र का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। अन्यान्य कार्य तो हाथ-पैर से भी किये जा सकते हैं और उन्हें करते समय ध्यान कहीं और भी रह सकता है, पर बोलते समय सारा ध्यान बोलने पर ही रखना पड़ता है। अन्यथा मुख से उच्चरित शब्द बकवास मात्र रह जाते हैं। अधिक बकवास मानसिक शक्तियों को नष्ट करती है, वरन् उससे आध्यात्मिक दृष्टि से भी हानियाँ ही हानियों होती हैं।
मनीषियों ने वाणी के अपव्यय को रोकना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी बताया है। मूर्धन्य मनोविज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि मौन से विचार शक्ति बढ़ती है। सुविख्यात विचारक जेम्स एलन अपनी कृति ''पॉवर्टी टु पीस'' में कहते हैं कि समस्त शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ शक्ति मौन की शक्ति है। जब वह उचित मार्ग में प्रयुक्त होती है, तो उन्नति एवं अम्युदयकारक होती है, किन्तु दुरुपयोग होने पर विनाशकारी दुष्परिणाम प्रस्तुत करती है। भाप, विद्युत आदि शक्तियों का दुरुपयोग हो, तो अनर्थ ही खड़े करेंगी। विचार सम्पदा के बारे में भी यही बात है। वह संसार में सबसे अधिक शक्तिशाली शक्ति है। जिन्हें मन को वश में रखना एवं अपने आप पर नियंत्रण साधना हो, उन्हें नियमित रूप से कुछ समय के लिए मौन रहना चाहिए। एकाग्रता सम्पादन के लिए इससे बढ़कर कोई अन्य सरल उपाय है नहीं।
सामान्य जीवन में भी कार्य करते समय बोलने और मौन रहने का अन्तर समझा जा सकता है। जो व्यक्ति मौन रहते हैं, उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत अधिक स्थिर तथा संतुलित रहती है। संतुलित विचारों वाला हानि-लाभ, हित-अनहित के प्रसंगों पर बड़े धैर्यपूर्वक सोच समझ सकता है। संकट या आपत्ति के समय मौन द्वारा प्रखर की हुई विचार शक्ति बड़ी सहायक सिद्ध होती है। कभी भी देखा जा सकता है कि जब मनुष्य किसी गहन प्रसंग पर सोचना चाहता है, तब वह एकान्त की तलाश करता है। न तो वह उस समय बोलता है और न किसी से बात ही करता है। बोलना और विचार करना दोनों क्रियाएँ एक साथ नहीं हो सकती। विचारक जितने गहरे मौन में उतरता जाता है, समस्याओं का सार्थक हल खोज लाता है। महात्मा गाँधी को जब कभी किसी विकट समस्या पर विचार करना होता था, तब वे कई दिनों तक मौन व्रत धारण कर लिया करते थे। सप्ताह में एक दिन तो वे मौन रखते ही थे, उनका कहना था कि मौन से आत्मिक बल बढ़ता है। आत्मिक बल बढ़ाने वाले मौन के साथ और बातें भी जुड़ी होती हैं। मौन को उनने सर्वोत्तम भाषण बताया है और कहा है कि अगर बोलना ही पड़े, तो कम बोलना चाहिए। यदि एक शब्द से काम चल जाय, तो दूसरा मुँह से नहीं निकलना चहिए।
''क्राइस्ट इन साइलेंस'' नामक कृति में सी० एफ० एण्ड्रज, कहते हैं कि महान व्यक्ति वही होते हैं, जो यह जान लेते हैं कि आध्यात्मिक शक्ति-भौतिक शक्ति से अधिक बलवान है। आत्मशक्ति को जाग्रत करने का सबसे अच्छा और सरल उपाय उनने कुछ समय के लिए मौन होकर ईश्वर प्रार्थना को बताया है। उनके अनुसार मौन की गुप्त शक्ति असीम है। वाणी का संयम तो इससे होता ही है, मानसिक शक्ति का अनावश्यक क्षरण रुकता और एकाग्रता बढ़ती है। उच्चस्तरीय विचार प्रवाह शांत-स्थिर मन: स्थिति में ही उठते और अभ्युदय का, प्रगति का आधार खड़ा करते हैं। मौन की महिमा का गान करते हुए इमर्सन कहते हैं ''आओ हम चुप रहें, ताकि फरिश्तों के वार्तालाप सुन सकें।''
वस्तुत: मौन हृदय की भाषा है। मुँह से एक शब्द कहे बिना भी अपनी भाव-संवेदना व्यक्त की जा सकती है और जितना असर वाणी का होता है, उसमें कहीं अधिक प्रभाव वह उत्पन्न कर सकती है। सुप्रसिद्ध मनीषी एडवर्ड इवरेट हेल अपनी रचना में एक छोटी बालिका के सम्बन्ध में लिखते हैं कि वह पक्षियों और वन्य जीवों के साथ खेला करती थी और बीच-बीच में पास में बने मन्दिर में प्रार्थना करने के लिए दौड़ जाया करती थीं। प्रार्थना करने के पश्चात् बिल्कुल शान्त होकर चुपचाप कुछ देर के लिए वहीं बैठी रहती। पूछने पर कारण बताते हुए कहती कि- "मैं देर तक चुपचाप इसलिए बैठी रहती हूँ ताकि यह सुन सकूँ कि ईश्वर मुझसे कुछ कहना तो नहीं चाहता।" शान्त और एकाग्र मन से ही उससे वार्तालाप संभव है। मौन रहकर ही अपने अन्तराल में उतरने वाले ईश्वर के दिव्य संदेशों प्रेरणाओं को सुना समझा जा सकता है।
मौन के अभ्यास से न केवल अनावश्यक बोलने की प्रकृति पर अंकुश रखने की क्षमता आ जाती है, वरन् उसके विकसित होने पर वाणी के संतुलन के अनेकानेक प्रयोग करने की स्थिति भी पैदा हो जाती है। अत: मन: संयम के साधक को मौन साधना का कुछ न कुछ क्रम बनाकर रखना ही चाहिए। मौन का अर्थ यह नहीं है कि मुँह से कुछ न बोलते हुए हाथ चलाने या लिखकर बातें करने का क्रम अपनाया जाय। उससे मौन साधना के सत्यपरिणाम प्राप्त नहीं होते। शब्दों का उच्चारण भले ही न किया जाता हो, पर बोलने की वृत्ति दूसरी, तरह से व्यक्त होती रहे, तो जो शक्ति बोलने में खर्च होती थी, वह उस विषय में खर्च होने लगती है। ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाकर किया गया मौन ही असाधारण प्रतिफल प्रदान करता है। मौन का अर्थ आन्तरिक है। वाह्य क्रियाओं का अपने ऊपर प्रभाव न होने देना, स्वयं को उनसे निरपेक्ष रखने का नाम मौन है। मौन द्वारा बहिर्मुखी दिशा में तथा विचार संयम द्वारा आन्तरिक दिशा में मानसिक शक्तियों का अपव्यय होने से रोक लिया जाय, तो फिर इन्द्रिय संयम आसान हो जाता है।
वाचालता पर अंकुश लगाने के लिए मौन साधना का अभ्यास उपयुक्त माना गया है। थोड़ा अभ्यास थोड़ा लाभ दे सकेगा यह सच है। जितना गुड़ डाला जाय उतना ही मीठा होता है। जितना दाम खर्चा जाय उतना ही सामान मिलता है। जितना बीज बोया जाय उसी अनुपात से फसल काटने और उतना ही कोठा भरने का अवसर मिलता है। मौन मात्र दो घण्टे रोज साधा जाय या सप्ताह में मात्र दो घण्टे का क्रम रखा जाय तो उतना प्रयास भी निरर्थक नहीं जाता है। वाणी का असंयम रुकने से जीवनी शक्ति के अपव्यय से होने वाली क्षति में कमी आती है। बचत से सम्पन्नता बढ़ती है और आड़े समय में काम आती है। मौन साधना की यत्किंचित् प्रयास भी हर किसी के लिये लाभदायक सिद्ध होता है। उससे जीवनी शक्ति का भण्डार बढ़ता चला जाता है। भले ही वह सीमित प्रयास के कारण स्वल्प मात्रा में ही उपलब्ध क्यों न हो ?
जिन्हें अवसर और आवश्यकता है, उन्हें मौन की अवधि भी बढ़ानी चाहिए और उसमें गम्भीरता भी लानी चाहिए। इस आधार पर मौन मात्र संयम ही नहीं रखता वरन् तपश्चर्या स्तर तक जा पहुँचता है और साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष चरितार्थ कर दिखाता है। सामान्यता मौन व्रत लेने वाले कुछ घण्टे जीभ को विराम देते हैं पर उनकी कल्पनाएँ इच्छाएँ उछलती ही रहती हैं। इसे उनकी भावभंगिमा को देखकर सहज जाना जा सकता है। मन की चंचलता शरीरगत चेष्टाओं से परिलक्षित होती है। अपना अभिप्राय संकेतों कें माध्यम से प्रकट करते हुए उन्हें देखा जा सकता है। आँखें चारों ओर घूमती हैं। जिस-तिस वस्तु को देखने में अभिरुचि का होना स्पष्ट प्रकट होता है। शंका समाधान चलता रहता है। पूछने बताने का काम जीभ से तो नहीं होता, पर कागज कलम, स्लेट, पैन्सिल के माध्यम से वार्त्तालाप प्राय: वैसा ही चलता रहता है जैसा कि बिना मौन वाले अपना कथन श्रवण चालू रखते हैं। मात्र जिह्वा को विराम मिलना भी किसी हद तक अच्छा तो है, पर उतने भर से वह लाभ नहीं मिलता जो मौन से तपश्चर्या के रूप में साधने पर हस्तगत होता है। इस अनुबंध में कल्पनाओं, कामनाओं, इच्छाओं और चेष्टाओं पर भी अंकुश लगाना पड़ता है। यह न किया जा सके तो मात्र जिह्वा को विराम देकर उसे थकने से बचाने का उपाय किया जाय। मन की चंचलता, इच्छा कामना, चेष्टा यथावत् बनी रहे तो वह मौन नहीं सधता उसे तपश्चर्या कहते हैं और उसके सहारे दिव्य वाणियाँ उभरती और अपने-अपने चमत्कार दिखाती हैं।
जिह्वा से उच्चरित होने वाली वाणी को ''वैखरी'' कहते हैं। इसमें मुँह बोलता है और कान सुनते हैं। मस्तिष्क उसका निष्कर्ष निकालता है। इसके उपरान्त तीन वाणियाँ और हैं। मध्यमा, परा और पश्यन्ती। मध्यमा में मन बोलता है उसका परिचय चेहरे की भावभंगिमा से अंग संचालन पर आधारित संकेतों से समझा जा सकता है। परा अन्तःकरण से भाव संवेदनाओं के रूप में प्रकट होती है। उसे प्रसन्नता, खिन्नता उदासी के रूप में क्रियान्वित होते देखा जाता है। इसका प्रभाव एक व्यक्ति से उठ कर दूसरे में प्रवेश करता है। इसके सहारे एक दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं और उस सम्प्रेषण की प्रतिक्रिया बटोर कर प्रेषक के पास वापस लौटते हैं। इसे मौन वार्तालाप भी कह सकते हैं इसमें चेहरे को देखकर अन्तराल को समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।
पश्यन्ती विशुद्धतः आध्यात्मिक है। इसे देव वाणी भी कह सकते हैं। इसे आकाश वाणी, ब्रह्म वाणी भी कह सकते हैं। यह परा चेतना के साथ टकराती है और वापस लौट कर उन समाचारों को देती है जो अदृश्य जगत की विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में सक्रिय रहते हैं। इसे अदृश्य दर्शन भी कहते हैं। इसी माध्यम से देवतत्वों की परा चेतना के साथ सम्भाषण एवं आदान- प्रदान होता है।
ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती हैं। उनमें देखने, सूंघने, सुनने चखने, स्पर्श की सरसता अनुभव होती है। यह भौतिक रसास्वादन है। पर यदि इन पंच देवों को साधना द्वारा सिद्ध कर लिया जाय तो वे अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में विकसित होती और अलौकिक अनुभूतियाँ प्रस्तुत करती हैं। दूरश्रवण, दूरदर्शन, भविष्य ज्ञान, जन्मान्तर बोध आदि का धनी बना जा सकता है। जिह्वा है तो एक पर वह दुहरा काम करती है। वह चखने के लिए रसना रूप में और बोलने के लिए वाणी रूप में प्रयुक्त होती है इसे यदि मौन एवं अस्वाद के आधार पर दोनों रूपों में सिद्ध कर लिया जाय तो अन्तरंग, और बहिरंग स्तर की दुहरी विभूतियों का रसास्वादन किया जा सकता है।
जिह्वा की दूसरी सिद्धि है- शाप और वरदान देने की क्षमता। साधारण वाणी जानकारियाँ देने भर के लिए काम आती है, पर तप, भूत जिह्वा सत्पत्रों पर सत्परिणामों की वरदान रूप में वर्षा करती है। यदा-कदा ऐसा भी आवश्यक हो जाता है कि बढ़ते हुए अनाचार को रोकने थामने के लिए उनके मार्ग में अवरोध खड़ा किया जाय। अभिशाप इसी को कहते हैं। मौन साधना द्वारा साधित की हुई जिह्वा उपरोक्त सभी प्रयोजनों की पूर्ति करती है।
बहिमौंन और अन्तमौंन प्रख्यात मौन वह जिसमें वाणी से बोलना बन्द कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिख कर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन साधना उनके लिए अच्छा है जिन्हें बहुत बोलने की शेखीखोरी की, गप्पबाजी करने निन्दा चुगली किये बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाने, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किये बिना चैन नहीं पड़ता।
इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की इन्द्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाय और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाय कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुत: जो कुछ कहा जाय, वह शब्द वेधी वाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरान्त कई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वाविदित है। थकान दूर करने हृदयाघात रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अत: जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाय तो उसकी कुटवें छुटती हैं और विश्राम के उपरान्त नये सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है।
पूजा प्रार्थना मन्त्रोचारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं होती न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुख मार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का शुभारम्भ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरान्त ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना सम्भव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अन्त में कुल्ला करने आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख क्षेत्र में अधिकाधिक रखा जाता है। इससे पाचन तन्त्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती है। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचन तन्त्र की शुद्धता होती है और उष्णता उत्तेजना दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है।
अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहार शुद्धि का भी ध्यान रखा जाय। जिह्वा को ज्ञानेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कमेंन्द्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेन्द्रिय बन जाती हैं। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहार शुद्धि का ध्यान रखना भी नितान्त आवश्यक है।
उपवास में दूध-छाछ, रस, रसादि का प्रयोग किया जाय। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलम्बन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वा शुद्धि के लिए पानी में नीबू डालकर उसके कुल्ले प्रात: मध्याह्म सायंकाल तो करने ही चाहिए।
यह बहिमौंन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अन्तमौंन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। वहिमौंन केवल ब्राह्य जीवन को प्रभावित करता है। इसीलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अन्तर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है।
जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इन्द्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अन्तरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र, विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान धारण का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुजांइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए कम बनता है न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत भक्ति का सुयोग बने ही कैसे ? ब्रह्यरन्ध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में सम्भव नहीं और न कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र बेधन, पंचकोशें का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एक दूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शान्त चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्मौंन का अभ्यास किया जाय। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल लोलुप और अस्त व्यस्त होती है उसी प्रकार मन:क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केन्द्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अन्तमौंन बनता है। पर यह कहने में जितना सरल है उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता। तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्माण्ड मध्य ब्रह्यरन्ध्र के लिए करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाय तो उसका कथानक कभी कहीं से, कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत पाठ आदि के सम्बन्ध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रवृति है वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी विचार चाहे देवताओं के हों या अवतारों के हों, इतिहास के हों और अपना सुझाव विचार मन में आते ही रहेगें। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अन्तमौंन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिव ताण्डव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यव्रत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारण भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आपमें ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिव ताण्डव, इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यह बात आत्म-ज्योति से ब्रह्म रन्ध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है। पर अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उस अयवयों के विखरने की आशंका रहेगी। इस प्रकार वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को वास और अंतमौंन की तप साधना कुछ घंटे की नित्यप्रति करनी चाहिए। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना है।
(१२) अर्जन तप
विद्याध्ययन, शिल्प-शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएँ छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है केवल बचपन में ही नहीं, वृद्धावस्था और मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में सदैव अर्जन तप करते रहने का प्रयत्न रहना चाहिए। साल में थोड़ा सा समय तो अवश्य ही इस तपस्या में लगाना चाहिये, जिससे अपनी तपस्याएँ बढ़ती चलें और उनके द्वारा अधिक लोक-सेवा करना सम्भव हो सके।
सूर्य की बारह राशियाँ होती हैं। गायत्री के यह बारह तप हैं। इनमें से जो तप, जब, जिस प्रकार सम्भव हो अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाते रहना चाहिये। ऐसा भी हो सकता है कि वर्ष के बारह महीने में एक-एक महीना एक-एक तप करके एक वर्ष पूरा तप-वर्ष बिताया जाय। सातवें निष्कासन तप में एक दो बार विश्वस्त मित्रों के सामने प्रकटीकरण हो सकता है। नित्य तो अपनी डायरी में एक माँस तक अपनी बुराइयाँ लिखते रहना चाहिए और उन्हें पथ-प्रदर्शक को दिखाना चाहिए। यह क्रम अधिक दिन लागू रखा जाय तो और भी उत्तम है। महात्मा गाँधी सावरमती आश्रम में अपने आश्रमवासियो की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे।
अन्य तपों में प्रत्येक को प्रयोग करने के लिये अनेकों रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी- थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन कष्टसाध्य साधन करना भी सुलभ हो जाता है |
बहिमौंन और अन्तमौंन प्रख्यात मौन वह जिसमें वाणी से बोलना बन्द कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिख कर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन साधना उनके लिए अच्छा है जिन्हें बहुत बोलने की शेखीखोरी की, गप्पबाजी करने निन्दा चुगली किये बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाने, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किये बिना चैन नहीं पड़ता।
इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की इन्द्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाय और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाय कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुत: जो कुछ कहा जाय, वह शब्द वेधी वाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरान्त कई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वाविदित है। थकान दूर करने हृदयाघात रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अत: जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाय तो उसकी कुटवें छुटती हैं और विश्राम के उपरान्त नये सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है।
पूजा प्रार्थना मन्त्रोचारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं होती न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुख मार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का शुभारम्भ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरान्त ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना सम्भव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अन्त में कुल्ला करने आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख क्षेत्र में अधिकाधिक रखा जाता है। इससे पाचन तन्त्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती है। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचन तन्त्र की शुद्धता होती है और उष्णता उत्तेजना दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है।
अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहार शुद्धि का भी ध्यान रखा जाय। जिह्वा को ज्ञानेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कमेंन्द्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेन्द्रिय बन जाती हैं। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहार शुद्धि का ध्यान रखना भी नितान्त आवश्यक है।
उपवास में दूध-छाछ, रस, रसादि का प्रयोग किया जाय। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलम्बन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वा शुद्धि के लिए पानी में नीबू डालकर उसके कुल्ले प्रात: मध्याह्म सायंकाल तो करने ही चाहिए।
यह बहिमौंन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अन्तमौंन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। वहिमौंन केवल ब्राह्य जीवन को प्रभावित करता है। इसीलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अन्तर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है।
जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इन्द्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अन्तरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र, विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान धारण का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुजांइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए कम बनता है न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत भक्ति का सुयोग बने ही कैसे ? ब्रह्यरन्ध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में सम्भव नहीं और न कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र बेधन, पंचकोशें का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एक दूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शान्त चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्मौंन का अभ्यास किया जाय। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल लोलुप और अस्त व्यस्त होती है उसी प्रकार मन:क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केन्द्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अन्तमौंन बनता है। पर यह कहने में जितना सरल है उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता। तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्माण्ड मध्य ब्रह्यरन्ध्र के लिए करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाय तो उसका कथानक कभी कहीं से, कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत पाठ आदि के सम्बन्ध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रवृति है वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी विचार चाहे देवताओं के हों या अवतारों के हों, इतिहास के हों और अपना सुझाव विचार मन में आते ही रहेगें। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अन्तमौंन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिव ताण्डव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यव्रत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारण भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आपमें ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिव ताण्डव, इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यह बात आत्म-ज्योति से ब्रह्म रन्ध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है। पर अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उस अयवयों के विखरने की आशंका रहेगी। इस प्रकार वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को वास और अंतमौंन की तप साधना कुछ घंटे की नित्यप्रति करनी चाहिए। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना है।
(१२) अर्जन तप
विद्याध्ययन, शिल्प-शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएँ छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है केवल बचपन में ही नहीं, वृद्धावस्था और मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में सदैव अर्जन तप करते रहने का प्रयत्न रहना चाहिए। साल में थोड़ा सा समय तो अवश्य ही इस तपस्या में लगाना चाहिये, जिससे अपनी तपस्याएँ बढ़ती चलें और उनके द्वारा अधिक लोक-सेवा करना सम्भव हो सके।
सूर्य की बारह राशियाँ होती हैं। गायत्री के यह बारह तप हैं। इनमें से जो तप, जब, जिस प्रकार सम्भव हो अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाते रहना चाहिये। ऐसा भी हो सकता है कि वर्ष के बारह महीने में एक-एक महीना एक-एक तप करके एक वर्ष पूरा तप-वर्ष बिताया जाय। सातवें निष्कासन तप में एक दो बार विश्वस्त मित्रों के सामने प्रकटीकरण हो सकता है। नित्य तो अपनी डायरी में एक माँस तक अपनी बुराइयाँ लिखते रहना चाहिए और उन्हें पथ-प्रदर्शक को दिखाना चाहिए। यह क्रम अधिक दिन लागू रखा जाय तो और भी उत्तम है। महात्मा गाँधी सावरमती आश्रम में अपने आश्रमवासियो की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे।
अन्य तपों में प्रत्येक को प्रयोग करने के लिये अनेकों रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी- थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन कष्टसाध्य साधन करना भी सुलभ हो जाता है |
जो प्रारब्ध- कर्म समय के परिपाक से प्रारब्ध और भवतव्यता बन चुके हैं, जिनका भोगा जाना अमिट रेखा की भाँति सुनिश्चित हो चुका है, कष्ट साध्य भोग, तपस्या की अग्नि के कारण गल कर नरम हो जाते हैं। उन्हें भोगना आसान हो जाता है। जो पाप परिणाम दो महीने तक भयकंर उदरशूल होकर प्रकट होने वाला था यह साधारण कब्ज बनकर दो महीने तक मामूली गड़बड़ करके आसानी से चला जाता है। जिस पाप के कारण हाथ या पैर कट जाते, भारी रक्तस्राव होने की सम्भावना थी, वह मामूली ठोकर लगने से या चाकू आदि चुभने से दस बीस बूँंद खून बहकर निवृत हो जाता है। जन्म जन्मान्तरों के सञ्चित वे पाप जो कई-कई जन्मों तक भारी कष्ट देते रहने वाले थे, वे थोड़ी-थोड़ी चिह्न-पूजा के रूप में प्रकट होकर इसी जन्म में निवृत हो जाते हैं और मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग मुक्ति का अत्यन्त वैभवशाली जन्म मिलने का मार्ग साफ हो जाता है। देखा गया है कि तपस्वियों को इस जन्म में प्राय: कुछ असुविधाएँ रहती हैं। इसका कारण है कि जन्म-जन्मान्तरों के समस्त पाप-समूह का भुगतान इसी जन्म में होकर आगे का मार्ग साफ हो जाय इसलिए ईश्वरीय वरदान की तरह हलके फुलके कष्ट तपस्वियों को मिलते रहते हैं। यह पापों का गलना हुआ।
बदलना इस प्रकार होता है कि पाप का फल जो सहना पड़ता है उसका स्वाद बड़ा स्वादिष्ट हो जाता है। धर्म के लिए कर्तव्य के लिये, यश, कीर्ति और परोपकार के लिए जो कष्ट सहने पड़ते हैं, वे ऐसे ही हैं जैसे प्रसव पीड़ा। प्रसूता को प्रसवकाल में पीड़ा तो होती है, पर उसके साथ-साथ एक उल्लास भी रहता है। चन्द्र से मुख का सुन्दर बालक देख कर तो वह पीड़ा बिल्कुल भुलादी जाती है। राजा हरिश्चन्द्र, दधीचि, प्रहलाद, मोरध्वज आदि को जो कष्ट सहने पड़े, वे उनके लिये उस काल में भी उल्लासमय थे और अन्तत: अमरकीर्ति ओर सद्गति की दृष्टि से तो वे कष्ट उनके लिये सब प्रकार मगंलमय ही रहे। दान देने में जहाँ ऋणमुक्ति होती है वहाँ यश तथा शुभ गति की भी प्राप्ति होती है। तप द्वारा इस प्रकार 'उधार पट जाना और मेहमान जीम जाना' दो कार्य एक साथ हो जाते हैं।
जल जाना इस प्रकार का होता है कि जो पाप अभी प्रारब्ध नहीं बने हैं, भूल, अज्ञान या मजबूरी में हुए हैं, वे छोटे-मोटे अशुभ कर्म तप की अग्नि में जल-बलकर अपने आप भस्म हो जाते हैं। सूखे हुए घास-पात के ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिनगारी जला डालती है, वैसे ही इस श्रेणी के पाप कर्म तपश्चर्या, प्रायश्चित्त और भविष्य में वैसा न करने के दृढ़ निश्चय से अपने आप नष्ट हो जाते हैं। प्रकाश के सम्मुख जिस प्रकार अन्धकार विलीन हो जाता है, वैसे ही तपस्वी अन्तःकरण की प्रखर किरणों से पिछले कुसंस्कार नष्ट हो जाते हैं और साथ ही उन कुसंस्कारों की छाया, दुर्गन्ध, कष्टकारक परिणामों की घटा का भी अन्त हो जाता है।
तपश्चर्या से पूर्वकृत पापों का गलना, बदलना एवं जलना होता हो सो ऐसी बात नहीं है, वरन् तपस्वी में एक नई परम सात्विक अग्नि पैदा होती है। इस अग्नि को दैवी विद्युत शक्ति, आत्म-तेज, ब्रह्म-तेज, तपोबल आदि नामों से भी पुकारते हैं। इस बल से अन्तःकरण में छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं, दिव्य सतोगुणों का विकास होता है। स्फूर्ति उत्साह, साहस, धैर्य, दूरदर्शिता, संयम सन्मार्ग में प्रवृत्ति आदि अनेकों गुणों की विशेषता प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है, कुसंस्कार, कुविचार, कुटेव, कुकर्म से छुटकारा पाने के लिये तपश्चर्या एक रामबाण अस्त्र है। प्राचीन काल में अनेकों देव- दानवों ने तपस्यायें करके मनोरथ पूरा करने के वरदान पाये हैं।
घिसने की रगड़ से गर्मी पैदा होती है। अपने को तपस्या के पत्थर पर घिसने से आत्म-शक्ति का उद्भव होता है। समुद्र को मथने से चौदह रत्न मिले। दूध के मथने से घी निकलता है। काम मन्थन से प्राणधारी बालक की उत्पत्ति होती है। भूमिः मन्थन से अन्न उपजता है। तपस्या द्वारा आत्म-मन्थन से उच्च आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि का लाभ प्राप्त होता है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है। अग्नि में तपाने से सोना निर्मल बनता है। तप से तपा हुआ मनुष्य भी पापमुक्त, तेजस्वी और विवेकवान बन जाता है। अपनी तपस्याओं में गायत्री तपस्या का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। नीचे कुछ पाप-नाशिनी और ब्रह्मतेज- वर्द्धिनी तपश्चर्याएँ बताई जाती हैं-
(१) अस्वाद तप
तप उन कष्टों को कहते हैं, जो अभ्यस्त वस्तुओं के अभाव में सहने पड़ते हैं। भोजन में नमक और मीठा या स्वाद की प्रधान वस्तुयें हैं। इनमें से एक भी वस्तु न डाली जाय तो वह भोजन स्वाद रहित होता है। प्राय: लोगों को स्वादिष्ट भोजन करने का अभ्यास होता है। इन दोनों स्वाद तत्वों को या इनमें से एक को छोड़ देने से जो भोजन बनता है, उसे सात्विक प्रकृति वाला ही कर सकता है। राजसिक प्रकृति वाले का मन उससे नहीं भरेगा। जैसे-जैसे स्वाद रहित भोजन में सन्तोष पैदा होता है, वैसे ही वैसे सात्विकता बढ़ती जाती है। सबसे प्रारम्भ में एक सप्ताह, एक मास या एक ऋतु के लिए इसका प्रयोग करना चाहिये। आरम्भ में बहुत लम्बे समय के लिए नहीं करना चाहिये। यह अस्वाद-तप हुआ।
(२) तितीक्षा तप
सर्दी या गर्मी के कारण शरीर को जो कष्ट होता है उसे थोड़ा-थोड़ा सहन करना चाहिये। जाड़े की ऋतु में धोती और दुपट्टा या कुर्ता दो वस्त्रों में गुजारा करना, रात को रुई का कपड़ा ओढ़कर कम्बल से काम चलाना, गरम पानी का प्रयोग न करके ताजे जल से स्नान करना, अग्नि पर न तपना, यह शीत सहन के तप हैं। पंखा, छाता और बर्फ का त्याग यह गर्मी की तपश्चर्या है।
( ३) कर्षण तप
प्रातःकाल एक-दो घण्टे रात रहे उठकर नित्यकर्म में लग जाना अपने हाथ से बनाया भोजन करना अपने लिये स्वयं जल भरकर लाना, अपने हाथ से वस्त्र धोना, अपने बर्तन स्वयं मलना आदि अपनी सेवा के काम दूसरों से कम से कम कराना। जूता न पहनकर खड़ाऊँ या चट्टी से काम चलाना। पलंग पर शयन न करके तख्त या भूमि पर शयन करना। धातु के बर्तन प्रयोग न करके पत्तल या हाथ भोजन करना, पशुओं की सवारी न करना, खादी पहनना, पैदल यात्रा करना आदि कर्षण तप हैं। इसमें प्रतिदिन शारीरिक सुविधाओं का त्याग और असुविधाओं को सहन करना पड़ता है।
(४) उपवास
गीता में उपवास को विषय विकार से निवृत करने वाला बताया गया है। एक़ समय अन्नहार और एक समय फलाहार आरम्भिक उपवास है। धीरे-धीरे इसकी कठोरता बढ़ानी चाहिये। दो समय फल, दूध, दही आदि का आहार इससे कठिन है। केवल दूध या छाछ पर रहना हो तो उसे कई बार सेवन किया जा सकता है। जल हर एक उपवास में कई बार अधिक मात्रा में बिना प्यास के भी पीना चाहिए। जो लोग उपवास में जल नहीं पीते या कम पीते हैं वे भारी भूल करते हैं। इससे पेट की अग्नि आँंतों में पड़े मल को सुखाकर गाँठें बना देती हैं। इसीलिये उपवास में कई बार पानी पीना चाहिये। उसमें नींबू, सोडा, शक्कर मिला लिया जाय तो स्वास्थ्य और आत्म-शुद्धि के लिये और भी अच्छा है।
(५) गव्य कल्प तप
शरीर और मन के अनेक विकारों को दूर करने के लिए गव्यकल्प अभूतपूर्व है। राजा दिलीप जब निस्सन्तान रहे तो उन्होंने कुल गुरु के आश्रम में गौ चराने की तपस्या पत्नी सहित की थी। नन्दिनी गौ को वे चराते थे और गौ-रस का सेवन करके ही रहते थे। गाय का दूध गाय का दही, गाय की छाछ, गाय का घी सेवन करना, गाय के गोबर के कण्डों से दूध गरम करना चाहिए। गौमूत्र की शरीर पर मालिश करके सिर में डालकर स्नान करना, चर्म, रोगों तथा रक्त-विकारों के लिये बड़ा लाभदायक है। गाय के शरीर से निकलने वाला तेज बड़ा सात्विक एवं बलदायक होता है, इसलिये गौ-चराने का भी बड़ा सूक्ष्म लाभ है। गौ के दूध, दही, घी, छाछ पर मनुष्य तीन मास निर्वाह करे तो उसके शरीर का एक प्रकार से कल्प हो जाता है।
(६) प्रदातव्य तप
अपने पास जो शक्ति हो उसमें से कम मात्रा में अपने लिये रखकर दूसरों को अधिक मात्रा में दान देना है। धनी आदमी धन का दान करते हैं। जो धनी नहीं हैं वे अपने समय, बुद्धि, ज्ञान, चातुर्य, सहयोग आदि को उधार दान देकर दूसरों को लाभ पहुँचा सकते हैं। शरीर का, मन का दान भी धन दान की ही भाँति महत्त्वपूर्ण है। अनीति उपार्जित धन का सबसे अच्छा प्रायश्चित यही है कि उसको सत्कार्य के लिये दान कर दिया जाय। समय का कुछ न कुछ भाग लोक सेवा के लिये लगाना आवश्यक है। दान देते समय पात्र और कार्य का ध्यान करना आवश्यक है। कुपात्र को दिया हुआ, अनुपयुक्त कर्म के लिये दिया गया दान व्यर्थ है। मनुष्येतर प्राणी भी दान के अधिकारी हैं। गौ, चींटी, चिड़ियाँ, कुत्ते आदि उपकारी जीव-जन्तुओं को भी अन्न-जल का दान देने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। स्वयं कष्ट सहकर, अभावग्रस्त रहकर भी दूसरों की उचित सहायता करना उन्हें उन्नतिशील, सात्विक, सद्गुणी बनाने में सहायता करना, सुविधा देना दान का वास्तविक उद्देश्य है। दान प्रशंसा में धर्म शास्त्रों का पन्ना-पन्ना भरा हुआ है।
उसके पुण्य के सम्बन्ध में अधिक क्या कहा जाय। वेद ने कहा हैं- ''सौ हाथों से कमाये और हजारों हाथों से दान करे।''
(७) निष्कासन तप
अपनी बुराइयों और पापों को गुप्त रखने से मन भारी रहता है। पेट में मल भरा रहे तो उससे नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, वैसे ही अपने पापों को छुपाकर रखा जाय तो यह गुप्तता रुके हुए मल की तरह गन्दगी और सड़न पैदा करने वाले समस्त मानसिक क्षेत्र को दूषित कर देती है। इसलिए कुछ ऐसे मित्र चुनने चाहिये जो काफी गम्भीर और विश्वस्त हों। उनसे अपनी पाप कथायें कह देनी चाहिए। अपनी कठिनाइयों, दुःख गाथायें, इच्छायें अनुभूतियाँ भी इसी प्रकार किन्हीं ऐसे लोगों से कहते रहना चाहिए जो उतने उदार हों कि उन्हें सुनकर घृणा न करें और कभी विरोधी हो जाने पर उन्हें दूसरों पर प्रकट करके हानि न पहुँचावें। यह गुप्त बातों का प्रकटीकरण एक प्रकार का आध्यात्मिक जुलाब है जिससे मनोभूमि निर्मल होती है।
प्रायश्चितों में ''दोष प्रकाशन'' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गौहत्या हो जाने का प्रायश्चित शास्त्रों ने यह बताया है कि मरी गौ की पूँछ हाथ में लेकर एक सौ गाँवों में वह व्यक्ति उच्च स्वर से चिल्लाकर यह कहे कि मुझसे गौ- हत्या हो गयी। इस दोष प्रकाशन से गौ-हत्या दोष छूट जाता है। जिसके साथ बुराई की हो उससे क्षमा माँगनी चाहिये, क्षतिपूर्ति करनी चाहिए और जिस प्रकार वह संतुष्ट हो सके वह करना चाहिये। यदि वह भी न हो तो कम से कम दोष प्रकाशन द्वारा अपनी अन्तरात्मा का एक भारी बोझ हल्का करना ही चाहिये। इस प्रकार के दोष प्रकाशन के लिए इस पुस्तक के लेखक को एक विश्वसनीय मित्र समझकर पत्र द्वारा अपने दोषों को लिखकर उनके प्रायश्चित तथा सुधार की सलाह प्रसन्नतापूर्वक ली जा सकती है।
(८) साधना तप
गायत्री का चौबीस हजार जप नौ दिन में पूरा करना सवालक्ष जप चालीस दिन में पूरा करना, गायत्री यज्ञ, गायत्री की योग साधनायें, पुरश्चरण, पूजन, स्तोत्र पाठ आदि साधनाओं से पाप घटता है और पुण्य बढ़ता है। कम पढ़े लोग गायत्री-चालीसा' का पाठ नित्य करके अपनी गायत्री भक्ति को बढ़ा सकते हैं और इस महामन्त्र से बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा तपो बल के अधिकारी बन सकते हैं।
(९) ब्रह्मचर्य तप
वीर्य रक्षा, मैथुन से बचना, काम विकार पर काबू रखना ब्रह्मचर्य व्रत है। मानसिक काम-सेवन शारीरिक काम सेवन की ही भाँति हानिकारक है। मन को काम क्रीड़ा की ओर न जाने देने का सबसे अच्छा उपाय उसे उच्च आध्यात्मिक एवं नैतिक विचारों में लगाये रहना है। बिना इसके ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती। मन को ब्रह्म में- सत् तत्व में लगाये रहने से आत्मोन्नति भी होती है, धर्म-साधन भी और वीर्य रक्षा भी। इस प्रकार एक ही उपाय से तीन लाभ कराने वाला यह तप गायत्री- साधना करने वालों कें लिए सब प्रकार उत्तम है।
(१०) चन्द्रायण तप
यह व्रत पूर्णमासी से प्रारम्भ किया जाता है। पूर्णमासी को अपनी जितनी पूर्ण खुराक हो, उसका सोलहवाँ भाग प्रतिदिन कम करते जाना चाहिए। जैसे अपना पूर्ण आहार एक सेर है तो प्रतिदिन एक छटाँक आहार कम करते जाना चाहिये। कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा जैसे १- १ कला नित्य घटता है, वैसे ही १- १ षोडसांश नित्य कम करते चलना चाहिए। अमावस्या और पड़वा को चन्द्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता। उन दो दिनों बिल्कुल भी आहार न लेना चाहिए। फिर शुक्लपक्ष की दौज को चन्द्रमा एक कला निकलता है और धीरे-धीरे बढ़ता है। वैसे ही १- १ षोडसांश बढ़ाते हुए पूर्णमासी तक पूर्ण आहार पर पहुँच जाना चाहिए। इस एक मास में आहार-विहार का संयम, स्वाध्याय, सत्संग में प्रवृत्ति, सात्विक जीवनचर्या तथा गायत्री-साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न रहना चाहिए।
अर्ध चन्द्रायण व्रत पन्द्रह दिन का होता है। उसमें भोजन का आठवाँ भाग आठ दिन कम करना और आठ दिन बढ़ाना होता है। आरम्भ में अर्ध चन्द्रायण ही करना चाहिए। जब एक बार सफलता मिल जावे तो पूर्ण चन्द्रायण के लिये कदम बढ़ाना चाहिए
(११) मौन तप
मौन से शक्तियों का क्षरण रुकता है, आत्मा- बल का संयम होता है, दैवी तत्वों की वृद्धि होती है, चित्त की एकाग्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रादुर्भाव होता है, बहिर्मुखी वृत्तियाँ अन्तमुरर्वी होने से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रतिदिन या सप्ताह में अथवा माँस में कोई नियत समय मौन रहने के लिये निश्चित करना चाहिए। कई दिन या लगातार भी ऐसा व्रत रखा जा सकता है। अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार मौन की अवधि निर्धारित करनी चाहिए। मौन काल का अधिकांश भाग एकान्त में, स्वाध्याय अथवा ब्रह्म चिन्तन में व्यतीत करना चाहिये।
मौन एक श्रेष्ठ तप साधना
वाणी और मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य जो भी कुछ सोचता और विचारता है, उसकी अभिव्यक्ति वाणी के माध्यम से करता है। भावनाएँ वाणी के द्वारा ही प्रकट होती हैं और अन्तराल की उत्कृष्टता-निकृष्टता का परिचय देती हैं। वासना, तृष्णा, अहंता आदि की ज्वालाएँ अन्दर ही अन्दर धधकती रहती हैं और जब-तब अवसर पाकर वाणी के माध्यम से बाहर फूट पड़ती हैं अथवा मानसिक शक्तियों को धुन की तरह चाटती-कुतरती रहती हैं। अध्यात्म साधनाओं में इसीलिए वाणी के संयम को मानसिक संयम के साथ सम्बद्ध रखा गया है और कहा गया है कि विचारणा, भावना और आकांक्षा पक्ष से मानसिक शाक्तियों का क्षरण रोका जाय, पर अभिव्यक्ति पक्ष से वाक् संचय न किया जाय, तो शक्ति संचय की साधना अधूरी एवं एकांगी रह जायेगी। इसलिए मानसिक संयम के साथ-साथ वाणी का संयम भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मौन साधना इसी की पूर्ति करती है।
मौन की गणना मानसिक तप के रूप में की गई है। गीताकार ने कहा है 'मन प्रसाद: सौमत्व्यं मौनमात्म विनिग्रह:।' अर्थात् मनकी प्रसन्नता, सौम्य शालीनता. मौन मनोनिग्रह और विचारों की शुद्धि मानसिक तप कहे जाते हैं। इससे न केवल एकाग्रता सधती है, वरन् शक्ति का अपव्यय भी रुकता है मानसिक संयम साधने में मौन का असाधारण महत्त्व है। शास्त्रों में इसके अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं। महर्षि व्यास की वह कथा प्रसिद्ध है, जिसमें महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ की रचना कर लेने के पश्चात् उनने गणेश जी से लेखन कार्य पूरा न होने तक एक शब्द भी न बोलने का कारण पूछा था। प्रत्युत्तर में गणेश जी ने कहा था यदि मैं बीच-बीच में बोलता जाता, तो आपका यह कार्य न केवल कठिन हो जाता, वरन् एक भार ही बन जाता। महर्षि रमण के बारे में प्रसिद्ध है कि वे सर्वथा मौन रहते हुए भी आगन्तुकों की समस्याओं का समाधान कर देते थे। सभी पूर्ण सन्तुष्ट होकर जाते और अपने प्रश्नों के उत्तर मौन वाणी से ही प्राप्त कर लेते थे। तभी तो मनीषियों ने मौन को पवित्रतमू विचारों का मन्दिर कहा है।
शरीर-क्रिया विज्ञानियों का कहना है कि शरीर के जिन कार्यों में सर्वाधिक शक्ति खर्च होती है, वह वाणी ही है। इसके संयम का महत्त्व न समझने वालों की प्राय: यही मान्यता होती है कि बोलने में क्या लगता है ? उन्हें यह ज्ञात नहीं कि बोलने में कितनी अधिक मानसिक शक्ति खर्च होती है। एक घण्टे लगातार बोलने पर व्यक्ति इतना थक जाता है मानो चार घण्टे तक शारीरिक श्रम किया हो। कारण वायतंत्र का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। अन्यान्य कार्य तो हाथ-पैर से भी किये जा सकते हैं और उन्हें करते समय ध्यान कहीं और भी रह सकता है, पर बोलते समय सारा ध्यान बोलने पर ही रखना पड़ता है। अन्यथा मुख से उच्चरित शब्द बकवास मात्र रह जाते हैं। अधिक बकवास मानसिक शक्तियों को नष्ट करती है, वरन् उससे आध्यात्मिक दृष्टि से भी हानियाँ ही हानियों होती हैं।
मनीषियों ने वाणी के अपव्यय को रोकना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी बताया है। मूर्धन्य मनोविज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि मौन से विचार शक्ति बढ़ती है। सुविख्यात विचारक जेम्स एलन अपनी कृति ''पॉवर्टी टु पीस'' में कहते हैं कि समस्त शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ शक्ति मौन की शक्ति है। जब वह उचित मार्ग में प्रयुक्त होती है, तो उन्नति एवं अम्युदयकारक होती है, किन्तु दुरुपयोग होने पर विनाशकारी दुष्परिणाम प्रस्तुत करती है। भाप, विद्युत आदि शक्तियों का दुरुपयोग हो, तो अनर्थ ही खड़े करेंगी। विचार सम्पदा के बारे में भी यही बात है। वह संसार में सबसे अधिक शक्तिशाली शक्ति है। जिन्हें मन को वश में रखना एवं अपने आप पर नियंत्रण साधना हो, उन्हें नियमित रूप से कुछ समय के लिए मौन रहना चाहिए। एकाग्रता सम्पादन के लिए इससे बढ़कर कोई अन्य सरल उपाय है नहीं।
सामान्य जीवन में भी कार्य करते समय बोलने और मौन रहने का अन्तर समझा जा सकता है। जो व्यक्ति मौन रहते हैं, उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत अधिक स्थिर तथा संतुलित रहती है। संतुलित विचारों वाला हानि-लाभ, हित-अनहित के प्रसंगों पर बड़े धैर्यपूर्वक सोच समझ सकता है। संकट या आपत्ति के समय मौन द्वारा प्रखर की हुई विचार शक्ति बड़ी सहायक सिद्ध होती है। कभी भी देखा जा सकता है कि जब मनुष्य किसी गहन प्रसंग पर सोचना चाहता है, तब वह एकान्त की तलाश करता है। न तो वह उस समय बोलता है और न किसी से बात ही करता है। बोलना और विचार करना दोनों क्रियाएँ एक साथ नहीं हो सकती। विचारक जितने गहरे मौन में उतरता जाता है, समस्याओं का सार्थक हल खोज लाता है। महात्मा गाँधी को जब कभी किसी विकट समस्या पर विचार करना होता था, तब वे कई दिनों तक मौन व्रत धारण कर लिया करते थे। सप्ताह में एक दिन तो वे मौन रखते ही थे, उनका कहना था कि मौन से आत्मिक बल बढ़ता है। आत्मिक बल बढ़ाने वाले मौन के साथ और बातें भी जुड़ी होती हैं। मौन को उनने सर्वोत्तम भाषण बताया है और कहा है कि अगर बोलना ही पड़े, तो कम बोलना चाहिए। यदि एक शब्द से काम चल जाय, तो दूसरा मुँह से नहीं निकलना चहिए।
''क्राइस्ट इन साइलेंस'' नामक कृति में सी० एफ० एण्ड्रज, कहते हैं कि महान व्यक्ति वही होते हैं, जो यह जान लेते हैं कि आध्यात्मिक शक्ति-भौतिक शक्ति से अधिक बलवान है। आत्मशक्ति को जाग्रत करने का सबसे अच्छा और सरल उपाय उनने कुछ समय के लिए मौन होकर ईश्वर प्रार्थना को बताया है। उनके अनुसार मौन की गुप्त शक्ति असीम है। वाणी का संयम तो इससे होता ही है, मानसिक शक्ति का अनावश्यक क्षरण रुकता और एकाग्रता बढ़ती है। उच्चस्तरीय विचार प्रवाह शांत-स्थिर मन: स्थिति में ही उठते और अभ्युदय का, प्रगति का आधार खड़ा करते हैं। मौन की महिमा का गान करते हुए इमर्सन कहते हैं ''आओ हम चुप रहें, ताकि फरिश्तों के वार्तालाप सुन सकें।''
वस्तुत: मौन हृदय की भाषा है। मुँह से एक शब्द कहे बिना भी अपनी भाव-संवेदना व्यक्त की जा सकती है और जितना असर वाणी का होता है, उसमें कहीं अधिक प्रभाव वह उत्पन्न कर सकती है। सुप्रसिद्ध मनीषी एडवर्ड इवरेट हेल अपनी रचना में एक छोटी बालिका के सम्बन्ध में लिखते हैं कि वह पक्षियों और वन्य जीवों के साथ खेला करती थी और बीच-बीच में पास में बने मन्दिर में प्रार्थना करने के लिए दौड़ जाया करती थीं। प्रार्थना करने के पश्चात् बिल्कुल शान्त होकर चुपचाप कुछ देर के लिए वहीं बैठी रहती। पूछने पर कारण बताते हुए कहती कि- "मैं देर तक चुपचाप इसलिए बैठी रहती हूँ ताकि यह सुन सकूँ कि ईश्वर मुझसे कुछ कहना तो नहीं चाहता।" शान्त और एकाग्र मन से ही उससे वार्तालाप संभव है। मौन रहकर ही अपने अन्तराल में उतरने वाले ईश्वर के दिव्य संदेशों प्रेरणाओं को सुना समझा जा सकता है।
मौन के अभ्यास से न केवल अनावश्यक बोलने की प्रकृति पर अंकुश रखने की क्षमता आ जाती है, वरन् उसके विकसित होने पर वाणी के संतुलन के अनेकानेक प्रयोग करने की स्थिति भी पैदा हो जाती है। अत: मन: संयम के साधक को मौन साधना का कुछ न कुछ क्रम बनाकर रखना ही चाहिए। मौन का अर्थ यह नहीं है कि मुँह से कुछ न बोलते हुए हाथ चलाने या लिखकर बातें करने का क्रम अपनाया जाय। उससे मौन साधना के सत्यपरिणाम प्राप्त नहीं होते। शब्दों का उच्चारण भले ही न किया जाता हो, पर बोलने की वृत्ति दूसरी, तरह से व्यक्त होती रहे, तो जो शक्ति बोलने में खर्च होती थी, वह उस विषय में खर्च होने लगती है। ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाकर किया गया मौन ही असाधारण प्रतिफल प्रदान करता है। मौन का अर्थ आन्तरिक है। वाह्य क्रियाओं का अपने ऊपर प्रभाव न होने देना, स्वयं को उनसे निरपेक्ष रखने का नाम मौन है। मौन द्वारा बहिर्मुखी दिशा में तथा विचार संयम द्वारा आन्तरिक दिशा में मानसिक शक्तियों का अपव्यय होने से रोक लिया जाय, तो फिर इन्द्रिय संयम आसान हो जाता है।
वाचालता पर अंकुश लगाने के लिए मौन साधना का अभ्यास उपयुक्त माना गया है। थोड़ा अभ्यास थोड़ा लाभ दे सकेगा यह सच है। जितना गुड़ डाला जाय उतना ही मीठा होता है। जितना दाम खर्चा जाय उतना ही सामान मिलता है। जितना बीज बोया जाय उसी अनुपात से फसल काटने और उतना ही कोठा भरने का अवसर मिलता है। मौन मात्र दो घण्टे रोज साधा जाय या सप्ताह में मात्र दो घण्टे का क्रम रखा जाय तो उतना प्रयास भी निरर्थक नहीं जाता है। वाणी का असंयम रुकने से जीवनी शक्ति के अपव्यय से होने वाली क्षति में कमी आती है। बचत से सम्पन्नता बढ़ती है और आड़े समय में काम आती है। मौन साधना की यत्किंचित् प्रयास भी हर किसी के लिये लाभदायक सिद्ध होता है। उससे जीवनी शक्ति का भण्डार बढ़ता चला जाता है। भले ही वह सीमित प्रयास के कारण स्वल्प मात्रा में ही उपलब्ध क्यों न हो ?
जिन्हें अवसर और आवश्यकता है, उन्हें मौन की अवधि भी बढ़ानी चाहिए और उसमें गम्भीरता भी लानी चाहिए। इस आधार पर मौन मात्र संयम ही नहीं रखता वरन् तपश्चर्या स्तर तक जा पहुँचता है और साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष चरितार्थ कर दिखाता है। सामान्यता मौन व्रत लेने वाले कुछ घण्टे जीभ को विराम देते हैं पर उनकी कल्पनाएँ इच्छाएँ उछलती ही रहती हैं। इसे उनकी भावभंगिमा को देखकर सहज जाना जा सकता है। मन की चंचलता शरीरगत चेष्टाओं से परिलक्षित होती है। अपना अभिप्राय संकेतों कें माध्यम से प्रकट करते हुए उन्हें देखा जा सकता है। आँखें चारों ओर घूमती हैं। जिस-तिस वस्तु को देखने में अभिरुचि का होना स्पष्ट प्रकट होता है। शंका समाधान चलता रहता है। पूछने बताने का काम जीभ से तो नहीं होता, पर कागज कलम, स्लेट, पैन्सिल के माध्यम से वार्त्तालाप प्राय: वैसा ही चलता रहता है जैसा कि बिना मौन वाले अपना कथन श्रवण चालू रखते हैं। मात्र जिह्वा को विराम मिलना भी किसी हद तक अच्छा तो है, पर उतने भर से वह लाभ नहीं मिलता जो मौन से तपश्चर्या के रूप में साधने पर हस्तगत होता है। इस अनुबंध में कल्पनाओं, कामनाओं, इच्छाओं और चेष्टाओं पर भी अंकुश लगाना पड़ता है। यह न किया जा सके तो मात्र जिह्वा को विराम देकर उसे थकने से बचाने का उपाय किया जाय। मन की चंचलता, इच्छा कामना, चेष्टा यथावत् बनी रहे तो वह मौन नहीं सधता उसे तपश्चर्या कहते हैं और उसके सहारे दिव्य वाणियाँ उभरती और अपने-अपने चमत्कार दिखाती हैं।
जिह्वा से उच्चरित होने वाली वाणी को ''वैखरी'' कहते हैं। इसमें मुँह बोलता है और कान सुनते हैं। मस्तिष्क उसका निष्कर्ष निकालता है। इसके उपरान्त तीन वाणियाँ और हैं। मध्यमा, परा और पश्यन्ती। मध्यमा में मन बोलता है उसका परिचय चेहरे की भावभंगिमा से अंग संचालन पर आधारित संकेतों से समझा जा सकता है। परा अन्तःकरण से भाव संवेदनाओं के रूप में प्रकट होती है। उसे प्रसन्नता, खिन्नता उदासी के रूप में क्रियान्वित होते देखा जाता है। इसका प्रभाव एक व्यक्ति से उठ कर दूसरे में प्रवेश करता है। इसके सहारे एक दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं और उस सम्प्रेषण की प्रतिक्रिया बटोर कर प्रेषक के पास वापस लौटते हैं। इसे मौन वार्तालाप भी कह सकते हैं इसमें चेहरे को देखकर अन्तराल को समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।
पश्यन्ती विशुद्धतः आध्यात्मिक है। इसे देव वाणी भी कह सकते हैं। इसे आकाश वाणी, ब्रह्म वाणी भी कह सकते हैं। यह परा चेतना के साथ टकराती है और वापस लौट कर उन समाचारों को देती है जो अदृश्य जगत की विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में सक्रिय रहते हैं। इसे अदृश्य दर्शन भी कहते हैं। इसी माध्यम से देवतत्वों की परा चेतना के साथ सम्भाषण एवं आदान- प्रदान होता है।
ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती हैं। उनमें देखने, सूंघने, सुनने चखने, स्पर्श की सरसता अनुभव होती है। यह भौतिक रसास्वादन है। पर यदि इन पंच देवों को साधना द्वारा सिद्ध कर लिया जाय तो वे अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में विकसित होती और अलौकिक अनुभूतियाँ प्रस्तुत करती हैं। दूरश्रवण, दूरदर्शन, भविष्य ज्ञान, जन्मान्तर बोध आदि का धनी बना जा सकता है। जिह्वा है तो एक पर वह दुहरा काम करती है। वह चखने के लिए रसना रूप में और बोलने के लिए वाणी रूप में प्रयुक्त होती है इसे यदि मौन एवं अस्वाद के आधार पर दोनों रूपों में सिद्ध कर लिया जाय तो अन्तरंग, और बहिरंग स्तर की दुहरी विभूतियों का रसास्वादन किया जा सकता है।
जिह्वा की दूसरी सिद्धि है- शाप और वरदान देने की क्षमता। साधारण वाणी जानकारियाँ देने भर के लिए काम आती है, पर तप, भूत जिह्वा सत्पत्रों पर सत्परिणामों की वरदान रूप में वर्षा करती है। यदा-कदा ऐसा भी आवश्यक हो जाता है कि बढ़ते हुए अनाचार को रोकने थामने के लिए उनके मार्ग में अवरोध खड़ा किया जाय। अभिशाप इसी को कहते हैं। मौन साधना द्वारा साधित की हुई जिह्वा उपरोक्त सभी प्रयोजनों की पूर्ति करती है।
बहिमौंन और अन्तमौंन प्रख्यात मौन वह जिसमें वाणी से बोलना बन्द कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिख कर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन साधना उनके लिए अच्छा है जिन्हें बहुत बोलने की शेखीखोरी की, गप्पबाजी करने निन्दा चुगली किये बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाने, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किये बिना चैन नहीं पड़ता।
इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की इन्द्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाय और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाय कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुत: जो कुछ कहा जाय, वह शब्द वेधी वाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरान्त कई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वाविदित है। थकान दूर करने हृदयाघात रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अत: जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाय तो उसकी कुटवें छुटती हैं और विश्राम के उपरान्त नये सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है।
पूजा प्रार्थना मन्त्रोचारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं होती न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुख मार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का शुभारम्भ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरान्त ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना सम्भव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अन्त में कुल्ला करने आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख क्षेत्र में अधिकाधिक रखा जाता है। इससे पाचन तन्त्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती है। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचन तन्त्र की शुद्धता होती है और उष्णता उत्तेजना दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है।
अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहार शुद्धि का भी ध्यान रखा जाय। जिह्वा को ज्ञानेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कमेंन्द्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेन्द्रिय बन जाती हैं। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहार शुद्धि का ध्यान रखना भी नितान्त आवश्यक है।
उपवास में दूध-छाछ, रस, रसादि का प्रयोग किया जाय। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलम्बन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वा शुद्धि के लिए पानी में नीबू डालकर उसके कुल्ले प्रात: मध्याह्म सायंकाल तो करने ही चाहिए।
यह बहिमौंन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अन्तमौंन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। वहिमौंन केवल ब्राह्य जीवन को प्रभावित करता है। इसीलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अन्तर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है।
जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इन्द्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अन्तरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र, विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान धारण का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुजांइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए कम बनता है न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत भक्ति का सुयोग बने ही कैसे ? ब्रह्यरन्ध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में सम्भव नहीं और न कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र बेधन, पंचकोशें का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एक दूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शान्त चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्मौंन का अभ्यास किया जाय। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल लोलुप और अस्त व्यस्त होती है उसी प्रकार मन:क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केन्द्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अन्तमौंन बनता है। पर यह कहने में जितना सरल है उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता। तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्माण्ड मध्य ब्रह्यरन्ध्र के लिए करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाय तो उसका कथानक कभी कहीं से, कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत पाठ आदि के सम्बन्ध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रवृति है वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी विचार चाहे देवताओं के हों या अवतारों के हों, इतिहास के हों और अपना सुझाव विचार मन में आते ही रहेगें। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अन्तमौंन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिव ताण्डव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यव्रत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारण भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आपमें ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिव ताण्डव, इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यह बात आत्म-ज्योति से ब्रह्म रन्ध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है। पर अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उस अयवयों के विखरने की आशंका रहेगी। इस प्रकार वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को वास और अंतमौंन की तप साधना कुछ घंटे की नित्यप्रति करनी चाहिए। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना है।
(१२) अर्जन तप
विद्याध्ययन, शिल्प-शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएँ छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है केवल बचपन में ही नहीं, वृद्धावस्था और मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में सदैव अर्जन तप करते रहने का प्रयत्न रहना चाहिए। साल में थोड़ा सा समय तो अवश्य ही इस तपस्या में लगाना चाहिये, जिससे अपनी तपस्याएँ बढ़ती चलें और उनके द्वारा अधिक लोक-सेवा करना सम्भव हो सके।
सूर्य की बारह राशियाँ होती हैं। गायत्री के यह बारह तप हैं। इनमें से जो तप, जब, जिस प्रकार सम्भव हो अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाते रहना चाहिये। ऐसा भी हो सकता है कि वर्ष के बारह महीने में एक-एक महीना एक-एक तप करके एक वर्ष पूरा तप-वर्ष बिताया जाय। सातवें निष्कासन तप में एक दो बार विश्वस्त मित्रों के सामने प्रकटीकरण हो सकता है। नित्य तो अपनी डायरी में एक माँस तक अपनी बुराइयाँ लिखते रहना चाहिए और उन्हें पथ-प्रदर्शक को दिखाना चाहिए। यह क्रम अधिक दिन लागू रखा जाय तो और भी उत्तम है। महात्मा गाँधी सावरमती आश्रम में अपने आश्रमवासियो की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे।
अन्य तपों में प्रत्येक को प्रयोग करने के लिये अनेकों रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी- थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन कष्टसाध्य साधन करना भी सुलभ हो जाता है |
बहिमौंन और अन्तमौंन प्रख्यात मौन वह जिसमें वाणी से बोलना बन्द कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिख कर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन साधना उनके लिए अच्छा है जिन्हें बहुत बोलने की शेखीखोरी की, गप्पबाजी करने निन्दा चुगली किये बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाने, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किये बिना चैन नहीं पड़ता।
इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की इन्द्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाय और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाय कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुत: जो कुछ कहा जाय, वह शब्द वेधी वाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरान्त कई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वाविदित है। थकान दूर करने हृदयाघात रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अत: जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाय तो उसकी कुटवें छुटती हैं और विश्राम के उपरान्त नये सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है।
पूजा प्रार्थना मन्त्रोचारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं होती न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुख मार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का शुभारम्भ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरान्त ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना सम्भव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अन्त में कुल्ला करने आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख क्षेत्र में अधिकाधिक रखा जाता है। इससे पाचन तन्त्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती है। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचन तन्त्र की शुद्धता होती है और उष्णता उत्तेजना दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है।
अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहार शुद्धि का भी ध्यान रखा जाय। जिह्वा को ज्ञानेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कमेंन्द्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेन्द्रिय बन जाती हैं। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहार शुद्धि का ध्यान रखना भी नितान्त आवश्यक है।
उपवास में दूध-छाछ, रस, रसादि का प्रयोग किया जाय। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलम्बन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वा शुद्धि के लिए पानी में नीबू डालकर उसके कुल्ले प्रात: मध्याह्म सायंकाल तो करने ही चाहिए।
यह बहिमौंन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अन्तमौंन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। वहिमौंन केवल ब्राह्य जीवन को प्रभावित करता है। इसीलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अन्तर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है।
जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इन्द्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अन्तरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र, विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान धारण का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुजांइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए कम बनता है न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत भक्ति का सुयोग बने ही कैसे ? ब्रह्यरन्ध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में सम्भव नहीं और न कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र बेधन, पंचकोशें का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एक दूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शान्त चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्मौंन का अभ्यास किया जाय। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल लोलुप और अस्त व्यस्त होती है उसी प्रकार मन:क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केन्द्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अन्तमौंन बनता है। पर यह कहने में जितना सरल है उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता। तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्माण्ड मध्य ब्रह्यरन्ध्र के लिए करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाय तो उसका कथानक कभी कहीं से, कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत पाठ आदि के सम्बन्ध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रवृति है वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी विचार चाहे देवताओं के हों या अवतारों के हों, इतिहास के हों और अपना सुझाव विचार मन में आते ही रहेगें। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अन्तमौंन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिव ताण्डव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यव्रत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारण भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आपमें ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिव ताण्डव, इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यह बात आत्म-ज्योति से ब्रह्म रन्ध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है। पर अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उस अयवयों के विखरने की आशंका रहेगी। इस प्रकार वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को वास और अंतमौंन की तप साधना कुछ घंटे की नित्यप्रति करनी चाहिए। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना है।
(१२) अर्जन तप
विद्याध्ययन, शिल्प-शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएँ छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है केवल बचपन में ही नहीं, वृद्धावस्था और मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में सदैव अर्जन तप करते रहने का प्रयत्न रहना चाहिए। साल में थोड़ा सा समय तो अवश्य ही इस तपस्या में लगाना चाहिये, जिससे अपनी तपस्याएँ बढ़ती चलें और उनके द्वारा अधिक लोक-सेवा करना सम्भव हो सके।
सूर्य की बारह राशियाँ होती हैं। गायत्री के यह बारह तप हैं। इनमें से जो तप, जब, जिस प्रकार सम्भव हो अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाते रहना चाहिये। ऐसा भी हो सकता है कि वर्ष के बारह महीने में एक-एक महीना एक-एक तप करके एक वर्ष पूरा तप-वर्ष बिताया जाय। सातवें निष्कासन तप में एक दो बार विश्वस्त मित्रों के सामने प्रकटीकरण हो सकता है। नित्य तो अपनी डायरी में एक माँस तक अपनी बुराइयाँ लिखते रहना चाहिए और उन्हें पथ-प्रदर्शक को दिखाना चाहिए। यह क्रम अधिक दिन लागू रखा जाय तो और भी उत्तम है। महात्मा गाँधी सावरमती आश्रम में अपने आश्रमवासियो की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे।
अन्य तपों में प्रत्येक को प्रयोग करने के लिये अनेकों रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी- थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन कष्टसाध्य साधन करना भी सुलभ हो जाता है |