Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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पाँच कोशों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि
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पांच कोश मानवी चेतना के ही पाँच स्तर हैं। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के पाँच कलेवर हैं- (१) अन्नमय कोश (२) प्राणमय कोश (३) मनोमय कोश (४) विज्ञानमय कोश (५) आनन्दमय कोश। आत्मा- परमात्मा के मध्य अगणित आंदान- प्रदान इन्हीं पांच कोशों के द्वारा होते हैं। जो व्यक्ति जितने अधिक कोशों पर अधिकार कर लेता है- वह शक्तिहीनता तथा तुच्छता से उतना ही ऊपर उठता जाता है। पांचों कोशों पर अधिकार कर लेने वाला व्यक्ति देव- पुरूषों की श्रेणी में विराजता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह जो चाहे, वह करने लगता है। यह सत्य है कि देवसत्ताओं की तरह वह भी उन कामों को सरलता से सम्पन्न कर सकता है, जिन्हें सामान्य व्यक्ति असम्भव ही माने रहता है। पर वह स्वेच्छा चारी नहीं हो जाता।
देवसत्ताऐं भी सार्वभौम नियम व्यवस्था के ही अनुसार कार्य करती है। उस श्रेणी तक पहुँचे हुए महापुरूष की भी कोई 'वैयक्तिक इच्छा' नहीं रह जाती। वह शाश्वत सत्ता की नियम व्यवस्था से एकाकार हो जाता है। इसीलिए वह सामान्यतः असम्भव लगने वाले कार्य कर सकता तथा अदृश्य प्रतीत होने वाले दृश्य देख सकता है। यह चेतना धरातल को उठाकर समष्टि चेतना से तादात्मय स्थापित कर लेने की स्थिति है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में तथा उससे परे भी, सर्वशू चेतना- प्रवाह विद्यमान है। इस चेतना की अनन्त परतें हैं। प्रत्येक चेतना स्तर अपने ढंग का अनूठा है। सामान्य मनुष्य जिस चेतना धरातल का स्पन्दन ग्रहण कर पाने में अक्षम हो, वहाँ चेतना है ही नहीं, यह बात तार्किक दृष्टि से तो मान्य नहीं ही है, आधुनिक पदार्थ विज्ञानी भी अब इसी निष्कर्ष पर पहुँच चुके हं कि चेतना के अनन्त समुद्र में हमारी पैंठ अत्यन्त नगण्य है।
चेतना का विशाल सागर इस ब्रह्माण्ड में विस्तृत है। उसी ने पदार्थ को उत्पन्न किया है। पदार्थ भौतिक विज्ञानी ने पदार्थों में ही सत्य को सन्निहित मान सत्यान्वेषण प्रारम्भ किया और अब वह प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तरों में प्रवेश करता हुआ विस्मित हो उठा है। पदार्थ की ही सत्ता सन्दिग्ध हो उठी है और अपना सम्पूर्ण बोध ही एक भ्रम या आभास मात प्रतीत होने लगा है अभी हम जो मानते हैं, वह सब हमारे बोध की परिधि में सिमटे सृष्टि रूपों की झलक मात्र है अर्थात उसे आभास ही कहा जा सकता है, सत्य नहीं। यह आभास हमारे लिए ज्ञात- चेतना धरातलों की परिधि में बुद्ध है। यदि किसी प्रकार हमारी चेतना एक सर्वथा नए आयाम को छू ले, तो अभी हमारा जो भी बोध है, वह तब पूरी तरह बदल ही जाएगा। जिसे आज सर्वथा सत्य मान रहे हैं, कल वहीं एक भ्रम लगने लगेगा।
आइन्स्टाइन ने चेतना के इसी आयाम को, "बोध" के नए धरातल को 'चतुर्थ आयाम' की संज्ञा दी थी। आप वैज्ञानिक को 'चतुर्थ आयाम सम्बन्धी अनेक साक्ष्य प्राप्त हो रहे हैं।
चतुर्थ आयाम की अवधारणा से अवगत होने के लिए उसे यों समझा जा सकता है- हमारा सम्पूर्ण बोध तीन आयामों तक सीमित है। जो कुछ भी हम देखते- जानते, समझते- सोचते हैं, वह त्रिआयामीय वस्तु- जगत से सम्बन्धित होता है। ए तीन आयाम हैं- पहला लम्बाई, दूसरा चौडा़ई तथा तीसरा मोटाई, गहराई अथवा ऊँचाई। यह तो हो सकता है कि किसी वस्तु का कोई आयाम अधिक हो कोई कम। जैसे किसी सन्दूक की लम्बाई, चौडा़ई तथा ऊँचाई तीनों ही अधिक होती हैं, किन्तु कागज की मात्र लम्बाई- चैडा़ई ही अधिक होती है, जबकी किसी धूलिकण के तीनों आयाम बहुत छोटे होते हैं। ए तीनों आयाम देश या 'स्पेश' में होते हैं। आइन्स्टाइन के अनुसार चौथा आयाम है टाइम या काल।
सामान्यतः तीन आयामों तक ही हमारा बोध- क्षेत्र है। चतुर्थ आयाम का बोध होते ही हमारे सामने ज्ञान का एक अनन्त क्षेत्र खुल सकता है। तब यह संसार एक सर्वथा भिन्न रूप से नजर आने लगेगा। ऐसा बहुत कुछ जिसे हम यथार्थ और एक भ्रान्ति मात्र है, यह स्पष्ट हो जाएगा।
इसे क्रमशः इस तरह समझा जा सकता है- एक बिन्दु को लें। यद्यपि प्रत्येक बिन्धु कुछ न कुछ स्थान घेरता ही है। गणित में बिन्दु वस्तुतः उसे ही कहते हैं, जिसका कोई स्थान तो हो, पर आकार न हो। अब कोई १० सेन्टीमीटर लम्बी रेखा को लें। इस रेखा में असंख्य बिन्दु समाहित हो सकते हैं, क्योंकि बिन्दुओं का तो कोई 'साइज' या आकार होता नहीं। यह १० सेन्टीमीटर लम्बी रेखा, 'स्पेस' एक ही दिशा 'लम्बाई' का प्रतिनिधित्व करती है। यह एक आयाम हुआ। एक वर्ग जिसमें लम्बाई व चौडा़ई दोनों हैं, पर गहराई मोटाई या ऊँचाई नहीं, उसमें लम्बाई और चौडा़ई के दो आयाम हुए। जैसे किसी कागज के पन्ने की ऊपरी सतह। जबकि किसी कमरे में जिसमें लम्बाई, चैडा़ई, ऊँचाई तीनों होती हैं, तीनों आयाम उपस्थित रहते हैं। किसी सतह पर नाली में रहने वाले दो ऐसे कीडो़ं की कल्पना कीजिए जो सिर्फ एक ही आयाम लम्बाई जानते हों। चौडा़ई भी कोई वस्तु होती है, यह जानते ही न हों। इसका अर्थ है कि यदि वे संयोग वश आमने सामने आ पड़ते हैं, तो वे एक दूसरे से बचकर नहीं निकल सकते क्योंकि अगल- बगल जैसी कोई चीज वे जानते ही न होंगे। वे तो बस उसी रेखा में उसी सीध में या तो आगे जा सकते हैं या पीछे आ सकते हैं। वही उनका संसार है।
किसी पुस्तक का पृष्ठ यदि चेत हो उठे, पर उसका बोध क्षेत्र लम्बाई और चौडा़ई इन दो ही आयामों तक सीमित हो तो वह उसी पुस्तक के दूसरे पृष्ठों के अस्तित्व को कभी भी नहीं जान सकता।
अपने त्रिआयामीय बोध- सामर्थ्य के कारण जब हम किसी छाया चित्र को देखते हैं, तो उसमें गहराई की स्वयं ही कल्पना कर उस चित्र को समझ लेते हैं। जबकि सामान्यतः यदि किसी कुत्ते को उसका या उसके स्वामी का छाया चित्र दिखाया जाय तो यह उसके लिए अर्थहीन होगा। उस पर इसकी कोई प्रतिक्रिया न होगी। लेकिन उस चित्र में गति आ जाने पर वही कुत्ता प्रतिक्रिया करेगा। क्योंकि तब जैसे उसकी चेतन में कोई स्मृति कौंध जाती है। गति का नया घटक स्थित को बदल देता है। चलचित्र आदि को देखकर इसलिए कुत्ता भौंकने लगता है।
दो आयामों वाले चित्रों को देखने की अभ्यस्त हमारी जागृत मनश्चेतना त्रिविमितीय स्तर के छाया चित्रों को देखकर किस तरह विभ्रान्त हो उठती है, यह 'होलोग्राफी' के जानकर लोगों को विदित है। लेसर किरणों की कृपा से 'होलोग्राफी' के आधार पर त्रिविमितीय सिनेमाओं का निर्माण कई विकसित देशों में प्रारम्भ भी हो चुका है, जहाँ पर्दे पर मनुष्य, मोटर, घोडे़, रेलगाडी़, भालू, शेर आदि यथार्थवत चलते, दौड़ते दिखाई पड़ते हैं। और अनब्यस्त सिनेमा दर्शक प्रारम्भ में भ्रमित हो जाते हैं।
इस प्रकार तीसरे आयाम का ही नए सन्दर्भ में नवीन बोध जब हमें विस्मित- विमुग्ध कर सकता है, तब चतुर्थ आयाम की जानकारी तो पूरे बोध क्षेत्र को ही उलट पुलट देगी और हमारी वर्तमन निर्विवाद धारणाऐं भी जड़ मूल से उखड़ जाएगी।
आइन्स्टाइन ने जब सर्व प्रथम सापेक्षता सिद्धान्त की व्याख्या की तो सम्पूर्ण विश्व में केवल बारह वैज्ञानिक उसे समझ पाए, ऐसा कहा जाता है। फिर जब प्रोफेसर स्मिथ ने सर्वप्रथम व्याख्या की, तो उसे बारह वैज्ञानिक समझ पाए, किन्तु प्रोफेसर स्मिथ की व्याख्या तो एक भी व्यक्ति नहीं समझ पाया। अँग्रेजी में इस सन्दर्भ में एक हास्य कविता भी है, जिसका मनोरंजक भावानुवाद यों होगा-
"एक थी लड़की - नाम जोन ब्राइट,
चलती अति तीव्र गति से जैसे हो 'लाइट'
एक दिन उमंग में, प्रकाश से भी प्रखरतर
वेग से चली वह आइन्स्टाइनी ढंग से,
लौटकर आई तो थी पीछली "नाइट"।"
किन्तु आज यह बात विनोद नहीं रह गई। काल की गति पीछे की दिशा में भी लौट सकने की बात अब वैज्ञानिक जगत में सर्व स्वीकृत होती जा रही है। असीम वेग से चलेने वाले कणों की जानकारी बढ़ती जा रही है। १९६७ में गेराल्ड फोनवर्ग ने काल्पनिक मात्रा के इन कणों को 'टेकियान' नाम दिया। टेकियान का 'प्रॉपर मास' काल्पनिक होता है एवं उनका वेग प्रकाश वेग से भी ज्यादा होता, प्रकाश वेग से कम तो नहीं हो सकता। यद्यपि अभी ऐसे उपकारणों का अभाव है, जिनके द्वारा टेकियान को प्रदर्शित किया जा सके, किन्तु वैज्ञानिकों द्वारा यह तथ्य मान्य हो चुका है कि 'टेकियान विद्यमान है।
१९६८ में टेक्सास विश्व विद्यालय, संयुक्त राज्य अमरीका में, अनुसन्धान कार्य कर रहे डा० सुदर्शन ने फोनवर्ग की परिकल्पना को सही सिद्ध कर दिया। ए तो हुए प्रकाश वेग से अधिक तीव्रगामी टेकियान, जिन पर अनुसन्धान जारी है। प्रकाश वेग से गतिमानकणों को 'लक्सन' कहते हैं, जिनका 'प्रॉपर मास' शून्य रहता है। फोटोन, न्यूट्रिनों, ग्रेवीटीन आदि ऐसे ही कण हैं।
प्रकाश की गति वाले अनेक कण तो अस्थाई- अस्थिर होते हैं, किन्तु फोटोन, न्योट्रिनों व एन्टिन्यूट्रिनो स्थायी होते हैं। इन कणों की खोज ने काल सम्बन्धी एक नई अवधारणा को वैज्ञानिकों के बीच प्रतिष्ठित कर दिया और वे मानने लगे हैं कि समय मात्र आगे ही नहीं जाता, पीछे की तरफ भी लौट सकता है। फोटोन कणों का वेग- प्रकाश के बराबर होता है, अतः उनके लिए तो काल गति शून्य है। भूत, वर्तमान और भविष्य में कोई अन्तर नहीं है। प्रकाश वेग से अधिक गति वाले कणों के लिए समय की गति हमारी परिचित भावना के सर्वथा विपरित हो जाती है। हम अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य से वर्तमान से अतीत में होती है। यही है काल के चतुर्थ आयाम की आइन्स्टाइन की धारणा।
जब अतीत में लौटना भी सम्भव हो जाएगा, तो हमारा वर्तमान बोध किस प्रकार अस्त- व्यस्त हो जाएगा, यह हम भली- भांति समझ सकते हैं, उदाहरणार्थ हमारी वर्तमान धारणा है कि राम एवं कृष्ण, महात्मा गांधी, आदि मर गए। लेकिन तब हम स्पष्ठ उन्हें उसी रूप में देख सकेंगे, जैसे कि वे उस समय थे। इससे जन्म- मृत्यु की भौतिक वादी धारणा पूरी तरह ध्वस्त हो जायेगी और भारतीयों की जो मान्यता अभी जन सामान्य के लिए मात्र एक विश्वास के रूप में ही है, वह बिल्कुल प्रत्यक्षतः सत्य दिखाई देगी। तब यह स्पष्ट हो जाएगा कि जन्म या मृत्यु चरम अर्थों में एक भ्रान्ति मात्र है। यह हुआ काल के चतुर्थ आयाम की जानकारी का एक प्रभाव परिणाम। हमारे सम्पूर्ण बोध क्षेत्र में ऐसी ही उथल- पुथल मच जाएगी। जिसे नष्ट होना मान बैठते हैं वह रूप, परिवर्तन मात्र प्रतीत होगा, जिसे आज अपना बेटा, अपनी पत्नी मानते हैं यह अतीत का अपना भाई, मित्र या शत्रु भी है। यह स्पष्ट दिखजाने पर रिश्तों के प्रति वर्तमान दुराग्रही मोह टूट जायेगा, क्योंकि वह एक मूर्खता पूर्ण भ्रान्ति मात्र है, यह स्पष्ट हो जाएगा।
यह सब अत्यन्त निकट है। रूसी वैज्ञानिक एलेक्जेन्डर बोलेगोव का कहना है कि यह सुनिश्चित सम्भावना है। उनके अनुसार 'आर्कियोवोडियोफोन, नामक एक संयंत्र निर्मित किया जा सकता है, जो टेलीविजन सेट जैसा यह संयत्र जिस व्यक्ति के पास होगा वह व्यक्ति अपने परिवार सम्बन्धी मित्रों या सम्बन्धियों के छाया चित्रों आदि के आधार पर अपने दादाओं, परदादाओं की आकृतियाँ इस संयन्त्रं के पर्दे पर देख सकेगा। और उनसे वार्तालाप भी कर सकेगा। यह हुई काल के चतुर्थ आयाम के बोध की एक करामात।
पाँचवे आयाम में मस्तिष्क और चेतना के अकल्पित क्रिया, व्यापार सम्भव होंगे। उस आयाम की खोज से आत्माओं की अवधारणा भी विज्ञान के सामने स्पष्ट हो सकती है तथा अनन्त लोकों की नवीन जानकारियों का द्वार खुल सकता है। अभी हमें विश्व की जानकारी जितनी है, उसमें यान्त्रिक माध्यमों में उच्चतर आयाम के अन्वेष्ण की विधि ज्ञात नहीं है। किन्तु मानव जाति ऐसी मनः नियन्त्रण की शक्ति अर्जित, विकसित कर सकती है जिससे कि उक्त नवीन आयाम का बोध प्राप्त हो सके भले ही यान्त्रिक उपकरण वैसे सुलभ या सम्भव न हो सकें ।।
भारतीय मनीषियों ने मन की ऐसी ही साधना कर चेतना के विविध आयामों का बोध प्राप्त किया था। पंचकोष इन्हीं पांच चेतना आयामों के ही नाम है। शरीरस्थ इन पाँच आणविक विद्युत भण्डारों को अन्तरिक्ष में असंख्य शक्तिधाराओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाल शक्तिशाली इलेक्ट्राँनिक संयन्त्र के रूप में पयुक्त कर ज्ञान और शक्ति का अनन्त विस्तार किया जा सकता है। मनुष्य में समस्त देवशक्तियों का अंश विद्यमान है, अतः वह अपने भीतर निहित इनमें से किसी भी शक्ति का अथवा सभी ताकि अनेक शक्तियों के समन्वित स्वरूप का विकास कर सकता है। पदार्थवाद अभी तक इस मार्ग में बाधा बनने का प्रयास कर रहा था। अब वही इस मार्ग का नया व्याख्याकार बनने जा रहा है।
आइन्स्टाइन चतुर्थ आयाम से भी आगे एक पंचम आयाम की सम्भावना देखते हैं। चतुर्थ आयाम के अस्तित्व को अतीन्द्रिय ज्ञान की असंख्य घटनाऐं प्रमाणित करती रहती हैं। प्रेत शरीर के बारे में स्वप्नों को सही संकेतों के रूप में दूर- दर्शन, दूर श्रवण, विचार संचार आदि के रूप में हम अदृश्य जगत की सत्ता को प्रत्यक्ष वत देखते हैं। यह चौथे आयाम की पुष्टि है। पाँचवा आयाम वह है जिसमें ब्रह्माण्डीय चेतना और आत्म- चेतना को परस्पर सम्बन्ध करके मानवी सत्ता को ईश्वर तुल्य बनाया जा सकना और उतना ही शक्ति सम्पन्न सिद्ध कर सकना सम्भव हो जाएगा, प्रति विश्व, प्रति कण आदि के रूप में ही संसार से बिल्कुल सटे एक ऐसे विश्व का अस्तित्व अगले दिनों सिद्ध होने जा रहा है जिसे पौराणिक काल के दैत्य लोक के समतुल्य कहा जा सके। यह क्षेत्र भी पंचम आयाम की परिधि में आ जाएगा।
संक्षेप में आयामों को स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का क्षेत्र कह सकते हैं। स्थूल की अनुभूतियाँ स्थूल शरीर सूक्ष्म उपकरणों से होती है, सूक्ष्म के लिए मस्तिष्क प्राण जैसे उच्चस्तरीय चेतना युक्त औजार प्रयुक्त करने पड़ते हैं।
पांचवा आयाम विशुद्ध चेतनात्मक है उसे ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीव चेतना के साथ जोडज्ञे की और उस स्थिति का असाशारण लाभ उठाने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। आत्मा और परमात्मा का मिलना कितना आनन्ददायक कितना शक्तिशाली कितना प्रभावोत्पादक हो सकता है, इसकी आज की समुचित चर्चा कर सकना भी अपनी भौतिक मनःस्थिति में सम्भव नहीं है। पर तत्वज्ञानी सूक्ष्म दर्शी उसका रसास्वादन कर रहे हैं। इसी आधार पर वे देवात्मा बने हैं और दूसरों को अपनी नाव पर बिठाकर पार लगाया है।
पाँच कोश इन्हीं पाँच आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पंचकोशी साधना का महत्त्व इसी दृष्टि से है कि हम जड़ के भीतर हर क्षेत्र में काम कर रहे चेतन के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ सकें पदार्थ का स्थूल उपयोग कर सकना ही पर्याप्त नहीं, उसकी मूल सत्ता को हस्तगत किया जा सके तो ही वास्तविक लाभ है। पांच कोशों में प्रथम विशुद्ध पदार्थ परक है। दूसरे को पदार्थ का ऊर्जा क्षेत्र कह सकते हैं। प्रथम अन्नमय और दूसरा प्राणमय कोश है।
आगे चेतना क्षेत्र आरम्भ होता है व्यक्ति का ज्ञान क्षेत्र दो भागों में विभक्त है एक ज्ञात, दूसरा अविज्ञात। ज्ञात को मनोमय कोश कहते हैं। उसका प्रशिक्षण सम्वर्धन, उपयोग, विचार- विमर्श एवं बौद्धिक आदान प्रदान से सम्भव हो जाना है। उस क्षमता के विकसित होने पर मनुष्य बुद्धिमान कहा जाता है और बुद्धि शक्ति के सहारे जो लाभ मिल सकते हैं, उन्हें उठाता है इसे मनोमय कोश समझा जाना चाहिए।
विज्ञानमय कोश मनः चेतना की गहरी परत है। 'चित्त' और 'अहंकार' के रूप में इसी की व्याख्या की जाती है। अतीन्द्रिय क्षमता का क्षेत्र यही है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करके अपने संसार की कारण भूत स्थिति के साथ सम्बन्ध जोड़ सकना इसी आधार पर सम्भव होता है। सिद्ध पुरूष इसी प्रक्रिया में प्रवीण होते हैं। ऋषि- सिद्धियाँ यही से उपलब्ध होती हैं।
व्यक्ति सत्ता का एक वर्गीकरण स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर अय्र कारण शरीर के रूप में भी होता रहा है। पंच तत्वों से बना और प्रत्यक्ष होने के कारण यही अपना काम काजी शरीर स्थूल होने के कारण यही अपना काम काजी शरीर स्थूल कहलाता है। प्राण शक्ति की इसी को सामर्थ्य है। इसलिए अन्नमय प्राणमय कोशों का सम्मिलित स्वरूप स्थूल शरीर कहा जाता है। मनोमय कोश और सूक्ष्म शरीर पूर्णतया एक ही हैं कारण शरीर को विज्ञानमय कोश समझा जाना चाहिअ। भाव सम्वेदना का, मस्तिष्क की अतीन्द्रिय चेतना का समावेश यही है। आनन्दमय कोश का उतना अंश इसी क्षेत्र में आता है जिसमें जीव- सत्ता और परम- सत्ता के मिलन की आत साक्षात्कार, ब्रह्म साक्षात्कार जैसी दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। स्थिति प्रज्ञ, अबधूत, ब्रह्मज्ञानी, तत्वदर्शी, जीवनमुक्त इसी स्थिति में परिपक्व होते हैं।
गायत्री के पाँच मुख- पांच कोशों के प्रतीक हैं। इस साधना को पूरी करते हुए हम पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचते हैं। इन्हें परीक्षा के पाँच वर्ग एवं स्तर कह सकते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में इन्हीं की पाँच आयामों के रूप में व्याख्या की जाती है। आत्मिक प्रगति के पथ पर हम जितने- जितने आगे बढ़ते हैं, उतने ही उतने दिव्य विभूतियों से सुसम्पन्न कहें या वेदमाता की साधना प्रतिफल बात एक ही है।
इन पांच कोशों एवं देवताओं की पांच सिद्धियाँ हैं- अन्नमय कोश की सिद्धि से निरोगता, दीर्घ जीवन एवं चिर यौवन का लाभ है। प्राणमय कोश से साहस, शौर्य, पराक्रम, प्रभाव, प्रतिभा जैसी विशेषताऐं उभरती हैं। प्राण विद्युत की विशेषता से आकर्षक चुम्बक व्यक्तित्व में बढ़ता जाता है। और प्रभाव क्षेत्र दर्शिता, बुद्धिमत्ता बढ़ती है और उतार चढा़वो में धैर्य संतुलन बना रहता है विज्ञानमय कोश से सज्जनता का उदार सहृदयता का विकास होता है। और विज्ञानमय कोश से सज्जनता का उदार सहृदयता का विकास होता है और देवत्व की विशेषताएं उभरती हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान अपरोक्षानुभूति दिव्यदृष्टि जैसी उपलब्धियाँ विज्ञानमय कोश की हैं। आनन्दमय कोश के विकास से चिन्तन तथा कर्तृत्व दोनों ही इस स्तर के बन जाते हैं। कि हर घडी़ आनन्द छाया रहे संकटों का सामना ही न करना पडे़। ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार स्वर्ग मुक्ति जैसे महान उपलब्धियाँ आनन्दमय कोश की ही देन हैं।
जागरण एवं अनावरण शब्द पंच कोशों के परिष्कार की साधन में प्रयुक्त होते हैं। इन प्रस्तुप्त संस्थानों को जाग्रत सक्रिय सक्षम बनाकर चमत्कार दिखा सकने की स्थिति तक पहुँचा देना जागरण है। अनावरण का तात्पर्य है आवरणों का हटा दिया जाना। किसी जलते बल्ब के ऊपर कई कपडे़ ढंक दिए जायें तो उसमें प्रकाश तनिक भी दृष्टिगोचर न होगा। इन आवरणों की एक- एक परत उठाने लगें तो प्रकाश का आभास क्रमशः बढ़ता जाएगा। जब सब पर्दे हट जायेंगे। तो बल्ब अपने पूरे प्रकाश के साथ दिखाई पड़ने लगेगा। आत्मा के ऊपर इन पांच शरीरों के- पाँच आवरण पडे़ हुए हैं उन्हीं को भव बन्धन कहते हैं इनके हट जाने या उठ जाने पर ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, एवं बन्धन मुक्ति का लाभ मिलता है।
देवसत्ताऐं भी सार्वभौम नियम व्यवस्था के ही अनुसार कार्य करती है। उस श्रेणी तक पहुँचे हुए महापुरूष की भी कोई 'वैयक्तिक इच्छा' नहीं रह जाती। वह शाश्वत सत्ता की नियम व्यवस्था से एकाकार हो जाता है। इसीलिए वह सामान्यतः असम्भव लगने वाले कार्य कर सकता तथा अदृश्य प्रतीत होने वाले दृश्य देख सकता है। यह चेतना धरातल को उठाकर समष्टि चेतना से तादात्मय स्थापित कर लेने की स्थिति है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में तथा उससे परे भी, सर्वशू चेतना- प्रवाह विद्यमान है। इस चेतना की अनन्त परतें हैं। प्रत्येक चेतना स्तर अपने ढंग का अनूठा है। सामान्य मनुष्य जिस चेतना धरातल का स्पन्दन ग्रहण कर पाने में अक्षम हो, वहाँ चेतना है ही नहीं, यह बात तार्किक दृष्टि से तो मान्य नहीं ही है, आधुनिक पदार्थ विज्ञानी भी अब इसी निष्कर्ष पर पहुँच चुके हं कि चेतना के अनन्त समुद्र में हमारी पैंठ अत्यन्त नगण्य है।
चेतना का विशाल सागर इस ब्रह्माण्ड में विस्तृत है। उसी ने पदार्थ को उत्पन्न किया है। पदार्थ भौतिक विज्ञानी ने पदार्थों में ही सत्य को सन्निहित मान सत्यान्वेषण प्रारम्भ किया और अब वह प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तरों में प्रवेश करता हुआ विस्मित हो उठा है। पदार्थ की ही सत्ता सन्दिग्ध हो उठी है और अपना सम्पूर्ण बोध ही एक भ्रम या आभास मात प्रतीत होने लगा है अभी हम जो मानते हैं, वह सब हमारे बोध की परिधि में सिमटे सृष्टि रूपों की झलक मात्र है अर्थात उसे आभास ही कहा जा सकता है, सत्य नहीं। यह आभास हमारे लिए ज्ञात- चेतना धरातलों की परिधि में बुद्ध है। यदि किसी प्रकार हमारी चेतना एक सर्वथा नए आयाम को छू ले, तो अभी हमारा जो भी बोध है, वह तब पूरी तरह बदल ही जाएगा। जिसे आज सर्वथा सत्य मान रहे हैं, कल वहीं एक भ्रम लगने लगेगा।
आइन्स्टाइन ने चेतना के इसी आयाम को, "बोध" के नए धरातल को 'चतुर्थ आयाम' की संज्ञा दी थी। आप वैज्ञानिक को 'चतुर्थ आयाम सम्बन्धी अनेक साक्ष्य प्राप्त हो रहे हैं।
चतुर्थ आयाम की अवधारणा से अवगत होने के लिए उसे यों समझा जा सकता है- हमारा सम्पूर्ण बोध तीन आयामों तक सीमित है। जो कुछ भी हम देखते- जानते, समझते- सोचते हैं, वह त्रिआयामीय वस्तु- जगत से सम्बन्धित होता है। ए तीन आयाम हैं- पहला लम्बाई, दूसरा चौडा़ई तथा तीसरा मोटाई, गहराई अथवा ऊँचाई। यह तो हो सकता है कि किसी वस्तु का कोई आयाम अधिक हो कोई कम। जैसे किसी सन्दूक की लम्बाई, चौडा़ई तथा ऊँचाई तीनों ही अधिक होती हैं, किन्तु कागज की मात्र लम्बाई- चैडा़ई ही अधिक होती है, जबकी किसी धूलिकण के तीनों आयाम बहुत छोटे होते हैं। ए तीनों आयाम देश या 'स्पेश' में होते हैं। आइन्स्टाइन के अनुसार चौथा आयाम है टाइम या काल।
सामान्यतः तीन आयामों तक ही हमारा बोध- क्षेत्र है। चतुर्थ आयाम का बोध होते ही हमारे सामने ज्ञान का एक अनन्त क्षेत्र खुल सकता है। तब यह संसार एक सर्वथा भिन्न रूप से नजर आने लगेगा। ऐसा बहुत कुछ जिसे हम यथार्थ और एक भ्रान्ति मात्र है, यह स्पष्ट हो जाएगा।
इसे क्रमशः इस तरह समझा जा सकता है- एक बिन्दु को लें। यद्यपि प्रत्येक बिन्धु कुछ न कुछ स्थान घेरता ही है। गणित में बिन्दु वस्तुतः उसे ही कहते हैं, जिसका कोई स्थान तो हो, पर आकार न हो। अब कोई १० सेन्टीमीटर लम्बी रेखा को लें। इस रेखा में असंख्य बिन्दु समाहित हो सकते हैं, क्योंकि बिन्दुओं का तो कोई 'साइज' या आकार होता नहीं। यह १० सेन्टीमीटर लम्बी रेखा, 'स्पेस' एक ही दिशा 'लम्बाई' का प्रतिनिधित्व करती है। यह एक आयाम हुआ। एक वर्ग जिसमें लम्बाई व चौडा़ई दोनों हैं, पर गहराई मोटाई या ऊँचाई नहीं, उसमें लम्बाई और चौडा़ई के दो आयाम हुए। जैसे किसी कागज के पन्ने की ऊपरी सतह। जबकि किसी कमरे में जिसमें लम्बाई, चैडा़ई, ऊँचाई तीनों होती हैं, तीनों आयाम उपस्थित रहते हैं। किसी सतह पर नाली में रहने वाले दो ऐसे कीडो़ं की कल्पना कीजिए जो सिर्फ एक ही आयाम लम्बाई जानते हों। चौडा़ई भी कोई वस्तु होती है, यह जानते ही न हों। इसका अर्थ है कि यदि वे संयोग वश आमने सामने आ पड़ते हैं, तो वे एक दूसरे से बचकर नहीं निकल सकते क्योंकि अगल- बगल जैसी कोई चीज वे जानते ही न होंगे। वे तो बस उसी रेखा में उसी सीध में या तो आगे जा सकते हैं या पीछे आ सकते हैं। वही उनका संसार है।
किसी पुस्तक का पृष्ठ यदि चेत हो उठे, पर उसका बोध क्षेत्र लम्बाई और चौडा़ई इन दो ही आयामों तक सीमित हो तो वह उसी पुस्तक के दूसरे पृष्ठों के अस्तित्व को कभी भी नहीं जान सकता।
अपने त्रिआयामीय बोध- सामर्थ्य के कारण जब हम किसी छाया चित्र को देखते हैं, तो उसमें गहराई की स्वयं ही कल्पना कर उस चित्र को समझ लेते हैं। जबकि सामान्यतः यदि किसी कुत्ते को उसका या उसके स्वामी का छाया चित्र दिखाया जाय तो यह उसके लिए अर्थहीन होगा। उस पर इसकी कोई प्रतिक्रिया न होगी। लेकिन उस चित्र में गति आ जाने पर वही कुत्ता प्रतिक्रिया करेगा। क्योंकि तब जैसे उसकी चेतन में कोई स्मृति कौंध जाती है। गति का नया घटक स्थित को बदल देता है। चलचित्र आदि को देखकर इसलिए कुत्ता भौंकने लगता है।
दो आयामों वाले चित्रों को देखने की अभ्यस्त हमारी जागृत मनश्चेतना त्रिविमितीय स्तर के छाया चित्रों को देखकर किस तरह विभ्रान्त हो उठती है, यह 'होलोग्राफी' के जानकर लोगों को विदित है। लेसर किरणों की कृपा से 'होलोग्राफी' के आधार पर त्रिविमितीय सिनेमाओं का निर्माण कई विकसित देशों में प्रारम्भ भी हो चुका है, जहाँ पर्दे पर मनुष्य, मोटर, घोडे़, रेलगाडी़, भालू, शेर आदि यथार्थवत चलते, दौड़ते दिखाई पड़ते हैं। और अनब्यस्त सिनेमा दर्शक प्रारम्भ में भ्रमित हो जाते हैं।
इस प्रकार तीसरे आयाम का ही नए सन्दर्भ में नवीन बोध जब हमें विस्मित- विमुग्ध कर सकता है, तब चतुर्थ आयाम की जानकारी तो पूरे बोध क्षेत्र को ही उलट पुलट देगी और हमारी वर्तमन निर्विवाद धारणाऐं भी जड़ मूल से उखड़ जाएगी।
आइन्स्टाइन ने जब सर्व प्रथम सापेक्षता सिद्धान्त की व्याख्या की तो सम्पूर्ण विश्व में केवल बारह वैज्ञानिक उसे समझ पाए, ऐसा कहा जाता है। फिर जब प्रोफेसर स्मिथ ने सर्वप्रथम व्याख्या की, तो उसे बारह वैज्ञानिक समझ पाए, किन्तु प्रोफेसर स्मिथ की व्याख्या तो एक भी व्यक्ति नहीं समझ पाया। अँग्रेजी में इस सन्दर्भ में एक हास्य कविता भी है, जिसका मनोरंजक भावानुवाद यों होगा-
"एक थी लड़की - नाम जोन ब्राइट,
चलती अति तीव्र गति से जैसे हो 'लाइट'
एक दिन उमंग में, प्रकाश से भी प्रखरतर
वेग से चली वह आइन्स्टाइनी ढंग से,
लौटकर आई तो थी पीछली "नाइट"।"
किन्तु आज यह बात विनोद नहीं रह गई। काल की गति पीछे की दिशा में भी लौट सकने की बात अब वैज्ञानिक जगत में सर्व स्वीकृत होती जा रही है। असीम वेग से चलेने वाले कणों की जानकारी बढ़ती जा रही है। १९६७ में गेराल्ड फोनवर्ग ने काल्पनिक मात्रा के इन कणों को 'टेकियान' नाम दिया। टेकियान का 'प्रॉपर मास' काल्पनिक होता है एवं उनका वेग प्रकाश वेग से भी ज्यादा होता, प्रकाश वेग से कम तो नहीं हो सकता। यद्यपि अभी ऐसे उपकारणों का अभाव है, जिनके द्वारा टेकियान को प्रदर्शित किया जा सके, किन्तु वैज्ञानिकों द्वारा यह तथ्य मान्य हो चुका है कि 'टेकियान विद्यमान है।
१९६८ में टेक्सास विश्व विद्यालय, संयुक्त राज्य अमरीका में, अनुसन्धान कार्य कर रहे डा० सुदर्शन ने फोनवर्ग की परिकल्पना को सही सिद्ध कर दिया। ए तो हुए प्रकाश वेग से अधिक तीव्रगामी टेकियान, जिन पर अनुसन्धान जारी है। प्रकाश वेग से गतिमानकणों को 'लक्सन' कहते हैं, जिनका 'प्रॉपर मास' शून्य रहता है। फोटोन, न्यूट्रिनों, ग्रेवीटीन आदि ऐसे ही कण हैं।
प्रकाश की गति वाले अनेक कण तो अस्थाई- अस्थिर होते हैं, किन्तु फोटोन, न्योट्रिनों व एन्टिन्यूट्रिनो स्थायी होते हैं। इन कणों की खोज ने काल सम्बन्धी एक नई अवधारणा को वैज्ञानिकों के बीच प्रतिष्ठित कर दिया और वे मानने लगे हैं कि समय मात्र आगे ही नहीं जाता, पीछे की तरफ भी लौट सकता है। फोटोन कणों का वेग- प्रकाश के बराबर होता है, अतः उनके लिए तो काल गति शून्य है। भूत, वर्तमान और भविष्य में कोई अन्तर नहीं है। प्रकाश वेग से अधिक गति वाले कणों के लिए समय की गति हमारी परिचित भावना के सर्वथा विपरित हो जाती है। हम अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य से वर्तमान से अतीत में होती है। यही है काल के चतुर्थ आयाम की आइन्स्टाइन की धारणा।
जब अतीत में लौटना भी सम्भव हो जाएगा, तो हमारा वर्तमान बोध किस प्रकार अस्त- व्यस्त हो जाएगा, यह हम भली- भांति समझ सकते हैं, उदाहरणार्थ हमारी वर्तमान धारणा है कि राम एवं कृष्ण, महात्मा गांधी, आदि मर गए। लेकिन तब हम स्पष्ठ उन्हें उसी रूप में देख सकेंगे, जैसे कि वे उस समय थे। इससे जन्म- मृत्यु की भौतिक वादी धारणा पूरी तरह ध्वस्त हो जायेगी और भारतीयों की जो मान्यता अभी जन सामान्य के लिए मात्र एक विश्वास के रूप में ही है, वह बिल्कुल प्रत्यक्षतः सत्य दिखाई देगी। तब यह स्पष्ट हो जाएगा कि जन्म या मृत्यु चरम अर्थों में एक भ्रान्ति मात्र है। यह हुआ काल के चतुर्थ आयाम की जानकारी का एक प्रभाव परिणाम। हमारे सम्पूर्ण बोध क्षेत्र में ऐसी ही उथल- पुथल मच जाएगी। जिसे नष्ट होना मान बैठते हैं वह रूप, परिवर्तन मात्र प्रतीत होगा, जिसे आज अपना बेटा, अपनी पत्नी मानते हैं यह अतीत का अपना भाई, मित्र या शत्रु भी है। यह स्पष्ट दिखजाने पर रिश्तों के प्रति वर्तमान दुराग्रही मोह टूट जायेगा, क्योंकि वह एक मूर्खता पूर्ण भ्रान्ति मात्र है, यह स्पष्ट हो जाएगा।
यह सब अत्यन्त निकट है। रूसी वैज्ञानिक एलेक्जेन्डर बोलेगोव का कहना है कि यह सुनिश्चित सम्भावना है। उनके अनुसार 'आर्कियोवोडियोफोन, नामक एक संयंत्र निर्मित किया जा सकता है, जो टेलीविजन सेट जैसा यह संयत्र जिस व्यक्ति के पास होगा वह व्यक्ति अपने परिवार सम्बन्धी मित्रों या सम्बन्धियों के छाया चित्रों आदि के आधार पर अपने दादाओं, परदादाओं की आकृतियाँ इस संयन्त्रं के पर्दे पर देख सकेगा। और उनसे वार्तालाप भी कर सकेगा। यह हुई काल के चतुर्थ आयाम के बोध की एक करामात।
पाँचवे आयाम में मस्तिष्क और चेतना के अकल्पित क्रिया, व्यापार सम्भव होंगे। उस आयाम की खोज से आत्माओं की अवधारणा भी विज्ञान के सामने स्पष्ट हो सकती है तथा अनन्त लोकों की नवीन जानकारियों का द्वार खुल सकता है। अभी हमें विश्व की जानकारी जितनी है, उसमें यान्त्रिक माध्यमों में उच्चतर आयाम के अन्वेष्ण की विधि ज्ञात नहीं है। किन्तु मानव जाति ऐसी मनः नियन्त्रण की शक्ति अर्जित, विकसित कर सकती है जिससे कि उक्त नवीन आयाम का बोध प्राप्त हो सके भले ही यान्त्रिक उपकरण वैसे सुलभ या सम्भव न हो सकें ।।
भारतीय मनीषियों ने मन की ऐसी ही साधना कर चेतना के विविध आयामों का बोध प्राप्त किया था। पंचकोष इन्हीं पांच चेतना आयामों के ही नाम है। शरीरस्थ इन पाँच आणविक विद्युत भण्डारों को अन्तरिक्ष में असंख्य शक्तिधाराओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाल शक्तिशाली इलेक्ट्राँनिक संयन्त्र के रूप में पयुक्त कर ज्ञान और शक्ति का अनन्त विस्तार किया जा सकता है। मनुष्य में समस्त देवशक्तियों का अंश विद्यमान है, अतः वह अपने भीतर निहित इनमें से किसी भी शक्ति का अथवा सभी ताकि अनेक शक्तियों के समन्वित स्वरूप का विकास कर सकता है। पदार्थवाद अभी तक इस मार्ग में बाधा बनने का प्रयास कर रहा था। अब वही इस मार्ग का नया व्याख्याकार बनने जा रहा है।
आइन्स्टाइन चतुर्थ आयाम से भी आगे एक पंचम आयाम की सम्भावना देखते हैं। चतुर्थ आयाम के अस्तित्व को अतीन्द्रिय ज्ञान की असंख्य घटनाऐं प्रमाणित करती रहती हैं। प्रेत शरीर के बारे में स्वप्नों को सही संकेतों के रूप में दूर- दर्शन, दूर श्रवण, विचार संचार आदि के रूप में हम अदृश्य जगत की सत्ता को प्रत्यक्ष वत देखते हैं। यह चौथे आयाम की पुष्टि है। पाँचवा आयाम वह है जिसमें ब्रह्माण्डीय चेतना और आत्म- चेतना को परस्पर सम्बन्ध करके मानवी सत्ता को ईश्वर तुल्य बनाया जा सकना और उतना ही शक्ति सम्पन्न सिद्ध कर सकना सम्भव हो जाएगा, प्रति विश्व, प्रति कण आदि के रूप में ही संसार से बिल्कुल सटे एक ऐसे विश्व का अस्तित्व अगले दिनों सिद्ध होने जा रहा है जिसे पौराणिक काल के दैत्य लोक के समतुल्य कहा जा सके। यह क्षेत्र भी पंचम आयाम की परिधि में आ जाएगा।
संक्षेप में आयामों को स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का क्षेत्र कह सकते हैं। स्थूल की अनुभूतियाँ स्थूल शरीर सूक्ष्म उपकरणों से होती है, सूक्ष्म के लिए मस्तिष्क प्राण जैसे उच्चस्तरीय चेतना युक्त औजार प्रयुक्त करने पड़ते हैं।
पांचवा आयाम विशुद्ध चेतनात्मक है उसे ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीव चेतना के साथ जोडज्ञे की और उस स्थिति का असाशारण लाभ उठाने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। आत्मा और परमात्मा का मिलना कितना आनन्ददायक कितना शक्तिशाली कितना प्रभावोत्पादक हो सकता है, इसकी आज की समुचित चर्चा कर सकना भी अपनी भौतिक मनःस्थिति में सम्भव नहीं है। पर तत्वज्ञानी सूक्ष्म दर्शी उसका रसास्वादन कर रहे हैं। इसी आधार पर वे देवात्मा बने हैं और दूसरों को अपनी नाव पर बिठाकर पार लगाया है।
पाँच कोश इन्हीं पाँच आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पंचकोशी साधना का महत्त्व इसी दृष्टि से है कि हम जड़ के भीतर हर क्षेत्र में काम कर रहे चेतन के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ सकें पदार्थ का स्थूल उपयोग कर सकना ही पर्याप्त नहीं, उसकी मूल सत्ता को हस्तगत किया जा सके तो ही वास्तविक लाभ है। पांच कोशों में प्रथम विशुद्ध पदार्थ परक है। दूसरे को पदार्थ का ऊर्जा क्षेत्र कह सकते हैं। प्रथम अन्नमय और दूसरा प्राणमय कोश है।
आगे चेतना क्षेत्र आरम्भ होता है व्यक्ति का ज्ञान क्षेत्र दो भागों में विभक्त है एक ज्ञात, दूसरा अविज्ञात। ज्ञात को मनोमय कोश कहते हैं। उसका प्रशिक्षण सम्वर्धन, उपयोग, विचार- विमर्श एवं बौद्धिक आदान प्रदान से सम्भव हो जाना है। उस क्षमता के विकसित होने पर मनुष्य बुद्धिमान कहा जाता है और बुद्धि शक्ति के सहारे जो लाभ मिल सकते हैं, उन्हें उठाता है इसे मनोमय कोश समझा जाना चाहिए।
विज्ञानमय कोश मनः चेतना की गहरी परत है। 'चित्त' और 'अहंकार' के रूप में इसी की व्याख्या की जाती है। अतीन्द्रिय क्षमता का क्षेत्र यही है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करके अपने संसार की कारण भूत स्थिति के साथ सम्बन्ध जोड़ सकना इसी आधार पर सम्भव होता है। सिद्ध पुरूष इसी प्रक्रिया में प्रवीण होते हैं। ऋषि- सिद्धियाँ यही से उपलब्ध होती हैं।
व्यक्ति सत्ता का एक वर्गीकरण स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर अय्र कारण शरीर के रूप में भी होता रहा है। पंच तत्वों से बना और प्रत्यक्ष होने के कारण यही अपना काम काजी शरीर स्थूल होने के कारण यही अपना काम काजी शरीर स्थूल कहलाता है। प्राण शक्ति की इसी को सामर्थ्य है। इसलिए अन्नमय प्राणमय कोशों का सम्मिलित स्वरूप स्थूल शरीर कहा जाता है। मनोमय कोश और सूक्ष्म शरीर पूर्णतया एक ही हैं कारण शरीर को विज्ञानमय कोश समझा जाना चाहिअ। भाव सम्वेदना का, मस्तिष्क की अतीन्द्रिय चेतना का समावेश यही है। आनन्दमय कोश का उतना अंश इसी क्षेत्र में आता है जिसमें जीव- सत्ता और परम- सत्ता के मिलन की आत साक्षात्कार, ब्रह्म साक्षात्कार जैसी दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। स्थिति प्रज्ञ, अबधूत, ब्रह्मज्ञानी, तत्वदर्शी, जीवनमुक्त इसी स्थिति में परिपक्व होते हैं।
गायत्री के पाँच मुख- पांच कोशों के प्रतीक हैं। इस साधना को पूरी करते हुए हम पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचते हैं। इन्हें परीक्षा के पाँच वर्ग एवं स्तर कह सकते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में इन्हीं की पाँच आयामों के रूप में व्याख्या की जाती है। आत्मिक प्रगति के पथ पर हम जितने- जितने आगे बढ़ते हैं, उतने ही उतने दिव्य विभूतियों से सुसम्पन्न कहें या वेदमाता की साधना प्रतिफल बात एक ही है।
इन पांच कोशों एवं देवताओं की पांच सिद्धियाँ हैं- अन्नमय कोश की सिद्धि से निरोगता, दीर्घ जीवन एवं चिर यौवन का लाभ है। प्राणमय कोश से साहस, शौर्य, पराक्रम, प्रभाव, प्रतिभा जैसी विशेषताऐं उभरती हैं। प्राण विद्युत की विशेषता से आकर्षक चुम्बक व्यक्तित्व में बढ़ता जाता है। और प्रभाव क्षेत्र दर्शिता, बुद्धिमत्ता बढ़ती है और उतार चढा़वो में धैर्य संतुलन बना रहता है विज्ञानमय कोश से सज्जनता का उदार सहृदयता का विकास होता है। और विज्ञानमय कोश से सज्जनता का उदार सहृदयता का विकास होता है और देवत्व की विशेषताएं उभरती हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान अपरोक्षानुभूति दिव्यदृष्टि जैसी उपलब्धियाँ विज्ञानमय कोश की हैं। आनन्दमय कोश के विकास से चिन्तन तथा कर्तृत्व दोनों ही इस स्तर के बन जाते हैं। कि हर घडी़ आनन्द छाया रहे संकटों का सामना ही न करना पडे़। ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार स्वर्ग मुक्ति जैसे महान उपलब्धियाँ आनन्दमय कोश की ही देन हैं।
जागरण एवं अनावरण शब्द पंच कोशों के परिष्कार की साधन में प्रयुक्त होते हैं। इन प्रस्तुप्त संस्थानों को जाग्रत सक्रिय सक्षम बनाकर चमत्कार दिखा सकने की स्थिति तक पहुँचा देना जागरण है। अनावरण का तात्पर्य है आवरणों का हटा दिया जाना। किसी जलते बल्ब के ऊपर कई कपडे़ ढंक दिए जायें तो उसमें प्रकाश तनिक भी दृष्टिगोचर न होगा। इन आवरणों की एक- एक परत उठाने लगें तो प्रकाश का आभास क्रमशः बढ़ता जाएगा। जब सब पर्दे हट जायेंगे। तो बल्ब अपने पूरे प्रकाश के साथ दिखाई पड़ने लगेगा। आत्मा के ऊपर इन पांच शरीरों के- पाँच आवरण पडे़ हुए हैं उन्हीं को भव बन्धन कहते हैं इनके हट जाने या उठ जाने पर ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, एवं बन्धन मुक्ति का लाभ मिलता है।