Books - गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां
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Language: HINDI
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गायत्री के पाँच मुख
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गायत्री शक्ति और विद्या को भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। उसे वेदमाता- भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी उद्गम गंगोत्री कहा गया है। इस चौबीस अक्षर के छोटे- से मन्त्र के तीन चरण हैं। चौथा ऊँ एवं तीन व्याहृतियों वाला चौथा चरण है। इन चारों चरणों का व्याख्यान चार वेदों में हुआ है। वेद भारतीय तत्व ज्ञान और धर्म अध्यात्म के मूल हैं। गायत्री उपासना की भी इतनी ही व्यापक एवं विस्तृत परिधि है।
गायत्री माता की अलंकारिक चित्रों, प्रतिमाओं में एक मुख, दो भुजाओं का चित्रण है। कमण्डलु और पुस्तक हाथ में है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की- उत्कृष्ट अध्यात्मिकता की प्रतिमा बनाकर उसे मानवी आराध्य के रूप प्रस्तुत करना है। इस उपासना के दो आधार हैं। ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कमण्डलु जल से कर्म क उद्बोधन कराया गया है। यही वेदमाता है। उसी को विश्व माता की संज्ञा दी गई है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है।
उच्चस्तरीय साधना में इस प्रतीक प्रतिमा का रूप यत्किंचित् बदल जाता है। यह पंचमुखी है। योगाराधन में यही उपास्य है। पाँच मुख और दस भुजा वाली प्रतिमा में कई संकेत हैं। दस भुजायें, दस इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति का संकेत करती हैं और बताती हैं कि उनकी संग्रहीत एवं दिव्य सामर्थ्य गायत्री माता की समर्थ भुजाओं के समतुल्य है। दसों दिशाओं में उसकी व्यापकता भी हुई है। दस दिगपाल- दस दिग्राज पृथ्वी का संरक्षण करते माने गये हैं। गायत्री की दस भुजायें ही दस दिगपाल हैं। उनमें थमाये हुए विविध आयुधों से यह पता चलता है कि वह सामर्थ्य कितने प्रकार की धारायें प्रवाहित करती एवं कितने क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं।
गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। पंचमुखी शंकर की भांति गायत्री भी पंचमुखी है। पुराणों में ऐसा वर्णन कई जगह आया है, जिसमें वेदमाता गायत्री को पाँच मुखों वाली कहा गया है। अधिक मुख, अधिक हाथ- पाँव वाले देवताओं का होना कुछ अटपटा- सा लगता है। इसी लिए बहुधा इस सम्बन्ध में सन्देह प्रकट किया जाता है। चार मुख वाले ब्रह्माजी, पाँच मुख वाले शिवजी, छः मुख वाले कार्तिकेय जी बताए गये हैं। चतुर्भुजी विष्णु, अष्टभुजी दुर्गा, दशभुजी गणेश प्रसिद्ध हैं। ऐसे उदाहरण कुछ और भी हैं। रावण की हजार भुजा और इन्द्र के हजार नेत्रों का वर्णन है।
यह प्रकट है कि अन्योक्तियां एवं पहेलियाँ बड़ी आकर्षक एवं मनोरंजक होती हैं, इनके पूछने और उत्तर देने में रहस्योद्घाटन की एक विशेष महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास होता है। छोटे बच्चों से पहेलियाँ पूछते हैं तो वे उस विलक्षण प्रश्न का उत्तर खोजने में अपने मस्तिष्क को दूर- दूर तक दौड़ाते हैं और उत्तर खोजने में बुद्धि पर काफी जोर देते हैं ।। स्वयं नहीं सूझा पड़ता तो दूसरों से आग्रहपूर्वक पूछते हैं। जब तक उस विलक्षण पहेली का उत्तर नहीं मिल जाता तब तक उनके मन में बड़ी उत्सुकता, बेचैनी रहती है। इस प्रकार सीधे- सादे नीरस प्रश्नों की अपेक्षा टेढ़े- मेढ़े उलझन भरे विलक्षण प्रश्न, पहेलियों के द्वारा हल करने से बालकों को बौद्धिक विकास और मनोरंजन दोनों ही प्राप्त होते हैं।
गायत्री माता की अलंकारिक चित्रों, प्रतिमाओं में एक मुख, दो भुजाओं का चित्रण है। कमण्डलु और पुस्तक हाथ में है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की- उत्कृष्ट अध्यात्मिकता की प्रतिमा बनाकर उसे मानवी आराध्य के रूप प्रस्तुत करना है। इस उपासना के दो आधार हैं। ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कमण्डलु जल से कर्म क उद्बोधन कराया गया है। यही वेदमाता है। उसी को विश्व माता की संज्ञा दी गई है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है।
उच्चस्तरीय साधना में इस प्रतीक प्रतिमा का रूप यत्किंचित् बदल जाता है। यह पंचमुखी है। योगाराधन में यही उपास्य है। पाँच मुख और दस भुजा वाली प्रतिमा में कई संकेत हैं। दस भुजायें, दस इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति का संकेत करती हैं और बताती हैं कि उनकी संग्रहीत एवं दिव्य सामर्थ्य गायत्री माता की समर्थ भुजाओं के समतुल्य है। दसों दिशाओं में उसकी व्यापकता भी हुई है। दस दिगपाल- दस दिग्राज पृथ्वी का संरक्षण करते माने गये हैं। गायत्री की दस भुजायें ही दस दिगपाल हैं। उनमें थमाये हुए विविध आयुधों से यह पता चलता है कि वह सामर्थ्य कितने प्रकार की धारायें प्रवाहित करती एवं कितने क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं।
गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। पंचमुखी शंकर की भांति गायत्री भी पंचमुखी है। पुराणों में ऐसा वर्णन कई जगह आया है, जिसमें वेदमाता गायत्री को पाँच मुखों वाली कहा गया है। अधिक मुख, अधिक हाथ- पाँव वाले देवताओं का होना कुछ अटपटा- सा लगता है। इसी लिए बहुधा इस सम्बन्ध में सन्देह प्रकट किया जाता है। चार मुख वाले ब्रह्माजी, पाँच मुख वाले शिवजी, छः मुख वाले कार्तिकेय जी बताए गये हैं। चतुर्भुजी विष्णु, अष्टभुजी दुर्गा, दशभुजी गणेश प्रसिद्ध हैं। ऐसे उदाहरण कुछ और भी हैं। रावण की हजार भुजा और इन्द्र के हजार नेत्रों का वर्णन है।
यह प्रकट है कि अन्योक्तियां एवं पहेलियाँ बड़ी आकर्षक एवं मनोरंजक होती हैं, इनके पूछने और उत्तर देने में रहस्योद्घाटन की एक विशेष महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास होता है। छोटे बच्चों से पहेलियाँ पूछते हैं तो वे उस विलक्षण प्रश्न का उत्तर खोजने में अपने मस्तिष्क को दूर- दूर तक दौड़ाते हैं और उत्तर खोजने में बुद्धि पर काफी जोर देते हैं ।। स्वयं नहीं सूझा पड़ता तो दूसरों से आग्रहपूर्वक पूछते हैं। जब तक उस विलक्षण पहेली का उत्तर नहीं मिल जाता तब तक उनके मन में बड़ी उत्सुकता, बेचैनी रहती है। इस प्रकार सीधे- सादे नीरस प्रश्नों की अपेक्षा टेढ़े- मेढ़े उलझन भरे विलक्षण प्रश्न, पहेलियों के द्वारा हल करने से बालकों को बौद्धिक विकास और मनोरंजन दोनों ही प्राप्त होते हैं।