Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-8
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उदरपूर्तिनिमित्तं हि शिक्षा चार्थकरी तु या । विद्यार्थिनस्तदर्थं तु धावन्तो ह्यभिभावकाः ।।७० ।। व्यवस्थां कुर्वते यात्राध्यापका वेतनाश्रिताः। प्राप्यन्ते बोधकर्तारः श्रमिका इव सर्वतः ।।७१।। अभावस्तु भवेत्तेषां प्राप्नुवन्ति स्वयं तु ये । गुणकर्मस्वभावानां स्वानामादर्शमुत्तमम् ।।७२।। स्वाद् विवेकोदयो येन जनसाधारणस्य तु । शिक्षयेयुरुदात्तं च चरित्रं परमार्थताम् ।।७३।। सवेर्षां वशगं नैतत् कर्म लोके तु सम्भवेत् । विप्राणां प्राय एतत्तु, पौरोहित्ये च ते स्वयम् ।।७४।। जनसामान्यनेतृत्वं कुर्वते भावनात्मकम् । धर्मधृत्यै तथैतस्यै मात्रमुद्बोधनं नहि ।। ७५।। पर्याप्तं परमभ्यासकारणाद्रचनात्मकम् । आन्दोलनं च संस्कारकारकं बह्वपक्ष्यते ।। ७६ ।। एकत्रीकृत्य चासंख्याँस्तत्र लोकाँश्च कर्मणि । कृत्वा परिणतं ज्ञानं विधेयं तत् स्वभावगम् ।। ७७ ।।
भावार्थ - उदरपूर्ति के लिए आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी और अभिभावक स्वयं ही दौड़- धूप करते रहते हैं। उसके लिए जानकारी भर बढ़ाने वाले वेतनभोगी अध्यापक भी अन्यान्य श्रमिकों की तरह हर जगह मिल जाते हैं। अभाव उनका रहता है, जो अपने गुण- कर्म, स्वभाव का आदर्श प्रस्तुत करके जन- साधारण का विवेक जगा सकें, उदात्त आचरण एवं परमार्थ- परायणता सिखा सकें । यह काम कर सकना हर किसी के वश का नहीं है, प्राय: यह काम ब्राह्मण का ही हैं। उन्हीं को पुरोहित के रूप में जन साधारण का नेतृत्व करना पड़ता है। इस धर्म- धारणा के लिए मात्र शिक्षण- उद्बोधन ही पर्याप्त नहीं होता, वरन् अभ्यास के लिए अनेक रचनात्मक एवं सुधारात्मक आंदोलन खड़े करने होते हैं और उनमें असंख्यों को जुटाकर ज्ञान को कर्म में परिणत करते हुए स्वभाव-संस्कार स्तर तक पहुँचाना के होता है ।। ७० -७७ ।।
व्याख्या- ब्राह्यण वह है, जो समाज में सुसंस्कारिता संवर्द्धन के बहुमुखी दायित्व सँभालते हैं। चाहे वह सुकुमार कच्ची मनोभूमि वाले बालक हों अथवा भिन्न- भिन्न मनःसंरचना वाले समाज परिकर का अपार जनसागर। उन्हें स्वयं के श्रेष्ठ आचरण द्वारा शिक्षण करते हुए, वे नैतिक पुनरुत्थान, बौद्धिक क्रांति हेतु जन- नेतृत्व का मोर्चा सँभालते हैं ।
समग्र साधना का शिक्षण
ब्राह्मण का कार्य है, उचित शिक्षा देकर जन- नेतृत्व करना।
राजा आमात्य जनश्रुति ने महर्षि वशिष्ठ से पूछा-'' मैं पुण्यात्मा हूँ। धर्म के नियमों पर चलता हूँ। उपासना में भी चूक नहीं करता, फिर भी न मेरा लक्ष्य ही पूरा होता दिखाई पड़ता है, न भीतर का संतोष ही प्राप्त है। ''
वशिष्ठ ने कहा-" वत्स ! सदाचरण और साधन का महत्त्व तो है, किन्तु वे दोनों ही स्नेह और सेवा के बिना अपूर्ण रहते हैं। तुम उन दो साधनाओं को भी अपनाकर अपूर्णता दूर करो और समग्र प्रतिफल प्राप्त करो। ''
ब्रह्मज्ञान का उपदेश
एक जिज्ञासु किसी ब्रह्मचारी के पास ईश्वर- दर्शन की इच्छा लेकर गया। ब्रह्मचारी ने उसे पास बिठाया। एक बड़ा- सा जल भरा पात्र मँगाकर उसमें नमक घोल दिया। इसके बाद जिज्ञासु ने कहा- "उस नमक को निकालकर दिखाओ।''
यह संभव न था। इसलिए जिज्ञासु ने कहा-'' अब यह संभव नहीं। मात्र चखकर ही जाना जा सकता है कि नमक का अस्तित्व मिटा नहीं, वरन् पानी में घुला है। ''ब्रह्मचारी ने कहा-'' ईश्वर इस सृष्टि में घुल गया है। उसे देखा नहीं जा सकता, उसे अनुभव किया जा सकता है ।'' जिज्ञासु ने दर्शन की हठ छोड़ दी श्रद्धा के आधार पर अनुभूति की नीति अपनाई।
तुन्हे लज्जा नहीं आती
समयानुसार कभी- कभी लताड़ना भी पड़ता है। एक बार मिदनापुर में स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता का भाषण हो रहा था। मंत्रमुग्ध जनता उपदेशामृत पान करने में तल्लीन थी, तभी कुछ युवकों ने ' हिप, हिप, हुर्रे '' का उद्घोष किया।
भगिनी निवेदिता ने भाषण के बीच में ही उन्हें डाँटते हुए कहा-'' चुप रहो, क्या तुम्हें अपनी भाषा का जय भी गर्व नहीं ? क्या तुम्हारे पिता अंग्रेज थे ? क्या तुम्हारी माँ गोरी चमड़ी की यूरोपियन थीं ? अंग्रेजों की नकल करते तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती ?
यह सुनकर युवक स्तब्ध रह गए। तभी निवेदिता बोलीं-'' भाषण के दौरान प्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक ही हो, तो स्वभाषा में प्रकट करो ।' बोलो - ' '' सच्चिदानंद परमात्मा की जय ! भारतमाता की जय ! सद्गुरु की जय। '' युवकों ने तत्काल उनके आदेश का पालन किया।
भाषण बाद में, सेवा पहले
हर समय उपदेश देते रहना ही उपयुक्त नहीं है। जो व्यक्ति ऐसा करते है, उन्हें उनके कर्तव्यों का ज्ञान कराना भी ब्राह्मण का ही कार्य है।
एक बच्चा तालाब में डूब रहा था और उसका पिता किनारे पर खड़ा उपदेश कर रहा था- ले मेरा कहना न मानने का फल भुगत। तभी एक संत उधर से निकले और कूदकर बच्चे को बचाते हुए बोले-'' पहले उसे डूबने से बचाओ, फिर अपना भाषण दो। ''
समय पर जगा दिया
कभी- कभी ऐसे अवसर आते हैं कि विकट समय में प्रभु-प्रेरणा किसी के भी माध्यम से प्रकट हो, संत को, ब्राह्मण को उनके कर्तव्य का ज्ञान करा देती है। बगदाद के काजियों ने खलीफा से शिकायत की कि संत इमाम अवल कुरान को मनुष्यकृत मानते हैं और कट्टर धर्मांधता का विरोध करते हैं। उन्हें दंड मिलना चाहिए।
वृद्ध संत को राज- दरबार में पेश होने के लिए सिपाही पकड़ लाए। वे रस्सों से बँधे अपराधियों की पंक्ति में खड़े सोच रहे थे कि अन्यायी क्रूरता उन्हें कितना कठोर दंड दे सकती है। चिंता की रेखाएँ उनके चेहरे पर उभर रही थीं। पहरे वाले सिपाही ने वस्तुस्थिति को समझा। संत के पास आया और धीरे- से बोला-'' हजरत, जुल्म से डरिए मत, बहादुरी दिखाइए। चोरी का जुर्म कबूल कराने के लिए मुझ पर एक बार हजार कोड़ों की मार पड़ी थी, पर मैंने जुर्म कबूल नहीं किया और छूट गया। मैंने झूठ के लिए कलेजा इतना कड़ा कर लिया, तो आप सच के लिए कष्ट उठाने में क्यों डरें ?'' संत की औखें चमक उठीं, उसने कहा- '' प्यारे ! तूने मुझे समय पर जगा दिया। ''
खलीफा के दरबार में संत ने सच- सच कह दिया कि वे कुरान को मनुष्यकृत मानते हैं और धर्मांधता का विरोध करा हैं। हजार बेंत लगाकर उन्हें मार डालने का हुक्म हुआ। इमाम की चमड़ी उखड़ गई और कराहते हुए मौत के मुँह में चले गए, पर चोर सिपाही का उपदेश दुहराते ही रहे कि सच के लिए कष्ट उठाने से क्यों डरें ?
बकरी तो मेरी थी
दुसरों को ज्ञान देना तो सरल है पर स्वयं उसे जीवन में उतारना कठिन है। गाँव के बाहर एक साधु कुटिया में रहते थे। कोई भक्त एक बकरी दे गया था, उसकी देख−भाल करते दूध पीते।
एक दिन एक गृहस्थ आया, उसका जवान बेटा मर गया था। उसे रोता देख साधु ने समझाया- '' शरीर मरणधर्मा है, आत्मा अमर है। शरीर छूटने से दुःख करना बेकार है। ''
संयोग से कुछ दिन बाद साधु की बकरी मर गई। साधु रोने लगे। वही गृहस्थ पहुँचा, बोला-'' महाराज जी, आप तो मुझे शोक न करने का उपदेश देते थे, अब आप क्यों रोते हैं ?'' साधु बोले-'' बालक तुम्हारा था, पर बकरी तो मेरी अपनी थी, इसलिए रोता हूँ। ''
धूर्तों की तिकड़म
संसार मेँ बाहुल्य ऐसे व्यक्तियों का है, जो अवसर देखकर लाभ उठाना चाहते हैं। आचरण नहीं बदलना चाहते । ऐसे व्यक्ति अलग पहचान लिए जाते हैं। राजमहल में एक संत आए। राजा ने उनसे दीक्षा ले ली। इस समाचार को सुनकर अनेक चतुर लोग दीक्षा लेने लगे और राजा के गुरु भाई बनने लगे। साथ ही गुरु भाई के नाते टैक्स माफ करने का भी दबाव डालने लगे। यही उनका उद्देश्य भी था। राजा बड़ी कठिनाई में पड़े। आमदनी समाप्त होने लगी।
राजा को बुलाकर संत ने कहा-'' मैं जाता हूँ। तुम कहना वे हमारे गुरु नहीं रहे। इससे जो लगान माफ कराने के लिए शिष्य बने हैं , उनसे पीछा छूट जाएगा।
वेश पर आवेश क्यों ?
सभी वेशधारी साधु सन्त नहीं होते एवं सभी सन्त वेश धारण करें, यह अनिवार्य नहीं। कुछ के कारण सारे समुदाय को कभी- कभी हानि उठानी पड़ती हैं। एक वनवासी को साधु वेश से चिढ़ थी। एक सन्त उस वन से होकर कहीं जा रहे थे, वह देखते ही आगबबूला हो गया और खींच कर पत्थर मारा। वे बिना कुछ कहे चले गये।
पत्थर का घाव तो अच्छा हो गया पर यह प्रश्न उनके मस्तिक में घूमता ही रहा कि किसी सन्त के दुर्व्यवहार से उसके मन में घृणा हुई मालूम पड़ती हैं। चल कर उस कारण को जानना चाहिये और आक्रोश का निवारण भी करना चाहिये कि सबको एक समझने की भूल न करें।
संत सीधे उसकी झोपड़ी में चले गए। देखा तो वह बुखार और अतिसार से बुरी स्थिति में अचेत पड़ा है।
होश आने पर सेवारत साधु को देखकर उसने पश्चात्ताप प्रकट किया और अनुभव किया कि एक जैसे वेश के सभी एक समान नहीं होते। साधु वेश में संत भी होते हैं, यह उसने पहली बार जाना।
धर्म रक्षक की महती जिम्मेदारी
समाज में सर्वोपरि पद पर रहने के कारण उनके दायित्व भी बढे़- चढ़े हैं। जिन पर धर्म- संस्कृति की रक्षा का भार है, उन्हें तो और भी सतर्क होना चाहिए। बोधिसत्व एक दिन सुंदर कमल के तालाब के पास बैठे वायु सेवन कर रहे थे। नव- विकसित पंकजों की मनोहारी छटा ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया, तो वे चुप बैठे न रह सके, उठे और सरोवर में उतर कर निकट से जलज गंध का पान कर तृप्ति लाभ करने लगे।
तभी किसी देव कन्या का स्वर सुनाई पड़ा-'' तुम बिना कुछ दिए ही इन पुष्पों की सुरभि का सेवन कर रहे हो। यह चोर कर्म है। तुम गंध चोर हो। '' तथागत उसकी बात सुनकर स्तंभित रह गए। तभी एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल- पुष्प तोड़ने लगा, बड़ी देर तक उस व्यक्ति ने पुष्पों को तोड़ा- मरोड़ा पर रोकना तो दूर, किसी ने उसे मना तक भी न किया।
तब बुद्धदेव ने उसे कन्या से कहा-'' देवि ! मैंने तो केवल गंधपान ही किया था। पुष्पों का अपहरण तो नहीं किया था, तोड़े भी नहीं, फिर भी तुमने मुझे चोर कहा और यह मनुष्य कितनी निर्दयता के साथ पुष्पों को तोड़कर तालाब को अस्वच्छ तथा असुंदर बना रहा है, तुम इसे कुछ नहीं कहतीं ?'' तब वह देव कन्या गंभीर होकर कहने लगी-'' तपस्वी ! लोभ तथा तृष्णाओं में डूबे संसारी मनुष्य, धर्म तथा अधर्म में भेद नहीं कर पाते। अतः उन पर धर्म रक्षा का भार नहीं है। किंतु जो धर्मरत् हैं, सद्- असद् का ज्ञाता है, नित्य अधिक से अधिक पवित्रता तथा महानता के लिए सतत् प्रयत्नशील है। उसका तनिक-सा पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है। ''
बोधिसत्व ने मर्म को समझ लिया और उनका सिर पश्चात्ताप से झुक गया।
अपराध नहीं,अपराधी का स्तर देखें
पाप कर्म करने वाले का स्तर क्या है, इस पर सजा निर्भर है। जिसके दायित्व बढ़े- चढ़े हैं ,उससे यदि ऐसा कुकृत्य हो, तो उसकी सजा भी अलग होगी।
चार जुआरी पकड़े गए। वे राजा के सामने पेश किए गए। राजा ने एक को छ: महीने की जेल दी। दूसरे को पाँच सौ रुपया जुर्माना। तीसरे को कान पकड़ कर दस बार उठने- बैठने की सजा दी और चौथे को इतना ही कहा-'' आप भी ।'' और उसे बिना कुछ दंड दिए रिहा कर दिया।
मंत्रियों ने एतराज किया कि एक ही जुर्म में एक साथ पकड़े गए अपराधियों को अलग- अलग प्रकार की सजा क्यों ? राजा ने कहा-'' कल आप लोग जाकर देखना कि वे चारों क्या कर रहे हैं ?''
देखा गया तो जिसे जेल हुई थी, वह जेल में जाकर भी कंकड़ों की सहायता से दूसरे कैदियों को जुआ खिला और सिखा रहा है। जिसे पाँच सौ रुपया जुर्माना हुआ था, उसने उस नगर को छोड़कर दूसरे नगर में '' अपना धंधा करना शुरू कर दिया था। जिसे कान पकड़कर उठने- बैठने के लिए कहा गया था। उसने घर जाकर शपथपूर्वक प्रतिज्ञा की, कि वह कभी भी जुआ न खेलेगा। और जिसे 'आप भी ' कहकर रिहा कर दिया था,' उसने सोचा कि हमारे खानदान की प्रतिष्ठा राज- दरबार में धूलि हो गई और शहर में जानकारी फैलने से मुँह दिखाने लायक न रहेगा, सो उसने वह राज्य छोड़ दिया और किसी अन्य देश के लिए चला गया।
राजा ने सूचना के आधार पर कहा-'' जुर्म ही नहीं व्यक्ति का स्तर देखकर भी सख्ती और नरमी बरती जाती है। ''
प्रभु की कृपा पापी पर पहले
संतों के लिए सभी समान हैं। पानी को वे अपनी सहृदयता से आचरण सुधारने की सीख देते व सफल होते हैं।
जेकस के पास धन का अपार भंडार था, जिसे उसने जनता से क्रूरतापूर्वक वसूल कर एकत्रित किया था। अपने अमानुषिक यातनाओं के लिए वह कुख्यात हो चुका था। जब वह बाहर निकलता, तो लोग नगर से भागकर जंगलों में छिपने लगते।
एक दिन प्रभु ईसा मसीह उसके नगर में आए। गरीबों के प्रभु आ रहे थे। जनता उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ी। जेकस भी प्रतीक्षा कर रहा था। ईसा उसके पास से निकले तो देखते ही बोले-'' आज तुम्हारे यहाँ निवास करूँगा। '' एक कुख्यात व्यक्ति के ऊपर ईसा को कृपा करते देखकर जनता की श्रद्धा डगमगा उठी। बहुत से लोग निंदा करने लगे। परंतु उनकी प्रतिक्रियाओं से उसे क्या लेना- देना, जो ऊँचे उद्देश्यों के लिए चल पड़ा हो। अब तक के विरोधों एवं आलोचनाओं से जो न सुधर सका था, ईसा की स्नेहिल करुणा का संस्पर्श पाकर जेकस का हृदय ही परिवर्तन हो गया। उन्हें बिदा करते समय उसने कहा-'' प्रभु ! अपनी आधी संपत्ति आप के शुभागमन के उपलक्ष्य में उन लोगों के उत्थान में खर्च करूँगा, जो किसी भी कारण दुःखो तथा अभावों का जीवन जी रहे हैं। जिनसे अनुचित उपायों द्वारा धन प्राप्त किया है, उन्हें भी चौगुना धन वापस करने का वचन देता हूँ। '' लोगों ने जेकस का हृदय परिवर्तन देखा और उन्हें ईसा का उसके यहाँ रुकने का उद्देश्य समझ में आ गया।
वैज्ञानिक मनीषी अलहसन
व्यक्तिगत जीवन में कठोर एवं परमार्थी संत अपना दायित्व निभाना भली- भाँति जानते हैं। अपना आचरण वे दर्पण के समान स्वच्छ रखते हैं।
काहिरा की एक पुरानी मस्जिद के गुंबज में रहकर गुजर करने वाले अलहसन गणित, ज्योतिष और भौतिकी के असाधारण विद्वान थे। उनने विज्ञान के हर क्षेत्र का नए सिरे से पर्यवेक्षण किया और पुरानी जानकारियों को बहुत कुछ सुधारा और उनमें बहुत कुछ जोड़ा। उनके ग्रंथों का पश्चिम की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और नई पीढ़ी के वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कारों में भारी सहायता प्राप्त की।
अलहसन को राजदरबार में जगह मिली थी और ऊँचा वेतन भी था। किन्तु उसे छोड़कर, बड़े ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार करने का परिश्रम करके अपनी आजीविका चलाई। बादशाह नसीरुदद्दीन की तरह टोपी सीकर और कुरान लिखकर, रोटी कमाने का तरीका अलहसन का अपनाया हुआ रास्ता ही था।
ऐसे होते हैं संन्यासी
संथाल परगना के एक अध्यात्म प्रेमी को, धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर संन्यास लेने की सूझी और उनने एक बाबा जी से दीक्षा लेकर अपना नाम गीतानंद रख लिया। वे तीर्थाटन के लिए निकल पड़े। वे श्रद्धालु के साथ तार्किक भी थे। तीर्थों में जो कुछ उनने होते देखा, उससे उन्हें बहुत बुरा लगा और प्रतीत हुआ कि विद्वत् समाज में अश्रद्धा के बीज बोने की जिम्मेदारी इसी भ्रम- जंजाल और लूटमार की है, जो वंश और वेश के नाम पर व्यवसाय के रूप में चलाया जा रहा है। ईश्वर दर्शन के नाम पर जो दिवास्वप्न दिखाए जाते थे, उन्हें और भी बुरे लगे। थोड़े दिन भटकने के उपरांत वे अपनी जन्मभूमि लौट आए और अपने क्षेत्र में लोकसेवा का सच्चा संत आदर्श प्रस्तुत करने का निश्चय किया ।
उनने अपना घर ही सत्संग भवन बना लिया। सप्ताह में एक दिन कीर्तन करते और समीपवर्ती गाँवों से विचारशील लोगों को बुलाकर सर्वतोमुखी उत्कर्ष की योजना बताते और छः दिन जन संपर्क में लगे रहते। उनके प्रयत्न से उस क्षेत्र में ३५ प्राथमिक पाठशाला ,२ हाईस्कूल, ४० व्यायामशालाएँ तथा १० पुस्तकालय खुले। वे रात्रि में भजन करते और दिन में जनकल्याण का वातावरण बनाने में लगे रहते।
बहूनि सन्ति कर्माणि यान्याश्रित्य च युज्यते। शिक्षितुं लोकसेवैषा जगन्मङ्गलकारिणीः ।। ७८ ।। सत्यवृत्तीर्विधातुं ता शुभा अथाग्रगामिनीहः। यथा थ्यायामशालास्ता पाठशाला: कला अपि ।। ७९ ।। पुस्तकालय उद्योगाः कौशलश्रमशालिता । हरितक्रान्तिरत्रैषा स्वच्छता धेनुपालनम् ।। ८० ।। स्वास्थ्यवृद्धिः समारोहस्तथासंगठनादिकम्। कुरीतिवारणं बालकल्याणं जनजागृतिः ।। ८१ ।। महिलामङ्गलादीनि रचनात्मकरूपतः। सन्ति ख्यातानि यान्यत्नोद्भाव्यान्यन्यान्यपि स्वयम् ।। ८२ ।। सर्वाण्येतानि कर्तुं च गतिशीलानि सन्ततम्। अग्रगामीनि चायान्तु व्यवस्थापयितुं समे ।। ८३ ।। लोकसेवारता येन वातावरणमुज्जवलम्। सोत्साहं निर्मितं च स्याल्लोको मंगलमाव्रजेत् ।। ८४ ।। एष ब्राह्मणवर्गश्च स्वाध्यायोपासनास्विव। सत्संगेष्विव चैतासु क्रियासु स्याद्रतः सदा ।। ८५ ।। सत्प्रवृत्यभिवृद्धिश्च सम्भवेदत्र येन च। प्रत्येकस्मिंस्तथा क्षेत्रे वर्धमानश्च या: समा: ।। ८६ ।।
भावार्थ - पाठशाला, पुस्तकालय, व्यायामशाला, कला- कौशल, उद्योग- गृह , सामूहिक श्रमदान, हरीतिमा संवर्द्धन, गौ- पालन, स्वच्छता- प्रयास, संगठन ,समारोह, स्वास्थ्य- संवर्द्धन, कुरीति- निवारण, शिशु- कल्याण, महिलामंगल जैसे अनेक छोटे- बड़े रचनात्मक कार्य ऐसे हो सकते हैं , जिसके सहारे लोग सार्वजनिक सेवा सीखें और जनमंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाएँ, इन्हें गतिशील अग्रगामी बनाने एवं व्यवस्था जुटाने में लोकसेवियों को ही आगे रहना पड़ता है। ब्राह्मण- वर्ग को भावना, उपासना, स्वाध्याय, सत्संग की तरह ही एक रचनात्मक क्रिया- कलापों द्वारा सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में भी निरत होना पड़ता है ।।७८- ८६ ।।
व्याख्या-सेवा धर्म के अनेक रूप हैं। ब्राह्यण व्यक्ति वंश या वेश से नहीं,अपने अंत: की उदारता के कारण बनता है। चाहे व्यक्ति किसी भी आश्रम में हो, समाज में रहकर पीड़ा या पतन निवारण के माध्यम से समग्र मानव समुदाय की सेवा करता रह सकता है। साधना समग्र तब कहलाती है, जब उपासना- सत्संग जैसे धर्म- कृत्यों के साथ स्वयं को ऐसे रचनात्मक कार्यक्रमों से भी जोड़ा गया हो, सत्प्रवृत्ति का वातावरण बनाते हों । इनमें से कई की चर्चा यहाँ ऋषि श्रेष्ठ कात्यायन जी ने की है। इन सभी का लक्ष्य एक ही है सबका कल्याण एवं जनसाधारण में सेवा- भावना के विकास द्वारा आत्मीयता का विस्तार।
भारतीय संस्कृति के दो अग्रदूत भगवान बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य ने अपने जीवन में सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन द्वारा ही समाज की बहुमूल्य सेवा की। भगवान् बुद्ध ने बुद्धिवाद को सर्वोपरि मान्यता दी। उन्होंने अपने युग में प्रचलित भक्ति- भावुकता और तांत्रिक राजमार्ग के उभय- पक्षीय अतिवादों से धर्म- धारणा को बुरी तरह क्षत- विक्षत देखा और परंपराओं का नए सिरे से पर्यवेक्षण करने के लिए बुद्धिवादी कसौटी जनसमुदाय के हाथ में थमाई। सेवा और संयम की तपश्चर्या अपनाई। आत्मबोध जगाया और मनुष्य से भगवान् बन गए। उनने व्यापक परिमार्जन का 'धर्मचक्र- प्रवर्तन' चलाया। बिहार खड़े किए, संघाराम विनिर्मित किए, विश्वविद्यालय चलाए और प्रव्रज्या धर्म अपनाने के लिए प्रभाव- क्षेत्र में परिपूर्ण प्रेरणा दी। अगणित जीवनदानी नर- नारी उनके आह्वान पर आगे आए और विश्व के कोने- कोने में बौद्धिक- क्रांति के लिए, धर्मधारणा प्रतिष्ठित करने के लिए चल पड़े। बुद्ध का यह -परम पुरुषार्थ देश को डूबती नौका को उबारने में सफल रहा।
आद्य शंकराचार्य की ऋषिकल्प गतिविधियों में तीर्थ स्थापना प्रमुख है। उनने देश के चार कोनों पर चार धाम, चार मठ बनाए। उन्होंने अटक से कटक और कन्याकुमारी से काश्मीर तक की पैदल यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने हजारों व्याख्यान दिए। बड़े- बड़े उद्भट् विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और धर्म के सच्चे स्वरूप को समझने- समझाने के लिए सभाएँ आयोजित कीं। उन्होंने धर्मप्रचार करने के लिए चिद्विलास, विष्णु गुप्त, हस्तामलक, समित् पाणि, ज्ञानवृंद, भानुगार्भिक, बुद्धिं विरंचि, त्रोटकाचार्य, पद्यनाभ शुद्धकीर्ति, मंडन मिश्र, कृष्णदर्शन आदि देश के उद्भट् विद्वानों को संगठित किया। वेद धर्मानुयायियों की विशाल सेना बनाई गई और संपूर्ण भारत में धर्म सुधार की हलचल मचा दी। उनके इस अखण्ड प्रयत्न का ही यह फल हुआ कि जनता के मानस में धर्म संबंधी जो भी भ्रांतियाँ घर कर रही थीं, वे सब दूर होने लगीं और सारे देश में बौद्धिक धर्म का शंखनाद गूँजने लगा।
मानसिकता बदली जाय
दलितोद्धार जैसी सेवा निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है, किंतु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह मात्र सुविधा- संवर्द्धन तक ही सीमित न रह जाए, क्योंकि उससे उद्देश्य वस्तुतः पूरा नहीं होता। उद्देश्य जनसामान्य की मानसिकता उस कुप्रचलन के प्रति बदल देने पर ही पूरा होता है।
महात्मा गांधी जी की समाज सेवा में हरिजनों के उत्थान का उद्देश्य पहली वरीयता पर था। आज जो थोड़ी सी सुविधाएँ हरिजनों को मिली है, वह उन्हीं के प्रयत्नों का फल है, पर सुविधाएँ देकर उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं किया जा सकता। उन्हें शिक्षा- दीक्षा का विशेष प्रबंध कर अब तक छाये कुसंस्कारों को कम करना ठीक है, पर देखना यह चाहिए कि वे उच्च वर्ग के साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं या नहीं। सामाजिक उत्सवों में, पारस्परिक व्यवहार, धार्मिक उपासनाओं आदि में भी भाग ले सकते हैं या नहीं। मस्तिष्क इतना विवेक और यथार्थवादी हो कि हरिजन को मानवीय दृष्टिकोण से देखा जा सके, तब काम चलेगा। हम मुसलमानों, ईसाइयों के साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं, तो भंगी, चमार और धोबी के साथ क्यों नहीं बैठ सकते ?
अनगढ़ नहीं सुंगढ़ व्यक्ति ही अभीष्ट
नवनिर्माण जैसे उच्चस्तरीय प्रयोजन हेतु श्रेष्ठ लोकसेवी- सुजन शिल्पी चाहिए। हेय स्तर के व्यक्ति यह उद्देश्य पूरा नहीं कर सकते। वाराणसी के शासक ब्रह्मदत्त का राजोद्यान। उद्यान में देश- देशांतर के दुर्लभ एवं सुंदर वृक्षों, लताओं का संग्रह। बोधिसत्व उसी उद्यान में सपरिषद् विश्राम कर रहे थे। उस दिन नगर में एक भव्य उत्सव आयोजित था। माली को उत्सव देखने की लालसा हो आई। उद्यान में बंदरों का समूह था। बंदरों के नायक से माली की मैत्री थी। नायक बंदर को बुलाकर कहा-'' मित्र ! एक दिन तुम अपने यूथ के साथ मिलकर उद्यान सींच दो, तो मैं उत्सव देख आऊँ। '' बंदर ने प्रसन्नतापूर्वक मित्र कार्य संपादित करने का वचन दिया। माली चला गया, तों बंदर पात्र से लताओं का सिंचन करने लगे। तभी नायक ने कहा-'' मित्रो !हमें विवेकपूर्वक सिंचन करना चाहिए, अन्यथा जल का अभाव हो जाएगा। अतएव तुम लोग लताओं को उखाड़ कर उनकी जड़ों की गहराई देख लो। जो जड़ जितनी गहरी हो, उसके अनुसार ही सिंचन करो। '' बंदरों ने शीघ्र ही लताएँ उखाड़ डालीं। बोधिसत्व ने उद्यान का विनाश देखा, तो दीर्घ निःश्वास के साथ कहा-'' अकुलशल का उपकार भरा कार्य सुखद नहीं होता। '' सच्चे लोकसेवियों को ही विश्व- उद्यान को सुंदर समुन्नत बनाने में आगे आना चाहिए, अन्यथा अनपढ़ तो बंदरों की तरह उसे चौपट ही करते रहेंगे।
नेता वह, जो काम करे
रूस के जन नेता लेनिन पर एक बार उनके शत्रुओं ने घातक आक्रमण किया और वे घायल होकर रोग-शैया पर गिर पड़े। अभी ठीक तरह अच्छे भी नहीं हो पाए थे कि एक महत्त्वपूर्ण रेलवे लाइन टूट गई। उसकी तुरंत मरम्मत किया जाना आवश्यक था। काम बड़ा था, फिर भी जल्दी पूरा हो गया।
काम पूरा होने पर हर्षोत्सव हुआ, तो देखा कि लेनिन मामूली कुली- मजदूरों की पंक्ति में बैठे हैं। रुग्णता के कारण दुर्बल रहते हुए भी लट्ठे ढोने का कड़ा काम बराबर करते रहे और अपने साथियों में उत्साह की भावना पैदा करते रहे।
आश्चर्यचकित लोगों ने पूछा-'' आज जैसे जननेता को अपने स्वास्थ्य, की चिंता न करते हुए, इतना कठिन काम नहीं करना चाहिए था। '' लेनिन ने हँसते हुए कहा-'' जो इतना भी न कर सके, उसे जन नेता कौन कहेगा ?''
जिन्होंने पिछड़ों की सेवा का व्रत लिया
तब अफ्रीका में बीमारी फैली हुई थी। उस कठिन क्षेत्र में चिकित्सा करने के लिए डॉक्टरों की माँग छपी। जर्मनी के अध्यापक श्वाइत्जर ने नौकरी छोड़ दी और डॉक्टरी सीखने लगें। उनने निश्चय किया वे अफ्रीका में पिछड़े दुःखियों के लिए जीवन अर्पण करेंगे।
पास होते ही वे अफ्रीका चले गए और अनेक रोगों से ग्रसित उस क्षेत्र के पिछड़े लोगों की सेवा, चिकित्सा द्वारा करने लगे। कुष्ठ रोगियों के लिए उनने पृथक् चिकित्सालय बनाया। नित्य १५ घंटे काम करते। उस समूचे क्षेत्र में उन्हें जीवित दयालु ईसामसीह माना जाता था।
उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला। वह राशि उन्होंने कुष्ठ चिकित्सालय के लिए दान कर दी। निरंतर रोगियों के संपर्क में आने से उन्हें भी छूत लगी और समय से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी पत्नी पूरी तरह उनका हाथ बँटाती थीं। बाद में भी वे उस कार्य में लगी रहीं।
अमेरिका का वेद व्यास
साहित्य- सृजन द्वारा जनमानस के परिष्कार की सबसे बड़ी सेवा हो सकती है। एक बार गांधी जी से किसी अमेरिकन ने पूछा-'' आपने असहयोग की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त की '', तो उनने उत्तर दिया-' थोरो' के साहित्य से। '' थोरो को उनने देखा नहीं था, पर उनका प्रतिपादन इतने गजब का था कि उसके मार्गदर्शन ने न केवल भारत को स्वतंत्र कराया, वरन् संसार से दास- प्रथा की जड़ें भी उखाड़ फेंकीं।
' थोरो ' अमेरिका के ' स्पार्टन ' प्रांत में जन्मे, मजूरी करके पढ़े।स्नातक पदवी की फीस उन दिनों प्रमाणपत्रलेते समय ५ डालर देनी पड़ती थी। उनने प्रमाणपत्र व्यर्थ समझा और उस पैसे को दुखियारों के लिए बाँट दिया।
थोरो ने कुछ ही दिन नौकरी की। बाद में वे एक किराए के मकान में ही रहने लगे। गुजारे के लिए वे पेंसिल बनाते थे। थोरो ने प्रायः ७०० एक से एक बढ़कर पुस्तकें लिखी हैं, पर उनके जीवनकाल में एक संस्करण ही कठिनाई से बिका। उनके न रहने पर उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार माना गया।
थोरो एक झील के तट पर झोपड़ी बनाकर रहते थे। इमर्सन भी उनके साथ रहने लगे थे। अमेरिका का यह वेद- व्यास गरीबी में ऋषियों की तरह मात्र ४४ वर्ष जिया, पर इतने स्वल्पकाल में ही वह संसार के लिए बहुमूल्य ज्ञान संपदा छोड़ गया।
जी लेखनी लेकर अनीति से लड़े
मुंशी प्रेमचंद के कथा साहित्य ने पिछड़े भारत की प्रत्येक अनिष्टकर समस्याओं को छुआ है। उनके हृदय में मूढ़- मान्यताओं और अनाचारों के विरुद्ध आग थी, जिसे लेखनी द्वारा सदा उगलते रहे। उनके उपन्यासों से भारत का बच्चा- बच्चा परिचित है।
प्रेमचंद जी की सादगी चरम सीमा की थी। गुरुकुल कांगड़ी के एक अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया। स्वागत के लिए स्टेशन पर हजारों लोग पहुँचे, पर उनकी सादगी की देखते हुए कोई पहचान न सका। वे बिस्तर सिर पर रखकर तीन मील पैदल ही गुरुकुल जा पहुँचे। स्वागत वाली भीड़ उनके बाद पहुँची।
बाल शिक्षा के लिए समर्पित
बम्बई की ताराबाई मोड़क ने ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा पाई। उन्हें राजकोट में ट्रेनिंग कॉलेज का प्रिंसिपल पद मिला। उधर विवाह होते ही दो वर्ष के भीतर वे विधवा हो गईं।
गांधी जी की बुनियादी शिक्षा योजना में उन्होंने विशेष दिलचस्पी ली और सरकारी नौकरी छोड़कर देहातों में, विशेषतया पिछड़े समुदाय के बालकों एवं अभिभावकों में इसके लिए रुचि उत्पन्न की और जिन कठिनाइयों के कारण वे कतराते थे, उनके समाधान ढूँढ़े। कठिन लगने वाला काम सरल हो गया।
प्रो. गिजू भाई का सहयोग उन्हें और भी कारगर सिद्ध हुआ। उनने देश की प्रमुख भाषाओं में बाल शिक्षा के नए प्रयोगों पर कई पत्रिकाएँ निकालीं और कितनी ही पुस्तकें लिखीं। देश भर में इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए ५०० स्वयंसेवक एकत्रित किए। ये सभी बड़ी लगन से राष्ट्र सेवा का कार्य कर रहे हैं।
मस्तिष्क का संचालक अध्यापक
कलकत्ता बोर्ड की अंग्रेजी की परीक्षा देने पहुँचा एक युवक परीक्षा भवन में, उससे प्रश्न पूछा गया-'' क्या आप हमारे प्रश्नों के लिए तैयार हैं। '' युवक ने उत्तर दिया-'' जी हाँ !तब परीक्षकों ने अंग्रेजी में ही पूछा-'' स्कूल मास्टर और स्टेशन मास्टर में क्या अंतर है ?'' विद्यार्थी ने अंग्रेजी में कहा-'' द स्कूल मास्टर ट्रेन्स द माइंड, व्हाइल द स्टेशन मास्टर माइन्ड्स द ट्रेन्स ।'' परीक्षक इस अर्थपूर्ण उत्तर से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने कहा था- "एक अध्यापक मस्तिष्क को संचालित करता है, जबकि स्टेशन मास्टर गाड़ियों को। '' वह युवक थे श्री सुभाष चंद्र बोस। उनकी यह बात कितनी सही थी कि अध्यापक ही किसी समुदाय के मस्तिष्क को गढ़ता है। वस्तुतः ब्राह्मण वही है जो जनमानस के चिंतन को स्पर्श कर उसे प्रभावित कर सकने में सक्षम हों।
प्रौढ़ शिक्षा को समर्पित
श्रीमती बेल्दी फिशर अमेरिका के संपन्न परिवार में जन्मीं। उनका कंठ अत्यंत मधुर था। वादन और नृत्य कला भी उनने सीख ली। रंगमंच के क्षेत्र में उनका खूब स्वागत हुआ। किन्तु वहाँ के वातावरण से उन्हें गहरी घृणा हो गई और उनने उन लाभों को लात मार दी।
उनका मन पिछड़ों की सेवा में लग रहा था। इसके लिए वे पहले चीन गईं, फिर भारत आईं। गांधी जी के संपर्क ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। दौरा करके देश का पिछड़ापन भी उनने देखा और जाना कि उनका उद्धार बिना शिक्षा वृद्धि के संभव नहीं।
वे विधवा हो गई थीं, इसलिए परिवार की भी कोई जिम्मेदारी उन पर न थी। लखनऊ में उन्होंने अपना शिक्षा प्रसार केन्द्र बनाया और घर- घर घूमकर उनने प्रौढ़ शिक्षा का प्रबंध किया। जो लोग शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते, वे सहज ही उस लाभ से लाभान्वित होने के लिए भी सहमत नहीं होते। इन कठिनाइयों के बीच भी उनने असाधारण सफलता पाई। वे ८० वर्ष की आयु तक जीवित रहीं। इस बीच उनने दो लाख से अधिक निरक्षरों को साक्षर बनाया। उनके कार्य को फोर्ड फाउंडेशन तथा उ.प्र. सरकार से भी सहायता मिली।
विनोबा का भूदान आंदोलन
हैदराबाद के ललगोडा़ इलाके में मची हुई मारकाट को दूर करने के लिए संत विनोबा ने वहीं से भूदान आंदोलन आरंभ किया। उदारमना लोगों ने अपनी जमीनें देना आरंभ किया। सबसे पहले विनोबा की पुकार पर जमींदार रामचंद्र रेड्डी ने अपनी फालतू जमीन दी ।। इसके बाद वह सिलसिला चल पड़ा और भूदान से एक लाख एकड़ जमीन तक दान में मिली। इसी को कहते हैं अच्छे कार्य का शुभारंभ। आज इसी की परिणति स्वरूप हजारों भूमिहीन अपनी जमीन पर खेती कर गुजर- बसर कर रहे हैं।
नारियल का उद्यान मेवाड़ में
यदि चिंतन सृजनात्मक हो तो गतिविधियाँ भी उसी दिशा में चल पड़ती हैं।
मेवाड़ के किसान बालक नक्षत्र सिंह को पुस्तकों में, चित्रों में छपे नारियल के पेड़ बड़े सुंदर लगते थे। स्कूल की पढा़ई पूरी करते- करते उसे लगा कि अपने खेतों में नारियल के बगीचे क्यों न लगाए जाँय। मिट्टी की जाँच कराई, तो वह इसके लिए बिलकुल उपयुक्त पड़ी। आसानी से लगा सकने वाला यह आरोपण उधर रिवाज न होते हुए भी उसने हठपूर्वक कर डाला। बिना सिंचाई के झंझट वाला अधिक आमदनी देने वाला यह व्यवसाय दूसरों को भी बहुत सुहाया और वह समूचा इलाका ' मिनी दक्षिण भारत ' बन गया। हजारी किसान की तरह उसका पुरुषार्थ सबके द्वारा सरहा गया।
संत चिकित्सक
रायपुर जिले के एक '' गाँव में जन्मे थे शरण प्रसाद। बचपन में पढ़ते समय प्राकृतिक चिकित्सा का साहित्य पढा़ और मन में आया कि उस विद्या में स्वयं प्रवीण होना चाहिए और दूसरों को लाभान्वित करना चाहिए।
वे घर से निकल पड़े। गन्ने का रस निकालने से लेकर लकड़ी चीरने, रसोई बनाने आदि के श्रम से निर्वाह करते हुए उनने देशभ्रमण किया और प्राकृतिक चिकित्सालयों में जा पहुँचे। बालकोवा भावे ने उनके स्वभाव और ज्ञान को बहुत पसंद किया और वहीं रख लिया। वे आश्रम का हर छोटा- बड़ा काम करते, अध्ययन बढ़ाते और रोगियों की चिकित्सा में रस लेते। अंततः वे प्राकृतिक चिकित्सा के मान्य डॉक्टर बन गए।
कुछ वर्ष आश्रम में रहकर उनका मन आया कि इस ज्ञान की जानकारी जन- जन को करानी चाहिए। वे चल पड़े और प्राकृतिक चिकित्सा के अनेक शिविर लगाते रहे। इसी पुण्य कार्य में निरत रहकर एक संत चिकित्सक की तरह उनने अपना जीवन समाप्त किया।
राममूर्ति का व्यायाम आंदोलन
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में प्रो. राममूर्ति के सर्कस की बडी़ धूम थी। उसमेँ वें मानवी बलिष्ठता का प्रदर्शन करते थे। कोई कला या जादूगरी उसमें न थी। छाती पर चट्टानें रखकर हथौडो़ं से तुड़वाना, सीने पर से हाथी निकालना, हाथों से हाथी उठा लेना जैसे पराक्रम उनकी शारीरिक बलिष्ठता के चिह्न थे। यह शिक्षा उनने अपनी पत्नी ताराबाई को भी दी और वह भी सर्कस में अपना रोल निभाने लगीं।
राममूर्ति नट नहीं थे, वरन् व्यायाम- विशारद थे। वे बताया करते थे कि उनने अपने गए- बीते स्वास्थ्य को आहार- विहार तथा संयम के आधार पर कैसे सुधारा। इस प्रक्रिया को अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति अपने को सबल बना सकता है।
सर्कस से प्रभावित लोगों को वे अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित करते थे तथा व्यायामशालाएँ खुलवाने की गुरु दक्षिणा माँगते थे। उनके प्रयास से उन दिनों देश में व्यायाम आंदोलन की एक नई हवा चली थी।
यह धन भी समाज का
फ्रांस की पेस्टो नामक संस्था में डॉ० रू ने कठिन परिश्रम करके बच्चों को गले में होने वाले दर्द की एक दवा खोज निकाली।
इस खोज के लिए डॉ० रू को ४ हजार पौंड का इनाम दिया गया, पर डॉ० रू ने यह इनाम खुद के लिए न रखकर पेस्टो संस्था को प्रदान कर दिया। यह देखकर इनाम देने वाले श्रीमान् ने डॉ० रू से पूछा-'' आपने इनाम अपने उपयोग में क्यों नहीं लिया ?''
डॉ० रू ने विनयपूर्वक कहा-'' इस संस्था में रहकर मैंने प्रयोग और शोध कार्य किया है। इस संस्था के कारण ही आज मैं इस लायक बन सका हूँ। संस्था को पैसे की कमी तो हर समय महसूस हुआ ही करती है। पैसे की कमी के कारण संस्था कभी बंद न हो जाय, इसलिए मैंने यह रकम अपने लिए न रखकर संस्था को दे दी। संस्थाके लिए आमदनी के स्रोत बहुत कम हैं। ''
डॉ० रू का यह उत्तर सुनकर इस करोड़पति श्रीमान् ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, पर मरते समय उन्होंने पेस्टो संस्था को साढ़े बारह लाख पौंड भेंट किए और जाते समय बसीयत लिख गए। जिस संस्था के कार्यकर्त्ता इतने उदार हृदय हैं , वह संस्था भी महान् होनी चाहिए।
भारत की सेवा हेतु सुविधाएँ त्यागी
न्यूजीलैण्ड की कुमारी डायना वालेसी उच्च शिक्षित और सुसंपन्न थीं। उन्हें पर्यटन का शौक था। हर साल संसार के मनोरम स्थानों को देखने के लिए वे प्रचुर धन व्यय करती थीं। बड़े होटलों में ठहरती थीं। तब उनकी आँखों में सुसंपन्न संसार का ही नक्शा था।
एक प्रवास में वे भारत भी आईं। यहाँ के शहरों की स्थिति और देहातों की दशा में जमीन- आसमान जैसा अंतर देखा। लौटीं तो उनका विचार बदल गया और उन्होंने भारत जैसे पिछड़े देश की सेवा करने की ठान ठानी।
वे न्यूजीलैण्ड छोड़कर भारत आ गई और वे बंबई के निकट एक देहात में बस गईं । उनसे सारे देश की सेवा करते तो न बन पडी़, पर एक आदर्श उपस्थित किया कि संपन्न लोग यदि निर्धनों को अपने परिवार में सम्मिलित कर लें, तो समस्या सहज ही हल हो सकती है। डायना ने विवाह नहीं किया, पर निर्धनों के बच्चे गोद लेकर उन्हें सुयोग्य बनाना आरंभ कर दिया। बंबई में श्रम करके आजीविका कमा लेती थीं और गोद लिए बच्चों के भरण- पोषण में तल्लीन होकर प्रसन्न रहती थीं। वे आजीवन यहीं रहीं।
फ्रांस की दूसरी देवी 'सराह'
जौन आँफ आर्क का नाम फ्रांस की जनता की जीभ पर से उतरने न पाया था कि उसी भूमि पर एक और देवी प्रकट हो गई। वह थी ' सराह '। उन दिनों लोकरंजन का कार्य '' नाटक '' ही करते थे। सिनेमा का युग आरंभ नहीं हुआ था। देवी सराह ने नाटक क्षेत्र में प्रवेश किया। वह ड्रामे लिखती भी थीं और अभिनय भी करती थीं। सभी के विषय आदर्शों से भरे-पूरे होते थे। उसने जन जागरण, प्रगति, आदर्श, देश भक्ति यही सब अपने विषय रखे।
वे सिनेमा के नायकों की तरह सुंदर न थीं। सिनेमा अभिनेत्रियों की उछल- कूद प्रायः २० वर्ष काम देती है। इसके बाद वे दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकी जाती हैं, पर सराह ६१ वर्ष तक अपना काम मुश्तैदी से करती रहीं।
उन्हें जीवन प्यारा था, पर वे मृत्यु को और भी अधिक प्यार करती थीं। मृत्यु से लेकर दफन होने तक का एक रिहर्सल उनने भली प्रकार अभ्यास में उतार लिया था। यूरोप भर के मूर्धन्य लोग उसे देखने आया करते और अत्यंत प्रभावित होते।
सराह थी तो अभिनेत्री पर वस्तुतः उनकी गणना फ्रांस के नव निर्माण की दिशा देने वालों में होती है। उन्हें युग की संदेशवाहिका माना गया।
शराब छुडा़ई
नशा निवारण, दुष्प्रवृति उन्मूलन जैसे कार्यों के लिए भी संत समुदाय को ही आगे आना चाहिए। संत इब्राहिम बिन अदम एक बार कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि रास्ते में एक शराबी पड़ा हुआ है, उसके कपड़े मिट्टी से लथपथ हैं और मुँह कीचड़ से सना है। यह देखकर संत बोले-'' जिस मुँह से खुदा का नाम लिया जाता है, उसे इस हालत में नहीं रहना चाहिए।'' और उन्होंने पास ही कहीं से पानी लाकर शराबी का मुँह धो दिया। जब शराबी को इस बात का पता चला तो उस पर बड़ा असर पडा़। उसने शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और वह सुधर गया।
मूल्य चुकाइए
स्वामी रामतीर्थ उन दिनों अमेरिका के दौरे पर थे। अनेक स्थानों पर गोष्ठियों तथा प्रवचनों का आयोजन हो रहा था। भारतीय संस्कृति के अमूल्य सिद्धांतों की व्याख्या से अमेरिका निवासी बड़े प्रभावित हो रहे थे। एक दिन स्वामी जी का प्रवचन समाप्त होने पर एक महिला आई और विषादयुक्त वाणी में अपने विचार व्यक्त करने लगी। '' स्वामी जी ! मेरे एक ही पुत्र था। थोड़े दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गई। मैं विधवा हूँ। किसी भी तरह चित्त को शांति नहीं मिलती। जीवन में निराशा ही निराशा दिखाई देती है। आप कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे मेरे जीवन को शांति मिल सके।'' "अपको शांति की पुनः प्राप्ति हो सकती है और अपने जीवन में आनंद का अनुभव कर सकती हैं। पर हर वस्तु का मूल्य चुकाना पड़ता है। क्या आप सुख- शांति की पुनः प्राप्ति हेतु कुछ त्याग करने को तैयार हैं ?''
'' बस आपके आदेश देने की देर है। मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हूँ। '' '' पर इतना ध्यान रखना कि आपके देशवासी भौतिक वस्तुओं पर अधिक ध्यान देते हैं। वहाँ डालर और सेंट के त्याग से काम नहीं चलेगा। यदि आप सचमुच तैयार हैं, तो मैं कल स्वयं ही आपके निवास स्थान पर उपस्थित होऊँगा। '' दूसरे दिन स्वामी रामतीर्थ एक हब्सी बालक को अपने साथ लेकर उस महिला के घर पहुँचे। बिजली का बटन दबाया। घंटी बजी, दरवाजा खुला और वह महिला सामने आ खड़ी हुई। '' स्वामी जी ! आपने बड़ी कृपा की, जो मेरे घर पधारे। '' '' माता ! यह रहा तुम्हारा पुत्र। अब इसके सुख- दुःख का ध्यान रखना और पालन- पोषण करना तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। '' उस काले लड़के को देखकर वह महिला सिहर उठी-स्वामी जी ! यह हब्सी बालक मेरे घर में प्रवेश कैसे कर सकता है ? गोरी माँ काले लड़के को अपना पुत्र कैसे बना सकती है ?''
'' माँ ! यदि इस बालक के लालन- पालन में आपको इतनी कठिनाई अनुभव हो रही है, तो सच्चे सुख और शांति को प्राप्त करने का मार्ग तो और भी कठिन है। ''
सबसे बड़ा सुख
याकूब ने सुना था संत तालसुद पहुँचे हुए फकीर हैं। उनकी दुआ से दुःखी लोग भी आनंदित होकर आते हैं। सो याकूब उन्हें खोजता- ढूँढ़ता एक वियावान में जा पहुँचा। वे एक टोकरी में दाना लिए चिड़ियों को चुगा रहे थे। उनकी प्रसन्नता भरी फुदकन और चहचहाहट को देखते हुए आनंद विभोर हो रहे थे। याकूब बहुत देर बैठा रहा, पर जब संत का ध्यान ही उसकी ओर न गया तो झल्लाया।
तालसुद ने उसे उँगली के इशारे से पास बुलाया और हाथ की टोकरी उसके हाथ में थमाते हुए कहा-'' लो अब तुम चिड़ियाँ चुगाओ और उनकी प्रसन्नता देखकर स्वयं आनंद लो। '' फिर थोड़ा गंभीर स्वर में बोले-'' अपना दु:ख भूलकर दूसरों को जहाँ तक संभव हो आनंद की अनुभूति दे पाना,उनके दुःख के क्षणों में स्वयं को उनका सहभागी बना लेना ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। मैंने जीवन भर यही किया है। तुम भी यही करो व जीवन धन्य बनाओ। ''
उनकी जीवन गाथा लिखें
एक प्रसिद्ध लेखिका मद्रास के मुख्यमंत्री का जीवन चरित्र विस्तार से लिखना चाहती थी। इसके लिए उनसे कई प्रश्न पूछने आई थी। मुख्यमंत्री ने कई समाजसेवियों के नाम गिनाए और कहा-'' इनमें से किसी का जीवन चरित्र लिखें। मुझे तो मेरी सेवाओं का पुरस्कार मिल गया। आप उनकी जानकारी जनता को कराएँ, जिनकी ख्याति अभी तक नहीं हुई है। '' लेखिका ने वैसा ही किया।
अवाञ्छनीयतास्ताश्च कर्तुमुन्मूलिताः स्वयम्। सशक्ताक्रोशसंघर्षविरोधानामपि स्थितिम् ।। ८७ ।। उत्थितां कर्तुमर्हास्ते शास्त्रमेककरे तथा। शस्त्रं तिष्ठति विप्राणां करे येषां द्वितीयके।। ८८ ।।
भावार्थ- हर क्षेत्र में पनपने वाली अवांछनीयताओं का उन्मूलन कर सकने वाला आक्रोश, विरोध एवं संघर्ष खड़ा करना भी उन्हीं का काम है। ब्राह्मण के एक हाथ में शास्त्र और दूसरे में शस्त्र रहता है ।।८७-८८।।
व्याख्या- जहाँ समाज में श्रेष्ठता है, वहाँ निकृष्टता भी व्यापती है। ब्राह्मण वर्ग का कर्तव्य है- अपने मठ को जगाना एवं अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना । मात्र शास्त्र वचनों की दुहाई देनी ही पर्याप्त नहीं, व्यक्ति में दुष्टता के विरुद्ध असहयोग, विरोध एवं संघर्ष कर सकने का साहस भी अपेक्षित है। इसके अभाव में तो वह पुरुषत्वहीन शरीरधारी भर है, जिसका अस्तित्व नहीं के समान है। ब्राह्मण का दायित्व है - अपना ही नहीं, सारे समुदाय की रक्षा करना, इसके लिए जनमानस में मनोबल भरना एवं अपने कर्तृत्वों द्वारा उदाहरण प्रस्तुत करना।
निसिचर हीन करउँ महि
भगवान् राम अनीति के विरुद्ध सतत् संघर्षरत रहे।
उनकी करुणा और कठोरता की झलक एक साथ ही रामायण के इस प्रसंग में मिलती है। हड्डियों का ढेर देखकर श्रीराम उसका विवरण पूछते हैं। जब यह मालूम होता है निशाचरों ने ऋंंषियों को खा डाला है, यह उन्हीं की हड्डियों का ढेर है, तो राम की आँखों में आँसू आ गए। वे दीन, दुर्बल, असहायों के आँसू न थे। उन्होंने तत्काल प्रतिकार का निश्चय किया और हाथ उठा शपथपूर्वक प्रतिज्ञा की, कि इस पृथ्वी को असुर विहीन करूँगा। इस संघर्ष के अतिरिक्त उन्होंने ऋषियों के कष्ट निवारण के लिए सहायता की भी व्यवस्था की। धर्म की स्थापना, अधर्म का विनाश ही यह उभयपक्षीय उपक्रम है-
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ।। निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुवीर नयन जल छाए ।। निसिचर हीन करउँ महि, भुज उठाइ प्रन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं जाइँ- जाइँ सुख दीन्ह ।।
वे तो खर- दूषण जैसे दुष्टों को खोज- खोज कर मारने में ही अपने क्षत्रिय धर्म की पूर्ति मानते हैं। कहते हैं-
हम क्षत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह सम खल मृग खोजत फिरहीं ।। रिपु बलवान देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सुन लरहीं ।। भगवान् रामं की परंपरा को ही ऋषियों ने भी आगे बढ़ाया।
भावार्थ - उदरपूर्ति के लिए आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी और अभिभावक स्वयं ही दौड़- धूप करते रहते हैं। उसके लिए जानकारी भर बढ़ाने वाले वेतनभोगी अध्यापक भी अन्यान्य श्रमिकों की तरह हर जगह मिल जाते हैं। अभाव उनका रहता है, जो अपने गुण- कर्म, स्वभाव का आदर्श प्रस्तुत करके जन- साधारण का विवेक जगा सकें, उदात्त आचरण एवं परमार्थ- परायणता सिखा सकें । यह काम कर सकना हर किसी के वश का नहीं है, प्राय: यह काम ब्राह्मण का ही हैं। उन्हीं को पुरोहित के रूप में जन साधारण का नेतृत्व करना पड़ता है। इस धर्म- धारणा के लिए मात्र शिक्षण- उद्बोधन ही पर्याप्त नहीं होता, वरन् अभ्यास के लिए अनेक रचनात्मक एवं सुधारात्मक आंदोलन खड़े करने होते हैं और उनमें असंख्यों को जुटाकर ज्ञान को कर्म में परिणत करते हुए स्वभाव-संस्कार स्तर तक पहुँचाना के होता है ।। ७० -७७ ।।
व्याख्या- ब्राह्यण वह है, जो समाज में सुसंस्कारिता संवर्द्धन के बहुमुखी दायित्व सँभालते हैं। चाहे वह सुकुमार कच्ची मनोभूमि वाले बालक हों अथवा भिन्न- भिन्न मनःसंरचना वाले समाज परिकर का अपार जनसागर। उन्हें स्वयं के श्रेष्ठ आचरण द्वारा शिक्षण करते हुए, वे नैतिक पुनरुत्थान, बौद्धिक क्रांति हेतु जन- नेतृत्व का मोर्चा सँभालते हैं ।
समग्र साधना का शिक्षण
ब्राह्मण का कार्य है, उचित शिक्षा देकर जन- नेतृत्व करना।
राजा आमात्य जनश्रुति ने महर्षि वशिष्ठ से पूछा-'' मैं पुण्यात्मा हूँ। धर्म के नियमों पर चलता हूँ। उपासना में भी चूक नहीं करता, फिर भी न मेरा लक्ष्य ही पूरा होता दिखाई पड़ता है, न भीतर का संतोष ही प्राप्त है। ''
वशिष्ठ ने कहा-" वत्स ! सदाचरण और साधन का महत्त्व तो है, किन्तु वे दोनों ही स्नेह और सेवा के बिना अपूर्ण रहते हैं। तुम उन दो साधनाओं को भी अपनाकर अपूर्णता दूर करो और समग्र प्रतिफल प्राप्त करो। ''
ब्रह्मज्ञान का उपदेश
एक जिज्ञासु किसी ब्रह्मचारी के पास ईश्वर- दर्शन की इच्छा लेकर गया। ब्रह्मचारी ने उसे पास बिठाया। एक बड़ा- सा जल भरा पात्र मँगाकर उसमें नमक घोल दिया। इसके बाद जिज्ञासु ने कहा- "उस नमक को निकालकर दिखाओ।''
यह संभव न था। इसलिए जिज्ञासु ने कहा-'' अब यह संभव नहीं। मात्र चखकर ही जाना जा सकता है कि नमक का अस्तित्व मिटा नहीं, वरन् पानी में घुला है। ''ब्रह्मचारी ने कहा-'' ईश्वर इस सृष्टि में घुल गया है। उसे देखा नहीं जा सकता, उसे अनुभव किया जा सकता है ।'' जिज्ञासु ने दर्शन की हठ छोड़ दी श्रद्धा के आधार पर अनुभूति की नीति अपनाई।
तुन्हे लज्जा नहीं आती
समयानुसार कभी- कभी लताड़ना भी पड़ता है। एक बार मिदनापुर में स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता का भाषण हो रहा था। मंत्रमुग्ध जनता उपदेशामृत पान करने में तल्लीन थी, तभी कुछ युवकों ने ' हिप, हिप, हुर्रे '' का उद्घोष किया।
भगिनी निवेदिता ने भाषण के बीच में ही उन्हें डाँटते हुए कहा-'' चुप रहो, क्या तुम्हें अपनी भाषा का जय भी गर्व नहीं ? क्या तुम्हारे पिता अंग्रेज थे ? क्या तुम्हारी माँ गोरी चमड़ी की यूरोपियन थीं ? अंग्रेजों की नकल करते तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती ?
यह सुनकर युवक स्तब्ध रह गए। तभी निवेदिता बोलीं-'' भाषण के दौरान प्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक ही हो, तो स्वभाषा में प्रकट करो ।' बोलो - ' '' सच्चिदानंद परमात्मा की जय ! भारतमाता की जय ! सद्गुरु की जय। '' युवकों ने तत्काल उनके आदेश का पालन किया।
भाषण बाद में, सेवा पहले
हर समय उपदेश देते रहना ही उपयुक्त नहीं है। जो व्यक्ति ऐसा करते है, उन्हें उनके कर्तव्यों का ज्ञान कराना भी ब्राह्मण का ही कार्य है।
एक बच्चा तालाब में डूब रहा था और उसका पिता किनारे पर खड़ा उपदेश कर रहा था- ले मेरा कहना न मानने का फल भुगत। तभी एक संत उधर से निकले और कूदकर बच्चे को बचाते हुए बोले-'' पहले उसे डूबने से बचाओ, फिर अपना भाषण दो। ''
समय पर जगा दिया
कभी- कभी ऐसे अवसर आते हैं कि विकट समय में प्रभु-प्रेरणा किसी के भी माध्यम से प्रकट हो, संत को, ब्राह्मण को उनके कर्तव्य का ज्ञान करा देती है। बगदाद के काजियों ने खलीफा से शिकायत की कि संत इमाम अवल कुरान को मनुष्यकृत मानते हैं और कट्टर धर्मांधता का विरोध करते हैं। उन्हें दंड मिलना चाहिए।
वृद्ध संत को राज- दरबार में पेश होने के लिए सिपाही पकड़ लाए। वे रस्सों से बँधे अपराधियों की पंक्ति में खड़े सोच रहे थे कि अन्यायी क्रूरता उन्हें कितना कठोर दंड दे सकती है। चिंता की रेखाएँ उनके चेहरे पर उभर रही थीं। पहरे वाले सिपाही ने वस्तुस्थिति को समझा। संत के पास आया और धीरे- से बोला-'' हजरत, जुल्म से डरिए मत, बहादुरी दिखाइए। चोरी का जुर्म कबूल कराने के लिए मुझ पर एक बार हजार कोड़ों की मार पड़ी थी, पर मैंने जुर्म कबूल नहीं किया और छूट गया। मैंने झूठ के लिए कलेजा इतना कड़ा कर लिया, तो आप सच के लिए कष्ट उठाने में क्यों डरें ?'' संत की औखें चमक उठीं, उसने कहा- '' प्यारे ! तूने मुझे समय पर जगा दिया। ''
खलीफा के दरबार में संत ने सच- सच कह दिया कि वे कुरान को मनुष्यकृत मानते हैं और धर्मांधता का विरोध करा हैं। हजार बेंत लगाकर उन्हें मार डालने का हुक्म हुआ। इमाम की चमड़ी उखड़ गई और कराहते हुए मौत के मुँह में चले गए, पर चोर सिपाही का उपदेश दुहराते ही रहे कि सच के लिए कष्ट उठाने से क्यों डरें ?
बकरी तो मेरी थी
दुसरों को ज्ञान देना तो सरल है पर स्वयं उसे जीवन में उतारना कठिन है। गाँव के बाहर एक साधु कुटिया में रहते थे। कोई भक्त एक बकरी दे गया था, उसकी देख−भाल करते दूध पीते।
एक दिन एक गृहस्थ आया, उसका जवान बेटा मर गया था। उसे रोता देख साधु ने समझाया- '' शरीर मरणधर्मा है, आत्मा अमर है। शरीर छूटने से दुःख करना बेकार है। ''
संयोग से कुछ दिन बाद साधु की बकरी मर गई। साधु रोने लगे। वही गृहस्थ पहुँचा, बोला-'' महाराज जी, आप तो मुझे शोक न करने का उपदेश देते थे, अब आप क्यों रोते हैं ?'' साधु बोले-'' बालक तुम्हारा था, पर बकरी तो मेरी अपनी थी, इसलिए रोता हूँ। ''
धूर्तों की तिकड़म
संसार मेँ बाहुल्य ऐसे व्यक्तियों का है, जो अवसर देखकर लाभ उठाना चाहते हैं। आचरण नहीं बदलना चाहते । ऐसे व्यक्ति अलग पहचान लिए जाते हैं। राजमहल में एक संत आए। राजा ने उनसे दीक्षा ले ली। इस समाचार को सुनकर अनेक चतुर लोग दीक्षा लेने लगे और राजा के गुरु भाई बनने लगे। साथ ही गुरु भाई के नाते टैक्स माफ करने का भी दबाव डालने लगे। यही उनका उद्देश्य भी था। राजा बड़ी कठिनाई में पड़े। आमदनी समाप्त होने लगी।
राजा को बुलाकर संत ने कहा-'' मैं जाता हूँ। तुम कहना वे हमारे गुरु नहीं रहे। इससे जो लगान माफ कराने के लिए शिष्य बने हैं , उनसे पीछा छूट जाएगा।
वेश पर आवेश क्यों ?
सभी वेशधारी साधु सन्त नहीं होते एवं सभी सन्त वेश धारण करें, यह अनिवार्य नहीं। कुछ के कारण सारे समुदाय को कभी- कभी हानि उठानी पड़ती हैं। एक वनवासी को साधु वेश से चिढ़ थी। एक सन्त उस वन से होकर कहीं जा रहे थे, वह देखते ही आगबबूला हो गया और खींच कर पत्थर मारा। वे बिना कुछ कहे चले गये।
पत्थर का घाव तो अच्छा हो गया पर यह प्रश्न उनके मस्तिक में घूमता ही रहा कि किसी सन्त के दुर्व्यवहार से उसके मन में घृणा हुई मालूम पड़ती हैं। चल कर उस कारण को जानना चाहिये और आक्रोश का निवारण भी करना चाहिये कि सबको एक समझने की भूल न करें।
संत सीधे उसकी झोपड़ी में चले गए। देखा तो वह बुखार और अतिसार से बुरी स्थिति में अचेत पड़ा है।
होश आने पर सेवारत साधु को देखकर उसने पश्चात्ताप प्रकट किया और अनुभव किया कि एक जैसे वेश के सभी एक समान नहीं होते। साधु वेश में संत भी होते हैं, यह उसने पहली बार जाना।
धर्म रक्षक की महती जिम्मेदारी
समाज में सर्वोपरि पद पर रहने के कारण उनके दायित्व भी बढे़- चढ़े हैं। जिन पर धर्म- संस्कृति की रक्षा का भार है, उन्हें तो और भी सतर्क होना चाहिए। बोधिसत्व एक दिन सुंदर कमल के तालाब के पास बैठे वायु सेवन कर रहे थे। नव- विकसित पंकजों की मनोहारी छटा ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया, तो वे चुप बैठे न रह सके, उठे और सरोवर में उतर कर निकट से जलज गंध का पान कर तृप्ति लाभ करने लगे।
तभी किसी देव कन्या का स्वर सुनाई पड़ा-'' तुम बिना कुछ दिए ही इन पुष्पों की सुरभि का सेवन कर रहे हो। यह चोर कर्म है। तुम गंध चोर हो। '' तथागत उसकी बात सुनकर स्तंभित रह गए। तभी एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल- पुष्प तोड़ने लगा, बड़ी देर तक उस व्यक्ति ने पुष्पों को तोड़ा- मरोड़ा पर रोकना तो दूर, किसी ने उसे मना तक भी न किया।
तब बुद्धदेव ने उसे कन्या से कहा-'' देवि ! मैंने तो केवल गंधपान ही किया था। पुष्पों का अपहरण तो नहीं किया था, तोड़े भी नहीं, फिर भी तुमने मुझे चोर कहा और यह मनुष्य कितनी निर्दयता के साथ पुष्पों को तोड़कर तालाब को अस्वच्छ तथा असुंदर बना रहा है, तुम इसे कुछ नहीं कहतीं ?'' तब वह देव कन्या गंभीर होकर कहने लगी-'' तपस्वी ! लोभ तथा तृष्णाओं में डूबे संसारी मनुष्य, धर्म तथा अधर्म में भेद नहीं कर पाते। अतः उन पर धर्म रक्षा का भार नहीं है। किंतु जो धर्मरत् हैं, सद्- असद् का ज्ञाता है, नित्य अधिक से अधिक पवित्रता तथा महानता के लिए सतत् प्रयत्नशील है। उसका तनिक-सा पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है। ''
बोधिसत्व ने मर्म को समझ लिया और उनका सिर पश्चात्ताप से झुक गया।
अपराध नहीं,अपराधी का स्तर देखें
पाप कर्म करने वाले का स्तर क्या है, इस पर सजा निर्भर है। जिसके दायित्व बढ़े- चढ़े हैं ,उससे यदि ऐसा कुकृत्य हो, तो उसकी सजा भी अलग होगी।
चार जुआरी पकड़े गए। वे राजा के सामने पेश किए गए। राजा ने एक को छ: महीने की जेल दी। दूसरे को पाँच सौ रुपया जुर्माना। तीसरे को कान पकड़ कर दस बार उठने- बैठने की सजा दी और चौथे को इतना ही कहा-'' आप भी ।'' और उसे बिना कुछ दंड दिए रिहा कर दिया।
मंत्रियों ने एतराज किया कि एक ही जुर्म में एक साथ पकड़े गए अपराधियों को अलग- अलग प्रकार की सजा क्यों ? राजा ने कहा-'' कल आप लोग जाकर देखना कि वे चारों क्या कर रहे हैं ?''
देखा गया तो जिसे जेल हुई थी, वह जेल में जाकर भी कंकड़ों की सहायता से दूसरे कैदियों को जुआ खिला और सिखा रहा है। जिसे पाँच सौ रुपया जुर्माना हुआ था, उसने उस नगर को छोड़कर दूसरे नगर में '' अपना धंधा करना शुरू कर दिया था। जिसे कान पकड़कर उठने- बैठने के लिए कहा गया था। उसने घर जाकर शपथपूर्वक प्रतिज्ञा की, कि वह कभी भी जुआ न खेलेगा। और जिसे 'आप भी ' कहकर रिहा कर दिया था,' उसने सोचा कि हमारे खानदान की प्रतिष्ठा राज- दरबार में धूलि हो गई और शहर में जानकारी फैलने से मुँह दिखाने लायक न रहेगा, सो उसने वह राज्य छोड़ दिया और किसी अन्य देश के लिए चला गया।
राजा ने सूचना के आधार पर कहा-'' जुर्म ही नहीं व्यक्ति का स्तर देखकर भी सख्ती और नरमी बरती जाती है। ''
प्रभु की कृपा पापी पर पहले
संतों के लिए सभी समान हैं। पानी को वे अपनी सहृदयता से आचरण सुधारने की सीख देते व सफल होते हैं।
जेकस के पास धन का अपार भंडार था, जिसे उसने जनता से क्रूरतापूर्वक वसूल कर एकत्रित किया था। अपने अमानुषिक यातनाओं के लिए वह कुख्यात हो चुका था। जब वह बाहर निकलता, तो लोग नगर से भागकर जंगलों में छिपने लगते।
एक दिन प्रभु ईसा मसीह उसके नगर में आए। गरीबों के प्रभु आ रहे थे। जनता उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ी। जेकस भी प्रतीक्षा कर रहा था। ईसा उसके पास से निकले तो देखते ही बोले-'' आज तुम्हारे यहाँ निवास करूँगा। '' एक कुख्यात व्यक्ति के ऊपर ईसा को कृपा करते देखकर जनता की श्रद्धा डगमगा उठी। बहुत से लोग निंदा करने लगे। परंतु उनकी प्रतिक्रियाओं से उसे क्या लेना- देना, जो ऊँचे उद्देश्यों के लिए चल पड़ा हो। अब तक के विरोधों एवं आलोचनाओं से जो न सुधर सका था, ईसा की स्नेहिल करुणा का संस्पर्श पाकर जेकस का हृदय ही परिवर्तन हो गया। उन्हें बिदा करते समय उसने कहा-'' प्रभु ! अपनी आधी संपत्ति आप के शुभागमन के उपलक्ष्य में उन लोगों के उत्थान में खर्च करूँगा, जो किसी भी कारण दुःखो तथा अभावों का जीवन जी रहे हैं। जिनसे अनुचित उपायों द्वारा धन प्राप्त किया है, उन्हें भी चौगुना धन वापस करने का वचन देता हूँ। '' लोगों ने जेकस का हृदय परिवर्तन देखा और उन्हें ईसा का उसके यहाँ रुकने का उद्देश्य समझ में आ गया।
वैज्ञानिक मनीषी अलहसन
व्यक्तिगत जीवन में कठोर एवं परमार्थी संत अपना दायित्व निभाना भली- भाँति जानते हैं। अपना आचरण वे दर्पण के समान स्वच्छ रखते हैं।
काहिरा की एक पुरानी मस्जिद के गुंबज में रहकर गुजर करने वाले अलहसन गणित, ज्योतिष और भौतिकी के असाधारण विद्वान थे। उनने विज्ञान के हर क्षेत्र का नए सिरे से पर्यवेक्षण किया और पुरानी जानकारियों को बहुत कुछ सुधारा और उनमें बहुत कुछ जोड़ा। उनके ग्रंथों का पश्चिम की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और नई पीढ़ी के वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कारों में भारी सहायता प्राप्त की।
अलहसन को राजदरबार में जगह मिली थी और ऊँचा वेतन भी था। किन्तु उसे छोड़कर, बड़े ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार करने का परिश्रम करके अपनी आजीविका चलाई। बादशाह नसीरुदद्दीन की तरह टोपी सीकर और कुरान लिखकर, रोटी कमाने का तरीका अलहसन का अपनाया हुआ रास्ता ही था।
ऐसे होते हैं संन्यासी
संथाल परगना के एक अध्यात्म प्रेमी को, धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर संन्यास लेने की सूझी और उनने एक बाबा जी से दीक्षा लेकर अपना नाम गीतानंद रख लिया। वे तीर्थाटन के लिए निकल पड़े। वे श्रद्धालु के साथ तार्किक भी थे। तीर्थों में जो कुछ उनने होते देखा, उससे उन्हें बहुत बुरा लगा और प्रतीत हुआ कि विद्वत् समाज में अश्रद्धा के बीज बोने की जिम्मेदारी इसी भ्रम- जंजाल और लूटमार की है, जो वंश और वेश के नाम पर व्यवसाय के रूप में चलाया जा रहा है। ईश्वर दर्शन के नाम पर जो दिवास्वप्न दिखाए जाते थे, उन्हें और भी बुरे लगे। थोड़े दिन भटकने के उपरांत वे अपनी जन्मभूमि लौट आए और अपने क्षेत्र में लोकसेवा का सच्चा संत आदर्श प्रस्तुत करने का निश्चय किया ।
उनने अपना घर ही सत्संग भवन बना लिया। सप्ताह में एक दिन कीर्तन करते और समीपवर्ती गाँवों से विचारशील लोगों को बुलाकर सर्वतोमुखी उत्कर्ष की योजना बताते और छः दिन जन संपर्क में लगे रहते। उनके प्रयत्न से उस क्षेत्र में ३५ प्राथमिक पाठशाला ,२ हाईस्कूल, ४० व्यायामशालाएँ तथा १० पुस्तकालय खुले। वे रात्रि में भजन करते और दिन में जनकल्याण का वातावरण बनाने में लगे रहते।
बहूनि सन्ति कर्माणि यान्याश्रित्य च युज्यते। शिक्षितुं लोकसेवैषा जगन्मङ्गलकारिणीः ।। ७८ ।। सत्यवृत्तीर्विधातुं ता शुभा अथाग्रगामिनीहः। यथा थ्यायामशालास्ता पाठशाला: कला अपि ।। ७९ ।। पुस्तकालय उद्योगाः कौशलश्रमशालिता । हरितक्रान्तिरत्रैषा स्वच्छता धेनुपालनम् ।। ८० ।। स्वास्थ्यवृद्धिः समारोहस्तथासंगठनादिकम्। कुरीतिवारणं बालकल्याणं जनजागृतिः ।। ८१ ।। महिलामङ्गलादीनि रचनात्मकरूपतः। सन्ति ख्यातानि यान्यत्नोद्भाव्यान्यन्यान्यपि स्वयम् ।। ८२ ।। सर्वाण्येतानि कर्तुं च गतिशीलानि सन्ततम्। अग्रगामीनि चायान्तु व्यवस्थापयितुं समे ।। ८३ ।। लोकसेवारता येन वातावरणमुज्जवलम्। सोत्साहं निर्मितं च स्याल्लोको मंगलमाव्रजेत् ।। ८४ ।। एष ब्राह्मणवर्गश्च स्वाध्यायोपासनास्विव। सत्संगेष्विव चैतासु क्रियासु स्याद्रतः सदा ।। ८५ ।। सत्प्रवृत्यभिवृद्धिश्च सम्भवेदत्र येन च। प्रत्येकस्मिंस्तथा क्षेत्रे वर्धमानश्च या: समा: ।। ८६ ।।
भावार्थ - पाठशाला, पुस्तकालय, व्यायामशाला, कला- कौशल, उद्योग- गृह , सामूहिक श्रमदान, हरीतिमा संवर्द्धन, गौ- पालन, स्वच्छता- प्रयास, संगठन ,समारोह, स्वास्थ्य- संवर्द्धन, कुरीति- निवारण, शिशु- कल्याण, महिलामंगल जैसे अनेक छोटे- बड़े रचनात्मक कार्य ऐसे हो सकते हैं , जिसके सहारे लोग सार्वजनिक सेवा सीखें और जनमंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाएँ, इन्हें गतिशील अग्रगामी बनाने एवं व्यवस्था जुटाने में लोकसेवियों को ही आगे रहना पड़ता है। ब्राह्मण- वर्ग को भावना, उपासना, स्वाध्याय, सत्संग की तरह ही एक रचनात्मक क्रिया- कलापों द्वारा सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में भी निरत होना पड़ता है ।।७८- ८६ ।।
व्याख्या-सेवा धर्म के अनेक रूप हैं। ब्राह्यण व्यक्ति वंश या वेश से नहीं,अपने अंत: की उदारता के कारण बनता है। चाहे व्यक्ति किसी भी आश्रम में हो, समाज में रहकर पीड़ा या पतन निवारण के माध्यम से समग्र मानव समुदाय की सेवा करता रह सकता है। साधना समग्र तब कहलाती है, जब उपासना- सत्संग जैसे धर्म- कृत्यों के साथ स्वयं को ऐसे रचनात्मक कार्यक्रमों से भी जोड़ा गया हो, सत्प्रवृत्ति का वातावरण बनाते हों । इनमें से कई की चर्चा यहाँ ऋषि श्रेष्ठ कात्यायन जी ने की है। इन सभी का लक्ष्य एक ही है सबका कल्याण एवं जनसाधारण में सेवा- भावना के विकास द्वारा आत्मीयता का विस्तार।
भारतीय संस्कृति के दो अग्रदूत भगवान बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य ने अपने जीवन में सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन द्वारा ही समाज की बहुमूल्य सेवा की। भगवान् बुद्ध ने बुद्धिवाद को सर्वोपरि मान्यता दी। उन्होंने अपने युग में प्रचलित भक्ति- भावुकता और तांत्रिक राजमार्ग के उभय- पक्षीय अतिवादों से धर्म- धारणा को बुरी तरह क्षत- विक्षत देखा और परंपराओं का नए सिरे से पर्यवेक्षण करने के लिए बुद्धिवादी कसौटी जनसमुदाय के हाथ में थमाई। सेवा और संयम की तपश्चर्या अपनाई। आत्मबोध जगाया और मनुष्य से भगवान् बन गए। उनने व्यापक परिमार्जन का 'धर्मचक्र- प्रवर्तन' चलाया। बिहार खड़े किए, संघाराम विनिर्मित किए, विश्वविद्यालय चलाए और प्रव्रज्या धर्म अपनाने के लिए प्रभाव- क्षेत्र में परिपूर्ण प्रेरणा दी। अगणित जीवनदानी नर- नारी उनके आह्वान पर आगे आए और विश्व के कोने- कोने में बौद्धिक- क्रांति के लिए, धर्मधारणा प्रतिष्ठित करने के लिए चल पड़े। बुद्ध का यह -परम पुरुषार्थ देश को डूबती नौका को उबारने में सफल रहा।
आद्य शंकराचार्य की ऋषिकल्प गतिविधियों में तीर्थ स्थापना प्रमुख है। उनने देश के चार कोनों पर चार धाम, चार मठ बनाए। उन्होंने अटक से कटक और कन्याकुमारी से काश्मीर तक की पैदल यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने हजारों व्याख्यान दिए। बड़े- बड़े उद्भट् विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और धर्म के सच्चे स्वरूप को समझने- समझाने के लिए सभाएँ आयोजित कीं। उन्होंने धर्मप्रचार करने के लिए चिद्विलास, विष्णु गुप्त, हस्तामलक, समित् पाणि, ज्ञानवृंद, भानुगार्भिक, बुद्धिं विरंचि, त्रोटकाचार्य, पद्यनाभ शुद्धकीर्ति, मंडन मिश्र, कृष्णदर्शन आदि देश के उद्भट् विद्वानों को संगठित किया। वेद धर्मानुयायियों की विशाल सेना बनाई गई और संपूर्ण भारत में धर्म सुधार की हलचल मचा दी। उनके इस अखण्ड प्रयत्न का ही यह फल हुआ कि जनता के मानस में धर्म संबंधी जो भी भ्रांतियाँ घर कर रही थीं, वे सब दूर होने लगीं और सारे देश में बौद्धिक धर्म का शंखनाद गूँजने लगा।
मानसिकता बदली जाय
दलितोद्धार जैसी सेवा निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है, किंतु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह मात्र सुविधा- संवर्द्धन तक ही सीमित न रह जाए, क्योंकि उससे उद्देश्य वस्तुतः पूरा नहीं होता। उद्देश्य जनसामान्य की मानसिकता उस कुप्रचलन के प्रति बदल देने पर ही पूरा होता है।
महात्मा गांधी जी की समाज सेवा में हरिजनों के उत्थान का उद्देश्य पहली वरीयता पर था। आज जो थोड़ी सी सुविधाएँ हरिजनों को मिली है, वह उन्हीं के प्रयत्नों का फल है, पर सुविधाएँ देकर उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं किया जा सकता। उन्हें शिक्षा- दीक्षा का विशेष प्रबंध कर अब तक छाये कुसंस्कारों को कम करना ठीक है, पर देखना यह चाहिए कि वे उच्च वर्ग के साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं या नहीं। सामाजिक उत्सवों में, पारस्परिक व्यवहार, धार्मिक उपासनाओं आदि में भी भाग ले सकते हैं या नहीं। मस्तिष्क इतना विवेक और यथार्थवादी हो कि हरिजन को मानवीय दृष्टिकोण से देखा जा सके, तब काम चलेगा। हम मुसलमानों, ईसाइयों के साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं, तो भंगी, चमार और धोबी के साथ क्यों नहीं बैठ सकते ?
अनगढ़ नहीं सुंगढ़ व्यक्ति ही अभीष्ट
नवनिर्माण जैसे उच्चस्तरीय प्रयोजन हेतु श्रेष्ठ लोकसेवी- सुजन शिल्पी चाहिए। हेय स्तर के व्यक्ति यह उद्देश्य पूरा नहीं कर सकते। वाराणसी के शासक ब्रह्मदत्त का राजोद्यान। उद्यान में देश- देशांतर के दुर्लभ एवं सुंदर वृक्षों, लताओं का संग्रह। बोधिसत्व उसी उद्यान में सपरिषद् विश्राम कर रहे थे। उस दिन नगर में एक भव्य उत्सव आयोजित था। माली को उत्सव देखने की लालसा हो आई। उद्यान में बंदरों का समूह था। बंदरों के नायक से माली की मैत्री थी। नायक बंदर को बुलाकर कहा-'' मित्र ! एक दिन तुम अपने यूथ के साथ मिलकर उद्यान सींच दो, तो मैं उत्सव देख आऊँ। '' बंदर ने प्रसन्नतापूर्वक मित्र कार्य संपादित करने का वचन दिया। माली चला गया, तों बंदर पात्र से लताओं का सिंचन करने लगे। तभी नायक ने कहा-'' मित्रो !हमें विवेकपूर्वक सिंचन करना चाहिए, अन्यथा जल का अभाव हो जाएगा। अतएव तुम लोग लताओं को उखाड़ कर उनकी जड़ों की गहराई देख लो। जो जड़ जितनी गहरी हो, उसके अनुसार ही सिंचन करो। '' बंदरों ने शीघ्र ही लताएँ उखाड़ डालीं। बोधिसत्व ने उद्यान का विनाश देखा, तो दीर्घ निःश्वास के साथ कहा-'' अकुलशल का उपकार भरा कार्य सुखद नहीं होता। '' सच्चे लोकसेवियों को ही विश्व- उद्यान को सुंदर समुन्नत बनाने में आगे आना चाहिए, अन्यथा अनपढ़ तो बंदरों की तरह उसे चौपट ही करते रहेंगे।
नेता वह, जो काम करे
रूस के जन नेता लेनिन पर एक बार उनके शत्रुओं ने घातक आक्रमण किया और वे घायल होकर रोग-शैया पर गिर पड़े। अभी ठीक तरह अच्छे भी नहीं हो पाए थे कि एक महत्त्वपूर्ण रेलवे लाइन टूट गई। उसकी तुरंत मरम्मत किया जाना आवश्यक था। काम बड़ा था, फिर भी जल्दी पूरा हो गया।
काम पूरा होने पर हर्षोत्सव हुआ, तो देखा कि लेनिन मामूली कुली- मजदूरों की पंक्ति में बैठे हैं। रुग्णता के कारण दुर्बल रहते हुए भी लट्ठे ढोने का कड़ा काम बराबर करते रहे और अपने साथियों में उत्साह की भावना पैदा करते रहे।
आश्चर्यचकित लोगों ने पूछा-'' आज जैसे जननेता को अपने स्वास्थ्य, की चिंता न करते हुए, इतना कठिन काम नहीं करना चाहिए था। '' लेनिन ने हँसते हुए कहा-'' जो इतना भी न कर सके, उसे जन नेता कौन कहेगा ?''
जिन्होंने पिछड़ों की सेवा का व्रत लिया
तब अफ्रीका में बीमारी फैली हुई थी। उस कठिन क्षेत्र में चिकित्सा करने के लिए डॉक्टरों की माँग छपी। जर्मनी के अध्यापक श्वाइत्जर ने नौकरी छोड़ दी और डॉक्टरी सीखने लगें। उनने निश्चय किया वे अफ्रीका में पिछड़े दुःखियों के लिए जीवन अर्पण करेंगे।
पास होते ही वे अफ्रीका चले गए और अनेक रोगों से ग्रसित उस क्षेत्र के पिछड़े लोगों की सेवा, चिकित्सा द्वारा करने लगे। कुष्ठ रोगियों के लिए उनने पृथक् चिकित्सालय बनाया। नित्य १५ घंटे काम करते। उस समूचे क्षेत्र में उन्हें जीवित दयालु ईसामसीह माना जाता था।
उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला। वह राशि उन्होंने कुष्ठ चिकित्सालय के लिए दान कर दी। निरंतर रोगियों के संपर्क में आने से उन्हें भी छूत लगी और समय से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी पत्नी पूरी तरह उनका हाथ बँटाती थीं। बाद में भी वे उस कार्य में लगी रहीं।
अमेरिका का वेद व्यास
साहित्य- सृजन द्वारा जनमानस के परिष्कार की सबसे बड़ी सेवा हो सकती है। एक बार गांधी जी से किसी अमेरिकन ने पूछा-'' आपने असहयोग की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त की '', तो उनने उत्तर दिया-' थोरो' के साहित्य से। '' थोरो को उनने देखा नहीं था, पर उनका प्रतिपादन इतने गजब का था कि उसके मार्गदर्शन ने न केवल भारत को स्वतंत्र कराया, वरन् संसार से दास- प्रथा की जड़ें भी उखाड़ फेंकीं।
' थोरो ' अमेरिका के ' स्पार्टन ' प्रांत में जन्मे, मजूरी करके पढ़े।स्नातक पदवी की फीस उन दिनों प्रमाणपत्रलेते समय ५ डालर देनी पड़ती थी। उनने प्रमाणपत्र व्यर्थ समझा और उस पैसे को दुखियारों के लिए बाँट दिया।
थोरो ने कुछ ही दिन नौकरी की। बाद में वे एक किराए के मकान में ही रहने लगे। गुजारे के लिए वे पेंसिल बनाते थे। थोरो ने प्रायः ७०० एक से एक बढ़कर पुस्तकें लिखी हैं, पर उनके जीवनकाल में एक संस्करण ही कठिनाई से बिका। उनके न रहने पर उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार माना गया।
थोरो एक झील के तट पर झोपड़ी बनाकर रहते थे। इमर्सन भी उनके साथ रहने लगे थे। अमेरिका का यह वेद- व्यास गरीबी में ऋषियों की तरह मात्र ४४ वर्ष जिया, पर इतने स्वल्पकाल में ही वह संसार के लिए बहुमूल्य ज्ञान संपदा छोड़ गया।
जी लेखनी लेकर अनीति से लड़े
मुंशी प्रेमचंद के कथा साहित्य ने पिछड़े भारत की प्रत्येक अनिष्टकर समस्याओं को छुआ है। उनके हृदय में मूढ़- मान्यताओं और अनाचारों के विरुद्ध आग थी, जिसे लेखनी द्वारा सदा उगलते रहे। उनके उपन्यासों से भारत का बच्चा- बच्चा परिचित है।
प्रेमचंद जी की सादगी चरम सीमा की थी। गुरुकुल कांगड़ी के एक अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया। स्वागत के लिए स्टेशन पर हजारों लोग पहुँचे, पर उनकी सादगी की देखते हुए कोई पहचान न सका। वे बिस्तर सिर पर रखकर तीन मील पैदल ही गुरुकुल जा पहुँचे। स्वागत वाली भीड़ उनके बाद पहुँची।
बाल शिक्षा के लिए समर्पित
बम्बई की ताराबाई मोड़क ने ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा पाई। उन्हें राजकोट में ट्रेनिंग कॉलेज का प्रिंसिपल पद मिला। उधर विवाह होते ही दो वर्ष के भीतर वे विधवा हो गईं।
गांधी जी की बुनियादी शिक्षा योजना में उन्होंने विशेष दिलचस्पी ली और सरकारी नौकरी छोड़कर देहातों में, विशेषतया पिछड़े समुदाय के बालकों एवं अभिभावकों में इसके लिए रुचि उत्पन्न की और जिन कठिनाइयों के कारण वे कतराते थे, उनके समाधान ढूँढ़े। कठिन लगने वाला काम सरल हो गया।
प्रो. गिजू भाई का सहयोग उन्हें और भी कारगर सिद्ध हुआ। उनने देश की प्रमुख भाषाओं में बाल शिक्षा के नए प्रयोगों पर कई पत्रिकाएँ निकालीं और कितनी ही पुस्तकें लिखीं। देश भर में इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए ५०० स्वयंसेवक एकत्रित किए। ये सभी बड़ी लगन से राष्ट्र सेवा का कार्य कर रहे हैं।
मस्तिष्क का संचालक अध्यापक
कलकत्ता बोर्ड की अंग्रेजी की परीक्षा देने पहुँचा एक युवक परीक्षा भवन में, उससे प्रश्न पूछा गया-'' क्या आप हमारे प्रश्नों के लिए तैयार हैं। '' युवक ने उत्तर दिया-'' जी हाँ !तब परीक्षकों ने अंग्रेजी में ही पूछा-'' स्कूल मास्टर और स्टेशन मास्टर में क्या अंतर है ?'' विद्यार्थी ने अंग्रेजी में कहा-'' द स्कूल मास्टर ट्रेन्स द माइंड, व्हाइल द स्टेशन मास्टर माइन्ड्स द ट्रेन्स ।'' परीक्षक इस अर्थपूर्ण उत्तर से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने कहा था- "एक अध्यापक मस्तिष्क को संचालित करता है, जबकि स्टेशन मास्टर गाड़ियों को। '' वह युवक थे श्री सुभाष चंद्र बोस। उनकी यह बात कितनी सही थी कि अध्यापक ही किसी समुदाय के मस्तिष्क को गढ़ता है। वस्तुतः ब्राह्मण वही है जो जनमानस के चिंतन को स्पर्श कर उसे प्रभावित कर सकने में सक्षम हों।
प्रौढ़ शिक्षा को समर्पित
श्रीमती बेल्दी फिशर अमेरिका के संपन्न परिवार में जन्मीं। उनका कंठ अत्यंत मधुर था। वादन और नृत्य कला भी उनने सीख ली। रंगमंच के क्षेत्र में उनका खूब स्वागत हुआ। किन्तु वहाँ के वातावरण से उन्हें गहरी घृणा हो गई और उनने उन लाभों को लात मार दी।
उनका मन पिछड़ों की सेवा में लग रहा था। इसके लिए वे पहले चीन गईं, फिर भारत आईं। गांधी जी के संपर्क ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। दौरा करके देश का पिछड़ापन भी उनने देखा और जाना कि उनका उद्धार बिना शिक्षा वृद्धि के संभव नहीं।
वे विधवा हो गई थीं, इसलिए परिवार की भी कोई जिम्मेदारी उन पर न थी। लखनऊ में उन्होंने अपना शिक्षा प्रसार केन्द्र बनाया और घर- घर घूमकर उनने प्रौढ़ शिक्षा का प्रबंध किया। जो लोग शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते, वे सहज ही उस लाभ से लाभान्वित होने के लिए भी सहमत नहीं होते। इन कठिनाइयों के बीच भी उनने असाधारण सफलता पाई। वे ८० वर्ष की आयु तक जीवित रहीं। इस बीच उनने दो लाख से अधिक निरक्षरों को साक्षर बनाया। उनके कार्य को फोर्ड फाउंडेशन तथा उ.प्र. सरकार से भी सहायता मिली।
विनोबा का भूदान आंदोलन
हैदराबाद के ललगोडा़ इलाके में मची हुई मारकाट को दूर करने के लिए संत विनोबा ने वहीं से भूदान आंदोलन आरंभ किया। उदारमना लोगों ने अपनी जमीनें देना आरंभ किया। सबसे पहले विनोबा की पुकार पर जमींदार रामचंद्र रेड्डी ने अपनी फालतू जमीन दी ।। इसके बाद वह सिलसिला चल पड़ा और भूदान से एक लाख एकड़ जमीन तक दान में मिली। इसी को कहते हैं अच्छे कार्य का शुभारंभ। आज इसी की परिणति स्वरूप हजारों भूमिहीन अपनी जमीन पर खेती कर गुजर- बसर कर रहे हैं।
नारियल का उद्यान मेवाड़ में
यदि चिंतन सृजनात्मक हो तो गतिविधियाँ भी उसी दिशा में चल पड़ती हैं।
मेवाड़ के किसान बालक नक्षत्र सिंह को पुस्तकों में, चित्रों में छपे नारियल के पेड़ बड़े सुंदर लगते थे। स्कूल की पढा़ई पूरी करते- करते उसे लगा कि अपने खेतों में नारियल के बगीचे क्यों न लगाए जाँय। मिट्टी की जाँच कराई, तो वह इसके लिए बिलकुल उपयुक्त पड़ी। आसानी से लगा सकने वाला यह आरोपण उधर रिवाज न होते हुए भी उसने हठपूर्वक कर डाला। बिना सिंचाई के झंझट वाला अधिक आमदनी देने वाला यह व्यवसाय दूसरों को भी बहुत सुहाया और वह समूचा इलाका ' मिनी दक्षिण भारत ' बन गया। हजारी किसान की तरह उसका पुरुषार्थ सबके द्वारा सरहा गया।
संत चिकित्सक
रायपुर जिले के एक '' गाँव में जन्मे थे शरण प्रसाद। बचपन में पढ़ते समय प्राकृतिक चिकित्सा का साहित्य पढा़ और मन में आया कि उस विद्या में स्वयं प्रवीण होना चाहिए और दूसरों को लाभान्वित करना चाहिए।
वे घर से निकल पड़े। गन्ने का रस निकालने से लेकर लकड़ी चीरने, रसोई बनाने आदि के श्रम से निर्वाह करते हुए उनने देशभ्रमण किया और प्राकृतिक चिकित्सालयों में जा पहुँचे। बालकोवा भावे ने उनके स्वभाव और ज्ञान को बहुत पसंद किया और वहीं रख लिया। वे आश्रम का हर छोटा- बड़ा काम करते, अध्ययन बढ़ाते और रोगियों की चिकित्सा में रस लेते। अंततः वे प्राकृतिक चिकित्सा के मान्य डॉक्टर बन गए।
कुछ वर्ष आश्रम में रहकर उनका मन आया कि इस ज्ञान की जानकारी जन- जन को करानी चाहिए। वे चल पड़े और प्राकृतिक चिकित्सा के अनेक शिविर लगाते रहे। इसी पुण्य कार्य में निरत रहकर एक संत चिकित्सक की तरह उनने अपना जीवन समाप्त किया।
राममूर्ति का व्यायाम आंदोलन
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में प्रो. राममूर्ति के सर्कस की बडी़ धूम थी। उसमेँ वें मानवी बलिष्ठता का प्रदर्शन करते थे। कोई कला या जादूगरी उसमें न थी। छाती पर चट्टानें रखकर हथौडो़ं से तुड़वाना, सीने पर से हाथी निकालना, हाथों से हाथी उठा लेना जैसे पराक्रम उनकी शारीरिक बलिष्ठता के चिह्न थे। यह शिक्षा उनने अपनी पत्नी ताराबाई को भी दी और वह भी सर्कस में अपना रोल निभाने लगीं।
राममूर्ति नट नहीं थे, वरन् व्यायाम- विशारद थे। वे बताया करते थे कि उनने अपने गए- बीते स्वास्थ्य को आहार- विहार तथा संयम के आधार पर कैसे सुधारा। इस प्रक्रिया को अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति अपने को सबल बना सकता है।
सर्कस से प्रभावित लोगों को वे अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित करते थे तथा व्यायामशालाएँ खुलवाने की गुरु दक्षिणा माँगते थे। उनके प्रयास से उन दिनों देश में व्यायाम आंदोलन की एक नई हवा चली थी।
यह धन भी समाज का
फ्रांस की पेस्टो नामक संस्था में डॉ० रू ने कठिन परिश्रम करके बच्चों को गले में होने वाले दर्द की एक दवा खोज निकाली।
इस खोज के लिए डॉ० रू को ४ हजार पौंड का इनाम दिया गया, पर डॉ० रू ने यह इनाम खुद के लिए न रखकर पेस्टो संस्था को प्रदान कर दिया। यह देखकर इनाम देने वाले श्रीमान् ने डॉ० रू से पूछा-'' आपने इनाम अपने उपयोग में क्यों नहीं लिया ?''
डॉ० रू ने विनयपूर्वक कहा-'' इस संस्था में रहकर मैंने प्रयोग और शोध कार्य किया है। इस संस्था के कारण ही आज मैं इस लायक बन सका हूँ। संस्था को पैसे की कमी तो हर समय महसूस हुआ ही करती है। पैसे की कमी के कारण संस्था कभी बंद न हो जाय, इसलिए मैंने यह रकम अपने लिए न रखकर संस्था को दे दी। संस्थाके लिए आमदनी के स्रोत बहुत कम हैं। ''
डॉ० रू का यह उत्तर सुनकर इस करोड़पति श्रीमान् ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, पर मरते समय उन्होंने पेस्टो संस्था को साढ़े बारह लाख पौंड भेंट किए और जाते समय बसीयत लिख गए। जिस संस्था के कार्यकर्त्ता इतने उदार हृदय हैं , वह संस्था भी महान् होनी चाहिए।
भारत की सेवा हेतु सुविधाएँ त्यागी
न्यूजीलैण्ड की कुमारी डायना वालेसी उच्च शिक्षित और सुसंपन्न थीं। उन्हें पर्यटन का शौक था। हर साल संसार के मनोरम स्थानों को देखने के लिए वे प्रचुर धन व्यय करती थीं। बड़े होटलों में ठहरती थीं। तब उनकी आँखों में सुसंपन्न संसार का ही नक्शा था।
एक प्रवास में वे भारत भी आईं। यहाँ के शहरों की स्थिति और देहातों की दशा में जमीन- आसमान जैसा अंतर देखा। लौटीं तो उनका विचार बदल गया और उन्होंने भारत जैसे पिछड़े देश की सेवा करने की ठान ठानी।
वे न्यूजीलैण्ड छोड़कर भारत आ गई और वे बंबई के निकट एक देहात में बस गईं । उनसे सारे देश की सेवा करते तो न बन पडी़, पर एक आदर्श उपस्थित किया कि संपन्न लोग यदि निर्धनों को अपने परिवार में सम्मिलित कर लें, तो समस्या सहज ही हल हो सकती है। डायना ने विवाह नहीं किया, पर निर्धनों के बच्चे गोद लेकर उन्हें सुयोग्य बनाना आरंभ कर दिया। बंबई में श्रम करके आजीविका कमा लेती थीं और गोद लिए बच्चों के भरण- पोषण में तल्लीन होकर प्रसन्न रहती थीं। वे आजीवन यहीं रहीं।
फ्रांस की दूसरी देवी 'सराह'
जौन आँफ आर्क का नाम फ्रांस की जनता की जीभ पर से उतरने न पाया था कि उसी भूमि पर एक और देवी प्रकट हो गई। वह थी ' सराह '। उन दिनों लोकरंजन का कार्य '' नाटक '' ही करते थे। सिनेमा का युग आरंभ नहीं हुआ था। देवी सराह ने नाटक क्षेत्र में प्रवेश किया। वह ड्रामे लिखती भी थीं और अभिनय भी करती थीं। सभी के विषय आदर्शों से भरे-पूरे होते थे। उसने जन जागरण, प्रगति, आदर्श, देश भक्ति यही सब अपने विषय रखे।
वे सिनेमा के नायकों की तरह सुंदर न थीं। सिनेमा अभिनेत्रियों की उछल- कूद प्रायः २० वर्ष काम देती है। इसके बाद वे दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकी जाती हैं, पर सराह ६१ वर्ष तक अपना काम मुश्तैदी से करती रहीं।
उन्हें जीवन प्यारा था, पर वे मृत्यु को और भी अधिक प्यार करती थीं। मृत्यु से लेकर दफन होने तक का एक रिहर्सल उनने भली प्रकार अभ्यास में उतार लिया था। यूरोप भर के मूर्धन्य लोग उसे देखने आया करते और अत्यंत प्रभावित होते।
सराह थी तो अभिनेत्री पर वस्तुतः उनकी गणना फ्रांस के नव निर्माण की दिशा देने वालों में होती है। उन्हें युग की संदेशवाहिका माना गया।
शराब छुडा़ई
नशा निवारण, दुष्प्रवृति उन्मूलन जैसे कार्यों के लिए भी संत समुदाय को ही आगे आना चाहिए। संत इब्राहिम बिन अदम एक बार कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि रास्ते में एक शराबी पड़ा हुआ है, उसके कपड़े मिट्टी से लथपथ हैं और मुँह कीचड़ से सना है। यह देखकर संत बोले-'' जिस मुँह से खुदा का नाम लिया जाता है, उसे इस हालत में नहीं रहना चाहिए।'' और उन्होंने पास ही कहीं से पानी लाकर शराबी का मुँह धो दिया। जब शराबी को इस बात का पता चला तो उस पर बड़ा असर पडा़। उसने शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और वह सुधर गया।
मूल्य चुकाइए
स्वामी रामतीर्थ उन दिनों अमेरिका के दौरे पर थे। अनेक स्थानों पर गोष्ठियों तथा प्रवचनों का आयोजन हो रहा था। भारतीय संस्कृति के अमूल्य सिद्धांतों की व्याख्या से अमेरिका निवासी बड़े प्रभावित हो रहे थे। एक दिन स्वामी जी का प्रवचन समाप्त होने पर एक महिला आई और विषादयुक्त वाणी में अपने विचार व्यक्त करने लगी। '' स्वामी जी ! मेरे एक ही पुत्र था। थोड़े दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गई। मैं विधवा हूँ। किसी भी तरह चित्त को शांति नहीं मिलती। जीवन में निराशा ही निराशा दिखाई देती है। आप कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे मेरे जीवन को शांति मिल सके।'' "अपको शांति की पुनः प्राप्ति हो सकती है और अपने जीवन में आनंद का अनुभव कर सकती हैं। पर हर वस्तु का मूल्य चुकाना पड़ता है। क्या आप सुख- शांति की पुनः प्राप्ति हेतु कुछ त्याग करने को तैयार हैं ?''
'' बस आपके आदेश देने की देर है। मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हूँ। '' '' पर इतना ध्यान रखना कि आपके देशवासी भौतिक वस्तुओं पर अधिक ध्यान देते हैं। वहाँ डालर और सेंट के त्याग से काम नहीं चलेगा। यदि आप सचमुच तैयार हैं, तो मैं कल स्वयं ही आपके निवास स्थान पर उपस्थित होऊँगा। '' दूसरे दिन स्वामी रामतीर्थ एक हब्सी बालक को अपने साथ लेकर उस महिला के घर पहुँचे। बिजली का बटन दबाया। घंटी बजी, दरवाजा खुला और वह महिला सामने आ खड़ी हुई। '' स्वामी जी ! आपने बड़ी कृपा की, जो मेरे घर पधारे। '' '' माता ! यह रहा तुम्हारा पुत्र। अब इसके सुख- दुःख का ध्यान रखना और पालन- पोषण करना तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। '' उस काले लड़के को देखकर वह महिला सिहर उठी-स्वामी जी ! यह हब्सी बालक मेरे घर में प्रवेश कैसे कर सकता है ? गोरी माँ काले लड़के को अपना पुत्र कैसे बना सकती है ?''
'' माँ ! यदि इस बालक के लालन- पालन में आपको इतनी कठिनाई अनुभव हो रही है, तो सच्चे सुख और शांति को प्राप्त करने का मार्ग तो और भी कठिन है। ''
सबसे बड़ा सुख
याकूब ने सुना था संत तालसुद पहुँचे हुए फकीर हैं। उनकी दुआ से दुःखी लोग भी आनंदित होकर आते हैं। सो याकूब उन्हें खोजता- ढूँढ़ता एक वियावान में जा पहुँचा। वे एक टोकरी में दाना लिए चिड़ियों को चुगा रहे थे। उनकी प्रसन्नता भरी फुदकन और चहचहाहट को देखते हुए आनंद विभोर हो रहे थे। याकूब बहुत देर बैठा रहा, पर जब संत का ध्यान ही उसकी ओर न गया तो झल्लाया।
तालसुद ने उसे उँगली के इशारे से पास बुलाया और हाथ की टोकरी उसके हाथ में थमाते हुए कहा-'' लो अब तुम चिड़ियाँ चुगाओ और उनकी प्रसन्नता देखकर स्वयं आनंद लो। '' फिर थोड़ा गंभीर स्वर में बोले-'' अपना दु:ख भूलकर दूसरों को जहाँ तक संभव हो आनंद की अनुभूति दे पाना,उनके दुःख के क्षणों में स्वयं को उनका सहभागी बना लेना ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। मैंने जीवन भर यही किया है। तुम भी यही करो व जीवन धन्य बनाओ। ''
उनकी जीवन गाथा लिखें
एक प्रसिद्ध लेखिका मद्रास के मुख्यमंत्री का जीवन चरित्र विस्तार से लिखना चाहती थी। इसके लिए उनसे कई प्रश्न पूछने आई थी। मुख्यमंत्री ने कई समाजसेवियों के नाम गिनाए और कहा-'' इनमें से किसी का जीवन चरित्र लिखें। मुझे तो मेरी सेवाओं का पुरस्कार मिल गया। आप उनकी जानकारी जनता को कराएँ, जिनकी ख्याति अभी तक नहीं हुई है। '' लेखिका ने वैसा ही किया।
अवाञ्छनीयतास्ताश्च कर्तुमुन्मूलिताः स्वयम्। सशक्ताक्रोशसंघर्षविरोधानामपि स्थितिम् ।। ८७ ।। उत्थितां कर्तुमर्हास्ते शास्त्रमेककरे तथा। शस्त्रं तिष्ठति विप्राणां करे येषां द्वितीयके।। ८८ ।।
भावार्थ- हर क्षेत्र में पनपने वाली अवांछनीयताओं का उन्मूलन कर सकने वाला आक्रोश, विरोध एवं संघर्ष खड़ा करना भी उन्हीं का काम है। ब्राह्मण के एक हाथ में शास्त्र और दूसरे में शस्त्र रहता है ।।८७-८८।।
व्याख्या- जहाँ समाज में श्रेष्ठता है, वहाँ निकृष्टता भी व्यापती है। ब्राह्मण वर्ग का कर्तव्य है- अपने मठ को जगाना एवं अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना । मात्र शास्त्र वचनों की दुहाई देनी ही पर्याप्त नहीं, व्यक्ति में दुष्टता के विरुद्ध असहयोग, विरोध एवं संघर्ष कर सकने का साहस भी अपेक्षित है। इसके अभाव में तो वह पुरुषत्वहीन शरीरधारी भर है, जिसका अस्तित्व नहीं के समान है। ब्राह्मण का दायित्व है - अपना ही नहीं, सारे समुदाय की रक्षा करना, इसके लिए जनमानस में मनोबल भरना एवं अपने कर्तृत्वों द्वारा उदाहरण प्रस्तुत करना।
निसिचर हीन करउँ महि
भगवान् राम अनीति के विरुद्ध सतत् संघर्षरत रहे।
उनकी करुणा और कठोरता की झलक एक साथ ही रामायण के इस प्रसंग में मिलती है। हड्डियों का ढेर देखकर श्रीराम उसका विवरण पूछते हैं। जब यह मालूम होता है निशाचरों ने ऋंंषियों को खा डाला है, यह उन्हीं की हड्डियों का ढेर है, तो राम की आँखों में आँसू आ गए। वे दीन, दुर्बल, असहायों के आँसू न थे। उन्होंने तत्काल प्रतिकार का निश्चय किया और हाथ उठा शपथपूर्वक प्रतिज्ञा की, कि इस पृथ्वी को असुर विहीन करूँगा। इस संघर्ष के अतिरिक्त उन्होंने ऋषियों के कष्ट निवारण के लिए सहायता की भी व्यवस्था की। धर्म की स्थापना, अधर्म का विनाश ही यह उभयपक्षीय उपक्रम है-
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ।। निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुवीर नयन जल छाए ।। निसिचर हीन करउँ महि, भुज उठाइ प्रन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं जाइँ- जाइँ सुख दीन्ह ।।
वे तो खर- दूषण जैसे दुष्टों को खोज- खोज कर मारने में ही अपने क्षत्रिय धर्म की पूर्ति मानते हैं। कहते हैं-
हम क्षत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह सम खल मृग खोजत फिरहीं ।। रिपु बलवान देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सुन लरहीं ।। भगवान् रामं की परंपरा को ही ऋषियों ने भी आगे बढ़ाया।