Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-4
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कुर्वते वानप्रस्थास्ते समाजे सर्वदैव तु। सद्भावस्य ज्ञानस्य वृद्धिमत्र निरन्तरम् ।। ४१ ।। रचनात्मकवृत्तीनामपि लोकहित्मात्मनाम्। मूढानां मान्यतानां च वारणं तु कुरीतिभिः ।। ४२ ।। विद्यते युगधर्मोऽयं शाश्वती च परम्परा। प्रत्येकस्मिन् युगे ग्राह्या जनैरेषा परम्परा ।। ४३ ।।
भावार्थ- वानप्रस्थ समाज में निरंतर सद्ज्ञान सद्भाव एवं लोकोपकारी रचनात्मक सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने तथा कुप्रचलनों मूढ़मान्यताओं आदि के निवारण का कार्य करते हैं। यह शाश्वत परंपरा भी है और युग धर्म भी। अत: प्रत्येक युग में इस परंपरा का अनुसरण व्यक्तियों को करना चाहिए।
आश्रमेषु चतुर्ष्वेव वानप्रस्थो महत्त्वगः। लोकमंगलसिद्धिश्च जायते तत्र संभवा।। ४४ ।। अस्मादेवाश्रमाद् योग्यसमर्थानां चमूरिव। लोकसेविनृणां वर्ग उदेत्यनुभवाऽधिकः ।। ४५ ।। सर्वेषां विदितं चैतल्लोकमङ्गलकामुकः। उदारहृदयो यश्च मनुजोऽनुभवी भवेत् ।। ४६ ।। आत्मकल्याणवद् विश्वकल्याणं कर्तुमुत्सहेत्। स एव- नश्वितं नात्र विचिकित्सा मनागपि ।। ४७ ।। धनव्ययो न येषु स्थाद् योग्यता भावना धिया। मूर्धन्या ये विनिर्मान्ति ते नरा लोकसेविनः ।। ४८ ।। देशं समाजमप्यत्न सम्पन्नं शक्तिसंयुतम्। तेषां यदा भवेदत्र न्यूनता तर्हि वर्धते ।। ४१ ।। अविकासस्थितिर्नूनं सर्वत्नैव महीतले । विश्वव्यवस्थितौ येषां दायित्वं विद्यते नृणाम् ।। ५० ।। परोधसां न शालीन्यन्यूनता स्याद् भुवीति तत्। वानप्रस्थे समुत्पन्नं परिपक्वं च जायते ।। ५१ ।।
भावार्थ- चारों आश्रमों में वानप्रस्थ सबसे महत्त्वपूर्ण है उसी से लोकमंगल की साधना बन पड़ती है। लोकसेवियों की सुयोग्य और समर्थ सेना इसी आश्रम के भांडागार से निकलती है। सर्वविदित है कि अनुभवी उदारचेता और लोकमंगल की भावनाओं से ओत- प्रोत व्यक्ति ही आत्मकल्याण और विश्वकल्याण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा कर पाते हैं इसमें संदेह नहीं । जिन पर धन न खर्च करना पड़े, जो योग्यता और भावना की दृष्टि से मूर्धन्य हों ऐसे लोकसेवी ही किसी देश या समाज को समर्थ- संपन्न बना पाते हैं। उनकी कमी पड़ने से सर्वत्र पिछड़ापन बढ़ता है। विश्वव्यवस्था में शालीनता की मात्रा कम न होने देने की जिम्मेदारी जिस पुरोहित वर्ग की है, वह वानप्रस्थ में ही प्रकट और परिपक्व होता है ।।४४- ५१।।
व्याख्या- देवसंस्कृति द्वारा निर्धारित आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थों के लिए, चाहे वह किसी भी आयु में लिया गया हो, प्रमुख दायित्व है- जनमानस के परिष्कार का। उसे धर्मतंत्र के माध्यम से लोक शिक्षण करना होता है। यह कार्य इतना महत्त्वपूर्ण है कि वानप्रस्थ की संस्कृति का मेरुदंड कहा गया है। समाज में अनपढ़ व्यक्तियों का बाहुल्य है। परंपराएँ, कुप्रचलन, अंधविश्वास समाज की प्रगति के मार्ग में अवरोध बन गए हैं। जिस प्रकार समय- समय पर हर स्थान आमूलचूल सफाई की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार समाज रूपी परिकर के परिशोधन हेतु, दुष्प्रवृत्तियों के निवारण एवं सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन हेतु, लोकमंगल हेतु समर्पित व्यक्तियों की आवश्यकता निरंतर पड़ती रहती है।
वानप्रस्थ उस भावनाशील लोकसेवी की भूमिका निभाते हैं, जो स्वेच्छा से समर्पित हों, समाज निर्माण को, नैतिक- बौद्धिक को, अपना कर्तव्य मानकर चलते हैं, थोपी गई जिम्मेदारी नहीं। इसके लिए वे समाज पर भी भार नहीं बनते । वेद में कहा गया है- ''वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः''। यहाँ 'पुरोहित' शब्द से आशय वानप्रस्थ के रूप में कार्यरत पूर्ण समर्पित लोकसेवी से है। ''हम पुरोहित राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाए रखेंगे '' जैसी उद्घोषणा करने वाला देव संस्कृति का यह प्रतिनिधि घर- घर अलख जगाने- धर्म चेतना के व्यापक विस्तार के अपने संकल्प को बार- बार दुहराता है।
आज के युग में जहाँ अनास्था का बाहुल्य है एवं चारों और दुष्प्रवृत्तियों ही संव्याप्त नजर आती हैं, वानप्रस्थों के महती जिम्मेदारी आती है।अनीति,अभाव, व अज्ञान के असुरों से जूझने हेतु समर्पित व्यक्तित्व चाहिए, जो गृहस्थ की जिम्मेदारी से मुक्त हों एवं श्रम, समय, मनोयोग लगाकर लोककल्याण हेतु तत्पर हो सकें। इस आश्रम व्यवस्था के संबंध में शास्त्रकारों के स्पष्ट निर्देश हैं- शास्त्र सम्मति एवं वनाश्रमे तिष्ठन् पातयश्चैव किल्विषम्। चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् संन्यासविधिना द्विज:। (हारीत स्मृति ६/२) गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए। इससे समस्त मनोविकार दूर होते हैं और वह निर्मलता आती है, जो संन्यास के लिए आवश्यक है। महर्षिपितृदेवानां गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधि। पुत्रे सर्व समासज्य वसेन्पाध्यस्थ्यमास्थितः ।। (मनु ४/२५७) ढलती आयु में पुत्र को गृहस्थी का उत्तरदायित्व सौंप दें। वानप्रस्थ ग्रहण करे और देव, पितर तथा ऋषियों का ऋण चुकावे। पवन की विवेकशीलता जन जागरण हेतु यात्रा का अर्थ मात्र उस क्रिया को किसी तरह पूरा करना भर नहीं है। चंद्रमा की दो संतानें थीं- एक पुत्र और दूसरी पुत्री। पुत्र का नाम पवन और पुत्री का नाम आँधी। पुत्री को एक दिन ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे पिताजी सांसारिक पिताओं की तरह पुत्र और पुत्री में भेद करते हैं। चंद्रमा आँधी की व्यथा को ताड़ गए। उन्होंने पुत्री को आत्मनिरीक्षण का एक अवसर देने का निश्चय किया।
चंद्रमा ने आँधी और पवन दोनों को अपने पास बुलाकर कहा-'' बच्चों ! क्या तुमने स्वर्गलोक में इंद्र के कानन में '' पारिजात '' नामक देव वृक्ष को देखा है ?'' '' हाँ ! '' दोनों ने एक स्वर से उत्तर दिया।
'' तो तुम पारिजात की सात परिक्रमा करके आओ। ''
पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर दोनों चल दिए, पारिजात देव वृक्ष की ओर।आँधी सिर पर पैर रखकर दौड़ी। वह धूल, पत्ते और तमाम कूड़ा- करकट उड़ाती हुई बात की बात में परिक्रमा करके आ खड़ी हुई। आँधी समझ रही थी पिता का काम कर मैं जल्दी लौटी हूँ तो जरूर पिताजी मेरी पीठ ठोकेंगे।
थोड़ी देर बाद पवन लौटा, पर उसके आगमन पर सौंधी- सुगंध से सारा भवन महक उठा। चंद्रमा ने कहा-'' बेटी! अब तुम अच्छी तरह समझ गई होगी, कि जो अत्यधिक तेज गति से दौड़ता है, वह खाली झोली लेकर आता है और जिसकी गति देव संस्कृति के श्रेष्ठ रत्न-आद्य शंकराचार्य
सदा से ही समाज में संव्याप्त अनीति के अंधकार को मिटाने, सत्प्रवृत्तियाँ फैलाने हेतु महामानव धरती पर जन्म लेते रहे हैं। अपने समय में फैली अव्यवस्थाओं को व्यवस्था के सूत्र में बाँधने वाले शंकराचार्य की उपमा अन्यत्र मिलनी मुश्किल है। साधु वर्ग को उन्होंने दस नामों के विभाजन में बाँध कर उनकी मर्यादाएँ बाँध दीं। वेदांत दर्शन के तीन भाष्य ग्रंथ लिखे, जो प्रस्थानत्रयी के नाम से प्रख्यात है, अद्भुत हैं। चार धामों में उनने चार मठ बनाए। पर्व आयोजनों- मेलों की मर्यादा बनाना और उन्हें साधु- सम्मेलनों का रूप देना ,उन्हीं का काम है। उनने अनेक शास्त्रार्थ किए, जिनका वर्णन शंकर दिग्विजय में है। वे मात्र ३२ वर्ष जीवित रहे। यह इतने कम समय में इतने महत्त्वपूर्ण और इतने अधिक कार्य कर दिखाने से उनका व्यक्तित्व और पराक्रम अनुपम ही कहा जा सकता है। उन्होंने सार्थक वानप्रस्थी जीवन आजीवन जिया।
प्रातिकूलताओं में भी अडिग शंकर देवआसाम के राजा के पास वानप्रस्थी शंकरदेव की शिकायत अनेकों ब्राह्मण- पुरोहित आदि लेकर पहुँचे । राजा ने वस्तुस्थिति जानने के लिए शंकर देव को बुलाया। शंकर देव के उज्ज्वल व्यक्तित्व तथा प्रतिभा से राजा स्वयं भी प्रभावित हो गए। उन्हें समझते देर न लगी कि यह कायस्थ परिवार में जन्मा व्यक्ति वस्तुतः वह कर रहा है, जो यथार्थ में ब्राह्मणों को करना चाहिए। कथित ब्राह्मण अपने कर्तव्य कर्म छोड़ ही नहीं बैठे हैं, बल्कि विपरीत स्वाभाविक होती है, वह मन को मुग्ध करने वाली सुगंध लाता है जिससे संपूर्ण वातावरण सुगंधित हो जाता है। ''
हीन मनोविकारों से ग्रसित हो चुके है। संत शंकर देव को इस प्रकार राज दरबार में बुलाने का राजा को क्षोभ हुआ तथा उन्होंने उनसे क्षमा माँगकर सादर विदा किया।
बस शंकर देव चल पड़े, शंकराचार्य की तरह भारत यात्रा भ्रमण के लिए। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर विभिन्न धर्म-कृत्यों' को देखा, धर्म- ग्रंथों को सुना तथा महात्माओं से सत्संग किया। इस प्रयास में उन्हें भारत के विभिन्न भागों के रीत - रिवाज तथा निवासियों के अध्ययन का अवसर मिला। उन्हें यह देखकर पीड़ा हुई कि अनेक स्थानों पर धर्म को सही ढंग से नहीं समझा जा रहा है। समाज में भेद- बुद्धि देखकर भी उन्हें हार्दिक कष्ट हुआ, किंतु उन्होंने यह भी देखा कि सभी विविधताओं के बीच मौलिक एकता अभी भी जीवित है। उसे संभाला- सँजोया जा सकता है। अतःइस प्रकार से उन्हें अपने कार्य के लिए बहुत बल मिला। उन्हें लगने लगा कि कोई सही योजना आसाम को निश्चित रूप से सूत्रबद्ध कर सकती है। वह और भी आतुरता से अपने खोज कार्य में लग गए ।
नौगाँव आकर उन्होंने स्थिति पहले की अपेक्षा और भी बिगड़ी हुई पाई। मुसलमान आक्रमण के कारण न केवल राजनैतिक संकट खड़ा हो गया था, वरन् हिंदू शब्द से युक्त सब कुछ हिंदू कला, संस्कृति, चरित्र, सभ्यता, धर्म तथा जीवन सभी खतरे में थे। किंतु आत्मबल के धनी शंकर देव विचलित न हुए,। उन्होंने धीरे- धीरे अपना कार्य प्रारंभ किया।त्रस्त प्राणियों को शांति मिली, शुष्क हृदयों में सरसता का संचार हुआ, हारे मन वाले अँगड़ाई लेकर खड़े हो गए और उनका कार्य बढ़ता ही गया, पनपता ही गया।
श्री शंकर देव ने भागवत् कथा को ही माध्यम बनाया। उनकी लोक आराधना की सेवा- साधना फलित हुई। सारा आसाम जागृत हो गया।
अछूतोद्धारक नारायण गुरु
माता-पिता के न रहने पर १५ वर्ष की आयु के एक विद्यार्थी ने भगवान् को प्राप्त करने की बात ठानी। पर उस क्षेत्र में भ्रमण करके अछूतों की जो दुर्दशा देखी, उससे उनका विचार बदल गया और गिरों को उठाने के लिए जीवन लगाने का व्रत ठाना। हरिजन सेवा के कारण उन्हें सवर्णों का भारी विरोध सहना पड़ा। पर वे डिगे नहीं। उन्होंने हरिजनों के लिए एक अलग मंदिर बनवाया, जिसे सवर्ण तोड़ने पर उतारू थे। तो भी वे झुके नहीं। हरिजन शिक्षा के लिए वे विशेष उत्साह से काम करने लगे। गाँंधी जी उनसे मिलने स्वयं पहुँचे थे। केरल में उनकी स्थापित कितनी ही हरिजन शिक्षा- संस्थाएँ हैं।
महात्मा ज्योति बा फुले
पूना के ज्योति बा फुले माली परिवार में जन्मे थे। माली उन दिनों सवर्णों द्वारा शूद्र समझें जाते थे। विचारशील समाज में प्रचलित कुरीतियाँ बहुत अखरीं। वे धन कमाने की बात भुलाकर घर में जो कुछ था, उसी से गुजारा करते रहे और अपना पूरा समय समाज सुधार आंदोलन में लगाते रहे।
उन्होंने अपनी पुत्र को पढ़ाया और उसके माध्यम से कन्या विद्यालय खड़ा किया। गर्भवती विधवाओं के लिए उनने एक आश्रम चलाया। जाति- पाँति के नाम पर बरती जाने वाली ऊँच- नीच का उनने डटकर विरोध किया। समाज- सुधार तथा शिक्षा प्रचार के और भी अनेक काम हाथ में लिए। उनका नम्र व्यवहार और पहनाव उढा़व साधु- संतों जैसा था। पूना की एक बड़ी सभा में उन्हें महात्मा की उपाधि से विभूषित किया गया। वे सच्चे अर्थों में समाज के पुरोहित थे।
मुसहारों को उठाने वाले सुंदरानी
द्वारिका जी सुंदरानी ने अपना कार्यक्षेत्र बिहार प्रांत का पिछड़ा इलाका चुना, जहाँ आवागमन तक की कोई सुविधा न थी। काराचट्टी क्षेत्र के बथा गाँव की झाड़ियाँ काटकर जमीन साफ की गई और उसमें मुसहर जाति के अछूतों के लिए स्वावलंबी विद्यालय बनाया गया। मुसहर जंगली चूहे मारकर खाने वाली एक जाति है, जो सामान्य अछूतों से नीची समझी जाती है। इस समुदाय में इससे पूर्व कदाचित् ही कोई बढ़ा हो। अब इस हरे- भरे उद्यान में बनाई गई झोंपड़ियों में मुसहरों के ११५ लड़के और ६० लड़कियाँ पढ़ती हैं। दोनों के निवास और प्रशिक्षण की स्वतंत्र व्यवस्था है।
कुछ दिन पूर्व तक यह छोटा विद्यालय था, पर अब इसमें ८० एकड़ भूमि श्रमदान से उपजाऊ बनाई गई है। इसमें कृषि, पशु- पालन, विज्ञान, सिलाई, स्वास्थ्य आदि के कितने ही उपयोगी विषय पढ़ाए जाते हैं। सरकारी सहायता भी इस केन्द्र को मिलने लगी है, पर इस जंगल में मंगल खड़ा कर देने वाले श्री सुंदरानी को ही इस शुभारंभ का श्रेय जाता है, जिन्होंने अपना जीवन इस जाति के उद्धार हेतु समर्पित कर दिया।
धार्मिक सहिष्णुता के प्रातिपादक महात्मा बहा
एक संपन्न परिवार में जन्मे थे महात्मा बहा। जब वे वयस्क हुए तो देखा कि धर्म के नाम पर चारों ओर कितनी अनीति चल रही है। वे ईरान के मुस्लिम धर्म में जन्मे थे, पर देखा कि ईसाइयों के साथ आए दिन धर्म के नाम पर रक्तपात होता है। भारत जैसे शांतिप्रिय देशों पर अपने मजहब में दीक्षित करने के लिए आक्रमण किए जाते। जो दबाव और प्रलोभन में न आते, उन्हें त्रास दिया जाता। यह सभी बातें ऐसी थीं , जिन्हें वास्तविक धर्म के विपरीति ही कहा जाना चाहिए ।
महात्मा बहा ने शांति और प्रेम के उपदेश दिए और सभी धर्मों को समान तथा उपयोगी माना। असहिष्णुता की उन्होंने निंदा की। उनके कितने ही अनुयायी बन गए, पर धर्मांधों से यह भी सहन न हुआ। अनुयायियों को जेल में डाला गया तथा त्रास दिए। महात्मा बहा को भी प्राणदंड दिया गया।
रूस के राजदूत ने समय पर उपस्थित होकर धर्मांधों को धमकाया कि यदि बहा के मानव धर्म को इस प्रकार कुचला जाएगा, तो उनके हक में अच्छा न होगा। तब उनके हाथ रुके। आज भी बहाई धर्म के असंख्य अनुयायी संसार में है।
मदर टेरेसा
उस महिला के कर्म को देखकर कई भावनाशील संपन्न लोग भी उनके सहयोगी बने। उस समूचे क्षेत्र में पाठशाला और अस्पतालों का एक प्रकार से जाल ही फैला दिया। सहकारी समितियाँ स्थापित कराई और गृहउद्योग चलाए। उसने अपने आपको खपा कर भारत के पिछड़े हुए एक सौ मील के दायरे में फैले दलित वर्ग को आत्मावलंबी बनाने में सफलता पाई। दीन- दुखियों की सहायता के लिए वह दूर- दूर तक भ्रमण करती रही। नाम था उनका टेरेसा। उन्हें नोबुल पुरस्कार उपलब्ध हुआ। वह पैसा भी उसने पिछड़े लोगों के लिए ही लगा दिया। संप्रति वे भारत में ही कार्यरत हैं।
सेवा करो- ब्रह्मज्ञानी बनो
सेवा कर्म ही सर्वकालीन युगधर्म है। अध्यात्म का मर्म यही है। ईसा को भक्त जनों के एक बड़ी सभा में प्रवचन करना था। जाते समय रास्ते में एक बीमार मिला। वे उसकी सेवा में लग गए।
देर होते देखकर उपस्थित लोग उन्हें खोजने निकले, तो उन्हें पीड़ित की सेवा में संलग्न पाया। सभा के लोग वहीं एकत्रित हो गए।
ईसा ने कहा-'' कथनी से करनी श्रेष्ठ है। तुम सेवा धर्म अपनाओ, तो ब्रह्मज्ञान का वह आनंद सहज ही प्राप्त कर सकोगे, जिसे पाने के लिए यहाँ आए हो। '' शरीर कहीं,मन कही
विलासिता और सुख- साधनों के बीच रहकर वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जो इस आश्रम में प्रवेश करने वालों से अपेक्षित है।
एक राजा किसी ऋषि की हिमालय गुफा में जाकर शिष्य हो गया। उसने शिष्यों समेत अपने यहाँ पधारने का आमंत्रण दिया। सुविधानुसार सभी वहाँ पहुँचे। आहार- विहार में शिष्यों का मन लग गया। वे लंबी अवधि तक वहाँ रहने को तैयार हो गए।
पर ऋषि दिन दिन दुर्बल होने लगे। रुग्णता उन्हें ग्रसने लगी। राजा ने कारण पूछा, तो उनने एक ही कारण बताया, कि उनका मन हिमालय में पड़ा है और शरीर यहाँ। दोनों के दो जगह रहने से मनुष्य सुखी नहीं रह सकता और जो सुखी नहीं रह सकता, वह बीमार पड़ता है। राजा ने वस्तुस्थिति समझी और उन्हें उनकी गुफा तक पहुँचा दिया।
वानप्रस्थी का स्थान वहीं है, जहाँ वह काम कर सके, जिसके लिए उसने व्रत लिया।
संत वेश की गरिमा
संत का बाना भर पहनने से जब किसी की वृत्ति बदल सकती है, तो वैसे कर्म में प्रवृत्त होने पर तो क्या नहीं हो सकता ?
एक राजा कोढ़ी हो गया। वैद्यों ने उपचार बताया कि- राजहंसों का मांस खाया जाय। हंस मान सरोवर पर रहते थे। वहाँ तक कोई पहुँचता न था। साधु- संतों की ही वहाँ तक पहुँच थी। कोई संत तो पाप कर्म के लिए तैयार न हुआ, बहेलिया ने संत का बाना पहनकर वहाँ जाना और पकड़ना स्वीकार कर लिया।
मानसरोवर के हंस साधुओं से हिले रहते थे। उन्हें देखकर वे उड़ते नहीं थे। बहेलियों की घात लग गई और हंस पकड़ लिए, राजा के सामने प्रस्तुत कर दिए। राजा सोच में पड़े कि संत श्रद्धा से अभिप्रेत इन भावुक हंसों का स्वार्थवश वध करना अनुचित है। दया उमड़ी और हंसों को मुक्त कर दिया गया। राजा का दूसरा उपचार चलने लगा। इस घटना का बहेलिया पर भी प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगे जिस संत वेष के लिए हंसों तक में इतनी श्रृद्धा है, उसे ऐसे हेय प्रयोजनों के लिए कलंकित नहीं करना चाहिए। बहेलियों ने संन्यास ले लिया और वे सब संत बन गए।
पहले घर तो छोड़ो
प्रारंभिक संकोच एवं स्थान, जहाँ इतने दिन समय कटा, से मोह ही पुण्य कार्य में बाधक बनते हैं। जो इस बंधन से छूटते हैं, वे सेवा करने में आनंद पाते हैं, महान् बनते हैं।
समुद्र मैं अनेक नदी- नाले मिल रहे थे। सबका स्वागत- सत्कार हो रहा था और वे छोटे स्तर वाले इस मिलन के सहारे स्वयं भी महान् बनते जा रहे थे। एक गँदले गढ्डे को यह बुरा लगा। समुद्र जब बहुतों को अपने पास बुलाता है और आत्मसात् करता है, तो उसी का तिरस्कार और उपेक्षा क्यों ? कारण पूछने के लिए गढ्डा़ एक दिन समुद्र तट पर जा पहुँचा और अपना आक्रोश कह सुनाया। समुद्र ने अपनी सहज गंभीरता के साथ बताया- '' मित्र ! अपना घर छोड़कर उस तक पहुँचने का जो अथक प्रयास करते हैं , स्वागत उन्हीं का होता है। गौरव उन्हें ही मिलता है। तुम भी वैसा ही प्रयत्न कर देखो, सुअवसर का द्वार तुम्हारे लिए भी खुला है। ''
सोद्देश्य यात्रा
गंगोत्री से गंगाजल धरती से बाहर निकला और चल पड़ा। पहाड़ियों से नीचे और नीचे उतरता हुआ मैदान में आया। एक व्यक्ति इस प्रक्रिया का बडी़ गंभीरता से अध्ययन कर रहा था। जल बढ़ता रहा, उसमें अनेक जल- नद आकर मिले। उसने भी नदी का रूप ले लिया। नाली बहती चली गई और अंत में सागर में समाहित हो गई। देखने वाले व्यक्ति ने इस मंजिल को जल की मूर्खता माना। हिमालय के उच्च शिखर को छोड़कर अनेक कष्ट- कठिनाइयाँ उठाकर खारे जल में मिलना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? नदी ने व्यक्ति को देखा, तो मनः स्थिति समझ गई। बोली-'' तुम हमारी यात्रा का मर्म नहीं समझ सके। हिमालय कितना भी ऊँचा क्यों न हो, वह पूर्ण नहीं है। पूर्णता तो गहराई में है, जहाँ सारी कामनाएँ निःशेष हो जाती हैं। मैं हिमालय जैसी महान् ऊँचाई की आत्मा हूँ,जो सागर की गहराई में पूर्णता पाने के लिए निकली थी। निरंतर चलते रहकर ही मैंने अपने लक्ष्य को पाया है। ''
दीपक बनाम अंधकार
लोकसेबी प्रकाशस्तंभ के समान होते हैं। दीपक की नाईं जलते हैं वअन्य- अनेक को प्रकाश देते है।
रात्रि का घना अंधकार था। यात्री को कई कोस आवश्यक काम से जाना था। रास्ता सूझ नहीं पड़ता था। एक गरीब की कुटिया से जलता उसका दीपक माँगा। उसने दे दिया। दीपक छोटा था, पर उसका प्रकाश यात्री से दस कदम आगे चलता। हवा में बुझने न पाए इसका ध्यान रखा और यात्री गंतव्य स्थान तक पहुँच गया। प्रकाशवान् व्यक्तित्व भले ही छोटे हों, किसी के साथ हों, तो उसे संकट से उबार देते हैं।
अंत: की ज्योति जगाएँ
चाहे बाहर से कितने ही प्रयास किए जाएँ, वे उपचार तभी सार्थक हैं, जब अंतः की विवेक शक्ति जागृत हो। यह शक्ति हर किसी के पास है। अपने सार्थक उपदेश व आचरण से इसे ही ज्ञानवान् लोकसेवी जगाते हैं।
जनक और याज्ञवल्क्य के बीच ज्ञान चर्चा चल रही थी। जनक ने पूछा-'' सूर्य अस्त होने के बाद अंधकार के घनेपन में कैसे मार्ग ढूँढ़ा जाय ?'' याज्ञवल्क्य ने कहा-'' सितारे रास्ता बता सकते हैं। ''
जनक ने पूछा-'' यदि बादल छाए हों और दीपक का प्रकाश भी उपलब्ध न हो, तो फिर क्या करना होगा ?'' याज्ञवल्क्य ने कहा-'' तब सूझ- बूझ के सहारे रास्ता ढूँढ़ना चाहिए। विवेक का प्रकाश हर किसी के पास है और वह कभी नहीं बुझता। हे राजन ! उस प्रसुप्त विवेक को जगाना ही ऋषि समुदाय का पुण्य कर्तव्य है। ''