Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-1
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गुरुकुलेषु तदाऽन्येषु छात्रा आसँस्तु ये समे । गुरुजनै: सह ते सर्वेऽप्यायाता द्रष्टमुत्सुका: ।। १ ।। ऋषे कात्यायनस्येमां व्यवस्थामुत्तमामपि । तस्याऽध्यापनशैलीं तां चर्या च ब्रह्मचारिणाम् ।। २ ।। तै: श्रुतं यन्महर्षेर्यद् विद्यते गुरुकुलं शुभम् । छात्ननिर्माणशालेव यत्नत्या: स्त्रातकास्तु ते ।। ३ ।। समुन्नता भवच्छेवं मन्यन्ते संस्कृता अपि । सफला लौकिके सन्ति समर्था अपि जीवने ।। ४ ।। सम्पन्ना अपि चारित्र्यसंयुक्ता व्यक्तिरूपत : । उदात्तास्ते तथैवोच्चस्तरा गण्यन्त उत्तमै : ।। ५ ।।
भावार्थ- एक बार अन्यान्य गुरुकुलों के छात्र अपने- अपने गुरुजनों समेत महर्षि कात्यायन के आश्रम की व्यवस्था और अध्ययन शैली व दिनचर्या का पर्यवेक्षण करने आए । उनने सुना था कि कात्यायन का गुरुकुल टकसाल है, जिसमें पढ़कर निकलने वाले स्नातक न केवल समुन्नत होते हैं, वरन् ससंस्कृत भी माने जाते हैं । वे लौकिक जीवन में समर्थ, सफल और संपन्न रहते हैं तथा व्यक्तिगत जीवन में चरित्रवान्, उदात्त एवं मूर्धन्य स्तर के गिने जाते हैं।। १-५ ।।
वैशिष्ट्यं चेदृशं छात्रा: केनाधारेण यान्ति ते । इदं द्रष्टुं च विज्ञातुं छात्नास्ते गुरुभि: सह ।। ६ ।। विभिन्नेभ्य: समायाता: क्षेत्रेभ्य उत्सुका भृशम् । तदागमनवृत्तं च सदस्यैर्ज्ञातमेवतत् ।। ७ ।।
भावार्थ- ऐसी विशेषताएँ किस आधार पर छात्रगण प्राप्त करते हैं? यह जानने- देखने की अभिलाषा लेकर वे छात्र- मंडल अध्यापकों समेत विभिन्न क्षेत्रों , देशों से आए थे । उनके आगमन और उद्देश्य की पूर्व सूचना कात्यायन गुरुकुल के सभी छोटे- बड़े सदस्यों को विदित हो गई थी ।।६- ७ ।।
ध्यानेनागन्तुका: सर्वे दिनचर्यां व्यवस्थितिम् । कात्यायनाश्रमस्याऽस्य स्वच्छतां व्यस्ततामपि ।। ८ ।। अनुशासनसम्मानं तत्रत्ये पाठ्यसंविधौ । सुसंस्कारित्वभावं तं व्यवहारेऽवतारितुम् ।। ९ ।। पालितुं च सदाचारमध्यापनमिवानिशम् । कर्तव्यं निजदायित्वं पालितुं चानुशासनम् ।। १० ।। ध्यानं तत्र विशेषं हि दिनचर्यागतं ह्यभूत्। वैशिष्ट्यं मौलिकं चाभूदेतदेवास्य सुदृढम् ।। ११ ।।
भावार्थ आगंतुकों ने कात्यायन आश्रम की दिनचर्या, व्यवस्था, स्वच्छता, व्यस्तता और अनुशासनप्रियता को ध्यानपूर्वक देखा । पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन- अध्यापन की भाँति ही सुसंस्कारिता को व्यवहार में उतारने तथा शिष्टाचार पालने कर्तव्य- उत्तरदायित्व समझने और उन्हें पालने के लिए अनुशासन बरतने पर समुचित ध्यान दिया जाता था - यही इस आश्रम की सुदृढ़ मौलिकता थी ।। ८-११ ।।
नैवाध्ययनमेवात्र पर्याप्तं भवति त्वयि । नेतुं तान् प्रगतिं छात्रान् महामानवतामपि ।। १२ ।। व्यवहारे समावेशोऽभ्यासश्चाऽपि विशेषतः । सदाशंयसमुद्भूतो मतस्त्वावश्यक: सदा ।। १३ ।।
भावार्थ- व्यक्तित्वों को उभारने और सामान्य मनुष्यों को महामानव बनाने में मात्र अध्ययन ही पर्याप्त नहीं होता, व्यवहार में सदाशयता का समावेश- अभ्यास इसके लिए नितांत आवश्यक है इस सिद्धांत को उस आश्रम में भली प्रकार चरितार्थ होते हुए सभी आगंतुकों ने पाया ।।१२ -१ ३ ।।
व्याख्या - गुरुकुलों की महामानवों को ढालने वाली टकसाल के रूप में मान्यता देवसंस्कृति की अनेकानेक विशेषताओं का एक अंग रही है । ऐसे शिक्षालयों से तप कर निकलने वाले विद्यार्थी एकांगी प्रवीणता मात्र नहीं प्राप्त करते थे अपितु, अपने आपको संस्कारों की निधि से संपन्न बनाकर व्यावहारिक दृष्टि से बहिरंग जीवन में भी कुशल एवं सूझबूझ के धनी बनकर निकलते थे । ऐसे आरण्यकों के प्रति ऋषि समुदाय एवं अन्याय छात्रों कीं जिज्ञासा होना स्वाभाविक है ।
विद्यालय का परिकर अपने एक- एक अंग से अपना परिचय देता है । बाह्य सुसज्जा, विद्यार्थियों का ठाट- बाद से रहना, बैठने- पढ़ने की सुव्यवस्था होना भर पर्याप्त नहीं।यह बाह्याडंबर तो आज हर कहीं रास्ता चलते देखा जा सकता है । अध्ययन- अध्यापन की श्रेष्ठ व्यवस्था होना ही समुचित नहीं । संस्कारों के अभिवर्धन के लिए व्यक्ति को महामानव रूप में ढालने के लिए, आत्मानुशासन को जीवन का अंग बनाने के लिए, उदारता- परमार्थ को व्यवहार में समावेश करने हेतु क्या प्रयास- पुरुषार्थ अध्ययन- अध्यापन के साथ किया गया, वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । उसी में 'विद्यालय' के 'विद्या का घर' कहे जाने की सार्थकता है ।
शिष्य की गुरुकुल परीक्षा भी शिक्षण भी
गुरुकुल व्यवस्था में यह अनिवार्य नहीं कि कमरों में, कपाट- कोष्ठों में बंद होकर शिक्षा प्राप्त की जाय । गुरुकुल के अधिष्ठाता छात्रों की मन:स्थति के अनुरूप उन्हें प्रकृति की पाठशाला में व्यवहारिक शिक्षण देने की ऐसी व्यवस्था बनाते हैं कि व्यक्तिव में प्रखरता का समावेश संवर्धन होकर रहता है । महर्षि जरत्कारू के गुरुकुल में छात्र विद्रुध ने प्रवेश पाया ।। ऋषि को विद्यार्थी प्रतिभावान् लगा, अस्तु उसे समझाया, पौरुष की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही कोई वरिष्ठ बन सकता है । तुम पराक्रम के साथ- साथ पुस्तकें पढ़ते रहो । विद्रुध महर्षि के परामर्श से सहमत हो गया । उसे सौ गौएँ सौंपी गई और प्रभुदारण्य में उन्हें चराते हुए हजार हो जानें पर वापस लौटने को कहा । पाठ्यपुस्तकें भी उसकी पीठ से बाँध दी । विद्रुध को बारह वर्ष लगे और गौएँ हजार हो गईं । दूध 'पीकर उनके सभी बच्चे हृष्ट- पुष्ट थे ।
इस बीच उन्हें अनेक के साथ संपर्क साधने और परामर्श करने का अवसर मिला । मार्ग की कठिनाइयों और समस्याओं से निपटते रहे । उनकी प्रतिभा निखर पड़ी । वापस लौटे तो उनके चेहरे पर ब्रह्मतेज टपक रहा था । अपनी बुद्धि का प्रयोग करके जो उनने पढ़ा और समझा, उससे कहीं अधिक था, जो आश्रम में रहकर पढ़ने वाले छात्रों ने सीखा था ।
जरत्कारू अपने इस शिष्य के साहस को देखकर अतीव प्रसन्न हुए । अपने आश्रम का कार्य सौंप कर स्वयं कहीं अन्यत्र बड़े काम के लिए चले गए ।। उत्तराधिकारी की उन्हें तलाश थी, सो इस परीक्षा के द्वारा पूरी हुई ।
जीनों की पाठशाला
सुयोग्य विद्यार्थी न मिलें तो भी मनीषी निराश नहीं होते ।वे अनगढ़ को सुगढ़ व श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करते हैं ।यूनान का एक वृद्ध दार्शनिक अपने मित्र से बोला- '' मैंने लोगों को सच्चाई और सदाचार की शिक्षा देने की योजना बनाई है । विद्यालय के लिए स्थान चुन लिया गया है, पर विद्याध्ययन के लिए विद्यार्थी नहीं मिलते । '' मित्र व्यंग्य करते हुए बोले- '' तो आप कुछ भेड़ें खरीद लीजिए और अपना पाठ उन्हें ही पढ़ाया करें । तुम्हारी इस योजना के लिए आदमी मिलने मुश्किल हैं । '' हुआ भी ऐसा ही, कुल दो युवक आए जिन्हें घर वाले आधा पागल समझते थे और मुहल्ले वाले सिरदर्द । वृद्ध ने उन्हीं को पढ़ाना शुरू कर दिया । दूसरे लोग कहा करते- बुढ्ढे ने मन बहलाने का अच्छा साधन ढूँढ़ा ।
किन्तु यही दोनों इस बूढ़े विचारक से शिक्षा प्राप्त कर जब पहली बार घर लौटे तो उनके रहन- सहन, बोल- चालू, अदब- व्यवहार ने लोगों का हृदय मोह लिया । फिर तो जो विद्यार्थियों की संख्या बढ़नी शुरू हुई कि विद्यालय पूरा विश्वविद्यालय बन गया । पहले के दोनों छात्रों में एक यूनान का प्रधान सेनापति, दूसरा मुख्य सचिव नियुक्त हुआ ।
यह वृद्ध ही सुविख्यात दार्शनिक जीनो थे और उसकी पाठशाला ने जीनो की पाठशाला के नाम से विश्व- ख्याति अर्जित की ।
गुरूकुल ही क्यों ?
गुरुकुलों में विद्याध्ययन हर वर्ण, जाति, समुदाय के बालकों के लिए हितकारी है । किसी को अपनी संतानों को पैतृक व्यवसाय की ओर करना भी हो, तो भी श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए उन्हें संस्कारों का शिक्षण देना अत्यंत अनिवार्य है ।
एक ही पड़ोस में एक क्षत्रिय और एक वैश्य रहते थे । ब्राह्मण बालक गुरुकुल में पढ़ने चले गए, पर क्षत्रिय और वैश्य विचार करने लगे कि हमें तो योद्धा बनना और व्यवसाय करना है । हमारे बालकों को ब्रह्म विद्या पढ़ने से क्या लाभ? कुल पुरोहित से उनने परामर्श किया, तो उनने उत्तर दिया कि ब्रह्मविद्या का तात्पर्य संन्यासी होना नहीं । वह जीवन के अंतिम भाग में अधिकारी व्यक्तियों द्वारा ही ग्रहण किया जाता है । ब्रह्मविद्या का प्रयोजन गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार होता है, जो हर स्तर की प्रगति के लिए आवश्यक है । क्षत्रिय और वैश्य भी उस विद्या को उपलब्ध करें, तो अपने- अपने कार्यों को अधिक सफलता और सुंदरता के साथ संपन्न कर सकेंगे । कुल पुरोहित का परामर्श मानकर उनने भी अपने बालक गुरुकुल भेजे । लौटने पर वे अपने कार्यों में दूसरों की अपेक्षा अधिक सफल रहे ।
यही कारण था कि प्राचीनकाल में समाज के हर समुदाय के व्यक्ति, राजा से लेकर रंक तक अपने बच्चों को गुरुकुल विद्याध्ययन हेतु भेजते थे ।
प्रतिभाएँ उल्टी से सीधी भी हो सकती हैं
यह मार्गदर्शक पर निर्भर है कि वह प्रतिभा को परख कर उन्हें कैसी दिशा देता है ? पिता- बच्चों की उद्दंडता से निराश हो गए थे और उसका भविष्य अंधकारमय होने की कल्पना करने लगे थे । पढ़ने में मन न लगता था । डाँट पड़ी, तो कोयला खोदने की खदान में नौकरी कर ली । पत्नी भी खिन्न थी ।। उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया । इन परिस्थितियों में शुभचिंतकों ने उमेश चंद्र बनर्जी को समझाया- बुझाया । उन्हें घर में वैसा ही वातावरण देकर संस्कारों की शिक्षा देना आरंभ किया । बाल हठ मिटा, तो वे पिता के साथ वकालत करने और उसकी तैयारी करने में लग गए । इंग्लैण्ड जाने की छात्रवृत्ति मिली और वे बैरिस्टर होकर लौटे । वकालत सबसे अच्छी चलने लगीं । जो बीजांकुर अंदर सुसंस्कारिता के जमे थे, वे फलीभूत होने लगे ।
संस्कारों में परिवर्तन का क्रम चला, तो वह सुधार की दिशा में बढ़ता चला गया । राष्ट्रीय आन्दोलन में उनने अपने कौशल का परिचय दिया । अखिल भारतीय कांग्रेस के तीन बार अध्यक्ष चुने गए । सरकार ने भी उन्हें लोकसभा सदस्य नामजद किया । कलकत्ता विश्वविद्यालय के वायस चांसलर रहे । प्रतिभाएँ जब उलटती हैं, तो बिगाड़ का सुधार होते भी देर नहीं लगती।
आश्रमस्थैस्तथा तत्र समायातैंश्च निश्चितम् । अवरुद्धध्य तु सप्ताहं शिक्षां तां लौकिकीं भवेत् ।। १४ ।। विद्याया विषये चर्चा याऽमृतत्वाय कल्पते । स्वभावे विनयं शीलं समाविष्टं करोति या ।।१५ ।। अपेक्ष्य लौकिकीं शिक्षां विद्या यात्वात्मवादिनी । तुलनायां महत्वं तु तस्या एवाधिकं मतम् ।। १६ ।। उपस्थिता जना: सर्वे ज्ञातुमेतच्च विस्तरात् । ऐच्छन् येन समे तथ्यं कुर्युस्तेऽवगतं स्वतः ।। १७ ।।
भावार्थ- आगंतुकों और आश्रमवासियों ने मिलकर निश्चय किया कि एक सप्ताह तक लौकिक जानकारियाँ देने वाला शिक्षा क्रम बंद रखा जाय और विद्या पर अधिक प्रकाश डाला जाय, जो अमृत कहलाती है और स्वभाव में विनयशील शालीनता का समावेश करती है । लौकिक शिक्षा की तुलना में आत्मवादी विद्या का कितना अधिक महत्व है- इसे सभी उपस्थित जन और भी अधिक विस्तार से जानना चाहते थे । यों इस तथ्य से किसी न किसी रूप में अवगत तो सभी थे ।। १४ -१७ ।। साप्ताहिकं समारब्धं संस्कृते: सत्रमुत्तमम् ।
आगत: समुदायच यथास्थानमुपाविशत् ।। १८ ।। उद्बोधको महर्षि: सोऽगादीत् कात्यायनस्तदा । प्रगते: सार्वभौमाया नृणामाधारगानि तु ।। १९।। तथ्यानि यानि संप्राप्य स्फलिङ्गं इव शक्तिमान् । विकामं पूर्णमासाद्य जीवो ब्रह्म भवेद् ध्रुवम् ।। २० ।।
भावार्थ- एक सप्ताह का संस्कृति सत्र आरंभ हुआ । उपस्थित समुदाय अपने- अपने निर्धारित स्थानों पर पंक्तिबद्ध होकर आसीन हुआ। उद्बोधनकर्ता महर्षि कात्यायन ने जिज्ञासुओं की आकांक्षा के अनुरूप मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति के आधारभूत तथ्यों पर प्रकाश डालना आरंभ किया, जिन तथ्यों को प्राप्त कर शक्तिशाली चिनगारी के रूप में विद्यमान जीव पूर्ण विकास को प्राप्त कर ब्रह्म रूप बन जाता है ।। १८- २० ।।
कात्यायन उवाच - भद्रा ! जन्मना मर्त्य: पशुवृत्तियुतो भवेत् । सञ्चितो व्यवहारो यो योनिषु च हि निम्नग : ।। २१।। भ्राम्यताऽशीतिसंख्यासु चतुरुत्तरकासु तु । गरिम्णो मर्त्यभावस्य त्याज्यो विस्मर्य एव सः ।। २२ ।। देवयोनिगरिम्णश्च योग्यानां गुणकर्मणाम् । प्रकृतेरपि चाऽभ्यास: कर्तव्यो मर्त्यजन्मनि ।। २३ ।। त्यागस्वीकारयोरेवानयोर्या प्रक्रिया मता । देवसंस्कृतिरूक्ताऽतो देवत्वं नर आश्रयेत् ।। २४ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- है भद्रजनों ! मनुष्य जन्नत: पशु -प्रवृत्ति का होता है । चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते समय, जो व्यवहार संचित किया गया है, वह मनुष्य जीवन की गरिमा को देखते हुए ओछा पड़ता है । इसलिए उसे भुलाना- छोड़ना पड़ता है । इस देव योनि गरिमा के उपयुक्त गुण, कर्म , स्वभाव का अभ्यास करना पड़ता है । इसी छोड़ने- ग्रहण करने की उभयपक्षीय प्रक्रिया को देवसंस्कृति भी कहते हैं, जिससे मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है ।। २१-२४ ।।
व्याख्या- शिक्षा और विद्या में अंतर समझना अत्यंत अनिवार्य है ।बहुसंख्य व्यक्ति दोनों को एक ही मानतें एवं स्वयं तथा अपनी संतानों के लिए बहिरंग की जानकारी देने वाली शिक्षा को ही समुचित मान बैठतें हैं ।
शिक्षा का अर्थ है, जानकारी को व्यापक बनाबा, बुद्धि विस्तार करना, ताकि वह दैनंदिन जीवन में काम आ सके । विद्या वह है, जो जीवन को सुसंस्कारी बनाती एवं आत्मिक प्रगति में सहायक भूमिका निभाती है । दोनों ही समग्र मानवी विकास के लिए जरूरी हैं । जहाँ एक, व्यक्ति के बहुमुखी लौकिक विकास के लिए उत्तरदायी है वहाँ दूसरी, व्यक्ति के अंतःक्षेत्र के परिशोधन , परिष्कार एवं उन्नयन की भूमिका संपादित करती हैं । अत: शिक्षा मनुष्य के बहिरंग जीवन को सुविकसित करती है और विद्या अंतरंग को ।
शिक्षा सांसारिक योग्यता, प्रतिभा बढ़ाती है और विद्या मनुष्य को सुसंस्कारी, उदार, उदात्त बनाती है, व्यक्तित्व को श्रेष्ठता एवं शालीनता से सुसंपन्न करती है । एक को सभ्यता के विकास का साधन तथा दूसरे को सांस्कृतिक उन्नति का माध्यम समझा जा सकता है । प्रगतिशील जीवन दोनों के समन्वय एवं सुविकसित होने पर बनता है ।
ऋषि श्रेष्ठ कात्यायन यहाँ बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कुसंस्कारों का बोझ अपने सिर पर लिए नर- पशु के रूप में जन्मे अनगढ़ मनुष्य के लिए सुरदुर्लभ मानव योनि में जो बहुमूल्य अवसर स्वयं के उत्थान हेतु मिला है, उसे गँवाया नहीं जाना चाहिए । पशु स्तर त्याग कर मानवी गरिमा में प्रवेश करना ही प्रकारांतर से 'देव संस्कृति' है । शब्दार्थ एवं भावार्थ दोनों ही रूप में इसका आशय है ऐसी विद्या, जो पेट- प्रजनन तक सीमाबद्ध रखने वाली पशु- प्रवृत्तियों का परित्याग एवं देवत्व को अंतराल में उतारने, उत्कृष्ट- आदर्शवादिता को जीवन में समाविष्ट करने का सर्वांगपूर्ण शिक्षण दे । कायाकल्प करने के कारण ही इसे अमृत कहा गया है ।
मानव जीवन की दुर्लभता
मनुष्य जीवन अपने आप में अद्भुत एवं महान् है । मनुष्य जीवन की यह महत्ता सर्वमान्य है । प्राचीन व अर्वाचीन हर समय के विचारकों और मर्मज्ञों ने इसका समर्थन किया है । रामचरित मानस में भी यही प्रतिपादन स्पष्ट रूप से मिलता है । काकभुशुंडि जी राम कथा के मर्मज्ञ ज्ञानियों में अग्रणी माने जाते हैं । उत्तरकाण्ड में कहते हैं- नर तन सम नहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत जेही ।।
अर्थात् '' मानव तन के समान कोई देह नहीं है, चर- अचर समस्त जीव उसकी याचना करते हैं ।" संसार के सभी जीव जिस शरीर को पाने की आकांक्षा करते हैं, वह कोई सामान्य उपलब्धि नहीं कही जा सकती । चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद ही यह दुर्लभ योनि मिलती है ।
आकर चारि लच्छ चौरसी । जोनि भ्रमत यह जिव अविनाशी ।।
अर्थात् '' यह अविनाशी जीव चार वर्गों ( अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज) और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है ।'' जीव अविनाशी है, पर उसे विभिन्न रूपों में अनुभव प्राप्त करने पड़ते हैं ।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।।
अर्थात् '' माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में होकर) वह हमेशा भटकता रहता है।" इसीलिए भगवान् श्रीराम प्रजाजनों को उपदेश देते हुए स्वयं मनुष्य शरीर की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
बड़े भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थहिं गावा ।।
अर्थात् '' बड़े सौभाग्य से यह नर- शरीर मिला है । सभी ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है । ''
नरक स्वर्ग अपवर्ग नसेनी ।ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ।।अर्थात् "यह मनुष्य- योनि नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है,शुभ ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की देने वाली है।''
नर तन भव बारिधि कहुँ बेरो । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ।।
अर्थात् '' यह मनुष्य देह संसार सागर (से तैरने) के लिए जहाज है । मेरी कृपा ही अनुकूल हवा है । '' जीवन के अनुरूप उपलब्धियों के लिए अपनी क्षमताओं का उपयोग न कर पाने के लिए श्रीराम आगे कहते है।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न चाह परलोक सँवारा ।।
अर्थात् '' यह (नर शरीर) साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है । इसे पाकर भी जो अपने परलोक की तैयारी न कर सके, वह अभागा है । ''
शरीर के माध्यम से ही मानवीय चेतना कार्य कर पाती है । अत : वह अनुपम साधन है । मानवीय चेतना द्वारा संचालित शरीर ही वस्तुतः मनुष्य शरीर है । स्वार्थरत, पाशविक दृष्टिकोण से संचालित शरीर केवल आकार में मनुष्य जैसा होने पर भी श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । दिव्य चेतना मुक्त होने से ही वह महान् बनता है । महर्षि वशिष्ठ जी, मनुष्य देहधारी होने के कारण हर व्यक्ति को श्रेष्ठ नहीं मानते । जिसमें मानवीय अंत: करण नहीं, जो मानवीय संवेदनाओं से हीन हैं, ऐसा व्यक्तिं हर प्रकार से शोचनीय है ।अर्थात् ऐसा व्यक्ति हर प्रकार से मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं । क्योंकि वह मनुष्य जीवन के मूल तत्व को ही नहीं देख पाता ।
जैसे संस्कार वैसा विकास
मानव योनि मिलने पर भी पाशविक संस्कारों का ही पोषण मिलने पर मानवी माया में ही व्यक्ति उन्हीं के समान विकसित होते देखे जा सकते हैं । विद्या का खाद- पानी, संस्कारों की उर्वरक शक्ति ही व्यक्ति को मनुष्य रूपी वह विभूषण प्रदान करती है, जिसके लिए देवगण तक लालायित पाए जाते हैं । वातावरण में जैसे संस्कार होते हैं व्यक्ति वैसा ही ढलता चला जाता है ।
कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के सदर अस्पताल में एक नौ वर्ष का बालक प्रस्तुत किया गया था। यह वसौढ़ी -गाँव के मल्लाहों द्वारा सियारों की माँद से निकाला गया था ।यह सियारों की बोली बोलता था और वही खाता था, जो सियार खाते हैं । उसके नाखून तथा बाल बढ़े हुए थे और चौपायों की तरह चलता था । इससे पूर्व लखनऊ के अस्पताल में एक रामू नामक भेड़िया बालक कई वर्ष तक भर्ती रह चुका है, यह भेड़ियों की माँद खन्दौली ( आगरा) के जंगलों में पाया था । उपरोक्त सियार और भेड़िया बालकों के संबंध में यही विदित हुआ है कि इन्हें यह वन्य पशु छोटी आयु में उठाकर ले गए थे । वे इन अबोध शिशुओं के प्रति द्रवित हो गए और उसे खाने की बजाय अपने बच्चों की तरह पाल लिया ।
ये घटनाएँ यह तथ्य- सामने लाती है कि मनुष्य का विकास सर्वांगीण संस्कारदायी विद्याओं, परिस्थितियों के माध्यम से ही हो सकता है । एकाकी प्रयत्नों के बलबूते कोई जीवित भले ही रह ले, पर समग्र प्रगति तो संस्कारों के पोषण एवं सामाजिक सहयोग एवं स्तर की मात्रा बढ़ाने से ही हो सकती है । इसके बिना तो हर किसी को भेड़िया अथवा सियारों से पाले बालकों की तरह पिछड़ी हुई स्थिति में रहना होगा ।
प्रतिभा श्रेष्ठ कार्यों में क्यों न लगाईं ?
विद्या का यदि सदुपयोग न हो, तो उसकी क्या सार्थकता ?
एक राजा के दरबार में कोई जौहरी एक बहुमूल्य हीरा लेकर पहुँचा । राजा ने अपने जौहरियों से उसका मूल्य जाँचने के लिए कहा ।वे उस पर एक मत न हो सके ।तभी एक वृद्ध जौहरी आया,उसने हीरा जाँच कर कहा। -''इसका मूल्य ९९ लाख रुपया है ।"
राजा ने पूँछा- '' ९९ लाख ही क्यों, पूरा एक करोड़ क्यों नहीं ? जौहरी ने वह हीरा बीच में रखा, उसके चारों ओर समान कोणों पर १०० हीरे रखे । बीच के हीरों से परिवर्तित होकर प्रकाश ९९ हीरों पर पड़ा, एक पर नहीं ।वृद्ध जौहरी बोला- '' हुजूर ! यही इसकी कमी है जिस कारण मैंने इसका मूल्य पूरा एक करोड़ नहीं कहा । '' राजा प्रसन्न हुए । उस वृद्ध जौहरी को इनाम देने की आज्ञा दी । वहीं एक संत बैठे थे । बोले- '' महाराज ! इन्हें इनाम भी अवश्य दें, लेकिन साथ ही मेरी ओर से एक मुठ्ठी धूल भी इनके सिर पर डलवा दें । '' इस विचित्र उक्ति से सभी को आश्चर्य हुआ । राजा ने इसका कारण पूछा ।
संत बोले- '' इनाम पाने की अपनी पात्रता तो यह आप सबके सामने सिद्ध कर चुके हैं । इसलिए वह इन्हें मिलना ही चाहिए परंतु यह इतना आला दिमाग केवल पत्थरों की बारीकी परखने में जीवन भर लगाता रहा । ऐसा दिमाग देने वाले के बारे में इसने जरा भी गहराई से नहीं सोचा, सत्कार्यों में अपनी प्रतिभा जरा भी नहीं लगाई । इस प्रतिभा का सुनियोजन यदि हुआ होता, तो यह क्या से क्या कर सकती थी । इनकी इसी कमी के कारण इन्हें एक शिक्षा मिलनी चाहिए । ''
दिशाहीन मेधा
अनेक श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, मनीषियों के प्रसंग हमें नित्य पढ़ने को मिलते रहते हैं जो मेधा संपन्न, विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हुए भी मात्र विनाश हेतु आयुधों के अनुसंधान व निर्माण कार्य में लगे है।एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व के सत्तर प्रतिशत से भी अधिक प्रतिभा के धनी, उच्च शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक मात्र संहार हेतु नवीनतम उपायों की खोज में लगे हैं। यह विधाता की दी हुई अमूल्य देन का दुरुपयोग ही तो है।शिक्षा का कोई मूल्य नहीं, यदि वह उच्चस्तरीय आदर्शों से युक्त नहीं है । विद्या को समाविष्ट किए बिना शिक्षा अधूरी है ।
समता की महत्ता
गुरुकुल में दी जाने वाली विद्या इसीलिए अमृत के समान कही गई है क्योंकि वह साधनों को नहीं, उच्चस्तरीय आदर्शों को महत्त्व देती है । इसीलिए गुरुकुलों के छात्र उपभोग की नहीं, अपितु उपयोग की , सत्प्रयोजनों हेतु उनके नियोजन की महत्ता समझकर अपनी भावी दिशाधारा का निर्धारण करते हैं ।
एक दिन छात्रों में संपन्न घरों से आए बालकों ने गुरुकुल संचालक आत्रेय ने पूछा-'' भगवन् ! जो अपने घरों से अच्छे भोजन और वस्त्र मँगा सकते हैं, वे उनका उपयोग क्यों न करें ? वे भी क्यों दूसरे निर्धनों की तरह असुविधाएँ भुगतें ?''
आत्रेय ने कहा- '' छात्रो ! उत्तम मनुष्य जिस समुदाय में रहते हैं, उसी की तरह जीवनयापन करते हैं । यह समता ही अपने और दूसरों के लिए सौजन्य उत्पन्न करती है ।" '' संपन्नता का प्रदर्शन ईर्ष्या और अहंकार उत्पन्न करता है, इससे विग्रह खड़े होते हैं और सहयोग का आधार टूट जाता है ।विषमता ने ही समाज में अनेक विग्रह खड़े किए हैं और अपराधों- अनाचारों को जन्म दिया है ।'' '' यहाँ समानता का जीवन जीने की दिशा दी जाती है । समाज के अन्य लोगों की तरह ही जीना सिखाया जाता है । धनी अपना धन निर्धनों को ऊँचा उठाने में लगाएँ, न कि निजी सुविधा संवर्द्धन में । ''
छात्रों ने समता के दूरगामी सत्परिणाम समझे और संपन्नों के मन में जो अधिक उपयोग का भाव उठा था, वह समाप्त हो गया ।
उन्मादी चित्त
विद्या अनगढ़ चित्त को सुगढ़ बनाती एवं चिंतन की, व्यवहार की दिशा धारा का सुनियोजन करती है । मनुष्य की अनगढ़ता जन्मजात है एवं अन्य आहार- पोषण की ही तरह उसे विद्या की आवश्कता सर्वोपरि है, ताकि उसका विकास श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में हो सके । वशिष्ठ जी ने राम को एक भयंकर वन में विचरण करने वाले उन्मत्त का आँखों देखा विवरण सुनाया । वह देखने में तो भला -चंगा लगता था, पर उसकी गतिविधियाँ ऐसी थीं, जिसे देखकर उसे विक्षिप्त ही कहा जा सकता था । रास्ते और पगडंडियों का व्यतिक्रम करके वह जहाँ- तहाँ विचरता, आँधे- सीधे मार्ग बनाता और उनमें चलकर अपने वस्त्र और शरीर फाड़ लेता । पैरों में काँटे लग रहे थे, फिर भी अपने को बुद्धिमान मानता और किसी के परामर्श को अहंकारवश स्वीकार न करता । उसे कभी भय- चिंता से नींद न आती । कभी अपने को राजा मानकर लंबी नींद सोता । कँटीली झाड़ियों के क्षेत्र में उसे भूख- प्यास सहनी पड़ती और जब जी आता केलों के क्षेत्र में निकल जाता, शीतल वातावरण का लाभ लेता और' फलों से पेट भी भर लेता, पानी भी वहाँ था । अपनी स्थिति पर उसे असंतोष भी न होता । आए दिन रोने- गाने के गोरखधंधे में ही वह उलझा रहता । राम ने वशिष्ठ से पूछा- ''भगवन् । वह उन्मादी कहाँ रहता हैं ? उसका क्या नाम है ? क्या उसका कोई उपचार नहीं है?'' वशिष्ठ ने कहा- '' वत्स। वह और कोई नहीं, मनुष्य का अनगढ़ चित्त ही है, जो जाल में फँसे पक्षी की तरह फड़फड़ाता तो है, पर स्थिति से उबरने का मार्ग नहीं ढूँढ़ पाता । ''
नाञ्जसाऽभ्येति चैषा तु शिक्ष्या यत्नेन मानवै: । शिक्षणीया भवत्येषा विद्या प्रोक्ता मनीषिभि: ।। २५ ।। सम्बद्धा सुविधाभिस्तु साफल्येन च या तु सा । क्षेत्नस्य भौतिकस्यात्र शिक्षा प्रोक्ता मनीषिभि: ।। २६ ।। शिक्षाऽप्यस्ति च सा नूनमनिवार्या तथांऽपि तु । अपूणर्नैव तथैका विना विद्यासमन्वयात् ।। ।। २७ ।। ।।
भावार्थ- यह अनायास नहीं अति प्रयत्नपूर्वक सीखनी और सिखानी पड़ती है । यही विधा है । शिक्षा उसे कहते हैं जो भौतिक क्षेत्र की सुविधा- सफलता से संबंधित है । शिक्षा भी आवश्यक तो है पर विद्या का समन्वय हुए बिना वह अपूर्ण एवं एकांगी ही रहती है ।। २५ - २७ ।।
व्याख्या- विद्या एवं शिक्षा का युग्म है । शिक्षा बाहर से थोपी जा सकती है एवं वह लौकिक प्रगति में सहायक होती है । किन्तु विद्या को बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता । बिना अंतःकरण की सुसंस्कारिता के अनगढ़ व्यक्ति को दी गई शिक्षा तो बंदर के हाथ तलवार की तरह सिद्ध होती है । विद्या के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयास करना पड़ता है, प्रेरणा स्रोत कोई भी बन सकता है, वातावरण , शिक्षण अभिभावक, मित्र अथवा हितैषीगण । विद्या अर्जन एक प्रकार की साधना है, अन्तःक्षेत्र का प्रचंड पुरुषार्थ है, जिसे संपादित किए बिना मानव जीवन की हर उपलब्धि व्यर्थ है ।
पूर्ण सत्य की खोज ही लक्ष्य
कहा गया है- '' विद्यामृतमश्नुते ।" इसके समक्ष सारे संसार का वैभव यहाँ तक कि स्वर्ग का आनंद भी तुच्छ है ।भारद्वाज मुनि जीवन भर तपस्या में निरत रहे । मरते समय देवदूत लेने आए तो उनने अनुरोध किया कि '' मुझे इसी लोक में जन्मने दिया जाय । स्वर्ग जाकर क्या करूँगा । '' देवदूतों ने आश्चर्य से पूछा- '' तप का लक्ष्य स्वर्ग होता है, सो आपको मिल चुका । तब तप किसलिए ?'' भारद्वाज जी ने कहा- '' ज्ञान संचय के लिए । पूर्ण सत्य तक पहुँचने के लिए अभी विद्या की संपदा मेरे पास नहीं के बराबर है । उसके लिए अभी मैं और भी अनेक जन्म तप करना चाहता हूँ । स्वर्ग से ज्ञान बड़ा है। स्वर्ग से सुविधा और ज्ञान से आनंद जो मिलता है । ''
दो शवों की चर्चा
जिसने जीवन को उपभोग- उपार्जन, पेट- प्रजनन तक में ही खपा दिया, वह मृत्यु आ जाने पर भी उन संस्कारों । से पीछा नहीं छुड़ा पाता । श्मशान घाट पर पड़ा एक शव दूसरे शव को देखकर मुस्कराने लगा । इस पर दूसरे शव ने कहा-
'' बंधु ! ऐसी क्या बात हो गई जो हँसना आ रहा है, हम दोनों तो एक ही स्थिति में हैं । पहला शव उसी मुस्कराहट के साथ बोला- '' बंधु ! तुम्हें याद नहीं हम दोनों कभी सहपाठी थे, विद्याध्ययन के बाद से तुम वणिक वृत्ति में उलझ गए, दिन- रात पैसा और भौतिक सुख की कामना करते- करते अब तुम्हारी स्थिति यह है कि श्मशान घाट में भी पैसों का ही हिसाब लगा रहे हो । '' और आप '' - दूसरे शव ने पूछा । उत्तर मिला -'' जब तक जीवित रहा, थोड़ा कमाया, पर मस्त रहा और अब जबकि मर गया हूँ तब भी वही निर्द्वंद्वता वही प्रसन्नता । अच्छा तो नमस्कार, लो अब चला। ''
यह कहकर पहला शव चिता की ओर चल पड़ा और दूसरा शव अपने हिसाब- किताब की बातों में उलझ गया।
अभिमान किस बात का ?
अर्जित ज्ञान का अहंकार व्यर्थ है। अधिक ज्ञान व अधिक आयु होने पर भी विद्या संपन्न अल्पायु के साधकों के समक्ष वे तुच्छ हैं । योगी चांगदेव की आयु १४०० वर्ष की थी । उन्होंने संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति सुनी । सोचा उन्हें पत्र लिखें । प्रश्न आ खड़ा हुआ संबोधन का । संत ज्ञानेश्वर मात्र सोलह वर्ष के थे उन्हें पूज्य कैसे लिखें ? अभिमान ने कहा । इतने बड़े संत को '' चिरंजीव '' कैसे लिखें, विवेक ने टोका । असमंजस में बिना कुछ लिखे ही कोरा कागज पत्र के रूप में भेज दिया । संत भावों की भाषा जानते हैं, कोरे कागज का अर्थ समझ गए । बहन मुक्ताबाई ने उत्तर लिखा- '' आपकी आयु १४०० वर्ष हो गई, फिर भी आप कोरे के कोरे ही रहे । '' चांगदेव को लगा भूल हुई, मिलने चल पड़े । सिद्धि बल दिखाने के लिए शेर पर सवारी, साँप का चाबुक बनाया । ज्ञानेश्वर समझ गए, अभिमान गया नहीं । अगवानी के लिए जिस पत्थर पर बैठे थे उसे ही चलने की आज्ञा दी। पत्थर चलता देख चांगदेव को बोध हुआ । '' जानवरों को वश में करने वाले से जड़ पदार्थों को वश में करने वाला श्रेष्ठ है । '' उन्होंने आयु का, अहंकार छोड़ा और ज्ञानदेव के शिष्य बन गए ।
विवेकशील नचिकेता
वाजिश्रवा ने सर्वमेध यज्ञ किया और उसमें अपनी समस्त संपदा एवं गोएँ दान कर दीं । गौओं में कुछ वृद्ध,अपंग और निकम्मी भी थीं । उन्हें ले जाने में ग्रहणकर्त्ता को उल्टी कठिनाई उठानी पड़ती । बालक नचिकेता ने पिता वाजिश्रवा से अनुरोध किया- '' जो श्रेष्ठ -सार्थक है, उसी का दान करें । '' वाजिश्रवा क्रुद्ध होकर बोले- '' तुम्हीं सार्थक हो, तुम्हें मैं यम को दान करता हूँ । '' पिता के घर में जो विवेक जागृत हुआ था, वह यमाचार्य के यहाँ अध्ययन करने पर और भी अधिक विकसित हुआ । वे गुरुकुल में समर्पित भाव से रहे और पंचाग्नि विद्या में प्रवीण पारंगत बनकर रहे।
विद्या का मर्म
तैराकी शिक्षक ने अपने शिष्य को संबोधित करते हुए कहा- '' अभी अनजान होने की स्थिति में तुम गहरे घुसे, तो डूब जाओगे, पर जब तैरना सीख कर तुम पानी से ऊपर रहने की कला सीख लोगे, तो उसका लाभ स्वयं भी लोगे और दूसरों को भी डूबने से बचा सकोगे । वैभव का संसार भी ऐसा ही है । उसमें अनाड़ी डूब जाते है, पर विवेकवान उस पर शासन करते हैं और अपनी तथा दूसरों की भलाई के काम करते हैं ।
सुसंपन्न ने दुर्भाग्य भुगता सौभाग्यवश वैभव की स्थिति प्राप्त होने पर भी व्यक्ति अपने ही कुसंस्कारों से अपनी खाँई स्वयं खोद लेता है । मित्र के राजा ने अपने राजकुमार फारूख को शिक्षित और व्यवहारकुशल बनाने के लिए सारी व्यवस्थाएँ कीं, किन्तु वह उद्दंड और अहंकारी लड़का किसी की परवाह न करके अपने को उन्मादी की तरह सब कुछ समझता था । जो भी उसे उपयोगी सलाह देता उसी की जान को आता । सभी उससे घोर असंतुष्ट थे । बीस वर्ष की आयु में वह राज सिंहासन पर बैठा । अपनी बुरी आदतों और बेवकूफियों से थोड़े ही दिन में राज्यकोष खाली कर दिया और प्रजा में अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी । पड़ोसी आक्रमण की घात लगाने लगे । इतने में प्रजाजनों ने ही क्रांति करके उसे जेल में डाल दिया । जब तक जिया, बंदीगृह में सड़ता रहा । जो नौकर उसकी सेवा में नियुक्त थे, वे भी सीधे मुँह बात न करते थे और ऊटपटांग बात कहने पर उसे डाँट देते । सौभाग्य ने उसे सुयोग्य देने में कमी न रखी, पर अपनी मूर्खता से उसने स्थिति ऐसी बना ली, जिसे सामान्यजनों से भी गई- बीती कहा जा सके ।
सभ्यता की कसौटी
व्यक्ति की परख उसके बाह्य रूप से, वेश से नहीं,अंतः की श्रेष्ठता से की जाती है ।स्वामी विवेकानंद एक बार अमेरिका की एक सड़क से गुजर रहे थे । स्वामी जी गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थे । उनकी विचित्र वेशभूषा देखकर लोगों ने समझा, यह कोई मूर्ख है ।उनके पीछे हँसी- मजाक करती हुई काफी भीड़ चल पडी। स्वामी जी थोड़ा चलकर रुके और भीड़ की ओर देखते हुए बोले- '' सज्जनो ! आपके देश में सभ्यता की कसौटी पोशाक है, पर मैं जिस देश से आया हूँ , वहाँ कपड़ों से नहीं मनुष्य की पहचान उसके चरित्र से होती है । '' स्वामी जी के तेजस्वी वचन सुनकर सारी भीड़ स्तब्ध रह गई । स्वामी जी सहज भाव से आगे बढ़ गए ।
निरंतर, हर पल जो सीखने को स्वयं को प्रखर बनाने को उद्यत हो, वही विद्या का धनी बनता, श्रेय सम्मान पाता व श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचता है ।
कला कैसे निखरेगी ?
फ्राँस का प्रसिद्ध मूर्तिकार आगस्टस सेंट गांडेस जब पेरिस में मूर्तिकला का विद्यार्थी था, उसके पास एक सम्भ्रांत महिला अपनी एक मूर्ति बनवाने आई । उसने अपने कलागृह में उसकी मूर्ति बनाना आरंभ किया । जब मूर्ति बन चुकी, तो वह महिला उस मुर्ति को देखने आई । उसे वह मुर्ति पसंद नहीं आई । गाडेंस ने उसे फिर बनाया, फिर भी उसे पसंद नहीं आई । इस प्रकार कितनी ही बार उसकीं यह मूर्ति नापसंद कर दी गई । नापसंद किए जाने पर दुगुने उत्साह से उसे सँवारने में लग जाया करता था। एक दिन उसके मित्रों ने उससे उसके इस उत्साह का कारण पूछा, तो उसने बताया कि इसी प्रकार तो मेरी कला निखरेगी । इसी उत्साह तथा लगन के परिणामस्वरूप ही वह प्रसिद्ध मूर्तिकार बन सका था ।
भावार्थ- एक बार अन्यान्य गुरुकुलों के छात्र अपने- अपने गुरुजनों समेत महर्षि कात्यायन के आश्रम की व्यवस्था और अध्ययन शैली व दिनचर्या का पर्यवेक्षण करने आए । उनने सुना था कि कात्यायन का गुरुकुल टकसाल है, जिसमें पढ़कर निकलने वाले स्नातक न केवल समुन्नत होते हैं, वरन् ससंस्कृत भी माने जाते हैं । वे लौकिक जीवन में समर्थ, सफल और संपन्न रहते हैं तथा व्यक्तिगत जीवन में चरित्रवान्, उदात्त एवं मूर्धन्य स्तर के गिने जाते हैं।। १-५ ।।
वैशिष्ट्यं चेदृशं छात्रा: केनाधारेण यान्ति ते । इदं द्रष्टुं च विज्ञातुं छात्नास्ते गुरुभि: सह ।। ६ ।। विभिन्नेभ्य: समायाता: क्षेत्रेभ्य उत्सुका भृशम् । तदागमनवृत्तं च सदस्यैर्ज्ञातमेवतत् ।। ७ ।।
भावार्थ- ऐसी विशेषताएँ किस आधार पर छात्रगण प्राप्त करते हैं? यह जानने- देखने की अभिलाषा लेकर वे छात्र- मंडल अध्यापकों समेत विभिन्न क्षेत्रों , देशों से आए थे । उनके आगमन और उद्देश्य की पूर्व सूचना कात्यायन गुरुकुल के सभी छोटे- बड़े सदस्यों को विदित हो गई थी ।।६- ७ ।।
ध्यानेनागन्तुका: सर्वे दिनचर्यां व्यवस्थितिम् । कात्यायनाश्रमस्याऽस्य स्वच्छतां व्यस्ततामपि ।। ८ ।। अनुशासनसम्मानं तत्रत्ये पाठ्यसंविधौ । सुसंस्कारित्वभावं तं व्यवहारेऽवतारितुम् ।। ९ ।। पालितुं च सदाचारमध्यापनमिवानिशम् । कर्तव्यं निजदायित्वं पालितुं चानुशासनम् ।। १० ।। ध्यानं तत्र विशेषं हि दिनचर्यागतं ह्यभूत्। वैशिष्ट्यं मौलिकं चाभूदेतदेवास्य सुदृढम् ।। ११ ।।
भावार्थ आगंतुकों ने कात्यायन आश्रम की दिनचर्या, व्यवस्था, स्वच्छता, व्यस्तता और अनुशासनप्रियता को ध्यानपूर्वक देखा । पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन- अध्यापन की भाँति ही सुसंस्कारिता को व्यवहार में उतारने तथा शिष्टाचार पालने कर्तव्य- उत्तरदायित्व समझने और उन्हें पालने के लिए अनुशासन बरतने पर समुचित ध्यान दिया जाता था - यही इस आश्रम की सुदृढ़ मौलिकता थी ।। ८-११ ।।
नैवाध्ययनमेवात्र पर्याप्तं भवति त्वयि । नेतुं तान् प्रगतिं छात्रान् महामानवतामपि ।। १२ ।। व्यवहारे समावेशोऽभ्यासश्चाऽपि विशेषतः । सदाशंयसमुद्भूतो मतस्त्वावश्यक: सदा ।। १३ ।।
भावार्थ- व्यक्तित्वों को उभारने और सामान्य मनुष्यों को महामानव बनाने में मात्र अध्ययन ही पर्याप्त नहीं होता, व्यवहार में सदाशयता का समावेश- अभ्यास इसके लिए नितांत आवश्यक है इस सिद्धांत को उस आश्रम में भली प्रकार चरितार्थ होते हुए सभी आगंतुकों ने पाया ।।१२ -१ ३ ।।
व्याख्या - गुरुकुलों की महामानवों को ढालने वाली टकसाल के रूप में मान्यता देवसंस्कृति की अनेकानेक विशेषताओं का एक अंग रही है । ऐसे शिक्षालयों से तप कर निकलने वाले विद्यार्थी एकांगी प्रवीणता मात्र नहीं प्राप्त करते थे अपितु, अपने आपको संस्कारों की निधि से संपन्न बनाकर व्यावहारिक दृष्टि से बहिरंग जीवन में भी कुशल एवं सूझबूझ के धनी बनकर निकलते थे । ऐसे आरण्यकों के प्रति ऋषि समुदाय एवं अन्याय छात्रों कीं जिज्ञासा होना स्वाभाविक है ।
विद्यालय का परिकर अपने एक- एक अंग से अपना परिचय देता है । बाह्य सुसज्जा, विद्यार्थियों का ठाट- बाद से रहना, बैठने- पढ़ने की सुव्यवस्था होना भर पर्याप्त नहीं।यह बाह्याडंबर तो आज हर कहीं रास्ता चलते देखा जा सकता है । अध्ययन- अध्यापन की श्रेष्ठ व्यवस्था होना ही समुचित नहीं । संस्कारों के अभिवर्धन के लिए व्यक्ति को महामानव रूप में ढालने के लिए, आत्मानुशासन को जीवन का अंग बनाने के लिए, उदारता- परमार्थ को व्यवहार में समावेश करने हेतु क्या प्रयास- पुरुषार्थ अध्ययन- अध्यापन के साथ किया गया, वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । उसी में 'विद्यालय' के 'विद्या का घर' कहे जाने की सार्थकता है ।
शिष्य की गुरुकुल परीक्षा भी शिक्षण भी
गुरुकुल व्यवस्था में यह अनिवार्य नहीं कि कमरों में, कपाट- कोष्ठों में बंद होकर शिक्षा प्राप्त की जाय । गुरुकुल के अधिष्ठाता छात्रों की मन:स्थति के अनुरूप उन्हें प्रकृति की पाठशाला में व्यवहारिक शिक्षण देने की ऐसी व्यवस्था बनाते हैं कि व्यक्तिव में प्रखरता का समावेश संवर्धन होकर रहता है । महर्षि जरत्कारू के गुरुकुल में छात्र विद्रुध ने प्रवेश पाया ।। ऋषि को विद्यार्थी प्रतिभावान् लगा, अस्तु उसे समझाया, पौरुष की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही कोई वरिष्ठ बन सकता है । तुम पराक्रम के साथ- साथ पुस्तकें पढ़ते रहो । विद्रुध महर्षि के परामर्श से सहमत हो गया । उसे सौ गौएँ सौंपी गई और प्रभुदारण्य में उन्हें चराते हुए हजार हो जानें पर वापस लौटने को कहा । पाठ्यपुस्तकें भी उसकी पीठ से बाँध दी । विद्रुध को बारह वर्ष लगे और गौएँ हजार हो गईं । दूध 'पीकर उनके सभी बच्चे हृष्ट- पुष्ट थे ।
इस बीच उन्हें अनेक के साथ संपर्क साधने और परामर्श करने का अवसर मिला । मार्ग की कठिनाइयों और समस्याओं से निपटते रहे । उनकी प्रतिभा निखर पड़ी । वापस लौटे तो उनके चेहरे पर ब्रह्मतेज टपक रहा था । अपनी बुद्धि का प्रयोग करके जो उनने पढ़ा और समझा, उससे कहीं अधिक था, जो आश्रम में रहकर पढ़ने वाले छात्रों ने सीखा था ।
जरत्कारू अपने इस शिष्य के साहस को देखकर अतीव प्रसन्न हुए । अपने आश्रम का कार्य सौंप कर स्वयं कहीं अन्यत्र बड़े काम के लिए चले गए ।। उत्तराधिकारी की उन्हें तलाश थी, सो इस परीक्षा के द्वारा पूरी हुई ।
जीनों की पाठशाला
सुयोग्य विद्यार्थी न मिलें तो भी मनीषी निराश नहीं होते ।वे अनगढ़ को सुगढ़ व श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करते हैं ।यूनान का एक वृद्ध दार्शनिक अपने मित्र से बोला- '' मैंने लोगों को सच्चाई और सदाचार की शिक्षा देने की योजना बनाई है । विद्यालय के लिए स्थान चुन लिया गया है, पर विद्याध्ययन के लिए विद्यार्थी नहीं मिलते । '' मित्र व्यंग्य करते हुए बोले- '' तो आप कुछ भेड़ें खरीद लीजिए और अपना पाठ उन्हें ही पढ़ाया करें । तुम्हारी इस योजना के लिए आदमी मिलने मुश्किल हैं । '' हुआ भी ऐसा ही, कुल दो युवक आए जिन्हें घर वाले आधा पागल समझते थे और मुहल्ले वाले सिरदर्द । वृद्ध ने उन्हीं को पढ़ाना शुरू कर दिया । दूसरे लोग कहा करते- बुढ्ढे ने मन बहलाने का अच्छा साधन ढूँढ़ा ।
किन्तु यही दोनों इस बूढ़े विचारक से शिक्षा प्राप्त कर जब पहली बार घर लौटे तो उनके रहन- सहन, बोल- चालू, अदब- व्यवहार ने लोगों का हृदय मोह लिया । फिर तो जो विद्यार्थियों की संख्या बढ़नी शुरू हुई कि विद्यालय पूरा विश्वविद्यालय बन गया । पहले के दोनों छात्रों में एक यूनान का प्रधान सेनापति, दूसरा मुख्य सचिव नियुक्त हुआ ।
यह वृद्ध ही सुविख्यात दार्शनिक जीनो थे और उसकी पाठशाला ने जीनो की पाठशाला के नाम से विश्व- ख्याति अर्जित की ।
गुरूकुल ही क्यों ?
गुरुकुलों में विद्याध्ययन हर वर्ण, जाति, समुदाय के बालकों के लिए हितकारी है । किसी को अपनी संतानों को पैतृक व्यवसाय की ओर करना भी हो, तो भी श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए उन्हें संस्कारों का शिक्षण देना अत्यंत अनिवार्य है ।
एक ही पड़ोस में एक क्षत्रिय और एक वैश्य रहते थे । ब्राह्मण बालक गुरुकुल में पढ़ने चले गए, पर क्षत्रिय और वैश्य विचार करने लगे कि हमें तो योद्धा बनना और व्यवसाय करना है । हमारे बालकों को ब्रह्म विद्या पढ़ने से क्या लाभ? कुल पुरोहित से उनने परामर्श किया, तो उनने उत्तर दिया कि ब्रह्मविद्या का तात्पर्य संन्यासी होना नहीं । वह जीवन के अंतिम भाग में अधिकारी व्यक्तियों द्वारा ही ग्रहण किया जाता है । ब्रह्मविद्या का प्रयोजन गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार होता है, जो हर स्तर की प्रगति के लिए आवश्यक है । क्षत्रिय और वैश्य भी उस विद्या को उपलब्ध करें, तो अपने- अपने कार्यों को अधिक सफलता और सुंदरता के साथ संपन्न कर सकेंगे । कुल पुरोहित का परामर्श मानकर उनने भी अपने बालक गुरुकुल भेजे । लौटने पर वे अपने कार्यों में दूसरों की अपेक्षा अधिक सफल रहे ।
यही कारण था कि प्राचीनकाल में समाज के हर समुदाय के व्यक्ति, राजा से लेकर रंक तक अपने बच्चों को गुरुकुल विद्याध्ययन हेतु भेजते थे ।
प्रतिभाएँ उल्टी से सीधी भी हो सकती हैं
यह मार्गदर्शक पर निर्भर है कि वह प्रतिभा को परख कर उन्हें कैसी दिशा देता है ? पिता- बच्चों की उद्दंडता से निराश हो गए थे और उसका भविष्य अंधकारमय होने की कल्पना करने लगे थे । पढ़ने में मन न लगता था । डाँट पड़ी, तो कोयला खोदने की खदान में नौकरी कर ली । पत्नी भी खिन्न थी ।। उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया । इन परिस्थितियों में शुभचिंतकों ने उमेश चंद्र बनर्जी को समझाया- बुझाया । उन्हें घर में वैसा ही वातावरण देकर संस्कारों की शिक्षा देना आरंभ किया । बाल हठ मिटा, तो वे पिता के साथ वकालत करने और उसकी तैयारी करने में लग गए । इंग्लैण्ड जाने की छात्रवृत्ति मिली और वे बैरिस्टर होकर लौटे । वकालत सबसे अच्छी चलने लगीं । जो बीजांकुर अंदर सुसंस्कारिता के जमे थे, वे फलीभूत होने लगे ।
संस्कारों में परिवर्तन का क्रम चला, तो वह सुधार की दिशा में बढ़ता चला गया । राष्ट्रीय आन्दोलन में उनने अपने कौशल का परिचय दिया । अखिल भारतीय कांग्रेस के तीन बार अध्यक्ष चुने गए । सरकार ने भी उन्हें लोकसभा सदस्य नामजद किया । कलकत्ता विश्वविद्यालय के वायस चांसलर रहे । प्रतिभाएँ जब उलटती हैं, तो बिगाड़ का सुधार होते भी देर नहीं लगती।
आश्रमस्थैस्तथा तत्र समायातैंश्च निश्चितम् । अवरुद्धध्य तु सप्ताहं शिक्षां तां लौकिकीं भवेत् ।। १४ ।। विद्याया विषये चर्चा याऽमृतत्वाय कल्पते । स्वभावे विनयं शीलं समाविष्टं करोति या ।।१५ ।। अपेक्ष्य लौकिकीं शिक्षां विद्या यात्वात्मवादिनी । तुलनायां महत्वं तु तस्या एवाधिकं मतम् ।। १६ ।। उपस्थिता जना: सर्वे ज्ञातुमेतच्च विस्तरात् । ऐच्छन् येन समे तथ्यं कुर्युस्तेऽवगतं स्वतः ।। १७ ।।
भावार्थ- आगंतुकों और आश्रमवासियों ने मिलकर निश्चय किया कि एक सप्ताह तक लौकिक जानकारियाँ देने वाला शिक्षा क्रम बंद रखा जाय और विद्या पर अधिक प्रकाश डाला जाय, जो अमृत कहलाती है और स्वभाव में विनयशील शालीनता का समावेश करती है । लौकिक शिक्षा की तुलना में आत्मवादी विद्या का कितना अधिक महत्व है- इसे सभी उपस्थित जन और भी अधिक विस्तार से जानना चाहते थे । यों इस तथ्य से किसी न किसी रूप में अवगत तो सभी थे ।। १४ -१७ ।। साप्ताहिकं समारब्धं संस्कृते: सत्रमुत्तमम् ।
आगत: समुदायच यथास्थानमुपाविशत् ।। १८ ।। उद्बोधको महर्षि: सोऽगादीत् कात्यायनस्तदा । प्रगते: सार्वभौमाया नृणामाधारगानि तु ।। १९।। तथ्यानि यानि संप्राप्य स्फलिङ्गं इव शक्तिमान् । विकामं पूर्णमासाद्य जीवो ब्रह्म भवेद् ध्रुवम् ।। २० ।।
भावार्थ- एक सप्ताह का संस्कृति सत्र आरंभ हुआ । उपस्थित समुदाय अपने- अपने निर्धारित स्थानों पर पंक्तिबद्ध होकर आसीन हुआ। उद्बोधनकर्ता महर्षि कात्यायन ने जिज्ञासुओं की आकांक्षा के अनुरूप मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति के आधारभूत तथ्यों पर प्रकाश डालना आरंभ किया, जिन तथ्यों को प्राप्त कर शक्तिशाली चिनगारी के रूप में विद्यमान जीव पूर्ण विकास को प्राप्त कर ब्रह्म रूप बन जाता है ।। १८- २० ।।
कात्यायन उवाच - भद्रा ! जन्मना मर्त्य: पशुवृत्तियुतो भवेत् । सञ्चितो व्यवहारो यो योनिषु च हि निम्नग : ।। २१।। भ्राम्यताऽशीतिसंख्यासु चतुरुत्तरकासु तु । गरिम्णो मर्त्यभावस्य त्याज्यो विस्मर्य एव सः ।। २२ ।। देवयोनिगरिम्णश्च योग्यानां गुणकर्मणाम् । प्रकृतेरपि चाऽभ्यास: कर्तव्यो मर्त्यजन्मनि ।। २३ ।। त्यागस्वीकारयोरेवानयोर्या प्रक्रिया मता । देवसंस्कृतिरूक्ताऽतो देवत्वं नर आश्रयेत् ।। २४ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- है भद्रजनों ! मनुष्य जन्नत: पशु -प्रवृत्ति का होता है । चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते समय, जो व्यवहार संचित किया गया है, वह मनुष्य जीवन की गरिमा को देखते हुए ओछा पड़ता है । इसलिए उसे भुलाना- छोड़ना पड़ता है । इस देव योनि गरिमा के उपयुक्त गुण, कर्म , स्वभाव का अभ्यास करना पड़ता है । इसी छोड़ने- ग्रहण करने की उभयपक्षीय प्रक्रिया को देवसंस्कृति भी कहते हैं, जिससे मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है ।। २१-२४ ।।
व्याख्या- शिक्षा और विद्या में अंतर समझना अत्यंत अनिवार्य है ।बहुसंख्य व्यक्ति दोनों को एक ही मानतें एवं स्वयं तथा अपनी संतानों के लिए बहिरंग की जानकारी देने वाली शिक्षा को ही समुचित मान बैठतें हैं ।
शिक्षा का अर्थ है, जानकारी को व्यापक बनाबा, बुद्धि विस्तार करना, ताकि वह दैनंदिन जीवन में काम आ सके । विद्या वह है, जो जीवन को सुसंस्कारी बनाती एवं आत्मिक प्रगति में सहायक भूमिका निभाती है । दोनों ही समग्र मानवी विकास के लिए जरूरी हैं । जहाँ एक, व्यक्ति के बहुमुखी लौकिक विकास के लिए उत्तरदायी है वहाँ दूसरी, व्यक्ति के अंतःक्षेत्र के परिशोधन , परिष्कार एवं उन्नयन की भूमिका संपादित करती हैं । अत: शिक्षा मनुष्य के बहिरंग जीवन को सुविकसित करती है और विद्या अंतरंग को ।
शिक्षा सांसारिक योग्यता, प्रतिभा बढ़ाती है और विद्या मनुष्य को सुसंस्कारी, उदार, उदात्त बनाती है, व्यक्तित्व को श्रेष्ठता एवं शालीनता से सुसंपन्न करती है । एक को सभ्यता के विकास का साधन तथा दूसरे को सांस्कृतिक उन्नति का माध्यम समझा जा सकता है । प्रगतिशील जीवन दोनों के समन्वय एवं सुविकसित होने पर बनता है ।
ऋषि श्रेष्ठ कात्यायन यहाँ बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कुसंस्कारों का बोझ अपने सिर पर लिए नर- पशु के रूप में जन्मे अनगढ़ मनुष्य के लिए सुरदुर्लभ मानव योनि में जो बहुमूल्य अवसर स्वयं के उत्थान हेतु मिला है, उसे गँवाया नहीं जाना चाहिए । पशु स्तर त्याग कर मानवी गरिमा में प्रवेश करना ही प्रकारांतर से 'देव संस्कृति' है । शब्दार्थ एवं भावार्थ दोनों ही रूप में इसका आशय है ऐसी विद्या, जो पेट- प्रजनन तक सीमाबद्ध रखने वाली पशु- प्रवृत्तियों का परित्याग एवं देवत्व को अंतराल में उतारने, उत्कृष्ट- आदर्शवादिता को जीवन में समाविष्ट करने का सर्वांगपूर्ण शिक्षण दे । कायाकल्प करने के कारण ही इसे अमृत कहा गया है ।
मानव जीवन की दुर्लभता
मनुष्य जीवन अपने आप में अद्भुत एवं महान् है । मनुष्य जीवन की यह महत्ता सर्वमान्य है । प्राचीन व अर्वाचीन हर समय के विचारकों और मर्मज्ञों ने इसका समर्थन किया है । रामचरित मानस में भी यही प्रतिपादन स्पष्ट रूप से मिलता है । काकभुशुंडि जी राम कथा के मर्मज्ञ ज्ञानियों में अग्रणी माने जाते हैं । उत्तरकाण्ड में कहते हैं- नर तन सम नहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत जेही ।।
अर्थात् '' मानव तन के समान कोई देह नहीं है, चर- अचर समस्त जीव उसकी याचना करते हैं ।" संसार के सभी जीव जिस शरीर को पाने की आकांक्षा करते हैं, वह कोई सामान्य उपलब्धि नहीं कही जा सकती । चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद ही यह दुर्लभ योनि मिलती है ।
आकर चारि लच्छ चौरसी । जोनि भ्रमत यह जिव अविनाशी ।।
अर्थात् '' यह अविनाशी जीव चार वर्गों ( अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज) और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है ।'' जीव अविनाशी है, पर उसे विभिन्न रूपों में अनुभव प्राप्त करने पड़ते हैं ।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।।
अर्थात् '' माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में होकर) वह हमेशा भटकता रहता है।" इसीलिए भगवान् श्रीराम प्रजाजनों को उपदेश देते हुए स्वयं मनुष्य शरीर की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
बड़े भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थहिं गावा ।।
अर्थात् '' बड़े सौभाग्य से यह नर- शरीर मिला है । सभी ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है । ''
नरक स्वर्ग अपवर्ग नसेनी ।ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ।।अर्थात् "यह मनुष्य- योनि नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है,शुभ ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की देने वाली है।''
नर तन भव बारिधि कहुँ बेरो । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ।।
अर्थात् '' यह मनुष्य देह संसार सागर (से तैरने) के लिए जहाज है । मेरी कृपा ही अनुकूल हवा है । '' जीवन के अनुरूप उपलब्धियों के लिए अपनी क्षमताओं का उपयोग न कर पाने के लिए श्रीराम आगे कहते है।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न चाह परलोक सँवारा ।।
अर्थात् '' यह (नर शरीर) साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है । इसे पाकर भी जो अपने परलोक की तैयारी न कर सके, वह अभागा है । ''
शरीर के माध्यम से ही मानवीय चेतना कार्य कर पाती है । अत : वह अनुपम साधन है । मानवीय चेतना द्वारा संचालित शरीर ही वस्तुतः मनुष्य शरीर है । स्वार्थरत, पाशविक दृष्टिकोण से संचालित शरीर केवल आकार में मनुष्य जैसा होने पर भी श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । दिव्य चेतना मुक्त होने से ही वह महान् बनता है । महर्षि वशिष्ठ जी, मनुष्य देहधारी होने के कारण हर व्यक्ति को श्रेष्ठ नहीं मानते । जिसमें मानवीय अंत: करण नहीं, जो मानवीय संवेदनाओं से हीन हैं, ऐसा व्यक्तिं हर प्रकार से शोचनीय है ।अर्थात् ऐसा व्यक्ति हर प्रकार से मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं । क्योंकि वह मनुष्य जीवन के मूल तत्व को ही नहीं देख पाता ।
जैसे संस्कार वैसा विकास
मानव योनि मिलने पर भी पाशविक संस्कारों का ही पोषण मिलने पर मानवी माया में ही व्यक्ति उन्हीं के समान विकसित होते देखे जा सकते हैं । विद्या का खाद- पानी, संस्कारों की उर्वरक शक्ति ही व्यक्ति को मनुष्य रूपी वह विभूषण प्रदान करती है, जिसके लिए देवगण तक लालायित पाए जाते हैं । वातावरण में जैसे संस्कार होते हैं व्यक्ति वैसा ही ढलता चला जाता है ।
कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के सदर अस्पताल में एक नौ वर्ष का बालक प्रस्तुत किया गया था। यह वसौढ़ी -गाँव के मल्लाहों द्वारा सियारों की माँद से निकाला गया था ।यह सियारों की बोली बोलता था और वही खाता था, जो सियार खाते हैं । उसके नाखून तथा बाल बढ़े हुए थे और चौपायों की तरह चलता था । इससे पूर्व लखनऊ के अस्पताल में एक रामू नामक भेड़िया बालक कई वर्ष तक भर्ती रह चुका है, यह भेड़ियों की माँद खन्दौली ( आगरा) के जंगलों में पाया था । उपरोक्त सियार और भेड़िया बालकों के संबंध में यही विदित हुआ है कि इन्हें यह वन्य पशु छोटी आयु में उठाकर ले गए थे । वे इन अबोध शिशुओं के प्रति द्रवित हो गए और उसे खाने की बजाय अपने बच्चों की तरह पाल लिया ।
ये घटनाएँ यह तथ्य- सामने लाती है कि मनुष्य का विकास सर्वांगीण संस्कारदायी विद्याओं, परिस्थितियों के माध्यम से ही हो सकता है । एकाकी प्रयत्नों के बलबूते कोई जीवित भले ही रह ले, पर समग्र प्रगति तो संस्कारों के पोषण एवं सामाजिक सहयोग एवं स्तर की मात्रा बढ़ाने से ही हो सकती है । इसके बिना तो हर किसी को भेड़िया अथवा सियारों से पाले बालकों की तरह पिछड़ी हुई स्थिति में रहना होगा ।
प्रतिभा श्रेष्ठ कार्यों में क्यों न लगाईं ?
विद्या का यदि सदुपयोग न हो, तो उसकी क्या सार्थकता ?
एक राजा के दरबार में कोई जौहरी एक बहुमूल्य हीरा लेकर पहुँचा । राजा ने अपने जौहरियों से उसका मूल्य जाँचने के लिए कहा ।वे उस पर एक मत न हो सके ।तभी एक वृद्ध जौहरी आया,उसने हीरा जाँच कर कहा। -''इसका मूल्य ९९ लाख रुपया है ।"
राजा ने पूँछा- '' ९९ लाख ही क्यों, पूरा एक करोड़ क्यों नहीं ? जौहरी ने वह हीरा बीच में रखा, उसके चारों ओर समान कोणों पर १०० हीरे रखे । बीच के हीरों से परिवर्तित होकर प्रकाश ९९ हीरों पर पड़ा, एक पर नहीं ।वृद्ध जौहरी बोला- '' हुजूर ! यही इसकी कमी है जिस कारण मैंने इसका मूल्य पूरा एक करोड़ नहीं कहा । '' राजा प्रसन्न हुए । उस वृद्ध जौहरी को इनाम देने की आज्ञा दी । वहीं एक संत बैठे थे । बोले- '' महाराज ! इन्हें इनाम भी अवश्य दें, लेकिन साथ ही मेरी ओर से एक मुठ्ठी धूल भी इनके सिर पर डलवा दें । '' इस विचित्र उक्ति से सभी को आश्चर्य हुआ । राजा ने इसका कारण पूछा ।
संत बोले- '' इनाम पाने की अपनी पात्रता तो यह आप सबके सामने सिद्ध कर चुके हैं । इसलिए वह इन्हें मिलना ही चाहिए परंतु यह इतना आला दिमाग केवल पत्थरों की बारीकी परखने में जीवन भर लगाता रहा । ऐसा दिमाग देने वाले के बारे में इसने जरा भी गहराई से नहीं सोचा, सत्कार्यों में अपनी प्रतिभा जरा भी नहीं लगाई । इस प्रतिभा का सुनियोजन यदि हुआ होता, तो यह क्या से क्या कर सकती थी । इनकी इसी कमी के कारण इन्हें एक शिक्षा मिलनी चाहिए । ''
दिशाहीन मेधा
अनेक श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, मनीषियों के प्रसंग हमें नित्य पढ़ने को मिलते रहते हैं जो मेधा संपन्न, विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हुए भी मात्र विनाश हेतु आयुधों के अनुसंधान व निर्माण कार्य में लगे है।एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व के सत्तर प्रतिशत से भी अधिक प्रतिभा के धनी, उच्च शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक मात्र संहार हेतु नवीनतम उपायों की खोज में लगे हैं। यह विधाता की दी हुई अमूल्य देन का दुरुपयोग ही तो है।शिक्षा का कोई मूल्य नहीं, यदि वह उच्चस्तरीय आदर्शों से युक्त नहीं है । विद्या को समाविष्ट किए बिना शिक्षा अधूरी है ।
समता की महत्ता
गुरुकुल में दी जाने वाली विद्या इसीलिए अमृत के समान कही गई है क्योंकि वह साधनों को नहीं, उच्चस्तरीय आदर्शों को महत्त्व देती है । इसीलिए गुरुकुलों के छात्र उपभोग की नहीं, अपितु उपयोग की , सत्प्रयोजनों हेतु उनके नियोजन की महत्ता समझकर अपनी भावी दिशाधारा का निर्धारण करते हैं ।
एक दिन छात्रों में संपन्न घरों से आए बालकों ने गुरुकुल संचालक आत्रेय ने पूछा-'' भगवन् ! जो अपने घरों से अच्छे भोजन और वस्त्र मँगा सकते हैं, वे उनका उपयोग क्यों न करें ? वे भी क्यों दूसरे निर्धनों की तरह असुविधाएँ भुगतें ?''
आत्रेय ने कहा- '' छात्रो ! उत्तम मनुष्य जिस समुदाय में रहते हैं, उसी की तरह जीवनयापन करते हैं । यह समता ही अपने और दूसरों के लिए सौजन्य उत्पन्न करती है ।" '' संपन्नता का प्रदर्शन ईर्ष्या और अहंकार उत्पन्न करता है, इससे विग्रह खड़े होते हैं और सहयोग का आधार टूट जाता है ।विषमता ने ही समाज में अनेक विग्रह खड़े किए हैं और अपराधों- अनाचारों को जन्म दिया है ।'' '' यहाँ समानता का जीवन जीने की दिशा दी जाती है । समाज के अन्य लोगों की तरह ही जीना सिखाया जाता है । धनी अपना धन निर्धनों को ऊँचा उठाने में लगाएँ, न कि निजी सुविधा संवर्द्धन में । ''
छात्रों ने समता के दूरगामी सत्परिणाम समझे और संपन्नों के मन में जो अधिक उपयोग का भाव उठा था, वह समाप्त हो गया ।
उन्मादी चित्त
विद्या अनगढ़ चित्त को सुगढ़ बनाती एवं चिंतन की, व्यवहार की दिशा धारा का सुनियोजन करती है । मनुष्य की अनगढ़ता जन्मजात है एवं अन्य आहार- पोषण की ही तरह उसे विद्या की आवश्कता सर्वोपरि है, ताकि उसका विकास श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में हो सके । वशिष्ठ जी ने राम को एक भयंकर वन में विचरण करने वाले उन्मत्त का आँखों देखा विवरण सुनाया । वह देखने में तो भला -चंगा लगता था, पर उसकी गतिविधियाँ ऐसी थीं, जिसे देखकर उसे विक्षिप्त ही कहा जा सकता था । रास्ते और पगडंडियों का व्यतिक्रम करके वह जहाँ- तहाँ विचरता, आँधे- सीधे मार्ग बनाता और उनमें चलकर अपने वस्त्र और शरीर फाड़ लेता । पैरों में काँटे लग रहे थे, फिर भी अपने को बुद्धिमान मानता और किसी के परामर्श को अहंकारवश स्वीकार न करता । उसे कभी भय- चिंता से नींद न आती । कभी अपने को राजा मानकर लंबी नींद सोता । कँटीली झाड़ियों के क्षेत्र में उसे भूख- प्यास सहनी पड़ती और जब जी आता केलों के क्षेत्र में निकल जाता, शीतल वातावरण का लाभ लेता और' फलों से पेट भी भर लेता, पानी भी वहाँ था । अपनी स्थिति पर उसे असंतोष भी न होता । आए दिन रोने- गाने के गोरखधंधे में ही वह उलझा रहता । राम ने वशिष्ठ से पूछा- ''भगवन् । वह उन्मादी कहाँ रहता हैं ? उसका क्या नाम है ? क्या उसका कोई उपचार नहीं है?'' वशिष्ठ ने कहा- '' वत्स। वह और कोई नहीं, मनुष्य का अनगढ़ चित्त ही है, जो जाल में फँसे पक्षी की तरह फड़फड़ाता तो है, पर स्थिति से उबरने का मार्ग नहीं ढूँढ़ पाता । ''
नाञ्जसाऽभ्येति चैषा तु शिक्ष्या यत्नेन मानवै: । शिक्षणीया भवत्येषा विद्या प्रोक्ता मनीषिभि: ।। २५ ।। सम्बद्धा सुविधाभिस्तु साफल्येन च या तु सा । क्षेत्नस्य भौतिकस्यात्र शिक्षा प्रोक्ता मनीषिभि: ।। २६ ।। शिक्षाऽप्यस्ति च सा नूनमनिवार्या तथांऽपि तु । अपूणर्नैव तथैका विना विद्यासमन्वयात् ।। ।। २७ ।। ।।
भावार्थ- यह अनायास नहीं अति प्रयत्नपूर्वक सीखनी और सिखानी पड़ती है । यही विधा है । शिक्षा उसे कहते हैं जो भौतिक क्षेत्र की सुविधा- सफलता से संबंधित है । शिक्षा भी आवश्यक तो है पर विद्या का समन्वय हुए बिना वह अपूर्ण एवं एकांगी ही रहती है ।। २५ - २७ ।।
व्याख्या- विद्या एवं शिक्षा का युग्म है । शिक्षा बाहर से थोपी जा सकती है एवं वह लौकिक प्रगति में सहायक होती है । किन्तु विद्या को बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता । बिना अंतःकरण की सुसंस्कारिता के अनगढ़ व्यक्ति को दी गई शिक्षा तो बंदर के हाथ तलवार की तरह सिद्ध होती है । विद्या के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयास करना पड़ता है, प्रेरणा स्रोत कोई भी बन सकता है, वातावरण , शिक्षण अभिभावक, मित्र अथवा हितैषीगण । विद्या अर्जन एक प्रकार की साधना है, अन्तःक्षेत्र का प्रचंड पुरुषार्थ है, जिसे संपादित किए बिना मानव जीवन की हर उपलब्धि व्यर्थ है ।
पूर्ण सत्य की खोज ही लक्ष्य
कहा गया है- '' विद्यामृतमश्नुते ।" इसके समक्ष सारे संसार का वैभव यहाँ तक कि स्वर्ग का आनंद भी तुच्छ है ।भारद्वाज मुनि जीवन भर तपस्या में निरत रहे । मरते समय देवदूत लेने आए तो उनने अनुरोध किया कि '' मुझे इसी लोक में जन्मने दिया जाय । स्वर्ग जाकर क्या करूँगा । '' देवदूतों ने आश्चर्य से पूछा- '' तप का लक्ष्य स्वर्ग होता है, सो आपको मिल चुका । तब तप किसलिए ?'' भारद्वाज जी ने कहा- '' ज्ञान संचय के लिए । पूर्ण सत्य तक पहुँचने के लिए अभी विद्या की संपदा मेरे पास नहीं के बराबर है । उसके लिए अभी मैं और भी अनेक जन्म तप करना चाहता हूँ । स्वर्ग से ज्ञान बड़ा है। स्वर्ग से सुविधा और ज्ञान से आनंद जो मिलता है । ''
दो शवों की चर्चा
जिसने जीवन को उपभोग- उपार्जन, पेट- प्रजनन तक में ही खपा दिया, वह मृत्यु आ जाने पर भी उन संस्कारों । से पीछा नहीं छुड़ा पाता । श्मशान घाट पर पड़ा एक शव दूसरे शव को देखकर मुस्कराने लगा । इस पर दूसरे शव ने कहा-
'' बंधु ! ऐसी क्या बात हो गई जो हँसना आ रहा है, हम दोनों तो एक ही स्थिति में हैं । पहला शव उसी मुस्कराहट के साथ बोला- '' बंधु ! तुम्हें याद नहीं हम दोनों कभी सहपाठी थे, विद्याध्ययन के बाद से तुम वणिक वृत्ति में उलझ गए, दिन- रात पैसा और भौतिक सुख की कामना करते- करते अब तुम्हारी स्थिति यह है कि श्मशान घाट में भी पैसों का ही हिसाब लगा रहे हो । '' और आप '' - दूसरे शव ने पूछा । उत्तर मिला -'' जब तक जीवित रहा, थोड़ा कमाया, पर मस्त रहा और अब जबकि मर गया हूँ तब भी वही निर्द्वंद्वता वही प्रसन्नता । अच्छा तो नमस्कार, लो अब चला। ''
यह कहकर पहला शव चिता की ओर चल पड़ा और दूसरा शव अपने हिसाब- किताब की बातों में उलझ गया।
अभिमान किस बात का ?
अर्जित ज्ञान का अहंकार व्यर्थ है। अधिक ज्ञान व अधिक आयु होने पर भी विद्या संपन्न अल्पायु के साधकों के समक्ष वे तुच्छ हैं । योगी चांगदेव की आयु १४०० वर्ष की थी । उन्होंने संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति सुनी । सोचा उन्हें पत्र लिखें । प्रश्न आ खड़ा हुआ संबोधन का । संत ज्ञानेश्वर मात्र सोलह वर्ष के थे उन्हें पूज्य कैसे लिखें ? अभिमान ने कहा । इतने बड़े संत को '' चिरंजीव '' कैसे लिखें, विवेक ने टोका । असमंजस में बिना कुछ लिखे ही कोरा कागज पत्र के रूप में भेज दिया । संत भावों की भाषा जानते हैं, कोरे कागज का अर्थ समझ गए । बहन मुक्ताबाई ने उत्तर लिखा- '' आपकी आयु १४०० वर्ष हो गई, फिर भी आप कोरे के कोरे ही रहे । '' चांगदेव को लगा भूल हुई, मिलने चल पड़े । सिद्धि बल दिखाने के लिए शेर पर सवारी, साँप का चाबुक बनाया । ज्ञानेश्वर समझ गए, अभिमान गया नहीं । अगवानी के लिए जिस पत्थर पर बैठे थे उसे ही चलने की आज्ञा दी। पत्थर चलता देख चांगदेव को बोध हुआ । '' जानवरों को वश में करने वाले से जड़ पदार्थों को वश में करने वाला श्रेष्ठ है । '' उन्होंने आयु का, अहंकार छोड़ा और ज्ञानदेव के शिष्य बन गए ।
विवेकशील नचिकेता
वाजिश्रवा ने सर्वमेध यज्ञ किया और उसमें अपनी समस्त संपदा एवं गोएँ दान कर दीं । गौओं में कुछ वृद्ध,अपंग और निकम्मी भी थीं । उन्हें ले जाने में ग्रहणकर्त्ता को उल्टी कठिनाई उठानी पड़ती । बालक नचिकेता ने पिता वाजिश्रवा से अनुरोध किया- '' जो श्रेष्ठ -सार्थक है, उसी का दान करें । '' वाजिश्रवा क्रुद्ध होकर बोले- '' तुम्हीं सार्थक हो, तुम्हें मैं यम को दान करता हूँ । '' पिता के घर में जो विवेक जागृत हुआ था, वह यमाचार्य के यहाँ अध्ययन करने पर और भी अधिक विकसित हुआ । वे गुरुकुल में समर्पित भाव से रहे और पंचाग्नि विद्या में प्रवीण पारंगत बनकर रहे।
विद्या का मर्म
तैराकी शिक्षक ने अपने शिष्य को संबोधित करते हुए कहा- '' अभी अनजान होने की स्थिति में तुम गहरे घुसे, तो डूब जाओगे, पर जब तैरना सीख कर तुम पानी से ऊपर रहने की कला सीख लोगे, तो उसका लाभ स्वयं भी लोगे और दूसरों को भी डूबने से बचा सकोगे । वैभव का संसार भी ऐसा ही है । उसमें अनाड़ी डूब जाते है, पर विवेकवान उस पर शासन करते हैं और अपनी तथा दूसरों की भलाई के काम करते हैं ।
सुसंपन्न ने दुर्भाग्य भुगता सौभाग्यवश वैभव की स्थिति प्राप्त होने पर भी व्यक्ति अपने ही कुसंस्कारों से अपनी खाँई स्वयं खोद लेता है । मित्र के राजा ने अपने राजकुमार फारूख को शिक्षित और व्यवहारकुशल बनाने के लिए सारी व्यवस्थाएँ कीं, किन्तु वह उद्दंड और अहंकारी लड़का किसी की परवाह न करके अपने को उन्मादी की तरह सब कुछ समझता था । जो भी उसे उपयोगी सलाह देता उसी की जान को आता । सभी उससे घोर असंतुष्ट थे । बीस वर्ष की आयु में वह राज सिंहासन पर बैठा । अपनी बुरी आदतों और बेवकूफियों से थोड़े ही दिन में राज्यकोष खाली कर दिया और प्रजा में अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी । पड़ोसी आक्रमण की घात लगाने लगे । इतने में प्रजाजनों ने ही क्रांति करके उसे जेल में डाल दिया । जब तक जिया, बंदीगृह में सड़ता रहा । जो नौकर उसकी सेवा में नियुक्त थे, वे भी सीधे मुँह बात न करते थे और ऊटपटांग बात कहने पर उसे डाँट देते । सौभाग्य ने उसे सुयोग्य देने में कमी न रखी, पर अपनी मूर्खता से उसने स्थिति ऐसी बना ली, जिसे सामान्यजनों से भी गई- बीती कहा जा सके ।
सभ्यता की कसौटी
व्यक्ति की परख उसके बाह्य रूप से, वेश से नहीं,अंतः की श्रेष्ठता से की जाती है ।स्वामी विवेकानंद एक बार अमेरिका की एक सड़क से गुजर रहे थे । स्वामी जी गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थे । उनकी विचित्र वेशभूषा देखकर लोगों ने समझा, यह कोई मूर्ख है ।उनके पीछे हँसी- मजाक करती हुई काफी भीड़ चल पडी। स्वामी जी थोड़ा चलकर रुके और भीड़ की ओर देखते हुए बोले- '' सज्जनो ! आपके देश में सभ्यता की कसौटी पोशाक है, पर मैं जिस देश से आया हूँ , वहाँ कपड़ों से नहीं मनुष्य की पहचान उसके चरित्र से होती है । '' स्वामी जी के तेजस्वी वचन सुनकर सारी भीड़ स्तब्ध रह गई । स्वामी जी सहज भाव से आगे बढ़ गए ।
निरंतर, हर पल जो सीखने को स्वयं को प्रखर बनाने को उद्यत हो, वही विद्या का धनी बनता, श्रेय सम्मान पाता व श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचता है ।
कला कैसे निखरेगी ?
फ्राँस का प्रसिद्ध मूर्तिकार आगस्टस सेंट गांडेस जब पेरिस में मूर्तिकला का विद्यार्थी था, उसके पास एक सम्भ्रांत महिला अपनी एक मूर्ति बनवाने आई । उसने अपने कलागृह में उसकी मूर्ति बनाना आरंभ किया । जब मूर्ति बन चुकी, तो वह महिला उस मुर्ति को देखने आई । उसे वह मुर्ति पसंद नहीं आई । गाडेंस ने उसे फिर बनाया, फिर भी उसे पसंद नहीं आई । इस प्रकार कितनी ही बार उसकीं यह मूर्ति नापसंद कर दी गई । नापसंद किए जाने पर दुगुने उत्साह से उसे सँवारने में लग जाया करता था। एक दिन उसके मित्रों ने उससे उसके इस उत्साह का कारण पूछा, तो उसने बताया कि इसी प्रकार तो मेरी कला निखरेगी । इसी उत्साह तथा लगन के परिणामस्वरूप ही वह प्रसिद्ध मूर्तिकार बन सका था ।