Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -1
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प्रतिपाद्यं तृतीयस्य श्रोतुमुत्का दिनस्य ते। सोत्सुकं नियते काले प्राप्ताः सर्वे यथाक्रमम्।। १ ।। स्थानेषु नियतेष्वेव समासीनास्तथाऽभवन्। वर्षयन्निव पीयूषमृषिः कात्यायनस्तदा ।। २ ।।
भावार्थ- तीसरे दिन के प्रवचन- प्रतिपादन सुनने के लिए सभी आतुर थे, सो नियत समय पर सभी जिज्ञासु उत्सुकतापूर्वक पहुँचे और अपने नियत स्थान पर यथाक्रम आसीन हो गए। ज्ञानामृत बरसाते हुए महर्षि कात्यायन बोले- ।।१-२।।
कात्यायन उवाच-
जिज्ञासवो नरस्त्वेष वर्तते पशुरप्यथ। पिशाचोऽपि तथा देवो महामानव एव च ।। ३ ।। सीम्निप्रजननस्याथ पिचण्डस्यापि ये नराः। मग्नाश्चिन्तातुराश्चापि नूरास्ते पशवो मता: ।। ४ ।। तेषां सर्वस्वमस्त्येषा लघ्वी स्वार्थरतिः सदा। लोभमोहातिरिक्तं न पश्यन्त्येते किमप्यतः।। ५ ।। प्रदर्शने विलासे च सुखं तेऽनुभवन्ति हि। नाभ्यां परं किमप्येषां लक्ष्यं भवति दूरगम् ।। ६ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- जिज्ञासुओ ! मनुष्य पशु भी है, पिशाच भी, मान्य मानव भी और देवता भी। पेट और प्रजनन की छोटी परिधि में सोचने और करने में निमग्न रहने वाले नर- पशु हैं। उनके लिए संकीर्ण स्वार्थपरता ही सब कुछ है। लोभ और मोह के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। विलास और भावार्थ- नर पिशाचों पर दर्प छाया रहता है। वे आतंक, अनाचार और दुष्कृत्यों में अपने अहंकार की पूर्ति देखते हैं। उत्पीड़न में उन्हें रस आता है। मर्यादा भंग करने में उन्हें शौर्य- पराक्रम प्रतीत होता है। भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचार वालों को मनुष्य शरीर में पिशाच ही समझना चाहिए ।। ७- ९ ।।
व्याख्या- देव संस्कृति के सरकार- महत्ता प्रकरण का शुभारंभ करते हुए सत्राध्यक्ष- मानव के गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर विवेचना करते हुए उसका वर्गीकरण भिन्न- भिन्न वर्गों में करते हैं। नर पामर का अर्थ हैं पशु प्रवृत्तियों में निरत पेट- प्रजनन की सीमा में आबद्ध व्यक्ति। नर- मानव का अर्थ है- वह भक्ति, जिसमें पारिवारिकता और सामाजिकता के साथ जुड़े हुए अनुबंधों के प्रति विश्वास और परिपालन का साहस है। वस्तुतः व्यक्तित्व के स्तर की उत्कृष्टता ही मानवी वरिष्ठता की कसौटी है। मानवी काया का चोला तो हरेक का एक जैसा ही होता है।
नर- पशु हर समय अधिक कमाने, संचय करने और खाने- कुतरने की ललक में लगे दिखाई दे सकते हैं। अनौचित्य की सीमा लाँघकर प्रजनन- यौन स्वेच्छाचार के क्षेत्र में वे पशुओं को भी पीछे छोड़ देते हैं। जो भी वैभव दूसरों को शोषण कर पिशाच की भूमिका निभाते हुए निर्दयतापूर्वक संचित करते बन पड़ा है, उसे वे स्वयं व परिवार जनों तक ही सीमाबद्ध मानकर उसके उपभोगवादी प्रदर्शन में निरत रहते हैं।
चरित्रनिष्ठा ही मनुष्यता है । जिसमें अवांछनीय लिप्साओं के नियमन एवं आदर्शों के कार्यान्वयन का साहस भरा पराक्रम है, वही नर मानव से देवमानव, नर- नारायण, भूसुर, ऋषि की भूमिका निभाता देखा जा सकता है।
मानव जन्म लेने के बाद संचित कषाय- कल्मषों के आवरण को हटाकर स्वयं को निर्मल बना, देव मानव बनाने की भूमिका में प्रवेश करने की प्रक्रिया सरकारी के माध्यम से संपन्न होती है। इसके अभाव में तो सामान्य जनमानस पर कुसंस्कारों का कुहासा ही छाया देखा जा सकता है। नरपशु, नरपिशाच, नरपामर इसी श्रेणी के व्यक्ति कहलाते हैं। अलंकारिक रूप से असुरों का काला मुँह, मुख से बाहर निकले हुए दाँत, पैने नाखून और सिर पर सींग चित्रित किए जाते हैं। इस प्रकार की शकल- सूरत के प्राणी कहीं नहीं पाए जाते। इस आलंकारिक चित्रण में यही बताया गया है कि असुर- प्रकृति के मनुष्यों का मुख दुष्कर्मों की कलंक कालिमा से काला होता है। वे पेटू, स्वार्थी, लोभी, कृपण और संग्रही होते हैं, उनके बड़े दाँत उचित−अनुचित सबको उदरस्थ करने के लिए मुख की मर्यादा से बाहर निकले रहते हैं। हाथों में बड़े नाखूनों का होना हिंस्र पशुओं की नीति अपनाकर आक्रमणकारी, आततायी कुकृत्यों में संलग्न होने की दुष्प्रवृत्ति को प्रकट करता है। इस दुष्ट परंपरा को, असुर संस्कृति को, पशु प्रवृत्ति को अपनाने वाले लोगों की कमी नहीं। रामायण में इन्हीं को असंत बताया गया है।
मनुष्य देवता भी, पिशाच भी
एक सत्संग में एक संत कह रहे थे-'' मनुष्यों में कुछ देवता, कुछ मनुष्य पाए जाते हैं, शेष तो नर पिशाच ही होते हैं। '' जिज्ञासु ने पूछा-'' भला इन नर पिशाचों और देवताओं की पहचान क्या है ?'' संत ने कहा-'' देवता वे है, जो दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिए स्वयं हानि उठाने को तैयार रहते हैं, मनुष्य वे हैं जो अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी। नर पिशाच वे हैं जो दूसरों की हानि ही सोचते और करते हैं , भले ही इस प्रयास में भी उन्हें स्वयं हानि सहनी पड़े।
दायरे से बाहर निकलो
संक्रीण, अपने दायरे तक सीमित व्यक्ति कुढ़ते, खिजाते एवं त्रास भुगतते रहते हैं।
एक कुएँ ने समुद्र तक शिकायत पहुँचाई कि '' जब सभी नदी- नालों को आप बुलाते हैं और आश्रय देते हैं , तो मेरी ही उपेक्षा क्यों ?''
समुद्र ने उत्तर भिजवाया-'' जिस संकीर्णता के दायरे में घिर गए हो, उससे तो निकलो। फिर मंजिल सरल है और लक्ष्य निकट। ''
स्वयं का बंधन
रेशम का कीड़ा अपने लिए खोखला बुनता है और उसी में कैद हो जाता है। मकड़ी अपना जाला बुनती है और उसी में जकड़ कर बैठ जाती है। मनुष्य भी अपनी अहंता का विस्तार करता है और उससे अवरुद्ध होकर भव- बंधनों की जकड़न से त्राहि- त्राहि करता है। माया की गाँठ मनुष्य ही बाँधता है और खोल भी लेता है। रामायणकार ने काम, क्रोध व लोभ को तीन सबसे बड़े शत्रु बताया है-
तात तीन अति प्रबल खल, काम, क्रोध अरु लोभ। मुनि विग्यान धाम मन, करहिं निमिष महँ छोभ ।।
ये ही मनुष्य के अधः पतन के कारण बनते हैं।
नहुष का स्वर्ग से पतन
नहुष को पुण्य फल के बदले इंद्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगे। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे, ऐसे कोई बिरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुए बिना न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इंद्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अंतःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इंद्राणी के पास भेज दिया। इंद्राणी बहुत दुःखी हुईं। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया, तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास संदेश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जीतें और उस पर चढ़कर मेरे पास आवें, तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।
आतुर नहुष ने अविलंब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाए, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी- जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा। दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही तो डाला-'' दुष्ट। तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर ।'' शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्युलोक में दीन- हीन की तरह विचरण करने लगे।
इंद्र पुनः स्वर्ग के इंद्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इंद्राणी से पूछा-'' भद्रे! तुमने ऋँषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था ?'' शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-'' नाथ! आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा है। वह सफल भी हुआ। '' देवसभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी इसका अपवाद कैसे रहता?
हर नर- पिशाच की वही नियति
हर अहंकारी, लोभी, लालची को भगवत्सत्ता के दैवी विधान से नियमानुसार फल मिलता ही है एवं अन्यों के लिए वह सबक बनता है।
अहंकारी, शक्तिशाली, गर्व से चूर दुर्योधन जब अपनी अनीतियों से बाज नही आया, तो उसे अपनी ही आँखों अपना सर्वस्व नष्ट- भ्रष्ट होते देखना पड़ा और बडी़ असहाय अवस्था में शरीर छोड़ना पड़ा। महाबली रावण का दर्प- अहंकार उस समय नष्ट हो गया, जब उसका सारा वैभव नष्ट हो गया और वह असहाय घायल अवस्था में रणभूमि में पड़ा था। जिसने बड़ें- बडे़ देशों पर विजय पाकर उन्हें बंदी बना छोड़ा था, उसे दो क्षत्रिय पुत्रों ने कुल सहित नष्ट कर दिया। विश्व विजयी सिकंदर महान् अपनी अपार संपत्ति के होते हुए भी छटपटाता हुआ मरा और उसे कोई न बचा सका। उसका दर्प, अहंकार मिट्टी में मिल गया। दुनिया की खुली पुस्तक में दैवी- विधान की इस सुधार प्रक्रिया का पाठ सरलता से पढा़ जा सकता है।
सौंदर्य की ललक- लिप्सा का एक अभिशप्त रूप
सौंदर्य एक वरदान है एवं अभिशाप भी। वरदान तब होता है, जब वह अपनी विशेषता से प्रभावित लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, उनमें सत्प्रवृत्तियाँ उभारे। अभिशाप उस समय बनता है, जब मानवी कुत्सा को भड़काता है, व्यक्तिगत अहंका को पोषित कर कुमार्गगामिता का पथ-प्रशस्त करता है।ऐसी स्थिति में प्रकृति प्रदत्त अनुदान भी विष- वृक्ष के समान सिद्ध होता है।
रोम की क्लीयोपैट्रा एक ऐसी ही महिला थी, जिसे प्रकृति से मुक्त हस्त सौंदर्य की विभूति मिली थी। उसे देखकर ऐसा लगता था, जैसे साक्षात् कामदेव नारी तन में अपनी सभी विशेषताओं के साथ अवतरित हो गए हों। इतिहासकारों ने उसे अपने युग की सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय सुंदरी की उपाधि दी। मिश्र की वह राजकुमारी थी। किशोर वय से ही उसके सौंदर्य की ख्याति सर्वत्र फैलने लगी। अलहड़ सामंत कुमारों, नवयुवकों की भीड़ उसके इर्द- गिर्द सदा भागती रहती थी। उसके माता- पिता तो बचपन में ही दिवंगत हो गए थे। अंकुश न रहने से उसकी उच्छृंखलता को बेलगाम होने की खुली छूट मिल गई। जितनी वह सुंदर थी, उससे भी अधिक उसे अपने रूप पर अहंकार था। उतनी ही अधिक वह महत्त्वाकांक्षी थी। थोड़ी समझदारी आते ही, वह मिश्र की शासिका बनने के सपने देखने लगी। वह किसी भी कीमत पर अपनी मुराद पूरा करना चाहती थी। रूप, चरित्र, नारी गरिमा सभी को दाँव पर लगाने को तैयार थी।
अपनी उद्धत महत्त्वाकांक्षा पूरी करने हेतु उसने क्रमश: टोलेमी, सीजर एवं फिर एण्टोनी को अपना हथियार बनाया। इनमें से प्रत्येक उसके रूपजाल में कैद होकर स्वयं के व साम्राज्य के विनाश के कारण बनते चले गए। अंततः इस रूपसी ने सर्प दंश से आत्मघात कर लिया।
जितने दिन वह जीवित रही रोम तथा मिश्र का शासनतंत्र एक झूले की तरह इधर- उधर झूलता रहा। कभी भी स्थायित्व नहीं आने पाया। क्लीयोपैट्रा वासना एवं महत्त्वाकांक्षा की आग में स्वयं मरी तथा अगणित लोगों को भस्मीभूत किया। उसे जो सौंदर्य का वरदान प्रकृति द्वारा मिला था वह एक अभिशाप सिद्ध हुआ। एक ऐसा अभिशाप, जो रोम एवं मिश्र के पतन का कई दशकों तक कारण बना। सौंदर्य की देवी क्लीयोपैट्रा मिश्र की एक ऐसी कलंक थी, जिसके कलुषित जीवन ने समूचे साम्राज्य को भ्रष्ट किया।
उसका उदाहरण बताता है कि सौंदर्य के साथ यदि चरित्रनिष्ठा न जुड़ी हो, तो वह उद्धत उत्पात के रूप में भड़कता व अनेक के विनाश का कारण बनता है।
उद्धत प्रदर्शन भी अपराध
जो अहंता मद के में चूर होकर प्रदर्शन से वाहवाही लूटना चाहते हैं, वे भी एक प्रकार के अपराधी हैं।
एक व्यापारी ने छोटे बच्चे को खिलाने के लिए नौकर रखा। उसे बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण पहनाकर नौकर को देता। एक दिन चोर पीछे लगा और नौकर की नजर बचते ही बच्चे को उठाकर भाग गया। आभूषण उतार लिए और बच्चे को मार कर कुँए में डाल दिया।
नौकर को बच्चा न मिला, तो व्यापारी को खबर दी। उसने सारे नौकर और दूत पता लगाने भेजे। कुएँ में मरा बच्चा मिल गया और एक वृक्ष की कोंतर में बैठा चोर भी। लाश और चोर को राजा के सम्मुख पहुँचाया गया। चोर को मृत्युदंड मिला और व्यापारी का सारा धन जब्त कर लिया गया। सर्वसाधारण के बीच उन्हीं की तरह न रहकर अपनी संपन्नता का उद्धत- प्रदर्शन भी छोटा अपराध नहीं समझा गया।
जिस दुष्प्रवृत्ति से चोर को प्रेरणा मिली और उसकी नीयत बदली, वह निष्पक्ष न्यायाधीश की दृष्टि में क्षम्य अपराध नहीं। अपव्यय, प्रदर्शनवृत्ति एवं अनाचार परस्पर संबंधित दुष्प्रवृत्तियाँ हैं।
आखिर खुद का ही नुकसान किया
अनावश्यक आवेश एवं विशेष व्यक्ति को संत्रस्त करना अंततः दुःख पहुँचाता है।
एक साँप को बहुत गुस्सा आया। उसने फन फैलाकर गरजना और फुसकारना शुरू किया और कहा-'' मेरे जितने भी शत्रू हैं, आज उन्हें खाकर ही छोडूँगा। उनमें से एक को भी जिंदा न रहने दूँगा। '' मेंढक, चूहे, केंचुए और छोटे- छोटे जानवर उसके उस गुस्से को देखकर डर गए और छिपकर देखने लगे कि आखिर होता क्या है ? साँप दिन भर फुसकारता रहा और दुश्मनों पर हमला करने के लिए दिन भर इधर- उधर बेतहाशा भागता रहा।
फुसकारते- फुसकारते उसके गले में दर्द होने लगा। शत्रु तो कोई हाथ आया नहीं, पर कंकड़- पत्थरों की खरोंचों से उसकी सारी देह जख्मी हो गई, शाम को चकनाचूर होकर वह एक तरफ जा बैठा।
गुस्सा करने वाला शत्रुओं से पहले अपने को ही नुकसान पहुँचाता है।
ऐसों के प्रति उपकार भी बुरा
यही बात उन नर पामरों पर भी लागू होती है, जो दूसरों के उपकारों को भुलाकर उनसे कृतघ्न व्यवहार करते हैं, पर पीड़न में रस लेते हैं एवं समय आने पर पशु- प्रवृत्तियों के वशीभूत हो, उनका कुछ भला करने के स्थान पर बर्बरता से पेश आते हैं। इनकी, भी आज जन समुदाय में कोई कमी नहीं।
एक राजकुमार बड़े दुष्ट स्वभाव का था। नौकर भी उससे प्रसन्न न थे। नदी में नहाते हुए पैर फिसला और बह गया। नौकरों ने मुँह फेर लिया। संयोगवश एक लकड़ी का मोटा लट्ठा बहता आ रहा था। उस पर एक सर्प, एक चूहा भी बहते-बहते चढ़ गए थे। राजकुमार का भी दाँव लग गया और वह भी उस पर चढ़ गया। नदी तट पर एक साधु की कुटिया थी। उसने लट्ठे के साथ बहते प्राणियों को देखा, तो जान जोखिम में डालकर लट्ठे को किनारे पर खींच लाए। रात्रि डरावनी काली थी और ठंडक कड़ाके की थी। सो उसने लट्ठे को एक ओर से जलाकर गर्मी उत्पन्न की। तीनों प्राणियों को तपाया और जो कुटिया में था, तीनों को खाने के लिए दिया। भोर होने पर वर्षा थमी, तो सर्प ने साधु से कहा-'' मेरा नाम मधुप है, इसी जंगल में रहता हूँ। आवश्यकता हो, तो पुकारना। मेरे बिल में धन है, सो दूँगा। '' चूहे ने भी साधु महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और कहा- '' जब आपको ईंधन की आवश्यकता हो, तब आवाज दें, समीप ही रहता हूँ, मेरा नाम कुसुम है। पौधे और टहनियाँ काटकर आपके लिए ईंधन- समिधाएँ जुटा दिया करूँगा। ''
अब राजकुमार की बारी थी। राजकुमार ने कड़ककर कहा-'' तुमने मेरा उचित सम्मान नहीं किया, सो बदला लूँगा। '' घर पहुँचते ही उसने नौकर भेजे और साधु की झोपड़ी तोड़- फोड़कर फिंकवा दी। उन्हें अन्यत्र दूसरी बनवानी पड़ी। वे सोचते रहे, कृतघ्न की तुलना में तो साँप और चूहे अच्छे।
मनुष्य के दुष्कृत्यों के समक्ष जीव- जंतुओं की बर्बरता भी कभी- कभी छोटी पड़ जाती है। ऐसे दुष्ट आचरण वाले व्यक्ति वस्तुतः मानवी काया में पिशाच के समान हैं।
भेड़िया और सियार
एक भेड़िये के गले में हड्डी अटक गई। वह सियार के पास पहुँचा और बोला-'' आपकी लंबी थूथनी है। कृपा करके मेरे गले में उसे डालकर हड्डी निकाल दीजिए, उसने निकाल दी। ''
एक दिन सियार को भेड़िये की सहायता की आवश्यकता पड़ी। पिछला अहसान याद दिलाया। भेड़िये ने कहा-'' मेरा यह अहसान क्या कम है, जो मुँह के अंदर पहुँची हुई, तुम्हारी गरदन बख्श दी। ''
वस्तुतःदुष्टों से प्रत्युपकार की आशा कभी नहीं करनी चाहिए।
लोभी ने जोखिम उठाई
एक शिकारी ने हाथी का शिकार किया और उसके दाँत निकाल लिए। इतने में एक सर्प निकला, उसने शिकारी को काट खाया, वह गिर पड़ा, हाथी के मरने से एक खरगोश का कचूमर पहले ही निकल चुका था। एक सियार उधर से निकला, तो इतने शिकार एक साथ पडे़ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। महीनों के लिए भोजन मिल गया। उसने शिकारी का धनुष पड़ा देखा, उसमें ताँत को प्रत्यंचा लग रही थी। पहले इस छोटी खुराक को खत्म कर लें, तब बडो़ं पर हाथ डालेंगे। यह सोचकर उसने ताँत को जैसे ही चबाया, वैसे ही वह टूटी और धनुष का सिरा उसके मुँह में जोर से लगा और वहीं ढेर हो गया।
लालची और अदूरदर्शी इसी प्रकार शहद के लोभ में जान गँवा बैठने वाली मक्खी की तरह जोखिम उठाते हैं।
भावार्थ- तीसरे दिन के प्रवचन- प्रतिपादन सुनने के लिए सभी आतुर थे, सो नियत समय पर सभी जिज्ञासु उत्सुकतापूर्वक पहुँचे और अपने नियत स्थान पर यथाक्रम आसीन हो गए। ज्ञानामृत बरसाते हुए महर्षि कात्यायन बोले- ।।१-२।।
कात्यायन उवाच-
जिज्ञासवो नरस्त्वेष वर्तते पशुरप्यथ। पिशाचोऽपि तथा देवो महामानव एव च ।। ३ ।। सीम्निप्रजननस्याथ पिचण्डस्यापि ये नराः। मग्नाश्चिन्तातुराश्चापि नूरास्ते पशवो मता: ।। ४ ।। तेषां सर्वस्वमस्त्येषा लघ्वी स्वार्थरतिः सदा। लोभमोहातिरिक्तं न पश्यन्त्येते किमप्यतः।। ५ ।। प्रदर्शने विलासे च सुखं तेऽनुभवन्ति हि। नाभ्यां परं किमप्येषां लक्ष्यं भवति दूरगम् ।। ६ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- जिज्ञासुओ ! मनुष्य पशु भी है, पिशाच भी, मान्य मानव भी और देवता भी। पेट और प्रजनन की छोटी परिधि में सोचने और करने में निमग्न रहने वाले नर- पशु हैं। उनके लिए संकीर्ण स्वार्थपरता ही सब कुछ है। लोभ और मोह के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। विलास और भावार्थ- नर पिशाचों पर दर्प छाया रहता है। वे आतंक, अनाचार और दुष्कृत्यों में अपने अहंकार की पूर्ति देखते हैं। उत्पीड़न में उन्हें रस आता है। मर्यादा भंग करने में उन्हें शौर्य- पराक्रम प्रतीत होता है। भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचार वालों को मनुष्य शरीर में पिशाच ही समझना चाहिए ।। ७- ९ ।।
व्याख्या- देव संस्कृति के सरकार- महत्ता प्रकरण का शुभारंभ करते हुए सत्राध्यक्ष- मानव के गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर विवेचना करते हुए उसका वर्गीकरण भिन्न- भिन्न वर्गों में करते हैं। नर पामर का अर्थ हैं पशु प्रवृत्तियों में निरत पेट- प्रजनन की सीमा में आबद्ध व्यक्ति। नर- मानव का अर्थ है- वह भक्ति, जिसमें पारिवारिकता और सामाजिकता के साथ जुड़े हुए अनुबंधों के प्रति विश्वास और परिपालन का साहस है। वस्तुतः व्यक्तित्व के स्तर की उत्कृष्टता ही मानवी वरिष्ठता की कसौटी है। मानवी काया का चोला तो हरेक का एक जैसा ही होता है।
नर- पशु हर समय अधिक कमाने, संचय करने और खाने- कुतरने की ललक में लगे दिखाई दे सकते हैं। अनौचित्य की सीमा लाँघकर प्रजनन- यौन स्वेच्छाचार के क्षेत्र में वे पशुओं को भी पीछे छोड़ देते हैं। जो भी वैभव दूसरों को शोषण कर पिशाच की भूमिका निभाते हुए निर्दयतापूर्वक संचित करते बन पड़ा है, उसे वे स्वयं व परिवार जनों तक ही सीमाबद्ध मानकर उसके उपभोगवादी प्रदर्शन में निरत रहते हैं।
चरित्रनिष्ठा ही मनुष्यता है । जिसमें अवांछनीय लिप्साओं के नियमन एवं आदर्शों के कार्यान्वयन का साहस भरा पराक्रम है, वही नर मानव से देवमानव, नर- नारायण, भूसुर, ऋषि की भूमिका निभाता देखा जा सकता है।
मानव जन्म लेने के बाद संचित कषाय- कल्मषों के आवरण को हटाकर स्वयं को निर्मल बना, देव मानव बनाने की भूमिका में प्रवेश करने की प्रक्रिया सरकारी के माध्यम से संपन्न होती है। इसके अभाव में तो सामान्य जनमानस पर कुसंस्कारों का कुहासा ही छाया देखा जा सकता है। नरपशु, नरपिशाच, नरपामर इसी श्रेणी के व्यक्ति कहलाते हैं। अलंकारिक रूप से असुरों का काला मुँह, मुख से बाहर निकले हुए दाँत, पैने नाखून और सिर पर सींग चित्रित किए जाते हैं। इस प्रकार की शकल- सूरत के प्राणी कहीं नहीं पाए जाते। इस आलंकारिक चित्रण में यही बताया गया है कि असुर- प्रकृति के मनुष्यों का मुख दुष्कर्मों की कलंक कालिमा से काला होता है। वे पेटू, स्वार्थी, लोभी, कृपण और संग्रही होते हैं, उनके बड़े दाँत उचित−अनुचित सबको उदरस्थ करने के लिए मुख की मर्यादा से बाहर निकले रहते हैं। हाथों में बड़े नाखूनों का होना हिंस्र पशुओं की नीति अपनाकर आक्रमणकारी, आततायी कुकृत्यों में संलग्न होने की दुष्प्रवृत्ति को प्रकट करता है। इस दुष्ट परंपरा को, असुर संस्कृति को, पशु प्रवृत्ति को अपनाने वाले लोगों की कमी नहीं। रामायण में इन्हीं को असंत बताया गया है।
मनुष्य देवता भी, पिशाच भी
एक सत्संग में एक संत कह रहे थे-'' मनुष्यों में कुछ देवता, कुछ मनुष्य पाए जाते हैं, शेष तो नर पिशाच ही होते हैं। '' जिज्ञासु ने पूछा-'' भला इन नर पिशाचों और देवताओं की पहचान क्या है ?'' संत ने कहा-'' देवता वे है, जो दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिए स्वयं हानि उठाने को तैयार रहते हैं, मनुष्य वे हैं जो अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी। नर पिशाच वे हैं जो दूसरों की हानि ही सोचते और करते हैं , भले ही इस प्रयास में भी उन्हें स्वयं हानि सहनी पड़े।
दायरे से बाहर निकलो
संक्रीण, अपने दायरे तक सीमित व्यक्ति कुढ़ते, खिजाते एवं त्रास भुगतते रहते हैं।
एक कुएँ ने समुद्र तक शिकायत पहुँचाई कि '' जब सभी नदी- नालों को आप बुलाते हैं और आश्रय देते हैं , तो मेरी ही उपेक्षा क्यों ?''
समुद्र ने उत्तर भिजवाया-'' जिस संकीर्णता के दायरे में घिर गए हो, उससे तो निकलो। फिर मंजिल सरल है और लक्ष्य निकट। ''
स्वयं का बंधन
रेशम का कीड़ा अपने लिए खोखला बुनता है और उसी में कैद हो जाता है। मकड़ी अपना जाला बुनती है और उसी में जकड़ कर बैठ जाती है। मनुष्य भी अपनी अहंता का विस्तार करता है और उससे अवरुद्ध होकर भव- बंधनों की जकड़न से त्राहि- त्राहि करता है। माया की गाँठ मनुष्य ही बाँधता है और खोल भी लेता है। रामायणकार ने काम, क्रोध व लोभ को तीन सबसे बड़े शत्रु बताया है-
तात तीन अति प्रबल खल, काम, क्रोध अरु लोभ। मुनि विग्यान धाम मन, करहिं निमिष महँ छोभ ।।
ये ही मनुष्य के अधः पतन के कारण बनते हैं।
नहुष का स्वर्ग से पतन
नहुष को पुण्य फल के बदले इंद्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगे। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे, ऐसे कोई बिरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुए बिना न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इंद्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अंतःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इंद्राणी के पास भेज दिया। इंद्राणी बहुत दुःखी हुईं। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया, तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास संदेश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जीतें और उस पर चढ़कर मेरे पास आवें, तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।
आतुर नहुष ने अविलंब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाए, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी- जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा। दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही तो डाला-'' दुष्ट। तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर ।'' शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्युलोक में दीन- हीन की तरह विचरण करने लगे।
इंद्र पुनः स्वर्ग के इंद्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इंद्राणी से पूछा-'' भद्रे! तुमने ऋँषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था ?'' शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-'' नाथ! आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा है। वह सफल भी हुआ। '' देवसभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी इसका अपवाद कैसे रहता?
हर नर- पिशाच की वही नियति
हर अहंकारी, लोभी, लालची को भगवत्सत्ता के दैवी विधान से नियमानुसार फल मिलता ही है एवं अन्यों के लिए वह सबक बनता है।
अहंकारी, शक्तिशाली, गर्व से चूर दुर्योधन जब अपनी अनीतियों से बाज नही आया, तो उसे अपनी ही आँखों अपना सर्वस्व नष्ट- भ्रष्ट होते देखना पड़ा और बडी़ असहाय अवस्था में शरीर छोड़ना पड़ा। महाबली रावण का दर्प- अहंकार उस समय नष्ट हो गया, जब उसका सारा वैभव नष्ट हो गया और वह असहाय घायल अवस्था में रणभूमि में पड़ा था। जिसने बड़ें- बडे़ देशों पर विजय पाकर उन्हें बंदी बना छोड़ा था, उसे दो क्षत्रिय पुत्रों ने कुल सहित नष्ट कर दिया। विश्व विजयी सिकंदर महान् अपनी अपार संपत्ति के होते हुए भी छटपटाता हुआ मरा और उसे कोई न बचा सका। उसका दर्प, अहंकार मिट्टी में मिल गया। दुनिया की खुली पुस्तक में दैवी- विधान की इस सुधार प्रक्रिया का पाठ सरलता से पढा़ जा सकता है।
सौंदर्य की ललक- लिप्सा का एक अभिशप्त रूप
सौंदर्य एक वरदान है एवं अभिशाप भी। वरदान तब होता है, जब वह अपनी विशेषता से प्रभावित लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, उनमें सत्प्रवृत्तियाँ उभारे। अभिशाप उस समय बनता है, जब मानवी कुत्सा को भड़काता है, व्यक्तिगत अहंका को पोषित कर कुमार्गगामिता का पथ-प्रशस्त करता है।ऐसी स्थिति में प्रकृति प्रदत्त अनुदान भी विष- वृक्ष के समान सिद्ध होता है।
रोम की क्लीयोपैट्रा एक ऐसी ही महिला थी, जिसे प्रकृति से मुक्त हस्त सौंदर्य की विभूति मिली थी। उसे देखकर ऐसा लगता था, जैसे साक्षात् कामदेव नारी तन में अपनी सभी विशेषताओं के साथ अवतरित हो गए हों। इतिहासकारों ने उसे अपने युग की सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय सुंदरी की उपाधि दी। मिश्र की वह राजकुमारी थी। किशोर वय से ही उसके सौंदर्य की ख्याति सर्वत्र फैलने लगी। अलहड़ सामंत कुमारों, नवयुवकों की भीड़ उसके इर्द- गिर्द सदा भागती रहती थी। उसके माता- पिता तो बचपन में ही दिवंगत हो गए थे। अंकुश न रहने से उसकी उच्छृंखलता को बेलगाम होने की खुली छूट मिल गई। जितनी वह सुंदर थी, उससे भी अधिक उसे अपने रूप पर अहंकार था। उतनी ही अधिक वह महत्त्वाकांक्षी थी। थोड़ी समझदारी आते ही, वह मिश्र की शासिका बनने के सपने देखने लगी। वह किसी भी कीमत पर अपनी मुराद पूरा करना चाहती थी। रूप, चरित्र, नारी गरिमा सभी को दाँव पर लगाने को तैयार थी।
अपनी उद्धत महत्त्वाकांक्षा पूरी करने हेतु उसने क्रमश: टोलेमी, सीजर एवं फिर एण्टोनी को अपना हथियार बनाया। इनमें से प्रत्येक उसके रूपजाल में कैद होकर स्वयं के व साम्राज्य के विनाश के कारण बनते चले गए। अंततः इस रूपसी ने सर्प दंश से आत्मघात कर लिया।
जितने दिन वह जीवित रही रोम तथा मिश्र का शासनतंत्र एक झूले की तरह इधर- उधर झूलता रहा। कभी भी स्थायित्व नहीं आने पाया। क्लीयोपैट्रा वासना एवं महत्त्वाकांक्षा की आग में स्वयं मरी तथा अगणित लोगों को भस्मीभूत किया। उसे जो सौंदर्य का वरदान प्रकृति द्वारा मिला था वह एक अभिशाप सिद्ध हुआ। एक ऐसा अभिशाप, जो रोम एवं मिश्र के पतन का कई दशकों तक कारण बना। सौंदर्य की देवी क्लीयोपैट्रा मिश्र की एक ऐसी कलंक थी, जिसके कलुषित जीवन ने समूचे साम्राज्य को भ्रष्ट किया।
उसका उदाहरण बताता है कि सौंदर्य के साथ यदि चरित्रनिष्ठा न जुड़ी हो, तो वह उद्धत उत्पात के रूप में भड़कता व अनेक के विनाश का कारण बनता है।
उद्धत प्रदर्शन भी अपराध
जो अहंता मद के में चूर होकर प्रदर्शन से वाहवाही लूटना चाहते हैं, वे भी एक प्रकार के अपराधी हैं।
एक व्यापारी ने छोटे बच्चे को खिलाने के लिए नौकर रखा। उसे बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण पहनाकर नौकर को देता। एक दिन चोर पीछे लगा और नौकर की नजर बचते ही बच्चे को उठाकर भाग गया। आभूषण उतार लिए और बच्चे को मार कर कुँए में डाल दिया।
नौकर को बच्चा न मिला, तो व्यापारी को खबर दी। उसने सारे नौकर और दूत पता लगाने भेजे। कुएँ में मरा बच्चा मिल गया और एक वृक्ष की कोंतर में बैठा चोर भी। लाश और चोर को राजा के सम्मुख पहुँचाया गया। चोर को मृत्युदंड मिला और व्यापारी का सारा धन जब्त कर लिया गया। सर्वसाधारण के बीच उन्हीं की तरह न रहकर अपनी संपन्नता का उद्धत- प्रदर्शन भी छोटा अपराध नहीं समझा गया।
जिस दुष्प्रवृत्ति से चोर को प्रेरणा मिली और उसकी नीयत बदली, वह निष्पक्ष न्यायाधीश की दृष्टि में क्षम्य अपराध नहीं। अपव्यय, प्रदर्शनवृत्ति एवं अनाचार परस्पर संबंधित दुष्प्रवृत्तियाँ हैं।
आखिर खुद का ही नुकसान किया
अनावश्यक आवेश एवं विशेष व्यक्ति को संत्रस्त करना अंततः दुःख पहुँचाता है।
एक साँप को बहुत गुस्सा आया। उसने फन फैलाकर गरजना और फुसकारना शुरू किया और कहा-'' मेरे जितने भी शत्रू हैं, आज उन्हें खाकर ही छोडूँगा। उनमें से एक को भी जिंदा न रहने दूँगा। '' मेंढक, चूहे, केंचुए और छोटे- छोटे जानवर उसके उस गुस्से को देखकर डर गए और छिपकर देखने लगे कि आखिर होता क्या है ? साँप दिन भर फुसकारता रहा और दुश्मनों पर हमला करने के लिए दिन भर इधर- उधर बेतहाशा भागता रहा।
फुसकारते- फुसकारते उसके गले में दर्द होने लगा। शत्रु तो कोई हाथ आया नहीं, पर कंकड़- पत्थरों की खरोंचों से उसकी सारी देह जख्मी हो गई, शाम को चकनाचूर होकर वह एक तरफ जा बैठा।
गुस्सा करने वाला शत्रुओं से पहले अपने को ही नुकसान पहुँचाता है।
ऐसों के प्रति उपकार भी बुरा
यही बात उन नर पामरों पर भी लागू होती है, जो दूसरों के उपकारों को भुलाकर उनसे कृतघ्न व्यवहार करते हैं, पर पीड़न में रस लेते हैं एवं समय आने पर पशु- प्रवृत्तियों के वशीभूत हो, उनका कुछ भला करने के स्थान पर बर्बरता से पेश आते हैं। इनकी, भी आज जन समुदाय में कोई कमी नहीं।
एक राजकुमार बड़े दुष्ट स्वभाव का था। नौकर भी उससे प्रसन्न न थे। नदी में नहाते हुए पैर फिसला और बह गया। नौकरों ने मुँह फेर लिया। संयोगवश एक लकड़ी का मोटा लट्ठा बहता आ रहा था। उस पर एक सर्प, एक चूहा भी बहते-बहते चढ़ गए थे। राजकुमार का भी दाँव लग गया और वह भी उस पर चढ़ गया। नदी तट पर एक साधु की कुटिया थी। उसने लट्ठे के साथ बहते प्राणियों को देखा, तो जान जोखिम में डालकर लट्ठे को किनारे पर खींच लाए। रात्रि डरावनी काली थी और ठंडक कड़ाके की थी। सो उसने लट्ठे को एक ओर से जलाकर गर्मी उत्पन्न की। तीनों प्राणियों को तपाया और जो कुटिया में था, तीनों को खाने के लिए दिया। भोर होने पर वर्षा थमी, तो सर्प ने साधु से कहा-'' मेरा नाम मधुप है, इसी जंगल में रहता हूँ। आवश्यकता हो, तो पुकारना। मेरे बिल में धन है, सो दूँगा। '' चूहे ने भी साधु महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और कहा- '' जब आपको ईंधन की आवश्यकता हो, तब आवाज दें, समीप ही रहता हूँ, मेरा नाम कुसुम है। पौधे और टहनियाँ काटकर आपके लिए ईंधन- समिधाएँ जुटा दिया करूँगा। ''
अब राजकुमार की बारी थी। राजकुमार ने कड़ककर कहा-'' तुमने मेरा उचित सम्मान नहीं किया, सो बदला लूँगा। '' घर पहुँचते ही उसने नौकर भेजे और साधु की झोपड़ी तोड़- फोड़कर फिंकवा दी। उन्हें अन्यत्र दूसरी बनवानी पड़ी। वे सोचते रहे, कृतघ्न की तुलना में तो साँप और चूहे अच्छे।
मनुष्य के दुष्कृत्यों के समक्ष जीव- जंतुओं की बर्बरता भी कभी- कभी छोटी पड़ जाती है। ऐसे दुष्ट आचरण वाले व्यक्ति वस्तुतः मानवी काया में पिशाच के समान हैं।
भेड़िया और सियार
एक भेड़िये के गले में हड्डी अटक गई। वह सियार के पास पहुँचा और बोला-'' आपकी लंबी थूथनी है। कृपा करके मेरे गले में उसे डालकर हड्डी निकाल दीजिए, उसने निकाल दी। ''
एक दिन सियार को भेड़िये की सहायता की आवश्यकता पड़ी। पिछला अहसान याद दिलाया। भेड़िये ने कहा-'' मेरा यह अहसान क्या कम है, जो मुँह के अंदर पहुँची हुई, तुम्हारी गरदन बख्श दी। ''
वस्तुतःदुष्टों से प्रत्युपकार की आशा कभी नहीं करनी चाहिए।
लोभी ने जोखिम उठाई
एक शिकारी ने हाथी का शिकार किया और उसके दाँत निकाल लिए। इतने में एक सर्प निकला, उसने शिकारी को काट खाया, वह गिर पड़ा, हाथी के मरने से एक खरगोश का कचूमर पहले ही निकल चुका था। एक सियार उधर से निकला, तो इतने शिकार एक साथ पडे़ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। महीनों के लिए भोजन मिल गया। उसने शिकारी का धनुष पड़ा देखा, उसमें ताँत को प्रत्यंचा लग रही थी। पहले इस छोटी खुराक को खत्म कर लें, तब बडो़ं पर हाथ डालेंगे। यह सोचकर उसने ताँत को जैसे ही चबाया, वैसे ही वह टूटी और धनुष का सिरा उसके मुँह में जोर से लगा और वहीं ढेर हो गया।
लालची और अदूरदर्शी इसी प्रकार शहद के लोभ में जान गँवा बैठने वाली मक्खी की तरह जोखिम उठाते हैं।