Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-3
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यौवने योजनास्याच्च भौतिकोत्पादनस्य सा। प्रगतेश्चाऽपि स्वस्थाऽस्ति स्यावलम्बनसंस्थितेः ।। २६ ।। सार्वभौमसमृद्धेश्च समय: शुभ एष तु। उपयोगिश्रमासक्तैः समृद्ध्यै भाव्यमेव च ।। २७ ।। प्रयासोऽयं गृहस्थस्य धर्मस्यैवाङ्गतां गत:। जीवनस्यार्धमस्त्येतद् भौतिकेभ्यस्तु निश्चितम् ।। २८ ।। प्रयोजनेभ्य एवाऽपि स्यार्थपार्थ्यहेतवे। ब्रह्मरचर्ये गृहस्थे च परेषामात्मनस्तथा ।। २९ ।। शारीरिक्यास्तथा तस्या मानसिक्या अपि त्विह। सामाजिक्यास्तथाऽऽर्थिक्याः समृद्धि: क्रियतेऽभितः ।। ३० ।। निश्चितं शेषमर्धं च परमार्थस्य वृद्धये। भावनायाश्चरित्रस्य सत्प्रवृत्तेश्च वृद्धये ।। ३१ ।।
भावार्थ - युवावस्था में भौतिक उत्पादन और प्रगति की योजना सामने रहनी चाहिए। अपने स्वावलंबन और सार्वजनिक समृद्धि के संवर्द्धन का ठीक यही समय है। उपयोगी श्रम में संलग्न रहकर व्यापक समृद्धि के लिए प्रयत्नरत होना चाहिए। यह प्रयास गृहस्थ धर्म का ही अंग है आधा जीवन भौतिक प्रयोजनों के लिए और स्वार्थ- परमार्थ प्रयोजनों के लिए निर्धारित है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में अपनों तथा अन्यान्यों को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि का सर्वतोन्मुखी संवर्द्धन किया जाता है। शेष आधे जीवन को पारमार्थिक, भावनात्मक, चारित्रिक एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिए नियोजित रखा जाता है ।।२६-३१।।
व्याख्या - जहाँ गृहस्थाश्रम में व्यक्ति युवा व बल संपन्न होने के कारण स्वयं परिवार एवं समस्त समुदाय की समृद्धि बढ़ाने का प्रयास करता है, वहाँ अंतिम दो आश्रमों, वानप्रस्थ व संन्यास में सारी क्षमताएँ दूसरे को ऊँचा उठाने, उनका भावनात्मक उत्कर्ष करने हेतु नियोजित कर दी जाती हैं। आयुष्य के पूर्वार्द्ध को मूलतःबहिरंग के विकास हेतु, बल- सामर्थ्य, वैभव उपार्जन की पाठशाला माना जा सकता है, तो उत्तरार्द्ध को समुदाय के गुण, कर्म, स्वभाव की परिष्कृति हेतु, समाज में सत्प्रवृत्तियों के विस्तार हेतु नियोजित एक कर्मशाला कहा जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य- गृहस्थ एवं वानप्रस्थ- संन्यास का सुविभाजन कार्यक्षेत्र है। कहीं किसी भी प्रकार व्यक्ति के समग्र- विकास जीवन- व्यवस्था की अपेक्षा- अवहेलना इससे नहीं होती और न सुव्यवस्थित निर्धारण के कारण कर्तव्य- संपादन में कोई कठिनाई ही आती।
युवावस्था पुरुषार्थ का प्रतीक है। पुरुषार्थ से ही विजयश्री मिलती है। अथर्ववेद में कहा गया है-
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य अहित:। गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनंजयो हिरण्यजित् ।। -अथर्व. ७/५०/८० अर्थात्, मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है।मेरे बाएँ हाथ में विजय है। मैं गाय, अश्व, धन और सुवर्ण को जीतने वाला होऊँ। अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा सभी प्रकार की श्री मुझे प्राप्त हो।
पौरुष की कसौटी का समय
युवावस्था में पौरुष, बल- पराक्रम, स्फूर्ति अपनी पराकाष्ठा पर होते हैं। जो इसे सुनियोजित करते हैं, वे कम आयुष्य में ही धन्य बनते हैं।
रात को १२ बजे कोर्सिका के सेनापति ने एक छोटे से पदाधिकारी को बुलाकर पूछा- '' यदि आपको इसी वक्त दुश्मन के ठिकाने पर भेजा जाय, तो आप इसे क्या समझेंगे ?''
'' अपना परम सौभाग्य। इसलिए कि अपने पौरुष की कसौटी का यही तो सबसे अच्छा समय होगा। '' यह उत्तर देने वाला और कोई नहीं नैपोलियन बोनापार्ट था, जो कुल २३ वर्ष की आयु में ब्रिगेडियर जनरल बन चुका था।
सच्चा तप
श्रम ही वह देवता है, जो सारी सिद्धियों का स्वामी है। आयुष्य के पूर्वार्द्ध में इसके संपादन हेतु ही विधाता ने मनुष्य को शक्ति संपन्न बनाया है। जब भी इसकी उपेक्षा होती है, समाज अव्यवस्थित हो जाता है।
राजा विडा़ल मुनि वैवस्वत को प्रणाम कर चुपचाप बैठ गए। सूक्ष्मदर्शी गुरु ने जान लिया कि विडा़ल किसी गंभीर चिंता से व्याकुल हैं। उन्होंने पूछा- '' विड़ाल तुम आज अशांत से दिखते हो। तुम्हें कोई चिंता सता रही हो, तो बताओ ?'' शिष्य ने अपनी अंतर्वेदना को प्रकट करते हुए कहा, '' देव ! न जाने क्यों प्रजाजन अशांत हैं, लोग धर्म और शांति से विमुख हो रहे हैं। धन- धान्य की कमी होती जा रही है, लोग परस्पर स्नेह - भाव से नहीं रहते, अपराध वृत्ति भी वृद्धि पर है। '' वैवस्वत ने कहा- '' वत्स ! जिस देश में लोग कठोर परिश्रम से जी चुरावें, जो समाज श्रम को सम्मानपूर्ण स्थान न दे, वहाँ श्री- समृद्धि कैसे रह सकती है? श्रम को ही '' तप '' समझकर यदि साधना की जाय, तो समाज के ये दोष स्वयमेव दूर हो, जाँय। ''
लगन के धनी हेडगेवार
युवावस्था का पराक्रम एक बहुमूल्य संपदा है। डॉ० हेडगेवार ने डॉक्टरी पास तो की, पर उसे व्यवसाय नहीं बनाया। उन्हें देश का पिछड़ापन बहुत दुःखे देता था और चाहते थे कि प्राणवान युवकों की ऐसी टोली निकले, जो समूची जाति में प्राण फूंके। उनने छः छात्रों को लेकर राष्ट्रीय सेवक संघ की स्थापना की । संगठन को इतना बढ़ाया, जो आशा से बहुत अधिक था। उनके स्वयं सेवक कांग्रेस का बहुत काम करते रहे। वे स्वयं भी राष्ट्रवादी थे, पर गुंडागर्दी किसी की भी सहन न कर पाते थे। उनके जीवन में घटित हुई अगणित घटनाएँ ऐसी हैं, जिससे उत्कृष्ट देशभक्ति और नवसृजन की आकुलता का पता चलता है। ऐसे ही चरित्रवान् व्यक्ति के माध्यम से स्थापित संगठन एक महती शक्ति बनकर उभरे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
आदर्श दम्पत्ति
भले ही गृहस्थाश्रम में रह रहे हों ,यदि लगन हो, तो उत्साह का सुनियोजन कर क्या कुछ नहीं किया जा सकता ?
जापान की एक लड़की हाँनि बचपन से ही आदर्शवादी साहित्य पढ़ती और सोचती, विलासिता का जीवन न जीकर आदर्शों का पोषण करना चाहिए। उसने मैट्रिक पास करते ही शिक्षिका की नौकरी कर ली, ताकि स्वावलंबन पूर्वक अधिक अध्ययन और सेवा कार्य कर सके।
'' होची '' पत्र में काम करने वाले एक युवक से उसका विवाह हो गया। वह साथी के साथ लेखन कला का अभ्यास करने लगी। इसके बाद दोनों ने मिलकर '' फुलिन नो टोमी" (महिला साथी) नामक पत्रिका निकाली।
संतोष इतने में भी न हुआ। उनने नारी जीवन की व्यावहारिक शिक्षा पर एक स्कूल खोला। सरकारी मान्यता नहीं मिली, क्योंकि सिर चाटने वाले पाठ्यक्रम को पूरा करना आवश्यक था। पर वे दंपत्ति गृहस्थ- जीवन की व्यावहारिक शिक्षा देना चाहते थे। लगन और व्यवस्था ने उस विद्यालय को भी इतनी प्रगति पर पहुँचाया, जिसे सुनने वाले तक को आश्चर्य होता है। लगनशील जो कर गुजरें, सो कम है।
प्रगतिशील नारी
दूसरी लड़कियों की तरह विवाह तो सुभद्राकुमारी चौहान का भी हुआ, पर उनने उसे बेड़ी नहीं बनने दिया। पति की मार्गदर्शिका बनकर उनने अपनी प्रतिभा का एक नया आदर्श उपस्थित किया। विवाह के बाद भी उनने अपनी पढ़ाई जारी रखी। पति को वकालत के पेशे से छुड़ाकर खंडवा के '' कर्मवीर '' का सह- संपादक बनाया और स्वयं भी उस माध्यम से अपनी लेखनी परिमार्जित करती रहीं।
कांग्रेस आंदोलन छिड़ा, तो मध्यप्रदेश की सबसे पहली महिला थीं, जो जेल गईं। उनके पति भी स्वतंत्रता संग्राम में जुट गए। स्वास्थ्य और धन की दृष्टि से उन्हें सदा अड़चन रही, पर उनने कभी भी अपनी दृढ़ता को झुकने न दिया। मध्यप्रदेश के जन- जागरण में उनका व्यावहारिक योगदान भी कम न था।उनकी कितनी ही रचनाएँ प्रकाशित हुईं और उच्चकोटि की मानी गईं। वे प्रगतिशील समाज के लिए एक अनुकरणीय राजमार्ग छोड़ गईं हैं।
मैं बंधन में नहीं बाधूँगा
कई व्यक्ति इसके अपवाद भी होते हैं। वे विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर जन्म लेते हैं, उन्हीं के लिए जीते हैं।
बात सन् १९१४ की है। एक दिन गुरुदेव टैगोर जी ने सी० एफ० एण्ड्रज से कहा-'' विवाह जीवन की पूर्णता है। प्रगति के मार्ग में पत्नी से पूरी- पूरी सहायता मिलती है और दोनों के सहयोग से विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं। सच्चा जीवन जीने के लिए मनुष्य को विवाह अवश्य करना चाहिए और आपने विवाह न करके बड़ी भारी भूल की है।
दीनबंधु एण्ड्रूज ने सहज भाव से उत्तर दिया- '' हाँ ! आपकी बात बिलकुल सत्य है। मैं भी अनुभव करता हूँ कि विवाह के बिना पवित्र प्रेम तथा पिता और पति के मोहक कर्तव्यों से मैं वंचित रहूँगा और मेरे जीवन का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। पर दाम्पत्य जीवन के सुख की जब मैं कल्पना करता हूँ , तो मेरा मन मुझे एक अन्य दिशा की ओर ही ले जाना चाहता है। ''
वह कहता है, '' तुम अपनी सेवाएँ राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित कर चुके हो। जब तक देश स्वतंत्र नहीं हो जाता, तब तक तुम्हारा कुछ नहीं, सब कुछ राष्ट्र का ही होगा । तुम मिशन में सर्विस करते हो, उसका क्या भरोसा ? फिर नौकरी छूट जाने पर घर- गृहस्थी के बोझ को सँभालने के लिए नौकरी की तलाश करोगे या राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लोगे '' और मेरे मन में उठने वाले यही विचार दाम्पत्य जीवन के रेशमी सूत्र में नहीं बँधने देते। दीनबंधु एण्ड्रूज आजीवन अविवाहित रहकर भारतवासियों को देशभक्ति का संदेश देते रहे।
सही चुनाव
आयुष्य के उत्तरार्द्ध में प्रवेश भी सोद्देश्य होना चाहिए। यदि उसकी सार्थकता न हो, तो समयक्षेप न करना ही अच्छा।
एक संन्यासी गृहस्थ छोड़कर कुटी बनाकर गंगा के किनारे रहने लगा। साधुओं से ही निरंतर उसका संपर्क रहता। दो साधुओं को दस पैसा भिक्षा के सिलसिले में आपस में सिर फोड़ते देखा। एक विद्वान् के प्रवचन उसे बहुत अच्छे लगते थे। उन्हें रोज सुनने जाता। बाद में मालूम पड़ा कि एक महिला को उड़ा ले जाने के सिलसिले में उसे पुलिस पकड़ ले गई। ऐसे ही साधुओं की अनेक करतूतें देखकर उसने निश्चय किया कि इनसे तो गृहस्थ अच्छे। वह वापस अपने घर लौट आया।
बहुतों ने अच्छा कहा, बहुतों ने बुरा। पर वह गृहस्थ में साधु रहकर अपनी दिनचर्या चलाने लगा । उसने एक- एक मुट्ठी अनाज हर घर से संग्रह करके, अपने गाँव में पाठशाला स्थापित की। उस क्षेत्र में विद्या के प्रचार की बहुत कमी थी। उसने घूम- घूम कर बीस पाठशालाएँ खुलवाईं। पीछे कितने ही हाईस्कूल बन गए। उसकी आत्मा ने कहा- '' ऐसे साधु बनने की अपेक्षा सद्गृहस्थ रहकर सेवा कार्यों में निरत रहना अच्छा। ''
पता ही न चला
आश्रम कोई भी हो, सार्थकता समय के उपयोग की है। हर अवसर को प्रफुल्ल मन: स्थिति से लिया जाना चाहिए। हजरत नूह को एक हजार वर्ष की आयु मिली । जब वे उसे पूरी करकेस्वर्ग गए, तो उनसे पूछा गया कि इतना समय उनने किस प्रकार काटा होगा।
नूह ने कहा-'' मुझे ऐसा लगा, मानों एक दरवाजे से घुसा और दूसरे से निकल आया। निरंतर कर्तव्य- पालन में इतना व्यस्त रहा कि समय का पता ही न चला। ''
देवसंस्कृतिरेतस्मै वानप्रस्थाश्रमस्य च। संन्यासस्य व्यधात् पूर्णां व्यवस्थां सुदृढामिह ।। ३२ ।। जनसंपर्कमाकर्तुमन्यान वा रचनात्मकान् । कार्यक्रमांश्च जागृत्यै सामर्थ्ये तु शरीरगे ।। ३३ ।। वानप्रस्थक्रमः सोऽयं निर्वोंढुं शक्यते जनैः । क्षीणायां वपुषः शक्तौ संन्यासी तु कुटीचरः ।। ३४।। एकदेशस्थितो दद्यात् साधनाया अथापि च। प्रेरणां शिक्षणस्यात्र पुण्यां हिताहितां सदा ।। ३५।।
भावार्थ- देव संस्कृति ने इसके लिए वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों की सुदृढ़ , अपने में पूर्ण व्यवस्था बनाई है। जन जागरण के लिए जन संपर्क एवं रचनात्मक कार्यक्रम संचालन योग्य शारीरिक सामर्थ्य रहते वानप्रस्थ निभाया जाना चाहिए। शारीरिक शक्ति क्षीण होने पर कुटीचर संन्यासी के रूप में एक स्थान पर रहकर पुण्यदायी लोकहितैषी साधना, शिक्षण एवं प्रेरणा संचार का काम सँभालना चाहिए ।। ३२- ३५ ।।
गृहस्थस्य विरक्तस्य वानप्रस्थस्य मध्यगः। वानप्रस्थसुसंस्कारान् स्वीकुर्वन्निवसेत् क्वचित् ।। ३६।। आरण्यके यथाकालं कर्तव्यानि निजानि च। निर्वोढुमनुगन्त्रीं च शिक्षामासादयेत्ररः ।। ३७।। साऽधुनाऽपि तथा कार्या कार्यं यच्च महत्वगम्। कर्तुं हस्तगतं तच्च पूर्वमावश्यकं ततः ।। ३८ ।। अनुभवं शुभमभ्यासं कुंर्यादिदमुच्यते। वानप्रस्थश्च दीक्षायाः शूभारम्भस्वरूपकम् ।। ३९ ।। वानप्रस्थाश्च स्वस्यास्य क्षेत्रस्य परिधेर्बहिः। दूरक्षेत्रेषु गत्वा ते सेवन्ते जनतां सदा ।। ४० ।।
भावार्थ- गृहस्थ और विरक्त -वानप्रस्थ के मध्यांतर में वानप्रस्थ संस्कार संयन्न करते हुए कुछ समय किसी उपयुक्त आरण्यक में रहकर अपने नए कर्तव्य- उतरदायित्व के निर्वाह में सहायक हो सकने वाली शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए तया साधना करनी चाहिए। हर महत्त्वपूर्ण कार्य को हाथ में लेने से पूर्व उसके लिए आवश्यक अनुभव एवं अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। यही वानप्रस्थ की दीक्षा का शुभारंभ स्वरूप है।वानप्रस्थ अपने परिचित क्षेत्र की परिधि से बाहर निकल कर दूर क्षेत्रों में सेवारत रहते हैं ।। ३६ - ४० ।।
व्याख्या- परमार्थ प्रयोजन के निमित्त, जनमानस का भावनात्मक परिष्कार करने के लिए देव संस्कृति की बड़ी ही सुंदर वानप्रस्थ एवं संन्यास के रूप में आश्रम व्यवस्था है, जो आयुष्य के उत्तरकाल में संपन्न होती है। पूर्वार्द्ध में अर्जित विद्या, संचित अनुभवों की संपदा से विभूषित व्यक्ति का यथाशक्ति, सर्वश्रेष्ठ लाभ समाज को मिले, इस व्यवस्था के मूल में यही तत्त्वदर्शन है। जब तक शरीर साथ दे, तब तक निरंतर समाज परिकर में भ्रमण करते हुए जनजागृति का अलख जगाया जाय, श्रेष्ठता का पक्षधर वातावरण बनाया जाय। जब शरीर बल क्षीण हो जाता है, वार्धक्य के कारण शक्ति उतनी नहीं रहती, तब संन्यास आश्रम ग्रहण कर किसी स्थान विशेष, आरण्यक, संस्कारित तीर्थ पर स्थिर हो आत्म परिष्कार, उन्नयन की साधना, जनमानस के परिष्कार हेतु लोक शिक्षण एवं धर्मधारणा के प्रसार- विस्तार का पुण्य कार्य संपन्न किया जाय। यही ऋषिगणों द्वारा निर्धारित व्यवस्था है, जो आदि काल से चली आ रही है।
वानप्रस्थ हेतु ऋषि आदेश देते हैं कि गृहस्थाश्रम के दायित्वों से निवृत्ति के तुरंत बाद स्वयं को इस पुण्य- प्रयोजन हेतु दीक्षित करना चाहिए। यह कार्य तीर्थ क्षेत्र, श्रेष्ठ संतों अथवा आरण्यकों में रहकर उनके मार्गदर्शन में संपन्न हो सकता है। हर कार्य के लिए समुचित शिक्षण अनिवार्य है। बिना शिक्षण के न तो कोई चिकित्सक बन सकता है, न ही अध्यापक। जब समाज रूपी विराट् तंत्र का लोक शिक्षण करना हो, तो इस विधा में प्रशिक्षित होना जरूरी है। तदुपरान्त कार्य क्षेत्र में निकला जाय, यह अपने परिचित संपर्क के क्षेत्र से अलग हो। इससे नयों के संपर्क में आने का अवसर मिलता है, झिझक खुलती है एवं पुराना परिकर न होने के कारण किसी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं रहता।
आध्यात्मिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाकर जीवन के उत्तरार्द्ध को इतना मृदुल और सरस बनाया जा सकता है, मानो नवीन जन्म ग्रहण किया गया है। जिस प्रयोजन के लिए यह शरीर मिला है, मानव जन्म का जो परम लक्ष्य है, वह पूर्वार्द्ध में यत्किंचित ही पूरा हो पाता है। अधिक उत्तम सुअवसर तो उत्तरार्द्ध में ही मिलता है। मानसिक उभार उतर जाने और परिवार का भार हलका हो जाने से मन भी अच्छी तरह लगता है और चित्त के डाँवाडोल होने की लुढ़कने- फिसलने की आशंका भी कम रहती हैं। मरण का दिन समीप आता देखकर परमार्थ की पुण्य पूँजी संग्रह करने के लिए, अगले जन्म में ऊँची स्थिति पाने के लिए उत्कंठा जागृत होती है और अधिक गंभीरतापूर्वक दिव्य जीवन की उन गतिविधियों को अपनाया जा सकता है, जो चढ़ती उम्र में प्राय: अरुचिकर और कठिन लगती थीं।
ब्रह्मविद्या कीं तत्त्वदर्शन ज्ञान साधना योगाभ्यास की तप- साधना, लोकमंगल की सेवा- साधना- यह तीनों अमृतमयी देवसरिताएँ मिलकर गंगा-यमुना-सरस्वती के मिलन, संगम का प्रयोजन पूरा करती हैं और तीर्थराज प्रयाग जैसी त्रिवेणी इस जीवन में प्रादुर्भूत होती है। यह अभिनव आनंद अपने ढ़ग का अनौखा है और ऐसा है, जिससे बालकपन, किशोरावस्था और यौवन में जो अर्जित किया गया था, उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही आनंदमयी विभूतियाँ उपलब्ध हो सकती हैं- होती हैं। संपदाओं से विभूतियों का स्तर हलका नहीं, भारी ही है। इसलिए पूर्वार्द्ध में जो उपार्जित किया गया था, उसकी तुलना में उत्तरार्द्ध की कमाई का मूल्य भी अधिक ही आता है। ऐसी दशा में परमार्थ परायण उत्तरार्द्ध में प्रवेश करने वाले को बाल्यकाल और यौवन के चले जाने का पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता, वरन् यही अनुभव होता है कि वह अल्हड़पन चला गया सो अच्छा ही हुआ, यह ढलती आयु ऐसे अनुदान- वरदान लेकर आई है, जिनका इस गधापच्चीसी के दिनों मिल ही सकना कठिन है। ऐसे चिंतन के रहते किसी को पूर्वार्द्ध के बीत जाने से दुःखी होने, पछताने की जरूरत नहीं पड़ती, वरन् यह अधिक महत्त्वपूर्ण अवसर हाथ लगने का संतोष ही होता है।
जीवन उतना ही सार्थक है, जितना कि सदुद्देश्यों के लिए जिया जाता है।
आयु पाँच वर्ष
एक वृद्ध से बादशाह नौशेरवाँ ने पूछा-'' आपकी उम्र कितनी है ?'' उसने कहा-''पाँच वर्ष ।'' इस पर आश्चर्य से उसने फिर पूछा-'' सो कैसे ?''
वृद्ध ने कहा-'' इतनी उम्र तो नर- पशुओं की तरह दिन गुजारने में बीत गई। अब पाँच वर्ष से जीवन- साधना में प्रवृत्त हुआ हूँ और मनुष्य जन्म सार्थक होते अनुभव किया है। इसलिए मेरी उम्र मनुष्य योनि में पाँच वर्ष ही हुई हैं। '' नौशेरवाँ का समाधान हो गया। वस्तुतः आयु उतनी ही सार्थक है, जितने में कुछ करने योग्य बन पड़ा।
फुरसत कभी नहीं मिली
आयु बीतती जाती है। प्रौढ़ावस्था आती है, पर व्यक्ति अपने ही बनाए बंधनों में जकड़ा उनसे उबर नहीं पाता। एक व्यवसायी और साधु में अक्सर भेंट होती रहती । साधु सत्संग में आने की कहता। व्यवसायी व्यस्तता का बहाना बना देता। धन बढ़ता गया और व्यस्तता बढ़ती गई। अधिक धन बढ़ जाने से उसने एक आलीशान मकान बनाया। दुकान से घर आया, तो पत्नी ने खिचड़ी परोसी। एक बोला- खाने की फुरसत नहीं, पहले जरा मकान की निगरानी कर आऊँ। देखकर निकल ही रहा था कि ऊपर से एक भारी पत्थर गिरा और सिर का कचूमर निकल गया। खिचड़ी जहाँ की तहाँ पड़ी रही।
प्राण निकलने पर बाहर आई आत्मा को साधु ने देखा और पूछा- अब सत्संग की फुरसत है क्या ? मृतात्मा ने पश्चात्ताप भरी आँखों से संत की ओर देखा और कर्मफल भुगतने के लिए आगे बढ़ गई।
प्रेरक इस्तीफा
कर्तव्य की पुकार व्यक्ति को बेचैन करती व वह काम करा लेती है, जिसके लिए मनुष्य का जन्म हुआ है।
नोबुल पुरस्कार विजेता और प्रख्यात लेखक विलियम फाकनर किसी जमाने में मिसिपिसी डाकखाने में एक मामूली क्लर्क थे। आयु का बहुमूल्य हिस्सा इस नौकरी में ही निकल चुका था। बहुमूल्य जीवन का बहुमूल्य उपयोग करने के लिए उनकी आत्मा बहुत तड़पती थी, पर वेतन देने वाले अधिकारी जरा भी अवकाश डाक के अतिरिक्त और कुछ करने के लिए देने को तैयार न थे। एक दिन वे बहुत उद्विग्न हो उठे और भविष्य की आजीविका का बिना कुछ विचार किए इस्तीफा लिखने बैठ गए । आवेश में लिखा वह इस्तीफा पोस्ट मास्टर जनरल के पास पहुँचा और वहाँ उसे स्वीकार भी कर लिया गया। इसके बाद वे साहित्य सृजन के कार्य में दत्तचित्त होकर लग गए। वह आवेश भरा इस्तीफा राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित रखा है और पर्यटकों के लिए वह एक कौतूहल की ही पूर्ति नहीं करता, एक प्रेरणा और दिशा भी देता है। इसमें लिखा है- '' पेट पालने के लिए दूसरों पर आश्रित रहना, उनके इशारों पर चलना तो पड़ता ही है, पुर मेरे लिए यह असह्य है कि पैसे के लिए ही बिका रहूँ और जिंदगी के कीमती क्षणों को ऐसे ही गँवाता, बर्बाद करता रहूँ। अब इस सर्वस्वीकृत ढर्रे पर चलते रह सकना मेरे लिए संभव न हो सकेगा। मैं कुछ ऐसा करूँगा, जो मुझे करना चाहिए। सो यह लीजिए मेरा ' इस्तीफा '। ''
भरपूर उत्साह, असीम जीवट
कर्मनिष्ठा में विश्वास रखने वाले आयु के बंधन में नहीं बँधते। वे सतत् उत्साह से भरे रहकर कर्तव्यपालन में लगे रहते हैं।
अमेरिका के प्रसिद्ध न्यायाधीश होम्स जब सेवानिवृत्त हुए तो उस अवसर पर एक पार्टी का आयोजन किया गया। इस पार्टी में विभिन्न अधिकारी, उनके मित्र, पत्रकार तथा संवाददाता सम्मिलित हुए थे। न्यायाधीश के पद से निवृत्त होने के बावजूद भी उनके चेहरे पर बुढ़ापा नहीं जवानी झाँक रही थी। पार्टी के दौरान ही एक संवाददाता ने उनसे पूँछा- '' अब इस वृद्धावस्था में तो आप आराम करेंगे या कुछ और। आपने अपने भावी जीवन का क्या कार्यक्रम बनाया ?''
'' वृद्धावस्था '' -बड़े आश्चर्य से होम्स ने कहा-'' क्या मैं वृद्ध दिखाई दे रहा हूँ। वस्तुतः मेरी जवानी तो अब आई है, क्योंकि लंबे समय से जिन कार्यों को मैं टालता रहा था, उन्हें अब प्रारंभ करूँगा।'' '' कौन से काम टाल रहे
थे आप जिन्हें अब पूरे करेंगे ?'' '' पहला काम तो यह कि बहुत समय से मैं बढ़ई का काम सीखना चाह रहा था, लेकिन अब तक इसका समय ही नहीं मिल पाया । अब बढ़ई का काम सीखने के साथ-साथ मैं विज्ञान का अध्ययन करूँगा, नए- नए खेल सीखूँगा और अपने मानसिक क्षितिज का विकास करूँगा। ''-होम्स बोले- '' और भले ही मैं बूढ़ा हो जाऊँ तो क्या, काम करना छोड़ूँगा थोड़े ही। काम करना छोड़ देने की अपेक्षा मैं मर जाना पसंद करूँगा। ''
समय बढ़ा दिया
प्रेसीडेंट लिंकन के एक मित्र ने कहा-'' आप काफी वृद्ध हो गए हैं, अब काम के घंटे कुछ कम कर देना चाहिए। '' लिंकन हँसे और बोले-'' श्रीमान् जी ! इस परिपक्व अवस्था से बढ़िया काम करने का और कौन समय होगा ?'' यह कहकर उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहकर काम के घंटों में १ घंटे की और वृद्धि कर दी। बोकर,फसल बनाई एक धनी ने अपनी चारों पुत्र वधुओं की बुद्धि परीक्षा लेने के लिए पाँच- पाँच धान के दाने दिए और कहा कि वह दो वर्ष बाद उनका लेखा- जोखा लेगा। एक बहू ने उन्हें कूड़े में फेंक दिया।
सोंचा घर में ढेरों है। ससुर जी जब माँगेगे, तब दे देंगे। दूसरी ने चिड़िया को चुगा दिए, तीसरे ने रूमाल में बाँधकर उस अमानत को सुरक्षित रखा। चौथी ने पास की जमीन में उन्हें बोया और कई फसलें एक साल में काटते हुए बढ़ाकर उन्हें एक मन बना लिया। कई वर्ष बाद ससुर ने चावलों का ब्यौरा माँगा, तो जिसने बोकर फसल बढ़ाई, उसे बुद्धिमान माना, प्रशंसा की और उपहार दिया ।
भगवान् ने पाँच तत्व और पाँच प्राणों का यह जीवन दिया है, जो उसका गौरव बढ़ाते हैं, वे भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करते हैं। वानप्रस्थ में व्यक्ति समाजरूपी क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों के बीज बोता और लहलहाती फसल पाता है।
ऋण चुकाओ
विनोबा के बड़े भाई बालकोवा एक बार क्षयग्रस्त हुए। दोनों फेफड़े सड़ गए।उनको प्राकृतिक उपचार बताया। अच्छे हो गए, तो उनने जीवन लौट आने पर शेष आयु को बापू के आदेश पर खर्च करने का निश्चय किया। उन्हें उरूलीकाँचन का प्राकृतिक चिकित्सालय चलाने के लिए भेज दिया और कहा जिस उपाय से आपके प्राण बचे हैं , उसी पर अन्य लोगों को भी चलाकर उनकी सेवा कीजिए। बालकोवा ने वही किया।
जीवनभर प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से नया जीवन एवं जीवन जीने की कला सिखाने में लगे रहे। मनुष्य पर समाज ऋण जो चढ़ा है, उससे मुक्ति हेतु ही वानप्रस्थ बनाया गया हैं।
स्वर्ग और नरक जीने की कसौटी
कर्तव्य सर्वोपरि है। भगवद्भक्ति उसी का एक अंग है। आश्रम कोई भी हो, तथ्य यही रहेगा। यमदूत और देवदूत मृतकों की जीवन गाथा पूछकर स्वर्ग, नरक में ले जाते थे। एक संत के पास वे पहुँचे, तो उनने बताया कि वे भरी जवानी में संन्यासी हो गए और जप- तप करने लगे। यहाँ तक कि छोटे- छोटे बच्चे, पत्नी तथा माता के रोने- बिलखने तक की परवाह न की। ऐसी है मेरी भक्ति।
उस संत को यमदूतों ने अपनी कूड़ा गाड़ी में लादकर नरक पहुँचा दिया। धर्मराज ने कहा-'' कर्तव्यों का परित्याग करके कोई भक्ति नहीं हो सकती। '' पहले तैयार हो जाओ
व्यक्ति को हर परिस्थिति में अपने पुराने कुसंस्कारों से मुक्त होने की रीति- नीति सीखना चाहिए। गृहस्थ से वानप्रस्थ की मध्य बेला उससे यही अपेक्षा रखती है।
मिट्टी ने कुम्हार से कहा-'' मुझे ऐसा सौभाग्यशाली दीपक बना दीजिए जो भगवान् के मंदिर को भी प्रकाश से भर सकूँ। ''
कुम्हार ने कहा-'' यह कुछ भी कठिन नहीं। तुम कुचले जाने, चाक पर घूमने और आँवे में पकने भर को तैयार हो जाओ। मेरे हाथ तुम्हारी इच्छा पूर्ति में पूरी- पूरी सहायता करेंगे। ''
हर व्यक्ति के लिए ऐसे अवसर आते हैं। कौन कितना, किस स्थिति में स्वयं को लचीला बनाता और परिस्थितियों के अनुरूप बदलता है, इसी पर उसकी आयुष्य की सार्थकता निर्भर है।
तप की कसौटी
श्रेणिक पुत्र मेघ ने भगवान् बुद्ध से मंत्र दीक्षा ली और उनके साथ ही रहकर तपस्या में लग गए। बिरक्त मन को उपासना से असीम शांति मिलती है। कूड़े से जीवन में मणि- मुक्ता की सी ज्योति झिलमिलाने लगाती है, मन- वाणी-चित्त अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं। साधक को रस मिलने लगता है। तो मेघ भी अधिकांश समय उसी में लगाते। किंतु भगवान् बुद्ध की दृष्टि अत्यंत तीखी थी। वह जानते थे रस सब एक हैं, चाहे वह भौतिक हों या आध्यात्मिक। रस की आशा चिर नवीनता से बँधी है, इसीलिए जब तक नयापन है, तब तक उपासना में रस स्वाभाविक है, किंतु यदि आत्मोत्कर्ष की निष्ठा न रही तो मेघ का मन उचट जाएगा, अतएव उसकी निष्ठा को सुदृढ़ कराने वाले तप की आवश्यकता है। सो वे मेघ को बार- बार उधर धकेलने लगे।
मेघ ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था। अब उन्हें रूखा भोजन दिया जाने लगा, कोमल शैय्या के स्थान पर भूमि शयन, आकर्षक वेषभूषा के स्थान पर मोटे वल्कल वस्त्र और सुखद सामाजिक संपर्क के स्थान पर राजगृह आश्रम की स्वच्छता, सेवा- व्यवस्था एक- एक कर इन सबमें जितना अधिक मेघ को लगाया जाता, उनका मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्त्वाकांक्षाएँ सिर पीटतीं और अहंकार बार- बार आकर खड़ा होकर कहता-'' ओ रे मूर्ख मेघ! कहाँ गया वह रस। जीवन के सुखोपभोग को छोड़कर कहाँ आ फँसा। '' मन और आत्मा का द्वंद्व निरंतर चलते- चलते एक दिन वह स्थिति आ गई जब मेघ ने अपनी विरक्ति का अस्त्र उतार फेंका और कहने लगे-'' तात ! मुझे तो साधना कराइए तप कराइए जिससे मेरा अंतःकरण पवित्र बने। ''
तथागत मुस्कराए और बोले-'' तात ! यही तो तप है। विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक स्थिरता- यह गुण है। जिसमें आ गया, वही सच्चा तपस्वी, वही स्वर्ग विजेता है। उपासना तो उसका एक अंग मात्र है। '' मेघ की आँखें खुल गईं और वे एक सच्चे योद्धा की भांति मन से लड़ने को चल पड़ें।
वानप्रस्थ बिना मन के मल्लयुद्ध को जीते नहीं लिया जाना चाहिए। वेश वैसा रहे व मन कहीं औंर, तो वह जीवन तो भौतिक जीवन से भी गया बीता है। दीक्षा सही व्यक्ति को, सही समय पर
रैदास के गुरु स्वामी रामानंद साधुवेषधारियों से परिवार के उत्तरदायित्व पूर्ण होने न होने की बात पूछते थे और जिनकी जिम्मेदारियाँ शेष थीं, जो भावावेश में या मुफ्त का निर्वाह- सम्मान पाने के लिए गेरुआ वस्त्र पहने फिरते थे, उन्हें समझा- बुझाकर गृहस्थ में रहकर परमार्थ परायण होने की शिक्षा देते थे।
छत पर ऊँट
बलख के बादशाह इब्राहीम भगवान् की भक्ति में दखल रखते थे। वे अमीरी और भक्ति दोनों में प्रवीण होना चाहते थे। एक रात उनने छत पर खटपट की आवाज सुनी। उनने चौंककर पूछा- "कौन है ?'' जवाब मिला-'' तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ। ''
इब्राहीम ने संतोष की सांस लेते हुए दूसरा प्रश्न पूछा-'' तो फिर कौन हो ? छत पर क्या कर रहे हो ?'' उलटकर जवाब आया-'' ऊँट खो गया है, उसे यहाँ तलाश कर रहा हूँ। '' इब्राहीम हँस पड़े, बोले- "भला छत पर कहीं ऊँट तलाश किया जाता है। '' उलट कर आवाज आई-'' तो अमीरी में भी कहीं भक्ति खोजी जा सकती है। '' इब्राहिम की आँखें खुल गई उनने भोर होते ही फकीरी ले ली और सही ढंग से इबादत में जुट गए।
चरैवेति- चरैवेति
चट्टान रास्ते में बैठी थी। नदी का प्रवाह रोककर बोली -'' बहन !थोड़ी देर सुस्ता लो। यह दुनियाँ कृतघ्नों से भरी है। तुम्हारी उदार तत्परता की कोई सराहना न करेगा। "नदी ने चट्टान की सद्भावना को सराहा तो , पर रुकी नहीं। बोली-" मुझे चलने में जो आत्मसंतोष मिलता है, वही क्या कम है, जो लोगों की कृतज्ञता- कृतघ्नता को देखने का प्रयत्न करूँ ? मेरा धर्म तो सतत् चलते रहना ही है, जिसे निबाहने का मैं प्रयास करती हूँ। ''
सरिता की तरह वानप्रस्थ का अर्थ है '' चलते रहो- चलते रहो। रुको मत। अपनी प्रतिभा के अनुदान सबको बाँटते चलो।