Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -9
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मेलापकैः क्रियन्त स्म धार्मिकैर्देवसंस्कृतेः। उन्नतेर्हेतवेऽनेके भव्यास्तत्र पुरोगमाः ।। ६७।। दिनेषु येषु चाभूवन् धार्मिकायोजनानि तु। स्थाने स्थाने झटित्येषु दिवसेषु तदा तु सा ।। ६८ ।। धर्मधृतेः प्रौढताऽथ प्रखरत्वमितस्ततः। सर्वत्र ददृशे येन सदाचारोऽभ्यवर्धते।। ६९ ।।
भावार्थ- धार्मिक मेले देवसंस्कृति के उन्नयन की आवश्यकता विभिन्न मनोरंजक कार्यक्रमों द्वारा संपन्न करते दे। जिन दिनों ऐसे छोटे- बड़े धर्म आयोजन स्थान- स्थान पर जल्दी- जल्दी होते रहते थे, उन दिनों धर्म धारणा की सर्वत्र प्रौढ़ता प्रखरता दृष्टिगोचर होती थी जिससे सदाचार में वृद्धि होती रही।।६७ - ६९।।
अमुकेषु हि तीर्थेषु पर्वस्नानदिनेषु तु । गमने महत्वसंख्यानं दृष्ट्या -चैवैतया कृतम् ।। ७० ।। धर्मप्रेमाण एतस्मिन् समये स्युरुपस्थिताः। संख्यायां विपुलायां ते विचाराणां परस्परम् ।। ७१ ।। विनिमयेन समर्थेन मार्गदर्शनकेन च। उद्दिश्य प्रगतिं चाऽत्र कालिकीं किञ्चिदेव च ।। ७२ ।। उच्चस्तरं चिन्तयेयुःकुर्युर्निधारणं तथा। महत्वपूर्णं राष्ट्रं स्यादेकताबद्धमन्ततः ।। ७३ ।।
भावार्थ- पर्व स्नान के लिए अमुक तीर्थों में पहुँचने का माहात्म्य इसी दृष्टि से कहा गया है कि धर्मप्रेमी इन अवसरों पर बड़ी संख्या में पहुँचा करें और परस्पर विचार- विनिमय एवं समर्थ मार्गदर्शन में सामयिक प्रगति के लिए कुछ उच्चस्तरीय सोचा और महत्त्वपूर्ण निर्धारण किया करें जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र एकता के सूत्र में बँधा रहे ।। ७०- ७३।।
कार्यान्वितं विधातुं च तद्धि निर्द्धारणं ततः। समूहसहयोगेन योजनाबद्धरूपतः ।। ७४ ।। व्यवस्था सम्भवेत्तत्र यतः प्राणा इव स्मृता। समूहशक्तिर्दैव्यास्तु संस्कृतेरुत्तमा नृणाम् ।। ७५ ।। आधारमिममााश्रित्य दुर्गा तामवतार्य च । मुक्ता विपद्भ्यो देवास्ते गतं वर्चस्यमाप्नुवन् ।। ७६ ।। सत्य्रपवृत्तिमिमां कर्तुं स्थिरामुद्बोद्धुमप्यथ । धर्मोत्सवा महत्वेन पूर्णाः सामूहिका मता: ।। ७७ ।।
भावार्थ- साथ ही उस निर्धारण को कार्यान्वित करने के लिए सामूहिक सहयोग से योजनाबद्ध व्यवस्था भी बन जाया करे। सामूहिकता देव संस्कृति का प्राण है, इसी आधार पर दुर्गा का अवतरण करके देवताओं ने विपत्ति से छुटकारा पाया और अपना खोया हुआ वर्चस्व लौटाया था । इस सत्प्रवृत्ति को बनाए रहने और उभारने के लिए सामूहिक धर्मोत्सवों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पाया गया।। ७४- ७७।।
व्याख्या- सामूहिक आयोजनों के रूप में यज्ञादि के अतिरिक्त कुंभ मेलों, विभिन्न संस्कारित सिद्धपीठों- तीर्थस्थलों पर स्नानादि के लिए एकत्र होने के पीछे सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र एक ही रहा है- धर्मधारणा का चहुँ ओर विस्तार । इसके अतिरिक्त ऋषिगणों का चिंतन सांस्कृतिक एकता पर केन्द्रित रहा है। भिन्न- भिन्न रीति- रिवाज, प्रचलन, परिवेष एवं स्थान विशेष की विशेषता के कारण पाई जाने वाली भिन्नता के बावजूद इस राष्ट्र की एक विशेषता रही है- विभिन्नताओं में भी एकता। जहाँ सुदूर स्थानों से पहुँचे अगणित व्यक्ति उच्चस्तरीय आध्यात्मिक मार्गदर्शन एक ही जगह बैठकर प्राप्त करें, वही स्थान आरण्यक तीर्थ कहलाता था। मात्र कर्मकाण्ड के रूप में चिह्न पूजा, उस कष्ट साध्य यात्रा का लक्ष्य बनाकर आज की परिस्थतियों में तो विडंबना भर बनकर रह गई है। उस उद्देश्य को भुला दिया गया है, जो कि परमपावन एवं दूरदर्शितापूर्ण था।
सामूहिकता प्यारी है प्रभु को भी
आज की स्थिति ऐसी है कि लोग एक साथ रहते हुए भी अपने आपको एकाकी अनुभव करते हैं। सामूहिकता की प्रवृत्तियाँ क्षीण हो गई हैं, उनके उपयोग की क्षमता समाप्त हो गई है। इसीलिए चाहते हुए भी उसका लाभ उठाया जाना संभव नहीं होने पाता है। पर्वों तथा सामूहिक आयोजनों द्वारा जन स्तर पर सामूहिक चेतना जागरण का प्रयास किया जाता है। एकाकीपन की अपेक्षा सामूहिकता में अधिक बल है। लोहे की लंबी शहतीर को एक व्यक्ति उठाना चाहे, तो नहीं उठा सकता। अनेक आदमी मिलकर बड़े- बड़े पहाड़ उठा देते हैं। बड़ी- बड़ी असुर शक्तियों को भी कुचल देने की क्षमता केवल सामूहिकता में है। प्रार्थना के संबंध में भी यही नियम लागू होता है। आत्म कल्याण के लिए की गई करुण पुकार पूर परमात्मा द्रवित होता है, किंतु जब इस पुकार में सैकड़ों मनुष्यों का करुण स्वर समा जाता है, तो अनंत गुनी शक्ति प्रादूर्भूत होती है। सामूहिकता की प्रतीक दुर्गा शक्ति का भी यही रहस्य है कि परमात्मा एक की अपेक्षा अनेक की पुकार पर अधिक ध्यान देते हैं। सामूहिकता का प्रभाव तात्कालिक होता है।
सुख में, दुःख में, मंगल में, संकट में मिल- जुलकर देवताओं का आह्वान करना, उनके पूजन- आराधन का विधान, स्तवन और कीर्तन के विविध धर्मानुष्ठानों का वर्णन शास्त्रों में आया है। वैदिक काल के ऋषि- महर्षि और सर्वसाधारण जन मिलकर सामूहिक प्रार्थना किया करते थे। यज्ञों पर सामूहिक तौर पर विशेष स्वर तालों द्वारा अनेक प्रयोजनों की सद्यः सिद्धि के उदाहरण धर्मग्रंथों में पाए जाते हैं। ईश्वरांशों के अवतार सामूहिक प्रार्थनाओं के प्रभाव से हुए हैं। अभावों की पूर्ति, मनोरथों की सिद्धि के लिए, अपने विघ्नों को निवारण करने के लिए बाधा विपत्तियों को दूर भगाने के लिए जो प्रभाव मिल- जुलकर की गई प्रार्थना से होता है, वह अकेले से नहीं बन पाता।
श्रुति का आदेश है-'' सहस्त्रैः साकमर्चत '' हे पुरुषो ! सहस्रों मिलकर देवार्चन करो। ऋग्वेद संसार की सबसे प्राचीनतम रचना है। सामगान की ऋचाएँ भी सामूहिक रूप से ही गाई गई हैं।
संत मैकेरिस ने लिखा है कि तुम अकेले गाओगे, तो तुम्हारी आवाज थोड़ी दूर तक जाकर नष्ट हो जाएगी। मिलकर प्रार्थना करोगे, तो उसका नाद प्रत्येक दिशा में व्याप्त होगा। प्रार्थना करने का वैज्ञानिक रहस्य यह है कि हमारे पास उतनी सामर्थ्य कहाँ है, जितने से बाधाओं का विमोचन कर सकें, इसलिए अनंत शक्तिशाली परमात्मा से शक्ति तत्व खींचकर हम सफलता की कामना करते हैं। आवाज जितने अधिक लोगों की होगी, उतनी ही बुलंद होगी, प्रार्थना में जितने अधिक व्यक्तियों का भावपूर्ण स्वर सम्मिलित होगा, उतनी ही अधिक बड़ी शक्ति प्रादुर्भूत होगी। महात्मा गांधी कहा करते थे-'' जब तक एकता स्थापित न कर लें, तब तक प्रार्थना, उपवास, जप- तप आदि निर्जीव से हैं। '' शास्त्रकार का भी कथन है- '' क्षुद्र और कमजोर आदमियों की सामूहिकता भी अजेय बन जाती है। कमजोर तिनकों से बनाई गई रस्सी परस्पर मिल जाने के कारण इतनी मजबूत हो जाती है कि उससे हाथी भी बाँधा जा सकता है। ''
वेद भगवान ने भी मनुष्यों को एक होकर प्रार्थना करने का आदेश दिया है। संपूर्ण मानव समाज एक- दूसरे से इस तरह संबद्ध रहे कि अपने स्वार्थ को सर्वोपरि समझकर सबके हित की भावना का तिरस्कार नहीं किया जा सकता। जब- जब मनुष्य का यह ओछापन ऊपर आया है, तब- तब मानवता को बड़ी हानि हुई है। स्वार्थ से समाज में जड़ता, निकृष्टता और असंतोष फैलता है, इसलिए वेद ने ऐसी प्रार्थना सिखाई है- '' धियो यो न: प्रचोदयात् '' अर्थात् '' हे भगवान ! हमारी बुद्धियों को आप सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें। सामूहिकता का यह गायत्री स्वर इतना शक्तिशाली है कि यदि इसे लोग अपने अतः करण की आवाज बना लें, तो इस धरती पर स्वर्ग का अवतरण होने में देर न लगे।
सामूहिकता का अभाव
जहाँ पारस्परिक ऐक्य का, सामूहिकता का अभाव होता है, वहाँ प्रगति दूर, पतन- पराभव की परिस्थितियाँ बनने लगती हैं। कौरव- पांडव चक्रवर्ती युधिष्ठिर के अनुशासन में न रहकर अपना स्वतंत्र वर्चस्व चमकाने के लिए व्याकुल कौरवों ने वह अनीति अपनाई, जो अंततः महाभारत के रूप में महाविनाश का कारण बनी। कृष्ण का यादव वंश कोई भूखा- नंगा नहीं था, लेकिन उसका हर सदस्य अपनी विशिष्टता सिद्ध करने और अन्यों को गिराने के लिए सामूहिक आत्मघात की स्थिति तक जा पहुँचा। यही सब देखकर व्यास जी ने अकाट्य सिद्धांत के रूप में लिखा था-
बहवः यत्र नेतारः बहवः मानकांक्षिणः। सर्वे महत्वमिच्छन्ति, स दल अवसीदत ।।
' जहाँ बहुत लोग नेता बनें, जहाँ बहुतों की महत्त्वाकांक्षा, यश, लिप्सा हो, वह दल अंततः नष्ट होकर रहेगा। '' और यही हुआ भी।
तीर्थों की स्थापना क्यों ?
सामूहिकता को प्रधानता देने के ही तीर्थों का प्रावधान संस्कृति में है। तीर्थो पर लोकमंगल से लोकरंजन के माध्यम से जन शिक्षण हेतु धार्मिक मेले आयोजित किए जाते रहे हैं । यदि हम पौराणिक इतिहास देखें, तो पाते हैं कि तीर्थों की स्थापना वहाँ हुई, जहाँ- जहाँ बड़े- बड़े यज्ञ हुए।
प्रयाग शब्द में से उपसर्ग को हटा देने पर ' याग ' शब्द रह जाता है। याग- यज्ञ की प्रचुरता रहने के कारण ही वह स्थान तीर्थराज प्रयाग बना। काशी-वाराणसी के दशाश्वमेध घाट इस बात के साक्षी हैं कि इन स्थानों पर दश बड़े- बड़े यज्ञ हुए हैं और उन्हीं के प्रभाव से इन स्थानों को इतना प्रमुख स्थान मिला। कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य आदि सभी क्षेत्रों में तीर्थों का उद्भव यज्ञों से हुआ। जिस स्थान पर यज्ञ होते हैं , वह स्थान तीर्थ बन जाता है।
वायु पुराण में उल्लेख है- '' जिस समय अनुपम कांतिवान, विक्रमशाली, नरपति, श्रेष्ठ राजा कृष्ण धर्मपूर्वक इस पृथ्वी पर शासन करते थे, उस समय पवित्र पुलिना दृषद्वती नदी के तीर पर धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में सरल, शांत, दांत, जितेन्द्रिय, रजोगुणविहीन, सत्यपरायण ऋषियों ने दीर्घसूत्र (बहुत दिनों तक होने वाला महायज्ञ) किया था। ''
ऋषियों ने सूतजी से प्रारंभिक महायज्ञ के स्थान, समय, प्रकार आदि के संबंध में प्रश्न किया। उसके उत्तर में सूतजी कहते हैं- '' जहाँ विश्व की सृष्टि के आदिकाल में (ब्रह्मा) सृष्टा ने हजारों वर्ष पर्यंत, पवित्र यज्ञ किया था, जिस यज्ञ में स्वयं तप ही यजमान और स्वयं ब्रह्मा ही ब्रह्मा बने थे, जहाँ इडा ने पत्नीत्व तथा शामित्र का काम स्वयं बुद्धिमान, तेजस्वी मृत्यु देव ने किया था। महान आत्माओं के इस विशाल यज्ञ में धर्म की नेमि घूमते- घूमते विशीर्ण हो गई थी, यानि धर्म की अति अधिकता से सब कुछ धर्माप्लुत गया था। इसलिए ऋषि- मुनि पूजित उस प्रदेश का नाम नैमिषारण्य पड़ गया। ''
स्कंदपुराण में वर्णन है कि धर्मात्मा राजा दिवोदास का वचन सुनकर ब्रह्माजी बड़े संतुष्ट हुए, उन्होंने यज्ञ सामग्रियों का संग्रह किया और राजर्षि दिवोदास की सहायता पाकर काशी में दसाश्वमेध नामक महायज्ञ द्वारा भगवान का यजन किया। तभी से वहाँ वाराणसी पुरी में मंगलदायक दशाश्वमेध नामक तीर्थ प्रकट हुआ। पहले उसका नाम रुद्र सरोवर था।
इसी प्रकार अयोध्या के संबंध में उल्लेख है कि अयोध्यापुरी में सूर्यवंशी राजा वैवस्वत मनु, चक्रवर्ती नरेश के पद पर प्रतिष्ठित थे। वे सदा यज्ञ और दान में लगे रहते थे। इससे उनके शासनकाल में अयोध्या के भीतर रोग और वृद्धावस्था का कष्ट किसी को भी नहीं होता था।
निर्जीव एवं सजीव तीर्थ
प्राचीनकाल में तीर्थों को कलेवर और ऋषियों के व्यक्तित्व एवं महान कर्तृत्व को प्राण समझा जाता था। दोनों के समन्वय से ही वे जीवंत बनते थे। माहात्म्य ऐसे ही स्थानों का है। तीर्थ उसी विशेषता के कारण बने, प्रख्यात हुए और पूजे गए। तथ्य अपने स्थान पर सदा- सर्वदा स्थिर रहते हैं। आज भी कहीं पुण्य फलदायक तीर्थ की तलाश करनी हो, तो वहाँ के संबंध में फैली हुई जनश्रुतियों, किंबदंतियों और कथा- कहानियों पर ध्यान न देकर यह देखना चाहिए कि कलेवर में प्राण है या नहीं। प्राण निकल जाने पर काया स्थिर भी नहीं रह सकती, वह तुरंत सड़ना आरंभ कर देती है। ठिकाने न लगाया जाय, तो फिर अपने भीतर से ही कृमि कीटक उत्पन्न करके अस्तित्व को समाप्त कर लेती है।
निर्जीव और सजीव तीर्थों के संबंध में भी यही बात है। पुरातन घटनाओं का स्मरण दिलाने पर उत्साह तो बढ़ता है और प्रेरणा भी मिलती है, किंतु उपयोगिता- क्रियाशीलता न रहने पर उसका प्रभाव भी नगण्य जितना ही होता है। नालंदा, तक्षशिला विश्वविद्यालयों ने किसी समय समूचे एशिया खंड तथा विश्व के अन्यान्य भूभागों को नव जीवन से अनुप्राणित किया था। अब वे गतिविधियाँ न रहीं, मात्र ध्वंसावशेष बचे हैं। वहाँ जाने पर दर्शकों को गौरव भरे अतीत का स्मरण आता है, पुलकन उठती है और उन महान प्रयासों के प्रति मस्तक भी श्रद्धान्वित होता है, इतने पर भी वैसा प्रत्यक्ष लाभ कुछ भी नहीं मिलता, जैसा कि उनके गतिशील रहने के दिनों में सान्निध्य स्थापित करने पर मिलता था। अतीत की स्मृतियाँ कितनी ही प्रेरणाप्रद हों, उनसे वह लाभ नहीं मिल सकता, जो उनकी प्रखरता के दिनों संबंध रखने वालों को मिलता था। तीर्थों के संबंध में भी यही बात है। उन्हें जीवंत और निष्प्राण वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। जीवंत वे, जो सक्रिय हैं, जिनमें ऋषिकल्प आत्माएँ निवास करतीं तथा उन गतिविधियों को सही रूप में चलाती हैं, जो तीर्थ- गरिमा के साथ अविच्छिन्न रूप से साथ जुड़ी हुई हैं।
सम्मेलन, संवर्धन, सत्प्रयत्न
महत्त्वपूर्ण कार्यों और प्रयत्नों के लिए संयुक्त शक्ति का जुटाना आवश्यक होता है। भौतिक क्षेत्र में तो ऐसा ही हो सकता है कि तोप का एक बड़ा गोला सौ गोलियों जितना काम कर दे, किंतु अध्यात्म क्षेत्र में वैसा नहीं है। एक बड़ी मशाल की अपेक्षा यहाँ सौ दीपकों का महत्त्व अधिक माना जाता हैं। यों भौतिक क्षेत्र में भी छोटी- छोटी इकाइयाँ मिलकर एक बड़ी संरचना बनने की बात को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। रुई का एक गट्ठा मरोड़कर वैसा मजबूत रस्सा या कोंड़ा नहीं बन सकता, जैसा कि पतले धागों के संयोग से बनता है। सभी जानते हैं कि ईंटों से चुनकर मकान बनते हैं। कणों के सम्मिश्रण से पदार्थों की रचना होती है। चक्रवात की तुलना में हवा के छोटे- छोटे झोंके संतुलन बिठाते हैं। ज्वार-भाटों पर नहीं, समुद्र की शोभा व्यवस्था सामान्य लहरों पर टिकी हुई है।
अदृश्य परिशोधन की सामयिक आवश्यकता पूरी करने के लिए आदर्शवादी भावनाशीलों की संयुक्त सामर्थ्य सदा अपेक्षित रही है। उसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता। सीता अवतरण के लिए ऋषियों का एक- एक बूँद रक्त संग्रह करके वह घड़ा भरा गया था, जिसे हल चलाते समय जनक ने सीता समेत खेत में पड़ा पाया था। यह प्रयोजन एक व्यक्ति का सिर काट कर रक्त से घड़ा भर लेने से पूरा नहीं हो सकता था। उससे प्राणवानों की संयुक्त शक्ति वाला उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता था। यही बात दुर्गा अवतरण के संबंध में भी है। सभी देवताओं की संयुक्त शक्ति से प्रजापति ने महाकाली की संरचना की थी। इंद्र- कुबेर जैसे एक दो वरिष्ठों को मिला देने भर से वह कार्य पूरा नहीं हो सकता था। एक प्रकृति की अनेक प्राणवान इकाइयों को एक लक्ष्य के लिए नियोजित कर देने से कितनी प्रचंड शक्ति उत्पन्न होती है, उसे सभी विज्ञजन भली- भांति जानते हैं। प्रजापति ने ऋषि रक्त का बूँद- बूँद संग्रह करके घडा़ भरने का इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए परामर्श दिया था। दुर्गावतरण में देवताओं की थोड़ी- थोड़ी शक्ति का संग्रह करने का प्रबंध स्वयं भी इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए किया था। राम- लक्ष्मण में बल कम न था। समुद्र को सुखा देने वाले बाण के धनी रावण को भी मार सकते थे। पर्वत उखाड़ने वाले हनुमान लंका को पानी में डुबा सकते थे, किए यह पर्याप्त न समझा गया। व्यवस्था यह बनी कि अधिक संख्या में रीछ, वानरों का उमंगों का संचय करके समन्वित प्राण शक्ति का उद्भव किया जाय। यह महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए नीति- निर्धारण भी है, साथ ही प्राणवानों की संयुक्त शक्ति से उत्पन्न होने वाली प्रचंड क्षमता का रहस्योद्घाटन भी। भगवान कृष्ण क्या नहीं कर सकते थे। जरासन्ध और शिशुपाल की तरह कौरवों से भी अकेले निपट सकते थे, पर महाभारत में उन्होंने बड़े प्रयत्न से पाँडवों के पक्ष में विश्व भर से सैन्य सहयोग जुटाया। इतना ही नहीं, उनने गोवर्धन तक ग्वाल- बालों की समन्वय शक्ति से उठा सकने का प्रदर्शन किया। यों वे उसे उठा तो अकेले भी सकते थे।
परशुराम के एकाकी प्रयत्नों का नगण्य परिणाम देखते हुए बुद्ध ने दूसरी नीति अपनाई। यों दोनों के सामने एक ही जैसी समस्या थी। बुद्ध भी भगवान थे। परशुराम तीन कला के और बुद्ध बीस कला के। फरसा वे भी उठा सकते थे, पर वे महान एवं व्यापक प्रयोजनों के लिए प्राणवानों की संयुक्त शक्ति का प्रयोग करने के पक्ष में रहे और उनने चीवरधारी श्रमण-परिव्राजक स्तर के नर- नारियों की एक विश्ववाहिनी खड़ी की। विश्व के कोने- कोने में पहुँचने का कार्य इसी प्रकार हो सकता था। शंकर दिग्विजय की तरह वे अकेले ही दौड़- धूप करने की निरर्थकता को भी समझते थे, अतएव उन्होंने गहराई तक -सोचने और दूरगामी परिणाम उत्पन्न कर सकने वाले निष्कर्ष निकाले।
अवांछनीयताओं से लोहा लेने के लिए ही नहीं, सृजन प्रयोजनों के लिए भी संयुक्त प्राण शक्ति का समय- समय पर प्रयोग होता रहा है। भगवान बुद्ध के समय में एक लड़की ने जन- जन की कसक जगाने का व्रत लिया और उस आधार पर दुर्भिक्ष पीड़ित बालकों की प्राण रक्षा का ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया। समुद्र पर पुल बाँधने में रीछ- वानरों के तनिक- तनिक से सहयोग से कितना बड़ा काम बन पड़ा, यह सर्वविदित है। देवर्षि नारद जन जागरण के लिए निरंतर परिभ्रमण करते थे ।सूत जी शौनकों को स्थान- स्थान पर एकत्रित करके प्रयत्नरत होने का प्रशिक्षण देते थे।ऋषि प्रणीत तीर्थ धामों और बुद्धकालीन विहार- संघारामों में सदाशयता की संयुक्त शक्ति को एकत्रित एवं प्रशिक्षित किया जाता था ।भूतकाल के महान इतिहास की, भारत की सांस्कृतिक गरिमा की, पृष्ठभूमि इसी आधार पर विनिर्मित हो सकी।
साधना क्षेत्र में यों होती तो व्यक्तिगत एवं ऐकांतिक साधनाएँ भी हैं, पर उनका लक्ष्य- प्रयोजन लाभकर्त्ता तक ही सीमित रहता है। सार्वजनीन समाधान एवं संवर्द्धन के लिए यदि कोई बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता हुई, तो सदा समन्वित सहयोगी प्रयत्नों की आवश्यकता समझी और पूरी की गई है । राजतंत्र द्वारा राजसूय यज्ञ और धर्मतंत्र द्वारा वाजपेय यज्ञ ऐसे ही प्रयोजनों के लिए आयोजित किए जाते थे । उन्हें समारोह, सम्मेलन, संवर्द्धन, सह प्रयत्न की संज्ञा दी जा सकती है । जो काम विद्वान मंडली या तपस्वी परिकर एवं शासक वर्ग अपने सीमित पराक्रम से संपन्न नहीं कर सकता था, उसे मध्यवर्ती भावनाशीलों की संयुक्त शक्ति से भली प्रकार संपन्न कर लिया जाता था ।
संक्षिप्त विधान
यदि बड़े आयोजन- सम्मेलन न हो सकें, तो ऐसे संक्षिप्त विधान भी हैं, जिनसे इस प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है। एक बार गुरुकुल गोष्ठी में अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हुए ऋषि दीर्घतमा, महर्षि उषिज से बोले- '' देव ! जहाँ जन समुदाय एकत्रित न हो सके और दर्शनीय उत्सव न बन पड़े, वहाँ संस्कार एवं पर्वों को छोड़ देने की अपेक्षा क्या कुछ संक्षेप में नहीं हो सकता ?''
ऋषिश्रेष्ठ उषिज बोले- '' घनिष्ठ आत्मीय जनों की उपस्थिति, धूपबत्तियों का तथा दीपक जलाने का प्रतीक यज्ञ, चौबीस बार गायत्री मंत्र का पाठ इससे भी विधान की संक्षिप्त पूर्ति हो सकती है, किंतु आयोजन के उद्देश्यों को स्मरण करना तथा उन्हें भावी जीवन में दृढ़तापूर्वक अपनाना नितांत आवश्यक है । इतने संक्षेप विधानों से भी संस्कारों और पर्वों का आयोजन हो सकता है । कुछ भी न बन पड़ने की तुलना में यह संक्षिप्त व्यवस्था भी परंपरा निर्वाह का काम दे सकती है, किंतु भविष्य में जब भी अवसर मिले, उन्हें समारोहपूर्वक करने का उल्लास भरा धार्मिक वातावरण बनाने का ही प्रयत्न करना चाहिए । ''
आयोजनों का निमित्तकारण
पूर्व आयोजनों का अपना महत्त्व है । उस अवसर पर उपस्थित व्यक्तियों पर उस आयोजन के जो प्रभाव पड़ते हैं , वे अमिट छाप छोड़ते हैं।
महर्षि वशिष्ठ से भगवान श्रीराम ने पूछा-'' भगवन् ! भारतीय संस्कृति में अबोध बालकों के संस्कार आयोजन कराए जाते हैं और उस अवसर पर मंत्रों द्वारा अनेक शिक्षाएँ दी जाती है, पर वे उसका तात्पर्य समझ नहीं पाते । ऐसी दशा में उन शिक्षा प्रयोजनों का क्या लाभ ? इसी प्रकार मरणोपरान्त जो अंत्येष्टि और श्राद्ध संस्कार होते हैं , उनमें जीवन उपस्थित नहीं रहता, फिर वह संस्कारों की धर्म शिक्षा से क्या लाभ उठाता होगा ?''
प्रश्नों का उत्तर देते हुए वशिष्ठ मुनि बोले-'' हे राम ! मंत्र- श्लोकों के माध्यम से संस्कार काल में जो शिक्षाएँ दी जाती हैं और प्रतीक पूजन कराए जाते हैं, उनका उद्देश्य उस परिवार के लोगों तथा उपस्थित जनों को उद्बोधन कराना होता है कि इस प्रसंग में उनके क्या कर्तव्य और उत्तरदायित्व हैं । संस्कारवान बनने और बनाने के लिए इन छोटे पारिवारिक आयोजनों को संपन्न किया जाता है । उत्साह भरे वातावरण में मनः स्थिति को श्रद्धासिक्त बनाकर जो कुछ किया या कहा जाता है, उसका प्रभाव अति उत्तम होता है ।
लोगों का अंधानुकरण
पर्व स्नान हेतु पुण्य कमाने जाने वाले उद्देश्य न समझ पाने के कारण अंधानुकरण करते ही कहे जाएँगे ।
माघ कवि रोज प्रातः नदी स्नान को जाया करते । पानी गहरा था, सो किनोर पर बैठ कर लोटे से स्नान करते । रोज- रोज लोटा ले जाने के झंझट से बचने के लिए माघ ने नदी तट पर बालू में अपना लोटा गाड़ दिया, ताकि रोज निकाल कर वहीं गाड़ दिया करें ।
एक व्यक्ति दूर से यह देख रहा था । उसने अन्य आगंतुकों को वह भेद बता दिया और कहा, इससे किसी बड़े लाभ की आशा है, नहीं तो माघ जैसे विद्वान अकारण लोटा क्यों गाड़ते । जिनने भी सुना, वह भागा- भागा घर गया और लोटा लेकर उसी क्षेत्र में गाड़ दिया । इस प्रकार दिन भर में सैकड़ों लोटे उस स्थान में गड़ गए।
माघ को इस कौतुक का पता चल गया । वे दूसरे दिन राजा को लेकर वहाँ पहुँचे और बताया कि लोगों को अनुकरण करना तो खूब आता है, पर विचार करना नहीं ।
राजा ने सारे लोटे खुदवाकर सरकारी कोठरी में जमा करा दिए ।
धर्मोत्सवस्य श्रृंङ्खलायां नात्र शैथिल्यमापतेत् । उद्दिश्यैतद् व्यधुर्जानसत्रं ते सूतशौनकाः ।। ७८ ।।
पर बैठ कर लोटे से स्नान करते । रोज- रोज लोटा ले जाने के झंझट से बचने के लिए माघ ने नदी तट पर बालू में अपना लोटा गाड़ दिया, ताकि रोज निकाल कर वहीं गाड़ दिया करें ।
एक व्यक्ति दूर से यह देख रहा था । उसने अन्य आगंतुकों को वह भेद बता दिया और कहा, इससे किसी बड़े लाभ की आशा है, नहीं तो माघ जैसे विद्वान अकारण लोटा क्यों गाड़ते । जिनने भी सुना, वह भागा- भागा घर गया और लोटा लेकर उसी क्षेत्र में गाड़ दिया । इस प्रकार दिन भर में सैकड़ों लोटे उस स्थान में गड़ गए।
माघ को इस कौतुक का पता चल गया । वे दूसरे दिन राजा को लेकर वहाँ पहुँचे और बताया कि लोगों को अनुकरण करना तो खूब आता है, पर विचार करना नहीं।
राजा ने सारे लोटे खुदवाकर सरकारी कोठरी में जमा करा दिए ।
धर्मोत्सवस्य श्रृंङ्खलायां नात्र शैथिल्यमापतेत् । उद्दिश्यैतद् व्यधुर्जानसत्रं ते सूतशौनकाः ।। ७८ ।। मुनयो मनीषिणस्तत्र सप्ज्ञानपरिपुष्टये। आययुर्दूरदेशेभ्यस्तथा निश्चित्य शोभनम् ।। ७१ ।। स्थानं विशेषमेते च विद्वांसोऽकार्षुरेव तु। आयोजनानि दिव्यानि चातुर्मासस्य सन्ततम् ।। ८० ।। वर्षर्तौ न्यूनताऽस्त्येव कार्याणां तेन संगता। तत्रत्यजनता लाभमध्यगच्छत्ततः सदा ।। ८१ ।।
भावार्थ धर्मोत्सवों की श्रृंखला में शिथिलता न आने पाए इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सूत शौनक आदि मिल- जुलकर विशालकाय ज्ञान सत्र चलाते रहे हैं। उनमें हजारों मुनि- मनीषी सद्ज्ञान संवर्द्धन के उद्देश्य से दूर- दूर से आकर सम्मिलित होते थे। विद्वान लोग स्थान विशेष, का चुनाव करके वहाँ चातुर्मास आयोजन करते थे। वर्षा में काम कम रहने के कारण उन क्षेत्रों की जनता एकत्रित होकर उनका लाभ भी उठती थी।। ७८- ८१।।
व्याख्या- जन चेतना सतत् जागृत रहे, सभी देश- क्षेत्रों के प्रतिनिधिगण एक स्थान पर एकत्र होकर विचार विनिमय कर सकें, इस प्रयोजन से ही छोटे क्षेत्रीय धर्मोत्सवों के आयोजनों की आवश्यकता समझी गई थी। इस उद्देश्य के लिए नियत पर्व पर नियत तीर्थ में प्रति वर्ष आयोजन का क्रम बनाया गया, ताकि यह क्रम निरंतर जारी रहे, धर्मधारणा शिथिल न होने पाए। यहाँ पर साधना- अनुष्ठान एवं ज्ञान यज्ञ की द्विविधि प्रक्रिया साथ- साथ चलती थी। सामयिक समस्याओं पर मूर्धन्य मनीषी गंभीर विचार- विनिमय कर किन्हीं निर्णय- निष्कर्षों पर पहुँचा करते थे। विद्वत्जन जो निर्धारण करते थे, उसे अपने- अपने क्षेत्र में संपन्न करने का दायित्व सुदूर स्थानों से आए व्यक्ति अपने कंधे पर लेकर प्रयाण करते थे ।
सूत शौनिक किन्हीं व्यक्ति विशेषों का नाम नहीं है, अपितु ज्ञानयज्ञ आयोजित करने वाले, प्रश्नोत्तरी के माध्यम से समस्त समस्याओं का हल अध्यात्म दर्शन के प्रतिपादनों की सहायता से समझाने वाले मनीषी गणों को यह नाम दिया गया है ।शौनिक जी प्रश्न पूछते थे एवं सूत जी उत्तर देते थे ।यह पदवी मनीषा संपन्न कोई भी व्यक्ति धारण कर सकता था अथवा ऋषिगणों द्वारा यह पद उन्हें दिया जाता था ।नैमिषारण्य तीर्थ में ऐसे सम्मेलन, उज्जयिनी, हरिद्वार, प्रयाग एवं नासिक में कुंभ पर्व के अवसर पर ज्ञान सत्रों, विशाल प्रज्ञा आयोजनों का क्रम सतत् चलता रहता था ।
यही तथ्य चातुर्मास परंपरा पर भी लागू होते हैं ।वर्षा ऋतु के कारण नदी- नालों में उफान आने पर सुदूर क्षेत्रों में जा पाना संभव नहीं हो पाता था ।इसीलिए मनीषी- ऋषिगण वर्षा ऋतु के चार माह में धर्म प्रचार की पद यात्रा को विराम देकर पूर्व निर्धारित क्रमानुसार स्थान विशेषों में बँट कर वहीं निवास कर उस स्थान की जनता को अर्जित ज्ञान संपदा से लाभान्वित करते थे ।यह आयोजन कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते थे ।हर वर्ष अपने यहाँ विभिन्न मत- मतांतरों के प्रतिनिधि धर्म प्रचारकों का आगमन व उनके द्वारा ब्रह्मविद्या के व्यावसायिक सूत्रों का मार्गदर्शन जन साधारण के लिए बड़ा हितकारी होता था ।आज तो इस व्यवस्था में विकृतियाँ समाविष्ट हो गई हैं ।चातुर्मास आयोजन अड्डा जमाकर बैठने, आत्मिकी के स्थान पर अपना वर्चस्व जमाने, यश के साथ- साथ वैभव लूटने एवं जब मानस को निरर्थक शास्त्रार्थ वितंडावाद में उलझाकर उनकी आस्तिकता की भावना को चोट पहुँचाने के निमित्त कारण बनकर रह गए हैं आत्मिकी के स्थान पर अपना वर्चस्व जमाने, यश के साथ- साथ वैभव लूटने एवं जब मानस को निरर्थक शास्त्रार्थ वितंडावाद में उलझाकर उनकी आस्तिकता की भावना को चोट पहुँचाने के निमित्त कारण बनकर रह गए हैं। इस क्षेत्र में आमूल- चूल परिवर्तन लाना, देव संस्कृति के आदि मूल्यों की पुर्नस्थापना करना युग की सबसे बड़ी सेवा है, जो प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत संपन्न हो रही है ।
आयोजनक्रमस्यात्र देवसंस्कृतिविस्तरे । योगदानमभूद्भूय एष विद्यालयेष्वथ ।। ८२ ।। गुरुकुलेषु समेष्वेव पाठ्यमानस्य मन्यताम् ।। पाठ्यक्रमस्य तुल्योऽयमायोजनबृहत्कमः ।। ८३ ।।
भावार्थ- देव संस्कृति के विस्तार में आयोजन प्रक्रिया का अत्यधिक योगदान रहा है ! इसे विद्यालयों और गुरुकुलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम के सम्तुल्य ही समझा जाना चाहिए ।। ८२ -८३ ।।
सेवानिवृत्तनिश्चिन्ता व्यक्तयोऽर्हन्ति कर्मणः। सम्पादयितुमिमं पाठ्यक्रमं नियमतोऽनिशम् ।। ८४ ।। आरण्यकेषु गत्वा च गुरूकुलेष्वपि सक्षमाः। वातावृतौ काया ते वास लाभं समर्जितुम् ।। ८५ ।। व्यस्तैर्न पुरूषैरेतच्छक्यं कर्तुं सदैव च। जन- जागृतिहेतोश्च जङ्गमानामभूत्ततः ।। ८६ ।। ज्ञानयज्ञस्य धर्मानुष्ठानानां च परम्परा । परिणाम: शुभश्चास्या दृष्ट: सर्वैरपि स्वयम् ।। ८७ ।।
भावार्थ- निवृत्त- निश्चिंत व्यक्ति आरण्यकों एवं गुरुकुलों में प्रवेश पाकर नियमित रूप से अधिक समय तक पाठ्यक्रम संपन्न कर सकते हैं और श्रेष्ठ वातावरण में देर तक निवास करने का लाभ उठा सकते हैं, किंतु व्यस्त लोगों के लिए वह सदा संभव नहीं ही पाता। इसलिए जन जागरण के लिए चलते- फिरते समय- समय पर होने वाले ज्ञान यज्ञो- धर्मानुष्ठानों की परंपरा चली। इसका सत्परिणाम भी देखने को मिला ।। ८४- ८७ ।।
व्याख्या- सांस्कृतिक चेतना का आलोक दिग- दिगंत में फैले, इस उद्देश्य से देव संस्कृति के निर्धारण अद्वितीय हैं। बालकों के नव निर्माण हेतु गुरुकुलों के समकक्ष ही निवृत्त व्यक्तियों के लिए आरण्यकों का प्रावधान है, जिसमें ऐसे व्यक्ति, जो स्थाई रूप से समय दे सकने की स्थिति में हैं, पठन-पाठन की, धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की व्यवस्था निभाते हैं। जो व्यक्ति अधिक समय नहीं दे सकते, उनके लिए आंशिक समयदान के रूप में प्रज्ञा आलोक विस्तार का प्रावधान हैं। ऐसे व्यक्ति जो कहीं आ जा नहीं सकते, उन तक बादलों की तरह संत- परिव्राजक स्वयं पहुँचकर अलख जगाते, प्रसुप्त चेतना को झंकृत करने का कार्य क्षेत्रीय आयोजनों धर्मानुष्ठानों के माध्यम से, अपनी मुखर वाणी एवं संकीर्तन यज्ञायोजनों आदि के द्वारा संपन्न करते थे।
आज की परिस्थितियाँ भी ऐसी हैं, जिसमें ऐसे अग्रदूतों की आवश्यकता है, जो युग परिवर्तन प्रक्रिया के कार्यान्वयन हेतु अग्रदूत की भूमिका निभा सकें, युग की पुकार सुनते हुए स्वयं पार उतरने व अनेक को नाव में बिठाकर पार करने का पुरुषार्थ संपन्न कर सकें ।
देव संस्कृति की यज्ञीय जीवन व्थवस्था
यज्ञमय जीवन उसे कहते हैं , जिसमें मनुष्य अपनी सुख- सुविधाओं को गौण मानते हुए अपने परिवार समाज के लिए अधिकाधिक सुख- सुविधाएँ उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है। अपने लिए संयम एवं त्याग की, दूसरों के लिए उदारता एवं सेवा की भावना अपनाकर जो जीवन क्रम अपनाया जाता है, उसे '' यज्ञ '' कहते हैं। वे सब सत्कर्म यज्ञ कहे जा सकते हैं, जिनमें लोकहित की भावना से प्रेरित होकर किसी व्यक्ति ने अपने उचित अधिकारों को भी दूसरों की सुख- शांति बढ़ाने के लिए समर्पित कर दिया हो। इस तरह की गतिविधियाँ अपनाने में जब लोग परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं , एक दूसर से अधिक आदर्शवादी, सदाचारी और परमार्थी बनने की होड़ लगाते हैं तो उसका परिणाम व्यक्ति और समाज की समृद्धि के रूप में सामने आता है।
संस्कृति रक्षक गुरू एवं शिष्य
स्वामी विरजानन्द का जन्म पंजाब प्रांत के करतारपुर के पास गंगापुर नामक ग्राम में हुआ था। जब वे पाँच वर्ष के थे, तभी उनके नेत्र चेचक में चले गए। कुछ दिन बाद वे विद्या पढ़ने के लिए हरिद्वार चल पड़े। वहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण तथा वेद साहित्य पढ़ा। नेत्रहीन होते हुए भी उनकी असाधारण प्रतिभा पर सभी चकित थे। जब बड़े हुए तब उनने संस्कृत पाठशाला चलाई उसमें अनेक विद्यार्थी पढ़ने आते थे।
इन्हीं विद्यार्थियों में टंकारा गुजरात का एक मूलशंकर नामक विद्यार्थी था। उसका दृष्टिकोण और चरित्र देखकर स्वामी जी बहुत प्रभावित थे । विद्या पूरी कर चुकने पर गुरुदक्षिणा का अवसर आया, तो उनने कहा-'' लोभ नहीं, तेरा जीवन देश को नव जीवन संचार के लिए चाहिए । '' मूलशंकर ने अपना जीवन उनके चरणों पर समर्पित किया, संन्यास लिया और वैदिक धर्म का प्रचार करने के लिए निकल पड़े । यही थे, आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद, जिसने हिंदू धर्म का कायाकल्प करने वाली विचारधारा प्रदान की ।
दरवेश कौन ? सच्चे संत निस्पृह निर्भीक विचरण करते व औरों के ज्ञान चक्षु खोलने का पुण्य संपादित करते हैं।
एक बार गुरु नानक पानीपत गए, जहाँ शाह शरफ नामक एक प्रसिद्ध सूफी फकीर रहते थे । गुरु नानक ने इस समय गृहस्थियों के समान वस्त्र धारण किए थे । यह देखकर शाह शरफ ने पूछा- '' फकीर होकर आपने गृहस्थों जैसे कपड़े क्यों पहन रखे हैं और संन्यासियों की तरह आपने अपना सिर क्यों नहीं मुडा़या है ?'' नानक ने उत्तर दिया-'' मूड़ना तो मन को चाहिए, सिर को नहीं और मिट्टी की तरह नम्र होकर ही मन को मुडा़ जा सकता है । '' अपने वेश के संबंध में उन्होंने कहा-'' जो मनुष्य परमेश्वर के द्वारा अपने सुख, स्वाद और अहंकार को त्यागकर गिर पड़े, वह जो भी वस्त्र धारण करे, परमात्मा उसे स्वीकार करता है । '' शाह शरफ ने पूछा ? '' आपकी जाति क्या है ? आपका मत क्या है ? गुजर कैसे होती है ?''
गुरु नानक ने कहा- '' मेरा मत है सत्य मार्ग, मेरी जाति वही है, जो अग्नि और वायु की है, जो शत्रु -मित्र को एक समान समझती है । मुझे वृक्ष और धरती की तरह रहना है । नदी की तुरह मुझे इस बात की चिंता नहीं कि मुझ पर कोई पवित्र फूल फेंकता है, या कूड़ा−करकट और मैं जीवित उसी को समझता हूँ, जो चंदन की तरह हर समय जनता की सेवा में हिस्सा लेता हुआ अपनी सुगंध फैलाता रहे ।'' यह सुनकर शाह शरफ ने कहा- '' दरवेश या फकीर कौन है ?'' नानक ने कहा-'' जो जिंदा ही मरे की तरह रहे, जागते हुए सोता रहे, जानबूझ कर अपने आपको लोकमंगल मे जुटाता रहे ।जो कभी क्रोध में न आवे, अभिमान न करे, न स्वयं दुखी हो, न किसी दूसरे को दुख दे ।जो ईश्वर में हमेशा निमग्न रहे और वही सुने, जो उसके अंदर से ईश्वर बोलता है और उसी को हर स्थान पर देखे ।'' नानक के वचन सुनकर शाह शरफ को संतोष हुआ ।
मुक्ति सेना का सेनापति
इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध नगर में जन्मे बूथ ने पादरी बनने का निश्चय किया और उनने वह शिक्षा प्राप्त करके धर्मोपदेशक का काम सँभाला ।
एक दिन उनने एक छोटे लड़के को सड़क पर गिरते और पीछा करने वालों द्वारा पीटते देखा ।पादरी कौतूहलवश रुक गए ।मालूम हुआ कि लड़का हलवाई की दुकान से रोटी चुराकर भागा ।पादरी ने पूछा तो लड़के ने कहा- '' पिटाई सहन कर ली गई, पर भूख सहन न हो सकी ।'' छोटा बालक अनाथ था। कुछ कमाने लायक भी उसकी उम्र एवं स्थिति नहीं थी ।
पादरी रात भर सो नहीं सके ।मस्तिष्क में वही शब्द गूँजते रहे, जो बच्चे ने कहे थे ।दूसरे दिन उनने पादरी पद से इस्तीफा दे दिया और अनाथों, पथभ्रष्टों को प्यार से रास्ते पर लाने और शिक्षा तथा उद्योग सिखाने का काम हाथ में लिया। इस संगठन का नाम रखा '' मुक्ति सेना '' ।पादरी को जनरल कहा जाने लगा ।उनने ऐसे हजारों लोगों की तलाश की और उन्हें सुधारा तथा उद्योगी बनाया ।उनकी लगन ने ६० देशों में उस संस्था की शाखाएँ बनाई और पतितों को ऊँचा उठाने के कार्य में आशातीत सफलता पाई ।इस कार्य में धन की भी कमी न रही ।
आदर्शवादिता के पक्ष-धर- पीटर हावर्ड
पीटर हावर्ड ने व्यक्तियों को समुदायों में बँटा देखा और पाया कि लोग अपने- अपने वर्ग की उचित अनुचित इच्छाओं एवं मान्यताओं का समर्थन करते हैं ।समस्त झगड़ों की जड़ उन्होंने इसी बौद्धिक संकीर्णता को पाया और आजीवन इसके विरुद्ध संघर्ष किया ।वे एक राष्ट्र, एक धर्म,एक भाषा और आर्थिक दृष्टि से समान सुविधा के पक्षपाती थे ।इसके लिए उन्होंने आजीवन प्रचार और संघर्ष किया ।तब तक आर्थिक साम्यवाद का उतना प्रचार नहीं हो पाया था ।वे भावनात्मक समता के प्रबल पक्षपाती थे ।
अपने विचारों को व्यापक बनाने के लिए उनने बहुत कुछ लिखा और बहुत कुछ कहा ।प्रतिभाशाली व्यक्तियों को ,भावी मनुष्य जाति को आदर्शवादी बनाने के लिए वे पत्र व्यवहार करते और प्रेरणाएँ देते रहते। इस प्रयोजन के लिए उनने हजारों पत्र लिखे ।
उनका कथन था- '' मनुष्य जैसा है उस रूप में भी उसे प्यार करता हूँ, पर जैसा उसे होना चाहिए उसके लिए सतत् संघर्ष करता रहुँगा । ''
मैं भी अनाथ, तुम भी अनाथ
धर्म धारणा के विस्तार हेतु आयु बाधक नहीं । जब भी आत्मबोध हो, परिव्रज्या ली जा सकती है ।
मगध देश के राजा श्रोणिक के राज्य में मणिकुक्षि नामक उपवन में एक युवा मुनि तप में संलग्न थे । उनका नव यौवन, सौंदर्य से भरा-पूरा था । राजा ने उनके संबंध में सुना तो दर्शन के निमित्त पहुँचे । उनकी कांति देखकर वे बहुत प्रभावित हुए । बोले-'' आप राजभवन के निकट चलें, वहाँ मैं आपके लिए सारी सुविधाएँ प्रस्तुत कर दूँगा । '' साथ ही उनने यह भी पूछा कि जीवन के आरंभिक चरणों में ही आपने क्यों वैराग्य ले लिया?
मुनि ने उत्तर दिया-'' राजन ! मैं अनाथ हूँ, इसलिए धर्म को सर्व समर्थ जानकर उसकी शरण में आया हूँ । फिर आप भी तो अनाथ हैं , मेरी क्या सहायता कर सकेंगे ?''
इस अनाथ शब्द ने उन्हें असमंजस में डाल दिया । समाधान करते मुनि बोले-'' मैं कौशाम्बी नगर का श्रेष्ठि पुत्र हूँ । किशोरावस्था में नेत्रों में भयंकर पीडा़ उठी । परिवार ने सेवा की ओर चिकित्सा पर विपुल खर्च कराया पर किसी से भी लाभ न हुआ और नेत्र ज्योति चली गई । तब मन में विचार आया कि इस संसार में सहानुभूति प्रकट करने वाले कितने ही क्यों न हों । व्यथाओं से बचाने वाला तो एक मात्र धर्म ही हो सकता है । सो मैं उसी शाश्वत की शरण में आया हूँ । मेरी ही तरह आप भी अनाथ ही हैं । राजा ने वस्तुस्थिति को जान लिया और वे भी मुनि होकर उनकी सहायता करने लगे।
विधिनोद्देश्यपूर्णेन यावदेष क्रमोऽचलत् । वातावृतौ तु देवत्वं तावच्छत्रायितं ह्यभूत ।। ८८ ।। जनानां जीवने तस्यददृशेऽप्युद्गतिः सदा । प्रमादात् सर्वमेवैतन्निरुद्देश्यामथाऽपि च ।। ८९ ।। स्थितिं प्रहसनानां तु याति, सैव च जायते । परिणतिर्भारभूतानां मनोरञ्जनकर्मणाम् ।। ९० ।। पुरेव कर्तुमुद्देश्यपूर्णमेनं क्रमं- बुधाः । युज्यते, परिवर्त्यश्च कालेऽस्मिन् विद्यते त्वयम् ।। ९१ ।। एतदर्थं च विज्ञास्तु गृहीत्वा दूरदर्शिताम् । कुर्युर्यत्रं च संस्कर्तुं येनैषा देवसंस्कृति: ।। ९२ ।। पुनः जीव्यादनेनैव जीवितुं युज्यतेऽपि च । कल्याणं भविता तेन मर्त्यमात्रस्य निश्चितम् ।। ९३ ।।
भावार्थ- जब तक यह सत्र उद्देश्य पूर्ण ढंग से चलता रहा, तब तक वातावरण में देवत्व छाया रहा और जन जीवन में उसका उभार दृष्टिगोचर होता रहा । अब प्रमादवश वह सब निरुद्देश्य और प्रहसन मात्र बनता जा रहा है फलतः उसकी परिणति भी भारभूत मनोरंजनों जैसी होती जा रही है । इसे बदलने और पुरातन काल की तरह उद्देश्य पूर्ण बनाने की आवश्यकता है । विज्ञजनों को इसके लिए दूरदर्शिता अपनाकर सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए । देवसंस्कृति का पुनर्जीवन इसी प्रकार बन पड़ेगा। तभी मानव मात्र का कल्याण हो सकेगा ।।८८- ९३ ।।
व्याख्या- पर्व, संस्कार, सामूहिक धर्मानुष्ठान, धर्म धारणा का प्रसार- विस्तार परिव्रज्या- पद यात्रा, संस्कृति के इन सभी उपादानों के मूल में जो तत्व दर्शन था, उसका उद्देश्य था सत्प्रवृत्तियों से भरा उत्कृष्ट वातावरण, मानव में देवत्व एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण। इन दिनों जो परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे संस्कृति के शाश्वत मूल्यों के प्रति अनास्था की ही परिणतियाँ हैं। उद्देश्य को भूलकर मात्र चिह्न पूजा तक सीमित मानव समयक्षेप एवं अनावश्यक धन खर्च करता तो देखा जा सकता है, पर कलेवर में प्राण न के कारण उसके परिणाम हाथ लगते नहीं ।फलतः निराशा हाथ लगती व नास्तिकता बढ़ती चली जाती है ।समय की आवश्यक है कि संस्कृति की अवधारणाओं को सोद्देश्य बनाकर जन- जन के गले उतारा जाय, ताकि मानव जाति आस्था संकट की विभीषिका से उबर सके ।
सत्य को समझो
यथार्थता को न समझ पाने से ही व्यक्ति दूसरों को दोष देता, स्वयं रोता- कलपता नजर आता है ।
'' भगवन ! आपने इस संसार में लाल, पीले, हरे, सफेद और नीले जैसे सुंदर और आकर्षक रंग बनाए हैं ।तब मैंने ही पूर्व जन्म में कौन सा पाप किया था, जिसके कारण श्यामवर्ण मेरे ही हिस्से में आया ।मेरी कालिमा किसी को पसंद नहीं ।हर व्यक्ति मेरी कुरूपता को देखकर नाक- भौं सिकोड़ता है ।यह आपका सरासर अन्याय है ।'' काले रंग ने उलाहने के स्वर में विधाता से कहा।
विधाता ने मुस्कराते हुए कहा- '' वत्स ! तुम कितने मूर्ख हो ।तुम्हें शायद यह भी मालूम नहीं कि मैं इस संसार में किसी वस्तु को कोई रंग प्रदान नहीं करता ।सारे रंग सूर्य की किरणों में समाए हुए हैं ।जिस वस्तु में उनका रंग खींचकर अपने में पचा लेने और फिर उनको विकीर्ण कर देने की जैसी क्षमता है, वैसा ही रंग उसे प्राप्त हो जाता है ।तू किसी वस्तु को लेकर देना नहीं जानता, सब रंगों को अपने भीतर भरता भर है निकालने का नाम नहीं लेता ।इस दशा में कालिमा तो तेरे पल्ले बँधेगी ही ।मुझे दोषी ठहराने से क्या लाभ ?''
हलूए का प्रलोभन
लोगबाग सत्संग में इन दिनों आते भी हैं तो किसी लालचवश। आत्म प्रेरणा से यदि जन साधारण स्वयं आएँ, तो ऐसे उपदेश गले उतरते भी हैं , नहीं तो वे आत्म प्रवंचना भर बनकर रह जाते हैं।
एक संत के कीर्तन में गाँव के कम लोग आते थे। उनके शिष्य ने एक नया उपाय अपनाया। वह कीर्तन में आने वालों को एक- एक कलछा हलुआ बाँटने लगा। दूसरे दिन से ही आगंतुकों की संख्या बहुत बढ़ गई।
अध्यात्म के पारस से स्पर्श कराने के लिए नासमझों को इसी प्रकार कामना पूर्ति का आशीर्वाद देने के लिए बुलाना पड़ता है।
तृतीयस्य दिनस्येदं मार्गदर्शनमुत्तमम्।
जातं रूचिकरं तेषां सर्वैस्तै निश्चितं ततः ।। ९४ ।। निवृत्यातो विधास्यामः कार्यक्षेत्रेषु स्वेषु तु। धर्मायोजनकार्यणि सोद्देश्यानि तथैव च ।। ९५ ।। जनजागृतिजं पुण्यलाभं प्राप्स्याम उत्तमम्। प्रसन्नश्चान्तरात्मा स्याज्जनता सेविता भवेत् ।। ९६ ।।भावार्थ- तीसरे दिन का यह मार्गदर्शन सभी को बहुत भाया और सभी ने निश्चय किया कि वे लौटने के उपरांत अपने- अपने कार्य क्षेत्रों में धर्मायोजनों का उद्देश्यपूर्ण प्रचलन- निर्धारण करेंगे और जन जागृति का पुण्य लाभ लेंगे, इससे अंतरात्मा तृप्त होगी व जनता- जनार्दन की सेवा भी होगी ।। ९४ - ९६ ।। सत्रे विसर्जिते सर्वे कुटीराँस्तेऽगमंस्ततः। अभिवादनपूर्वं च सायं सन्ध्यामुपासितुम् ।। ९७ ।।
भावार्थ- सत्र का विसर्जन हुआ। लोग अभिवादनपूर्वक सायंकाल की क्रिया- प्रक्रिया को संपन्न करने के लिए अपने- अपने निवास- कुटीरों में चले गए ।। ९७ ।।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययोः, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः, श्रीकात्यायन ऋषि प्रतिपादिते '' पर्वसंस्कार- महात्म्यमि,'' ति प्रकरणो नाम तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।