Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-2
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दायित्वमनयोस्तत्र कर्तव्यं च द्विधैव तत्। विभक्तं तत्र तत्रस्यविधीनां निर्मित: सदा ।। ३७ ।। प्रशिक्षणपरा कार्या कथासत्संगयोरपि। विद्यालयस्य धर्मनुष्ठानस्यापि विशेषतः ।। ३८ ।। व्यायामभवनस्याथ चिकित्सासद्मनोऽपि च। प्रखरत्वविनिर्माणं पुस्तकालयसंस्थितेः ।। ३१ ।। द्वितीयं स्वस्थ सम्पर्कक्षेत्रे सद्वृत्तिवर्धकम्। पौरोहित्यस्य कर्मैतत् कर्तव्यं भवति प्रियम् ।। ४० ।। एतदर्थं जनैस्तत्र सम्पर्कं साधितुं तथा। घनिष्ठतां विधातुं चाऽमिनवार्यत्वं मतं स्वतः ।। ४१ ।। यदर्थं यत्नशीलाश्च देवालयसुशासकाः। सदा सन्ति ददत्येते महत्वमुभयोः स्थितम् ।। ४२ ।।
भावार्थ- इनका कर्तव्य- उत्तरदायित्व दो भागों में बँटा रहता हैं। एक स्थानीय गतिविधियों को लोक शिक्षण परक बनाए रहना। वहाँ पाठशाला, व्यायामशाला, कथा- सत्संग, धर्मानुष्ठान, पुस्तकालय, चिकित्सालय आदि रचनात्मक गतिविधियों को प्रखर बनाए रहना। दूसरा संपर्क क्षेत्र में सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का पौरोहित्य करना। इस निमित्त उस क्षेत्र की जनता के साथ संपर्क साधने और घनिष्ठता रखने की आवश्यकता पड़ती है , जिसके लिए देवालय के संचालक निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं। वे स्थानीय और क्षेत्रीय व्यवस्था को समान महत्त्व देते हैं ।। ३७- ४२ ।।
व्याख्या- मंदिर संचालकों को स्थानीय और क्षेत्रीय दोनों गतिविधियाँ चलानी होती हैं। उसके लिए अपनी योग्यता और भावना दोनों विकसित करनी होती हैं। योग्यता के बिना कार्य नहीं सधता तथा भावना के बिना अपने अंदर उत्साह और दूसरों पर प्रभाव नहीं उभरता। यह दोनों क्षमताएँ संत- समाज में होनी चाहिए। न होने से उनकी उपयोगिता घट जाती है।
समर्थ की सामर्थ्य
समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र क्षेत्र में ८०० हनुमान मंदिर बनाए थे। वहाँ वे, पवन पुत्र की उपासना से जन जन को ' राम काज ' के लिए तैयार होने की प्रेरणा देते थे। सारी रचनात्मक गतिविधियों के केन्द्र उनके मंदिर थे। साथ ही उनका जन संपर्क बड़ा गहरा था। जय जय श्री रघुवीर समर्थ का उद्घोष वे द्वार द्वार पर करते थे। घर घर का वातावरण और जन जन का अंतःकरण उनके स्पर्श से सुधरता था। उसी आधार पर शिवाजी के अभियान के लिए जनशक्ति और धनराशि की व्यवस्था भी होती रहतीं थी।
संत कितने-काम कितना
समर्थ गुरु रामदास की तरह ही संत तुकडो़ जी ने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे कहते थे, संतों ने लोकसेवा का उत्तरदायित्व भुला दिया है। अन्यथा इस देश के नागरिकों को ऋषि भूमि के अनुरूप विकसित करना जरा भी कठिन नहीं है।
वे आकंड़े बतलाते हुए कहते थे, जनगणना के अनुसार ५६ लाख व्यक्ति साधु- बाबा धर्मजीवी है। उनमें से ७-८ लाख अपाहिज भी छोड़ दें, तो भी लगभग ५० लाख व्यक्ति हैं। भारत में ७ लाख गाँव हैं। प्रति गाँव पर सात संत आते हैं, मंदिरों को केन्द्र बनाकर यदि वे एक एक रचनात्मक अभियान चलाएँ, तो स्वास्थ्य शिक्षा, स्वच्छता, सुसंस्कारिता सभी क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगति संभव है और यह भूमि पुनः देवभूमि बन जाय।
व्यायाम मंदिर
झांसी में श्री अन्ना जी ने नगर परकोटा से लगी एक खाली भूमि पर एक झोपड़ी बनाकर उसमें हनुमान जी का एक चित्र रखकर श्री लक्ष्मी व्यायाम मंदिर की स्थापना की। उपासना भाव से व्यायाम करके भक्तों जैसे आदर्श करने की क्षमता बढ़ाने का चिंतन दिया। ' सूत्र दिया ' करने को राष्ट्र रक्षा, व्यायाम मंत्र लीजिये।
स्वार्थी तत्वों द्वारा ढेरों अड़चनें आई पर साधना रुकी नहीं। तंत्र को राजनीतिक प्रपंच से दूर रखते हुए व्यायाम के माध्यम से नैतिक अभियान चलाया। बुंदेलखंड में जगह- जगह व्यायाम मंदिरों की स्थापना की। आज वह उत्तरप्रदेश की मान्य आदर्श संस्था के रूप में प्रतिष्ठित है।
स्वामी केशवानन्द का अभियान
राजस्थान के स्वामी केशवानन्द पढे़- लिखे नहीं थे। उन्होंने संन्यास लेकर जन संपर्क द्वारा चेतना जागरण का क्रम अपनाया। उनके संपर्क से शिक्षा अभियान गति पकड़ गया। जगह- जगह जन सहयोग से विद्यालय खुलते गए। बाद में उनकी संयुक्त व्यवस्था बनी और सगरिया विद्यापीठ के रूप में राजस्थान सरकार ने उसे मान्यता दी। स्वामीजी को आदर्श संत के रूप में सारा क्षेत्र सम्मान देता रहा। दो बार उन्हें निर्विरोध सांसद भी बनाया। बाद में उन्होंने उसके लिए इन्कार करके अपने संपर्क अभियान को ही महत्त्व दिया।
पूजैषा मानवस्याथ प्रभोर्धर्मस्य संस्कृतेः। आश्रमस्थानतो विप्रान् वदन्त्यपि च पूजकान् ।। ४३ ।।
भावार्थ- यह भगवान, मनुष्य और धर्म संस्कृति की वास्तविक पूजा है। इसलिए उन आश्रमवासी ब्राह्मणों को पुजारी भी कहते हैं ।।४३ ।।
व्याख्या- मूर्तियों के सामने पूजा- उपचार प्रतीक पूजा भर होती है। परंतु जब विश्व विराट में फैले प्राणि समुदाय, मानव समुदाय की सेवा सहायता की जाती है, पिछड़ों को आगे बढ़ाया, गिरों को ऊँचे उठाया, अशिक्षितों को शिक्षति किया जाता है तो वही ईश्वर की, देवता की सार्थक पूजा कहलाती है। प्राचीन काल के ब्राह्मण, पुजारी इसी सेवा साधना में संलग्न रहते थे और सच्चे संत की, भक्त की गौरवान्वित पदवी- मान्यता पाते थे।
विवेकानन्द की वसीयत
विवेकानंद जी ने रामकृष्ण मिशन बनाकर मंदिरों के साथ ही आश्रमों की परंपरा बनाई। जब वे अंतिम दिनों रुग्ण थे तब कुछ लोगों ने कहा-'' आप विश्राम क्यों नहीं करते। '' स्वामी जी ने कहा-'' मेरा भाव मुझे बैठने नहीं देता। मैं केवल प्रेम का ही प्रचार चाहता हूँ, मेरे उपदेश वेदांत की समता और आत्मा की विश्व व्यापकता पर ही आधारित है। दुखियों के दर्द को अनुभव करो और उनकी सेवा करने को आगे बढ़ा, भगवान तुम्हें सफल करेंगे। मैं अपने मस्तिष्क में इसी विचार को रखकर १२ वर्ष तक घूमा हूँ। मैं इस देश में भूखा- प्यासा भले ही मर जाऊँ, पर नव जवान !मैं तुम्हारे लिए यह वसीयत छोड़ जाता हूँ कि गरीबों, अज्ञानियों और दुखियों की सेवा के लिए प्राण- पण से लग जाओ। ''
पवित्र हाथ
गुरू गाविंद सिंह को प्यास लगी। उनने गाँव जाकर कहा- '' मुझे पवित्र हाथों से पानी पीना है। लोग हाथों को धोकर और बर्तन मांजकर पानी लाए। गुरु ने कहा-'' हाथ, परमार्थ के लिए श्रम करने से पवित्र होते हैं। मेरा तात्पर्य ऐसे सज्जन का जल पीने से था। '' वैसा व्यक्ति न मिलने पर वे प्यासे ही आगे बढ़ गए।
संत विनोबा
संत विनोबा अत्यधिक निर्धन परिवार में जन्मे। उनकी माता बडी़ विचारशील थीं। उनने अपने तीनों बच्चों को बाल ब्रह्मचारी और ब्रह्मज्ञानी बनाने का निश्चय किया। उसी प्रयास में निरंतर लगी रहीं।
विनोबा की प्रतिभा और जागरूकता असाधारण थी। वे गांधी जी के संपर्क में आए उनकी लगन, प्रतिभा और शालीनता से बापू अत्यधिक प्रभावित हुए और क्रमशः उन्हें एक एक करके अति महत्त्वपूर्ण काम सौंपते गए। उन्हें राष्ट्रभाषा प्रचार, बुनियादी शिक्षा, गोरक्षा, सर्वोदय, भूदान जैसे अनेक काम सौंपे। आडम्बर मात्र बनकर रह रही तीर्थयात्रा को उन्होंने अपनी पदयात्रा द्वारा फिर से नव जीवन दिया। सर्व सेवा संघ और खादी ग्रामोद्योग का कार्य उनके नेतृत्व में भली भांति चला। विनोबा सच्चे अर्थों में संत थे। उनका एक क्षण भी निरर्थक न जाता था। वे कहा करते थे-
''दीन- दुःखी, पीड़ित- रोगी इत्यादि की सेवा करना भी समाज पूजा का एक अंग है, दरिद्र नारायण भी एक महान देवता है। उनका हम पर वह उपकार है, जिसका कभी बदला नहीं चुकाया जा सकता। ''
उपेक्षितों के मसीहा- रिचर्ड एलन
रिचर्ड एलन का जन्म फिलाडेल्फिया में एक गुलाम के यहाँ हुआ। एलन उनमें से न थे, जो परिस्थितियों के आगे सिर झुका देते हैं, उनने पंद्रह वर्ष के होते ही दिन में मालिक का और रात में धकेला गाड़ी खींचने का काम किया। इस अतिरिक्त आय से मालिक का ऋण चुका कर अपना परिवार मुक्त करा लिया। अब उनने मन में अश्वेतों को सच्चे ईसाई धर्म की शिक्षा से परिचित कराने का व्रत लिया। वे धर्म के साथ- साथ मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करने की भी शिक्षा देते थे। उनके हजारों अनुयायी हो गए।
मात्र ऐंटजार्ज चर्च में अश्वेतों का प्रवेश निषिद्ध नहीं था। उसी के माध्यम से धर्म प्रचार और मानवी अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रयास एलन के नेतृत्व में चल पड़ा गोरे आग बबूला हो गए और उन्हें निकाल बाहर करने का प्रयत्न करने लगे।
फिलाडेल्फिया में पीलिया और प्लेग रोग गोरों में फैला। परिवार के परिवार साफ होने लगे। कोई मुर्दे उठाने वाला तक न था। एलन के नेतृत्व में नीग्रो समुदाय ने जो सेवाएँ की, उसकी चर्चा अमेरिका भर में हुई और उस चर्च में गोरे भी सम्मिलित होने लगे। आज उस चर्च के दस लाख सदस्य हैं उस समुदाय को एक बड़ी राजनैतिक और सामाजिक शक्ति माना जाता है। धर्म के साथ- साथ समाज कल्याण के कार्य जुड़ जाने से उसकी प्रतिष्ठा अत्यधिक बढ़ी है।
महान् विद्वान-अपंगों की सेवा में
विद्वान दामियेन की शिक्षा इतनी ऊँची थी कि तीस वर्ष की आयु में उन्हें ऊँचे लाभदायक पद मिल रहे थे, पर उनने सुविधा- साधनों को महत्त्व न देकर पीड़ित मानवता की सेवा करना अपना लक्ष्य निर्धारित किया। वे पादरी बन गए।
उन दिनों हवाई द्वीप समूह में कोढ़ की बीमारी तेजी से फैल रही थी। लगता था यह उपयोगी क्षेत्र कुछ ही दिनों में अपंगों का क्षेत्र बनकर अपनी सत्ता समाप्त कर बैठेंगे। पादरी दामियेन ने अपने सीमित साधन समेटे और हवाई द्वीप समूह के लिए चल दिए। वहाँ उनने कोढ़ियों की चिकित्सा से काम आरंभ किया। किंतु साथ ही शिक्षा, स्वच्छता, उपार्जन जैसे कार्यों से उन लोगों का ध्यान खींचते रहे। उस द्वीप समूह में कितने ही टापू थे। वे नावों की सहायता से उनमें जाते रहते और वहाँ के निवासियों को हर दृष्टि से समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न करते रहते। इस लगन को देखकर उस क्षेत्र के निवासी उनके अनन्य भक्त हो गए ईसाई धर्म में भी दीक्षित रहे।
फादर दामियेन जब से गए फिर वापस लौटे ही नहीं। उनका स्वर्गवास उन्हीं पिछड़े लोगों के बीच हुआ, पर उस क्षेत्र के कोढ़ का निराकरण उनने अपने जीवन में ही कर दिया। इन दिनों द्वीप समूह के लोग ईसाई भी हैं और सुसंपन्न भी।
ब्राह्मण- चिकित्सक
गांधी जी प्राकृतिक चिकित्सा को दरिद्र भारत में जन- जन की उपचार पद्धति और जीवनचर्या बनाना चाहते थे, पर देखा गया कि जहाँ भी प्राकृतिक चिकित्सालय खुले, वे सभी बहुत मँहगे थे और निर्धन लोगों का उसमें प्रवेश होना कठिन था।
डॉ. लक्ष्मैया ने गंभीरता से सोचा और एक नई युक्ति निकाली। उनने एक खेत लिया। उसमें चिकित्सा के लिए आने वालों से श्रमदान कराके शाक- भाजी उगाते और भोजन की निःशुल्क व्यवस्था करते। जो अच्छा होकर जाता, उससे एक गोदान का अनुरोध करते। इस प्रकार कितनी ही गौएँ उन्हें मिल गई और उनका दूध रोगियों को मिलने लगा। गौएँ चराने के साथ- साथ ऐसे व्यायाम बता दिए जाते, जो रोगियों के अनुकूल पड़ते। इसी प्रकार फूँस की झोपड़ियों के लिए साधन समीपवर्ती तथा उदारचेता लोगों से एकत्रित कर लिए जाते। लक्ष्मैया स्वयं उन रोगियों के साथ अपना समय बिताते और उन्हें प्राकृतिक जीवन का दर्शन भी साथ काम करते- करते समझाते जाते।
लक्ष्मैया का प्राकृतिक चिकित्सालय भारत की परिस्थितियों के अनुरूप माना गया और उसे विज्ञजनों द्वारा सर्वत्र सराहा गया।
जनजागरणसम्बद्धा येऽनिवार्या उपक्रमाः। तेषां संचालनायात्र प्रशिक्षण गुहा अपि ।। ४४।। उपासनास्थलैः सार्धमावाससहिता इमे। कर्तुं परम्परा दिव्या वर्तते व्यावहारिकी ।। ४५।। प्रशिक्षणस्थलस्याथ पूजाकक्षस्य तस्य च। संचालकनिवासस्य प्रक्रियाभिः समग्रतः ।। ४६ ।। देवालयस्थितिर्नूनं जायते केवलां तु तान्। प्रतिमास्थापनामाहुरेकांगानुपयोगिनीम् ।। ४७।। विना तावत्प्रबन्धेन पूर्तिर्नोदेद्श्यपूरका। संभवेद् येभ्य आप्तैस्तु देवालयविनिर्मितेः ।। ४८ ।। योजनाऽऽप्ता महाशक्तेर्व्ययः कार्यान्वयाय च। कृतो गाथाश्च गीतास्ता माहात्म्यानां सुविस्तराः।। ४२ ।।
भावार्थ- जन जागरण संबंधी आवश्यक गतिविधियों के संचालन के लिए देवालयों में उपासना स्थल के साथ ही प्रशिक्षण तथा आवास स्थल भी रखने की परंपरा है,जो व्यावहारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पूजाकक्ष संचालक निवास एवं प्रशिक्षण स्थल की त्रिविध प्रक्रियाओं का समावेश रहने से ही एक समय देवालय बनता है। प्रतिमा मात्र की स्थापना को एकांगी, अगुपयोगी एवं निषिद्ध ठहराया गया है। उतना प्रबंध न हो पाने पर उन उद्देश्यों की पूर्ति संभव नहीं, जिनके लिए आप्तजनों ने देवालयों को स्थापित करने की योजना बनाई और कार्यान्वित करने में असीम शक्ति लगाई। प्रेरणा देने वाले माहात्म्यों की गाथा गाई ।।४४- ४९ ।।
व्याख्या- जो निर्धारण बड़े उद्देश्यों के लिए हुए हैं, उनसे सामान्य उद्देश्य भर पूरे हों तो वह एक प्रकार का घाटा है। देवालयों के उद्देश्य बहुत व्यापक और महत्त्वपूर्ण थे। पूजा उपचार क्षणिक संतोष देने वाले क्रमों से उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता। उन्हें बनाने में लगे श्रम और निष्ठाओं का पूरा उपयोग किया जाना आवश्यक है।
भजन हर समय नहीं
किसी योद्धा ने संत से पूछा-'' आप हरदम भजन क्यों नहीं करते ? सेवा कार्यों के झंझट में क्यों पड़ते हैं ?'' योद्धा धनुष कंधे पर रखे था। उसकी प्रत्यंचा ढीली थी। संत ने पूछा' आप हर समय प्रत्यंचा कसे क्यों नहीं रहते ?'' उत्तर मिला-'' ऐसा करने से वह ढीली पड़ जाएगी और तीर जोर से न फेंक सकेगी। ''
संत ने कहा-'' हम जब भजन करते हैं तब प्रत्यंचा कस कर एकाग्र हो लेते हैं और शेष समय मन को सेवा कार्यों में लगाकर ढीला रहने देते हैं। सदा भजन करें तो एकाग्रता की प्रत्यंचा ढीली पड़ जाएगी और भजन भी ढर्रे का एक साधारण काम बन जाएगा। ''
गुरु गोविंद सिंह के बहुउद्देश्यीय गुरुद्वारे
गुरु गोविंद सिंह ने सिक्ख संप्रदाय के गुरुद्वारों को सैनिक छावनियों के रूप में परिष्कृत किया था। वहाँ कीर्तन, पाठ पूजन, आरती प्रसाद सब कुछ होता था, पर साथ ही यह उद्देश्य हर सिख के मस्तिष्क में भरा था कि उन्हें अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना है, आसुरी नृशंसता को परास्त करके धर्म राज्य की स्थापना करनी है। भगवान की भक्ति का यही कर्मठतापूर्ण स्वरूप भी है। जिसके साथ देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष की संभावनाएँ जुड़ी न हों, जो केवल ऋद्धि - सिद्धि एवं स्वर्ग मुक्ति की स्वार्थपरता तक चिपकी पड़ी हो, वह न तो भक्ति है, न साधना, वह तो ओछी स्वार्थपरता का एक उपहासास्पद रूपमात्र है जिससे न लोक बनता है, न परलोक। ओछे आदमी के ओछे विचार उसे ओछे मन तक ही सीमित रखते हैं और ओछे ही प्रतिफल देते हैं, उस लक्ष्य को सिक्ख धर्म के संस्थापक भली- भाँति जानते थे इसलिए उन्होंने गुरुद्वारों द्वारा उन्हीं भावनाओं का प्रसार किया। फलस्वरूप उनकी कृतियों से भारतीय धर्म सदा गौरवान्वित रहेगा।
पादरी अब्बे पियरे
फ्रांस के एक सामान्य परिवार में जन्मे अब्बे पियरे पिता के आदेशानुसार पादरी तो बन गए पर सूखा धर्मोपदेश उनके गले न उतरा। वे सोचने लगे मनुष्य की सहानुभूति सेवा के बिना अर्जित नहीं की जा सकेगी। सेवा मार्ग क्या अपनाया जाय ? इसके लिए उन्हें अपना पैतृक धंधा याद आया। उनके पिता टूटी वस्तुओं की मरम्मत करने की दुकान चलाते, फेंकने लायक वस्तुओं को जोड़- तोड़ और ठोंक- पीट कर काम चलाऊ बना देते थे। इससे निर्धन समुदाय का पैसा बचता और वे बहुत संतुष्ट होते। अब्बे पियरे ने यही उपाय सेवा धर्म के लिए अपनाया।
उनने दो चार कारीगर साथ लिए और घर- घर आवाज देकर मरम्मतें करने लगे। उनसे बिना माँगे जो मिल जाता उसे अपने नए सेवा भावी चर्च में जमा कर देते। यह प्रक्रिया बहुत लोकप्रिय हुई। उनने नए पादरियों के नेतृत्व में ऐसी दस नई मंडलियाँ गठित कर दीं।
उनने इसी आधार पर ३० शिक्षा केन्द्र, १० चिकित्सालय, १५ सस्ते भोजनालय तथा निर्धनों के लिए ६००० झोपड़े बनाए। गृह उद्योग में भिक्षुकों और अपंगों को लगाया। अब्बे पियरे ने पादरी समुदाय के सन्मुख एक नया आदर्श रखा। फलतः चर्चों ने अपने अपने धर्म स्थानों में किसी न किसी प्रकार की सेवा योजना जोड़ी।
कैवल्य धाम आश्रम
गुजरात में जन्मे जगन्नाथ मुले ने विद्याध्ययन के उपरांत योग विज्ञान की खोज और समाज सेवा का व्रत लिया। साथ ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प भी । वे खान देश नेशनल कॉलेज के प्राचार्य एवं रेक्टर रहे। बड़ौदा सरकार के प्रोत्साहन पर उस राज्य में गाँव- गाँव घूमे और व्यायामशालाएँ स्थापित कीं। बंबई सरकार के शारीरिक शिक्षा मंत्रिमंडल के वे निदेशक रहे।
अंत में उन्होंने पूना के पास लोना वाला नामक स्थान में ' कैवल्यधाम ' आश्रम स्थापित किया। उसमें योग की वैज्ञानिक ढंग से शिक्षा दी जाती है। आश्रम शोध विषयक उपकरणों से संपन्न है और उसके पास अपनी १०० एकड़ जमीन है। स्वामी की प्रामाणिकता के कारण आश्रम के लिए इतने साधन जुटने में बहुत कठिनाई नहीं हुई।
स्वामी जी ने आजीवन सादा कपड़े पहिने रंगे नहीं। वे योग को जादू- चमत्कार नहीं वरन् शारीरिक मानसिक रोगों के निराकरण का आधार मानते थे। आश्रम की गुजरात में कई शाखाएँ भी है।
कात्यायन उवाच- भद्रा ! देवालयस्येदं पारम्पर्यं वहन्ति ते । ब्राह्मणा आश्रमस्थास्तु तथैव भ्रमणादपि ।। ५० ।। जनजागृतिकार्यस्य पुण्ये लग्ना विधौ च ये । परिव्राजकविप्राणां पद्धतिस्त्वात्मनोऽस्ति सा ।। ५१ ।। वानप्रस्थाः प्रवृत्तास्ते संन्यासस्था इहैव तु । यथा मेधा धरां शुष्कां सिञ्चितां कर्तुमुद्यताः ।। ५२ ।। धावन्ति च जगत्प्राणो गत्वा प्राणान् प्रयच्छति । मनुष्येभ्यस्तथा चैष प्रभाया ऊष्मणोऽपि च ।। ५३ ।। दाता दिवानिशं धत्ते प्रव्रज्यामिव भास्कर । तमिस्त्रायां प्रभा शैत्यं शीतांशुः स प्रयच्छति ।। ५४।। देवा इव मनुष्येषु देवानां स्तरगास्तु ये । जनजागृतिहेतोस्ते भ्रमन्ति हृदये नृणाम् ।। ५५ ।। तत्र धर्मधृतिं भावयन्ति दिव्यां गृहे गृहे । सद्वृत्तिवर्धनस्याऽपि प्रखरं कर्म कुर्वते ।। ५६।। प्रयोजनाय चैतस्मै यत्ना येऽनेकरूपिणः। क्रियन्ते तीर्थयात्रास्ते कथ्यन्ते सर्व एव हि ।। ५७।।
भावार्थ - कात्यायन पुनः बोले- हे भद्रजनो ! जिस प्रकार देवालय परंपरा को आश्रमवासी ब्राह्मण सँभालते हैं उसी प्रकार परिभ्रमण द्वारा जन जागरण की पुण्य प्रक्रिया में निरत रहने वाले परिव्राजक, संत समुदाय की अपनी कार्यपद्धति है। वानप्रस्थ और संन्यासी इसी में प्रवृत्त रहते हैं। बादल सूखी भूमि को सींचने के लिए दौड़ते हैं। पवन हर प्राणी को उनके पास जा- जाकर प्राण- अनुदान बाँटता है। सूर्य कीं अहर्निश प्रव्रज्या संसार को गर्मी तथा रोशनी बाँटने के निमित्त चलती है। चंद्रमा सघन तमिस्रा में यथा संभव प्रकाश देता और शीतलता बिखेरता है। इन देवताओं की तरह मनुष्यों में जो देवस्तर के हैं, वे जन- जागरण के लिए सर्वत्र परिभ्रमण करते जन- जन के मन में धर्म धारणा उगाते, घर- घर में सत्प्रवृति संवर्द्धन का अलख जगाते हैं। इस प्रयोजन के लिए विभिन्न रूपों में किए जाने वाले प्रयत्न तीर्थयात्रा कहलाते हैं ।।५०-५७।।
व्याख्या- तीर्थयात्रा का परमार्थ पक्ष वह है जिसमें विज्ञजन मंडली बनाकर, धर्म प्रचार का उद्देश्य आगे रखकर चलते थे। मार्ग में मिलने वालों से ऊँचा उठाने वाली, आगे बढ़ाने वाली वार्ता करते थे। रात्रि को जहाँ ठहरते, वहाँ लोक शिक्षण के निमित्त कथा- कीर्तन का आयोजन रखते थे। साथ ही व्यक्तिगत अथवा स्थानीय उलझनों के संदर्भ में सुझाव- समाधान भी प्रस्तुत करते थे। लोग उनकी निष्पक्षता, विद्वता एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर बातें मानते भी थे। इस प्रकार यह तीर्थ यात्राएँ घर- घर अलख जगाने और जन- जन के मन- मन में धर्म धारणा उभारने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। उस प्रयास की उपयोगिता और संलग्न व्यक्तियों की महानता को देखते हुए श्रद्धालु लोगों ने उनके प्रवास को सरल बनाने में पूरा- पूरा सहयोग दिया था। धर्मशालाएँ, सदावर्त, उद्यान बनाने में तीर्थयात्रा के लिए सुविधा साधन जुटाना, धर्म प्रचारकों को सहयोग देना ही एकमात्र प्रयोजन था।
धर्म पुरुषों की तीर्थयात्रा
प्रख्यात धर्म पुरुषों में से अधिकांश ने अपनी कार्यपद्धति में तीर्थयात्रा तप को प्रधान रूप से सम्मिलित रखा है। छोटे या बड़े संतों की जीवनचर्या पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आ खड़ा होता है।
देवर्षि नारद जी निरंतर यात्रा निरत रहे। कहते हैं दो घड़ी से अधिक नहीं ठहरने का उन्हें अभिशाप था। वे नित्य परिव्राजक हैं, उनका काम ही है अपनी वीणा की मनोहर झंकार के साथ भगवान के गुणों का गान करते हुए सदा यात्रा करना। भक्ति सूत्र निर्माता नारद जी के संबंध में यह भी कहा जाता है कि उनकी प्रतिभा थी- संपूर्ण पृथ्वी पर घर- घर में एवं जन- जन में भक्ति की स्थापना करना।
दक्षिण में असुरों के बढ़ते हुए अत्याचार को रोकने के लिए अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण की यात्रा कर वहाँ अपना आश्रम बनाया। लक्ष्मण को अगस्त्याश्रम का परिचय देते हुए राम कहते हैं-
यदा प्रभृति चक्रान्ता दिगयं पुण्यकर्मणा। तदा प्रभृति निर्वैराः प्रशान्ता रजनीचराः ।। -वाल्मीकि रामायण उन पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दक्षिण दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहाँ के राक्षस शांत हो गए हैं तथा उन्होंने दूसरों से बैर- विरोध करना छोड़ दिया है। लोक कल्याण के व्रती महात्मा बुद्ध ने लगातार ४५ वर्ष तक देश भर में भ्रमण करके जनता को सत्य धर्म का उपदेश दिया और उनको अनेक कुरीतियों और अंधविश्वासों से छुड़ाकर कल्याणकारी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
सम्राट अशोक ने तेईस वर्ष तक राज्य करने के उपरांत ईसा पूर्व २४९ में उनने अपने राज्य के तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया। पाँच लाटों में अंकित वृत्त से यह पता चलता है कि वे मुजफ्फरपुर और चम्पारन होते हुए हिमालय की तराई तक गए और वहाँ से पश्चिम की ओर मुड़कर लुंबिनी वन पहुँचे, जहाँ तथागत का जन्म हुआ था। अपनी यात्रा के स्मारक के रूप में उन्होंने लुंबिनी वन में भी एक लाट स्थापित की थी। आचार्य उपगुप्त के साथ फिर कपिलवस्तु, सारनाथ, श्रावस्ती गए। इस प्रकार बौद्ध तीर्थों की यात्रा करते- करते सम्राट अशोक कुशीनगर पहुँचे। तीर्थयात्रा के उपरांत अशोक ने संन्यास धारण कर लिया एवं सारा समय धर्मचर्या एवं धर्मोपदेश में बिताया ।
जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने दिग्विजय का शुभारंभ किया। अनंतशयन, अयोध्या, इंद्रप्रस्थपुर, उज्जयिनी कर्नाटक, कांची, चिदंबर, बद्री, प्रयाग आदि तीर्थ क्षेत्रों और महानगरों में आत्मज्ञान और धर्म का प्रचार किया।
कश्मीर से रामेश्वर तक की विद्वत्मंडली ने उनकी विद्वता का लोहा मान लिया। उन्होंने पदयात्रा के अंतर्गत दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन, पश्चिम में द्वारका में शारदा और उत्तर बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना की ।
संत ज्ञानेश्वर ने अलंदी से, नेवा से वापस आने पर पंद्रह वर्ष की आयु में सं. १३४७ वि० में 'ज्ञानेश्वरी गीता' का प्रणयन किया, तदुपरांत तीर्थयात्रा आरंभ की । उनके साथ निवृत्तिनाथ सोपानदेव, मुक्ताबाई, नरहरि सोनार आदि तत्कालीन संत थे। वे पंढरपुर वहाँ से संत नामदेव उनके साथ हो गए । फिर उक्त संत मंडली ने उज्जैन, प्रयाग, काशी,अयोध्या, गया, गोकुल, वृंदावन, गिरिनार आदि तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की । लोगों को अपने सत्संग से सचेतकर जागरण का सर्वत्र संदेश सुनाया । संत ज्ञानेश्वर की इस ऐतिहासिक, लोक शिक्षण परक तीर्थयात्रा की बड़ी ख्याति सुदूर क्षेत्रों में फैल गई । वे मारवाड़ और पंजाब की ओर भी गए । तीर्थयात्रा से लौटने पर पंढ़रपुर में संत नामदेव ने इस यात्रा यज्ञ की पूर्ति स्वरूप एक विशाल उत्सव का आयोजन किया ।
संत एकनाथ अपने अनुष्ठान की पूर्ति के बाद गुरु आज्ञा से तीर्थयात्रा के लिए निकल पडे़ । उनकी तीर्थयात्रा में जनार्दन पंत ने नासिक त्रयंबकेश्वर तक उनका साथ दिया । ब्रह्मगिरि की परिक्रमा के उपरांत गोदावरी, ताप्ती, गंगा और यमुना का स्नान किया । आठों विनायक और बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन किए । वृंदावन, काशी, प्रयाग, गया, बदरिकाश्रम एवं द्वारिका की यात्रा की । संत एकनाथ ने १३ साल तक यात्रा की । २५ वर्ष की अवस्था में वे पैठण लौट आए ।
चैतन्य महाप्रभु ने भी सामूहिक एवं एकाकी रूप से अनेक स्थलों का परिभ्रमण किया । गया गए, फिर नील्कांचल के उपरांत दक्षिण की यात्रा की । अपने भक्त और अनुचर गोविंद को लेकर वे हाजीपुर, मिदनापुर होते नयनागढ़ गए । चैतन्य ने अलौकिक प्रेम भाव का ही उपदेश दिया । ढलेश्वर, जलेश्वर, हरिहरपुर, बलशोर होते हुएनीलगढ़ गए । अपनी तीर्थयात्रा में उन्होंने जनमानस का परिष्कार किया । सत्याबाई और कमलाबाई वेश्याओं का हृदय परिवर्तन किया । महाप्रभु कांचीपुरम् गए, शिव कांची, पक्षी तीर्थ, काल तीर्थ, संधि आदि पवित्र तीर्थों के दर्शन करते हुए वे तिरुचिरापल्ली पहुँचे । तज्जावूर, कृन्ती, कर्णपडा़, पद्मकोट, त्रिपत्र, श्रीरंगम, रामेश्वर आदि दक्षिण भारत के अनेक तीथों का महाप्रभु ने भ्रमण किया । महाराष्ट्र के बाद गुजरात, द्वारका, सोमनाथ, जूनागढ़ प्रभास क्षेत्र होते हुए मध्यभारत के अनेक स्थलों कें दर्शनार्थ गए । अंत में उत्तर भारत की यात्रा अकेले पैदल की । मथुरा-वृंदावन, प्रयाग काशी गए । श्री चैतन्य ने भारत का मन जीत लिया । मात्र ४८ वर्ष की आयु पाकर ही उन्होंने तीर्थग्रात्रा द्वारा लाखों पतित पददलितोंका उद्धार किया । जो समाज में पदच्युत थे , उन्हें नई हैसियत दी । समग्र समाज को जीने के लिए एक नई आस्था प्रदान की ।
सन् १८८८ में स्वामी विवेकानंद देश भ्रमण के लिए निकले, उन्होंने लगातार कई वर्ष तक देश व्यापी यात्रा परिभ्रमण किया । इस यात्रा से उन्होंने विभिन्न भारतीय वर्गो की अच्छी जानकारी प्राप्त की । राजस्थान में पहले वे अलवर गए । घूमते-घूमते ज्ञानोपदेश करते लिम्बडी़ काठियावाड़ गए, फिर मैसूर पहुँचे । फिर वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहुँचे । बाद में अमेरिका, इंग्लैण्ड एवं अन्य पाश्चात्य देशों की यात्रा की ।
स्वामी रामतीर्थ ने अपनी देश- विदेश की यात्राओं में अध्यात्म का सच्चा स्वरूप प्रतिपादित किया । सनातन धर्म सभा के प्रसिद्ध उपदेशक दीनदयाल शर्मा के साथ उन्होंने ब्रज, प्रयाग और काशी की तीर्थयात्रा की । उत्तराखण्ड की यात्रा भी की । हिमालय के अंचल से मैदान में उतर कर उन्होंने मथुरा, फैजाबाद, लखनऊ आदि की यात्रा कर वेदांत पर महत्त्वपूर्ण भाषण दिया । स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका, जापान तथा मिश्र आदि देशों की जनता को सत्य, शांति और प्रेम का संदेश दिया।
स्वामी दयानंद विद्याध्ययन के उपरांत प्राय: परिभ्रमण ही करते रहे । आर्य समाजों की स्थापना, उन्हें गति देना, शास्त्रार्थ, साहित्य लेखन आदि सभी कार्य उन्होंने अपने प्रवास कार्य के साथ ही संपन्न किए थे ।
कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने विलायत से लौटकर तीर्थयात्रा की । उन्होंने देश के गरीबों की स्थिति का अध्ययन करने हेतु कलकत्ते से पेशावर तक बैलगाड़ी में यात्रा की । यद्यपि उस समय रेलगाड़ी चल निकली थी, किंतु रेल यात्रा में पिछड़े हुए गाँवों और भूखे- नंगे कृषकों की अवस्था का क्या पता लग सकता था ?
अफ्रीका से लौटने पर गाँधी जी ने एक वर्ष तक समस्त देश का भ्रमण किया।एक वर्ष तक देश की यात्रा करने के उपरांत गाँधी जी अहमदाबाद लौटे, और वहाँ साबरमती नदी के किनारे उन्होंने अपने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की।उनकी डाँडी नामक सत्याग्रह यात्रा एवं नोआखाली की साम्प्रदायिक सद्भाव यात्रा तो प्रसिद्ध ही है ।
संत विनोबा ने पूरे देश में पैदल घूम-घूमकर लाखों गरीबों की जीविका की व्यवस्था करने के साथ भारतीय जनता की दशा का निरीक्षण किया और उनकी समस्या को समझा।पाकिस्तान की भी पदयात्रा की।चौदह वर्ष सन् १९५१ से १९६४ तक लगभग ४३ लाख मील की पैदल यात्रा करके विनोबा ने जब पुन: अपने आश्रम में प्रवेश किया, तो उस समय उनको ४ ,२३६-८२७ एकड़ जमीन भूदान में मिली और ७५६० ग्राम दान में मिले ।
साधुभ्यस्तीर्थयात्रायास्तपः कर्तुं सदैव तु । शास्त्रीयं वर्तते दिव्यं विधानं पुण्यदायकम् ।। ५८ ।। अयमुच्चतरो नूनं योगाभ्यासोऽस्ति वा पुनः । देंवाराधनमेतस्माद् यत्नस्यास्य फलं नहि ।। ५१ ।। कस्मादपि विचारास्तु न्यूनमास्ते परार्थगात् । मण्डले यान्ति सर्वे ते परिव्राजकसाधवः ।। ६० ।। येन यत्राऽपि वास: स्यात्प्रचारस्तत्र संभवेत् । सोत्साहं मण्डले तत्र भवन्त्येव सदैव च ।। ६१ ।।
भावार्थ- साधु समुदाय को सर्वदा तीर्थयात्रा की तपश्चर्या करते रहने की पुण्यदायी शास्रीय विधान है। यह उच्चस्तरीय योगाभ्यास एवं देवाराधन है।इस प्रयास का पुण्यफल किसी भी परमार्थ उपक्रम से कम नहीं माना गया है।इसके लिए परिव्राजक, मंडली बनाकर निकलते हैं, ताकि जहाँ ठहरें वहाँ उत्साहवर्द्धक प्रचार प्रक्रिया संपन्न कर सकें ।। ५८ - ६१ ।।
व्याख्या- परमार्थं हेतु चलते रहना देव संस्कृति का उद्घोष है । 'चरैवेति- चरैवेति' चलते रहो, चलते रहो- का मंत्र इसी निमित्त दिया गया है।
ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है- ' बैठे हुए व्यक्ति का भाग्य भी बैठा रहता है,बढ़ता नहीं। उठकर चलने वाले का भाग्य उन्नति की ओर बढ़ता है। भूमि पर सोते रहने वाले का भाग्य भी सोता है। जो देश- देशांतर में अर्जन के लिए निकल पड़ता है उसका भाग्य दिन- दिन बढ़ता जाता है। सोने वाला कलि बनता है, नींद को त्याग करने वाला द्वापर, उठने वाला त्रेता, चलने वाला सतयुग बनता है। ''
जीवन की सार्थकता प्रवाहित होते रहने में
दूर -बहुत दूर से प्रभावित होकर आती हुई सरिता की एक धारा ने अपनी सहेली से कहा- '' मैं तो अपने इस गतिशील जीवन से ऊब गई हूँ। एक क्षण को भी विश्राम नहीं, ऐसा भी जीवन किस काम का। अब तो मेरा इरादा नहीं है। देखो आम्र की यह सघन कुंजें कितनी शीतलता प्रदान करने वाली है। मैं तो इन्हीं के नीचे विश्राम करूँगी। '' और वह वहीं रुक गई। घनी छाया के निचले स्थान को जलपुरित करने लगी। दूसरी धारा आगे बढ़ती गई पर जाते- जाते कह गई- '' तू इस बात को क्यों भूलती है कि अपने जल की पावनता, स्वच्छता और स्वस्थता गतिशीलता में है और यदि तेरे जीवन में अकर्मण्यता ने स्थान बना लिया तो स्वाभाविक गुणों से भी हाथ धो बैठेगी । ''
पहली धारा ने अपनी सहधारा की अनुभवजन्य बातों को सुनकर भी अनसुना कर दिया। उसने एक सरोवर का रूप धारण कर लिया। थोड़े दिनों बाद पानी के घिरे रहने के कारण ऊपर काई की मोटी परत जम गई। पानी इतना गंदा तथा दुर्गंधयुक्त हो गया कि ग्रामवासियों ने उसमें अपने पशुओं को पानी पिलाना तथा कपड़े धोना तक बंद कर दिया।
महान् संतों की तीर्थयात्रा
संतों का क्रम तीर्थयात्रा के बिना पूरा ही नहीं होता था।
गोस्वामी तुलसीदास ने १४ वर्ष तक तीर्थयात्राएँ की। वे प्रयाग, जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारिका, बदरिकाश्रम आदि पावन स्थलों के दर्शनार्थ गए। तीर्थयात्रा के बाद वे काशी में रहकर संतों का संग और राम की कथा कहने लगे।
संत तुकाराम ने तत्कालीन महाराष्ट्र को ही नहीं, संपूर्ण भारतीय राष्ट्र को आत्मदर्शन एवं भगवद् दर्शन प्रदान किया । पंढरी की यात्रा का उन्होंने आजीवन पालन किया ।
गुरु नानक जी लगभग तीस वर्ष की आयु में सांसारिक बंधन से मुक्त होकर भटकती हुई मानवता को सत्य मार्ग का उपदेश देने निकल पडे़ । गुरु नानक ने देश-विदेश की व्यापक यात्राएँ कीं । उन्होंने १५ वर्ष तक भारतवर्ष की चारों दिशाओं में सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएँ कीं और अंत में अफगानिस्तान, ईरान, अरब और ईराक तक गए ।
समर्थ गुरु रामदास ने १२ वर्ष के तप के उपरांत १२ वर्ष तक तीर्थयात्रा की एवं सं. १७०१ के वैशाख मास में कृष्णा नदी के तट पर आए । तीर्थयात्रा के प्रसंग में श्री समर्थ जहाँ-जहाँ गए, वहाँ-वहाँ इन्होंने मठ स्थापित किए । लोक कल्याण की भावना से धर्म स्थापनार्थ उस युग में जब रेल, तार, जहाज अखबार, प्रेस आदि का सर्वथा अभाव था, समस्त देश में घूमे । वे सर्वप्रथम काशी गए । फिर मथुरा-वृंदावन से पंजाब, श्रीनगर एवं कश्मीर पहुँचे । वहाँ से चलकर हिमालय में केदारनाथ-बद्रीनाथ की यात्रा की । उत्तराखंड के उपरांत जगन्नाथ गए । लंका से वापस होते हुए केरल, मैसूर फिर महाराष्ट्र आ गए । यहां उन्होंने गोकर्ण, वैंक्टेश, मल्लिकार्जुन, बालनरसिंह, पालन नरसिंह का दर्शन किया, इसके बाद पठ्यसर, ऋष्यमूक, करवीर क्षेत्र पंढरपुर आदि होकर पञ्चवटी लौट आए ।
तीर्थयात्रा से उच्चस्तरीय पुण्य मिलता है । महाभारत युद्ध के बाद धर्मराज ने तीर्थयात्रा की थी । उस संबंध में नकुल ने पूछा, तो उन्होंने समझाया- तीर्थयात्रा एक उच्चस्तरीय तप है । जन साधारण में आस्थाएँ जगाने तथा सत्पुरुषों के सान्निध्य के उद्देश्य से बढ़ा हर चरण पापनाशक होता है । युद्ध से भड़की हिंसा से सूक्ष्म जगत में जो विक्षोभ पैदा होता है, उसके शांत करने के दो ही उपचार हैं- एक यज्ञ, दूसरा सद्भाव संचार की तीर्थयात्रा। ''
तीर्थयात्रा के पुण्य
तीर्थों के संस्कारित वातावरण से यात्री की दुष्प्रवृत्तियाँ कटती हैं, सत्पुरुषों के सान्निध्य से पुण्य भाव जागते हैं। इन्हीं सब कारणों से तीर्थयात्रा को उच्चस्तरीय पुण्य माना गया है।
वृत्रासुर के वध से इंद्र को जो ब्रह्म हत्या का पातक लगा था, उसके निवारण के लिए ऋषियों ने उन्हें तीर्थ सेवन का ही विधान दिया था। प्रभास क्षेत्र में तप करके वे पाप मुक्त हुए थे।
भगवान राम ने लंका युद्ध के बाद तीर्थ सेवन से प्रायश्चित द्वारा अपने आप को शुद्ध और रामराज्य स्थापना के योग्य प्रखर बनाया था।उन्होंने देव प्रयाग में तीर्थ सेवन किया था।उनके भाइयों ने भी क्रमशः भरत ने ऋषिकेश, लक्ष्मण ने लक्ष्मण झूला तथा शत्रुघ्न ने मुनि की रेती में रहकर तीर्थ सेवन साधना पूरी की थी।
ईसा की तीर्थयात्रा
ईसामसीह ने पहले अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति के लिए तीर्थयात्रा की थी। डॉ. नोटोविच की कृति '' ईसामसीह का अज्ञात जीवन चरित्र '' के अनुसार चौदह वर्ष की आयु में ईसा सौदागरों के एक दल के साथ भारत (सिंध) आ पहुँचे। इसके बाद वे जगन्नाथ गए। वहाँ उन्होंने वेदशास्त्र का अध्ययन किया। फिर बनारस आदि स्थानों की यात्रा में ६ वर्ष व्यतीत हो गए। फिर कपिलवस्तु पहुँचे। बौद्ध शास्त्रों का भी उन्होंने अध्ययन किया। उसके पश्चात वे नेपाल और हिमालय से होते हुए ईरान पहुँच कर स्वजातीय भाइयों में उस आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने की तीर्थयात्रा करने लगे, जो उन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन और स्वानुभव से प्राप्त किया था । जन जागरण की उनकी यह एक अनूठी तीर्थयात्रा थी ।
तीर्थयात्रास्वरूपं तु पदयात्रैव विद्यते ।लोकैश्च बहुभिर्भूयान् सम्पर्कस्त्वेवमेव हि । । ६२ । ।
भावार्थ- तीथर्यात्रा का स्वरूप पदयात्रा है क्योंकि अधिक लोगों से अधिक जनसंपर्क साधना,इसी प्रकार संभव हो सकता है । ।६२। ।
व्याख्या-प्राचीनकाल में धर्म परायण व्यक्ति छोटी-बड़ी मंडलियाँ बनाकर तीर्थयात्रा के लिए पैदल ही निकलते थे । कहाँ से चलकर, किस मार्ग रो, किन-किन स्थानों पर ठहरते हुए, कब तक वापस लौटेंगे, इसकी रूपरेखा प्रत्येक मंडली अपनी-अपनी पृथक-पृथक बनाती थीं । मार्ग में जो भी गाँव, झोंपड़े, बंगले, पुरवे मिलते थे, उनमें रूकते, ठहरते किसी उपयुक्त स्थान पर रात्रि विश्राम करते थे । यही क्रम निरंतर चलता था । दिन में जहाँ रुकना हो, वहाँ धर्मचर्चा करना, लोगों को कथा सुनाना और उन्हें उपयुक्त मार्गदर्शन देना, यह कम प्रात: से सायंकाल तक चलता था । रात्रि में जहाँ रुकते, वहाँ कथा-कीर्तन का, शंका समाधान का सत्संग क्रम बनता था । यही कार्य पद्धति पूरी यात्रा अवधि में बनी रहती थी । काय-चिकित्सा, मानसिक-चिकित्सा, उपयोगी परामर्श, समर्थ शुभकामना जैसे अनेक लाभ इस संत मंडली के संपर्क से जन साधारण को मिलते थे । इन मंडलियों के स्तर एवं क्रिया-कलाप से जन-जन के मन-मन में अपार श्रद्धा उमड़ती थी । अस्तु, वे उनके प्रति न केवल भाव भरा सम्मान व्यक्त करते थे, वरन् उनके लिए आवश्यक सुविधा जुटाने में पूरा-पूरा सहयोग भी करते थे ।
शास्त्र मत
तीर्थयात्रा का अनुशासन समझाते हुए शास्त्र कहते हैं-
इति ब्रुवन् रसनया मनसा च हरि स्मरन् । पादचारो गतिं कुर्यात् तीर्थं प्रति महोदय: ।।
अर्थात् वाणी से कीर्तन करते हुए तथा मन से भगवान का स्मरण करते हुए पैदल तीर्थयात्रा करने से महान अभ्युदय होता है ।
स्कंद पुराण में उल्लेख है- ''सवारी तीर्थयात्रा का फल अपहरण कर लेते हैं। उसका आधा छत्र तथा पादुका हरण कर लेते हैं। व्यापार पुण्य का तीन चतुर्थांश अपहरण करता है तथा प्रतिग्रह तीर्थ के सारे पुण्य को नष्ट कर देता है ।
कृष्ण पैदल गए
भगवान कृष्ण ने बद्रिकाश्रम जाकर तप किया था। बद्रीनाथ जी के पैदल मार्ग पर ऋषिकेश के बाद पहला पड़ाव है गरुड़ चट्टी। भगवान कृष्ण द्वारिका से ऋषिकेश तक गरुड़ वाहन पर आए थे। जहाँ उन्होंने छोडा़ था, उस स्थान को गरुड़ चट्टी के नाम से अभी तक याद किया जाता है।
तीर्थयात्रा पैदल करने की परिपाटी का यह एक ज्वलंत प्रमाण है।
भरत पैदल चले
भरत जी श्रीराम को मनाने चित्रकूट गए थे। सारे वाहन साथ थे, पर वे पैदल ही चले थे, भले ही अभ्यास न होने से पैरों में छाले पड़ गए।
तीर्थाटन के प्रत्यक्ष लाभ
एक विदेशी श्रद्धालु ने महर्षि अरविन्द से पूछा- '' पुराणों में तो हर तीर्थ का महात्म्य इतना बढ़ा- चढ़ाकर लिखा है कि थोड़े से स्थानों को देख लेने भर से सभी आध्यात्मिक उद्देश्य प्राप्त हो सकते हैं,पर यह असंभव लगता है। बुद्धि संगत लाभों का विवेचन करें। ''
श्री अरविन्द बोले- '' तीर्थयात्रा का वास्तविक उद्देश्य पदयात्रा से ही सधता है।लंबी पदयात्राएँ यदि क्षमता के अनुरूप और शांत चित्त से की जाएँ, तो वे स्वास्थ्य सुधारती हैं। अपरिचित स्थानों को, उनकी परिस्थितियों को देखने से मनुष्य का ज्ञान अनुभव बहुत अधिक बढ़ जाता है।उपयोगी मनोरंजन तो प्रत्यक्ष ही है।ऐतिहासिक घटनाओं से भलाई बढ़ाने और बुराई घटाने की बहुमुखी प्रेरणाएँ मिलती हैं।पर्यटन एक राष्ट्रीय महत्त्व का उद्योग है। उससे पैसा घूमता है और व्यवसाइयों तथा श्रमिकों को आजीविका मिलती है।अनेक स्तर के लोगों से संपर्क बनने पर व्यवहार कुशलता बढ़ती है।ज्ञान अर्जन के लिए विद्यालयों से भी बढ़कर यात्राओं का महत्त्व है। विज्ञजन धर्म प्रचार की मंडलियाँ बनाकर परिभ्रमण करते थे। उससे पिछड़े और प्रगतिशील लोगों को अपने- अपने काम के उपदेश परामर्श सुनने को मिलते हैं।यह लोक शिक्षण की अति महत्त्वपूर्ण पद्धति है।
रेल, मोटर और द्रुतगामी वाहनों पर जाने से तो स्वल्प लाभ मिलता है। उन प्रयासों को मनोरंजन प्रधान ही माना जाना चाहिए। पदयात्रा का प्रयोजन इन दिनों साइकिल यात्रा से भी पूरा हो सकता है।
चीनी यात्री फाह्यान
ईसा की तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म चीन के कोने- कोने में पहुँच चुका था, पर जिस भारत में उस दर्शन की उत्पत्ति हुई थी, उसकी वर्तमान दशा को सही रूप में जानने के उन दिनों कोई साधन न थे।जिज्ञासु फाह्यान ने इसके लिए साहस किया। उसने भाषा संबंधी कठिनाइयों को अपने देश में रहकर ही पार किया।भारत आने का कोई व्यवस्थित मार्ग न था। उसे यहाँ तक आने में पाँच वर्ष लगे। इस अवधि को कितनी कठिनाइयों के बीच उसने पार किया होगा, इसकी कल्पना भी आज तो कठिन है, पर जिसका संकल्प बल साथ दे, उसके लिए कोई बात कठिन नहीं।
भारत आकर उनने यहाँ के सभी प्रमुख स्थानों को विशेषतया बौद्ध दर्शन के उद्गम स्थानों को बड़े ध्यान पूर्वक देखा। उसने उस समय की भारत की स्थिति को निष्पक्ष भाव से लिखा है। लौटते समय तक भारत के जलयान द्वारा लंका- जावा समुद्री मार्ग से चीन पहुँचने लगे थे। फाह्यान उसी मार्ग से वापस लौटा। उसने अपने देशवासियों को उस ज्ञान से परिचित कराया, जिसके लिए चीन वासी तरसते थे।
तीर्थयात्रिपरिव्राजः स्वयात्राया उपक्रमम् । क्षेत्रावश्यकतारूपं कुर्वते विश्रमस्य च ।। ६३ ।। तेषां व्यवस्थितिं तेभ्यः सुविधानां समर्जनम् । स्थाने- स्थाने स्थितान्येव कुर्वते मन्दिराणि तुं ।। ६४ ।।
भावार्थ- तीर्थयात्री परिव्राजक अपनी यात्रा का उपक्रम क्षत्रों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए बनाते हैं । उनके विराम के लिए सुविधा जुटाने और व्यवस्था बनाने का उत्तरदायित्व स्थान- स्थान पर विनिर्मित देवालय सँभालते हैं ।।६३- ६४।। व्याख्या- तीर्थयात्रा का उद्देश्य लोकहित होता है इसीलिए समय की आवश्यकता देखकर संत यात्रा का उद्देश्य और स्वरूप निर्धारित करते रहे हैं।
विनोबा जी का संकल्प
भूदान के लिए देश के कई प्रांतों की यात्रा करते हुए, विनोबा भावे भारत वर्ष के अंतिम छोर कन्याकुमारी तक जा पहुँचे। यहाँ जब वे प्रातः काल समुद्र के किनारे खड़े होकर सूर्योदय का दृश्य देख रहे थे, तो उनको अनुभव हुआ कि उनकी अंतरात्मा को कोई एक संदेश दे रहा है ।। उनको स्मरण आया कि ठीक इसी स्थान पर आज से ६७ वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ दरिद्रनारायण के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी और उसे पूरा करने के लिए वे देश- विदेश का भ्रमण करते रहे थे। विनोबा जी ने इसी स्मरण से प्रेरणा लेकर समुद्र जल हाथ में लिया और सूर्य भगवान को साक्षी करके संकल्प लिया कि जब तक भारतीय ग्रामों में कष्ट, सहने वाले गरीबों की दशा में सुधार नहीं हो जाएगा, मैं विश्राम नहीं करूँगा।
इस संकल्प की पूर्ति के लिए वे भारत के गाँव-गाँव में गए और अनवरत अविश्रांत संकल्प की पूर्ति में लगे रहे।
पीड़ितों और पतितों के बीच ईसा
ईसामसीह केपर नाम के नगर में पहुँचे । वे दुष्ट-दुराचारियों के मुहल्ले में ठहरे और वहीं रहना शुरू कर दिया। नगर के प्रतिष्ठित लोग ईसा के दर्शन करने पहुँचे, तो उन्होंने आश्चर्य से पूछा-'' इतने बड़े नगर में आपको सज्जनों के साथ रहने की जगह न मिली या आपने उनके बीच रहना पसंद नहीं किया ?'' हँसते हुए ईसा ने कहा-'' वैद्य मरीजों को देखने जाता है या चंगे लोगों को ? ईश्वर का पुत्र पीडि़तों और पतितों की सेवा के लिए आया है । उसका स्थान उन्हीं के बीच तो होगा। ''
चैतन्य महाप्रभु का जन्म नदिया, बंगला में हुआ। वे गृहस्थ थे, पर उन दिनों चल रहे यवनों के अत्याचार के प्रतिरोध में जन जागृति की आवश्यकता उनने अनुभव की और घर छोड़कर जन-संपर्क के लिए निकल पड़े। लोगों को एकत्रित करने और भावना उभारने के लिए संकीर्तन को उपयुक्त माध्यम समझा। इससे अनीति करने वालों को प्रतिरोध कीं गंध नहीं आती थी और वे विशेष छेड़खानी नहीं करते थे। चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों को सामयिक कर्तव्य सुझाते और निराश न होने की साहसिक भावनाएँ भरते उन्हें अपनी कार्यशैली बहुत उपयुक्त जँची और देश के कोने-कोने में उनने प्रव्रज्या आरंभ कर दी। जन जागृति की दृष्टि से इसका उपयुक्त प्रभाव भी हुआ।
चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य जब वृंदावन आए, तब वहाँ भगवान की स्मृति में भव्य देवालय बनाने की शिष्यों को प्रेरणा दी। उनका उद्देश्य भारत के इस मध्यवर्ती भाग को धर्म चेतना का केन्द्र बनाने का था।उस स्थान पर कितने ही प्रभावशाली संत आए और अपने प्रभाव का उपयोग दूर-दूर तक करते रहे। चैतन्य ४८ वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गए।
कथाकार धर्मोपदेशक
आसाम प्रांत के नौगढ़ जिले में बलदीन नामक एक छोटे में संत शंकरदेव जन्मे। जन्मजाति से वे कायस्थ थे, पर उन्हें संस्कृत से अगाध प्रेम था। उनने कई वर्षो तक मनोयोगपूर्वक संस्कृत पढी़ और पुराणों की कथा कहने की शैली का अभ्यास किया।
कीर्तन की भरमार से लोग ऊबने लगे थे। उस कर्मकांड में समय और शक्ति का व्यय भी होता था और लोगों को परामर्श देने के लिए समय कम मिलता था। उसकी तुलना में कथा शैली इसलिए उपयुक्त पड़ती थी कि उसमें रोचकता के अतिरिक्त विचार देने का अवसर अधिक मिलता था। विद्वानों के लिए यही मार्ग उपयुक्त लगा। जिनकी विचार शक्ति कम हो उनके कीर्तन ही कामचलाऊ ठीक है। ऐसी मान्यता थी शंकरदेव की ।
उनने आसाम को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और कथा सप्ताहों का कार्यक्रम बनाया, ताकि लगातार अधिक दिन संपर्क रहने से लोगों का विचार परिवर्तन संभव हो सके। पंडित लोग उनसे जलते और उलझते भी थे, किंतु उनकी विद्वता और नम्रता के आगे किसी का व्यवधान उनके आड़े न आया।
उपहारान् दक्षिणां च स्थापयेद्देवसंमुखे। दर्शकस्तत्र, भोगस्य प्रबन्धोऽपि भवेत्सदा ।। ६५ ।। आश्रमार्थव्यवस्थां च कर्तुं सनतुलितामिद्म्। निर्धारणं वर्ततेऽत्र निश्चितं देवसद्मनाम् ।। ६६ ।।
भावार्थ- देवता के सम्मुख दर्शक भेंट- दक्षिणा रखें। उनके भोग आदि का प्रबंध रहे- यह निर्धारण आश्रम की अर्थ व्यवस्था सुसंतुलित रखने के लिए है ।। ६५ -६६।। व्यास्था- देवालयों तथा तीर्थों के सामान्य खर्च के लिए उद्देश्य की पवित्रता के अनुरूप ही साधनों की पवित्रता भी रखी जानी चाहिए। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति हेतु दान लेने को देव संस्कृति ने निषिद्ध ठहराया है। श्रद्धालु गण भगवान के सामने अपने श्रद्धा, सहयोग, अंशदान इसलिए अर्पित करते हैं कि उससे आश्रम व्यवस्था सुसंतुलित रूप से चलती रहे और जिनके कंधों पर धर्म- जागरण का, जन- जागृति का उत्तरदायित्व सौंपा गया है वे निश्चिंततापूर्वक अपना कार्य करते रह सकें। तीर्थवासी या तीर्थ सेवा को व्यक्तिगत दान न लेने का अनुशासन शास्त्रों में स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-
यो न क्लिष्टोऽपि भिक्षेत ब्राह्मणस्तीर्थसेवकः। सत्यवादी समाधिस्थः स तीर्थस्योपकारकः।।
जो तीर्थ सेवी ब्राह्मण अत्यंत क्लेश पाने पर भी किसी से दान नहीं लेता, सत्य बोलता और मन को वश में रखता है, वह तीर्थ की महिमा बढ़ाने वाला है। श्रद्धा भरा सहयोग देव स्थल पर दिया जाना और उसी से सत्पात्रों की आवश्यकता पूरी होने का क्रम ही सदा उचित ठहराया गया है। इन दिनों भी कितने ही धर्म संस्थानों के पास अच्छे आजीविका स्त्रोत हैं।तिरुपति बालाजी, साईं बाबा, नाथद्वारा, चारों धाम के शंकराचार्य मठ आदि का उल्लेख अभी भी संपत्तिवान धर्म संस्थानों के रूप में किया जाता है। अन्यान्य छोटे बढ़ें मठ संस्थान भी ऐसे हैं, जिनके पास लोकमंगल के लिए प्रचुर संपदा है। जिसका उपयोग होना चाहिए। यह परंपरा इसलिए चली थी कि वर्तमान ईसाई मिशन की तरह उनकी शक्ति अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के अनेकानेक रचनात्मक प्रयोजनों में लगी रह सके। प्राचीनकाल में बौद्ध संस्थान भी साधन संपन्न थे। यह राशि उन्हें लोकश्रद्धा की परमार्थ भावना के द्वारा उपलब्ध हो सकी थी।
साध्य की साधन भी पवित्र हों
गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उन्होंने बंबई में एक सभा की और महिलाओं को खादी प्रचार के लिए आगे आने का आह्वान किया। उनके भाषण से प्रभावित एक सुसंपन्न मीठू बेन इस कार्य के लिए आगे आईं और उन्होंने कार्य को आगे बढ़ाने के लिए कितनी ही योजनाएँ भी बनाईं। इन योजनाओं में एक यह भी थी कि सिनेमा मालिकों से एक- एक शो इस कार्य के लिए दिखाने को तैयार किया जाय। टिकट महिला सभा बेचे।
योजना जब गांधी जी के कानों तक पहुँची तो उनने उसे रद्द करा दिया। उनने कहा इन दिनों सिनेमा जिस प्रकार देश का चरित्र गिरा रहा है उसे देखते हुए हमें उसके प्रचार में सहायक नहीं होना चाहिए। साध्य की तरह साधन भी उत्तम हों तभी ऊँचे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। मीठू बहन ने वह योजना बदल दी और सीमित आर्थिक सहायता से ही अपना कार्य आगे बढ़ाया।
अनुग्रह नही अनुदान
एक संत के पास एक धनीमानी व्यक्ति पहुँचा। संत ने उसे रूखी रोटियाँ खाने को दीं। इस दरिद्रता को देखकर उसे दया आ गई और उसने हाथों में से दो हीरे की अगूँठियाँ उतार कर दे दीं।
संत ने एक को पानी में फेंक दिया। उसे वह ढूँढ़ लाया। दूसरी फिर वैसे ही पानी में फेंक दी। दानी व्यक्ति उसे भी ढूँढ़ लाया। दानी ने संत से अंगूठी फेंकने का कारण पूछा तो संत ने कहा- '' संत को निर्धनों में मत गिनो। दयावश तो अपनों को दिया जाता है। संत को भेंट तो अपने धन की सार्थकता के लिए विनयपूर्वक दी जाती है। ''
आदर्शों के लिए अनुदान
सत्पुरुष सत्कार्यों के निमित्त यथाशक्ति साधनों की कमी पड़ने नहीं देते थे।
महर्षि विश्वामित्र उन दिनों नवयुग का सूत्रपात कर रहे थे, उन्हें साधनों की आवश्यकता थी। उनके शिष्य हरिश्चंद्र ने पूर्ण निस्पृहता का परिचय दिया। अपनी सारी संपदा ऋषि के हवाले कर दी। कमी पड़ी तो अपने को, स्री- बच्चों को बेचकर प्रस्तुत आवश्यकता की पूर्ति का आदर्श प्रस्तुत किया।
सुदामा जी का गुरुकुल उन दिनों अभावग्रस्तता की स्थिति से गुजर रहा था। इस स्थिति का पता जब श्रीकृष्ण जी को लगा तो उनने अपनी द्वारिका की संपत्ति का अधिकांश भाग सुदामापुरी भेज दिया। वे जानते थे सुदामा व्यक्तिगत दान दक्षिणा नहीं लेंगे इसलिए सीधा उनके गुरुकुल को अनुदान भिजवा दिया।
सम्पर्कस्तीर्थयात्राया देवस्दमन एव च। मध्ये ह्येतादृशः सोऽस्ति यथा ते पूरका मता: ।। ६७ ।। साधवो ब्राह्मणाश्चैव परस्परमिमे समे। पणस्यैकस्य पार्श्वौ द्वौ मतौ तु मिलितौ यथा ।। ६८ ।।
भावार्थ - तीर्थयात्रा और देवालय व्यवस्था के बीच उसी प्रकार का तालमेल है जैसा कि साधू और ब्राह्मणों को परस्पर पूरक माना गया है और एक ही सिक्के के दो पहलू कहा गया है ।। ६७- ७८ ।।
व्याख्या- गाँव-गाँव, मुहल्ले-मुहल्ले छोटे-बड़े देवालयों की आवश्यकता इसलिए समझी गई कि वे अपने- अपने क्षेत्र में जब जागरण के केंद्र बनकर रहें। यह स्थानीय देवालयों की बात हुई। इससे बढ़कर दूसरा प्रयास है- तीर्थों का। उन्हें भावना क्षेत्र के शोध संस्थान, निवारक अस्पताल, संवर्द्धन सेनेटोरियम, विभिन्न फैकल्टियों से सुसंपन्न महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के समतुल्य समझा जा सकता है। बच्चों के गुरुकुल गृहस्थों के समाधान सत्र एवं अधेड़ों के आरण्यक बनकर वे रहते थे। तत्त्वदर्शी ऋषि प्रकृति सान्निध्य में जलाशयों की सुविधा वाले ऐतिहासिक प्रेरणाओं से जुड़े हुए स्थान इस निमित्त चुनते थे और वहाँ ऐसी प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन करते थे जिनमें दूर- दूर से लोग पहुँचते रहें। घर से दूर रहकर उपयुक्त मनःस्थिति एवं प्रेरणाप्रद परिस्थिति का लाभ उठाते हुए व्यक्तियों का समग्र परिष्कार कर सकें।
शाण्डिल्य उवाच- धर्म प्रचारका नैव जना ये सन्ति ते कथम्। तीर्थयात्रानिमित्तेन यान्ति तीर्थानि सन्ततम् ।। ६९ ।। कारणं विद्यते किं तद् भगवन् बोध्यतामिदम्। आकर्ण्यैतन्महर्षिः स प्राह कात्यायनस्तदा ।। ७० ।।
भावार्थ- शाण्डिल्य बोले- हे भगवन् ! जो लोग धर्म प्रचारक नहीं हैं, वे क्यों तीर्थयात्रा के निमित्त जाते हैं। इसका कारण बताने की कृपा करें। इस प्रश्न को सुनकर महर्षि कात्यायन बोले-।। ६९ -७० ।। कात्यायन उवाच- विद्वांसस्तीर्थयात्रायाः फलं ते प्रात्नुवन्त्यलम् । सामान्या अपि तु मर्त्याः प्रत्यक्षं नात्र संशय: ।। ७१ ।। पदयात्रा स्वास्थ्यवृद्धिं विधत्तेऽअनुभवं तथा । व्यावहारिकमेतच्च ज्ञानं वर्धयति ह्यलम् ।। ७२ ।। सम्पर्को वर्धते नूनं स च परिचयोऽपि तु । लाभांस्तान् यान्ति नैकत्र स्थितायानुपयान्ति ते ।। ७३ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- है विद्विज़नो ! सामान्य जनों को भी तीर्थयात्रा का पुण्यफल प्रत्यक्ष मिलता है, इसमें संदेह नहीं। पदयात्रा से स्वास्थ्य सुधरता है, अनुभव बढ़ता है, व्यावहारिक ज्ञान की वृद्धि होती है, परिचय और संपर्क बढ़ता है। इस प्रकार वे उन लाभों को प्राप्त करते हैं, जो एक जगह पर बैठे रहने से मिल ही नहीं सकते ।। ७१- ७३ ।।
व्याख्या- प्राचीनकाल में धर्म प्रचार के उद्देश्य से मंडलियाँ निकलती थीं। कुछ उनमें सूत वक्ता और कुछ शौनक- साथी श्रोतागण होते थे। अनेक ऋषियों के गुरुकुल भी उसी चल पद्धति के आधार को अपनी व्यवस्था बनाते थे। गौ समूह के साथ छात्रगण अपने गुरुजनों के साथ निकलते थे । मार्ग में स्काउट के केंप फायर की तरह पड़ाव डालते-गौएँ चराते हुए ठहरते और आगे बढ़ते थे। साथ- साथ अध्ययन- अध्यापन भी चलता रहता था। वास्तविक शिक्षा में गधे की तरह छात्र पर पुस्तकों का अनावश्यक भार लाद देने का भोंड़ापन नहीं, सर्वतोमुखी अनुभव संपादन का आधार जुड़ा रहता है, छात्रों को उस परिभ्रमणकारी शिक्षा से बहुमुखी लाभ मिलते थे। उपाध्यायगण स्थानीय लोगों को भी अपने धर्मोपदेशकों से लाभान्वित करते रहते थे। नए छात्रों का प्रवेश भी उस मंडली में होता रहता था। जो लोग गुरुकुल शिक्षा पद्धति का महत्त्व नहीं समझते थे, उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन से प्रेरणा मिलती थी और वे भी अपनी संतान का उसमें प्रवेश कराते थे। इसे तीर्थयात्रा स्तर का गुरुकुलीय प्रशिक्षण कहा जाता था। लगातार ऐसा परिभ्रमण न हो सके, तो भी प्रत्येक गुरुकुल को कुछ- कुछ समय के लिए शिक्षण सत्रों की छोटी- छोटी टोलियाँ विभिन्न दिशा में भेजनी होती थीं ।। इसमें छात्र, अध्यापकों को ही नहीं, संपर्क में आने वाले क्षेत्रों तथा जन साधारण को भी बहुमूल्य ज्ञान संपादन का अवसर मिलता रहता था, तीर्थयात्रा का कितना महत्त्वपूर्ण और कितना सार्थक स्वरूप था वह।
भरत का शिक्षण
शकुन्तला को दुष्यंत भरत सहित महलों में ले आए। बालक भरत की शास्त्र शिक्षा और शस्त्र शिक्षा तो ऋषि आश्रम में माता शकुन्तला की देख- रेख में अच्छे स्तर पर चल रही थी। उसे चालू रखा गया। भरत में क्या- क्या विकास किए जाँए इस पर परामर्श हुआ।
हितैषियों ने सुझाया कि कुशल शासक के रूप में भरत का विकास हो, इसके लिए उन्हें देश के विभिन्न भागों की परिस्थितियों का अध्ययन तथा लोक परंपराओं का बोध होना चाहिए। इसके लिए सर्वोत्तम माध्यम तीर्थयात्रा माना गया। भरत को मंत्रि परिषद के तथा पुरोहित वर्ग के बालकों सहित दो वर्ष के लिए तीर्थयात्रा पर भेजा गया। वह अनुभव भरत के लिए अद्भुत संपत्ति के रूप में सिद्ध हुआ।
अर्जुन का संपर्क लाभ
ब्राह्माण की यज्ञ रक्षा के लिए गाण्डीव उठाने के लिए अर्जुन, निषिद्ध समय में अंतः पुर में प्रवेश कर गए। नियमानुसार उन्होंने १२ वर्ष के लिए तीर्थ सेवन प्रायश्चित स्वीकार किया। इन १२ वर्षों में अर्जुन का तपोबल भी बढ़ा तथा विद्याओं की भी प्राप्ति हुई। जहाँ- जहाँ जिस क्षेत्र में गए, उनकी पात्रता से सत्पुरुष प्रभावित हुए, उसी नाते अनेक विद्याएँ भी प्राप्त हुईं तथा परिचय- सद्भाव क्षेत्र बढ़ने से सहयोगियों की संख्या कई गुनी बढ़ गई। महाभारत युद्ध तथा उसके बाद महान भारत का व्यवस्था तंत्र बनाने में उन्हें तीर्थयात्रा से प्राप्त तेजस् अनुभव तथा सहयोग बहुत काम आया।
सामाजिक्या च दृष्ट्यापि लाभा अस्या मता यथा । विकेन्द्रीकरणं श्रेष्ठं स्वतो वित्तस्य जायते ।। ७४ ।। लघूद्योगा महान्तश्च विकासं यान्ति ते क्रमात्। विशालत्वं प्रयात्येषा भावना वर्द्धते तथा ।। ७५ ।। देशभक्तिस्तथोपैति विस्तरं क्षेत्रमात्मनः। जना आत्मान एवातः प्रतीयन्ते समेऽपि च ।। ७६ ।।
भावार्थ- सामाजिक दृष्टि से भी इसके बड़े लाभ हैं। धन का वितरण- विकेन्द्रीकरण होता है, लघु एवं विशाल उद्योग पनपते हैं, विशालता की भावना बढ़ती है, देशभक्ति में प्रखरता आती है और आत्मीयता का क्षेत्र सुविस्तृत होता है। सभी मनुष्य अपने परिवार रूप में दीखते हैं ।। ७४- ७६।।
व्याख्या- पर्यटन को एक अच्छा उद्योग माना गया है, कई राष्ट्रों की अर्थ नीति तो पर्यटन व्यवसाय पर ही टिकी है। विद्वान विद्वत्ता के प्रसार के लिए, कलाकार कला विस्तार के लिए तथा व्यापारी उद्योग विस्तार के लिए छोटी और लंबी यात्राएँ किया करते थे। आजकल भी विद्यार्थियों को उद्योग केन्द्रों, देश की विभिन्न संस्कृतियों का स्वरूप समझाने के लिए शिक्षण यात्राएँ की जाती हैं। अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ाने के लिए भी शिष्ट मंडलों, युवकों, विद्यार्थियों के दल अन्य देशों की यात्रा करते हैं। इससे आत्मीय तथा सांस्कृतिक सद्भाव बढ़ता है। विशिष्ट सेमिनार, मेले आदि भी इसी उद्देश्य से किए जाते हैं।
चलता- फिरता गुरुकुल
महर्षि जरत्कारु ने उद्दालक से पूछा- '' आपके गुरुकुल में प्रशिक्षित हुए छात्र सर्वत्र यशस्वी हो रहे हैं, पर उस अनुपात से आपका आश्रम और छात्रावास तो कहीं दीख नहीं पड़ता, फिर छात्र पढ़ते कहाँ होंगे ? ''
उद्दालक ने कहा-'' हमारा गुरुकुल एक स्थान पर नहीं चलता। छात्रों को साथ लेकर हम परिभ्रमण करते रहते हैं। इससे इन्हें भौगोलिक ज्ञान होता है। विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों तथा व्यक्तियों से निपटने का अवसर मिलता है। पैदल चलने से हम सबका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और अनेक स्थानों के लोगों के धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिलता है। यह व्यावहारिक शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसलिए हमने यही उचित समझा कि स्थिर गुरुकुल बनाने की उपेक्षा चलता- फिरता विद्यालय चलाएँ। इस उपाय का अवलंबन करने से हमारे छात्र स्थिर विद्यालयों में पढ़ने वालों की तुलना में अधिक सुयोग्य बनते एवं यशस्वी होते हैं। ''
जरत्कारु का समाधान हो गया।
तीर्थों के मेले
वटुक जीमूत ने पूछा- '' तीर्थों में स्थान- स्थान पर मेले क्यों होते हैं ? पर्वों पर अगणित लोग क्यों वहाँ पहुँचते हैं ?''
गुरु प्रचेता ने कहा-'' यह तीर्थ स्थानों के मेले पुरातन कार्य में धर्म- सम्मेलन के रूप में चलते थे। विज्ञजन एकत्रित होकर सामयिक समस्याओं पर विचार करते और समाधान ढूँढ़ते थे। भावनाशील व्यक्ति यहाँ होने वाले उपदेशों, निर्धारणों और परामर्शों को कार्यान्वित करने की प्रेरणा लेकर लौटते थे। यह मेले तीर्थसेवन के महत्त्वपूर्ण माध्यम बन जाते थे।
स्थितास्तत्र च कुर्वन्ति त्वात्मशोधनसाधनाम्। परिष्कुर्वन्ति चात्मान त्रुटीस्ता दूरयन्त्यपि ।। ७७।। प्रायश्चित्तं चरन्त्यत्र योगीयासं तथैव च । रतास्तपसि सत्संगस्वाध्यायौ लभतेऽपि च ।। ७८ ।। प्राप्यते प्रतिभानां च सप्राणानां तु सन्निधेः। लाभो महांस्तु यो तं ते प्राप्नुवन्त्येव सन्ततम् ।। ७९ ।। अन्विषन्ति समाधान ग्रन्थीनां कुर्वते तथा। व्यवस्थितां योजनां ते भविष्यन्निर्धृते शुभम् ।। ८० ।। वातावृतौ प्रेरकायां वसन्त: प्राणभृत्यपि। तीर्थसेवनमाहुश्च कल्पसाधनमप्यतः ।। ८१ ।। रूपे वास्तविके तच्चेत्सम्पन्नं क्रियते सत:। स्वास्थ्यं शरीरसम्बन्धिचिन्तनं मानसं तथा ।। ८२ ।। परिवर्तनमायाति सहजीवनकर्मणा। भविष्यन्निर्मितेर्लाभः कायाकल्प इवेष्यते ।। ८३ ।।
भावार्थ - तीर्थसेवन को मानसिक उपचार माना गया है। वहाँ रहकर लोग आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की साधना करते हैं। भूतकाल की गलतियों को सुधारते हैं। पापों का प्रायश्चित करते हैं योगाभ्यास और तप- साधना में निरत रहते हैं। स्वाध्याय- सत्संग का लाभ उठाते हैं। प्राणवान प्रतिभाओं के सान्निध्य से जोअसीम लाभ मिलता है, उसे उपलब्ध करते हैं। प्रस्तुत गुत्थियों का समाधान खोजते हैं तथा भविष्य निर्धारण की सुव्यवस्थित योजना वहाँ के प्राणवान् प्रेरणाप्रद वातावरण में रहकर बनाते हैं। तीर्थ सेवन को कल्प साधन कहा गया है। उसे यदि सही रूप से संपन्न किया जा सके, तो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक चिंतन, जीवनचर्या में परिवर्तन एवं भविष्य निर्माण की दृष्टि से कायाकल्प जैसा लाभ ही मिलता है ॥ ७७-८३॥
व्याख्या- तीर्थ सेवन में केवल बाह्य उस चार पर्याप्त नहीं। साधक को तीर्थ चेतना के साथ अपने चिंतन को मिलाना पड़ता है। नारद पुराण का मत है-
गंगादि तीर्थेषु वसन्ति मत्स्या देवालये पक्षिगणाश्च सन्तिः। भावोज्झितास्ते न फलं लभन्ते तीर्थाच्च देवायतनाच्च मुख्यात् ।। भावं ततो हृत्कमले निधाय तीर्थानि सेवेत् समाहितात्मा।
अर्थात् गंगा आदि तीर्थों में मछलियाँ निवास करती हैं देव मंदिरों में पक्षीगण रहते हैं, किंतु उनके चित्त भक्ति भाव से रहित होने के कारण उन्हें तीर्थ सेवन और देव मंदिर में निवास करने से कोई फल नहीं मिलता। अतः हृदय कमल में भाव का संग्रह करके एकाग्रचित्त होकर तीर्थ सेवन करना चाहिए।
नृणां पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्। यथोक्तफलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम्।।
अर्थात, पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शांति होती है। जिनका अंतःकरण शुद्ध है ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।
सत्सान्निध्य का लाभ
तीर्थाटन में सत्पुरुषों का सान्निध्य सत्संग एक अति प्रभावशाली माध्यम बतलाया गया है। मुख्या पुरुषयात्रा हि तीर्थयात्रा प्रसंगतः। सद्भिः समागमो भूमिभागस्तीर्थतयोच्चते ।। -स्कंद पुराण
तीर्थयात्रा के प्रसंग में महापुरुषों के दर्शन के लिए जाना ही तीर्थयात्रा का मुख्य उद्देश्य है, अतः जिस भूभाग में सज्जन निवास करते हैं, वह तीर्थ कहलाता है।
ब्राह्मण: जङ्गमं तीर्थ निर्मलं सार्वकामिकम्। एषां वाक्योदकेनैव शुद्धयन्ति मलिना जना: ।। - अगस्त्य
सत्पुरुष विप्र चैतन्य तीर्थ होते हैं, यह सब कामना पूर्ति कर सकते हैं। यह सद् परामर्श रूपी जल से मलिन जनों को निर्मल बना देते हैं।
यही भाव रामचरितमानस में व्यक्त किया गया है- मुद मंगलमय संत समाजू। जो जड़ जंगम तीरथराजू ।।इस तीर्थ को ' सबहिं सुलभ सब दिन सब देश ' कहा गया है। परंतु इसका लाभ उठाने के लिए साधकों को उनके प्रति अनुराग पैदा करना तथा उनका अनुसरण करना होता है।
सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तन, साधु समाज प्रयाग ।।
सुनने- समझने और उसकी प्रेरणाएँ जीवन में अपनाने से, इन तीर्थों के प्रभाव से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फल इसी जन्म में प्राप्त हो सकते है। इनका प्रभाव तुरंत दिखाई देता है। ''
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होंहि पिक बकहु मसला ।।
कौए से कोयल और बगुले से हंस बनने की उक्ति के पीछे यह तथ्य स्पष्ट है कि बाहर से रंग रूप भले न बदले, अंतर से प्रवृत्तियों का गुण, कर्म, स्वभाव का कायाकल्प हो जाता है। अंतःकरण की स्थिति बदलते ही मनुष्य अपने आपको स्वर्ग जैसी स्थिति में अनुभव करने लगता है।
तीर्थवास से भ्रम निवारण
गरुड़ को भगवान राम की लीला देखकर भ्रम हो गया था। मन अशांत रहने लगा। शिवजी ने उन्हें काकभुशुण्डि के आश्रम में भेजा। वहाँ निवास तथा सत्संग से उनका भ्रम हटा तथा पुनः आंतरिक शांति मिली।
भाइयों- भाइयों के युद्ध और उसमें यादवी सेना के दो भागों में बँट जाने से बलराज जी का मन बहुत उद्विग्न हो गया था। उस उद्विग्नता को शांत करने के लिए वे युद्ध प्रारंभ के पूर्व तीर्थाटन को चले गए थे और समाप्ति पर ही लौटे थे।
पुत्रों को शोक से संतप्त धृतराष्ट्र और गान्धारी के समाधान का भी एकमात्र मार्ग तीर्थ सेवन ही समझा गया था। कुंती उनके सहयोग के लिए स्वेच्छा से साथ हो गई थीं।
तीर्थ में प्रायश्चित
परशुराम जी ने पिता की आज्ञा से माता का सिर काट लिया। फिर पिता से वर माँगा कि माँ को जीवित कर दें। पर अपने हाथ से माँ पर प्रहार करने से पाप का प्रायश्चित्य आवश्यक समझा गया। उन्होंने मातृतीर्थ (मातृ कुण्डिया, राजस्थान) में उसका प्रायश्चित्य किया।
रत्नाकर ने जीवन क्रम बदलने का साहस किया, तो नारद जी ने उन्हें तीर्थवास करके पूर्व कर्मों के प्रायश्चित्य का विधान बतलाया। उसमें वे ऐसे रमे कि शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। उसी से वाल्मीकि कहलाए। प्रायश्चित्य से शुद्ध अंतःकरण ऋषि स्तर तक जा पहुँचे। महाराज हर्षवर्धन कुंभ पर सर्वमेध करके जाने- अनजाने में हुए पापों का प्रायश्चित्य किया करते थे।
भगवान् बुद्ध के प्रयोग
भगवान बुद्ध उथली क्षमा- प्रार्थना या कर्मकाण्डों की चिह्न पूजा से पापों का प्रायश्चित्य नहीं मानते थे। उन्होंने कलिंग में रक्त बहाने वाले अशोक, अम्बपाली वैश्या और अंगुलिमाल डाकू का जीवन कल्प कराया। इन सबने न केवल अपनी संपदा, परमार्थ के लिए दान की, वरन् शेष जीवन भी लोकहित के लिए लगाया। अशोक ने तो अपने दोनों बच्चे महेन्द्र और संघमित्रा को भी धर्म सेवा के लिए दान कर दिए थे। पाप नाश का एकमात्र मार्ग ऐसा प्रायश्चित्त ही है, जैसा वाल्मीकि और बिल्वमंगल ने किया था। भगवान बुद्ध ने अन्य ऋषियों की भांति साधना और सेवा के दोनों धर्म प्रयोजन परिपूर्ण निष्ठा के साथ अपनाए।
गत्वा तीर्थेषु बालानां संस्काराणां विधेस्तथा।
पाणिग्रहणकार्यस्य पितृश्राद्धविधेरपि ।। ८४ ।। वानप्रस्थाश्रमस्याऽपि विद्यते सा परम्परा । सर्वेषां हि महत्वं तद्धयेतदाश्रित्य वर्तते ।। ८५ ।। तस्या वातावृतेर्लाभं गन्तृणामञ्जसा नृणाम् । जीवनं सम्पदां मार्गे दैवैनां क्राम्यति स्वयम् ।। ८६ ।।
भावार्थ- तीर्थों में जाकर बालकों के संस्कार कराने, विवाह करने, वानप्रस्थ लेने, पितरों का श्राद्ध कर्म करने की जो प्रथा- परंपरा है, उसका महत्त्व भी इसी आधार पर है कि उस प्रेरणाप्रद वातावरण का इन प्रयोजनों के लिए जाने वाले लोग भी अनायास लाभ लेते हैं , जिससे जीवन अनायास दैवी संपत्ति के मार्ग में चलने लगते हैं ।। ८४- ८६।।
व्याख्या- तीर्थों में जाकर संस्कार कराने की परिपाटी सनातन है। आज भी उसको चिन्ह पूजा के रूप में निभाया जा रहा है । उस परंपरा को पुनः सुनियोजित करने की आवश्यकता है।
लोग मुंडन और श्राद्ध आदि ही तीर्थों में कराते देखे जाते हैं, किंतु गर्भिणी का पुंसवन, बालक का नामकरण, मुंडन, विद्यारंभ तथा दीक्षा- यज्ञोपवीत, सभी तीर्थों के संस्कारित वातावरण में कराए जाने चाहिए। विवाह और वानप्रस्थ संस्कार भी उपयुक्त वातावरण में ही फलते हैं। विवाह, संस्कार बने
मालवीय जी से उनके एक मित्र ने पूछा कि आजकल विवाहों के बाद दंपत्ति में जैसी एकरूपता दिखनी चाहिए, वह नहीं दिखती, क्या कारण है ?
मालवीय जी बोलें- '' इसके कारण तो अनेक हैं। विवाह के साथ जुड़े उच्च आदर्शों पर से आस्था हट चुकी है। फिर विवाह मात्र समारोह बनकर रह जाता है। संस्कार का प्रभाव उसमें कहीं नहीं उभर पाता। यदि उपयुक्त वातावरण में सद्भाव संपन्न आचार्यों द्वारा विवाह के उद्देश्यों को उभारते हुए संस्कार संपन्न कराया जाय, तो दाम्पत्य को नया प्रकाश मिल सकता है। तीर्थों जैसे यज्ञीय वातावरण में विवाहों को संस्कार के रूप में कराया जाय, यह आवश्यक है।
संस्कार कहाँ कराएँ ?
युवा श्रेष्ठि जीवक ने अपना कार्य काफी बढ़ा लिया था। वे समय निकालकर आचार्य हरिपाद के आश्रम में आते - जाते रहते थे। उन्होंने एक बार पूछा-'' देव ! आपकी कृपा से दाम्पत्य में प्रवेश करके सुखी जीवन जी रहा हूँ। बालकों के संस्कार तीर्थों में कराने का शास्त्रों का निर्देश है। किस तीर्थ में कौन से संस्कार कराऊँ ?''
आचार्य बोले- '' तात् ! किसी संस्कार विशेष का तीर्थ विशेष से जोड़ नहीं। संस्कार संस्कारित भूमि में संस्कारित व्यक्तियों से कराने चाहिए । तीर्थ में जहाँ जप- तप-यज्ञ से वातावरण में दिव्यता बनी हो। जहाँ पुरोहित धन को नहीं संस्कारों को महत्त्व देते हों। निस्पृह, सेवा- परायण पुरोहितों द्वारा ही संस्कार जागरण प्रयोग सफल होता है।
जहाँ ऐसी व्यवस्था मिल जाय, वहीं संस्कार कराने का क्रम बनाएँ, किसी स्थान विशेष का आग्रह न रखें।
सशक्तां प्रखरां तीर्थप्रक्रियां कर्तुमेव यत्। दानं प्रदीयते तत्तु सामान्येभ्यः समर्पितात् ।। ८७ ।। प्रयोजनेभ्य वा नृभ्यो दानान्मनितमुत्तमैः। अनेकगुणपुण्यानां लोके तु फलदायकम् ।। ८८ ।। तीर्थयात्रा तथेत्थं च यत्र सा वर्तते तप:। परिव्राजां कृते साधुमनसामृषिरूपिणाम् ।। ८९ ।। महत्वं वर्तते न्यूनं तस्या नृभ्यो न चाण्वपि। सर्वसाधारणेभ्योऽत ग्राह्या सा सन्ततं जनैः ।। ९० ।। तेऽपि मर्त्या यथाशक्ति कुर्वन्तो जनजागर्तिम् । पदयात्राऽनुबद्धानां पुण्यानां कर्मणां बहु ।। ९१ ।। लभन्ते लाभमन्ये च सुविधा: साधनानि ये । अस्यै समर्पयन्त्येते सद्गतिं यान्ति धर्मिणः ।। ९२ ।।
भावार्थ - तीर्थ प्रक्रिया को जीवंत एवं प्रखर बनाने के लिए दिया गया दान, सामान्य व्यक्तियों या प्रयोजनों के लिए दिए गए दान की तुलना में अनेक गुना पुण्य फलदायक माना गया है। इस प्रकार तीर्थयात्रा जहाँ ऋषिकल्प साधुमना परिव्राजकों के लिए उच्चस्तर को तपश्चर्या मानी गई है,वहाँ सर्वसाधारण के लिए उसका महत्त्व कम नहीं है, अतः उसे ग्रहण किया जाना चाहिए।वे भी यथासंभव जन जागरण का कार्य करते हुए उस पदयात्रा के साथ जुड़े हुए पुण्य प्रयोजन का कम लाभ नहीं उठाते हैं। जो इस तीर्थ प्रक्रिया के लिए सुविधा- साधनों की व्यवस्था करते हैं, वे भी धर्मात्मा कहलाते और सद्गति पाते हैं ।। ८७- ९१।।
व्याख्या- तीर्थों में दान- पुण्य की परंपरा आरंभ काल से ही प्रचलित है। यों यह प्रक्रिया सदा से ही धर्म धारणा का अविच्छिन्न अंग मानी और श्रद्धापूर्वक क्रियान्वित की जाती रही है। पर उसका तीर्थ स्नान मे अधिक भावनापूर्वक चरितार्थ करने और सामान्य स्थानों की तुलना में अनेक गुना पुण्य फल माने जाने का जो शास्त्र वचन है, वह अकारण नहीं, उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं। तीर्थ के ऋषि आश्रम प्रकारांतर से धर्म धारणा की ऊर्जा उभारने वाले बिजलीघर जैसे थे। ये सुविस्तृत क्षेत्र में शक्ति धारा भेजते और जन- जन के अभावों की पूर्ति करते थे। उन्हें ऐसे विशालकाय जलबाँधों की भी उपमा दी जाती है, जहाँ से अनेक नहरें निकलतीं और व्यापक क्षेत्र को सींचती हैं।
जब छोटे से छोटे कार्य के लिए साधन चाहिए, तो इन तीर्थ संस्थानों की भी तो आवश्यकताएँ रहेंगी ही। अध्यापन और व्यवस्था में लगे व्यक्तियों को निर्वाह चाहिए। आच्छादन, उद्यान, प्रकाश, स्वच्छता आदि के लिए खर्च चाहिए। निजी उद्योग- व्यवसाय न होने पर उसकी पूर्ति कैसे हो ? उसका उत्तर एक ही केंद्र बिंदु पर आ टिकता है कि श्रद्धालु तीर्थयात्री अपनी परमार्थ भावना का परिपोषण करने के लिए तीर्थ संस्थानों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखें और उनकी पूर्ति के लिए अपनी उदारता को भाव भरी उमंगों के साथ चरितार्थ होने दें।
दान की परिपाटी
राजा कर्ण की आय बहुत थी, परंतु वे अपनी दैनिक आय में से निर्वाह की न्यूनतम राशि लेकर शेष उसी दिन सत्प्रयोजनों के लिए दान कर देते थे। मरते समय दाँतों में लगा सोना तक दान कर जाने वाले कर्ण की परंपरा उन दिनों सभी सुसंपन्न व्यक्तियों में प्रचलित थी। कभी किसी के पास धन जमा हो भी गया, तो विशिष्ट अवसर सामने आते ही उसने भामाशाह की तरह अपनी सारी संपदा प्रताप जैसे प्रयोजनों के लिए सौंपते हुए भार हल्का कर लिया। रानी अहिल्याबाई के राज्यकोष में से अधिकांश राशि धर्म प्रयोजनों के लिए खर्च होती रही। राजा महेन्द्र प्रताप ने अपनी सारी संपदा शिक्षा विस्तार के लिए समर्पित कर दी थी। स्वामी विवेकानन्द को हिंदू धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु खेतड़ी राजस्थान के राजा ने ही सारी व्यवस्था की थी।
बुद्धकाल में हर्षवर्धन और अशोक ने अपना समूचा राजपाट उस समय के संघारामों, विहार- विद्यालयों के लिए समर्पित किया था। अंगुलिमाल और आम्बपाली जैसों ने भी अपने पापों का प्रायश्चित्त इसी में समझा कि अनीति उपार्जन को ऐसे उपयोगी प्रयोजनों में लगातार, पाप की खाईं को पुण्य से पाटा जाय। सर्वविदित है कि भगवान बुद्ध ने विशालकाय धर्मवाहिनी का गठन किया था। एक लाख के लगभग भिक्षु और तीस हजार के लगभग भिक्षुणियाँ उनके सामने ही दीक्षा ले चुके थे। उन्हें नालंदा,तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में धर्मचक्र प्रवर्तन योजना को कार्यान्वित कर सकने के उपयुक्त चरित्रनिष्ठा, आवश्यक योग्यता एवं कार्यक्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली कुशलता का अभ्यास कराया जाता था। इन्हीं विद्यालयों ने उन दिनों ऐसी विशालकाय भट्टियों की भूमिका निभाई थी, जिनमें मिट्टी मिली कच्ची धातुओं को गलाने और ढालने की प्रक्रिया चली और फौलाद, खरे सोने जैसे व्यक्तित्व दल कर निकले।
प्रशंसा धन की नहीं, दान की
एक पंडित जी कथा प्रसंग में धन संग्रह की निंदा किया करते थे। सुनने वालों में एक संपन्न सेठ भी थे, उन्हें यह प्रसंग अखरता।
दूसरे दिन सेठजी ने कथा पर सौ रुपए चढ़ाए। पंडित जी समेत सभी उपस्थित लोग उनकी प्रशंसा करने लगे। सेठजी ने कहा-'' संग्रह को बुरा कहा जाता था। वह न होता, तो यह प्रशंसा किसकी होती ?''
पंडित जी ने समाधान किया-'' यह प्रशंसा आपके दान की है। धन की नहीं। धन तो आपके पास पहले भी था। ''
कनिष्क के निर्माण
कुशाण वंशी कनिष्क ने सम्राट अशोक की तरह ही बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था। मध्य एशिया में बौद्ध धर्म की जड़ जमाने का बहुत कुछ श्रेय कनिष्क को दिया जाता है, जिसने प्रचारकों के लिए सभी आवश्यक सुविधा सामग्री उपलब्ध की और प्रजा को उसके अनुगमन के लिए प्रोत्साहित किया। उसने अपनी राजधानी पेशावर में तेरह मंजिला एक बुद्ध स्मारक स्तूप बनवाया जो नौवीं शताब्दी तक खड़ा रहा। उन दिनों उसे संसार की उच्चतम इमारत गिना जाता था। उसने कितने ही विहार तथा चैत्य बनवाए। कनिष्क कुशाण वंशी चीनी तुर्किस्तान का नागरिक था। उसका समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है।
विभूतियों को समर्पण
नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त ऐसी ही धर्म संस्थाएँ उन दिनों और भी अनेक थीं। विक्रमशिला, ओदंतपुर, सोमपुरी, जगद्दल के महाविद्यालय भी समृद्ध अध्ययन के केन्द्र थे। मगधराज विम्बसर, कौशल नरेश प्रसेनजित, अवन्ति नरेश प्रद्योत, कौशाम्बी के राजा उदयन आदि ने राजा हर्षवर्धन की तरह ही बौद्ध विहारों, संघारामों, विद्यालयों, मठों आदि के निर्माण में अपना भरपूर सहयोग दिया। सुदत्त, अनाथपिण्डक जैसे व्यापारी, यश जैसे समृद्ध नागरिक, कश्यप जैसे विद्वान, जीवक जैसे कुशल चिकित्सक, मौद्गल्यायन जैसे महापंडित, भद्रा और क्षेता जैसी महिलाओं ने भी बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन एवं उनके निर्माण कार्य में अपना सर्वस्व दान कर दिया था। संपन्न लोगों ने मुक्तहस्त से अपने खजाने खाली कर दिए थे। प्रतिभाशालियों ने अपनी प्रतिभा का योगदान दिया था।
श्रीकृष्ण द्वारा महान् उद्देश्यों के लिए दान
भगवान श्रीकृष्ण के पास द्वारिका का राज्य था और वैभव भी। उनका परिवार भी बड़ा था। पर संपदा को कुटुंबियों में बाँटने की अपेक्षा उनने यही उपयुक्त समझा कि इसे सुदामा के के अभावग्रस्त गुरुकुल को देकर लोकहित मे प्रयुक्त होने दिया जाय। उनने किया भी वही। सारी संपदा सुदामा जी को गुरुकुल चलाने के लिए सौंप दी।
यशोधरा का दान
प्रव्रज्या करते हुए बुद्ध अपनी जन्मभूमि गए और अपनी पत्नी के पास भी भिक्षा के लिए पहुँचे। यशोधरा की ममता उमड़ पड़ी। उनने अपने आभूषण संघ प्रयोजन के लिए उन्हें सौंपे और अपने इकलौते पुत्र राहुल को भी धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए उनके साथ लगा दिया। सम्राट अशोक ने भी अपने पुत्र महेन्द्र और अपनी विदुषी पुत्री संघमित्रा को उसी प्रकार बुद्ध को सौंपा और प्रचार कार्य के लिए देश- देशांतरों में भेजा था।
भगवान् महावीर की प्रेरणा
भगवान महावीर उन दिनों राजगीर में अपनी अपरिग्रह प्रवचनमाला चलाते हुए चातुर्मास कर रहे थे। उनका प्रतिपादन श्रोताओं के गले गहराई से उतरता गया। धनिकों और मध्यम वर्ग के लोगों ने अपनी संपदा सत्प्रयोजनों के लिए दान कर दी। सामान्य नागरिकों जैसा सामान्य जीवनयापन करने लगे। प्रदत्त दान से उस क्षेत्र में अनेक सत्प्रवृत्तियाँ पनपीं। सर्वसाधारण की धर्मधारणा को बहुत बल मिला। सुख- शांति की परिस्थितियाँ तेजी से बढ़ने लगीं। लोभजन्य अपराधों का तो समापन हो गया।
जब उनकी बारी आई जिनके पास धन तो नहीं था, पर जन्मजात श्रम संपदा की तनिक भी कमी नहीं थी। उनने श्रमदान भगवान के चरणों में अर्पित किया। शरीर यात्रा भर के लिए निजी उपार्जन करने के उपरांत अपना शेष श्रम- समय परमार्थ प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के लिए समर्पित कर दिया। इस संपदा से प्रगति की अनेकानेक गतिविधियाँ चल पड़ी और सुविधा- साधनों की कहीं कोई कमी नहीं रही । संपदा पाताल से उफनने और आकाश से बरसने लगी। दाताओं ने अपने को कृतकृत्य अनुभव किया।
उस दिन एक किशोरी का संकल्प हुआ। बोली-'' आयुष्य भी अपरिग्रह है। जब असंख्य प्राणी कुछ ही दिन जीवन जीकर संतोष कर लेते हैं, तो फिर लंबी आयु तक जीकर मैं ही क्यों परिग्रह का पाप ओढ़ूँ ? कृपया मेरा आयुष्य दान स्वीकार कर लें। '' अर्हता के सम्मुख आत्मनिवेदन करते हुए उसने कहा। संकल्प स्वीकृत हुआ। वह महिला जागरण के सोचे हुए काम को अहर्निश संपन्न करते रहने में जुट गई। सामान्य गृहणियों का स्तर देवियों जैसा बनने लगा। परिवारों में स्वर्गीय सुसंस्कारिता वर्षा की हरीतिमा जैसी उगने और लहलहाने लगी ।
उस प्रदेश का सबसे बड़ा धनवान था- महाशतक। वह समाचार तो प्राप्त करता रहा, पर कभी अर्हता के प्रवचन में न पहुँचा। आज के दिन उसके पर आयुष्यदानी कुमारिका आई थी। उसके तेजस् ने धनपति को सत्संग समागम तक पहुँचने की उत्कण्ठा उत्पन्न कर दी। परिग्रह त्याग से ग्रहीता की तुलना में दानी अधिक लाभ में रहता है, यह उसे कुमारिका के प्रभाव से स्पष्ट हो गया। वह भी विपुल संपदा सत्कार्य में लगाकर अपरिग्रह जीवन जीने लगा।
महान्तो मानवाः स्वां तु क्षमतां तीर्थनिर्मितौ। तद् व्यवस्था निमित्तं च व्यधुस्तत्र नियोजिताम् ।।९३ ।। कर्म चक्रुः परार्थं च पुण्यभाजो यशस्विनः। अभूवन् मार्गद्रष्टार उच्यन्तेऽध्यात्मसंस्कृतेः ।।९४ ।।
भावार्थ- अनेक महामानवों ने अपनी क्षमता को तीर्थ स्थापना एवं व्यवस्था के लिए नियोजित किया और सच्चे अर्थों में परमार्थ कमाया, पुण्य और यश के भागीदार बने जिन्हें अध्यात्म संस्कृति का मार्गद्रष्टा भी कहा जाता है।। ९३ - ९४ ।।
व्याख्या- सही अर्थों में वास्तविक पुण्य के भागीदार वही बनते हैं, जो श्रेष्ठ कार्यों में अपनी संपदा- प्रतिभा और शक्ति नियोजित करते हैं। उनके योगदान से, उनके क्रिया-कलाप से तीर्थ भी धन्य बन जाते हैं।
तीर्थ स्थापना का, तीर्थ परंपरा का प्रचलन किस आचार पर, किस आधार पर प्रादुर्भूत हुआ, इसका तात्त्विक विवेचन करने पर प्रकट होता है कि तीर्थ कहीं बने हैं, जहाँ (१) कोई महामानव, ऋषि, तपस्वी,आत्मकल्याण और लोककल्याण के पुण्य प्रयोजन की तपश्चर्या में निरत रहे हों, (२) किसी देवता ने किसी परमार्थ परायण साधक के प्रयत्नों में सहायता करने के लिए वरदान दिया हो, (३) ऐसी कोई घटना घटित हुई हो, जिसमें आदर्शवादिता पनपने के लिए त्याग, बलिदान करने का इतिहास जुड़ा हो, (४) कोई महत्त्वपूर्ण निर्धारण या शुभारंभ हुआ हो, (५) किसी महामानव का जन्मस्थान या किया- कलापों का कार्यक्षेत्र रहा हो, (६) उस स्थान की अपनी प्राकृतिक विशेषता रही हो, इसी परिधि में प्राय: हर तीर्थ की स्थापना, परंपरा एवं गरिमा का मूल्यांकन किया जा सकता है।
सच्चे संत, महामानव ही तीर्थ की महिमा बढ़ाने वाले होते हैं। नह्यम्भयानि तीर्थानि न देवा: मृच्छिलामयाः, ते पुनंति उरुकालेन। दर्शनाद् एव साधवः, तेषाम् एव नियासेन देशास्तीर्थी भवन्ति वै ।। -भागवत जल से तीर्थ नहीं बनते, न देवता मिट्टी और पत्थर से बनते हैं, उनकी उपासना करने से बहुत काल में मन की शुद्धि होती है, पर सच्चे साधुओं के दर्शन और सत्संग से ही चित्त सद्य: शुद्ध हो जाता है।
भवद्विधा भागथतास्तीर्थभूताः स्पयं विभो। तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदानता ।। -भागवत्
युधिष्ठिर विदुर से कहते हैं - आप जैसे भक्त स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान के द्वारा तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।
तीर्थों से सांस्कृतिक सूत्रबद्धता
तीर्थी के माध्यम से ऋषियों ने भारत जैसे भूभाग में रहने वाले विभिन्न आचार- विचार के व्यक्तियों को एक भावनात्मक सूत्र में बाँध रखा है।
मानसरोवर से लेकर कन्याकुमारी तक का क्षेत्र धर्मप्रेमियों को एक ही सांस्कृतिक धरोहर के रूप में दिखता है।
गंगोत्री का जल पाकर रामेश्वरम् प्रसन्न होते हैं। यह भाव रहते उत्तर- दक्षिण की एकात्मकता में कुचक्रियों के प्रयास बाधक नहीं बन सकते।
केरल में पैदा हुए शंकराचार्य ने चार कोनों पर चार धाम बनाए। शरीर छोड़ा उत्तराखण्ड में। दक्षिण के मंदिरों में उत्तराखण्ड के पुरोहित तथा उत्तराखण्ड में दक्षिणी पुरोहितों द्वारा ही पूजा होती थी। यह सूत्र कभी नहीं टूट सकते।
बंगाल के श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने इष्ट वज्र और द्वारिका में देखते है। उन क्षेत्रों को जागृत तीर्थ बनाकर पूर्व-पश्चिम के स्नेह को अक्षुण्ण बनाते हैं।
शिवजी देवी सती के अंगों को देश के हर भाग में स्थापित करते हैं और वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना करते हैं । शक्ति साधना के दिव्य प्रवाह से वह सारे क्षेत्र बँधे है।
अयोध्या के राजा राम दक्षिण ध्रुव में रामेशरम् की स्थापना करते हैं । यह सौजन्य समय के हजारों आघातों से भी हिलने वाला नहीं ।
सत्नेणाऽद्यतनेनालं सन्तोषं सर्व एव से। जग्भुरुत्साह एतेषां ववृधे कर्मपद्धतौ॥९५॥ देवसंस्कृतिसम्बद्धैर्विधिभिर्यानि सन्ति तु। संसक्तानि महोद्देश्यकर्माणीह च पूर्णत:॥९६॥ तानि विज्ञाय सर्वेऽपि श्रोतारस्तत्र निर्मला: । प्रसन्नमानसा दृष्टा पूर्णे स्वीये मनोरथे॥९७॥ सायं सन्ध्याविधै: कालात्पूर्वमेव च शोभनम् । सत्रमद्यतनं पूर्णं यथापूर्व यथाविधि॥९८॥
भावार्थ-आज के सत्र से सबको बहुत संतोष मिला व कर्म के प्रति उत्साह बढा। देवसंस्कृति के क्रिया-कलापों के साथ जुडे़ हुए महान उद्देश्यों से भली प्रकार सभी श्रोता मनोरथ पूर्ण होने से प्रसन्न दिखाई पड़ते थे। सांयकाल होने से पूर्व अन्य दिनों की तरह आज का सत्र भी समाप्त हो गया।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः,श्री कात्यायन ऋषि प्रतिपादिते "तीर्थ-देवालय",इति प्रकरणो नाम चतुर्थोऽध्याय:॥४॥
भावार्थ- इनका कर्तव्य- उत्तरदायित्व दो भागों में बँटा रहता हैं। एक स्थानीय गतिविधियों को लोक शिक्षण परक बनाए रहना। वहाँ पाठशाला, व्यायामशाला, कथा- सत्संग, धर्मानुष्ठान, पुस्तकालय, चिकित्सालय आदि रचनात्मक गतिविधियों को प्रखर बनाए रहना। दूसरा संपर्क क्षेत्र में सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का पौरोहित्य करना। इस निमित्त उस क्षेत्र की जनता के साथ संपर्क साधने और घनिष्ठता रखने की आवश्यकता पड़ती है , जिसके लिए देवालय के संचालक निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं। वे स्थानीय और क्षेत्रीय व्यवस्था को समान महत्त्व देते हैं ।। ३७- ४२ ।।
व्याख्या- मंदिर संचालकों को स्थानीय और क्षेत्रीय दोनों गतिविधियाँ चलानी होती हैं। उसके लिए अपनी योग्यता और भावना दोनों विकसित करनी होती हैं। योग्यता के बिना कार्य नहीं सधता तथा भावना के बिना अपने अंदर उत्साह और दूसरों पर प्रभाव नहीं उभरता। यह दोनों क्षमताएँ संत- समाज में होनी चाहिए। न होने से उनकी उपयोगिता घट जाती है।
समर्थ की सामर्थ्य
समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र क्षेत्र में ८०० हनुमान मंदिर बनाए थे। वहाँ वे, पवन पुत्र की उपासना से जन जन को ' राम काज ' के लिए तैयार होने की प्रेरणा देते थे। सारी रचनात्मक गतिविधियों के केन्द्र उनके मंदिर थे। साथ ही उनका जन संपर्क बड़ा गहरा था। जय जय श्री रघुवीर समर्थ का उद्घोष वे द्वार द्वार पर करते थे। घर घर का वातावरण और जन जन का अंतःकरण उनके स्पर्श से सुधरता था। उसी आधार पर शिवाजी के अभियान के लिए जनशक्ति और धनराशि की व्यवस्था भी होती रहतीं थी।
संत कितने-काम कितना
समर्थ गुरु रामदास की तरह ही संत तुकडो़ जी ने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे कहते थे, संतों ने लोकसेवा का उत्तरदायित्व भुला दिया है। अन्यथा इस देश के नागरिकों को ऋषि भूमि के अनुरूप विकसित करना जरा भी कठिन नहीं है।
वे आकंड़े बतलाते हुए कहते थे, जनगणना के अनुसार ५६ लाख व्यक्ति साधु- बाबा धर्मजीवी है। उनमें से ७-८ लाख अपाहिज भी छोड़ दें, तो भी लगभग ५० लाख व्यक्ति हैं। भारत में ७ लाख गाँव हैं। प्रति गाँव पर सात संत आते हैं, मंदिरों को केन्द्र बनाकर यदि वे एक एक रचनात्मक अभियान चलाएँ, तो स्वास्थ्य शिक्षा, स्वच्छता, सुसंस्कारिता सभी क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगति संभव है और यह भूमि पुनः देवभूमि बन जाय।
व्यायाम मंदिर
झांसी में श्री अन्ना जी ने नगर परकोटा से लगी एक खाली भूमि पर एक झोपड़ी बनाकर उसमें हनुमान जी का एक चित्र रखकर श्री लक्ष्मी व्यायाम मंदिर की स्थापना की। उपासना भाव से व्यायाम करके भक्तों जैसे आदर्श करने की क्षमता बढ़ाने का चिंतन दिया। ' सूत्र दिया ' करने को राष्ट्र रक्षा, व्यायाम मंत्र लीजिये।
स्वार्थी तत्वों द्वारा ढेरों अड़चनें आई पर साधना रुकी नहीं। तंत्र को राजनीतिक प्रपंच से दूर रखते हुए व्यायाम के माध्यम से नैतिक अभियान चलाया। बुंदेलखंड में जगह- जगह व्यायाम मंदिरों की स्थापना की। आज वह उत्तरप्रदेश की मान्य आदर्श संस्था के रूप में प्रतिष्ठित है।
स्वामी केशवानन्द का अभियान
राजस्थान के स्वामी केशवानन्द पढे़- लिखे नहीं थे। उन्होंने संन्यास लेकर जन संपर्क द्वारा चेतना जागरण का क्रम अपनाया। उनके संपर्क से शिक्षा अभियान गति पकड़ गया। जगह- जगह जन सहयोग से विद्यालय खुलते गए। बाद में उनकी संयुक्त व्यवस्था बनी और सगरिया विद्यापीठ के रूप में राजस्थान सरकार ने उसे मान्यता दी। स्वामीजी को आदर्श संत के रूप में सारा क्षेत्र सम्मान देता रहा। दो बार उन्हें निर्विरोध सांसद भी बनाया। बाद में उन्होंने उसके लिए इन्कार करके अपने संपर्क अभियान को ही महत्त्व दिया।
पूजैषा मानवस्याथ प्रभोर्धर्मस्य संस्कृतेः। आश्रमस्थानतो विप्रान् वदन्त्यपि च पूजकान् ।। ४३ ।।
भावार्थ- यह भगवान, मनुष्य और धर्म संस्कृति की वास्तविक पूजा है। इसलिए उन आश्रमवासी ब्राह्मणों को पुजारी भी कहते हैं ।।४३ ।।
व्याख्या- मूर्तियों के सामने पूजा- उपचार प्रतीक पूजा भर होती है। परंतु जब विश्व विराट में फैले प्राणि समुदाय, मानव समुदाय की सेवा सहायता की जाती है, पिछड़ों को आगे बढ़ाया, गिरों को ऊँचे उठाया, अशिक्षितों को शिक्षति किया जाता है तो वही ईश्वर की, देवता की सार्थक पूजा कहलाती है। प्राचीन काल के ब्राह्मण, पुजारी इसी सेवा साधना में संलग्न रहते थे और सच्चे संत की, भक्त की गौरवान्वित पदवी- मान्यता पाते थे।
विवेकानन्द की वसीयत
विवेकानंद जी ने रामकृष्ण मिशन बनाकर मंदिरों के साथ ही आश्रमों की परंपरा बनाई। जब वे अंतिम दिनों रुग्ण थे तब कुछ लोगों ने कहा-'' आप विश्राम क्यों नहीं करते। '' स्वामी जी ने कहा-'' मेरा भाव मुझे बैठने नहीं देता। मैं केवल प्रेम का ही प्रचार चाहता हूँ, मेरे उपदेश वेदांत की समता और आत्मा की विश्व व्यापकता पर ही आधारित है। दुखियों के दर्द को अनुभव करो और उनकी सेवा करने को आगे बढ़ा, भगवान तुम्हें सफल करेंगे। मैं अपने मस्तिष्क में इसी विचार को रखकर १२ वर्ष तक घूमा हूँ। मैं इस देश में भूखा- प्यासा भले ही मर जाऊँ, पर नव जवान !मैं तुम्हारे लिए यह वसीयत छोड़ जाता हूँ कि गरीबों, अज्ञानियों और दुखियों की सेवा के लिए प्राण- पण से लग जाओ। ''
पवित्र हाथ
गुरू गाविंद सिंह को प्यास लगी। उनने गाँव जाकर कहा- '' मुझे पवित्र हाथों से पानी पीना है। लोग हाथों को धोकर और बर्तन मांजकर पानी लाए। गुरु ने कहा-'' हाथ, परमार्थ के लिए श्रम करने से पवित्र होते हैं। मेरा तात्पर्य ऐसे सज्जन का जल पीने से था। '' वैसा व्यक्ति न मिलने पर वे प्यासे ही आगे बढ़ गए।
संत विनोबा
संत विनोबा अत्यधिक निर्धन परिवार में जन्मे। उनकी माता बडी़ विचारशील थीं। उनने अपने तीनों बच्चों को बाल ब्रह्मचारी और ब्रह्मज्ञानी बनाने का निश्चय किया। उसी प्रयास में निरंतर लगी रहीं।
विनोबा की प्रतिभा और जागरूकता असाधारण थी। वे गांधी जी के संपर्क में आए उनकी लगन, प्रतिभा और शालीनता से बापू अत्यधिक प्रभावित हुए और क्रमशः उन्हें एक एक करके अति महत्त्वपूर्ण काम सौंपते गए। उन्हें राष्ट्रभाषा प्रचार, बुनियादी शिक्षा, गोरक्षा, सर्वोदय, भूदान जैसे अनेक काम सौंपे। आडम्बर मात्र बनकर रह रही तीर्थयात्रा को उन्होंने अपनी पदयात्रा द्वारा फिर से नव जीवन दिया। सर्व सेवा संघ और खादी ग्रामोद्योग का कार्य उनके नेतृत्व में भली भांति चला। विनोबा सच्चे अर्थों में संत थे। उनका एक क्षण भी निरर्थक न जाता था। वे कहा करते थे-
''दीन- दुःखी, पीड़ित- रोगी इत्यादि की सेवा करना भी समाज पूजा का एक अंग है, दरिद्र नारायण भी एक महान देवता है। उनका हम पर वह उपकार है, जिसका कभी बदला नहीं चुकाया जा सकता। ''
उपेक्षितों के मसीहा- रिचर्ड एलन
रिचर्ड एलन का जन्म फिलाडेल्फिया में एक गुलाम के यहाँ हुआ। एलन उनमें से न थे, जो परिस्थितियों के आगे सिर झुका देते हैं, उनने पंद्रह वर्ष के होते ही दिन में मालिक का और रात में धकेला गाड़ी खींचने का काम किया। इस अतिरिक्त आय से मालिक का ऋण चुका कर अपना परिवार मुक्त करा लिया। अब उनने मन में अश्वेतों को सच्चे ईसाई धर्म की शिक्षा से परिचित कराने का व्रत लिया। वे धर्म के साथ- साथ मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करने की भी शिक्षा देते थे। उनके हजारों अनुयायी हो गए।
मात्र ऐंटजार्ज चर्च में अश्वेतों का प्रवेश निषिद्ध नहीं था। उसी के माध्यम से धर्म प्रचार और मानवी अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रयास एलन के नेतृत्व में चल पड़ा गोरे आग बबूला हो गए और उन्हें निकाल बाहर करने का प्रयत्न करने लगे।
फिलाडेल्फिया में पीलिया और प्लेग रोग गोरों में फैला। परिवार के परिवार साफ होने लगे। कोई मुर्दे उठाने वाला तक न था। एलन के नेतृत्व में नीग्रो समुदाय ने जो सेवाएँ की, उसकी चर्चा अमेरिका भर में हुई और उस चर्च में गोरे भी सम्मिलित होने लगे। आज उस चर्च के दस लाख सदस्य हैं उस समुदाय को एक बड़ी राजनैतिक और सामाजिक शक्ति माना जाता है। धर्म के साथ- साथ समाज कल्याण के कार्य जुड़ जाने से उसकी प्रतिष्ठा अत्यधिक बढ़ी है।
महान् विद्वान-अपंगों की सेवा में
विद्वान दामियेन की शिक्षा इतनी ऊँची थी कि तीस वर्ष की आयु में उन्हें ऊँचे लाभदायक पद मिल रहे थे, पर उनने सुविधा- साधनों को महत्त्व न देकर पीड़ित मानवता की सेवा करना अपना लक्ष्य निर्धारित किया। वे पादरी बन गए।
उन दिनों हवाई द्वीप समूह में कोढ़ की बीमारी तेजी से फैल रही थी। लगता था यह उपयोगी क्षेत्र कुछ ही दिनों में अपंगों का क्षेत्र बनकर अपनी सत्ता समाप्त कर बैठेंगे। पादरी दामियेन ने अपने सीमित साधन समेटे और हवाई द्वीप समूह के लिए चल दिए। वहाँ उनने कोढ़ियों की चिकित्सा से काम आरंभ किया। किंतु साथ ही शिक्षा, स्वच्छता, उपार्जन जैसे कार्यों से उन लोगों का ध्यान खींचते रहे। उस द्वीप समूह में कितने ही टापू थे। वे नावों की सहायता से उनमें जाते रहते और वहाँ के निवासियों को हर दृष्टि से समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न करते रहते। इस लगन को देखकर उस क्षेत्र के निवासी उनके अनन्य भक्त हो गए ईसाई धर्म में भी दीक्षित रहे।
फादर दामियेन जब से गए फिर वापस लौटे ही नहीं। उनका स्वर्गवास उन्हीं पिछड़े लोगों के बीच हुआ, पर उस क्षेत्र के कोढ़ का निराकरण उनने अपने जीवन में ही कर दिया। इन दिनों द्वीप समूह के लोग ईसाई भी हैं और सुसंपन्न भी।
ब्राह्मण- चिकित्सक
गांधी जी प्राकृतिक चिकित्सा को दरिद्र भारत में जन- जन की उपचार पद्धति और जीवनचर्या बनाना चाहते थे, पर देखा गया कि जहाँ भी प्राकृतिक चिकित्सालय खुले, वे सभी बहुत मँहगे थे और निर्धन लोगों का उसमें प्रवेश होना कठिन था।
डॉ. लक्ष्मैया ने गंभीरता से सोचा और एक नई युक्ति निकाली। उनने एक खेत लिया। उसमें चिकित्सा के लिए आने वालों से श्रमदान कराके शाक- भाजी उगाते और भोजन की निःशुल्क व्यवस्था करते। जो अच्छा होकर जाता, उससे एक गोदान का अनुरोध करते। इस प्रकार कितनी ही गौएँ उन्हें मिल गई और उनका दूध रोगियों को मिलने लगा। गौएँ चराने के साथ- साथ ऐसे व्यायाम बता दिए जाते, जो रोगियों के अनुकूल पड़ते। इसी प्रकार फूँस की झोपड़ियों के लिए साधन समीपवर्ती तथा उदारचेता लोगों से एकत्रित कर लिए जाते। लक्ष्मैया स्वयं उन रोगियों के साथ अपना समय बिताते और उन्हें प्राकृतिक जीवन का दर्शन भी साथ काम करते- करते समझाते जाते।
लक्ष्मैया का प्राकृतिक चिकित्सालय भारत की परिस्थितियों के अनुरूप माना गया और उसे विज्ञजनों द्वारा सर्वत्र सराहा गया।
जनजागरणसम्बद्धा येऽनिवार्या उपक्रमाः। तेषां संचालनायात्र प्रशिक्षण गुहा अपि ।। ४४।। उपासनास्थलैः सार्धमावाससहिता इमे। कर्तुं परम्परा दिव्या वर्तते व्यावहारिकी ।। ४५।। प्रशिक्षणस्थलस्याथ पूजाकक्षस्य तस्य च। संचालकनिवासस्य प्रक्रियाभिः समग्रतः ।। ४६ ।। देवालयस्थितिर्नूनं जायते केवलां तु तान्। प्रतिमास्थापनामाहुरेकांगानुपयोगिनीम् ।। ४७।। विना तावत्प्रबन्धेन पूर्तिर्नोदेद्श्यपूरका। संभवेद् येभ्य आप्तैस्तु देवालयविनिर्मितेः ।। ४८ ।। योजनाऽऽप्ता महाशक्तेर्व्ययः कार्यान्वयाय च। कृतो गाथाश्च गीतास्ता माहात्म्यानां सुविस्तराः।। ४२ ।।
भावार्थ- जन जागरण संबंधी आवश्यक गतिविधियों के संचालन के लिए देवालयों में उपासना स्थल के साथ ही प्रशिक्षण तथा आवास स्थल भी रखने की परंपरा है,जो व्यावहारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पूजाकक्ष संचालक निवास एवं प्रशिक्षण स्थल की त्रिविध प्रक्रियाओं का समावेश रहने से ही एक समय देवालय बनता है। प्रतिमा मात्र की स्थापना को एकांगी, अगुपयोगी एवं निषिद्ध ठहराया गया है। उतना प्रबंध न हो पाने पर उन उद्देश्यों की पूर्ति संभव नहीं, जिनके लिए आप्तजनों ने देवालयों को स्थापित करने की योजना बनाई और कार्यान्वित करने में असीम शक्ति लगाई। प्रेरणा देने वाले माहात्म्यों की गाथा गाई ।।४४- ४९ ।।
व्याख्या- जो निर्धारण बड़े उद्देश्यों के लिए हुए हैं, उनसे सामान्य उद्देश्य भर पूरे हों तो वह एक प्रकार का घाटा है। देवालयों के उद्देश्य बहुत व्यापक और महत्त्वपूर्ण थे। पूजा उपचार क्षणिक संतोष देने वाले क्रमों से उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता। उन्हें बनाने में लगे श्रम और निष्ठाओं का पूरा उपयोग किया जाना आवश्यक है।
भजन हर समय नहीं
किसी योद्धा ने संत से पूछा-'' आप हरदम भजन क्यों नहीं करते ? सेवा कार्यों के झंझट में क्यों पड़ते हैं ?'' योद्धा धनुष कंधे पर रखे था। उसकी प्रत्यंचा ढीली थी। संत ने पूछा' आप हर समय प्रत्यंचा कसे क्यों नहीं रहते ?'' उत्तर मिला-'' ऐसा करने से वह ढीली पड़ जाएगी और तीर जोर से न फेंक सकेगी। ''
संत ने कहा-'' हम जब भजन करते हैं तब प्रत्यंचा कस कर एकाग्र हो लेते हैं और शेष समय मन को सेवा कार्यों में लगाकर ढीला रहने देते हैं। सदा भजन करें तो एकाग्रता की प्रत्यंचा ढीली पड़ जाएगी और भजन भी ढर्रे का एक साधारण काम बन जाएगा। ''
गुरु गोविंद सिंह के बहुउद्देश्यीय गुरुद्वारे
गुरु गोविंद सिंह ने सिक्ख संप्रदाय के गुरुद्वारों को सैनिक छावनियों के रूप में परिष्कृत किया था। वहाँ कीर्तन, पाठ पूजन, आरती प्रसाद सब कुछ होता था, पर साथ ही यह उद्देश्य हर सिख के मस्तिष्क में भरा था कि उन्हें अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना है, आसुरी नृशंसता को परास्त करके धर्म राज्य की स्थापना करनी है। भगवान की भक्ति का यही कर्मठतापूर्ण स्वरूप भी है। जिसके साथ देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष की संभावनाएँ जुड़ी न हों, जो केवल ऋद्धि - सिद्धि एवं स्वर्ग मुक्ति की स्वार्थपरता तक चिपकी पड़ी हो, वह न तो भक्ति है, न साधना, वह तो ओछी स्वार्थपरता का एक उपहासास्पद रूपमात्र है जिससे न लोक बनता है, न परलोक। ओछे आदमी के ओछे विचार उसे ओछे मन तक ही सीमित रखते हैं और ओछे ही प्रतिफल देते हैं, उस लक्ष्य को सिक्ख धर्म के संस्थापक भली- भाँति जानते थे इसलिए उन्होंने गुरुद्वारों द्वारा उन्हीं भावनाओं का प्रसार किया। फलस्वरूप उनकी कृतियों से भारतीय धर्म सदा गौरवान्वित रहेगा।
पादरी अब्बे पियरे
फ्रांस के एक सामान्य परिवार में जन्मे अब्बे पियरे पिता के आदेशानुसार पादरी तो बन गए पर सूखा धर्मोपदेश उनके गले न उतरा। वे सोचने लगे मनुष्य की सहानुभूति सेवा के बिना अर्जित नहीं की जा सकेगी। सेवा मार्ग क्या अपनाया जाय ? इसके लिए उन्हें अपना पैतृक धंधा याद आया। उनके पिता टूटी वस्तुओं की मरम्मत करने की दुकान चलाते, फेंकने लायक वस्तुओं को जोड़- तोड़ और ठोंक- पीट कर काम चलाऊ बना देते थे। इससे निर्धन समुदाय का पैसा बचता और वे बहुत संतुष्ट होते। अब्बे पियरे ने यही उपाय सेवा धर्म के लिए अपनाया।
उनने दो चार कारीगर साथ लिए और घर- घर आवाज देकर मरम्मतें करने लगे। उनसे बिना माँगे जो मिल जाता उसे अपने नए सेवा भावी चर्च में जमा कर देते। यह प्रक्रिया बहुत लोकप्रिय हुई। उनने नए पादरियों के नेतृत्व में ऐसी दस नई मंडलियाँ गठित कर दीं।
उनने इसी आधार पर ३० शिक्षा केन्द्र, १० चिकित्सालय, १५ सस्ते भोजनालय तथा निर्धनों के लिए ६००० झोपड़े बनाए। गृह उद्योग में भिक्षुकों और अपंगों को लगाया। अब्बे पियरे ने पादरी समुदाय के सन्मुख एक नया आदर्श रखा। फलतः चर्चों ने अपने अपने धर्म स्थानों में किसी न किसी प्रकार की सेवा योजना जोड़ी।
कैवल्य धाम आश्रम
गुजरात में जन्मे जगन्नाथ मुले ने विद्याध्ययन के उपरांत योग विज्ञान की खोज और समाज सेवा का व्रत लिया। साथ ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प भी । वे खान देश नेशनल कॉलेज के प्राचार्य एवं रेक्टर रहे। बड़ौदा सरकार के प्रोत्साहन पर उस राज्य में गाँव- गाँव घूमे और व्यायामशालाएँ स्थापित कीं। बंबई सरकार के शारीरिक शिक्षा मंत्रिमंडल के वे निदेशक रहे।
अंत में उन्होंने पूना के पास लोना वाला नामक स्थान में ' कैवल्यधाम ' आश्रम स्थापित किया। उसमें योग की वैज्ञानिक ढंग से शिक्षा दी जाती है। आश्रम शोध विषयक उपकरणों से संपन्न है और उसके पास अपनी १०० एकड़ जमीन है। स्वामी की प्रामाणिकता के कारण आश्रम के लिए इतने साधन जुटने में बहुत कठिनाई नहीं हुई।
स्वामी जी ने आजीवन सादा कपड़े पहिने रंगे नहीं। वे योग को जादू- चमत्कार नहीं वरन् शारीरिक मानसिक रोगों के निराकरण का आधार मानते थे। आश्रम की गुजरात में कई शाखाएँ भी है।
कात्यायन उवाच- भद्रा ! देवालयस्येदं पारम्पर्यं वहन्ति ते । ब्राह्मणा आश्रमस्थास्तु तथैव भ्रमणादपि ।। ५० ।। जनजागृतिकार्यस्य पुण्ये लग्ना विधौ च ये । परिव्राजकविप्राणां पद्धतिस्त्वात्मनोऽस्ति सा ।। ५१ ।। वानप्रस्थाः प्रवृत्तास्ते संन्यासस्था इहैव तु । यथा मेधा धरां शुष्कां सिञ्चितां कर्तुमुद्यताः ।। ५२ ।। धावन्ति च जगत्प्राणो गत्वा प्राणान् प्रयच्छति । मनुष्येभ्यस्तथा चैष प्रभाया ऊष्मणोऽपि च ।। ५३ ।। दाता दिवानिशं धत्ते प्रव्रज्यामिव भास्कर । तमिस्त्रायां प्रभा शैत्यं शीतांशुः स प्रयच्छति ।। ५४।। देवा इव मनुष्येषु देवानां स्तरगास्तु ये । जनजागृतिहेतोस्ते भ्रमन्ति हृदये नृणाम् ।। ५५ ।। तत्र धर्मधृतिं भावयन्ति दिव्यां गृहे गृहे । सद्वृत्तिवर्धनस्याऽपि प्रखरं कर्म कुर्वते ।। ५६।। प्रयोजनाय चैतस्मै यत्ना येऽनेकरूपिणः। क्रियन्ते तीर्थयात्रास्ते कथ्यन्ते सर्व एव हि ।। ५७।।
भावार्थ - कात्यायन पुनः बोले- हे भद्रजनो ! जिस प्रकार देवालय परंपरा को आश्रमवासी ब्राह्मण सँभालते हैं उसी प्रकार परिभ्रमण द्वारा जन जागरण की पुण्य प्रक्रिया में निरत रहने वाले परिव्राजक, संत समुदाय की अपनी कार्यपद्धति है। वानप्रस्थ और संन्यासी इसी में प्रवृत्त रहते हैं। बादल सूखी भूमि को सींचने के लिए दौड़ते हैं। पवन हर प्राणी को उनके पास जा- जाकर प्राण- अनुदान बाँटता है। सूर्य कीं अहर्निश प्रव्रज्या संसार को गर्मी तथा रोशनी बाँटने के निमित्त चलती है। चंद्रमा सघन तमिस्रा में यथा संभव प्रकाश देता और शीतलता बिखेरता है। इन देवताओं की तरह मनुष्यों में जो देवस्तर के हैं, वे जन- जागरण के लिए सर्वत्र परिभ्रमण करते जन- जन के मन में धर्म धारणा उगाते, घर- घर में सत्प्रवृति संवर्द्धन का अलख जगाते हैं। इस प्रयोजन के लिए विभिन्न रूपों में किए जाने वाले प्रयत्न तीर्थयात्रा कहलाते हैं ।।५०-५७।।
व्याख्या- तीर्थयात्रा का परमार्थ पक्ष वह है जिसमें विज्ञजन मंडली बनाकर, धर्म प्रचार का उद्देश्य आगे रखकर चलते थे। मार्ग में मिलने वालों से ऊँचा उठाने वाली, आगे बढ़ाने वाली वार्ता करते थे। रात्रि को जहाँ ठहरते, वहाँ लोक शिक्षण के निमित्त कथा- कीर्तन का आयोजन रखते थे। साथ ही व्यक्तिगत अथवा स्थानीय उलझनों के संदर्भ में सुझाव- समाधान भी प्रस्तुत करते थे। लोग उनकी निष्पक्षता, विद्वता एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर बातें मानते भी थे। इस प्रकार यह तीर्थ यात्राएँ घर- घर अलख जगाने और जन- जन के मन- मन में धर्म धारणा उभारने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। उस प्रयास की उपयोगिता और संलग्न व्यक्तियों की महानता को देखते हुए श्रद्धालु लोगों ने उनके प्रवास को सरल बनाने में पूरा- पूरा सहयोग दिया था। धर्मशालाएँ, सदावर्त, उद्यान बनाने में तीर्थयात्रा के लिए सुविधा साधन जुटाना, धर्म प्रचारकों को सहयोग देना ही एकमात्र प्रयोजन था।
धर्म पुरुषों की तीर्थयात्रा
प्रख्यात धर्म पुरुषों में से अधिकांश ने अपनी कार्यपद्धति में तीर्थयात्रा तप को प्रधान रूप से सम्मिलित रखा है। छोटे या बड़े संतों की जीवनचर्या पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आ खड़ा होता है।
देवर्षि नारद जी निरंतर यात्रा निरत रहे। कहते हैं दो घड़ी से अधिक नहीं ठहरने का उन्हें अभिशाप था। वे नित्य परिव्राजक हैं, उनका काम ही है अपनी वीणा की मनोहर झंकार के साथ भगवान के गुणों का गान करते हुए सदा यात्रा करना। भक्ति सूत्र निर्माता नारद जी के संबंध में यह भी कहा जाता है कि उनकी प्रतिभा थी- संपूर्ण पृथ्वी पर घर- घर में एवं जन- जन में भक्ति की स्थापना करना।
दक्षिण में असुरों के बढ़ते हुए अत्याचार को रोकने के लिए अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण की यात्रा कर वहाँ अपना आश्रम बनाया। लक्ष्मण को अगस्त्याश्रम का परिचय देते हुए राम कहते हैं-
यदा प्रभृति चक्रान्ता दिगयं पुण्यकर्मणा। तदा प्रभृति निर्वैराः प्रशान्ता रजनीचराः ।। -वाल्मीकि रामायण उन पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दक्षिण दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहाँ के राक्षस शांत हो गए हैं तथा उन्होंने दूसरों से बैर- विरोध करना छोड़ दिया है। लोक कल्याण के व्रती महात्मा बुद्ध ने लगातार ४५ वर्ष तक देश भर में भ्रमण करके जनता को सत्य धर्म का उपदेश दिया और उनको अनेक कुरीतियों और अंधविश्वासों से छुड़ाकर कल्याणकारी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
सम्राट अशोक ने तेईस वर्ष तक राज्य करने के उपरांत ईसा पूर्व २४९ में उनने अपने राज्य के तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया। पाँच लाटों में अंकित वृत्त से यह पता चलता है कि वे मुजफ्फरपुर और चम्पारन होते हुए हिमालय की तराई तक गए और वहाँ से पश्चिम की ओर मुड़कर लुंबिनी वन पहुँचे, जहाँ तथागत का जन्म हुआ था। अपनी यात्रा के स्मारक के रूप में उन्होंने लुंबिनी वन में भी एक लाट स्थापित की थी। आचार्य उपगुप्त के साथ फिर कपिलवस्तु, सारनाथ, श्रावस्ती गए। इस प्रकार बौद्ध तीर्थों की यात्रा करते- करते सम्राट अशोक कुशीनगर पहुँचे। तीर्थयात्रा के उपरांत अशोक ने संन्यास धारण कर लिया एवं सारा समय धर्मचर्या एवं धर्मोपदेश में बिताया ।
जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने दिग्विजय का शुभारंभ किया। अनंतशयन, अयोध्या, इंद्रप्रस्थपुर, उज्जयिनी कर्नाटक, कांची, चिदंबर, बद्री, प्रयाग आदि तीर्थ क्षेत्रों और महानगरों में आत्मज्ञान और धर्म का प्रचार किया।
कश्मीर से रामेश्वर तक की विद्वत्मंडली ने उनकी विद्वता का लोहा मान लिया। उन्होंने पदयात्रा के अंतर्गत दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन, पश्चिम में द्वारका में शारदा और उत्तर बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना की ।
संत ज्ञानेश्वर ने अलंदी से, नेवा से वापस आने पर पंद्रह वर्ष की आयु में सं. १३४७ वि० में 'ज्ञानेश्वरी गीता' का प्रणयन किया, तदुपरांत तीर्थयात्रा आरंभ की । उनके साथ निवृत्तिनाथ सोपानदेव, मुक्ताबाई, नरहरि सोनार आदि तत्कालीन संत थे। वे पंढरपुर वहाँ से संत नामदेव उनके साथ हो गए । फिर उक्त संत मंडली ने उज्जैन, प्रयाग, काशी,अयोध्या, गया, गोकुल, वृंदावन, गिरिनार आदि तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की । लोगों को अपने सत्संग से सचेतकर जागरण का सर्वत्र संदेश सुनाया । संत ज्ञानेश्वर की इस ऐतिहासिक, लोक शिक्षण परक तीर्थयात्रा की बड़ी ख्याति सुदूर क्षेत्रों में फैल गई । वे मारवाड़ और पंजाब की ओर भी गए । तीर्थयात्रा से लौटने पर पंढ़रपुर में संत नामदेव ने इस यात्रा यज्ञ की पूर्ति स्वरूप एक विशाल उत्सव का आयोजन किया ।
संत एकनाथ अपने अनुष्ठान की पूर्ति के बाद गुरु आज्ञा से तीर्थयात्रा के लिए निकल पडे़ । उनकी तीर्थयात्रा में जनार्दन पंत ने नासिक त्रयंबकेश्वर तक उनका साथ दिया । ब्रह्मगिरि की परिक्रमा के उपरांत गोदावरी, ताप्ती, गंगा और यमुना का स्नान किया । आठों विनायक और बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन किए । वृंदावन, काशी, प्रयाग, गया, बदरिकाश्रम एवं द्वारिका की यात्रा की । संत एकनाथ ने १३ साल तक यात्रा की । २५ वर्ष की अवस्था में वे पैठण लौट आए ।
चैतन्य महाप्रभु ने भी सामूहिक एवं एकाकी रूप से अनेक स्थलों का परिभ्रमण किया । गया गए, फिर नील्कांचल के उपरांत दक्षिण की यात्रा की । अपने भक्त और अनुचर गोविंद को लेकर वे हाजीपुर, मिदनापुर होते नयनागढ़ गए । चैतन्य ने अलौकिक प्रेम भाव का ही उपदेश दिया । ढलेश्वर, जलेश्वर, हरिहरपुर, बलशोर होते हुएनीलगढ़ गए । अपनी तीर्थयात्रा में उन्होंने जनमानस का परिष्कार किया । सत्याबाई और कमलाबाई वेश्याओं का हृदय परिवर्तन किया । महाप्रभु कांचीपुरम् गए, शिव कांची, पक्षी तीर्थ, काल तीर्थ, संधि आदि पवित्र तीर्थों के दर्शन करते हुए वे तिरुचिरापल्ली पहुँचे । तज्जावूर, कृन्ती, कर्णपडा़, पद्मकोट, त्रिपत्र, श्रीरंगम, रामेश्वर आदि दक्षिण भारत के अनेक तीथों का महाप्रभु ने भ्रमण किया । महाराष्ट्र के बाद गुजरात, द्वारका, सोमनाथ, जूनागढ़ प्रभास क्षेत्र होते हुए मध्यभारत के अनेक स्थलों कें दर्शनार्थ गए । अंत में उत्तर भारत की यात्रा अकेले पैदल की । मथुरा-वृंदावन, प्रयाग काशी गए । श्री चैतन्य ने भारत का मन जीत लिया । मात्र ४८ वर्ष की आयु पाकर ही उन्होंने तीर्थग्रात्रा द्वारा लाखों पतित पददलितोंका उद्धार किया । जो समाज में पदच्युत थे , उन्हें नई हैसियत दी । समग्र समाज को जीने के लिए एक नई आस्था प्रदान की ।
सन् १८८८ में स्वामी विवेकानंद देश भ्रमण के लिए निकले, उन्होंने लगातार कई वर्ष तक देश व्यापी यात्रा परिभ्रमण किया । इस यात्रा से उन्होंने विभिन्न भारतीय वर्गो की अच्छी जानकारी प्राप्त की । राजस्थान में पहले वे अलवर गए । घूमते-घूमते ज्ञानोपदेश करते लिम्बडी़ काठियावाड़ गए, फिर मैसूर पहुँचे । फिर वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहुँचे । बाद में अमेरिका, इंग्लैण्ड एवं अन्य पाश्चात्य देशों की यात्रा की ।
स्वामी रामतीर्थ ने अपनी देश- विदेश की यात्राओं में अध्यात्म का सच्चा स्वरूप प्रतिपादित किया । सनातन धर्म सभा के प्रसिद्ध उपदेशक दीनदयाल शर्मा के साथ उन्होंने ब्रज, प्रयाग और काशी की तीर्थयात्रा की । उत्तराखण्ड की यात्रा भी की । हिमालय के अंचल से मैदान में उतर कर उन्होंने मथुरा, फैजाबाद, लखनऊ आदि की यात्रा कर वेदांत पर महत्त्वपूर्ण भाषण दिया । स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका, जापान तथा मिश्र आदि देशों की जनता को सत्य, शांति और प्रेम का संदेश दिया।
स्वामी दयानंद विद्याध्ययन के उपरांत प्राय: परिभ्रमण ही करते रहे । आर्य समाजों की स्थापना, उन्हें गति देना, शास्त्रार्थ, साहित्य लेखन आदि सभी कार्य उन्होंने अपने प्रवास कार्य के साथ ही संपन्न किए थे ।
कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने विलायत से लौटकर तीर्थयात्रा की । उन्होंने देश के गरीबों की स्थिति का अध्ययन करने हेतु कलकत्ते से पेशावर तक बैलगाड़ी में यात्रा की । यद्यपि उस समय रेलगाड़ी चल निकली थी, किंतु रेल यात्रा में पिछड़े हुए गाँवों और भूखे- नंगे कृषकों की अवस्था का क्या पता लग सकता था ?
अफ्रीका से लौटने पर गाँधी जी ने एक वर्ष तक समस्त देश का भ्रमण किया।एक वर्ष तक देश की यात्रा करने के उपरांत गाँधी जी अहमदाबाद लौटे, और वहाँ साबरमती नदी के किनारे उन्होंने अपने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की।उनकी डाँडी नामक सत्याग्रह यात्रा एवं नोआखाली की साम्प्रदायिक सद्भाव यात्रा तो प्रसिद्ध ही है ।
संत विनोबा ने पूरे देश में पैदल घूम-घूमकर लाखों गरीबों की जीविका की व्यवस्था करने के साथ भारतीय जनता की दशा का निरीक्षण किया और उनकी समस्या को समझा।पाकिस्तान की भी पदयात्रा की।चौदह वर्ष सन् १९५१ से १९६४ तक लगभग ४३ लाख मील की पैदल यात्रा करके विनोबा ने जब पुन: अपने आश्रम में प्रवेश किया, तो उस समय उनको ४ ,२३६-८२७ एकड़ जमीन भूदान में मिली और ७५६० ग्राम दान में मिले ।
साधुभ्यस्तीर्थयात्रायास्तपः कर्तुं सदैव तु । शास्त्रीयं वर्तते दिव्यं विधानं पुण्यदायकम् ।। ५८ ।। अयमुच्चतरो नूनं योगाभ्यासोऽस्ति वा पुनः । देंवाराधनमेतस्माद् यत्नस्यास्य फलं नहि ।। ५१ ।। कस्मादपि विचारास्तु न्यूनमास्ते परार्थगात् । मण्डले यान्ति सर्वे ते परिव्राजकसाधवः ।। ६० ।। येन यत्राऽपि वास: स्यात्प्रचारस्तत्र संभवेत् । सोत्साहं मण्डले तत्र भवन्त्येव सदैव च ।। ६१ ।।
भावार्थ- साधु समुदाय को सर्वदा तीर्थयात्रा की तपश्चर्या करते रहने की पुण्यदायी शास्रीय विधान है। यह उच्चस्तरीय योगाभ्यास एवं देवाराधन है।इस प्रयास का पुण्यफल किसी भी परमार्थ उपक्रम से कम नहीं माना गया है।इसके लिए परिव्राजक, मंडली बनाकर निकलते हैं, ताकि जहाँ ठहरें वहाँ उत्साहवर्द्धक प्रचार प्रक्रिया संपन्न कर सकें ।। ५८ - ६१ ।।
व्याख्या- परमार्थं हेतु चलते रहना देव संस्कृति का उद्घोष है । 'चरैवेति- चरैवेति' चलते रहो, चलते रहो- का मंत्र इसी निमित्त दिया गया है।
ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है- ' बैठे हुए व्यक्ति का भाग्य भी बैठा रहता है,बढ़ता नहीं। उठकर चलने वाले का भाग्य उन्नति की ओर बढ़ता है। भूमि पर सोते रहने वाले का भाग्य भी सोता है। जो देश- देशांतर में अर्जन के लिए निकल पड़ता है उसका भाग्य दिन- दिन बढ़ता जाता है। सोने वाला कलि बनता है, नींद को त्याग करने वाला द्वापर, उठने वाला त्रेता, चलने वाला सतयुग बनता है। ''
जीवन की सार्थकता प्रवाहित होते रहने में
दूर -बहुत दूर से प्रभावित होकर आती हुई सरिता की एक धारा ने अपनी सहेली से कहा- '' मैं तो अपने इस गतिशील जीवन से ऊब गई हूँ। एक क्षण को भी विश्राम नहीं, ऐसा भी जीवन किस काम का। अब तो मेरा इरादा नहीं है। देखो आम्र की यह सघन कुंजें कितनी शीतलता प्रदान करने वाली है। मैं तो इन्हीं के नीचे विश्राम करूँगी। '' और वह वहीं रुक गई। घनी छाया के निचले स्थान को जलपुरित करने लगी। दूसरी धारा आगे बढ़ती गई पर जाते- जाते कह गई- '' तू इस बात को क्यों भूलती है कि अपने जल की पावनता, स्वच्छता और स्वस्थता गतिशीलता में है और यदि तेरे जीवन में अकर्मण्यता ने स्थान बना लिया तो स्वाभाविक गुणों से भी हाथ धो बैठेगी । ''
पहली धारा ने अपनी सहधारा की अनुभवजन्य बातों को सुनकर भी अनसुना कर दिया। उसने एक सरोवर का रूप धारण कर लिया। थोड़े दिनों बाद पानी के घिरे रहने के कारण ऊपर काई की मोटी परत जम गई। पानी इतना गंदा तथा दुर्गंधयुक्त हो गया कि ग्रामवासियों ने उसमें अपने पशुओं को पानी पिलाना तथा कपड़े धोना तक बंद कर दिया।
महान् संतों की तीर्थयात्रा
संतों का क्रम तीर्थयात्रा के बिना पूरा ही नहीं होता था।
गोस्वामी तुलसीदास ने १४ वर्ष तक तीर्थयात्राएँ की। वे प्रयाग, जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारिका, बदरिकाश्रम आदि पावन स्थलों के दर्शनार्थ गए। तीर्थयात्रा के बाद वे काशी में रहकर संतों का संग और राम की कथा कहने लगे।
संत तुकाराम ने तत्कालीन महाराष्ट्र को ही नहीं, संपूर्ण भारतीय राष्ट्र को आत्मदर्शन एवं भगवद् दर्शन प्रदान किया । पंढरी की यात्रा का उन्होंने आजीवन पालन किया ।
गुरु नानक जी लगभग तीस वर्ष की आयु में सांसारिक बंधन से मुक्त होकर भटकती हुई मानवता को सत्य मार्ग का उपदेश देने निकल पडे़ । गुरु नानक ने देश-विदेश की व्यापक यात्राएँ कीं । उन्होंने १५ वर्ष तक भारतवर्ष की चारों दिशाओं में सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएँ कीं और अंत में अफगानिस्तान, ईरान, अरब और ईराक तक गए ।
समर्थ गुरु रामदास ने १२ वर्ष के तप के उपरांत १२ वर्ष तक तीर्थयात्रा की एवं सं. १७०१ के वैशाख मास में कृष्णा नदी के तट पर आए । तीर्थयात्रा के प्रसंग में श्री समर्थ जहाँ-जहाँ गए, वहाँ-वहाँ इन्होंने मठ स्थापित किए । लोक कल्याण की भावना से धर्म स्थापनार्थ उस युग में जब रेल, तार, जहाज अखबार, प्रेस आदि का सर्वथा अभाव था, समस्त देश में घूमे । वे सर्वप्रथम काशी गए । फिर मथुरा-वृंदावन से पंजाब, श्रीनगर एवं कश्मीर पहुँचे । वहाँ से चलकर हिमालय में केदारनाथ-बद्रीनाथ की यात्रा की । उत्तराखंड के उपरांत जगन्नाथ गए । लंका से वापस होते हुए केरल, मैसूर फिर महाराष्ट्र आ गए । यहां उन्होंने गोकर्ण, वैंक्टेश, मल्लिकार्जुन, बालनरसिंह, पालन नरसिंह का दर्शन किया, इसके बाद पठ्यसर, ऋष्यमूक, करवीर क्षेत्र पंढरपुर आदि होकर पञ्चवटी लौट आए ।
तीर्थयात्रा से उच्चस्तरीय पुण्य मिलता है । महाभारत युद्ध के बाद धर्मराज ने तीर्थयात्रा की थी । उस संबंध में नकुल ने पूछा, तो उन्होंने समझाया- तीर्थयात्रा एक उच्चस्तरीय तप है । जन साधारण में आस्थाएँ जगाने तथा सत्पुरुषों के सान्निध्य के उद्देश्य से बढ़ा हर चरण पापनाशक होता है । युद्ध से भड़की हिंसा से सूक्ष्म जगत में जो विक्षोभ पैदा होता है, उसके शांत करने के दो ही उपचार हैं- एक यज्ञ, दूसरा सद्भाव संचार की तीर्थयात्रा। ''
तीर्थयात्रा के पुण्य
तीर्थों के संस्कारित वातावरण से यात्री की दुष्प्रवृत्तियाँ कटती हैं, सत्पुरुषों के सान्निध्य से पुण्य भाव जागते हैं। इन्हीं सब कारणों से तीर्थयात्रा को उच्चस्तरीय पुण्य माना गया है।
वृत्रासुर के वध से इंद्र को जो ब्रह्म हत्या का पातक लगा था, उसके निवारण के लिए ऋषियों ने उन्हें तीर्थ सेवन का ही विधान दिया था। प्रभास क्षेत्र में तप करके वे पाप मुक्त हुए थे।
भगवान राम ने लंका युद्ध के बाद तीर्थ सेवन से प्रायश्चित द्वारा अपने आप को शुद्ध और रामराज्य स्थापना के योग्य प्रखर बनाया था।उन्होंने देव प्रयाग में तीर्थ सेवन किया था।उनके भाइयों ने भी क्रमशः भरत ने ऋषिकेश, लक्ष्मण ने लक्ष्मण झूला तथा शत्रुघ्न ने मुनि की रेती में रहकर तीर्थ सेवन साधना पूरी की थी।
ईसा की तीर्थयात्रा
ईसामसीह ने पहले अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति के लिए तीर्थयात्रा की थी। डॉ. नोटोविच की कृति '' ईसामसीह का अज्ञात जीवन चरित्र '' के अनुसार चौदह वर्ष की आयु में ईसा सौदागरों के एक दल के साथ भारत (सिंध) आ पहुँचे। इसके बाद वे जगन्नाथ गए। वहाँ उन्होंने वेदशास्त्र का अध्ययन किया। फिर बनारस आदि स्थानों की यात्रा में ६ वर्ष व्यतीत हो गए। फिर कपिलवस्तु पहुँचे। बौद्ध शास्त्रों का भी उन्होंने अध्ययन किया। उसके पश्चात वे नेपाल और हिमालय से होते हुए ईरान पहुँच कर स्वजातीय भाइयों में उस आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने की तीर्थयात्रा करने लगे, जो उन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन और स्वानुभव से प्राप्त किया था । जन जागरण की उनकी यह एक अनूठी तीर्थयात्रा थी ।
तीर्थयात्रास्वरूपं तु पदयात्रैव विद्यते ।लोकैश्च बहुभिर्भूयान् सम्पर्कस्त्वेवमेव हि । । ६२ । ।
भावार्थ- तीथर्यात्रा का स्वरूप पदयात्रा है क्योंकि अधिक लोगों से अधिक जनसंपर्क साधना,इसी प्रकार संभव हो सकता है । ।६२। ।
व्याख्या-प्राचीनकाल में धर्म परायण व्यक्ति छोटी-बड़ी मंडलियाँ बनाकर तीर्थयात्रा के लिए पैदल ही निकलते थे । कहाँ से चलकर, किस मार्ग रो, किन-किन स्थानों पर ठहरते हुए, कब तक वापस लौटेंगे, इसकी रूपरेखा प्रत्येक मंडली अपनी-अपनी पृथक-पृथक बनाती थीं । मार्ग में जो भी गाँव, झोंपड़े, बंगले, पुरवे मिलते थे, उनमें रूकते, ठहरते किसी उपयुक्त स्थान पर रात्रि विश्राम करते थे । यही क्रम निरंतर चलता था । दिन में जहाँ रुकना हो, वहाँ धर्मचर्चा करना, लोगों को कथा सुनाना और उन्हें उपयुक्त मार्गदर्शन देना, यह कम प्रात: से सायंकाल तक चलता था । रात्रि में जहाँ रुकते, वहाँ कथा-कीर्तन का, शंका समाधान का सत्संग क्रम बनता था । यही कार्य पद्धति पूरी यात्रा अवधि में बनी रहती थी । काय-चिकित्सा, मानसिक-चिकित्सा, उपयोगी परामर्श, समर्थ शुभकामना जैसे अनेक लाभ इस संत मंडली के संपर्क से जन साधारण को मिलते थे । इन मंडलियों के स्तर एवं क्रिया-कलाप से जन-जन के मन-मन में अपार श्रद्धा उमड़ती थी । अस्तु, वे उनके प्रति न केवल भाव भरा सम्मान व्यक्त करते थे, वरन् उनके लिए आवश्यक सुविधा जुटाने में पूरा-पूरा सहयोग भी करते थे ।
शास्त्र मत
तीर्थयात्रा का अनुशासन समझाते हुए शास्त्र कहते हैं-
इति ब्रुवन् रसनया मनसा च हरि स्मरन् । पादचारो गतिं कुर्यात् तीर्थं प्रति महोदय: ।।
अर्थात् वाणी से कीर्तन करते हुए तथा मन से भगवान का स्मरण करते हुए पैदल तीर्थयात्रा करने से महान अभ्युदय होता है ।
स्कंद पुराण में उल्लेख है- ''सवारी तीर्थयात्रा का फल अपहरण कर लेते हैं। उसका आधा छत्र तथा पादुका हरण कर लेते हैं। व्यापार पुण्य का तीन चतुर्थांश अपहरण करता है तथा प्रतिग्रह तीर्थ के सारे पुण्य को नष्ट कर देता है ।
कृष्ण पैदल गए
भगवान कृष्ण ने बद्रिकाश्रम जाकर तप किया था। बद्रीनाथ जी के पैदल मार्ग पर ऋषिकेश के बाद पहला पड़ाव है गरुड़ चट्टी। भगवान कृष्ण द्वारिका से ऋषिकेश तक गरुड़ वाहन पर आए थे। जहाँ उन्होंने छोडा़ था, उस स्थान को गरुड़ चट्टी के नाम से अभी तक याद किया जाता है।
तीर्थयात्रा पैदल करने की परिपाटी का यह एक ज्वलंत प्रमाण है।
भरत पैदल चले
भरत जी श्रीराम को मनाने चित्रकूट गए थे। सारे वाहन साथ थे, पर वे पैदल ही चले थे, भले ही अभ्यास न होने से पैरों में छाले पड़ गए।
तीर्थाटन के प्रत्यक्ष लाभ
एक विदेशी श्रद्धालु ने महर्षि अरविन्द से पूछा- '' पुराणों में तो हर तीर्थ का महात्म्य इतना बढ़ा- चढ़ाकर लिखा है कि थोड़े से स्थानों को देख लेने भर से सभी आध्यात्मिक उद्देश्य प्राप्त हो सकते हैं,पर यह असंभव लगता है। बुद्धि संगत लाभों का विवेचन करें। ''
श्री अरविन्द बोले- '' तीर्थयात्रा का वास्तविक उद्देश्य पदयात्रा से ही सधता है।लंबी पदयात्राएँ यदि क्षमता के अनुरूप और शांत चित्त से की जाएँ, तो वे स्वास्थ्य सुधारती हैं। अपरिचित स्थानों को, उनकी परिस्थितियों को देखने से मनुष्य का ज्ञान अनुभव बहुत अधिक बढ़ जाता है।उपयोगी मनोरंजन तो प्रत्यक्ष ही है।ऐतिहासिक घटनाओं से भलाई बढ़ाने और बुराई घटाने की बहुमुखी प्रेरणाएँ मिलती हैं।पर्यटन एक राष्ट्रीय महत्त्व का उद्योग है। उससे पैसा घूमता है और व्यवसाइयों तथा श्रमिकों को आजीविका मिलती है।अनेक स्तर के लोगों से संपर्क बनने पर व्यवहार कुशलता बढ़ती है।ज्ञान अर्जन के लिए विद्यालयों से भी बढ़कर यात्राओं का महत्त्व है। विज्ञजन धर्म प्रचार की मंडलियाँ बनाकर परिभ्रमण करते थे। उससे पिछड़े और प्रगतिशील लोगों को अपने- अपने काम के उपदेश परामर्श सुनने को मिलते हैं।यह लोक शिक्षण की अति महत्त्वपूर्ण पद्धति है।
रेल, मोटर और द्रुतगामी वाहनों पर जाने से तो स्वल्प लाभ मिलता है। उन प्रयासों को मनोरंजन प्रधान ही माना जाना चाहिए। पदयात्रा का प्रयोजन इन दिनों साइकिल यात्रा से भी पूरा हो सकता है।
चीनी यात्री फाह्यान
ईसा की तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म चीन के कोने- कोने में पहुँच चुका था, पर जिस भारत में उस दर्शन की उत्पत्ति हुई थी, उसकी वर्तमान दशा को सही रूप में जानने के उन दिनों कोई साधन न थे।जिज्ञासु फाह्यान ने इसके लिए साहस किया। उसने भाषा संबंधी कठिनाइयों को अपने देश में रहकर ही पार किया।भारत आने का कोई व्यवस्थित मार्ग न था। उसे यहाँ तक आने में पाँच वर्ष लगे। इस अवधि को कितनी कठिनाइयों के बीच उसने पार किया होगा, इसकी कल्पना भी आज तो कठिन है, पर जिसका संकल्प बल साथ दे, उसके लिए कोई बात कठिन नहीं।
भारत आकर उनने यहाँ के सभी प्रमुख स्थानों को विशेषतया बौद्ध दर्शन के उद्गम स्थानों को बड़े ध्यान पूर्वक देखा। उसने उस समय की भारत की स्थिति को निष्पक्ष भाव से लिखा है। लौटते समय तक भारत के जलयान द्वारा लंका- जावा समुद्री मार्ग से चीन पहुँचने लगे थे। फाह्यान उसी मार्ग से वापस लौटा। उसने अपने देशवासियों को उस ज्ञान से परिचित कराया, जिसके लिए चीन वासी तरसते थे।
तीर्थयात्रिपरिव्राजः स्वयात्राया उपक्रमम् । क्षेत्रावश्यकतारूपं कुर्वते विश्रमस्य च ।। ६३ ।। तेषां व्यवस्थितिं तेभ्यः सुविधानां समर्जनम् । स्थाने- स्थाने स्थितान्येव कुर्वते मन्दिराणि तुं ।। ६४ ।।
भावार्थ- तीर्थयात्री परिव्राजक अपनी यात्रा का उपक्रम क्षत्रों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए बनाते हैं । उनके विराम के लिए सुविधा जुटाने और व्यवस्था बनाने का उत्तरदायित्व स्थान- स्थान पर विनिर्मित देवालय सँभालते हैं ।।६३- ६४।। व्याख्या- तीर्थयात्रा का उद्देश्य लोकहित होता है इसीलिए समय की आवश्यकता देखकर संत यात्रा का उद्देश्य और स्वरूप निर्धारित करते रहे हैं।
विनोबा जी का संकल्प
भूदान के लिए देश के कई प्रांतों की यात्रा करते हुए, विनोबा भावे भारत वर्ष के अंतिम छोर कन्याकुमारी तक जा पहुँचे। यहाँ जब वे प्रातः काल समुद्र के किनारे खड़े होकर सूर्योदय का दृश्य देख रहे थे, तो उनको अनुभव हुआ कि उनकी अंतरात्मा को कोई एक संदेश दे रहा है ।। उनको स्मरण आया कि ठीक इसी स्थान पर आज से ६७ वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ दरिद्रनारायण के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी और उसे पूरा करने के लिए वे देश- विदेश का भ्रमण करते रहे थे। विनोबा जी ने इसी स्मरण से प्रेरणा लेकर समुद्र जल हाथ में लिया और सूर्य भगवान को साक्षी करके संकल्प लिया कि जब तक भारतीय ग्रामों में कष्ट, सहने वाले गरीबों की दशा में सुधार नहीं हो जाएगा, मैं विश्राम नहीं करूँगा।
इस संकल्प की पूर्ति के लिए वे भारत के गाँव-गाँव में गए और अनवरत अविश्रांत संकल्प की पूर्ति में लगे रहे।
पीड़ितों और पतितों के बीच ईसा
ईसामसीह केपर नाम के नगर में पहुँचे । वे दुष्ट-दुराचारियों के मुहल्ले में ठहरे और वहीं रहना शुरू कर दिया। नगर के प्रतिष्ठित लोग ईसा के दर्शन करने पहुँचे, तो उन्होंने आश्चर्य से पूछा-'' इतने बड़े नगर में आपको सज्जनों के साथ रहने की जगह न मिली या आपने उनके बीच रहना पसंद नहीं किया ?'' हँसते हुए ईसा ने कहा-'' वैद्य मरीजों को देखने जाता है या चंगे लोगों को ? ईश्वर का पुत्र पीडि़तों और पतितों की सेवा के लिए आया है । उसका स्थान उन्हीं के बीच तो होगा। ''
चैतन्य महाप्रभु का जन्म नदिया, बंगला में हुआ। वे गृहस्थ थे, पर उन दिनों चल रहे यवनों के अत्याचार के प्रतिरोध में जन जागृति की आवश्यकता उनने अनुभव की और घर छोड़कर जन-संपर्क के लिए निकल पड़े। लोगों को एकत्रित करने और भावना उभारने के लिए संकीर्तन को उपयुक्त माध्यम समझा। इससे अनीति करने वालों को प्रतिरोध कीं गंध नहीं आती थी और वे विशेष छेड़खानी नहीं करते थे। चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों को सामयिक कर्तव्य सुझाते और निराश न होने की साहसिक भावनाएँ भरते उन्हें अपनी कार्यशैली बहुत उपयुक्त जँची और देश के कोने-कोने में उनने प्रव्रज्या आरंभ कर दी। जन जागृति की दृष्टि से इसका उपयुक्त प्रभाव भी हुआ।
चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य जब वृंदावन आए, तब वहाँ भगवान की स्मृति में भव्य देवालय बनाने की शिष्यों को प्रेरणा दी। उनका उद्देश्य भारत के इस मध्यवर्ती भाग को धर्म चेतना का केन्द्र बनाने का था।उस स्थान पर कितने ही प्रभावशाली संत आए और अपने प्रभाव का उपयोग दूर-दूर तक करते रहे। चैतन्य ४८ वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गए।
कथाकार धर्मोपदेशक
आसाम प्रांत के नौगढ़ जिले में बलदीन नामक एक छोटे में संत शंकरदेव जन्मे। जन्मजाति से वे कायस्थ थे, पर उन्हें संस्कृत से अगाध प्रेम था। उनने कई वर्षो तक मनोयोगपूर्वक संस्कृत पढी़ और पुराणों की कथा कहने की शैली का अभ्यास किया।
कीर्तन की भरमार से लोग ऊबने लगे थे। उस कर्मकांड में समय और शक्ति का व्यय भी होता था और लोगों को परामर्श देने के लिए समय कम मिलता था। उसकी तुलना में कथा शैली इसलिए उपयुक्त पड़ती थी कि उसमें रोचकता के अतिरिक्त विचार देने का अवसर अधिक मिलता था। विद्वानों के लिए यही मार्ग उपयुक्त लगा। जिनकी विचार शक्ति कम हो उनके कीर्तन ही कामचलाऊ ठीक है। ऐसी मान्यता थी शंकरदेव की ।
उनने आसाम को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और कथा सप्ताहों का कार्यक्रम बनाया, ताकि लगातार अधिक दिन संपर्क रहने से लोगों का विचार परिवर्तन संभव हो सके। पंडित लोग उनसे जलते और उलझते भी थे, किंतु उनकी विद्वता और नम्रता के आगे किसी का व्यवधान उनके आड़े न आया।
उपहारान् दक्षिणां च स्थापयेद्देवसंमुखे। दर्शकस्तत्र, भोगस्य प्रबन्धोऽपि भवेत्सदा ।। ६५ ।। आश्रमार्थव्यवस्थां च कर्तुं सनतुलितामिद्म्। निर्धारणं वर्ततेऽत्र निश्चितं देवसद्मनाम् ।। ६६ ।।
भावार्थ- देवता के सम्मुख दर्शक भेंट- दक्षिणा रखें। उनके भोग आदि का प्रबंध रहे- यह निर्धारण आश्रम की अर्थ व्यवस्था सुसंतुलित रखने के लिए है ।। ६५ -६६।। व्यास्था- देवालयों तथा तीर्थों के सामान्य खर्च के लिए उद्देश्य की पवित्रता के अनुरूप ही साधनों की पवित्रता भी रखी जानी चाहिए। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति हेतु दान लेने को देव संस्कृति ने निषिद्ध ठहराया है। श्रद्धालु गण भगवान के सामने अपने श्रद्धा, सहयोग, अंशदान इसलिए अर्पित करते हैं कि उससे आश्रम व्यवस्था सुसंतुलित रूप से चलती रहे और जिनके कंधों पर धर्म- जागरण का, जन- जागृति का उत्तरदायित्व सौंपा गया है वे निश्चिंततापूर्वक अपना कार्य करते रह सकें। तीर्थवासी या तीर्थ सेवा को व्यक्तिगत दान न लेने का अनुशासन शास्त्रों में स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-
यो न क्लिष्टोऽपि भिक्षेत ब्राह्मणस्तीर्थसेवकः। सत्यवादी समाधिस्थः स तीर्थस्योपकारकः।।
जो तीर्थ सेवी ब्राह्मण अत्यंत क्लेश पाने पर भी किसी से दान नहीं लेता, सत्य बोलता और मन को वश में रखता है, वह तीर्थ की महिमा बढ़ाने वाला है। श्रद्धा भरा सहयोग देव स्थल पर दिया जाना और उसी से सत्पात्रों की आवश्यकता पूरी होने का क्रम ही सदा उचित ठहराया गया है। इन दिनों भी कितने ही धर्म संस्थानों के पास अच्छे आजीविका स्त्रोत हैं।तिरुपति बालाजी, साईं बाबा, नाथद्वारा, चारों धाम के शंकराचार्य मठ आदि का उल्लेख अभी भी संपत्तिवान धर्म संस्थानों के रूप में किया जाता है। अन्यान्य छोटे बढ़ें मठ संस्थान भी ऐसे हैं, जिनके पास लोकमंगल के लिए प्रचुर संपदा है। जिसका उपयोग होना चाहिए। यह परंपरा इसलिए चली थी कि वर्तमान ईसाई मिशन की तरह उनकी शक्ति अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के अनेकानेक रचनात्मक प्रयोजनों में लगी रह सके। प्राचीनकाल में बौद्ध संस्थान भी साधन संपन्न थे। यह राशि उन्हें लोकश्रद्धा की परमार्थ भावना के द्वारा उपलब्ध हो सकी थी।
साध्य की साधन भी पवित्र हों
गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उन्होंने बंबई में एक सभा की और महिलाओं को खादी प्रचार के लिए आगे आने का आह्वान किया। उनके भाषण से प्रभावित एक सुसंपन्न मीठू बेन इस कार्य के लिए आगे आईं और उन्होंने कार्य को आगे बढ़ाने के लिए कितनी ही योजनाएँ भी बनाईं। इन योजनाओं में एक यह भी थी कि सिनेमा मालिकों से एक- एक शो इस कार्य के लिए दिखाने को तैयार किया जाय। टिकट महिला सभा बेचे।
योजना जब गांधी जी के कानों तक पहुँची तो उनने उसे रद्द करा दिया। उनने कहा इन दिनों सिनेमा जिस प्रकार देश का चरित्र गिरा रहा है उसे देखते हुए हमें उसके प्रचार में सहायक नहीं होना चाहिए। साध्य की तरह साधन भी उत्तम हों तभी ऊँचे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। मीठू बहन ने वह योजना बदल दी और सीमित आर्थिक सहायता से ही अपना कार्य आगे बढ़ाया।
अनुग्रह नही अनुदान
एक संत के पास एक धनीमानी व्यक्ति पहुँचा। संत ने उसे रूखी रोटियाँ खाने को दीं। इस दरिद्रता को देखकर उसे दया आ गई और उसने हाथों में से दो हीरे की अगूँठियाँ उतार कर दे दीं।
संत ने एक को पानी में फेंक दिया। उसे वह ढूँढ़ लाया। दूसरी फिर वैसे ही पानी में फेंक दी। दानी व्यक्ति उसे भी ढूँढ़ लाया। दानी ने संत से अंगूठी फेंकने का कारण पूछा तो संत ने कहा- '' संत को निर्धनों में मत गिनो। दयावश तो अपनों को दिया जाता है। संत को भेंट तो अपने धन की सार्थकता के लिए विनयपूर्वक दी जाती है। ''
आदर्शों के लिए अनुदान
सत्पुरुष सत्कार्यों के निमित्त यथाशक्ति साधनों की कमी पड़ने नहीं देते थे।
महर्षि विश्वामित्र उन दिनों नवयुग का सूत्रपात कर रहे थे, उन्हें साधनों की आवश्यकता थी। उनके शिष्य हरिश्चंद्र ने पूर्ण निस्पृहता का परिचय दिया। अपनी सारी संपदा ऋषि के हवाले कर दी। कमी पड़ी तो अपने को, स्री- बच्चों को बेचकर प्रस्तुत आवश्यकता की पूर्ति का आदर्श प्रस्तुत किया।
सुदामा जी का गुरुकुल उन दिनों अभावग्रस्तता की स्थिति से गुजर रहा था। इस स्थिति का पता जब श्रीकृष्ण जी को लगा तो उनने अपनी द्वारिका की संपत्ति का अधिकांश भाग सुदामापुरी भेज दिया। वे जानते थे सुदामा व्यक्तिगत दान दक्षिणा नहीं लेंगे इसलिए सीधा उनके गुरुकुल को अनुदान भिजवा दिया।
सम्पर्कस्तीर्थयात्राया देवस्दमन एव च। मध्ये ह्येतादृशः सोऽस्ति यथा ते पूरका मता: ।। ६७ ।। साधवो ब्राह्मणाश्चैव परस्परमिमे समे। पणस्यैकस्य पार्श्वौ द्वौ मतौ तु मिलितौ यथा ।। ६८ ।।
भावार्थ - तीर्थयात्रा और देवालय व्यवस्था के बीच उसी प्रकार का तालमेल है जैसा कि साधू और ब्राह्मणों को परस्पर पूरक माना गया है और एक ही सिक्के के दो पहलू कहा गया है ।। ६७- ७८ ।।
व्याख्या- गाँव-गाँव, मुहल्ले-मुहल्ले छोटे-बड़े देवालयों की आवश्यकता इसलिए समझी गई कि वे अपने- अपने क्षेत्र में जब जागरण के केंद्र बनकर रहें। यह स्थानीय देवालयों की बात हुई। इससे बढ़कर दूसरा प्रयास है- तीर्थों का। उन्हें भावना क्षेत्र के शोध संस्थान, निवारक अस्पताल, संवर्द्धन सेनेटोरियम, विभिन्न फैकल्टियों से सुसंपन्न महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के समतुल्य समझा जा सकता है। बच्चों के गुरुकुल गृहस्थों के समाधान सत्र एवं अधेड़ों के आरण्यक बनकर वे रहते थे। तत्त्वदर्शी ऋषि प्रकृति सान्निध्य में जलाशयों की सुविधा वाले ऐतिहासिक प्रेरणाओं से जुड़े हुए स्थान इस निमित्त चुनते थे और वहाँ ऐसी प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन करते थे जिनमें दूर- दूर से लोग पहुँचते रहें। घर से दूर रहकर उपयुक्त मनःस्थिति एवं प्रेरणाप्रद परिस्थिति का लाभ उठाते हुए व्यक्तियों का समग्र परिष्कार कर सकें।
शाण्डिल्य उवाच- धर्म प्रचारका नैव जना ये सन्ति ते कथम्। तीर्थयात्रानिमित्तेन यान्ति तीर्थानि सन्ततम् ।। ६९ ।। कारणं विद्यते किं तद् भगवन् बोध्यतामिदम्। आकर्ण्यैतन्महर्षिः स प्राह कात्यायनस्तदा ।। ७० ।।
भावार्थ- शाण्डिल्य बोले- हे भगवन् ! जो लोग धर्म प्रचारक नहीं हैं, वे क्यों तीर्थयात्रा के निमित्त जाते हैं। इसका कारण बताने की कृपा करें। इस प्रश्न को सुनकर महर्षि कात्यायन बोले-।। ६९ -७० ।। कात्यायन उवाच- विद्वांसस्तीर्थयात्रायाः फलं ते प्रात्नुवन्त्यलम् । सामान्या अपि तु मर्त्याः प्रत्यक्षं नात्र संशय: ।। ७१ ।। पदयात्रा स्वास्थ्यवृद्धिं विधत्तेऽअनुभवं तथा । व्यावहारिकमेतच्च ज्ञानं वर्धयति ह्यलम् ।। ७२ ।। सम्पर्को वर्धते नूनं स च परिचयोऽपि तु । लाभांस्तान् यान्ति नैकत्र स्थितायानुपयान्ति ते ।। ७३ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- है विद्विज़नो ! सामान्य जनों को भी तीर्थयात्रा का पुण्यफल प्रत्यक्ष मिलता है, इसमें संदेह नहीं। पदयात्रा से स्वास्थ्य सुधरता है, अनुभव बढ़ता है, व्यावहारिक ज्ञान की वृद्धि होती है, परिचय और संपर्क बढ़ता है। इस प्रकार वे उन लाभों को प्राप्त करते हैं, जो एक जगह पर बैठे रहने से मिल ही नहीं सकते ।। ७१- ७३ ।।
व्याख्या- प्राचीनकाल में धर्म प्रचार के उद्देश्य से मंडलियाँ निकलती थीं। कुछ उनमें सूत वक्ता और कुछ शौनक- साथी श्रोतागण होते थे। अनेक ऋषियों के गुरुकुल भी उसी चल पद्धति के आधार को अपनी व्यवस्था बनाते थे। गौ समूह के साथ छात्रगण अपने गुरुजनों के साथ निकलते थे । मार्ग में स्काउट के केंप फायर की तरह पड़ाव डालते-गौएँ चराते हुए ठहरते और आगे बढ़ते थे। साथ- साथ अध्ययन- अध्यापन भी चलता रहता था। वास्तविक शिक्षा में गधे की तरह छात्र पर पुस्तकों का अनावश्यक भार लाद देने का भोंड़ापन नहीं, सर्वतोमुखी अनुभव संपादन का आधार जुड़ा रहता है, छात्रों को उस परिभ्रमणकारी शिक्षा से बहुमुखी लाभ मिलते थे। उपाध्यायगण स्थानीय लोगों को भी अपने धर्मोपदेशकों से लाभान्वित करते रहते थे। नए छात्रों का प्रवेश भी उस मंडली में होता रहता था। जो लोग गुरुकुल शिक्षा पद्धति का महत्त्व नहीं समझते थे, उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन से प्रेरणा मिलती थी और वे भी अपनी संतान का उसमें प्रवेश कराते थे। इसे तीर्थयात्रा स्तर का गुरुकुलीय प्रशिक्षण कहा जाता था। लगातार ऐसा परिभ्रमण न हो सके, तो भी प्रत्येक गुरुकुल को कुछ- कुछ समय के लिए शिक्षण सत्रों की छोटी- छोटी टोलियाँ विभिन्न दिशा में भेजनी होती थीं ।। इसमें छात्र, अध्यापकों को ही नहीं, संपर्क में आने वाले क्षेत्रों तथा जन साधारण को भी बहुमूल्य ज्ञान संपादन का अवसर मिलता रहता था, तीर्थयात्रा का कितना महत्त्वपूर्ण और कितना सार्थक स्वरूप था वह।
भरत का शिक्षण
शकुन्तला को दुष्यंत भरत सहित महलों में ले आए। बालक भरत की शास्त्र शिक्षा और शस्त्र शिक्षा तो ऋषि आश्रम में माता शकुन्तला की देख- रेख में अच्छे स्तर पर चल रही थी। उसे चालू रखा गया। भरत में क्या- क्या विकास किए जाँए इस पर परामर्श हुआ।
हितैषियों ने सुझाया कि कुशल शासक के रूप में भरत का विकास हो, इसके लिए उन्हें देश के विभिन्न भागों की परिस्थितियों का अध्ययन तथा लोक परंपराओं का बोध होना चाहिए। इसके लिए सर्वोत्तम माध्यम तीर्थयात्रा माना गया। भरत को मंत्रि परिषद के तथा पुरोहित वर्ग के बालकों सहित दो वर्ष के लिए तीर्थयात्रा पर भेजा गया। वह अनुभव भरत के लिए अद्भुत संपत्ति के रूप में सिद्ध हुआ।
अर्जुन का संपर्क लाभ
ब्राह्माण की यज्ञ रक्षा के लिए गाण्डीव उठाने के लिए अर्जुन, निषिद्ध समय में अंतः पुर में प्रवेश कर गए। नियमानुसार उन्होंने १२ वर्ष के लिए तीर्थ सेवन प्रायश्चित स्वीकार किया। इन १२ वर्षों में अर्जुन का तपोबल भी बढ़ा तथा विद्याओं की भी प्राप्ति हुई। जहाँ- जहाँ जिस क्षेत्र में गए, उनकी पात्रता से सत्पुरुष प्रभावित हुए, उसी नाते अनेक विद्याएँ भी प्राप्त हुईं तथा परिचय- सद्भाव क्षेत्र बढ़ने से सहयोगियों की संख्या कई गुनी बढ़ गई। महाभारत युद्ध तथा उसके बाद महान भारत का व्यवस्था तंत्र बनाने में उन्हें तीर्थयात्रा से प्राप्त तेजस् अनुभव तथा सहयोग बहुत काम आया।
सामाजिक्या च दृष्ट्यापि लाभा अस्या मता यथा । विकेन्द्रीकरणं श्रेष्ठं स्वतो वित्तस्य जायते ।। ७४ ।। लघूद्योगा महान्तश्च विकासं यान्ति ते क्रमात्। विशालत्वं प्रयात्येषा भावना वर्द्धते तथा ।। ७५ ।। देशभक्तिस्तथोपैति विस्तरं क्षेत्रमात्मनः। जना आत्मान एवातः प्रतीयन्ते समेऽपि च ।। ७६ ।।
भावार्थ- सामाजिक दृष्टि से भी इसके बड़े लाभ हैं। धन का वितरण- विकेन्द्रीकरण होता है, लघु एवं विशाल उद्योग पनपते हैं, विशालता की भावना बढ़ती है, देशभक्ति में प्रखरता आती है और आत्मीयता का क्षेत्र सुविस्तृत होता है। सभी मनुष्य अपने परिवार रूप में दीखते हैं ।। ७४- ७६।।
व्याख्या- पर्यटन को एक अच्छा उद्योग माना गया है, कई राष्ट्रों की अर्थ नीति तो पर्यटन व्यवसाय पर ही टिकी है। विद्वान विद्वत्ता के प्रसार के लिए, कलाकार कला विस्तार के लिए तथा व्यापारी उद्योग विस्तार के लिए छोटी और लंबी यात्राएँ किया करते थे। आजकल भी विद्यार्थियों को उद्योग केन्द्रों, देश की विभिन्न संस्कृतियों का स्वरूप समझाने के लिए शिक्षण यात्राएँ की जाती हैं। अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ाने के लिए भी शिष्ट मंडलों, युवकों, विद्यार्थियों के दल अन्य देशों की यात्रा करते हैं। इससे आत्मीय तथा सांस्कृतिक सद्भाव बढ़ता है। विशिष्ट सेमिनार, मेले आदि भी इसी उद्देश्य से किए जाते हैं।
चलता- फिरता गुरुकुल
महर्षि जरत्कारु ने उद्दालक से पूछा- '' आपके गुरुकुल में प्रशिक्षित हुए छात्र सर्वत्र यशस्वी हो रहे हैं, पर उस अनुपात से आपका आश्रम और छात्रावास तो कहीं दीख नहीं पड़ता, फिर छात्र पढ़ते कहाँ होंगे ? ''
उद्दालक ने कहा-'' हमारा गुरुकुल एक स्थान पर नहीं चलता। छात्रों को साथ लेकर हम परिभ्रमण करते रहते हैं। इससे इन्हें भौगोलिक ज्ञान होता है। विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों तथा व्यक्तियों से निपटने का अवसर मिलता है। पैदल चलने से हम सबका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और अनेक स्थानों के लोगों के धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिलता है। यह व्यावहारिक शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसलिए हमने यही उचित समझा कि स्थिर गुरुकुल बनाने की उपेक्षा चलता- फिरता विद्यालय चलाएँ। इस उपाय का अवलंबन करने से हमारे छात्र स्थिर विद्यालयों में पढ़ने वालों की तुलना में अधिक सुयोग्य बनते एवं यशस्वी होते हैं। ''
जरत्कारु का समाधान हो गया।
तीर्थों के मेले
वटुक जीमूत ने पूछा- '' तीर्थों में स्थान- स्थान पर मेले क्यों होते हैं ? पर्वों पर अगणित लोग क्यों वहाँ पहुँचते हैं ?''
गुरु प्रचेता ने कहा-'' यह तीर्थ स्थानों के मेले पुरातन कार्य में धर्म- सम्मेलन के रूप में चलते थे। विज्ञजन एकत्रित होकर सामयिक समस्याओं पर विचार करते और समाधान ढूँढ़ते थे। भावनाशील व्यक्ति यहाँ होने वाले उपदेशों, निर्धारणों और परामर्शों को कार्यान्वित करने की प्रेरणा लेकर लौटते थे। यह मेले तीर्थसेवन के महत्त्वपूर्ण माध्यम बन जाते थे।
स्थितास्तत्र च कुर्वन्ति त्वात्मशोधनसाधनाम्। परिष्कुर्वन्ति चात्मान त्रुटीस्ता दूरयन्त्यपि ।। ७७।। प्रायश्चित्तं चरन्त्यत्र योगीयासं तथैव च । रतास्तपसि सत्संगस्वाध्यायौ लभतेऽपि च ।। ७८ ।। प्राप्यते प्रतिभानां च सप्राणानां तु सन्निधेः। लाभो महांस्तु यो तं ते प्राप्नुवन्त्येव सन्ततम् ।। ७९ ।। अन्विषन्ति समाधान ग्रन्थीनां कुर्वते तथा। व्यवस्थितां योजनां ते भविष्यन्निर्धृते शुभम् ।। ८० ।। वातावृतौ प्रेरकायां वसन्त: प्राणभृत्यपि। तीर्थसेवनमाहुश्च कल्पसाधनमप्यतः ।। ८१ ।। रूपे वास्तविके तच्चेत्सम्पन्नं क्रियते सत:। स्वास्थ्यं शरीरसम्बन्धिचिन्तनं मानसं तथा ।। ८२ ।। परिवर्तनमायाति सहजीवनकर्मणा। भविष्यन्निर्मितेर्लाभः कायाकल्प इवेष्यते ।। ८३ ।।
भावार्थ - तीर्थसेवन को मानसिक उपचार माना गया है। वहाँ रहकर लोग आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की साधना करते हैं। भूतकाल की गलतियों को सुधारते हैं। पापों का प्रायश्चित करते हैं योगाभ्यास और तप- साधना में निरत रहते हैं। स्वाध्याय- सत्संग का लाभ उठाते हैं। प्राणवान प्रतिभाओं के सान्निध्य से जोअसीम लाभ मिलता है, उसे उपलब्ध करते हैं। प्रस्तुत गुत्थियों का समाधान खोजते हैं तथा भविष्य निर्धारण की सुव्यवस्थित योजना वहाँ के प्राणवान् प्रेरणाप्रद वातावरण में रहकर बनाते हैं। तीर्थ सेवन को कल्प साधन कहा गया है। उसे यदि सही रूप से संपन्न किया जा सके, तो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक चिंतन, जीवनचर्या में परिवर्तन एवं भविष्य निर्माण की दृष्टि से कायाकल्प जैसा लाभ ही मिलता है ॥ ७७-८३॥
व्याख्या- तीर्थ सेवन में केवल बाह्य उस चार पर्याप्त नहीं। साधक को तीर्थ चेतना के साथ अपने चिंतन को मिलाना पड़ता है। नारद पुराण का मत है-
गंगादि तीर्थेषु वसन्ति मत्स्या देवालये पक्षिगणाश्च सन्तिः। भावोज्झितास्ते न फलं लभन्ते तीर्थाच्च देवायतनाच्च मुख्यात् ।। भावं ततो हृत्कमले निधाय तीर्थानि सेवेत् समाहितात्मा।
अर्थात् गंगा आदि तीर्थों में मछलियाँ निवास करती हैं देव मंदिरों में पक्षीगण रहते हैं, किंतु उनके चित्त भक्ति भाव से रहित होने के कारण उन्हें तीर्थ सेवन और देव मंदिर में निवास करने से कोई फल नहीं मिलता। अतः हृदय कमल में भाव का संग्रह करके एकाग्रचित्त होकर तीर्थ सेवन करना चाहिए।
नृणां पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्। यथोक्तफलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम्।।
अर्थात, पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शांति होती है। जिनका अंतःकरण शुद्ध है ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।
सत्सान्निध्य का लाभ
तीर्थाटन में सत्पुरुषों का सान्निध्य सत्संग एक अति प्रभावशाली माध्यम बतलाया गया है। मुख्या पुरुषयात्रा हि तीर्थयात्रा प्रसंगतः। सद्भिः समागमो भूमिभागस्तीर्थतयोच्चते ।। -स्कंद पुराण
तीर्थयात्रा के प्रसंग में महापुरुषों के दर्शन के लिए जाना ही तीर्थयात्रा का मुख्य उद्देश्य है, अतः जिस भूभाग में सज्जन निवास करते हैं, वह तीर्थ कहलाता है।
ब्राह्मण: जङ्गमं तीर्थ निर्मलं सार्वकामिकम्। एषां वाक्योदकेनैव शुद्धयन्ति मलिना जना: ।। - अगस्त्य
सत्पुरुष विप्र चैतन्य तीर्थ होते हैं, यह सब कामना पूर्ति कर सकते हैं। यह सद् परामर्श रूपी जल से मलिन जनों को निर्मल बना देते हैं।
यही भाव रामचरितमानस में व्यक्त किया गया है- मुद मंगलमय संत समाजू। जो जड़ जंगम तीरथराजू ।।इस तीर्थ को ' सबहिं सुलभ सब दिन सब देश ' कहा गया है। परंतु इसका लाभ उठाने के लिए साधकों को उनके प्रति अनुराग पैदा करना तथा उनका अनुसरण करना होता है।
सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तन, साधु समाज प्रयाग ।।
सुनने- समझने और उसकी प्रेरणाएँ जीवन में अपनाने से, इन तीर्थों के प्रभाव से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फल इसी जन्म में प्राप्त हो सकते है। इनका प्रभाव तुरंत दिखाई देता है। ''
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होंहि पिक बकहु मसला ।।
कौए से कोयल और बगुले से हंस बनने की उक्ति के पीछे यह तथ्य स्पष्ट है कि बाहर से रंग रूप भले न बदले, अंतर से प्रवृत्तियों का गुण, कर्म, स्वभाव का कायाकल्प हो जाता है। अंतःकरण की स्थिति बदलते ही मनुष्य अपने आपको स्वर्ग जैसी स्थिति में अनुभव करने लगता है।
तीर्थवास से भ्रम निवारण
गरुड़ को भगवान राम की लीला देखकर भ्रम हो गया था। मन अशांत रहने लगा। शिवजी ने उन्हें काकभुशुण्डि के आश्रम में भेजा। वहाँ निवास तथा सत्संग से उनका भ्रम हटा तथा पुनः आंतरिक शांति मिली।
भाइयों- भाइयों के युद्ध और उसमें यादवी सेना के दो भागों में बँट जाने से बलराज जी का मन बहुत उद्विग्न हो गया था। उस उद्विग्नता को शांत करने के लिए वे युद्ध प्रारंभ के पूर्व तीर्थाटन को चले गए थे और समाप्ति पर ही लौटे थे।
पुत्रों को शोक से संतप्त धृतराष्ट्र और गान्धारी के समाधान का भी एकमात्र मार्ग तीर्थ सेवन ही समझा गया था। कुंती उनके सहयोग के लिए स्वेच्छा से साथ हो गई थीं।
तीर्थ में प्रायश्चित
परशुराम जी ने पिता की आज्ञा से माता का सिर काट लिया। फिर पिता से वर माँगा कि माँ को जीवित कर दें। पर अपने हाथ से माँ पर प्रहार करने से पाप का प्रायश्चित्य आवश्यक समझा गया। उन्होंने मातृतीर्थ (मातृ कुण्डिया, राजस्थान) में उसका प्रायश्चित्य किया।
रत्नाकर ने जीवन क्रम बदलने का साहस किया, तो नारद जी ने उन्हें तीर्थवास करके पूर्व कर्मों के प्रायश्चित्य का विधान बतलाया। उसमें वे ऐसे रमे कि शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। उसी से वाल्मीकि कहलाए। प्रायश्चित्य से शुद्ध अंतःकरण ऋषि स्तर तक जा पहुँचे। महाराज हर्षवर्धन कुंभ पर सर्वमेध करके जाने- अनजाने में हुए पापों का प्रायश्चित्य किया करते थे।
भगवान् बुद्ध के प्रयोग
भगवान बुद्ध उथली क्षमा- प्रार्थना या कर्मकाण्डों की चिह्न पूजा से पापों का प्रायश्चित्य नहीं मानते थे। उन्होंने कलिंग में रक्त बहाने वाले अशोक, अम्बपाली वैश्या और अंगुलिमाल डाकू का जीवन कल्प कराया। इन सबने न केवल अपनी संपदा, परमार्थ के लिए दान की, वरन् शेष जीवन भी लोकहित के लिए लगाया। अशोक ने तो अपने दोनों बच्चे महेन्द्र और संघमित्रा को भी धर्म सेवा के लिए दान कर दिए थे। पाप नाश का एकमात्र मार्ग ऐसा प्रायश्चित्त ही है, जैसा वाल्मीकि और बिल्वमंगल ने किया था। भगवान बुद्ध ने अन्य ऋषियों की भांति साधना और सेवा के दोनों धर्म प्रयोजन परिपूर्ण निष्ठा के साथ अपनाए।
गत्वा तीर्थेषु बालानां संस्काराणां विधेस्तथा।
पाणिग्रहणकार्यस्य पितृश्राद्धविधेरपि ।। ८४ ।। वानप्रस्थाश्रमस्याऽपि विद्यते सा परम्परा । सर्वेषां हि महत्वं तद्धयेतदाश्रित्य वर्तते ।। ८५ ।। तस्या वातावृतेर्लाभं गन्तृणामञ्जसा नृणाम् । जीवनं सम्पदां मार्गे दैवैनां क्राम्यति स्वयम् ।। ८६ ।।
भावार्थ- तीर्थों में जाकर बालकों के संस्कार कराने, विवाह करने, वानप्रस्थ लेने, पितरों का श्राद्ध कर्म करने की जो प्रथा- परंपरा है, उसका महत्त्व भी इसी आधार पर है कि उस प्रेरणाप्रद वातावरण का इन प्रयोजनों के लिए जाने वाले लोग भी अनायास लाभ लेते हैं , जिससे जीवन अनायास दैवी संपत्ति के मार्ग में चलने लगते हैं ।। ८४- ८६।।
व्याख्या- तीर्थों में जाकर संस्कार कराने की परिपाटी सनातन है। आज भी उसको चिन्ह पूजा के रूप में निभाया जा रहा है । उस परंपरा को पुनः सुनियोजित करने की आवश्यकता है।
लोग मुंडन और श्राद्ध आदि ही तीर्थों में कराते देखे जाते हैं, किंतु गर्भिणी का पुंसवन, बालक का नामकरण, मुंडन, विद्यारंभ तथा दीक्षा- यज्ञोपवीत, सभी तीर्थों के संस्कारित वातावरण में कराए जाने चाहिए। विवाह और वानप्रस्थ संस्कार भी उपयुक्त वातावरण में ही फलते हैं। विवाह, संस्कार बने
मालवीय जी से उनके एक मित्र ने पूछा कि आजकल विवाहों के बाद दंपत्ति में जैसी एकरूपता दिखनी चाहिए, वह नहीं दिखती, क्या कारण है ?
मालवीय जी बोलें- '' इसके कारण तो अनेक हैं। विवाह के साथ जुड़े उच्च आदर्शों पर से आस्था हट चुकी है। फिर विवाह मात्र समारोह बनकर रह जाता है। संस्कार का प्रभाव उसमें कहीं नहीं उभर पाता। यदि उपयुक्त वातावरण में सद्भाव संपन्न आचार्यों द्वारा विवाह के उद्देश्यों को उभारते हुए संस्कार संपन्न कराया जाय, तो दाम्पत्य को नया प्रकाश मिल सकता है। तीर्थों जैसे यज्ञीय वातावरण में विवाहों को संस्कार के रूप में कराया जाय, यह आवश्यक है।
संस्कार कहाँ कराएँ ?
युवा श्रेष्ठि जीवक ने अपना कार्य काफी बढ़ा लिया था। वे समय निकालकर आचार्य हरिपाद के आश्रम में आते - जाते रहते थे। उन्होंने एक बार पूछा-'' देव ! आपकी कृपा से दाम्पत्य में प्रवेश करके सुखी जीवन जी रहा हूँ। बालकों के संस्कार तीर्थों में कराने का शास्त्रों का निर्देश है। किस तीर्थ में कौन से संस्कार कराऊँ ?''
आचार्य बोले- '' तात् ! किसी संस्कार विशेष का तीर्थ विशेष से जोड़ नहीं। संस्कार संस्कारित भूमि में संस्कारित व्यक्तियों से कराने चाहिए । तीर्थ में जहाँ जप- तप-यज्ञ से वातावरण में दिव्यता बनी हो। जहाँ पुरोहित धन को नहीं संस्कारों को महत्त्व देते हों। निस्पृह, सेवा- परायण पुरोहितों द्वारा ही संस्कार जागरण प्रयोग सफल होता है।
जहाँ ऐसी व्यवस्था मिल जाय, वहीं संस्कार कराने का क्रम बनाएँ, किसी स्थान विशेष का आग्रह न रखें।
सशक्तां प्रखरां तीर्थप्रक्रियां कर्तुमेव यत्। दानं प्रदीयते तत्तु सामान्येभ्यः समर्पितात् ।। ८७ ।। प्रयोजनेभ्य वा नृभ्यो दानान्मनितमुत्तमैः। अनेकगुणपुण्यानां लोके तु फलदायकम् ।। ८८ ।। तीर्थयात्रा तथेत्थं च यत्र सा वर्तते तप:। परिव्राजां कृते साधुमनसामृषिरूपिणाम् ।। ८९ ।। महत्वं वर्तते न्यूनं तस्या नृभ्यो न चाण्वपि। सर्वसाधारणेभ्योऽत ग्राह्या सा सन्ततं जनैः ।। ९० ।। तेऽपि मर्त्या यथाशक्ति कुर्वन्तो जनजागर्तिम् । पदयात्राऽनुबद्धानां पुण्यानां कर्मणां बहु ।। ९१ ।। लभन्ते लाभमन्ये च सुविधा: साधनानि ये । अस्यै समर्पयन्त्येते सद्गतिं यान्ति धर्मिणः ।। ९२ ।।
भावार्थ - तीर्थ प्रक्रिया को जीवंत एवं प्रखर बनाने के लिए दिया गया दान, सामान्य व्यक्तियों या प्रयोजनों के लिए दिए गए दान की तुलना में अनेक गुना पुण्य फलदायक माना गया है। इस प्रकार तीर्थयात्रा जहाँ ऋषिकल्प साधुमना परिव्राजकों के लिए उच्चस्तर को तपश्चर्या मानी गई है,वहाँ सर्वसाधारण के लिए उसका महत्त्व कम नहीं है, अतः उसे ग्रहण किया जाना चाहिए।वे भी यथासंभव जन जागरण का कार्य करते हुए उस पदयात्रा के साथ जुड़े हुए पुण्य प्रयोजन का कम लाभ नहीं उठाते हैं। जो इस तीर्थ प्रक्रिया के लिए सुविधा- साधनों की व्यवस्था करते हैं, वे भी धर्मात्मा कहलाते और सद्गति पाते हैं ।। ८७- ९१।।
व्याख्या- तीर्थों में दान- पुण्य की परंपरा आरंभ काल से ही प्रचलित है। यों यह प्रक्रिया सदा से ही धर्म धारणा का अविच्छिन्न अंग मानी और श्रद्धापूर्वक क्रियान्वित की जाती रही है। पर उसका तीर्थ स्नान मे अधिक भावनापूर्वक चरितार्थ करने और सामान्य स्थानों की तुलना में अनेक गुना पुण्य फल माने जाने का जो शास्त्र वचन है, वह अकारण नहीं, उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं। तीर्थ के ऋषि आश्रम प्रकारांतर से धर्म धारणा की ऊर्जा उभारने वाले बिजलीघर जैसे थे। ये सुविस्तृत क्षेत्र में शक्ति धारा भेजते और जन- जन के अभावों की पूर्ति करते थे। उन्हें ऐसे विशालकाय जलबाँधों की भी उपमा दी जाती है, जहाँ से अनेक नहरें निकलतीं और व्यापक क्षेत्र को सींचती हैं।
जब छोटे से छोटे कार्य के लिए साधन चाहिए, तो इन तीर्थ संस्थानों की भी तो आवश्यकताएँ रहेंगी ही। अध्यापन और व्यवस्था में लगे व्यक्तियों को निर्वाह चाहिए। आच्छादन, उद्यान, प्रकाश, स्वच्छता आदि के लिए खर्च चाहिए। निजी उद्योग- व्यवसाय न होने पर उसकी पूर्ति कैसे हो ? उसका उत्तर एक ही केंद्र बिंदु पर आ टिकता है कि श्रद्धालु तीर्थयात्री अपनी परमार्थ भावना का परिपोषण करने के लिए तीर्थ संस्थानों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखें और उनकी पूर्ति के लिए अपनी उदारता को भाव भरी उमंगों के साथ चरितार्थ होने दें।
दान की परिपाटी
राजा कर्ण की आय बहुत थी, परंतु वे अपनी दैनिक आय में से निर्वाह की न्यूनतम राशि लेकर शेष उसी दिन सत्प्रयोजनों के लिए दान कर देते थे। मरते समय दाँतों में लगा सोना तक दान कर जाने वाले कर्ण की परंपरा उन दिनों सभी सुसंपन्न व्यक्तियों में प्रचलित थी। कभी किसी के पास धन जमा हो भी गया, तो विशिष्ट अवसर सामने आते ही उसने भामाशाह की तरह अपनी सारी संपदा प्रताप जैसे प्रयोजनों के लिए सौंपते हुए भार हल्का कर लिया। रानी अहिल्याबाई के राज्यकोष में से अधिकांश राशि धर्म प्रयोजनों के लिए खर्च होती रही। राजा महेन्द्र प्रताप ने अपनी सारी संपदा शिक्षा विस्तार के लिए समर्पित कर दी थी। स्वामी विवेकानन्द को हिंदू धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु खेतड़ी राजस्थान के राजा ने ही सारी व्यवस्था की थी।
बुद्धकाल में हर्षवर्धन और अशोक ने अपना समूचा राजपाट उस समय के संघारामों, विहार- विद्यालयों के लिए समर्पित किया था। अंगुलिमाल और आम्बपाली जैसों ने भी अपने पापों का प्रायश्चित्त इसी में समझा कि अनीति उपार्जन को ऐसे उपयोगी प्रयोजनों में लगातार, पाप की खाईं को पुण्य से पाटा जाय। सर्वविदित है कि भगवान बुद्ध ने विशालकाय धर्मवाहिनी का गठन किया था। एक लाख के लगभग भिक्षु और तीस हजार के लगभग भिक्षुणियाँ उनके सामने ही दीक्षा ले चुके थे। उन्हें नालंदा,तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में धर्मचक्र प्रवर्तन योजना को कार्यान्वित कर सकने के उपयुक्त चरित्रनिष्ठा, आवश्यक योग्यता एवं कार्यक्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली कुशलता का अभ्यास कराया जाता था। इन्हीं विद्यालयों ने उन दिनों ऐसी विशालकाय भट्टियों की भूमिका निभाई थी, जिनमें मिट्टी मिली कच्ची धातुओं को गलाने और ढालने की प्रक्रिया चली और फौलाद, खरे सोने जैसे व्यक्तित्व दल कर निकले।
प्रशंसा धन की नहीं, दान की
एक पंडित जी कथा प्रसंग में धन संग्रह की निंदा किया करते थे। सुनने वालों में एक संपन्न सेठ भी थे, उन्हें यह प्रसंग अखरता।
दूसरे दिन सेठजी ने कथा पर सौ रुपए चढ़ाए। पंडित जी समेत सभी उपस्थित लोग उनकी प्रशंसा करने लगे। सेठजी ने कहा-'' संग्रह को बुरा कहा जाता था। वह न होता, तो यह प्रशंसा किसकी होती ?''
पंडित जी ने समाधान किया-'' यह प्रशंसा आपके दान की है। धन की नहीं। धन तो आपके पास पहले भी था। ''
कनिष्क के निर्माण
कुशाण वंशी कनिष्क ने सम्राट अशोक की तरह ही बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था। मध्य एशिया में बौद्ध धर्म की जड़ जमाने का बहुत कुछ श्रेय कनिष्क को दिया जाता है, जिसने प्रचारकों के लिए सभी आवश्यक सुविधा सामग्री उपलब्ध की और प्रजा को उसके अनुगमन के लिए प्रोत्साहित किया। उसने अपनी राजधानी पेशावर में तेरह मंजिला एक बुद्ध स्मारक स्तूप बनवाया जो नौवीं शताब्दी तक खड़ा रहा। उन दिनों उसे संसार की उच्चतम इमारत गिना जाता था। उसने कितने ही विहार तथा चैत्य बनवाए। कनिष्क कुशाण वंशी चीनी तुर्किस्तान का नागरिक था। उसका समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है।
विभूतियों को समर्पण
नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त ऐसी ही धर्म संस्थाएँ उन दिनों और भी अनेक थीं। विक्रमशिला, ओदंतपुर, सोमपुरी, जगद्दल के महाविद्यालय भी समृद्ध अध्ययन के केन्द्र थे। मगधराज विम्बसर, कौशल नरेश प्रसेनजित, अवन्ति नरेश प्रद्योत, कौशाम्बी के राजा उदयन आदि ने राजा हर्षवर्धन की तरह ही बौद्ध विहारों, संघारामों, विद्यालयों, मठों आदि के निर्माण में अपना भरपूर सहयोग दिया। सुदत्त, अनाथपिण्डक जैसे व्यापारी, यश जैसे समृद्ध नागरिक, कश्यप जैसे विद्वान, जीवक जैसे कुशल चिकित्सक, मौद्गल्यायन जैसे महापंडित, भद्रा और क्षेता जैसी महिलाओं ने भी बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन एवं उनके निर्माण कार्य में अपना सर्वस्व दान कर दिया था। संपन्न लोगों ने मुक्तहस्त से अपने खजाने खाली कर दिए थे। प्रतिभाशालियों ने अपनी प्रतिभा का योगदान दिया था।
श्रीकृष्ण द्वारा महान् उद्देश्यों के लिए दान
भगवान श्रीकृष्ण के पास द्वारिका का राज्य था और वैभव भी। उनका परिवार भी बड़ा था। पर संपदा को कुटुंबियों में बाँटने की अपेक्षा उनने यही उपयुक्त समझा कि इसे सुदामा के के अभावग्रस्त गुरुकुल को देकर लोकहित मे प्रयुक्त होने दिया जाय। उनने किया भी वही। सारी संपदा सुदामा जी को गुरुकुल चलाने के लिए सौंप दी।
यशोधरा का दान
प्रव्रज्या करते हुए बुद्ध अपनी जन्मभूमि गए और अपनी पत्नी के पास भी भिक्षा के लिए पहुँचे। यशोधरा की ममता उमड़ पड़ी। उनने अपने आभूषण संघ प्रयोजन के लिए उन्हें सौंपे और अपने इकलौते पुत्र राहुल को भी धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए उनके साथ लगा दिया। सम्राट अशोक ने भी अपने पुत्र महेन्द्र और अपनी विदुषी पुत्री संघमित्रा को उसी प्रकार बुद्ध को सौंपा और प्रचार कार्य के लिए देश- देशांतरों में भेजा था।
भगवान् महावीर की प्रेरणा
भगवान महावीर उन दिनों राजगीर में अपनी अपरिग्रह प्रवचनमाला चलाते हुए चातुर्मास कर रहे थे। उनका प्रतिपादन श्रोताओं के गले गहराई से उतरता गया। धनिकों और मध्यम वर्ग के लोगों ने अपनी संपदा सत्प्रयोजनों के लिए दान कर दी। सामान्य नागरिकों जैसा सामान्य जीवनयापन करने लगे। प्रदत्त दान से उस क्षेत्र में अनेक सत्प्रवृत्तियाँ पनपीं। सर्वसाधारण की धर्मधारणा को बहुत बल मिला। सुख- शांति की परिस्थितियाँ तेजी से बढ़ने लगीं। लोभजन्य अपराधों का तो समापन हो गया।
जब उनकी बारी आई जिनके पास धन तो नहीं था, पर जन्मजात श्रम संपदा की तनिक भी कमी नहीं थी। उनने श्रमदान भगवान के चरणों में अर्पित किया। शरीर यात्रा भर के लिए निजी उपार्जन करने के उपरांत अपना शेष श्रम- समय परमार्थ प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के लिए समर्पित कर दिया। इस संपदा से प्रगति की अनेकानेक गतिविधियाँ चल पड़ी और सुविधा- साधनों की कहीं कोई कमी नहीं रही । संपदा पाताल से उफनने और आकाश से बरसने लगी। दाताओं ने अपने को कृतकृत्य अनुभव किया।
उस दिन एक किशोरी का संकल्प हुआ। बोली-'' आयुष्य भी अपरिग्रह है। जब असंख्य प्राणी कुछ ही दिन जीवन जीकर संतोष कर लेते हैं, तो फिर लंबी आयु तक जीकर मैं ही क्यों परिग्रह का पाप ओढ़ूँ ? कृपया मेरा आयुष्य दान स्वीकार कर लें। '' अर्हता के सम्मुख आत्मनिवेदन करते हुए उसने कहा। संकल्प स्वीकृत हुआ। वह महिला जागरण के सोचे हुए काम को अहर्निश संपन्न करते रहने में जुट गई। सामान्य गृहणियों का स्तर देवियों जैसा बनने लगा। परिवारों में स्वर्गीय सुसंस्कारिता वर्षा की हरीतिमा जैसी उगने और लहलहाने लगी ।
उस प्रदेश का सबसे बड़ा धनवान था- महाशतक। वह समाचार तो प्राप्त करता रहा, पर कभी अर्हता के प्रवचन में न पहुँचा। आज के दिन उसके पर आयुष्यदानी कुमारिका आई थी। उसके तेजस् ने धनपति को सत्संग समागम तक पहुँचने की उत्कण्ठा उत्पन्न कर दी। परिग्रह त्याग से ग्रहीता की तुलना में दानी अधिक लाभ में रहता है, यह उसे कुमारिका के प्रभाव से स्पष्ट हो गया। वह भी विपुल संपदा सत्कार्य में लगाकर अपरिग्रह जीवन जीने लगा।
महान्तो मानवाः स्वां तु क्षमतां तीर्थनिर्मितौ। तद् व्यवस्था निमित्तं च व्यधुस्तत्र नियोजिताम् ।।९३ ।। कर्म चक्रुः परार्थं च पुण्यभाजो यशस्विनः। अभूवन् मार्गद्रष्टार उच्यन्तेऽध्यात्मसंस्कृतेः ।।९४ ।।
भावार्थ- अनेक महामानवों ने अपनी क्षमता को तीर्थ स्थापना एवं व्यवस्था के लिए नियोजित किया और सच्चे अर्थों में परमार्थ कमाया, पुण्य और यश के भागीदार बने जिन्हें अध्यात्म संस्कृति का मार्गद्रष्टा भी कहा जाता है।। ९३ - ९४ ।।
व्याख्या- सही अर्थों में वास्तविक पुण्य के भागीदार वही बनते हैं, जो श्रेष्ठ कार्यों में अपनी संपदा- प्रतिभा और शक्ति नियोजित करते हैं। उनके योगदान से, उनके क्रिया-कलाप से तीर्थ भी धन्य बन जाते हैं।
तीर्थ स्थापना का, तीर्थ परंपरा का प्रचलन किस आचार पर, किस आधार पर प्रादुर्भूत हुआ, इसका तात्त्विक विवेचन करने पर प्रकट होता है कि तीर्थ कहीं बने हैं, जहाँ (१) कोई महामानव, ऋषि, तपस्वी,आत्मकल्याण और लोककल्याण के पुण्य प्रयोजन की तपश्चर्या में निरत रहे हों, (२) किसी देवता ने किसी परमार्थ परायण साधक के प्रयत्नों में सहायता करने के लिए वरदान दिया हो, (३) ऐसी कोई घटना घटित हुई हो, जिसमें आदर्शवादिता पनपने के लिए त्याग, बलिदान करने का इतिहास जुड़ा हो, (४) कोई महत्त्वपूर्ण निर्धारण या शुभारंभ हुआ हो, (५) किसी महामानव का जन्मस्थान या किया- कलापों का कार्यक्षेत्र रहा हो, (६) उस स्थान की अपनी प्राकृतिक विशेषता रही हो, इसी परिधि में प्राय: हर तीर्थ की स्थापना, परंपरा एवं गरिमा का मूल्यांकन किया जा सकता है।
सच्चे संत, महामानव ही तीर्थ की महिमा बढ़ाने वाले होते हैं। नह्यम्भयानि तीर्थानि न देवा: मृच्छिलामयाः, ते पुनंति उरुकालेन। दर्शनाद् एव साधवः, तेषाम् एव नियासेन देशास्तीर्थी भवन्ति वै ।। -भागवत जल से तीर्थ नहीं बनते, न देवता मिट्टी और पत्थर से बनते हैं, उनकी उपासना करने से बहुत काल में मन की शुद्धि होती है, पर सच्चे साधुओं के दर्शन और सत्संग से ही चित्त सद्य: शुद्ध हो जाता है।
भवद्विधा भागथतास्तीर्थभूताः स्पयं विभो। तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदानता ।। -भागवत्
युधिष्ठिर विदुर से कहते हैं - आप जैसे भक्त स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान के द्वारा तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।
तीर्थों से सांस्कृतिक सूत्रबद्धता
तीर्थी के माध्यम से ऋषियों ने भारत जैसे भूभाग में रहने वाले विभिन्न आचार- विचार के व्यक्तियों को एक भावनात्मक सूत्र में बाँध रखा है।
मानसरोवर से लेकर कन्याकुमारी तक का क्षेत्र धर्मप्रेमियों को एक ही सांस्कृतिक धरोहर के रूप में दिखता है।
गंगोत्री का जल पाकर रामेश्वरम् प्रसन्न होते हैं। यह भाव रहते उत्तर- दक्षिण की एकात्मकता में कुचक्रियों के प्रयास बाधक नहीं बन सकते।
केरल में पैदा हुए शंकराचार्य ने चार कोनों पर चार धाम बनाए। शरीर छोड़ा उत्तराखण्ड में। दक्षिण के मंदिरों में उत्तराखण्ड के पुरोहित तथा उत्तराखण्ड में दक्षिणी पुरोहितों द्वारा ही पूजा होती थी। यह सूत्र कभी नहीं टूट सकते।
बंगाल के श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने इष्ट वज्र और द्वारिका में देखते है। उन क्षेत्रों को जागृत तीर्थ बनाकर पूर्व-पश्चिम के स्नेह को अक्षुण्ण बनाते हैं।
शिवजी देवी सती के अंगों को देश के हर भाग में स्थापित करते हैं और वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना करते हैं । शक्ति साधना के दिव्य प्रवाह से वह सारे क्षेत्र बँधे है।
अयोध्या के राजा राम दक्षिण ध्रुव में रामेशरम् की स्थापना करते हैं । यह सौजन्य समय के हजारों आघातों से भी हिलने वाला नहीं ।
सत्नेणाऽद्यतनेनालं सन्तोषं सर्व एव से। जग्भुरुत्साह एतेषां ववृधे कर्मपद्धतौ॥९५॥ देवसंस्कृतिसम्बद्धैर्विधिभिर्यानि सन्ति तु। संसक्तानि महोद्देश्यकर्माणीह च पूर्णत:॥९६॥ तानि विज्ञाय सर्वेऽपि श्रोतारस्तत्र निर्मला: । प्रसन्नमानसा दृष्टा पूर्णे स्वीये मनोरथे॥९७॥ सायं सन्ध्याविधै: कालात्पूर्वमेव च शोभनम् । सत्रमद्यतनं पूर्णं यथापूर्व यथाविधि॥९८॥
भावार्थ-आज के सत्र से सबको बहुत संतोष मिला व कर्म के प्रति उत्साह बढा। देवसंस्कृति के क्रिया-कलापों के साथ जुडे़ हुए महान उद्देश्यों से भली प्रकार सभी श्रोता मनोरथ पूर्ण होने से प्रसन्न दिखाई पड़ते थे। सांयकाल होने से पूर्व अन्य दिनों की तरह आज का सत्र भी समाप्त हो गया।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः,श्री कात्यायन ऋषि प्रतिपादिते "तीर्थ-देवालय",इति प्रकरणो नाम चतुर्थोऽध्याय:॥४॥