Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-1
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द्वितीये दिवसे चाद्य सत्रस्यास्यास्तु संस्कृतेः। उत्साह: संगतानां स सन्तोष: श्लाघ्यतां गतौ ।। १ ।। द्वितीयस्य दिनस्याथ सत्रं शिक्षणदं शभम् । प्रारब्धं बोधयन् सर्वान् विदुषोऽध्यक्ष आलपत् ।। २ ।।
भावार्थ- आज संस्कृति सत्र के दूसरा दिन सम्मिलित होने वालों का उत्साह और संतोष देखते बनता था। दूसरे दिन का सत्र-शिक्षण आरंभ हुआ। सभी विद्वानों को संबोधित करते हुए सभाध्यक्ष कात्यायन बोले ।। १- २।।
कात्यायन उवाच- धर्मलग्नाः साधका हे भारतोत्पन्नसंस्कृतेः। विद्यते मेरुदण्डस्तु धर्मों वर्णाश्रमानुगः।।३ ।। ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्चेति चतुर्विधः। वर्णोंऽस्ति सन्ति चत्वार आश्रमाः क्रमशस्त्विमे।। ४ ।। ब्रह्मचर्यं गृहस्थो स वानप्रस्थोऽथ शोभनः। संन्यासश्चेति सर्वेऽपि परस्परगता इव ।। ५।। विभाजनमिदं देवसंस्कृतेनुयायिभिः। स्वीकार्यं समहत्वं च सन्ततम् ।। ६ ।। अस्योपयोगितायां सगाम्भीर्यं च गौरवे । अद्य मुख्यश्च जिज्ञासुरभूदारण्यको मुनि: ।। ७।। विशेषेण तमेवाथ सम्बोध्याध्यक्ष उक्तवान् । कात्यायनो महर्षिस्तु ज्वलन् स ब्रह्मतेजसा ।। ८ ।। गुणकर्मूस्वूभावानामाधारेण विभाजनम् । वर्णानां भवति प्रायो जन्मना न महत्वगम्।। ९ ।। कर्मकौशलगं चैतन्मन्तव्यं जन्मनैव चेत् । मन्यते कर्म नैवं चेद् वन्ध्यवृक्ष इव स्मृत: ।।१० ।। महत्वेनाभियोज्याश्च सर्वे चत्वार एव तु । कर्तुं नियोजितामत्र व्यवस्थां तु समाजगम् ।। ११ ।। श्रेय: सम्मानमप्येते लभन्तां वर्णसंगताः । पुरूषा अत्र नो ग्राह्यो भावोऽयमुच्चनीचयोः ।। १२ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले -हे धर्म परायण सद्ज्ञान साधकों । भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड वर्णाश्रम धर्म है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र- यह चार वर्ण हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम, जो परस्परक्रमबद्ध हैं। देवसंस्कृति के अगुयायियों को, इस विभाजन को समुचित महत्त्व देना चाहिए और उनकी उपयोगिता- आवश्यकता एवं गरिमा पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। आज के प्रमुख जिज्ञासु मुनिवर आरण्यक थे, उन्हीं को विशेष रूप से संबोधित कर ब्रह्मतेज से दुर्धर्ष सत्राध्यक्ष कात्यायन ने कहा- वर्णों का विभाजन गुण- कर्म-स्वाभाव के आधार पर होता है । यह वर्गीकरण जन्मजात रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है। इन्हें कर्म- कौशल के अनुरूप समझा जाना चाहिए। यदि जनम से किसी वर्ण में है पर कर्म तदनुकूल नहीं है। तो वह बाँझ- वृक्ष के समान है। समाज- व्यवस्था को सुनियोजित रखने के लिए इन चारों को ही महत्त्व मिलना चाहिए। इन सभी वर्णों के लोगों को समान श्रेय- सम्मान मिलना चाहिए। इनमें छोटे- बड़े या ऊँच- नीच जैसे भेद- भाव नहीं बरतने चाहिए ।। ३-१२।।
व्याख्या- देवसंस्कृति को अनायास ही सर्वश्रेष्ठ होने का सुयोग नहीं मिला। इसके अंतर्गत हुए समाजपरक सभी निर्धारण ब्रह्मवर्चस् संपन्न दूरद्रष्टा ऋषियों की अन्वेषण बुद्धि के परिणाम हैं। ऋषिगणों ने वर्ण एवं आश्रम के रूप में समुदाय एवं वैयक्तिक जीवन को जो चार वर्गों में विभाजन किया है, वह सर्वकालीन, सार्वभौम एवं हर परिस्थितियों में सत्य की कसौटी पर उतरने वाला है। सुव्यवस्थित समाज, जिसमें सभी के लिए उनके कर्मों के अनुरूप उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया गया हो, सांस्कृतिक सुदृढ़ता एवं एकता के लिए उत्तरदायी है । यह पूर्व निर्धारित सुनियोजन देवसंस्कृति की ही विशेषता है एवं इसी कारण यह मानवी गरिमा की ज्ञान- गंगा आदि काल से प्रभावित होती आई है।
भारतीय धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहा गया है। चार वर्णों से तात्पर्य है - क्रिया में उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए निर्धारण। चार आश्रमों से तात्पर्य है- आयुष्य का भौतिक एवं आत्मिक उद्देश्यों के लिए सुनियोजन। यह विभाजन बड़ा ही वैज्ञानिक, प्रगतिशील और उपयोगी रहा है। चार वर्णों में विभाजित ऋषि कालीन समुदाय एक आर्य जाति के सूत्र में आबद्ध था। सब आर्य थे और सबको समान अधिकार मिले हुए थे। यदि यह विभाजन ऊँच- बीच अथवा छोटे- बड़े के आधार पर हुआ होता, तो संभवतः समाज का कोई भी सदस्य इसे मानने को तैयार न होता। यदि जोर- जबर्दस्ती के आधार पर किया गया होता, तो संभवत: विद्रोह पनप उठता एवं भयानक गृहयुद्ध होता। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए महर्षि कात्यायन यहाँ समझाते हैं कि ऋषियों द्वारा स्थापित इस विज्ञान सम्मत वर्ण व्यवस्था का निर्धारण बड़ा सोच- समझकर सर्वसम्मति से हुआ था। इस सर्वसम्मत विधान को सारा समाज शिरोधार्य करता हुआ अपना कर्तव्य करता चला आया। वस्तुतः संस्कृति की यह सर्वश्रेष्ठ अवधारणा 'वर्ण-व्यवस्था' सामाजिक विघटन का कारण नहीं है। इसका कारण तो वे विकृतियाँ हैं,जो वे कालांतर में उपद्रवों, आक्रमणों एवं सामाजिक अस्त- व्यस्तता के कारण उत्पन्न हो गईं एवं मध्यकाल में निवारण हेतु जिनके लिए नहीं के बराबर प्रयास हुए ।
आदिकालीन भारतवर्ष में आर्यों की अपेक्षा अनार्यो की संख्या अधिक रही है । जहाँ आर्य सृजनात्मक विचारधारा के अनुरूप कर्म करते हुए सभ्य, सुसंस्कृत, विकासोन्मुख व उन्नत समाज का निर्माण करते हुए एक स्थायित्व लाने का प्रयास करते थे, वहाँ लूटमार करके अपनी आजीविका चलाने वाले अनार्य आए दिन उन पर आक्रमण कर दिया करते थे। उनका सामना करने हेतु सारे आर्य समुदाय को निर्माण कार्य छोड़कर युद्ध में लग जाना पड़ता था और इस प्रकार सभी बनी- बनाई व्यवस्था बिगड़ जाती थी। फिर नए सिरे से काम शुरू करना पड़ता था। खेत उजड़ जाते थे, शिल्प नष्ट हो जाते थे और योजनाएँ बिगड़ जाती थीं। साथ ही सैकड़ों महान् मस्तिष्क कट कर रणभूमि में गिर जाते थे, जिससे इनमें चल रही विकास की विचारधाराएँ जहाँ की तहाँ समाप्त हो जाती थीं। इस प्रकार आए दिन बड़ी- बड़ी हानियाँ होती रहती थीं। जितना आगे बढ़ पाते थे, उतना ही पीछे हट जाना पड़ता था।
निदान अनार्यों की इस बर्बरता से परेशान होकर समाज के मनीषी- महात्माओं ने गहराई से विचार कर इस समस्या का कोई स्थायी हल निकालने का निश्चय किया।
अस्तु, उन्होंने विचार किया और पूरे समाज को चार वर्णों के नाम से चार वर्गों में विभक्त कर दिया। एक वर्ग में उन्होंने वे व्यक्ति रखे, जो चिंतनशील स्वभाव के थे और अध्ययन एवं अध्यापन, समाज- सेवा एवं लोक नेतृत्व में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इस वर्ग को उन्होंने 'ब्राह्मण' कहा । दूसरे वर्ग में वे लोग लिए गए, जो स्वभाव से दुर्धर्ष और साहसी थे। शरीर से अपेक्षाकृत हृष्ट- पुष्ट और संग्राम कार्य में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इनको 'क्षत्रिय' कहा गया। तीसरे वर्ग में वे शामिल किए गए, जो स्वभाव से उत्पादक, संगठनकर्त्ता, मितव्ययी, शांत और सहिष्णु थे। कृषि एवं वाणिज्य व्यवसाय में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इन तीसरे वर्ग के लोगों को 'वैश्य' बताया गया। चौथे वर्ग में उन सब लोगों को रखा गया, जो अविशेष स्वभाव, साधारण रुचि और सामान्य शिल्प के थे और जो उपर्युक्त तीनों में से किसी में भी समस्थ न हो सकते थे, इनको 'शूद्र' की संज्ञा दी गई।
यह- समग्र विभाजन गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप हुआ। जन्म से तो सभी'शूद्र' अर्थात् अनगढ़ होते हैं। बड़े होने पर उनकी भावना एवं निर्धारण के अनुरूप वर्ण एवं आश्रम का निर्धारण होता है। जन्म से किसी भी वर्ण में हो, पर यदि कर्म उस निर्धारिण के प्रतिकूल है तो उस व्यक्ति का कार्य के अनुरूप ही मूल्यांकन होगा। संस्कार ही वर्ण निर्धारण करते हैं ।
विडंबना यह है कि आज मात्र वैश्य वर्ण और गृहस्थाश्रम की प्रमुखता है। शेष वर्ण और आश्रम तो विस्मृति के गर्त में चले गए। आवरण धारण कर लिए जाते हैं, पर उनके साथ जुड़े कर्तव्यों की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। वर्ण के तो वंश साथ जुड़ गए एवं आश्रम धर्म लुप्त हो गया।
जैसा स्पष्ट है, लोक शिक्षण में संलग्न समुदाय को ब्राह्यण', कुकर्मों के कुप्रचलनों के विरुद्ध जूझने वालों को 'क्षत्रिय', उपार्जन का दायित्व सँभालने एवं समाज को भौतिक दृष्टि से सुसंपन्न बनाने वालों को 'वैश्य' और श्रमिक समुदाय को शूद्र कहा गया है। इन चारों को ही समाज महत्त्व और समान गौरव- सम्मान है।
जब सौ वर्ष की आयु थी, तब २५ वर्ष ब्रह्मचर्य और पच्चीस− वर्ष गृहस्थ में लगते थे। यह पूर्वार्द्ध निजी जीवन था। उत्तरार्द्ध में पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ- परिव्राजक बनकर और पच्चीस−वर्ष स्थान विशेष पर आश्रम संचालन में लगते थे। यह 'संन्यास' था। जो इनकी मर्यादाओं का पालन करे, उसी का वर्णाश्रम धर्म पालन सच्चा है। वंश के आधार पर, वर्ण और वेष के आधार पर आश्रम की कल्पना सर्वथा अवास्तविक है।
वाल्मीकि नीच कुल में उत्पन्न होने पर भी महान् ऋषि कहलाए और रावण- कुम्भकरण आदि ब्राह्मण परिवार में जन्मने पर भी नीच कहलाए व तिरस्कृत हुए। इन दिनों जन्म से वर्ण बनाने का और विशेषतया एक- दूसरे को नीच- ऊँच मानने का प्रचलन सर्वथा अनुपयुक्त है। यह मध्यकालीन सामंतवादी अंधकार युग के प्रचलन हैं, जिसमें समर्थों को सम्मानित और असमर्थों को अपमानित किया जाने लगा। स्त्री और शूद्र, प्रतिशोध लेने की क्षमता न होने से नीच माने गए। यह प्रचलन समाज के नाम पर कलंक है एवं संस्कृति के स्वरूप को मलिन करने वाला। समय की माँग है कि इसे उलटा जाय एवं पुनः उस शाश्वत- जाज्वल्यमान स्वरूप को सामने लाया जाय।
ऊँच- नीचा का कारण
एक रात को जब पुजारी मंदिर का द्वार बंद कर चला गया , तो देव मूर्ति बने बैठे पाषाण से, स्तंभ के पाषाण ने पूछा- '' क्यों भाई , हम सब एक ही पर्वत पर से चुनकर यहाँ लाए गए हैं। फिर तुम्हें ही यह पूज्य- पद क्यों मिला, जबकि मैं यहाँ छत का बोझ सहने को स्तंभ बना हुआ हूँ?'' देवता के आसन पर प्रतिष्ठित पाषाण कुछ विचार कर बोला- '' बंधु ! मैं स्वयं इस रहस्य को नहीं जानता। कल मंदिर के पुजारी से पूछूँगा। '' अगले दिन जब पुजारी अर्चना के अनंतर हाथ जोड़कर विनय- मुद्रा में खडा़ हो गया, तो देव पाषाण बोला- '' विद्वान् पुजारी ! मंदिर में जितने भी प्रस्तर हैं, वे सभी समान गुण-जाति के हैं, फिर मैं ही पूजा का पात्र कैसे बन गया? क्या यह रहस्य समझा सकोगे?''
'' आपने बड़े महत्त्व की बात पूछी है भगवन्!'' -पुजारी बड़े ही विनम्र वचनों में बोला- '' एक गुण: धर्म तथा जाति की सभी वस्तुओं का उपयोग एक पद ही हो, यह सर्वथा असंभव है । प्रकृति किसी को भी समान रूप से रहने देना नहीं चाहती । हम मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। बहुत से मनुष्य समान प्रतिभा तथा जाति- गुण के होते है, परंतु उनमें से अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण कोई एक ही वरिष्ठ स्थान पाता है। शेष सभी उसके नीचे रहते हैं , किन्तु जो नीचे हैं, उन्हें अपने आपको हेय नहीं मानना चाहिए 'क्योंकि सृष्टि परिवर्तनशील है। इसमें अपने संस्कारों की परिणति के फलस्वरूप कौन, कब, कहाँ चला जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। इसलिए बुद्धिमान जन पद की न्यूनाधिकता से विचलित नहीं होते। ''
तथागत द्वारा वर्ग विभाजन
शिष्य- मंडली ने भगवान् बुद्ध से पूछा- '' मनुष्य के कितने वर्ग हैं?'' तथागत ने उत्तर दिया- '' एक वे जो अपना ही लाभ देखते हैं भले ही इससे दूसरों को कितनी ही हानि उठानी पड़ती हो। दुसरे वे जो , औरों का भला करते हैं। तीसरे वे, जो अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी। चौथे वे प्रमादी हैं, जो न स्वयं सुखी रहते हैं, न दूसरों को सुखी रहने देते है। ''
तथागत ने कहा- '' मेरी समझ में वे श्रेष्ठ हैं जो अपना भी भला करते और साथ- साथ दूसरों का भी।
भगवान् भाव देखते हैं,जाति नहीं
जाति वस्तुतः जन्म से नहीं, कर्म से निर्धारित होती है। भविष्य पुराण व्रा अ० ४०/३५ में स्पष्ट किया है कि गौओं एवं घोड़ों की भांति मनुष्य की भी एक जाति है। इसी पुराण के अध्याय ४४ श्लोक ३४ में लिखा है, कि यदि वर्ण जन्मतः होता, तो वह बाहर के चिह्नों से प्रकट होता। महाभारत काल में महात्मा विदुर बहुत ही सज्जन और साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। यद्यपि ये दासी पुत्र थे, फिर भी अपने चरित्र की विशेषताओं के कारण महाभारत के महत्त्वपूर्ण पात्रों में इनकी गणना की जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण जब कौरव- पांडवों में संधि कराने के प्रयत्न में हस्तिनापुर गए, तो वे दुर्योधन के राजकीय सम्मान को त्यागकर विदुर जी के यहाँ ठहरे, जहाँ भक्तिभाव संपन्न विदुरानी ने उनका भाव- विभोर होकर सत्कार किया और विदुर जी ने अपने आपको धन्य माना।
वस्तुतः ईश्वर को ऐश्वर्य संपदा और वैभव नहीं, प्रेम तथा भक्ति ही प्रभावित करते हैं । वे जाति से, वर्ण- संप्रदाय से नहीं बँधे हैं । कर्मों एवं भावनाओं के अनुरूप ही व्यक्ति की पात्रता उनके अनुग्रह को पाने योग्य विकसित होती है। तभी तो भक्त रैदास ने कहा है-
'' हरि को भजै सो हरि का होई। जाति- पाँति पूछे नहि कोई ।। ''
जाति नहिं, पानी
तथागत के प्रमुख शिष्य आनंद श्रावस्ती में भिक्षाटन कर रहे थे। तपती धूप थी। सहसा उन्हें प्यास लगी। कुछ ही कदमों पर पहुँचे। वहाँ एक तरुणी पानी भर रही थी आनंद ने उससे पानी माँगा। तरुणी बोली- '' साधु महाशय! मैं चांडाल कन्या हूँ। मेरे हाथ का जल आपके लिए अपावन है। '' '' मैं तुमसे जाति नहीं पूछा रहा, पानी माँग रहा हूँ । '' आनंद के उत्तर से चकित युवती ने उन्हें पानी पिला दिया।
इसी आदर्श को अपनाने वाले महात्मा नारायण स्वामी भी थे।
जाति- पाँति और अस्पृश्यता हिंदुओं के लिए कलंक का टीका
महात्मा नारायण स्वामी ने एक बार कहा था- '' जाति- पाँति और अस्पृश्यता का बंधन हिंदू जाति के लिए कलंक का टीका है। इसने सारी जाति को छिन्न- भिन्न कर रक्खा है। हिंदू जाति में परस्पर घृणा और द्वेष का प्रचार इसी की कृपा का कुफल है। इसलिए भारतीय संस्कृति की उन्नति के लिए इस बंधन को सर्वप्रथम तोड़ना आवश्यक है। '' इस तथ्य से कोई भी विचारशील व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता।
शबरी की गरिमा किसलिए ?
शबरी यद्यपि जाति की भीलनी थी, किन्तु उसके हृदय में भगवान् की सच्ची भक्ति भरी हुई थी। जहाँ वह रहती थी, उस वन में अनेक ऋषियों के आश्रम थे। उसकी उन ऋषियों की सेवा करने और उनसे भगवान् की कथा सुनने की इच्छा रहती थी। अनेक ऋषियों ने उसे नीच जाति की होने के कारण कथा सुनाना स्वीकार नहीं किया दुत्कार दिया।
किन्तु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोभ उत्पन्न हुआ और न निराशा। उसने ऋषियों की सेवा करने की एक युक्ति निकाल ली। वह प्रतिदिन ऋषियों के आश्रम से सरिता तक का -पथ बुहारकर कुश- कंटकों से रहित कर देती और उपयोग के लिए जंगल से लकड़ियाँ काटकर आश्रम के सामने रख देती। शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, किन्तु किसी ऋषि को यह पता न चला कि उनकी यह सेवा करने वाला है कौन ? शबरी आधी रात रहे ही जाकर अपना काम पूरा कर आया करती थी।
उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही लिया कि यह वही भीलनी है, जिसे अनेक बार दुत्कार कर द्वार से भगाया जा चुका था। तपस्वियों ने अन्त्यज महिला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओं पर आघात होते देखा और उसे उनके धर्म- कर्मों में किसी प्रकार भाग न लेने के लिए धमकाने लगे। मातंग ऋषि से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी के समीप ठहराने के लिए ले गए शबरी अपनी सेवा- साधना चलाती रही। भगवान् राम जब वनवास गए, तो मतंग ऋषि की सराहना की और उन्हें सबसे पहले छाती से लगाया। शबरी की कुटी में राम स्वयं गए और उसका आतिथ्य स्वीकार किया। भगवान् उन्हें ही सर्वाधिक प्यार करते हैं , जो तप साधना की आत्म प्रवंचना में न डूबे रहकर सेवा- साधना को सर्वोपरि मानते हैं।
आर्षग्रंथों द्वारा भी पुष्टि
महाभारत शांतिपर्व, अध्याय १८८ के दसवें श्लोक के अनुसार, '' वर्ण में कोई ऊँच- नीच नहीं, सभी ब्रह्म से उत्पन्न हैं। ''
महाभारत का ही एक और प्रमाण है- '' हे युधिष्ठिर ! प्राचीन काल में एक ही वर्ण था। कामों को विभाजित करके उन्हें चार वर्ण बनाया गया। ''
भागवत पुराण स्कं० ९ - १४ में आता है- '' प्राचीनकाल में एक ही वेद, एक ही मंत्र, एक ही देव, एक ही अग्नि और एक ही वर्ण था। ''
'' वर्णों- वृणुते, '' इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वर्ण वरण किया जाता है, अर्थात चुना जाता है।
पुरुष सूक्त के मंत्र यजुर्वेद और ऋग्वेद दोनों में आते हैं, जिनमें ब्राह्मण की मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से, वैश्य की पेट से तथा शूद्र की जंघाओं से उपमा दी गई है। शरीर का कोई भी अंग अछूत अथवा हेय नहीं होता।अपना- अपना अलग ढंग का काम करते हुए भी वे मिल- जुलकर शरीर की संरचना करते हैं । मनुस्मृति के अध्याय १० में श्रमिकों की भाँति शिल्पकारों को भी शूद्र कहा है। आवश्यक नहीं कि वे दूसरों की सेवा ही करें। पसीना बहाने वालों, श्रम करने वाले सभी की गणना शूद्रों में की गई है, भले ही वे निजी रूप से निर्माण कार्य करते हों।
बृहदारण्यक प्रथम अध्याय की चतुर्थ कंडिका में वर्णन है कि '' पहले एक ही वर्ण था। पीछे कार्य विभाजन सुविधा को देखते हुए उन्हें वर्णों में विभक्त किया गया। '' महाभारत वन पर्व १४९, श्लोक १८, १९, २० में स्पष्ट लिखा है कि '' आरंभिक युग में चारों वर्णों का ज्ञान और आचार एक समान थे। उनके संस्कार वैदिक विधि से होते थे। वर्ण धर्म भिन्न- भिन्न होते हुए भी सब एक ही वैदिक धर्म के मानने वाले थे। ''
कूर्म पुराण अध्याय १०, श्लोक २ में वर्णन है कि '' वेद विश्वानों में ज्येष्ठ पुत्र शूद्र हुए, अर्थात् उनने कुल धर्म छोड़कर अन्य व्यसाय अपनाया। ''
ऋग्वेद ५/६०/५ का कथन है-'' मनुष्यों में जन्मजात कोई भेदभाव नहीं। उनमें कोई छोटा- बड़ा नहीं। सब आपस में बराबर हैं। सभी मिलजुल कर लक्ष्य की प्राप्ति करें। '' यजु० २६/ २ में चारों वर्णों को वेद पढ़ने के अधिकार की पुष्टि है। ऋग्वेद १०/५३/५ में सभी को यज्ञ करने के लिए प्रोत्साहित किया गया हैं ।
यजु० १८/६२/१ में चारों वर्णों को समान रूप से तेजस्वी बनने का निर्देशन है।
ऋग्वेद के ९/ १११/३ मैं व्यक्ति कहता है- '' मैं व्यापारी हूँ। मेरा पिता वैद्य, माता पिसनहारी (शूद्र), फिर भी सब मिलकर एक ही घर में रहते हैं। ''
वायु पुराण में आता है-
" मृत्समद के पुत्र शुनक:, शुनक के शौनक हुए। इन शौनक के चार पुत्र हुए, जो कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहलाए। '' हरिवंश पुराण, अध्याय ३१ में आता है -
" भार्गव वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- यह चारों वर्ण हुए हैं। ''
वाल्मीकि रामायण में प्रसंग आया है-
मनुमर्नुष्याञ्जनयद्राम पुत्रान्यशस्विनः। ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याञ्शूद्रांश्च मनुजर्षम् ।।
अर्थात् हे राम! कश्यप की मनु नामक स्त्री से यशस्वी मनुष्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए।
आगे उत्तरकांड में कहा गया है
अपश्यन्तस्तु ते सर्वे विशेषमधिकं तत:। स्थापनं चक्रिरे तत्र चातुर्वर्ण्यस्य सम्मतम्।
इस काल के लोगों ने ब्राह्मणों और क्षत्रियों में कोई विशेष तारतम्य न देखकर सर्वसम्मति से मनुष्य जाति को चार वर्णों में बाँटा।
राज्य संचालन भी किसी वर्ण विशेष के लोगों का अधिकार नहीं था।' निषादराज गुह जो कि शूद्र था एक संपन्न राज्य का संचालक था। अयोध्या से वन जाते हुए राम गुह के राज्य में पहुँचे-
तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा। निषादजात्यो बलवान्स्थपतिल्लेति विश्रुतः।। उस देश का गुह नाम का राजा था, वह श्रीरामचंद्र का प्राणों के समान मित्र था और जाति का केवट था तथा उसके पास चतुरंगिणी सेना थी और वह निषादों का राजा कहलाता था।
तुलसीदास जी ने भी राम चरित मानस में लिखा है-
बरनाश्रम निज निज धरम, निरत वेद पथ लोग। चलहिं सदा पावहिं सुखहि, नहि भय शोक न रोग ।।दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि व्यापा ।। सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ।।
अर्थात् राम राज में सभी लोग अपने- अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में लगे हुए हमेशा वेद के रास्ते पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है न शोक है और न रोग है।
राम- राज में देह संबंधी, देव संबंधी तथा भौतिक दुख किसी को नहीं व्यापते। सभी मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति ( मर्यादा) में लगे रहकर अपने- अपने धर्म का पालन करते हैं ।
ये समस्त प्रचलन निराधार हैं
जन्म- जाति का वस्तुतः कोई आधार नहीं है। डॉक्टर का लड़का डॉक्टर ही हो, कलक्टर का लड़का कलक्टर ही कहा जाय, इसका कोई आधार नहीं। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर लोगों का वर्ण- समुदाय बदलता रहता है। पर उससे भिन्नता नहीं आती। एक ही परिवार के लोग अध्यापक, पुलिसकर्मी, व्यवसायी, शिल्पी हो सकते हैं। उनके बीच कोई भेदभाव नहीं होता, फिर यह भी आवश्यक नहीं, कि पिता के व्यवसाय को बेटा अनिवार्यतः अपनाए भी। वह बदल भी सकता है और उस परिवर्तन के आधार पर पंडिते सभा सेना- संगठन मर्चेंट, एसोसियेशन, लेवर यूनियन आदि का सदस्य हो सकता है। उन्हे आवश्यकतानुसार बदल कर दूसरी समितियों का सदस्य भी हो सकता है। परिवार के लोगों में शैव, वैष्णव, शाक्त, सूर्योपासक, साकारवादी, निराकारवादी आदि भेद रहे, तो इससे परिवार टूटता नहीं।
जाति- पाँति के नाम पर वर्तमान ऊँच- नीच का प्रचलन नितांत अकारण है। इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं। यह घृणा और अहंकार पर आधारित सामंतवादी प्रचलन है, जिसमें स्त्री, शूद्र जैसे पिछड़े वर्ग को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया जाता था और उस अनीति के समर्थन में, पशु- बलि, दास- दासी विक्रय की तरह जहाँ- तहाँ शास्त्रों में प्रक्षेप मिला दिए गए थे।
रोटी व्यवहार पर शास्त्र विवेचन
अथर्ववेद अध्याय ३/३०/६ में कहा गया है- '' तुम सबका खान- पान समान हो। एक साथ निर्वाह करो। तुम्हें इस प्रकार आपस में जोड़ता हूँ, जिस प्रकार रथ के पहिये में धुरे गुँथे होते हैं। ''
मनुस्मृति में श्रमिकों को पर्याप्त मान दिया गया है और उन सबको भोजन कराने के उपरांत गृहपति तब भोजन करें, ऐसा विधान है। मनु० ३/११६ में कहा गया है, कि माता, पिता, ऋषि विद्वान् बच्चे एवं नौकरों को भोजन कराने के उपरांत गृहपति एवं उसकी स्त्री भोजन करें। शिल्पी और श्रमिकों का कहीं भी तिरस्कार नहीं है, वरन् उन्हें समान सम्मान प्रदान करने का प्रावधान है।
यजु० १६/ २७ में लिखा है-'' बढ़ई, लुहार, कुम्हार आदि श्रम जीवियों का समान सत्कार करो। '' यजु० १ ९ /८० में उल्लेख है कि विद्वान ब्रह्मवेत्ता भी ऊन और सूत के कपड़े बुनते है। कूर्म पुराण ७/१६, व्यास स्मृति २/५२, पारासर स्मृति १ १/२, बृहद् पाराशर स्मृति अध्याय ६, आपस्तम्ब १/ ६/१८ में स्पष्ट उल्लेख है कि '' शूद्रों का बनाया हुआ भोजन ग्राह्य है। ''
मनु ९/३३५ में उल्लेख है-'' भोजन सब मिल- जुलकर पकावें और उसे सहभोग की तरह खावें। '' वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड, श्लोक १२ में उल्लेख है कि '' दशरथ के यज्ञ में शूद्रों का पकाया हुआ भोजन ब्राह्मण, तपस्वी और शूद्र सब मिल- जुलकर खाते थे। " महाभारत आदि पर्व १/ ११ में उल्लेख है कि '' धृतराष्ट्र के यहाँ पूर्ववत् सूर्यकार आदि शूद्र भोजन बनाने के लिए नियत थे। ''
विवाहों के संबंध में याज्ञवल्क्य स्मृति में २६१ में लिखा है, कि '' पतितों की कन्या को विवाह लें। उससे उपवास का प्रायश्चित कर लें । ''
मनु० २/२४० में लिखा है '' स्त्री रत्न , विद्या, धर्म, शिल्प आदि हर वर्ण के लोगों से ग्रहण करें। ''
मनु० ९/२३ में लिखा है, '' वशिष्ठ से विवाह करके अक्षमाल और मंदपाल से विवाह करके शारंगी पूज्य बनी, यद्यपि वे अधम वर्ण में जन्मी थीं। ''
राजा विचित्रवीर्य निःसंतान थे। व्यास से अनुरोध करके पत्नियों को संतान देने का अनुरोध किया । व्यास जी सहमत हो गए। रानी से दो पुत्र उत्पन्न हुए- पांडु और धृतराष्ट्र। दासी से एक पुत्र हुआ विदुर। लगता है उन दिनों संतान के लिए पर पुरुषों का भी नियोग प्रक्रिया द्वारा सहयोग लिया जाता था, पर उसे गोपनीय न रखने से व्यभिचार नहीं कहा जाता। इसमें कोई जाति भेद नहीं था।
कट्टरता का कारण एवं दुर्भाग्यपूर्ण परिणति
आजकल इस संबंध में इतनी कट्टरता जो पाई जाती है, उसका कारण हमारा दुर्भाग्य एवं अविवेकी ही है। विधर्मियों, शासकों तथा सामंतों ने इस प्रचलन को बढ़ा और दिया, ताकि समूचे समुदाय में एकता न रह पाए। शिकायतें बनीं रहीं और विरोध - विद्रोह का सिलसिला चलता रहा।
अब यह महामारी समर्थ सवर्णों और असवर्णों में फैल गई है। एक- एक जाति की अनेक शाखा- प्रशाखाएँ फूट पड़ी हैं। शूद्र - शूद्र के बीच, ब्राह्मण- ब्राह्मण के बीच, वर्ग भेद है और रोटी- बेटी के व्यवहार नहीं होते। चार वर्ण थे, सो अब सात हजार जातियों- उपजातियों में बँट गए हैं। सभी जन्मजात की मान्यता अपनाए बैठे हैं। इन कारणों से अपना समाज दिन- दिन दुर्बल हुआ है। विवाह- शादियों में भारी अड़चन उठी है। दिन- दिन हिंदू समुदाय घटता गया और अन्य धर्मावलंबी बढ़े हैं। स्थिति यह रहने पर वह दिन दूर नहीं, जब अपने ही देश में हिंदू अल्पमत में रह जाएँगें।
जनगणना की रिपोर्ट में जातियाँ पाँच हजार से ऊपर हैं। इनके अंतर्गत चलने वाली उपजातियों की गणना करने पर तो इससे भी अनेक गुनी बढ़ जाती हैं। ब्राह्मणों की ८०० शाखाएँ और दो हजार उपशाखाएँ हैं। क्षत्रियों की ५९०, वैश्यों की ६०० तथा शूद्रों की ६०० शाखाएँ है।
यह जातियाँ, उपजातियाँ, प्रांतों, नदी, तटों, व्यवसायों, विशेषताओं के आधार पर बनीं , पर पीछे उन विशेषताओं के स्थिर न रहने पर भी गोत्र वही चलते रहे। इतनी जातियों में बँट जाने से प्रत्येक जाति अत्यंत छोटी रह जाएगी और अनेक कष्ट सहेगी।
फूट डालो,लूट खाओ
उस दिन चोर अकेला रह गया था। गिरोह के अन्य साथी बिछुड़ गए थे। सामने से तीन संपन्न आदमी आते दिखाई पड़े। अकेला चोर और तीन यात्री। घात कैसे लगे। चोर को एक तरकीब सूझी कि उन्हें फूट डालकर एकाकी कर दिया जाय। पूछने पर उनने अपनी जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र बताई। चोर ने पहले कमजोर शूद्र को पकड़ा और कहा- '' यह तो हमारे पुरोहित हैं यह हमारी बिरादरी के हैं , इनसे तो कुछ नहीं कहना। तू इतनी संपदा कहाँ से लाया। बड़ी जाति वालों की बराबरी करेगा।
पहले तेरी ही मरम्मत की जाएगी। '' शूद्र पिटता भी रहा और जो पास में था, छिना बैठा। इसके बाद पंडित जी की बारी आई, कहा- '' पंडित को भिक्षा पर निर्वाह करना चाहिए। इतनी दौलत जमा करना अधर्म है। '' सो उसने पंडित जी की , धुनाई की और जो कुछ उनके पास था, छीन लिया। तीसरा नंबर ठाकुर का था। उनसे कहा- '' अभी तो आपका पैसा ले लेते हैं। पीछे आप हमारे गिरोह में शामिल हो जाना। जो लिया है उससे अनेक गुना कुछ ही दिन में दिला देंगे। '' ठाकुर ने दुर्गति कराने से पहले ही जो कुछ था, सो चोर को सोंप दिया।
फूट डालकर एक चोर ने तीन राहगीरों को लूटने में सफलता प्राप्त कर ली। इसका मूल कारण था- जाति भेद संबंधी मूढ़ मान्यता। हमारे राष्ट्र के पतन- पराभव का मूल कारण यही कट्टरता रही है। मुगल आक्रांताओं एवं फिरंगियों को इसी आधार पर इस शस्य- श्यामला धरती पर मध्यकाल में अपना अधिकार जमाने में सफलता मिली।
आदिवासी बनाम शूद्र
कुछ व्यक्तियों की भ्रांतिपूर्ण मान्यता है कि आर्य मध्य एशिया से आए और यहाँ के आदि निवासियों को पददलित करके उन्हें नीच बना दिया। वे ही आदिवासी कहलाए और शूद्र समझे गए। वस्तुतःयह कथन आदि से अंत तक गलत है। भारतीयों की मातृभूमि एक भारत भूमि ही है। आदिवासी शक्ति ही गलत है। हिंदू मात्र आदिवासी है। हाँ, भेदभाव के कारण कुछ समुदाय पिछड़ अवश्य गए। उन्हें उठाने के प्रयत्न अब तेजी से चल रहे हैं।
शूद्र और दस्यु का अंतर
मनुस्मृति १०/४५ मैं आता है जी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र से बाहर है, उन्हें '' दस्यु '' कहते है। '' दस्यु '' अर्थात् चोर, कुकर्म करने वाले। इन्हीं की संगति से दूर रहने के यत्र- तत्र संकेत हैं ।
ऋग्वेद १०/२२/९ में दस्यु के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-'' जिसकी परोपकार परमार्थ में आशा नहीं है। जो मलिन रहता है। चोरी, जुआ, डाका- ठगी आदि कुकर्मों पर निर्वाह करता है। सभ्यता से रहित और हिंसक पशुओं की तरह स्वेच्छाचारी है, वह दस्यु है। '' ऋग्वेद ८/७०/११ में लिखा है-'' अमानुषी प्रकृति वाले दस्युओं को जनहित की दृष्टि से अलग रखें। ''
'जाति निर्णय ' पृष्ठ ४६ पर शिवशंकर शास्त्री लिखते हैं- '' शूद्र आर्य हैं, परंतु दस्यु अनार्य शूद्र व्यवसायी हैं, किन्तु दस्यु -डाकू। ''
महाभारत शांतिपर्व अध्याय १८८, श्लोक १३ में कहा गया है कि '' मिथ्यावादी, लोभी, हिंसक, मलिन ब्राह्मण भी शूद्र या दस्यु हो गए। ''
महाभारत शांतिपर्व अध्याय १६५ में लिखा है-'' चारों वर्णों और आश्रमों में कर्म के आधार पर शूद्र एवं दस्यु पाए जाते हैं।''
जो लोग किसी कारणवश हेय स्थिति में जा पहुँचे हैं। उन्हें ऊँचे उठाना और समकक्ष बनाना विद्वज्जनों का कर्तव्य है। इस निर्देशन को ऋग्वेद २७/६३१ और ऋग्वेद १०/ १३/७/१ में स्पष्टतया उल्लेख है।
ऋग्वेद १/३३/४ के अनुसार चोर या विप्र- संतोषी '' दस्यु '' हैं। ऋग्वेद १/५१/८ के अनुसार सत्कर्मों यज्ञादि अनुष्ठानों में जो विघ्न डालता है, वह '' दस्यु '' है। ऋग्वेद ६/२५/२ के अनुसार शुभ कर्मों को मटियामेट करने वाला '' दस्यु '' है।
दस्युओं से सतर्क तो रहा जाय, पर उन्हें भी ऊँचा उठाने के लिए साथ रखने की आवश्यकता है। शिवजी के गले में सर्प और सान्निध्य में भूत- प्रत रहते थे। सभी को श्रेष्ठ बनाने का हमारा उद्देश्य रहे । श्रुति कहती है, '' कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात, सभी को हम श्रेष्ठ बनाएँ। बड़प्पन सेहयोग में सत्य और आदर्श दोनों में विवाद उठ खड़ा हुआ। यथार्थ कहता था '' मैं बड़ा हूँ '' और आदर्श कहता था '' मैं ''। विवाद तय न हुआ। यथार्थ और आदर्श दोनों प्रजापति ब्रह्मा के समीप गए और कहा- '' भगवान् ! आपने ही हमें किया है, अब निर्णय दें, हम दोनों में बड़ा कौन हैं ?'' प्रजापति थोड़ा गंभीर होकर सोचने लगे, फिर मुस्करा कर बोले- '' भाई ! बड़ा तो वही हो सकता है, जो आकाश और पृथ्वी दोनों में संबंध जोड़ दे। ''
यथार्थ ने अपना विस्तार करना प्रारंभ किया। पृथ्वी से ऊपर उठता ही गया, उठता ही गया, पर वह सूर्य को भी नहीं छू सका। उसने हार मान ली और आदर्श से बोला-'' अच्छा, अब आप यह करके दिखावें। ''
आदर्श आकाश को चला गया और वहीं से अपने पैर बढ़ाकर धरती को छूने का प्रयत्न करने लगा, पर वह बीच में ही लटककर रह गया। दोनों ने सिर झुकाकर प्रजापति के सामने अपनी- अपनी हार स्वीकार की। ब्रह्माजी ने कहा-'' यों हार मान जाओगे, तो तुममें से एक भी जीवित न बचेगा। जाओ, अब थोड़ा मिलकर प्रयत्न करो।'' यथार्थ और आदर्श भाई- भाई की तरह मिले और दोनों ने पृथ्वी- आकाश को जोड़ दिया। प्रजापति यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले-'' वत्स ! तुम्हारा बड़प्पन परस्पर प्रतिद्वंद्वी बनने में नहीं, सहयोगी बनने में है। ''
जिसने जितने में यथार्थ और आदर्श का समन्वय किया, वही अपने स्तर से उच्चतम स्थिति तक बढ़ सकता है। यह बात समान रूप से समुदाय में व्यक्ति- व्यक्ति में पाई जाने वाली भिन्नता पर लागू होती है। श्रेष्ठ कर्मों के आधार पर ही व्यक्ति श्रेष्ठ एवं श्लाघ्य पद प्राप्त करता है।
नीच कुल में जन्मे, पर कर्म से ऋषि
मत्स्य पुराण अध्याय ४ में लिखा है, मनु के पुत्र वामदेव थे। वामदेव के पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हुए महाभारत के शांति पूर्व अध्य्याय २९६, श्लोक १४, १५, १६ में पाराशर ऋषि कहते हैं- हे राजन् ! श्रृंगी ऋषि, कश्यप, वेद, ताण्ड्य, कृप, कमठ, कक्षीमान, यवकीर्ति, द्रोण, आयु, मातंग, दत्त द्रुपद, मात्स्य आदि बहुत से ऋषि नीच कुल में उत्पन्न हुए थे, तिस पर भी वे तप, अध्ययन और आचरण को अपनाकर मान्य ऋषि हुए।
मत्स्य कन्या से व्यास
ब्रह्मवेत्ता महर्षि व्यास धीवर के पुत्र थे। उनकी माता सत्यवती धीवर कन्या थी। मछली व्यवसाय घर में होने से उनके शरीर से भी मछली की गंध आती थी, इसलिए उसे मत्स्यगंधा भी कहते थे। मुनि पाराशर उस पर आसक्त हो गए। दोनों के संयोग से व्यासजी की उत्पत्ति हुई। जिन्होंने तप और ज्ञान का भंडार जमा किया। अठारह पुराणों की रचना की।
व्यास का कैवर्त्त स्त्री से विवाह
भविष्य पुराण ब्रत्य पर्व अध्याय ४२, श्लोक २२, २३, २४ में लिखा है- व्यास जी ने कैवर्त्त स्त्री से विवाह करके संतान को जन्म दिया। शुकी से शुकदेव, उल्की से कणाद, मृगी से श्रृंगी और गणिका से वशिष्ठ पैदा हुए। शांतनु ने कैवर्त्त कन्या से विवाह किया था।
द्रोणाचार्य की उत्पत्ति
महर्षि भारद्वाज घृताची नामक एक अप्सरा पर आसक्त हो गए। उसे लेकर द्रोणाचार्य पर्वत पर रहने लगे। उसके गर्भ से द्रोणाचार्य उत्पन्न हुए, जिनमें माता और पिता दोनों के गुणों का समावेश था। उसे ब्रह्मक्षत्र कहा गया।
कर्म से महान् बने ऐतरेय
इतरा यों उत्पन्न तो शूद्रकुल में हुई थी, पर उसे महर्षि शाल्विन की धर्मपत्नी बनने का सुयोग मिल गया। उसके एक पुत्र भी था।
एक बार राजा ने बड़ा यज्ञ आयोजन किया। उसमें सभी ब्राह्मणों और ब्रह्मकुमारों का सत्कार हुआ। सभी को दक्षिणा मिली। किन्तु इतरा के पुत्रों को '' शूद्र '' कहकर उस सम्मान से वंचित कर दिया गया।
शाल्विन बहुत दुःखी हुए। इतरा को भी चोट लगी। बच्चा भी उदास था।
इस असमंजस ने एक नया प्रकाश दिया। तीनों ने मिलकर निश्चय किया कि वे जन्म से बढ़कर कर्म की महत्ता सिद्ध करेंगे।
शिक्षण का नया दौर आरंभ हुआ। इतरा पुत्र ऐतरेय को धर्मशास्त्रों की शिक्षा में पारंगत कराया गया। देखते- देखते वे अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे। एक बार वेद ऋचाओं के अर्थ करने की प्रतिस्पर्धा हुई। दूर- दूर देशों के विद्वान् और राजा एकत्र हुए।
प्रतियोगिता में सभी की पांडुलिपियाँ जाँची गई। सर्वेष्ठ ऐतरेय घोषित किए गए।
इतरा शूद्र थी। उसके पुत्र ने पिता के नाम पर नहीं, माता की कुल परंपरा प्रकट करने के लिए अपना नाम '' ऐतरेय '' घोषित किया। '' ऐतरेय ब्राह्मण '' वेद ऋचाओं के भावार्थ को प्रकट करने वाला अद्भुत ग्रंथ है। उसका सृजेता जन्म से शूद्र होते हुए भी, पुरुषार्थ से '' ब्राह्मण '' बना।
नारद ने शूद्रा माता के पेट से जन्म लिया था
एक कल्प में नारद गंधर्व थे। वे गायन- वादन में प्रवीण महिलाओं के बीच निरंतर घिरे रहते थे। ब्रह्माजी की सत्संग सभा में वे पहुँचे, तो भी महिला मंडल उन्हें घेरे हुए था। ब्रह्माजी को यह व्यवहार आशिकों जैसा लगा और उन्होंने उन्हें शूद्र होने का शाप दिया।
नराद दासी पुत्र के रूप में जन्मे। उनकी माता शूद्र परिवार की थीं , जो विद्वान् ब्राह्मणों की सेवा में निरत रहती थीं। उनकी विशेषताएँ बालक में प्रकट हुईं। बालक नारद को ब्रह्माजी का शाप वरदान सिद्ध हुआ। उनने अपनी आत्मप्रताड़ना से अपने व्यवहार में पूरी तरह परिवर्तन कर लिया। भगवद्भक्ति का उन्होंने रहस्य समझा और उसी तत्त्वदर्शन का प्रचार करने के लिए निकल पड़े। उनका व्रत था, ढाई घड़ी से अधिक वे कहीं भी खड़े न होंगे और धर्म प्रचार के लिए निरंतर परिभ्रमण करते रहेंगे।
भीम, घटोत्कच एवं वर्बरीक
भीम जब वनवास में थे, जब उनने हिडिम्बा नामक- असुर महिला से उपविवाह कर लिया। उसका पुत्र घटोत्कच हुआ, जो भीम जैसा बली था। उसने महाभारत में अपने पिता की बहुत सहायता की। घटोत्कच का बेटा वर्बरीक भी कम योद्धा नहीं था। इन बच्चों का पालन पिता की कृपा से नहीं, माता- दादी की छत्रछाया में हुआ था।
सूत पुत्र कर्ण
कर्ण सूत पुत्र थे। सूत वर्ण उन दिनों शूद्र- अछूतों में गिना जाता था, इसलिए उन्हें आए दिन व्यंग्य सुनने पड़ते थे, फिर भी वे कौरव सेना के वरिष्ठ सेनापति हुए। कर्ण ने कहा है, '' कुल- वंश में जन्मना मेरे हाथ में नहीं, पर अपने निजी पराक्रम से मैंने वरिष्ठता प्राप्त की है। इस प्रगति पथ को रोक सकना किसी के हाथ में भी नहीं है।
सच्चे संत नामदेव
महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक के क्षेत्र को भागवत धर्म में सराबोर कर देने में संत नामदेव का बड़ा हाथ है। वे जन्म से दर्जी थे, पर कर्म से पूजे जाने योग्य सम्मान पाए और शूद्र न रहकर ब्रह्मज्ञानियों की पंक्ति में विराजमान हुए।
कहते हैं कि नामदेव का आरंभिक जीवन अच्छा न था, पर वाल्मीकि और विल्वमंगल की तरह उनने भी अपने चिंतन और चरित्र का कायाकल्प कर लिया। वे अपने पुरुषार्थ से ही निर्वाह करते थे। दान के धन को उनने सदा अस्वीकार किया।
उनके गुरु एक कोढ़ी थे। उनकी सच्चे मन से सेवा करते और श्रीमुख से सेवाधर्म और चरित्रनिष्ठा का माहात्म्य सुनते। नामदेव भागवत धर्म का प्रचार तो करते रहे, पर उनने सदा यही कहा कि '' कथा- कीर्तन में सम्मिलित होने, गाने सुनने भर से किसी का उद्धार नहीं हो सकता। कल्याण प्राप्त करना है, तो आचरणों की शुद्धि और सेवा- भावना को महत्त्व देना चाहिए। '' पूजा से स्वर्ग मिलने मात्र से जो लोग भगवान् मिलने की बात कहते थे , उनसे संत नामदेव का मत नहीं मिलता था। वे कर्मयोग को प्रधानता देते थे ।
शरीर से शूद्र , मन से ब्राह्मण
महाराष्ट्र में इंद्रायणी नदी के तट पर बसे हुए, देदूगाँवं में संत तुकाराम का जन्म हुआ। उन्हें जन्म से शूद्र कहा जाता है पर वे अपनी सत्प्रवृत्तियों तथा सेवा- साधना में निरत रहने के कारण सर्वाेच्च वर्ण के माने गए। उन्होंने अभंग छंदों में प्रायः ८००० कविताएँ लिखी हैं। वे कीर्तन कला में प्रवीण थे। जन सेवा का कोई अवसर हाथ से न जाने देते थे। उनके जीवन का अधिकांश भाग धर्म प्रचार के लिए परिभ्रमण में बीता।
उन दिनों देश का अधिकांश भाग पराधीन हो चुका था। आक्रांताओं के जमे कदम उखड़ने में न आ रहे थे। भयभीत लोग अपनी जान बचाने के लिए विधर्मी बनते जा रहे थे। ऐसे दुर्दिनों में जनता का मनोबल बनाए रहना आवश्यक था। '' हारे को हरिनाम '' की उक्ति को सार्थक करने के लिए उन दिनों के संतों ने कीर्तन को माध्यम बनाया और धर्म प्रचार के माध्यम से जन- साधारण को धैर्य न खोने, भगवान पर विश्वास करने और उज्ज्वल भविष्य की संभावना अनुभव कराने का प्रयास किया। संत तुकाराम भी उसी संत संप्रदाय में से थे। उनका प्रयास आरंभ से अंत तक चलता रहा।
तुलसीदास के असवर्णी मित्र
गोस्वामी तुलसीदास की रामाज्ञा प्रश्न रचना में, उनके सत्संग में सम्मिलित होने वालों तथा मित्रों का विवरण है। उनमें काशीनाथ पंडित, भगवान ब्राह्मण, समरसिंह राजपूत आदि द्विजों को छोड़कर शेष सभी असवर्ण समझे जाने वालों की नामावली है। उनमें कैलाश चारण, उज्जैनीदास, बजंतरी, भजन ग्वाला, सियाराम तमोली, गोधी गौड़, हरी हलवाहा, मीर ढाढी़, जसन जुलाहा आदि का विशेष रूप से उल्लेख है।
यथार्थवादी स्वामी रामानंद
काशी के प्रख्यात स्वामी रामानंद संप्रदाय से वैष्णव थे, पर उनने उन दिनों प्रचलित छूत- अछूत प्रथा को सर्वथा अमान्य किया। कबीर, रैदास आदि उन्हीं के शिष्य थे।
कर्मयोगी रैदास
रैदास कबीर के समकालीन थे। कबीर जुलाहे के यहाँ पले और रैदास चमार परिवार में जन्मे, दोनों की दृष्टि एक थी, तत्कालीन वर्णभेद के नाम पर चल रही अनीति का उन्मूलन करना। वे कर्म को ही ऊँच- नीच का आधारभूत कारण मानते थे। यही दूसरों को भी समझाते थे।
रैदास ने जूते बनाने का काम जीवन भर जारी रखा। कर्मयोग का चमत्कार दिखाने के लिए उनने कठौती में गंगा प्रकट कर दी। उनने अपना कार्यक्षेत्र राजस्थान बनाया और चित्तौड़ को अपने लिए उपयुक्त स्थान चुना। मीरा उनकी शिष्या थीं। उनके पवित्र जीवन तथा उच्चस्तरीय तत्वदर्शन से प्रभावित होकर अनेक उच्चकोटि के व्यक्ति उनके अनुयासी बने। '' रैदास पुराण '' में उनके अनेक चमत्कारों का वर्णन है। जीवन काल में उनने सबसे यही कहा- '' चमत्कारों के आधार पर किसी को सिद्ध पुरुष न मानो, अन्यथा बाजीगर बाजी मार ले जाएँगे और जो तपस्वी, सेवाभावी, मिथ्याडंबर नहीं रच सकते, प्रभावहीन बने रहेंगे और अपने विचारों का लाभ संसार को न दे सकेंगे। '' रैदास १२५ वर्ष तक जीवित रहे।
प्रचलन को पलटने वाले संत कबीर
परिस्थितियों की सर्वथा विपरीतता से लोहा लेते हुए कबीर ने पंडितों के गढ़, काशी में बिना किसी संकोच- झिझक के जाति- पाँति के प्रचलनों से लोहा लिया। कर्मकांड की प्रधानता के स्थान पर सदाचार और परोपकार का प्रचार किया। वे आजीविका के लिए अपना पैतृक धंधा जुलाहे का काम करते थे और दक्षिणा की आशा नहीं करते थे। उनके कथन इतने ओजस्वी होते थे कि उन्हें हिंदू- मुसलमान सभी पसंद करते थे। वे गृहस्थ थे और कहते थे कि धर्म- धारणा के लिए विरक्त होना ,आवश्यक नहीं।
यह मान्यता प्रचलित थी कि काशी में मरने वाला स्वर्ग पाता है और मगहर में मरने वाले गधा बनते हैं। इस मिथ्या मान्यता को निरस्त करने के लिए वे मरण काल में मगहर चले गए।
हिंदू- मुसलमान दोनों ही उन पर समान श्रद्धा रखते थे। मरण के उपरांत उनके बचे हुए फूलों में दोनों ही संप्रदाय के लोगों ने अपनत्व दिखाया और स्मारक बनाए।
संतों की कोई बिरादरी नहीं होती नाभा जी डोम वर्ण के थे। पर वे थे संत। संतों की कोई बिरादरी नहीं होती- यह सोचकर उनने ब्राह्मण संत तुलसीदास जी को अपने यहाँ एक भोज में आमंत्रित किया। तुसीदास ने स्वीकार कर लिया ,पर नियत तिथि पर उस बात को भूल गए। रात्रि गए जब उन्हें स्मरण आया, तो दौड़ते हुए नाभा जी के यहाँ पहुँचे। भोजन समाप्त होने को ही था, सो जो कुछ बचा था, उसी का उनने प्रसाद ग्रहण किया।
कोई अपवित्र नहीं
माता शारदामणि के सत्संग में एक महिला आती थीं, जिसका चरित्र अच्छा न था। इस पर भक्तों ने आपत्ति की कि इसे सत्संग में नहीं आने देना चाहिए। माताजी ने कहा-'' बच्चो ! क्या गंगा किसी से कहती है कि तुम बहुत मैले- कुचैले हो , मेरे जल में प्रवेश न करो। किसी के संग से कोई उठता- गिरता नहीं। अपना अंत: करण ही उठाता और गिराता है। ''
क्रांतिकारी बाबा आम्टे
भारत के जाने- माने वकील और कुष्ठ रोगियों की सेवा में लगे मुरलीधर देवीदास आम्टे को उनकी सार्वजनिक सेवाओं के लिए १९८५ का रेमन मैगसाय एवार्ड दिया गया। यह एवार्ड एशिया में नोबुल पुरस्कार की तरह ही है।
बाबा आम्टे ने युवावस्था में ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था से विद्रोह करना शुरू कर दिया था। महाराष्ट्र की कुलीन जाति एवं संपन्न परिवार में जन्मे श्री आम्टे ने भारत की जाति प्रथा के खिलाफ पहला विद्रोह किया और अछूतों के साथ खाना- पीना शुरू कर दिया।
७१ वर्षीय श्री आम्टे ने वकालत की, लेकिन यह पेशा उन्हें रास न आया। उनका मन कुछ महान् कार्य करने को मचलने लगा। उन्होंने वकालत की डिग्री और संबंधित कागजातों को फाड़ दिया तथा विरासत में मिली संपन्नता को छोड़कर अपने परिवार के साथ छः कुष्ठ रोगियों और एक गाय को लेकर उन्द्रपुर जिला चले गए। १९५१ में वहाँ एक बंजर पड़ी जमीन पर उन्होंने '' आनंद वन '' की स्थापना की।
संत, जो बागी बना
गोवा क्षेत्र में पुर्तगालियों के अत्याचार चरम सीमा पर पहुँच गए थे। जनता को ईसाई बनाने के लिए प्रलोभन और उत्पीड़न दोनों को अपनाया जाता था।
इन दिनों उस क्षेत्र में पूजा- पाठ में संलग्न रहने वाले संत गौरीनाथ से न रहा गया। वे विद्रोही बन गए। पूजा- पाठ रास्ता चलते कर लेते और दिन भर जनता में विद्रोह की आग भड़काते। उनकी छापामार मंडली ने अत्याचारियों के नाकों दम कर दिया। उनके पैर उखड़ने लगे।
अपनों के ही विश्वासघात से संत पकड़े गए। उन्हें आधा जमीन में गाड़कर ऊपर से शिकारी कुत्ते छोड़े गए। इस प्रकार उत्पीड़न देते हुए उनके प्राण लिए गए। उसी दिन से पुर्तगालियों के पाप उनकी जड़ें खोखली करने लगे। जनता के असहयोग से अंततः उन्हें यहाँ से विदा ही होना पड़ा।
ईसाई संस्कृतज्ञ
गोवा के डॉक्टर गोमेज यों जन्म से ईसाई थे। उनने अपना धर्म बदला भी नहीं ! पर वे भारत के पूर्वजों की भारतीय संस्कृति का परिपूर्ण सम्मान करते थे। उनकी विद्वता असाधारण थी। वे देश में महत्त्वपूर्ण आयोजनों में तथा विदेशों में भी भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने पहुँचे। यों धर्म कीं दृष्टि से वे ईसाई धर्म के प्रति अपनी निष्ठा भी व्यक्त करते रहे। आठ वर्ष तक वे '' पुर्तगाल में गोआ का प्रतिनिधित्व करते रहे। मंत्री पद ठुकराकर उन्होंने अपना प्रचार कार्य जारी रखा। डेविस, जो दलित होते हुए भी जीवित संग्राम लड़ी
ऐंजिल डेविस वरमिंघम के निकट एक छोटे देहात में जन्मीं। नीग्रो परिवार में जन्मने के कारण उसे भी उन अभावों और अपमानों का सामना करना पड़ा, जो पद- दलित जातियों को करना पड़ता है। बचपन अध्ययन में बीता। उन्होंने एम० ए०, पी०एच०डी० किया। एक स्कूल में अध्यापिका बन गईं , पर इतना ही उसके लिए सब कुछ नहीं था। वह अपने जातीय पददलितों को मानवोचित अधिकार दिलाना चाहती थी। इसलिए उसने लूथर किंग के साथ मिलकर कितने ही रचनात्मक और संघर्षात्मक आदोलनों में हिस्सा बँटाया।
विवाह का विचार ही उसने छोड़ दिया।
आन्दोलनकारियों के सामने इतने महत्त्वपूर्ण काम रहते हैं कि वे विवाह बंधन में बँधे, तो उनकी आधी शक्ति तो घरेलू झंझटों में ही खप जाती है। फिर वे न घर से बाहर रह पाते हैं और न अर्थोपार्जन की जिम्मेदारियों से बच पाते हैं। उसे लूथर किंग के दाहिने हाथ की तरह काम करना था।
डेविस दृढ निश्चयी थी। अध्ययन कार्य के उपरांत उसका सारा समय समाज सुधार के काम में ही लगता था। वह कुछ ही घंटे सो पाती थी। आए दिन उसे गोरे किसी- न किसी षड्यंत्र का शिकार बनाते रहे। इन सबसे भी वह जूझती रही। पर चेहरे पर उदासी कभी नहीं आने दीं।
एक अद्भुत हाईकोर्ट जज
पेंसिलवानियाँ में जन्मी एडिथ सेम्पसन उस नीग्रो परिवार में जन्मी थी, जिन्हें भारतीय अछूतों से भी गई- गुजरी स्थिति में रहना और आए दिन गोरों का त्रास सहना पड़ता था। उनने अध्ययन काल में अपनी रुचि और एकाग्रता नियोजित की, फलतःवे एक सफल वकील बन सकी । इसके बाद शिकागो हाईकोर्ट का जज बनाया गया। उस अदालत में छोटे अपराधों के प्रायः ३० लाख मुकदमे आते थे,वे सभी निपटा देती थीं। हँसने-हँसाने की आदत और न्याय की पृष्ठभूमि समझने पर अधिकांश अपराधी स्वयं ही अपराध स्वीकार कर लेते और उचित दंड स्वेच्छापूर्वक सहते। गरीबों का समय अदालत का चक्कर काटने में नष्ट न हो, इसलिए वे प्रायः दो मिनट के औसत से मुकदमा निपटाती थीं। वकील करने की भी अधिकांश को जरूरत न पड़ती। वे जज की नहीं, परिवार की बुजुर्ग की भूमिका निभाती थीं।
प्रेसीडेंट ट्रमैन ने उन्हें राष्ट्र संघ में अमेरिका का प्रतिनिधि बनाकर भेजा। उच्च पद पर रहते हुए उनने अपने पिछड़े समुदाय को ऊँचा उठाने के लिए अनेक रचनात्मक कार्य किए।
जाति से तिरस्कृत,पर कर्म से श्रेष्ठ संत
नारी पुनरुत्थान के पुनीत कर्म में लगे हुए महर्षि कर्वे ने अपने रिश्ते की एक बाल विधवा से सादी कर ली । उन दिनों रुढ़िवाद की जड़ों पर किसी ने चोट भी नहीं की थी और वे हिली भी नहीं थीं ।
पंचों ने कर्वे को जाति बहिष्कृत कर दिया। एक बार वे मंदिर गए। बहिष्कृत को सामूहिक आयोजन में सम्मिलित क्यों होने दिया जाय ? आवाजें उठीं और उन्हें वहाँ से हटा दिया गया।
कर्वे ने कहा- '' यह तो भगवान् का द्वार है। जब दूर से चांडाल भी दर्शन कर लेता है। तो मुझे क्यों रोकते हो ?'' इतनी नम्रता का भी तिरस्कार ही हुआ। महर्षि के तर्क उन पाषाण हृदयों को प्रभावित न कर सके और उन्हें प्रवेश न मिला। पर धैर्य और लगन ने चमत्कारी कार्य किया। उन्हीं महर्षि कर्वे के प्रयत्न से महाराष्ट्र आज नारी प्रगति में अग्रणी है। उनकी संस्था में सहस्रों नारियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर समाज सुधार के आंदोलन को गतिवान बनाने में संलग्न है।
विगत प्रयास एवं भावी संभावनाएँ
प्राचीनकाल में वर्ण परिवर्तन के अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनमें कर्म परिवर्तन के आधार पर वर्ण बदले हैं। विवाह भी अनुलोम- प्रतिलोम होते रहे हैं। अर्थात् छोटे वंश वालों की लड़कियाँ बड़े वंश में ब्याही गईं और बड़े वंश वालों की लड़कियों ने छोटे वंश में विवाह किया। यह हेरा- फेरी समाज को मान्य होती रही है। प्राचीनकाल मैं इस कुप्रथा का विरोध नहीं हुआ, ऐसी बात नहीं। अनेक वर्णों और व्यक्तियों ने इसका डटकर विरोध किया। बौद्ध, जैन, सिख आदि हिंदू धर्म की ही शाखाएँ हैं, पर उनमें जाति- पाँति का भेदभाव नहीं है। भक्ति मार्गी संत पुरुष भी इसे अस्वीकार करते रहे हैं। परशुराम ने केरल में मछुआरों को यज्ञोपवीत देकर ब्राह्मण बनाया था। हर विचारशील ने विरोध किया। वर्तमान कानून भी इस प्रचलन का विरोधी है। सामान्य विवेक भी इसका औचित्य किसी प्रकार स्वीकार नहीं करता। मध्यकालीन कट्टरता घट रही है और विश्वास किया जाना चाहिए कि यह प्रथा देर तक न रहेगी।
जन्म- जाति का क्रम अब आगे नहीं चलने वाला
अब कर्म बंधन की कोई निर्धारित रेखा नहीं रही। कोई भी अपना व्यवसाय बदल सकता है। इस प्रकार एक व्यक्ति एक ही जीवन में कितने ही वर्ण बदल सकता है। तब वह विभाजन एक प्रकार से निरर्थक ही हो गया। अब हमें मानवी समता का सिद्धांत ही अपनाकर चलना चाहिए। जो पिछड़ गए हैं ,उन्हें ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना चाहिए ,न कि उनसे घृणा करके दूर ही धकेलते चलें।
भावार्थ- आज संस्कृति सत्र के दूसरा दिन सम्मिलित होने वालों का उत्साह और संतोष देखते बनता था। दूसरे दिन का सत्र-शिक्षण आरंभ हुआ। सभी विद्वानों को संबोधित करते हुए सभाध्यक्ष कात्यायन बोले ।। १- २।।
कात्यायन उवाच- धर्मलग्नाः साधका हे भारतोत्पन्नसंस्कृतेः। विद्यते मेरुदण्डस्तु धर्मों वर्णाश्रमानुगः।।३ ।। ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्चेति चतुर्विधः। वर्णोंऽस्ति सन्ति चत्वार आश्रमाः क्रमशस्त्विमे।। ४ ।। ब्रह्मचर्यं गृहस्थो स वानप्रस्थोऽथ शोभनः। संन्यासश्चेति सर्वेऽपि परस्परगता इव ।। ५।। विभाजनमिदं देवसंस्कृतेनुयायिभिः। स्वीकार्यं समहत्वं च सन्ततम् ।। ६ ।। अस्योपयोगितायां सगाम्भीर्यं च गौरवे । अद्य मुख्यश्च जिज्ञासुरभूदारण्यको मुनि: ।। ७।। विशेषेण तमेवाथ सम्बोध्याध्यक्ष उक्तवान् । कात्यायनो महर्षिस्तु ज्वलन् स ब्रह्मतेजसा ।। ८ ।। गुणकर्मूस्वूभावानामाधारेण विभाजनम् । वर्णानां भवति प्रायो जन्मना न महत्वगम्।। ९ ।। कर्मकौशलगं चैतन्मन्तव्यं जन्मनैव चेत् । मन्यते कर्म नैवं चेद् वन्ध्यवृक्ष इव स्मृत: ।।१० ।। महत्वेनाभियोज्याश्च सर्वे चत्वार एव तु । कर्तुं नियोजितामत्र व्यवस्थां तु समाजगम् ।। ११ ।। श्रेय: सम्मानमप्येते लभन्तां वर्णसंगताः । पुरूषा अत्र नो ग्राह्यो भावोऽयमुच्चनीचयोः ।। १२ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले -हे धर्म परायण सद्ज्ञान साधकों । भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड वर्णाश्रम धर्म है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र- यह चार वर्ण हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम, जो परस्परक्रमबद्ध हैं। देवसंस्कृति के अगुयायियों को, इस विभाजन को समुचित महत्त्व देना चाहिए और उनकी उपयोगिता- आवश्यकता एवं गरिमा पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। आज के प्रमुख जिज्ञासु मुनिवर आरण्यक थे, उन्हीं को विशेष रूप से संबोधित कर ब्रह्मतेज से दुर्धर्ष सत्राध्यक्ष कात्यायन ने कहा- वर्णों का विभाजन गुण- कर्म-स्वाभाव के आधार पर होता है । यह वर्गीकरण जन्मजात रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है। इन्हें कर्म- कौशल के अनुरूप समझा जाना चाहिए। यदि जनम से किसी वर्ण में है पर कर्म तदनुकूल नहीं है। तो वह बाँझ- वृक्ष के समान है। समाज- व्यवस्था को सुनियोजित रखने के लिए इन चारों को ही महत्त्व मिलना चाहिए। इन सभी वर्णों के लोगों को समान श्रेय- सम्मान मिलना चाहिए। इनमें छोटे- बड़े या ऊँच- नीच जैसे भेद- भाव नहीं बरतने चाहिए ।। ३-१२।।
व्याख्या- देवसंस्कृति को अनायास ही सर्वश्रेष्ठ होने का सुयोग नहीं मिला। इसके अंतर्गत हुए समाजपरक सभी निर्धारण ब्रह्मवर्चस् संपन्न दूरद्रष्टा ऋषियों की अन्वेषण बुद्धि के परिणाम हैं। ऋषिगणों ने वर्ण एवं आश्रम के रूप में समुदाय एवं वैयक्तिक जीवन को जो चार वर्गों में विभाजन किया है, वह सर्वकालीन, सार्वभौम एवं हर परिस्थितियों में सत्य की कसौटी पर उतरने वाला है। सुव्यवस्थित समाज, जिसमें सभी के लिए उनके कर्मों के अनुरूप उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया गया हो, सांस्कृतिक सुदृढ़ता एवं एकता के लिए उत्तरदायी है । यह पूर्व निर्धारित सुनियोजन देवसंस्कृति की ही विशेषता है एवं इसी कारण यह मानवी गरिमा की ज्ञान- गंगा आदि काल से प्रभावित होती आई है।
भारतीय धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहा गया है। चार वर्णों से तात्पर्य है - क्रिया में उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए निर्धारण। चार आश्रमों से तात्पर्य है- आयुष्य का भौतिक एवं आत्मिक उद्देश्यों के लिए सुनियोजन। यह विभाजन बड़ा ही वैज्ञानिक, प्रगतिशील और उपयोगी रहा है। चार वर्णों में विभाजित ऋषि कालीन समुदाय एक आर्य जाति के सूत्र में आबद्ध था। सब आर्य थे और सबको समान अधिकार मिले हुए थे। यदि यह विभाजन ऊँच- बीच अथवा छोटे- बड़े के आधार पर हुआ होता, तो संभवतः समाज का कोई भी सदस्य इसे मानने को तैयार न होता। यदि जोर- जबर्दस्ती के आधार पर किया गया होता, तो संभवत: विद्रोह पनप उठता एवं भयानक गृहयुद्ध होता। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए महर्षि कात्यायन यहाँ समझाते हैं कि ऋषियों द्वारा स्थापित इस विज्ञान सम्मत वर्ण व्यवस्था का निर्धारण बड़ा सोच- समझकर सर्वसम्मति से हुआ था। इस सर्वसम्मत विधान को सारा समाज शिरोधार्य करता हुआ अपना कर्तव्य करता चला आया। वस्तुतः संस्कृति की यह सर्वश्रेष्ठ अवधारणा 'वर्ण-व्यवस्था' सामाजिक विघटन का कारण नहीं है। इसका कारण तो वे विकृतियाँ हैं,जो वे कालांतर में उपद्रवों, आक्रमणों एवं सामाजिक अस्त- व्यस्तता के कारण उत्पन्न हो गईं एवं मध्यकाल में निवारण हेतु जिनके लिए नहीं के बराबर प्रयास हुए ।
आदिकालीन भारतवर्ष में आर्यों की अपेक्षा अनार्यो की संख्या अधिक रही है । जहाँ आर्य सृजनात्मक विचारधारा के अनुरूप कर्म करते हुए सभ्य, सुसंस्कृत, विकासोन्मुख व उन्नत समाज का निर्माण करते हुए एक स्थायित्व लाने का प्रयास करते थे, वहाँ लूटमार करके अपनी आजीविका चलाने वाले अनार्य आए दिन उन पर आक्रमण कर दिया करते थे। उनका सामना करने हेतु सारे आर्य समुदाय को निर्माण कार्य छोड़कर युद्ध में लग जाना पड़ता था और इस प्रकार सभी बनी- बनाई व्यवस्था बिगड़ जाती थी। फिर नए सिरे से काम शुरू करना पड़ता था। खेत उजड़ जाते थे, शिल्प नष्ट हो जाते थे और योजनाएँ बिगड़ जाती थीं। साथ ही सैकड़ों महान् मस्तिष्क कट कर रणभूमि में गिर जाते थे, जिससे इनमें चल रही विकास की विचारधाराएँ जहाँ की तहाँ समाप्त हो जाती थीं। इस प्रकार आए दिन बड़ी- बड़ी हानियाँ होती रहती थीं। जितना आगे बढ़ पाते थे, उतना ही पीछे हट जाना पड़ता था।
निदान अनार्यों की इस बर्बरता से परेशान होकर समाज के मनीषी- महात्माओं ने गहराई से विचार कर इस समस्या का कोई स्थायी हल निकालने का निश्चय किया।
अस्तु, उन्होंने विचार किया और पूरे समाज को चार वर्णों के नाम से चार वर्गों में विभक्त कर दिया। एक वर्ग में उन्होंने वे व्यक्ति रखे, जो चिंतनशील स्वभाव के थे और अध्ययन एवं अध्यापन, समाज- सेवा एवं लोक नेतृत्व में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इस वर्ग को उन्होंने 'ब्राह्मण' कहा । दूसरे वर्ग में वे लोग लिए गए, जो स्वभाव से दुर्धर्ष और साहसी थे। शरीर से अपेक्षाकृत हृष्ट- पुष्ट और संग्राम कार्य में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इनको 'क्षत्रिय' कहा गया। तीसरे वर्ग में वे शामिल किए गए, जो स्वभाव से उत्पादक, संगठनकर्त्ता, मितव्ययी, शांत और सहिष्णु थे। कृषि एवं वाणिज्य व्यवसाय में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इन तीसरे वर्ग के लोगों को 'वैश्य' बताया गया। चौथे वर्ग में उन सब लोगों को रखा गया, जो अविशेष स्वभाव, साधारण रुचि और सामान्य शिल्प के थे और जो उपर्युक्त तीनों में से किसी में भी समस्थ न हो सकते थे, इनको 'शूद्र' की संज्ञा दी गई।
यह- समग्र विभाजन गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप हुआ। जन्म से तो सभी'शूद्र' अर्थात् अनगढ़ होते हैं। बड़े होने पर उनकी भावना एवं निर्धारण के अनुरूप वर्ण एवं आश्रम का निर्धारण होता है। जन्म से किसी भी वर्ण में हो, पर यदि कर्म उस निर्धारिण के प्रतिकूल है तो उस व्यक्ति का कार्य के अनुरूप ही मूल्यांकन होगा। संस्कार ही वर्ण निर्धारण करते हैं ।
विडंबना यह है कि आज मात्र वैश्य वर्ण और गृहस्थाश्रम की प्रमुखता है। शेष वर्ण और आश्रम तो विस्मृति के गर्त में चले गए। आवरण धारण कर लिए जाते हैं, पर उनके साथ जुड़े कर्तव्यों की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। वर्ण के तो वंश साथ जुड़ गए एवं आश्रम धर्म लुप्त हो गया।
जैसा स्पष्ट है, लोक शिक्षण में संलग्न समुदाय को ब्राह्यण', कुकर्मों के कुप्रचलनों के विरुद्ध जूझने वालों को 'क्षत्रिय', उपार्जन का दायित्व सँभालने एवं समाज को भौतिक दृष्टि से सुसंपन्न बनाने वालों को 'वैश्य' और श्रमिक समुदाय को शूद्र कहा गया है। इन चारों को ही समाज महत्त्व और समान गौरव- सम्मान है।
जब सौ वर्ष की आयु थी, तब २५ वर्ष ब्रह्मचर्य और पच्चीस− वर्ष गृहस्थ में लगते थे। यह पूर्वार्द्ध निजी जीवन था। उत्तरार्द्ध में पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ- परिव्राजक बनकर और पच्चीस−वर्ष स्थान विशेष पर आश्रम संचालन में लगते थे। यह 'संन्यास' था। जो इनकी मर्यादाओं का पालन करे, उसी का वर्णाश्रम धर्म पालन सच्चा है। वंश के आधार पर, वर्ण और वेष के आधार पर आश्रम की कल्पना सर्वथा अवास्तविक है।
वाल्मीकि नीच कुल में उत्पन्न होने पर भी महान् ऋषि कहलाए और रावण- कुम्भकरण आदि ब्राह्मण परिवार में जन्मने पर भी नीच कहलाए व तिरस्कृत हुए। इन दिनों जन्म से वर्ण बनाने का और विशेषतया एक- दूसरे को नीच- ऊँच मानने का प्रचलन सर्वथा अनुपयुक्त है। यह मध्यकालीन सामंतवादी अंधकार युग के प्रचलन हैं, जिसमें समर्थों को सम्मानित और असमर्थों को अपमानित किया जाने लगा। स्त्री और शूद्र, प्रतिशोध लेने की क्षमता न होने से नीच माने गए। यह प्रचलन समाज के नाम पर कलंक है एवं संस्कृति के स्वरूप को मलिन करने वाला। समय की माँग है कि इसे उलटा जाय एवं पुनः उस शाश्वत- जाज्वल्यमान स्वरूप को सामने लाया जाय।
ऊँच- नीचा का कारण
एक रात को जब पुजारी मंदिर का द्वार बंद कर चला गया , तो देव मूर्ति बने बैठे पाषाण से, स्तंभ के पाषाण ने पूछा- '' क्यों भाई , हम सब एक ही पर्वत पर से चुनकर यहाँ लाए गए हैं। फिर तुम्हें ही यह पूज्य- पद क्यों मिला, जबकि मैं यहाँ छत का बोझ सहने को स्तंभ बना हुआ हूँ?'' देवता के आसन पर प्रतिष्ठित पाषाण कुछ विचार कर बोला- '' बंधु ! मैं स्वयं इस रहस्य को नहीं जानता। कल मंदिर के पुजारी से पूछूँगा। '' अगले दिन जब पुजारी अर्चना के अनंतर हाथ जोड़कर विनय- मुद्रा में खडा़ हो गया, तो देव पाषाण बोला- '' विद्वान् पुजारी ! मंदिर में जितने भी प्रस्तर हैं, वे सभी समान गुण-जाति के हैं, फिर मैं ही पूजा का पात्र कैसे बन गया? क्या यह रहस्य समझा सकोगे?''
'' आपने बड़े महत्त्व की बात पूछी है भगवन्!'' -पुजारी बड़े ही विनम्र वचनों में बोला- '' एक गुण: धर्म तथा जाति की सभी वस्तुओं का उपयोग एक पद ही हो, यह सर्वथा असंभव है । प्रकृति किसी को भी समान रूप से रहने देना नहीं चाहती । हम मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। बहुत से मनुष्य समान प्रतिभा तथा जाति- गुण के होते है, परंतु उनमें से अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण कोई एक ही वरिष्ठ स्थान पाता है। शेष सभी उसके नीचे रहते हैं , किन्तु जो नीचे हैं, उन्हें अपने आपको हेय नहीं मानना चाहिए 'क्योंकि सृष्टि परिवर्तनशील है। इसमें अपने संस्कारों की परिणति के फलस्वरूप कौन, कब, कहाँ चला जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। इसलिए बुद्धिमान जन पद की न्यूनाधिकता से विचलित नहीं होते। ''
तथागत द्वारा वर्ग विभाजन
शिष्य- मंडली ने भगवान् बुद्ध से पूछा- '' मनुष्य के कितने वर्ग हैं?'' तथागत ने उत्तर दिया- '' एक वे जो अपना ही लाभ देखते हैं भले ही इससे दूसरों को कितनी ही हानि उठानी पड़ती हो। दुसरे वे जो , औरों का भला करते हैं। तीसरे वे, जो अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी। चौथे वे प्रमादी हैं, जो न स्वयं सुखी रहते हैं, न दूसरों को सुखी रहने देते है। ''
तथागत ने कहा- '' मेरी समझ में वे श्रेष्ठ हैं जो अपना भी भला करते और साथ- साथ दूसरों का भी।
भगवान् भाव देखते हैं,जाति नहीं
जाति वस्तुतः जन्म से नहीं, कर्म से निर्धारित होती है। भविष्य पुराण व्रा अ० ४०/३५ में स्पष्ट किया है कि गौओं एवं घोड़ों की भांति मनुष्य की भी एक जाति है। इसी पुराण के अध्याय ४४ श्लोक ३४ में लिखा है, कि यदि वर्ण जन्मतः होता, तो वह बाहर के चिह्नों से प्रकट होता। महाभारत काल में महात्मा विदुर बहुत ही सज्जन और साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। यद्यपि ये दासी पुत्र थे, फिर भी अपने चरित्र की विशेषताओं के कारण महाभारत के महत्त्वपूर्ण पात्रों में इनकी गणना की जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण जब कौरव- पांडवों में संधि कराने के प्रयत्न में हस्तिनापुर गए, तो वे दुर्योधन के राजकीय सम्मान को त्यागकर विदुर जी के यहाँ ठहरे, जहाँ भक्तिभाव संपन्न विदुरानी ने उनका भाव- विभोर होकर सत्कार किया और विदुर जी ने अपने आपको धन्य माना।
वस्तुतः ईश्वर को ऐश्वर्य संपदा और वैभव नहीं, प्रेम तथा भक्ति ही प्रभावित करते हैं । वे जाति से, वर्ण- संप्रदाय से नहीं बँधे हैं । कर्मों एवं भावनाओं के अनुरूप ही व्यक्ति की पात्रता उनके अनुग्रह को पाने योग्य विकसित होती है। तभी तो भक्त रैदास ने कहा है-
'' हरि को भजै सो हरि का होई। जाति- पाँति पूछे नहि कोई ।। ''
जाति नहिं, पानी
तथागत के प्रमुख शिष्य आनंद श्रावस्ती में भिक्षाटन कर रहे थे। तपती धूप थी। सहसा उन्हें प्यास लगी। कुछ ही कदमों पर पहुँचे। वहाँ एक तरुणी पानी भर रही थी आनंद ने उससे पानी माँगा। तरुणी बोली- '' साधु महाशय! मैं चांडाल कन्या हूँ। मेरे हाथ का जल आपके लिए अपावन है। '' '' मैं तुमसे जाति नहीं पूछा रहा, पानी माँग रहा हूँ । '' आनंद के उत्तर से चकित युवती ने उन्हें पानी पिला दिया।
इसी आदर्श को अपनाने वाले महात्मा नारायण स्वामी भी थे।
जाति- पाँति और अस्पृश्यता हिंदुओं के लिए कलंक का टीका
महात्मा नारायण स्वामी ने एक बार कहा था- '' जाति- पाँति और अस्पृश्यता का बंधन हिंदू जाति के लिए कलंक का टीका है। इसने सारी जाति को छिन्न- भिन्न कर रक्खा है। हिंदू जाति में परस्पर घृणा और द्वेष का प्रचार इसी की कृपा का कुफल है। इसलिए भारतीय संस्कृति की उन्नति के लिए इस बंधन को सर्वप्रथम तोड़ना आवश्यक है। '' इस तथ्य से कोई भी विचारशील व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता।
शबरी की गरिमा किसलिए ?
शबरी यद्यपि जाति की भीलनी थी, किन्तु उसके हृदय में भगवान् की सच्ची भक्ति भरी हुई थी। जहाँ वह रहती थी, उस वन में अनेक ऋषियों के आश्रम थे। उसकी उन ऋषियों की सेवा करने और उनसे भगवान् की कथा सुनने की इच्छा रहती थी। अनेक ऋषियों ने उसे नीच जाति की होने के कारण कथा सुनाना स्वीकार नहीं किया दुत्कार दिया।
किन्तु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोभ उत्पन्न हुआ और न निराशा। उसने ऋषियों की सेवा करने की एक युक्ति निकाल ली। वह प्रतिदिन ऋषियों के आश्रम से सरिता तक का -पथ बुहारकर कुश- कंटकों से रहित कर देती और उपयोग के लिए जंगल से लकड़ियाँ काटकर आश्रम के सामने रख देती। शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, किन्तु किसी ऋषि को यह पता न चला कि उनकी यह सेवा करने वाला है कौन ? शबरी आधी रात रहे ही जाकर अपना काम पूरा कर आया करती थी।
उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही लिया कि यह वही भीलनी है, जिसे अनेक बार दुत्कार कर द्वार से भगाया जा चुका था। तपस्वियों ने अन्त्यज महिला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओं पर आघात होते देखा और उसे उनके धर्म- कर्मों में किसी प्रकार भाग न लेने के लिए धमकाने लगे। मातंग ऋषि से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी के समीप ठहराने के लिए ले गए शबरी अपनी सेवा- साधना चलाती रही। भगवान् राम जब वनवास गए, तो मतंग ऋषि की सराहना की और उन्हें सबसे पहले छाती से लगाया। शबरी की कुटी में राम स्वयं गए और उसका आतिथ्य स्वीकार किया। भगवान् उन्हें ही सर्वाधिक प्यार करते हैं , जो तप साधना की आत्म प्रवंचना में न डूबे रहकर सेवा- साधना को सर्वोपरि मानते हैं।
आर्षग्रंथों द्वारा भी पुष्टि
महाभारत शांतिपर्व, अध्याय १८८ के दसवें श्लोक के अनुसार, '' वर्ण में कोई ऊँच- नीच नहीं, सभी ब्रह्म से उत्पन्न हैं। ''
महाभारत का ही एक और प्रमाण है- '' हे युधिष्ठिर ! प्राचीन काल में एक ही वर्ण था। कामों को विभाजित करके उन्हें चार वर्ण बनाया गया। ''
भागवत पुराण स्कं० ९ - १४ में आता है- '' प्राचीनकाल में एक ही वेद, एक ही मंत्र, एक ही देव, एक ही अग्नि और एक ही वर्ण था। ''
'' वर्णों- वृणुते, '' इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वर्ण वरण किया जाता है, अर्थात चुना जाता है।
पुरुष सूक्त के मंत्र यजुर्वेद और ऋग्वेद दोनों में आते हैं, जिनमें ब्राह्मण की मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से, वैश्य की पेट से तथा शूद्र की जंघाओं से उपमा दी गई है। शरीर का कोई भी अंग अछूत अथवा हेय नहीं होता।अपना- अपना अलग ढंग का काम करते हुए भी वे मिल- जुलकर शरीर की संरचना करते हैं । मनुस्मृति के अध्याय १० में श्रमिकों की भाँति शिल्पकारों को भी शूद्र कहा है। आवश्यक नहीं कि वे दूसरों की सेवा ही करें। पसीना बहाने वालों, श्रम करने वाले सभी की गणना शूद्रों में की गई है, भले ही वे निजी रूप से निर्माण कार्य करते हों।
बृहदारण्यक प्रथम अध्याय की चतुर्थ कंडिका में वर्णन है कि '' पहले एक ही वर्ण था। पीछे कार्य विभाजन सुविधा को देखते हुए उन्हें वर्णों में विभक्त किया गया। '' महाभारत वन पर्व १४९, श्लोक १८, १९, २० में स्पष्ट लिखा है कि '' आरंभिक युग में चारों वर्णों का ज्ञान और आचार एक समान थे। उनके संस्कार वैदिक विधि से होते थे। वर्ण धर्म भिन्न- भिन्न होते हुए भी सब एक ही वैदिक धर्म के मानने वाले थे। ''
कूर्म पुराण अध्याय १०, श्लोक २ में वर्णन है कि '' वेद विश्वानों में ज्येष्ठ पुत्र शूद्र हुए, अर्थात् उनने कुल धर्म छोड़कर अन्य व्यसाय अपनाया। ''
ऋग्वेद ५/६०/५ का कथन है-'' मनुष्यों में जन्मजात कोई भेदभाव नहीं। उनमें कोई छोटा- बड़ा नहीं। सब आपस में बराबर हैं। सभी मिलजुल कर लक्ष्य की प्राप्ति करें। '' यजु० २६/ २ में चारों वर्णों को वेद पढ़ने के अधिकार की पुष्टि है। ऋग्वेद १०/५३/५ में सभी को यज्ञ करने के लिए प्रोत्साहित किया गया हैं ।
यजु० १८/६२/१ में चारों वर्णों को समान रूप से तेजस्वी बनने का निर्देशन है।
ऋग्वेद के ९/ १११/३ मैं व्यक्ति कहता है- '' मैं व्यापारी हूँ। मेरा पिता वैद्य, माता पिसनहारी (शूद्र), फिर भी सब मिलकर एक ही घर में रहते हैं। ''
वायु पुराण में आता है-
" मृत्समद के पुत्र शुनक:, शुनक के शौनक हुए। इन शौनक के चार पुत्र हुए, जो कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहलाए। '' हरिवंश पुराण, अध्याय ३१ में आता है -
" भार्गव वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- यह चारों वर्ण हुए हैं। ''
वाल्मीकि रामायण में प्रसंग आया है-
मनुमर्नुष्याञ्जनयद्राम पुत्रान्यशस्विनः। ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याञ्शूद्रांश्च मनुजर्षम् ।।
अर्थात् हे राम! कश्यप की मनु नामक स्त्री से यशस्वी मनुष्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए।
आगे उत्तरकांड में कहा गया है
अपश्यन्तस्तु ते सर्वे विशेषमधिकं तत:। स्थापनं चक्रिरे तत्र चातुर्वर्ण्यस्य सम्मतम्।
इस काल के लोगों ने ब्राह्मणों और क्षत्रियों में कोई विशेष तारतम्य न देखकर सर्वसम्मति से मनुष्य जाति को चार वर्णों में बाँटा।
राज्य संचालन भी किसी वर्ण विशेष के लोगों का अधिकार नहीं था।' निषादराज गुह जो कि शूद्र था एक संपन्न राज्य का संचालक था। अयोध्या से वन जाते हुए राम गुह के राज्य में पहुँचे-
तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा। निषादजात्यो बलवान्स्थपतिल्लेति विश्रुतः।। उस देश का गुह नाम का राजा था, वह श्रीरामचंद्र का प्राणों के समान मित्र था और जाति का केवट था तथा उसके पास चतुरंगिणी सेना थी और वह निषादों का राजा कहलाता था।
तुलसीदास जी ने भी राम चरित मानस में लिखा है-
बरनाश्रम निज निज धरम, निरत वेद पथ लोग। चलहिं सदा पावहिं सुखहि, नहि भय शोक न रोग ।।दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि व्यापा ।। सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ।।
अर्थात् राम राज में सभी लोग अपने- अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में लगे हुए हमेशा वेद के रास्ते पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है न शोक है और न रोग है।
राम- राज में देह संबंधी, देव संबंधी तथा भौतिक दुख किसी को नहीं व्यापते। सभी मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति ( मर्यादा) में लगे रहकर अपने- अपने धर्म का पालन करते हैं ।
ये समस्त प्रचलन निराधार हैं
जन्म- जाति का वस्तुतः कोई आधार नहीं है। डॉक्टर का लड़का डॉक्टर ही हो, कलक्टर का लड़का कलक्टर ही कहा जाय, इसका कोई आधार नहीं। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर लोगों का वर्ण- समुदाय बदलता रहता है। पर उससे भिन्नता नहीं आती। एक ही परिवार के लोग अध्यापक, पुलिसकर्मी, व्यवसायी, शिल्पी हो सकते हैं। उनके बीच कोई भेदभाव नहीं होता, फिर यह भी आवश्यक नहीं, कि पिता के व्यवसाय को बेटा अनिवार्यतः अपनाए भी। वह बदल भी सकता है और उस परिवर्तन के आधार पर पंडिते सभा सेना- संगठन मर्चेंट, एसोसियेशन, लेवर यूनियन आदि का सदस्य हो सकता है। उन्हे आवश्यकतानुसार बदल कर दूसरी समितियों का सदस्य भी हो सकता है। परिवार के लोगों में शैव, वैष्णव, शाक्त, सूर्योपासक, साकारवादी, निराकारवादी आदि भेद रहे, तो इससे परिवार टूटता नहीं।
जाति- पाँति के नाम पर वर्तमान ऊँच- नीच का प्रचलन नितांत अकारण है। इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं। यह घृणा और अहंकार पर आधारित सामंतवादी प्रचलन है, जिसमें स्त्री, शूद्र जैसे पिछड़े वर्ग को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया जाता था और उस अनीति के समर्थन में, पशु- बलि, दास- दासी विक्रय की तरह जहाँ- तहाँ शास्त्रों में प्रक्षेप मिला दिए गए थे।
रोटी व्यवहार पर शास्त्र विवेचन
अथर्ववेद अध्याय ३/३०/६ में कहा गया है- '' तुम सबका खान- पान समान हो। एक साथ निर्वाह करो। तुम्हें इस प्रकार आपस में जोड़ता हूँ, जिस प्रकार रथ के पहिये में धुरे गुँथे होते हैं। ''
मनुस्मृति में श्रमिकों को पर्याप्त मान दिया गया है और उन सबको भोजन कराने के उपरांत गृहपति तब भोजन करें, ऐसा विधान है। मनु० ३/११६ में कहा गया है, कि माता, पिता, ऋषि विद्वान् बच्चे एवं नौकरों को भोजन कराने के उपरांत गृहपति एवं उसकी स्त्री भोजन करें। शिल्पी और श्रमिकों का कहीं भी तिरस्कार नहीं है, वरन् उन्हें समान सम्मान प्रदान करने का प्रावधान है।
यजु० १६/ २७ में लिखा है-'' बढ़ई, लुहार, कुम्हार आदि श्रम जीवियों का समान सत्कार करो। '' यजु० १ ९ /८० में उल्लेख है कि विद्वान ब्रह्मवेत्ता भी ऊन और सूत के कपड़े बुनते है। कूर्म पुराण ७/१६, व्यास स्मृति २/५२, पारासर स्मृति १ १/२, बृहद् पाराशर स्मृति अध्याय ६, आपस्तम्ब १/ ६/१८ में स्पष्ट उल्लेख है कि '' शूद्रों का बनाया हुआ भोजन ग्राह्य है। ''
मनु ९/३३५ में उल्लेख है-'' भोजन सब मिल- जुलकर पकावें और उसे सहभोग की तरह खावें। '' वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड, श्लोक १२ में उल्लेख है कि '' दशरथ के यज्ञ में शूद्रों का पकाया हुआ भोजन ब्राह्मण, तपस्वी और शूद्र सब मिल- जुलकर खाते थे। " महाभारत आदि पर्व १/ ११ में उल्लेख है कि '' धृतराष्ट्र के यहाँ पूर्ववत् सूर्यकार आदि शूद्र भोजन बनाने के लिए नियत थे। ''
विवाहों के संबंध में याज्ञवल्क्य स्मृति में २६१ में लिखा है, कि '' पतितों की कन्या को विवाह लें। उससे उपवास का प्रायश्चित कर लें । ''
मनु० २/२४० में लिखा है '' स्त्री रत्न , विद्या, धर्म, शिल्प आदि हर वर्ण के लोगों से ग्रहण करें। ''
मनु० ९/२३ में लिखा है, '' वशिष्ठ से विवाह करके अक्षमाल और मंदपाल से विवाह करके शारंगी पूज्य बनी, यद्यपि वे अधम वर्ण में जन्मी थीं। ''
राजा विचित्रवीर्य निःसंतान थे। व्यास से अनुरोध करके पत्नियों को संतान देने का अनुरोध किया । व्यास जी सहमत हो गए। रानी से दो पुत्र उत्पन्न हुए- पांडु और धृतराष्ट्र। दासी से एक पुत्र हुआ विदुर। लगता है उन दिनों संतान के लिए पर पुरुषों का भी नियोग प्रक्रिया द्वारा सहयोग लिया जाता था, पर उसे गोपनीय न रखने से व्यभिचार नहीं कहा जाता। इसमें कोई जाति भेद नहीं था।
कट्टरता का कारण एवं दुर्भाग्यपूर्ण परिणति
आजकल इस संबंध में इतनी कट्टरता जो पाई जाती है, उसका कारण हमारा दुर्भाग्य एवं अविवेकी ही है। विधर्मियों, शासकों तथा सामंतों ने इस प्रचलन को बढ़ा और दिया, ताकि समूचे समुदाय में एकता न रह पाए। शिकायतें बनीं रहीं और विरोध - विद्रोह का सिलसिला चलता रहा।
अब यह महामारी समर्थ सवर्णों और असवर्णों में फैल गई है। एक- एक जाति की अनेक शाखा- प्रशाखाएँ फूट पड़ी हैं। शूद्र - शूद्र के बीच, ब्राह्मण- ब्राह्मण के बीच, वर्ग भेद है और रोटी- बेटी के व्यवहार नहीं होते। चार वर्ण थे, सो अब सात हजार जातियों- उपजातियों में बँट गए हैं। सभी जन्मजात की मान्यता अपनाए बैठे हैं। इन कारणों से अपना समाज दिन- दिन दुर्बल हुआ है। विवाह- शादियों में भारी अड़चन उठी है। दिन- दिन हिंदू समुदाय घटता गया और अन्य धर्मावलंबी बढ़े हैं। स्थिति यह रहने पर वह दिन दूर नहीं, जब अपने ही देश में हिंदू अल्पमत में रह जाएँगें।
जनगणना की रिपोर्ट में जातियाँ पाँच हजार से ऊपर हैं। इनके अंतर्गत चलने वाली उपजातियों की गणना करने पर तो इससे भी अनेक गुनी बढ़ जाती हैं। ब्राह्मणों की ८०० शाखाएँ और दो हजार उपशाखाएँ हैं। क्षत्रियों की ५९०, वैश्यों की ६०० तथा शूद्रों की ६०० शाखाएँ है।
यह जातियाँ, उपजातियाँ, प्रांतों, नदी, तटों, व्यवसायों, विशेषताओं के आधार पर बनीं , पर पीछे उन विशेषताओं के स्थिर न रहने पर भी गोत्र वही चलते रहे। इतनी जातियों में बँट जाने से प्रत्येक जाति अत्यंत छोटी रह जाएगी और अनेक कष्ट सहेगी।
फूट डालो,लूट खाओ
उस दिन चोर अकेला रह गया था। गिरोह के अन्य साथी बिछुड़ गए थे। सामने से तीन संपन्न आदमी आते दिखाई पड़े। अकेला चोर और तीन यात्री। घात कैसे लगे। चोर को एक तरकीब सूझी कि उन्हें फूट डालकर एकाकी कर दिया जाय। पूछने पर उनने अपनी जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र बताई। चोर ने पहले कमजोर शूद्र को पकड़ा और कहा- '' यह तो हमारे पुरोहित हैं यह हमारी बिरादरी के हैं , इनसे तो कुछ नहीं कहना। तू इतनी संपदा कहाँ से लाया। बड़ी जाति वालों की बराबरी करेगा।
पहले तेरी ही मरम्मत की जाएगी। '' शूद्र पिटता भी रहा और जो पास में था, छिना बैठा। इसके बाद पंडित जी की बारी आई, कहा- '' पंडित को भिक्षा पर निर्वाह करना चाहिए। इतनी दौलत जमा करना अधर्म है। '' सो उसने पंडित जी की , धुनाई की और जो कुछ उनके पास था, छीन लिया। तीसरा नंबर ठाकुर का था। उनसे कहा- '' अभी तो आपका पैसा ले लेते हैं। पीछे आप हमारे गिरोह में शामिल हो जाना। जो लिया है उससे अनेक गुना कुछ ही दिन में दिला देंगे। '' ठाकुर ने दुर्गति कराने से पहले ही जो कुछ था, सो चोर को सोंप दिया।
फूट डालकर एक चोर ने तीन राहगीरों को लूटने में सफलता प्राप्त कर ली। इसका मूल कारण था- जाति भेद संबंधी मूढ़ मान्यता। हमारे राष्ट्र के पतन- पराभव का मूल कारण यही कट्टरता रही है। मुगल आक्रांताओं एवं फिरंगियों को इसी आधार पर इस शस्य- श्यामला धरती पर मध्यकाल में अपना अधिकार जमाने में सफलता मिली।
आदिवासी बनाम शूद्र
कुछ व्यक्तियों की भ्रांतिपूर्ण मान्यता है कि आर्य मध्य एशिया से आए और यहाँ के आदि निवासियों को पददलित करके उन्हें नीच बना दिया। वे ही आदिवासी कहलाए और शूद्र समझे गए। वस्तुतःयह कथन आदि से अंत तक गलत है। भारतीयों की मातृभूमि एक भारत भूमि ही है। आदिवासी शक्ति ही गलत है। हिंदू मात्र आदिवासी है। हाँ, भेदभाव के कारण कुछ समुदाय पिछड़ अवश्य गए। उन्हें उठाने के प्रयत्न अब तेजी से चल रहे हैं।
शूद्र और दस्यु का अंतर
मनुस्मृति १०/४५ मैं आता है जी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र से बाहर है, उन्हें '' दस्यु '' कहते है। '' दस्यु '' अर्थात् चोर, कुकर्म करने वाले। इन्हीं की संगति से दूर रहने के यत्र- तत्र संकेत हैं ।
ऋग्वेद १०/२२/९ में दस्यु के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-'' जिसकी परोपकार परमार्थ में आशा नहीं है। जो मलिन रहता है। चोरी, जुआ, डाका- ठगी आदि कुकर्मों पर निर्वाह करता है। सभ्यता से रहित और हिंसक पशुओं की तरह स्वेच्छाचारी है, वह दस्यु है। '' ऋग्वेद ८/७०/११ में लिखा है-'' अमानुषी प्रकृति वाले दस्युओं को जनहित की दृष्टि से अलग रखें। ''
'जाति निर्णय ' पृष्ठ ४६ पर शिवशंकर शास्त्री लिखते हैं- '' शूद्र आर्य हैं, परंतु दस्यु अनार्य शूद्र व्यवसायी हैं, किन्तु दस्यु -डाकू। ''
महाभारत शांतिपर्व अध्याय १८८, श्लोक १३ में कहा गया है कि '' मिथ्यावादी, लोभी, हिंसक, मलिन ब्राह्मण भी शूद्र या दस्यु हो गए। ''
महाभारत शांतिपर्व अध्याय १६५ में लिखा है-'' चारों वर्णों और आश्रमों में कर्म के आधार पर शूद्र एवं दस्यु पाए जाते हैं।''
जो लोग किसी कारणवश हेय स्थिति में जा पहुँचे हैं। उन्हें ऊँचे उठाना और समकक्ष बनाना विद्वज्जनों का कर्तव्य है। इस निर्देशन को ऋग्वेद २७/६३१ और ऋग्वेद १०/ १३/७/१ में स्पष्टतया उल्लेख है।
ऋग्वेद १/३३/४ के अनुसार चोर या विप्र- संतोषी '' दस्यु '' हैं। ऋग्वेद १/५१/८ के अनुसार सत्कर्मों यज्ञादि अनुष्ठानों में जो विघ्न डालता है, वह '' दस्यु '' है। ऋग्वेद ६/२५/२ के अनुसार शुभ कर्मों को मटियामेट करने वाला '' दस्यु '' है।
दस्युओं से सतर्क तो रहा जाय, पर उन्हें भी ऊँचा उठाने के लिए साथ रखने की आवश्यकता है। शिवजी के गले में सर्प और सान्निध्य में भूत- प्रत रहते थे। सभी को श्रेष्ठ बनाने का हमारा उद्देश्य रहे । श्रुति कहती है, '' कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात, सभी को हम श्रेष्ठ बनाएँ। बड़प्पन सेहयोग में सत्य और आदर्श दोनों में विवाद उठ खड़ा हुआ। यथार्थ कहता था '' मैं बड़ा हूँ '' और आदर्श कहता था '' मैं ''। विवाद तय न हुआ। यथार्थ और आदर्श दोनों प्रजापति ब्रह्मा के समीप गए और कहा- '' भगवान् ! आपने ही हमें किया है, अब निर्णय दें, हम दोनों में बड़ा कौन हैं ?'' प्रजापति थोड़ा गंभीर होकर सोचने लगे, फिर मुस्करा कर बोले- '' भाई ! बड़ा तो वही हो सकता है, जो आकाश और पृथ्वी दोनों में संबंध जोड़ दे। ''
यथार्थ ने अपना विस्तार करना प्रारंभ किया। पृथ्वी से ऊपर उठता ही गया, उठता ही गया, पर वह सूर्य को भी नहीं छू सका। उसने हार मान ली और आदर्श से बोला-'' अच्छा, अब आप यह करके दिखावें। ''
आदर्श आकाश को चला गया और वहीं से अपने पैर बढ़ाकर धरती को छूने का प्रयत्न करने लगा, पर वह बीच में ही लटककर रह गया। दोनों ने सिर झुकाकर प्रजापति के सामने अपनी- अपनी हार स्वीकार की। ब्रह्माजी ने कहा-'' यों हार मान जाओगे, तो तुममें से एक भी जीवित न बचेगा। जाओ, अब थोड़ा मिलकर प्रयत्न करो।'' यथार्थ और आदर्श भाई- भाई की तरह मिले और दोनों ने पृथ्वी- आकाश को जोड़ दिया। प्रजापति यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले-'' वत्स ! तुम्हारा बड़प्पन परस्पर प्रतिद्वंद्वी बनने में नहीं, सहयोगी बनने में है। ''
जिसने जितने में यथार्थ और आदर्श का समन्वय किया, वही अपने स्तर से उच्चतम स्थिति तक बढ़ सकता है। यह बात समान रूप से समुदाय में व्यक्ति- व्यक्ति में पाई जाने वाली भिन्नता पर लागू होती है। श्रेष्ठ कर्मों के आधार पर ही व्यक्ति श्रेष्ठ एवं श्लाघ्य पद प्राप्त करता है।
नीच कुल में जन्मे, पर कर्म से ऋषि
मत्स्य पुराण अध्याय ४ में लिखा है, मनु के पुत्र वामदेव थे। वामदेव के पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हुए महाभारत के शांति पूर्व अध्य्याय २९६, श्लोक १४, १५, १६ में पाराशर ऋषि कहते हैं- हे राजन् ! श्रृंगी ऋषि, कश्यप, वेद, ताण्ड्य, कृप, कमठ, कक्षीमान, यवकीर्ति, द्रोण, आयु, मातंग, दत्त द्रुपद, मात्स्य आदि बहुत से ऋषि नीच कुल में उत्पन्न हुए थे, तिस पर भी वे तप, अध्ययन और आचरण को अपनाकर मान्य ऋषि हुए।
मत्स्य कन्या से व्यास
ब्रह्मवेत्ता महर्षि व्यास धीवर के पुत्र थे। उनकी माता सत्यवती धीवर कन्या थी। मछली व्यवसाय घर में होने से उनके शरीर से भी मछली की गंध आती थी, इसलिए उसे मत्स्यगंधा भी कहते थे। मुनि पाराशर उस पर आसक्त हो गए। दोनों के संयोग से व्यासजी की उत्पत्ति हुई। जिन्होंने तप और ज्ञान का भंडार जमा किया। अठारह पुराणों की रचना की।
व्यास का कैवर्त्त स्त्री से विवाह
भविष्य पुराण ब्रत्य पर्व अध्याय ४२, श्लोक २२, २३, २४ में लिखा है- व्यास जी ने कैवर्त्त स्त्री से विवाह करके संतान को जन्म दिया। शुकी से शुकदेव, उल्की से कणाद, मृगी से श्रृंगी और गणिका से वशिष्ठ पैदा हुए। शांतनु ने कैवर्त्त कन्या से विवाह किया था।
द्रोणाचार्य की उत्पत्ति
महर्षि भारद्वाज घृताची नामक एक अप्सरा पर आसक्त हो गए। उसे लेकर द्रोणाचार्य पर्वत पर रहने लगे। उसके गर्भ से द्रोणाचार्य उत्पन्न हुए, जिनमें माता और पिता दोनों के गुणों का समावेश था। उसे ब्रह्मक्षत्र कहा गया।
कर्म से महान् बने ऐतरेय
इतरा यों उत्पन्न तो शूद्रकुल में हुई थी, पर उसे महर्षि शाल्विन की धर्मपत्नी बनने का सुयोग मिल गया। उसके एक पुत्र भी था।
एक बार राजा ने बड़ा यज्ञ आयोजन किया। उसमें सभी ब्राह्मणों और ब्रह्मकुमारों का सत्कार हुआ। सभी को दक्षिणा मिली। किन्तु इतरा के पुत्रों को '' शूद्र '' कहकर उस सम्मान से वंचित कर दिया गया।
शाल्विन बहुत दुःखी हुए। इतरा को भी चोट लगी। बच्चा भी उदास था।
इस असमंजस ने एक नया प्रकाश दिया। तीनों ने मिलकर निश्चय किया कि वे जन्म से बढ़कर कर्म की महत्ता सिद्ध करेंगे।
शिक्षण का नया दौर आरंभ हुआ। इतरा पुत्र ऐतरेय को धर्मशास्त्रों की शिक्षा में पारंगत कराया गया। देखते- देखते वे अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे। एक बार वेद ऋचाओं के अर्थ करने की प्रतिस्पर्धा हुई। दूर- दूर देशों के विद्वान् और राजा एकत्र हुए।
प्रतियोगिता में सभी की पांडुलिपियाँ जाँची गई। सर्वेष्ठ ऐतरेय घोषित किए गए।
इतरा शूद्र थी। उसके पुत्र ने पिता के नाम पर नहीं, माता की कुल परंपरा प्रकट करने के लिए अपना नाम '' ऐतरेय '' घोषित किया। '' ऐतरेय ब्राह्मण '' वेद ऋचाओं के भावार्थ को प्रकट करने वाला अद्भुत ग्रंथ है। उसका सृजेता जन्म से शूद्र होते हुए भी, पुरुषार्थ से '' ब्राह्मण '' बना।
नारद ने शूद्रा माता के पेट से जन्म लिया था
एक कल्प में नारद गंधर्व थे। वे गायन- वादन में प्रवीण महिलाओं के बीच निरंतर घिरे रहते थे। ब्रह्माजी की सत्संग सभा में वे पहुँचे, तो भी महिला मंडल उन्हें घेरे हुए था। ब्रह्माजी को यह व्यवहार आशिकों जैसा लगा और उन्होंने उन्हें शूद्र होने का शाप दिया।
नराद दासी पुत्र के रूप में जन्मे। उनकी माता शूद्र परिवार की थीं , जो विद्वान् ब्राह्मणों की सेवा में निरत रहती थीं। उनकी विशेषताएँ बालक में प्रकट हुईं। बालक नारद को ब्रह्माजी का शाप वरदान सिद्ध हुआ। उनने अपनी आत्मप्रताड़ना से अपने व्यवहार में पूरी तरह परिवर्तन कर लिया। भगवद्भक्ति का उन्होंने रहस्य समझा और उसी तत्त्वदर्शन का प्रचार करने के लिए निकल पड़े। उनका व्रत था, ढाई घड़ी से अधिक वे कहीं भी खड़े न होंगे और धर्म प्रचार के लिए निरंतर परिभ्रमण करते रहेंगे।
भीम, घटोत्कच एवं वर्बरीक
भीम जब वनवास में थे, जब उनने हिडिम्बा नामक- असुर महिला से उपविवाह कर लिया। उसका पुत्र घटोत्कच हुआ, जो भीम जैसा बली था। उसने महाभारत में अपने पिता की बहुत सहायता की। घटोत्कच का बेटा वर्बरीक भी कम योद्धा नहीं था। इन बच्चों का पालन पिता की कृपा से नहीं, माता- दादी की छत्रछाया में हुआ था।
सूत पुत्र कर्ण
कर्ण सूत पुत्र थे। सूत वर्ण उन दिनों शूद्र- अछूतों में गिना जाता था, इसलिए उन्हें आए दिन व्यंग्य सुनने पड़ते थे, फिर भी वे कौरव सेना के वरिष्ठ सेनापति हुए। कर्ण ने कहा है, '' कुल- वंश में जन्मना मेरे हाथ में नहीं, पर अपने निजी पराक्रम से मैंने वरिष्ठता प्राप्त की है। इस प्रगति पथ को रोक सकना किसी के हाथ में भी नहीं है।
सच्चे संत नामदेव
महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक के क्षेत्र को भागवत धर्म में सराबोर कर देने में संत नामदेव का बड़ा हाथ है। वे जन्म से दर्जी थे, पर कर्म से पूजे जाने योग्य सम्मान पाए और शूद्र न रहकर ब्रह्मज्ञानियों की पंक्ति में विराजमान हुए।
कहते हैं कि नामदेव का आरंभिक जीवन अच्छा न था, पर वाल्मीकि और विल्वमंगल की तरह उनने भी अपने चिंतन और चरित्र का कायाकल्प कर लिया। वे अपने पुरुषार्थ से ही निर्वाह करते थे। दान के धन को उनने सदा अस्वीकार किया।
उनके गुरु एक कोढ़ी थे। उनकी सच्चे मन से सेवा करते और श्रीमुख से सेवाधर्म और चरित्रनिष्ठा का माहात्म्य सुनते। नामदेव भागवत धर्म का प्रचार तो करते रहे, पर उनने सदा यही कहा कि '' कथा- कीर्तन में सम्मिलित होने, गाने सुनने भर से किसी का उद्धार नहीं हो सकता। कल्याण प्राप्त करना है, तो आचरणों की शुद्धि और सेवा- भावना को महत्त्व देना चाहिए। '' पूजा से स्वर्ग मिलने मात्र से जो लोग भगवान् मिलने की बात कहते थे , उनसे संत नामदेव का मत नहीं मिलता था। वे कर्मयोग को प्रधानता देते थे ।
शरीर से शूद्र , मन से ब्राह्मण
महाराष्ट्र में इंद्रायणी नदी के तट पर बसे हुए, देदूगाँवं में संत तुकाराम का जन्म हुआ। उन्हें जन्म से शूद्र कहा जाता है पर वे अपनी सत्प्रवृत्तियों तथा सेवा- साधना में निरत रहने के कारण सर्वाेच्च वर्ण के माने गए। उन्होंने अभंग छंदों में प्रायः ८००० कविताएँ लिखी हैं। वे कीर्तन कला में प्रवीण थे। जन सेवा का कोई अवसर हाथ से न जाने देते थे। उनके जीवन का अधिकांश भाग धर्म प्रचार के लिए परिभ्रमण में बीता।
उन दिनों देश का अधिकांश भाग पराधीन हो चुका था। आक्रांताओं के जमे कदम उखड़ने में न आ रहे थे। भयभीत लोग अपनी जान बचाने के लिए विधर्मी बनते जा रहे थे। ऐसे दुर्दिनों में जनता का मनोबल बनाए रहना आवश्यक था। '' हारे को हरिनाम '' की उक्ति को सार्थक करने के लिए उन दिनों के संतों ने कीर्तन को माध्यम बनाया और धर्म प्रचार के माध्यम से जन- साधारण को धैर्य न खोने, भगवान पर विश्वास करने और उज्ज्वल भविष्य की संभावना अनुभव कराने का प्रयास किया। संत तुकाराम भी उसी संत संप्रदाय में से थे। उनका प्रयास आरंभ से अंत तक चलता रहा।
तुलसीदास के असवर्णी मित्र
गोस्वामी तुलसीदास की रामाज्ञा प्रश्न रचना में, उनके सत्संग में सम्मिलित होने वालों तथा मित्रों का विवरण है। उनमें काशीनाथ पंडित, भगवान ब्राह्मण, समरसिंह राजपूत आदि द्विजों को छोड़कर शेष सभी असवर्ण समझे जाने वालों की नामावली है। उनमें कैलाश चारण, उज्जैनीदास, बजंतरी, भजन ग्वाला, सियाराम तमोली, गोधी गौड़, हरी हलवाहा, मीर ढाढी़, जसन जुलाहा आदि का विशेष रूप से उल्लेख है।
यथार्थवादी स्वामी रामानंद
काशी के प्रख्यात स्वामी रामानंद संप्रदाय से वैष्णव थे, पर उनने उन दिनों प्रचलित छूत- अछूत प्रथा को सर्वथा अमान्य किया। कबीर, रैदास आदि उन्हीं के शिष्य थे।
कर्मयोगी रैदास
रैदास कबीर के समकालीन थे। कबीर जुलाहे के यहाँ पले और रैदास चमार परिवार में जन्मे, दोनों की दृष्टि एक थी, तत्कालीन वर्णभेद के नाम पर चल रही अनीति का उन्मूलन करना। वे कर्म को ही ऊँच- नीच का आधारभूत कारण मानते थे। यही दूसरों को भी समझाते थे।
रैदास ने जूते बनाने का काम जीवन भर जारी रखा। कर्मयोग का चमत्कार दिखाने के लिए उनने कठौती में गंगा प्रकट कर दी। उनने अपना कार्यक्षेत्र राजस्थान बनाया और चित्तौड़ को अपने लिए उपयुक्त स्थान चुना। मीरा उनकी शिष्या थीं। उनके पवित्र जीवन तथा उच्चस्तरीय तत्वदर्शन से प्रभावित होकर अनेक उच्चकोटि के व्यक्ति उनके अनुयासी बने। '' रैदास पुराण '' में उनके अनेक चमत्कारों का वर्णन है। जीवन काल में उनने सबसे यही कहा- '' चमत्कारों के आधार पर किसी को सिद्ध पुरुष न मानो, अन्यथा बाजीगर बाजी मार ले जाएँगे और जो तपस्वी, सेवाभावी, मिथ्याडंबर नहीं रच सकते, प्रभावहीन बने रहेंगे और अपने विचारों का लाभ संसार को न दे सकेंगे। '' रैदास १२५ वर्ष तक जीवित रहे।
प्रचलन को पलटने वाले संत कबीर
परिस्थितियों की सर्वथा विपरीतता से लोहा लेते हुए कबीर ने पंडितों के गढ़, काशी में बिना किसी संकोच- झिझक के जाति- पाँति के प्रचलनों से लोहा लिया। कर्मकांड की प्रधानता के स्थान पर सदाचार और परोपकार का प्रचार किया। वे आजीविका के लिए अपना पैतृक धंधा जुलाहे का काम करते थे और दक्षिणा की आशा नहीं करते थे। उनके कथन इतने ओजस्वी होते थे कि उन्हें हिंदू- मुसलमान सभी पसंद करते थे। वे गृहस्थ थे और कहते थे कि धर्म- धारणा के लिए विरक्त होना ,आवश्यक नहीं।
यह मान्यता प्रचलित थी कि काशी में मरने वाला स्वर्ग पाता है और मगहर में मरने वाले गधा बनते हैं। इस मिथ्या मान्यता को निरस्त करने के लिए वे मरण काल में मगहर चले गए।
हिंदू- मुसलमान दोनों ही उन पर समान श्रद्धा रखते थे। मरण के उपरांत उनके बचे हुए फूलों में दोनों ही संप्रदाय के लोगों ने अपनत्व दिखाया और स्मारक बनाए।
संतों की कोई बिरादरी नहीं होती नाभा जी डोम वर्ण के थे। पर वे थे संत। संतों की कोई बिरादरी नहीं होती- यह सोचकर उनने ब्राह्मण संत तुलसीदास जी को अपने यहाँ एक भोज में आमंत्रित किया। तुसीदास ने स्वीकार कर लिया ,पर नियत तिथि पर उस बात को भूल गए। रात्रि गए जब उन्हें स्मरण आया, तो दौड़ते हुए नाभा जी के यहाँ पहुँचे। भोजन समाप्त होने को ही था, सो जो कुछ बचा था, उसी का उनने प्रसाद ग्रहण किया।
कोई अपवित्र नहीं
माता शारदामणि के सत्संग में एक महिला आती थीं, जिसका चरित्र अच्छा न था। इस पर भक्तों ने आपत्ति की कि इसे सत्संग में नहीं आने देना चाहिए। माताजी ने कहा-'' बच्चो ! क्या गंगा किसी से कहती है कि तुम बहुत मैले- कुचैले हो , मेरे जल में प्रवेश न करो। किसी के संग से कोई उठता- गिरता नहीं। अपना अंत: करण ही उठाता और गिराता है। ''
क्रांतिकारी बाबा आम्टे
भारत के जाने- माने वकील और कुष्ठ रोगियों की सेवा में लगे मुरलीधर देवीदास आम्टे को उनकी सार्वजनिक सेवाओं के लिए १९८५ का रेमन मैगसाय एवार्ड दिया गया। यह एवार्ड एशिया में नोबुल पुरस्कार की तरह ही है।
बाबा आम्टे ने युवावस्था में ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था से विद्रोह करना शुरू कर दिया था। महाराष्ट्र की कुलीन जाति एवं संपन्न परिवार में जन्मे श्री आम्टे ने भारत की जाति प्रथा के खिलाफ पहला विद्रोह किया और अछूतों के साथ खाना- पीना शुरू कर दिया।
७१ वर्षीय श्री आम्टे ने वकालत की, लेकिन यह पेशा उन्हें रास न आया। उनका मन कुछ महान् कार्य करने को मचलने लगा। उन्होंने वकालत की डिग्री और संबंधित कागजातों को फाड़ दिया तथा विरासत में मिली संपन्नता को छोड़कर अपने परिवार के साथ छः कुष्ठ रोगियों और एक गाय को लेकर उन्द्रपुर जिला चले गए। १९५१ में वहाँ एक बंजर पड़ी जमीन पर उन्होंने '' आनंद वन '' की स्थापना की।
संत, जो बागी बना
गोवा क्षेत्र में पुर्तगालियों के अत्याचार चरम सीमा पर पहुँच गए थे। जनता को ईसाई बनाने के लिए प्रलोभन और उत्पीड़न दोनों को अपनाया जाता था।
इन दिनों उस क्षेत्र में पूजा- पाठ में संलग्न रहने वाले संत गौरीनाथ से न रहा गया। वे विद्रोही बन गए। पूजा- पाठ रास्ता चलते कर लेते और दिन भर जनता में विद्रोह की आग भड़काते। उनकी छापामार मंडली ने अत्याचारियों के नाकों दम कर दिया। उनके पैर उखड़ने लगे।
अपनों के ही विश्वासघात से संत पकड़े गए। उन्हें आधा जमीन में गाड़कर ऊपर से शिकारी कुत्ते छोड़े गए। इस प्रकार उत्पीड़न देते हुए उनके प्राण लिए गए। उसी दिन से पुर्तगालियों के पाप उनकी जड़ें खोखली करने लगे। जनता के असहयोग से अंततः उन्हें यहाँ से विदा ही होना पड़ा।
ईसाई संस्कृतज्ञ
गोवा के डॉक्टर गोमेज यों जन्म से ईसाई थे। उनने अपना धर्म बदला भी नहीं ! पर वे भारत के पूर्वजों की भारतीय संस्कृति का परिपूर्ण सम्मान करते थे। उनकी विद्वता असाधारण थी। वे देश में महत्त्वपूर्ण आयोजनों में तथा विदेशों में भी भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने पहुँचे। यों धर्म कीं दृष्टि से वे ईसाई धर्म के प्रति अपनी निष्ठा भी व्यक्त करते रहे। आठ वर्ष तक वे '' पुर्तगाल में गोआ का प्रतिनिधित्व करते रहे। मंत्री पद ठुकराकर उन्होंने अपना प्रचार कार्य जारी रखा। डेविस, जो दलित होते हुए भी जीवित संग्राम लड़ी
ऐंजिल डेविस वरमिंघम के निकट एक छोटे देहात में जन्मीं। नीग्रो परिवार में जन्मने के कारण उसे भी उन अभावों और अपमानों का सामना करना पड़ा, जो पद- दलित जातियों को करना पड़ता है। बचपन अध्ययन में बीता। उन्होंने एम० ए०, पी०एच०डी० किया। एक स्कूल में अध्यापिका बन गईं , पर इतना ही उसके लिए सब कुछ नहीं था। वह अपने जातीय पददलितों को मानवोचित अधिकार दिलाना चाहती थी। इसलिए उसने लूथर किंग के साथ मिलकर कितने ही रचनात्मक और संघर्षात्मक आदोलनों में हिस्सा बँटाया।
विवाह का विचार ही उसने छोड़ दिया।
आन्दोलनकारियों के सामने इतने महत्त्वपूर्ण काम रहते हैं कि वे विवाह बंधन में बँधे, तो उनकी आधी शक्ति तो घरेलू झंझटों में ही खप जाती है। फिर वे न घर से बाहर रह पाते हैं और न अर्थोपार्जन की जिम्मेदारियों से बच पाते हैं। उसे लूथर किंग के दाहिने हाथ की तरह काम करना था।
डेविस दृढ निश्चयी थी। अध्ययन कार्य के उपरांत उसका सारा समय समाज सुधार के काम में ही लगता था। वह कुछ ही घंटे सो पाती थी। आए दिन उसे गोरे किसी- न किसी षड्यंत्र का शिकार बनाते रहे। इन सबसे भी वह जूझती रही। पर चेहरे पर उदासी कभी नहीं आने दीं।
एक अद्भुत हाईकोर्ट जज
पेंसिलवानियाँ में जन्मी एडिथ सेम्पसन उस नीग्रो परिवार में जन्मी थी, जिन्हें भारतीय अछूतों से भी गई- गुजरी स्थिति में रहना और आए दिन गोरों का त्रास सहना पड़ता था। उनने अध्ययन काल में अपनी रुचि और एकाग्रता नियोजित की, फलतःवे एक सफल वकील बन सकी । इसके बाद शिकागो हाईकोर्ट का जज बनाया गया। उस अदालत में छोटे अपराधों के प्रायः ३० लाख मुकदमे आते थे,वे सभी निपटा देती थीं। हँसने-हँसाने की आदत और न्याय की पृष्ठभूमि समझने पर अधिकांश अपराधी स्वयं ही अपराध स्वीकार कर लेते और उचित दंड स्वेच्छापूर्वक सहते। गरीबों का समय अदालत का चक्कर काटने में नष्ट न हो, इसलिए वे प्रायः दो मिनट के औसत से मुकदमा निपटाती थीं। वकील करने की भी अधिकांश को जरूरत न पड़ती। वे जज की नहीं, परिवार की बुजुर्ग की भूमिका निभाती थीं।
प्रेसीडेंट ट्रमैन ने उन्हें राष्ट्र संघ में अमेरिका का प्रतिनिधि बनाकर भेजा। उच्च पद पर रहते हुए उनने अपने पिछड़े समुदाय को ऊँचा उठाने के लिए अनेक रचनात्मक कार्य किए।
जाति से तिरस्कृत,पर कर्म से श्रेष्ठ संत
नारी पुनरुत्थान के पुनीत कर्म में लगे हुए महर्षि कर्वे ने अपने रिश्ते की एक बाल विधवा से सादी कर ली । उन दिनों रुढ़िवाद की जड़ों पर किसी ने चोट भी नहीं की थी और वे हिली भी नहीं थीं ।
पंचों ने कर्वे को जाति बहिष्कृत कर दिया। एक बार वे मंदिर गए। बहिष्कृत को सामूहिक आयोजन में सम्मिलित क्यों होने दिया जाय ? आवाजें उठीं और उन्हें वहाँ से हटा दिया गया।
कर्वे ने कहा- '' यह तो भगवान् का द्वार है। जब दूर से चांडाल भी दर्शन कर लेता है। तो मुझे क्यों रोकते हो ?'' इतनी नम्रता का भी तिरस्कार ही हुआ। महर्षि के तर्क उन पाषाण हृदयों को प्रभावित न कर सके और उन्हें प्रवेश न मिला। पर धैर्य और लगन ने चमत्कारी कार्य किया। उन्हीं महर्षि कर्वे के प्रयत्न से महाराष्ट्र आज नारी प्रगति में अग्रणी है। उनकी संस्था में सहस्रों नारियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर समाज सुधार के आंदोलन को गतिवान बनाने में संलग्न है।
विगत प्रयास एवं भावी संभावनाएँ
प्राचीनकाल में वर्ण परिवर्तन के अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनमें कर्म परिवर्तन के आधार पर वर्ण बदले हैं। विवाह भी अनुलोम- प्रतिलोम होते रहे हैं। अर्थात् छोटे वंश वालों की लड़कियाँ बड़े वंश में ब्याही गईं और बड़े वंश वालों की लड़कियों ने छोटे वंश में विवाह किया। यह हेरा- फेरी समाज को मान्य होती रही है। प्राचीनकाल मैं इस कुप्रथा का विरोध नहीं हुआ, ऐसी बात नहीं। अनेक वर्णों और व्यक्तियों ने इसका डटकर विरोध किया। बौद्ध, जैन, सिख आदि हिंदू धर्म की ही शाखाएँ हैं, पर उनमें जाति- पाँति का भेदभाव नहीं है। भक्ति मार्गी संत पुरुष भी इसे अस्वीकार करते रहे हैं। परशुराम ने केरल में मछुआरों को यज्ञोपवीत देकर ब्राह्मण बनाया था। हर विचारशील ने विरोध किया। वर्तमान कानून भी इस प्रचलन का विरोधी है। सामान्य विवेक भी इसका औचित्य किसी प्रकार स्वीकार नहीं करता। मध्यकालीन कट्टरता घट रही है और विश्वास किया जाना चाहिए कि यह प्रथा देर तक न रहेगी।
जन्म- जाति का क्रम अब आगे नहीं चलने वाला
अब कर्म बंधन की कोई निर्धारित रेखा नहीं रही। कोई भी अपना व्यवसाय बदल सकता है। इस प्रकार एक व्यक्ति एक ही जीवन में कितने ही वर्ण बदल सकता है। तब वह विभाजन एक प्रकार से निरर्थक ही हो गया। अब हमें मानवी समता का सिद्धांत ही अपनाकर चलना चाहिए। जो पिछड़ गए हैं ,उन्हें ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना चाहिए ,न कि उनसे घृणा करके दूर ही धकेलते चलें।