Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-1
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प्रारब्धं ज्ञानसत्रं तु चतुर्थस्य दिनस्य च। पूर्ववत् सन्निधौ तत्र प्रकृते रम्यता भृत:।। १ ।। ज्ञानगोष्ठ्य शुभारम्भकाले चाऽध्यापकस्तु सः। शाण्डिल्य: करबद्ध: सन्नुत्थितोऽध्यक्षमुक्तवान् ।। २ ।।
भावार्थ- चौथे दिन का ज्ञान सत्र फिर पिछले दिन की भाँति ही प्रकृति के सान्निध्य में आरंभ हुआ। आज की ज्ञान गोष्ठी के शुभारंभ के अवसर पर प्राध्यापक शाण्डिल्य ने खड़े होकर सत्राध्यक्ष से करबद्ध होकर पूछा ।। १-२ ।। शाण्डिल्य उवाच-
देवालयस्थापनाया महत्वं देवसंस्कृतौ। दृश्यतेऽत्यधिकं सन्ति मन्दिराणि स्थले स्थले ।। ३ ।। बाहुल्यस्यास्य हेतुं तु ज्ञातुं सर्वे समुत्सुकाः। अनेके किं च गृह्णन्ति कष्टसाध्यं जना: समे ।। ४ ।। विधिं तं तीर्थयात्रायाः कालं वित्तं तथा श्रमम् । अर्पयन्येतदर्थं च को लभोऽनेन कीदृशः ।। ५ ।। कथं च तीर्थयात्रायाः शास्त्रकरैर्निरूपितम्। देवदर्शनसंभूतं महत्वं विपुलं तथा ।। ६ ।। तन्निमित्तं किमौत्सुक्यं धर्मप्रेमसु दृश्यते। जनेषु कृपयैतच्च रहोऽस्माकं विवोध्यताम् ।। ७ ।।
भावार्थ- शाण्डिल्य ने पूछा- हे महाभाग ! देवसंस्कृति में देवालयों की स्थापना का महत्त्व देखा जाता है । स्थान- स्थान पर अनेकानेक मंदिर बने हैं । इस बहुलता का क्या कारण है, सो जानने के लिए हम सब बहुत उत्सुक हैं । साथ ही यह भी जनना चाहते हैं कि तीर्थयात्रा की कष्टसाध्य प्रक्रिया को क्यों अनेकानेक लोग अपनाते हैं ? क्यों श्रम, समय और धन इस निमित्त लगाते हैं ? इससे उन्हें किस प्रकार क्या लाभ होता है ? शास्त्रकारों ने क्यों देव दर्शन और तीर्थयात्रा का इतना महत्त्व बताया है कि उनके निमित्त धर्मप्रेमियों में इतनी उत्सुकता पाई जाती है ? कृपया इस रहस्य का विस्तारपूर्वक उद्घाटन करें ।। ३- ७।।
व्याख्या- सामान्य रूप से मंदिरों और तीर्थों का महत्त्व सब जानते हैं, किन्तु ऋषि उस मर्म को समझना चाहते हैं, जिस कारण शास्त्रों में और लौकिक प्रचलनों में इन्हें इतना महत्त्व दिया गया ।
भारतीय संस्कृति में तो इतना महत्व है ही, अन्य संस्कृतियों में, जिनमें मूर्ति प्रतीक पूजा को मान्यता नहीं दी गई, उनमें भी देवस्थलों, मस्जिदों, गिरिजाघरों स्तूपों, विहारों के रूप में देवस्थल बनाए गए हैं । इसी प्रकार कोई ऐसा संप्रदाय नहीं, कोई ऐसी संस्कृति नहीं, जिसमें तीर्थों की स्थापना तथा उनकी यात्रा को महत्व न दिया गया हो ।
तीर्थयात्रा की परिणति
एक बार दीनबन्धु एण्ड्रूज ने महामना मालवीय जी से भारत के प्रमुख तीर्थ एवं उनके संबंध में प्रचलित धारणा के बारे में जानना चाहा ।
महामना ने उत्तर दिया- ''हिंदू धर्म अनेक संस्कृतियों का संगम है, इसलिए मान्यताओं के अनुरूप तीर्थ भी अनेकानेक हैं। जिस प्रकार मुसलमानों में मक्का, ईसाइयों में यरुसलम, बुद्धों में बुद्ध गया आदि तीर्थ हैं। वैसे कोई एक तीर्थ हिंदू धर्म में नहीं है। विभिन्न मतों के अनुसार तीर्थों की जानकारी इस प्रकार है-
चार धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंगें, इक्कीस गणपतिं क्षेत्र, चौबीस शक्तिपीठ, ५१ सिद्ध क्षेत्र, सप्त पुरियाँ, पंच काशी, सप्त सरिता, सप्त क्षेत्र, पंच सरोवर, नौ अरण्य, चतुर्दश प्रयाग, ४२ श्राद्ध तीर्थ, ४० दिगम्बर जैन तीर्थ, ३० श्वेताम्बर जैन तीर्थ एवं सात बौद्ध तीर्थ।
इनके अतिरिक्त सभी संप्रदायों में अपने- अपने मठ, देवालय, स्मारक हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव, रामानंदी, कृष्ण तीर्थ, हनुमान तीर्थ, लिंगायत आदि के भी कितने ही तीर्थ हैं।
सिख धर्म में प्रमुख देवालय ३५ हैं। इसके अतिरिक्त निराकारवादी, भक्तिमार्गी, वेदांती आदि के विभिन्न तीर्थ हैं। इन सबकी संख्या गिनने पर ३००० के लगभग प्रमुख और ७००० के लगभग अपने- अपने क्षेत्रों में प्रख्यात और मान्यता प्राप्त तीर्थ हैं । यह भारत के कोने- कोने में फैले हुए हैं।
इसके अतिरिक्त मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य धर्मावलंबियों के तीर्थों की संख्या अतिरिक्त है।
तीर्थयात्रा में धर्म प्रचारक की पद यात्रा और अनुभव तथा आरोग्यवर्धन के लिए पर्यटन यह दो आधार प्रमुख हैं। उनसे जो प्रत्यक्ष लाभ होते हैं। उन्हीं को उनका माहात्म्य तथा प्रतिफल कह सकते हैं। स्वर्ग, मुक्ति, पाप- नाश, देव अनुग्रह के लिए पुण्य- परमार्थ के कार्य करने पड़ते हैं। वह प्रयोजन प्रतिमा दर्शन, जलाशय स्नान एवं छुटपुट कर्मकाण्डों के सहारे संभव नहीं। इनसे सत्कर्मों की प्रेरणा भर मिलती है। वह कार्यान्वित हो, तो ही स्वर्ग मुक्ति आदि मिलने की संभावना है।
देवालयों की श्रृंखला
लोकमान्य तिलक से एक जिज्ञासु ने कहा- '' आजकल धर्म चेतना का लोप हो रहा है, फिर आप धार्मिक आधार पर जन जागरण की बात क्यों करते हैं ?''
तिलक ने कहा-'' यह बात ठीक है कि धर्म भावना का ह्रास हुआ है, पर जन सामान्य की आस्था और इस गई गुजरी स्थिति में भी धर्म का प्रभाव समझना हो, तो मंदिरों का सर्वेक्षण करो। आज राजतंत्र सबसे साधन संपन्न है, परंतु गाँव- गाँव, मोहल्ले- मोहल्ले राजकीय कार्यालय, चौकियाँ आदि उतनी सघन नहीं हैं, जितने सघन मंदिर देवस्थल हैं। जिस प्रयोजन से देवस्थल बनाए गए हैं, उनका सही निर्वाह होने लगे, तो जन जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन संभव है।
संख्या ही नहीं महत्त्व भी
देवालयों और तीर्थों का महत्त्व देवसंस्कृति में असाधारण कहा गया है।
मनु का मत है-'' जिस क्षेत्र में देवस्थल नहीं , जहाँ उनके प्रति श्रद्धायुक्त नमन नहीं, वहाँ आसुरीं प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार पनपने लगती हैं जैसे सीलन भरे स्थान पर काई।''
जगद्गुरु शंकराचार्य ने पंडित मंडन मिश्र को दीक्षा देने के बाद कहा था- '' देवभूमि भारत में देवमानवों का उत्पादन बढ़ाना है, तो देवस्थलों को प्राणवान बनाने का विशेष अभियान चलाना होगा। ''
विष्णु स्मृति में लिखा है-'' महापातकी और उपपातकी को शुद्ध करने के दो ही प्रभावी साधन हैं- ' यज्ञ और तीर्थ सेवन ''। ''
अथर्ववेद में उल्लेख है- ' '' जिस प्रकार यज्ञ कर्ता, यज्ञ के माध्यम से बड़ी- बड़ी आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करता है। उसी प्रकार श्रद्धालु तीर्थयात्रा, तीर्थसेवन द्वारा निष्पाप बनता है और पुण्यलोकों को अधिकारी बनता है। '' इतनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ मात्र मूर्ति दर्शन अथवा स्थान विशेष की रज या जल के स्पर्श मात्र से नहीं हो सकती। ऋषि उस तत्व को समझना, समझाना चाहते हैं , जिससे यह सब उपलब्धियाँ निश्चित रूप से प्राप्त हो सकती हैं।
कात्यायन उवाच-
अस्ति श्रेयस्करी विद्वन ! जिज्ञासा भवतस्त्वयम्। ये श्रोष्यन्ति समाधानं त्वस्य प्रश्नस्य ते जना: ।। ८ ।। लाभान्विता भविष्यन्ति लक्ष्य प्राप्स्यन्ति जीवने। भवद्भिः सावधानैश्च श्रूयतां सर्वमादितः।। ९ ।। संन्यासिनो वानप्रस्था उभयोर्मिलितस्तु सः। समुदाय इह प्रोक्त: साधुरित्यविशेषतः ।। १२ ।। अस्य वर्गस्य दिव्या सा प्रखरता देवसंस्कृतिम्। प्रखरां व्यापिकां चक्रे तथैव च समुन्नताम् ।। १३ ।।
भावार्थ -देवसंस्कृति के भारवाहक, उद्घोषक, प्रवक्ता वर्ग को ब्राह्मण कहते हैं। उनके दो वर्ग हैं- आश्रमवासी और पर्यटक। आश्रमवासियों को मुनि- मनीषी कहते हैं और परिव्राजकों को वानप्रस्थ संन्यासी इन दोनों का सम्मिलित समुदाय ' साधू' नाम से जाना जाता है इस वर्ग की प्रखरता ने ही देवसंस्कृति को समुन्नत प्रखर और व्यापक बनाया है ।। १० -१३।।
व्याख्या- ऋषि चर्चा का उद्देश्य लोकहित ही रहा है। सामान्य व्यक्ति मुख्य प्रश्न खोज भी नहीं पाते। ऋषि चाहते हैं कि जो लाभ देवस्थलों और तीर्थों के सेवन से प्राप्त होने का उल्लेख शास्त्रों में है, वह सबको प्राप्त हो। इसीलिए वे ध्यान से सुनने, अपनाने और जीवन लक्ष्य पाने का संकेत करते हैं।
संस्कृति का सम्मान तभी बढ़ता है, जब वह हर स्तर के व्यक्तियों द्वारा अपनाई जाय, उन्हें हर क्षेत्र में उन्नति, सद्गति का अधिकारी बना दे। रात, ऋषि वर्ग के महामानवों ने अपने तप- पुरुषार्थ से देवसंस्कृति के महान सिद्धांतों का समावेश हर स्तर पर सफलतापूर्वक कराया । इससे अपनाने वालों का भी कल्याण हुआ और संस्कृति का गौरव भी बढ़ा।
दूसरे अध्याय में यह प्रकरण आ चुका है कि ब्राह्मण, साधु किसी वंश या वेष से नहीं, अंतरंग व्यक्तित्व से पहचाने जा सकते हैं।
माली नहीं संत
डॉ. महेन्द्रनाथ सरकार अपनी कार- से कहीं जा रहे थे। मार्ग में परमहंस स्वामी रामकृष्ण का आश्रम पड़ता था। जब वे पास से निकले, तो एक व्यक्ति को शांत चित्त बैठे देखा, उन्होंने समझा माली है, सो उससे फूल तोड़कर लाने को कहा, उस व्यक्ति ने बडी़ प्रसन्नता के साथ फूल तोड़कर दे दिए। डा. महेन्द्रनाथ चले गए। दूसरे दिन वे परमहंस से मिलने गए, तो यह देखकर अवाक् रह गए कि जिस व्यक्ति ने उन्हें बिना किसी अभिमान के आदरपूर्वक फूल दिए थे, वे माली नहीं स्वयं रामकृष्ण परमहंस ही थे।
नानक का वेष
पानीपत के शाहशरफ ने गुरु नानक को आमंत्रण भेजा। नानक की उन दिनों एक महान संत के रूप में ख्याति थी।
नियत समय पर नानक पानीपत पहुँचे। शाहशरफ का अनुमान था कि जिस तरह सामान्य संन्यासी सिर मुडाकर रखते हैं, उसी प्रकार गुरु नानक के भी बाल मुडे़- मुडा़ए होंगे। नानक के सिर में बाल देखकर वे अचकचाए। अपनी जिज्ञासा छुपा न सकने पर, उन्होंने पूछा- '' आपने बाल क्यों नहीं मुडा़ए ?'' नानक ने उत्तर दिया- '' शाहजी मुड़ना तो मन को चाहिए, सर मुड़ने से क्या होता है ?'' नानक की निश्छलता से शाह बहुत प्रभावित हुए।
ब्राह्मण साधु वर्ग ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सांस्कृतिक छाप डालने में सफलता पाई है। भारतीय इतिहास प्रकारांतर से उन्हीं का इतिहास है। कुछ उदाहरण-
राजतंत्र पर प्रभाव
सतयुग , त्रेता, द्वापर हर युग में राजतंत्र को अनुशासित, उपयोगी और सबल बनाए रखने में ऋषियों की सीधी भूमिका रही है, रघुवंशियों को वशिष्ठ जी का संरक्षण, मार्गदर्शन प्राप्त था। उसी का प्रभाव था कि न वे कहीं उच्छृंखल हुए और न कभी अनीति के सामने झुके। राजा जनक का तंत्र ऋषि शतानंद के मार्गदर्शन में चलता था। जनकल्याण के लिए वे सतत जागरूक रहे ।
गुप्त साम्राज्य को भारत का स्वर्णयुग कहा गया है । उसके निर्माण में चाणक्य की भूमिका सब जानते हैं । छत्रपति शिवाजी को नीति निष्ठ शासक बनाने में समर्थ गुरु रामदास का तंत्र ही सक्रिय था । बुंदेलखंड में शिवाजी जैसी सफलता छत्रसाल ने प्राणनाथ महाप्रभु के ही प्रभाव से प्राप्त की थी । भारत को स्वतंत्रता दिलाने में भी श्री अरविन्द, महर्षि रमण तथा महात्मा गांधी द्वारा उभारी गई सांस्कृतिक चेतना को प्रधान माना जाता है।
विज्ञान क्षेत्र में भारत
भारत विज्ञान के क्षेत्र में किसी समय सर्वोच्च था, यह बात आजकल के समस्त शोधकर्त्ता मानते हैं । उसमें भी इन्हीं देवमानवों की प्रधान भूमिका रही है । औषधि- चिकित्सा विज्ञान में चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि । भाषा विज्ञान में पाणिनि, व्यास आदि ।
भौतिकी एवं रसायन में कणादि, नागार्जुन, पिप्पलादि आदि ऋषियों के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त शिल्प, ज्योतिष, कृषि, संगीत, भाषा, विधि, वाहन आदि अनेक विज्ञान की शाखा- प्रशाखाओं की वह शोध उन्होंने की, जिसका लाभ आज भी समस्त संसार उठा रहा है। समाज विज्ञान, मनोविज्ञान, योग विज्ञान, भाव विज्ञान, धर्म विज्ञान आदि विचार की अगणित शाखा- प्रशाखाओं को उनने जन्म दिया। कितने वेद, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, लगनशील, कर्मठ एवं परोपकारी थे। नर- नारायण की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित करने की कितनी महान साधना की थी उन्होंने।
सामाजिक क्षेत्र में
महापुरुषों के निर्माण में, बिगड़ते हुए प्रवाह को सही दिशा की ओर मोड़ देने में भी इन्हीं महामानवों के कीर्तिमान मिलते हैं। हिरण्यकश्यपु असुर राजा था । उसके कारण सारे राज्य की जनता भयभीत थी और उसका कहा मानने के लिए विवश थी । नारद ने हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रह्लाद को ही अपने पिता के अनुचित कार्यों का समर्थन न करने तथा स्वतंत्र विवेक से कार्य करने के लिए तैयार किया। सर्वविदित है कि प्रह्लाद के विरोध और असहयोग ने ही आतताई हिरण्यकश्यपु के अत्याचारों का उन्मूलन किया ।
ध्रुव को उनकी सौतेली माँ ने अपने पिता की गोद से उतार दिया था। इससे खिन्न और निराश ध्रुव अपनी बालबुद्धि से प्रतिशोध लेने की बात सोच ही रहे थे किं नारद ने उन्हें संसार के पिता- परमपिता परमात्मा की गोदी में बैठने की दिशा दी। यों ध्रुव अधिक से अधिक अपने पिता के उत्तराधिकारी ही बन पाते परंतु देवर्षि नारद ने उन्हें अमृतत्व प्राप्त करने की दिशा दी। यह ध्रुव के मर्मस्थल को छूकर उनके '' जीवन का कायाकल्प ही कहा जा सकता है।
वाल्मीकि जब डाकू थे तो उनके उत्पातों को रोकने के सभी प्रयास विफल हुए। न उसका दमन संभव हुआ और न उससे त्रस्त व्यक्तियों की पीड़ा मिटी। नारद ने ही वाल्मीकि को समझाकर उसकी आस्थाओं को बदल कर नरपशु से नररत्न बना दिया। वही वाल्मीकि जो अपने पूर्व जीवन में हजारों व्यक्तियों का बध निर्ममता से कर चुके थे इतने कारुणिक बन गए कि एक पक्षी का मारा जाना तक न देख सके ।
इसी प्रकार अंगुलिमाल और आम्रपाली के जीवन में भी क्रांतिकारी परिवर्तन आया ।अंगुलिमाल भी भयंकर दस्यु था ।गौतम बुद्ध ने उसकी आस्थाओं में परिवर्तन लाकर उसे महाभिक्षु महान संत बना दिया ।आम्रपाली एक वेश्या थी और जीवन भर लोगों को वासना के मलिन पाप पंक में लथोड़ने का काम करती रही ।परंतु बुद्ध से क्षण भर के वार्तालाप ने उसे साध्वी बना दिया ।
कबीर का रूढ़िवादिता विरोधी अभियान, तुलसी का भक्ति मार्ग से कर्तव्य बोध, चैतन्य महाप्रभु का पूर्व से पश्चिम एकत्व भाव की यात्रा, जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा देश के चार कोनों पर सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने वाले चार धामों की स्थापना आदि सामाजिक दृष्टि से असाधारण कार्य हैं ।
रंगदास , रंगनाथ को देख
श्री रामानुजाचार्य जी के समय में एक श्रीमंत सेठ थे रंगदास। वे एक रमणी वैश्या पर बहुत आसक्त थे ।उसके सिर पर छाता लगाए रंगदास श्री रंगनाथ जी के मंदिर के पास से निकले । उसी समय रामानुजाचार्य जी मंदिर से बाहर निकले । यह दृश्य देखा तो सेठ पर तरस आई उसके पास गए, बोले- '' ओ रंगदास ! तू किस के रंग रूप पर दीवाना हो रहा है ।देखना है तो रंगनाथ को देख जिसके रूप से सारा विश्व सुंदरता पाता है।
यह कहते हुए उन्होंने सेठ के मुँह पर एक थप्पड़ जड़ दिया। संत के स्पर्श से रंगदास को रंगनाथ की अनुभूति हो गई। उसके जीवन की धारा उसी दिन से बदल गई।
बुद्ध के तीन उपदेश
तथागत के स्वर्गवास का समय निकट आया जानकर उनके सभी दीक्षित शिष्य एकत्रित थे। उनकी आंतरिक दुर्बलताओं को वे समझ चुके थे। अवसर का लाभ उठाने की अभिलाषा उनकी मरी नहीं थी। चोरों का गिरोह बन जाने तथा अधिक दिनों एक स्थान पर रहने से वहाँ राग द्वेष भी क्षुद्र लोगों से पनपता है। उनने तीन उपदेश दिए- ( १) कोई श्रमण तीन दिन से अधिक एक स्थान पर न रहे, ( २) साथ रहने में तीन से अधिक की मंडली न बनाए, ( ३) श्रद्धा उत्पन्न करके भिक्षा ग्रहण करें। अपने को अनाथ या अधिकारी के रूप में प्रस्तुत करके किसी की अश्रद्धा भिक्षा ग्रहण न करें।
संतों का अविचल धैर्य
संत सांस्कृतिक अभियान में अविचल धैर्य के साथ प्रवृत्त रहते थे। एक बार भगवान बुद्ध मगधराज श्रीपाल के नगर में प्रवचन कर रहे थे। एक नागरिक ने प्रश्न किया- '' भगवन् ! आपके उपदेशों पर अमल कम लोग ही करते हैं, लेकिन आप फिर भी निराश नहीं होते। ऐसा क्यों ?''
महात्मा बुद्ध ने सरल भाव से उत्तर दिया-'' वत्स ! सुधारक का कर्तव्य सन्मार्ग की प्रेरणा देना है ,सफलता मूल्यांकन करना नहीं। जिन्हें सफलता की कामना होती है, वे वास्तविक संत नहीं होते। ''
महामानवसंज्ञाश्च मानवेभ्यः सदा त्विमे । देवसंस्कृतिपक्षस्थ विकासाभ्यासयोः कृते ।। १४ ।। सुविधा प्रददत्यत्र गृहस्था गुरुकुलस्य च। आरण्यकस्य मार्गेण विरक्तास्तीर्थयात्रया ।। १५ ।।
भावार्थ - ये महामानव मनुष्य मात्र को देव संस्कृति के अनुरूप अभ्यास और विकास की सुविधाएँ प्रदान करते थे। इनमें से गृहस्थ गुरुकुलों एवं आरण्यकों के माध्यम से तथा विरक्त तीर्थयात्राओं के द्वारा यह क्रम निभाते थे।।१४- १५।।
व्याख्या- ऋषियों ने साधु- संतों ने किस आधार पर भारतभूमि के निवासियों जो 'देवता' स्तर का बनाया था। यह उनके जीवन यापन की, रहन- सहन, आचार- व्यवहार की शोध करने पर प्रतीत होता है। उनमें से अधिकांश के विशालकाय आश्रमों में जो कुछ में गुरुकुल चलते थे, कुछ में आरण्यक। गुरुकुल ब्राह्मण वर्ग के ऋषि चलाते थे। और आरण्यक तपस्वी स्तर के। गुरुकुलों में विद्यार्थी पढ़ते थे और आरण्यकों में वानप्रस्थी। बच्चों को गुरुकुलों में इसलिए नहीं भेजा जाता था कि वहाँ कुछ अतिरिक्त पढ़ाई होती थी वरन वातावरण ही विशेषता को ध्यान में रखकर ही विचारवान व्यक्ति अपने बालकों को वहाँ पढ़ने भेजते थे। यद्यपि सुख- सुविधा की दृष्टि से वहाँ कठिनाई ही रहती थी। कठिनाई की परिस्थिति में जीवन विकास का प्रशिक्षण होना, विज्ञजनों की दृष्टि में एक सौभाग्य है। दरिद्रता में पिछडे़पन में कष्ट सहना एक बात है और आदर्शों के परिपालन की साधना के निमित्त तितिक्षा भरा जीवन यापन करना दूसरी। दरिद्रता के साथ जुड़ी हुई हीनता व्यक्तित्व को दबोचती है। किंतु आदर्श पालन के साथ जुड़े हुए कष्ट सहन से प्रतिभा और प्रखरता निखारने का अवसर मिलता है। प्राचीनकाल में गृहस्थ ब्राह्मणों के संचालकत्व में गुरुकुल चलते थे। बौद्धिक शिक्षण ऋषि करते थे और दुलार भर व्यवहार ऋषिकाएँ सिखाया करती थीं। ऋषि उनकी चेतना जगाते थे, ऋषिकाएँ उपयुक्त व्यवस्था बनाती। दोनों के सहयोग से ऐसे गुरुकुल चलते थे, जिनमें पढ़ने के उपरांत जो भी छात्र अपने घरों को लौटते थे, नर रत्न होते थे। उनमें महामानवों के सारे गुण भरे रहते थे। व्यवसाय की दृष्टि से वे जो भी करें, परिष्कृत व्यक्तित्व जुड़ा रहने के कारण वे सामान्य काम भी व्यक्ति और समाज की सुख- शातिका सर्वतोमुखी अभिवर्धन करते थे।
लक्ष्मण जी ने महर्षि विश्वामित्र से पूछा- ''गुरुवर ! आप ऋषिगण सबके कल्याण की कामना से तप करते हैं, किसी का अहित नहीं चाहते, फिर क्यों असुर आपको सताते हैं ?'
महर्षि बोले- ''हे तात ! असुर सबका कल्याण नहीं, अपनी मनमानी चलाना चाहते हैं। आश्रमों में जो श्रेष्ठ व्यक्तित्व तैयार होते हैं, उनके बीच असुरों को अपनी माया चलाने में कठिनाई होती है। इसीलिए वे देव संस्कृति के विकास स्रोतों इन आश्रमों पर प्रहार किया कुरते हैं ।
गुरुकुल वासियों के अतिरिक्त संतों की कितनी मंडलियाँ प्राय: परिभ्रमण करती रहती हैं ।आश्रम बनाकर एक ही स्थान पर जमे रहने वाले आचार्य तो केवल वे ही होते थे जो शोध कार्य चलाते थे, उन्हीं के लिए स्थान विशेष पर अपना अन्वेषण केन्द्र, प्रयोग- परीक्षण चलाने की सुविधा मिलती थी।शेष सभी संत,धर्म प्रचारक की भूमिका निभाते थे। परिव्राजक स्तर का ही उनका स्वरूप और कार्यक्रम रहता था ।रामायण में लिखा है-
सलमान निरादर आदर ही सम संत सुखी विचरंत मही ।।
पथिक का भय मिटा
अंधेरी रात में दो यात्रा कर रहे थे ।एक लालटेन थी, उन दोनों का ही काम दे रही थी ।चलते- चलते वे एक ऐसे स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ से दोनों के रास्ते अलग- अलग होते थे ।जिसकी लालटेन थी वह प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ गया, दूसरे ने जो अंधकार देखा तो आगे बढ़ने का साहस टूट गया ।
क्या करे, क्या न करे वह इसी चिंता में था कि पास की एक कुटी से साधु निकले, साधु एक भजन गा रहे थे, जिसका अर्थ होता था-'' हे प्रभु ! मेरे अंतर का दीपक जला दो जिससे संसार का अंधेरी पथ सुविधापूर्वक तय कर लूँ ।''
युवक ने बढ़कर साधु के पैर पकड़ लिए और बोला- '' भगवन् ! क्या कोई ऐसी भी ज्योति है जो हर घडी़ पास रहती हो और कभी न बुझती हो ?'' साधु ने एक शिला पर बैठते हुए कहा- '' क्यों नहीं वत्स ! आत्मा स्वयं प्रकाश रूप है । बल, बुद्धि, तेज, साहस, संतोष यह सब आत्मा का ही प्रकाश है, तू उसे प्रज्ज्वलित कर और बढ़ जा आगे, संसार में भय किस बात का ?''
संत के आत्मविश्वास भरे वचनों से युवक को नई चेतना का अनुभव हुआ ।वह निर्भय होकर आगे बढ़ गया ।
गुरु दक्षिणा के लिए प्रव्रज्या
सविता देवता से ब्रह्म विद्या ग्रहण कर याज्ञवल्क्य ने प्रार्थना की-'' गुरुदेव आपके अनुग्रह से मैं कृतार्थ हुआ ।मुझे जीवन का रहस्य ज्ञात हो गया ।जगत का स्वरूप विदित हो गया ।अब गुरु दक्षिणा का आदेश दें ।''
सविता ने कहा-'' जिस प्रकार मैं अपनी अंतः ज्योति संपूर्ण संसार में वितरित करता रहता हूँ, उसी प्रकार तुम ज्ञान ज्योति सर्वत्र वितरित- करो। जिस प्रकार मैं अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर देने वाले बादलों को, समुद्र से भाप ला- लाकर समृद्ध बनाए रखता हूँ ,उसी प्रकार तुम क्रियाशील कर्तव्यनिष्ठ लोगों तक यह वेद विद्या, वेदज्ञान पहुँचाओ ताकि वे सन्मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा पाते रहें ।इस प्रकार ज्ञान यज्ञ की प्रक्रिया को आगे बढ़ाओ ।यही मेरी दक्षिणा है ।
निर्वहन्ति क्रमं चैनं तत्र देवालया इमे । आश्रमेषु पुरेष्वेवाभूवन् ग्रामेषु तेषु च ।।१६ ।। एतेषामुपयोगश्च श्रद्धाया वृद्धये तथा । सदाचारस्य वृद्धयर्थं भवन्ति स्म निरन्तरम् ।।१७ ।।
भावार्थ -देवालय भी ऐसे ही उद्देश्यों के लिए आश्रमों में, नगरों और ग्रामों में भी होते थे। इनका उपयोग श्रद्धा एवं सदाचार संवर्द्धन के लिए सदैव होता था ।।१६ -१ ७ ।।व्याख्या- धर्म केन्द्र एक क्षेत्र में विनिर्मित होते और उनके द्वारा धर्म धारणा को जीवंत रखने का उत्तरदायित्व दूर- दूर के क्षेत्र में सधता है ।जिलाधीश पूरे जिले को संभालता और तहसीलदार अपनी तहसील को ।इसी प्रकार धर्म क्षेत्र की सुव्यवस्था, उपयोगिता एवं सर्वतोमुखी प्रगति साधना में छोटे- बड़े धर्म केन्द्रों को निरस्त रहना पड़ता है ।इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए तत्त्वदर्शियों ने उनकी स्थापना की थी ।
धर्म संस्थानों के दो रूप हैं, एक स्थानीय, क्षेत्रीय, सीमित ।दूसरा व्यापक, समर्थ एवं बहुद्देशीय ।क्षेत्रीय 'देवालय' कहलाते हैं और सुविस्तृतों को 'तीर्थ' कहते हैं ।भगवान सर्वव्यापी होने से निराकार है ।पर उनकी साकार स्थापना इसलिए करनी पड़ती है कि सूक्ष्म दर्शन में असमर्थ सामान्य बुद्धि को प्रत्यक्ष दृश्य देखकर स्मरण हो उठे, आकर्षण बढे़ और प्रेरणा जगे । देवालयों की स्थापना इसलिए होती है, कि उन केन्द्रों से संपर्क रखने वालों को संपर्क साधते रहकर आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी का नियमित रूप से अवगाहन करने का अवसर मिलता रहे । प्रात: से लेकर सायंकाल तक देवालयों में चलने वाली गतिविधियों का उद्देश्य यही था कि उस क्षेत्र में समुदाय का लोक मानस श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा की दृष्टि से उच्चस्तरीय बना रहे । सर्वजनीन चिंतन एवं चरित्र का उत्कृष्टता के साथ सघन संबंध बना रहे ।
वेदांत और देवालय
नगर सेठ माणिक ने जगद्गुरु शंकराचार्य से पूछा-'' आचार्य वर ! आप तो वेदांत के समर्थक हैं । भगवान को निराकार सर्वव्यापी मानते हैं। फिर मंदिरों की प्रदर्शनात्मक मूर्ति पूजा परक प्रक्रिया का क्यों समर्थन करते हैं ?''
आचार्य बोले-'' वत्स ! उस दिव्य सर्वव्यापी चेतना का बोध सबको अनायास नहीं होता । देवालयों में प्रातः संध्या संधिकाल से, शंख घंटों के नाद के साथ दूर- दूर तक उपासना के समय का बोध कराया जाता है । घर- घर उपासना के योग्य उपयुक्त स्थल नहीं मिलते, मंदिर के संस्कारित वातावरण में कोई भी जाकर उपासना कर सकता है । नैतिकता, सदाचार और श्रद्धा के निर्झरों के रूप में देवालय अत्यंत उपयोगी हैं । जन साधारण के लिए यह अत्यावश्यक है ।
काकभुशुण्डि को शाप
काकभुशुण्डि मंदिर में भगवान का नाम जप रहे थे और पूजा विधान में निरत थे । इस अहंकार में ग्रसित होकर उन्होंने गुरु आगमन पर प्रणाम करने का अपना धर्म कर्तव्य पालन नहीं किया, इस पर गुरु ने तो ध्यान नहीं दिया, पर भगवान शिव अति कुद्ध हुए । उनकी दृष्टि में पूजा का नहीं , कर्तव्य परायणता का महत्त्व है । वे धर्म मर्यादाओं का पालन कठोरतापूर्वक किए जाने की आशा अपने भक्त से करते हैं । उसमें प्रमाद करने पर कुद्ध होते हैं । काकभुशुण्डि की पूजा को महत्त्व न देते हुए भगवान शिव ने उनकी धृष्टता का बहुत बुरा माना और उसे भक्ति का अहंकार करने वाला मानकर कठोर शाप का दंड दिया । ऐसा करना धर्म मर्यादा को, श्रुति के मार्ग को अक्षुण्ण बनाए रहने के लिए आवश्यक भी था ।
पूजा की आवश्यकता
चैतन्य महाप्रभु से एक श्रद्धालु ने पूछा-'' गुरुदेव ! भगवान संपन्न लोगों की पूजा से संतुष्ट नहीं हुए गोपियों की छाछ और विदुर के शाक उन्हें पसंद आए । लगता है पूजा के पदार्थों से उनकी प्रसन्नता का संबंध नहीं है।''
चैतन्य बोले-'' ठीक समझे वत्स ! उसके बनाए सभी पदार्थ हैं उसे किसकी कमी ?वास्तव में देवता ईश्वर की पूजा प्रक्रिया साधक के भाव जागरण की एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है । हमारा है सो प्रभु का, ऐसा भाव बार- बार क्रिया के साथ जोड़ा जाता है । इसके साथ- साथ जो वस्तुएँ भगवान को चढ़ाई जाती हैं उनका भावनात्मक मूल्य समझना आवश्यक है । सामान्य रूप से फूल, चंदन, अक्षत, दीपक, प्रसाद आदि भगवान को अर्पित किए जाते हैं ।
यह इस बात के प्रतीक है कि भगवान किस प्रकार के भावों को, भाव संपन्न व्यक्तियों को अंगीकार करते हैं ।
फूल प्रसन्नता का प्रतीक है । स्वयं खिला रहता है तथा औरों का हृदय खिला देता है । स्वयं अपना स्थान छोड़कर भी दूसरों की शोभा बढ़ाता है ।
चंदन शीतलता और सुगंधि का प्रतीक है । चंदन के वृक्ष से सर्प भी लिपटे रहकर शीतलता पाते है, पर वह उनसे प्रभावित नहीं होता । जहाँ तक उसकी गंध जाती है, अन्य पेड़ों में भी अपने जैसी सुगंध पैदा कर देता है । कटकर, पिसकर, घिसकर, जलकर हर प्रकार अपनी सुगंधि ही फैलाता है । जिस मस्तक पर लग जाता है, उसे शीतलता प्रदान करता है । जो व्यक्ति चंदन की तरह बनते हैं, वे प्रभु को प्रिय हैं ।
दीपक सदा प्रकाशित रहता है । थोड़ी सी पात्रता, थोड़े से स्नेह को अपनी लगन ( वर्तिका) के सहारे लगाकर स्वयं तिल−तिल जलकर भी अंधेरा दूर करता है । ज्योतिधर बनकर बहुतों को ज्योति तथा प्रकाश देता है ।
अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय । अधूरे मन से भगवान का कार्य नहीं किया जाता । प्रसाद में मिष्ठान्न चढ़ाया जाता है । तात्पर्य है कि प्रभु को मधुरता ही प्रिय है। कटुता, उद्विग्नता आदि नहीं मधुर व्यवहार से ही प्रभु प्रसन्न होते हैं । भाव से पूजन प्रतीकात्मक मूर्तियों का किया जाय अथवा विश्वात्मा की सेवा की जाय, दोनों का लाभ साधक को मिल सकता है । यह वृत्तियाँ जिसके अंदर बढ़ रही हों, वही भगवान की निकटता प्राप्त कर सकेगा । ''
प्रतीकपूजामाश्रित्य चलिता पद्धतिस्त्वियम् । भारतीयस्य धर्मस्य शिक्षणस्य समुज्ज्वला ।। १८ ।। धर्माऽध्यात्मरहस्त्वत्रप्रतीकप्रतिमाध्वना । बोधितं देवतानां ता आकृतीनां विभिन्नता ।। १९ ।। आयुधानि तथा वाहा सन्ति तेषां तु ये तथा । अनेकमुखहस्ताश्च सर्वेषामेव निश्चये ।। २० ।। उद्देश्यत्वेन भावोऽयं विद्यते तत्र सुदृढः । परम्पराभिराबद्धैर्देवानां नियमैस्तथा ।।२१।। तथ्यैः सर्वाञ्जनान् बौद्धं साधारणमतीनपि । उत्साहवर्धकं स्याच्च सदैवाकर्षणं महत् ।। २२ ।।
भावार्थ- भारतीय धर्म की शिक्षण पद्धति प्रतीक पूजा के रूप में प्रचलित हुई है । धर्म और अध्यात्म के रहस्यों को भारतीय धर्म में प्रतीक- प्रतिमाओं के माध्यम से समझाया गया है देवताओं की विभिन्न आकृतियाँ उनके आयुध, वाहन एवं अनेक मुख, हाथ निर्धारित करने के पीछे यह उद्देश्य है कि देव परंपराओं के साथ जुड़े हुए नियमों, तथ्यों,रहस्यों से सर्वसाधारण को समझने- समझाने का उत्साहवर्धक आकर्षण बना रहे ।। १८- २२ ।।
व्याख्या- बच्चों को अक्षरों की पहचान 'क' कबूतर,' ख ' खरगोश आदि प्रतीकों के माध्यम से कराई जाती है । आजकल तकनीकी शिक्षण में भी यही पद्धति उपयोगी मानी जाती है । ऋषियों ने समष्टिगत चेतना और उसके अनुशासनों का बोध प्रतीक पूजा के माध्यम से कराया था । देव प्रतिमाओं में से कुछ के स्वरूप की विवेचना से यह तथ्य स्पष्ट होता है ।
गायत्री माता
गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की उपासना है । तो भी उसका अलंकारिक रूप बनाया गया है । हंस वाहन- नीर क्षीर विवेक, अभक्ष्य किसी भी स्थिति में ग्रहण न करना, मोती चुगना, कीड़े न खाना ।
नवयुवती में भी मातृभावना का आरोपण । हाथ में कमण्डलु और पुस्तक- सत्संग की शीतलता और स्वाध्याय जन्य प्रखरता ।
पंचमुखी गायत्री में- शरीरगत पांच तत्वों और चेतना क्षेत्र के पांच प्राणों का समावेश है ।
कमलासन- सुगंध और सौंदर्य युक्त जीवनक्रम और क्रियाकलाप ।
इसी प्रकार अन्यान्य देवी- देवताओं के नाम रूप भगवान की अनेकानेक विशेषताओं को ध्यान में रखकर चित्रित किए गए हैं । इन्हें आदर्शों का, प्रतीक चित्रों के रूप में अंकन की कलाकारिता कह सकते हैं ।
लक्ष्मी
लक्ष्मी समृद्धि की, श्री की, प्रसन्नता की, उल्लस की, विनोद की देवी है ।
धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने मात्र से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता । सद्बुद्धि के अभाव में वह नशे का काम करती है, तो मनुष्य को अहंकारी, उद्धत, विलासी और दुर्व्यसनी बना देती है । सामान्यतया धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी और अहंकारी हो जाते हैं । लक्ष्मी का एक वाहन उलूक माना गया है । उलूक अर्थात मूर्खता । कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक संपत्ति मूर्ख ही बनाती है । उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फलस्वरूप वह आहत ही होती है ।
लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं । वह कमल के आसन पर विराजमान है । कमल कोमलता का प्रतीक है । कोमलता और सुंदरता सुव्यवस्था में ही सन्निहित रहती हैं । कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को कहते हैं । लक्ष्मी का एक नाम कमल भी है । इसी को संक्षेप में '' कला '' कहते हैं । वस्तुओं को, संपदाओं को सुनियोजित रीति से सदुद्देश्य के लिए सदुपयोग करना । उसे परिश्रम एवं मनोयोग के साथ नीति और न्याय की मर्यादा में रहकर उपार्जित करना भी अर्थकला के अंतर्गत आता है । उपार्जन अभिवर्धन में कुशल होना '' श्री तत्व '' के अनुग्रह का पूर्वार्द्ध है । उत्तरार्द्ध वह है जिसमें एक पाई का भी अपव्यय नहीं किया जाता । एक- एक पैसे को के लिए ही खर्च किया जाता है ।
लक्ष्मी का जल- अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम मनोयोग कहते हैं । उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है । यह युग्म जहाँ भी रहेगा, वहाँ वैभव की, श्रेय- सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं । प्रतिभा के धनी पर संपन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग- पग पर उपलब्ध होते हैं ।
काली
काली अन्यान्य नाम भी हैं । दुर्गा, चंडी, अम्बा, शिवा, पार्वती आदि उसी को कहते हैं । इसका एक रूप संघशक्ति भी है । एकाकीपन सदा अपूर्ण ही रहता है, भले ही वह कितना ही समर्थ, सुयोग्य एवं संपन्न हो जिसे जितना सहयोग मिल जाता है, वह उसी क्रम से आगे बढ़ता है, संगठन की महिमा अपार है । अब तक की मानवी उपलब्धियाँ सहकारी प्रकृति के कारण ही संभव हुई हैं । भविष्य में भी कुछ महत्त्वपूर्ण पाना हो, तो उसे सम्मिलित उपायों से ही प्राप्त किया जा सकेगा ।
दुर्गा अवतार की कथा है कि असुरों द्वारा संत्रस्त देवताओं का उद्धार करने के लिए प्रजापति ने उनका तेज एकत्रित किया था और उसे काली का रूप देकर शक्ति उत्पन्न की थी । उस चंडी ने अपने पराक्रम से असुरों को निरस्त किया था और देवताओं को उनका उचित स्थान दिलाया था । इस कथा में यही प्रतिपादन है कि सामूहिकता की शक्ति असीम है । इसका जिस भी प्रयोजन में उपयोग किया जाएगा, उसी में असाधारण सफलता मिलती चली जाएगी ।
दुर्गा का वाहन सिंह हैं । वह पराक्रम का प्रतीक है । दुर्गा की गतिविधियों में संघर्ष की प्रधानता है । जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने के लिए हर किसी को आन्तरिक दुर्बलताओं और स्वभावतः दुष्प्रवृत्तियों से निरंतर जूझना पड़ता है । बाह्य जीवन में अवांछनीयताओं एवं अनीतियों के आक्रमण होते रहते हैं और अवरोध सामने खड़े रहते हैं । उनसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है । शांति से रहना सभी चाहते हैं , पर आक्रमण और अवरोधों से बच निकलना कठिन है । उससे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं । ऐसे साहस का, शौर्य- पराक्रम का उद्भव गायत्री के अंतर्गत दुर्गा तत्व के उभरने पर संभव होता है।
सरस्वती
ज्ञान चेतना के दो पक्ष हैं एक प्रज्ञा और दूसरा बुद्धि । प्रज्ञा आत्मिक समाधान एवं उत्कर्ष का पथ प्रशस्त करती है । बुद्धि को लोक व्यवहार एवं निर्वाह की गुत्थियाँ सुलझाने एवं उपलब्धियाँ पाने के लिए प्रयोग किया जाता है । बुद्धि का स्वरूप मस्तिष्क है और प्रज्ञा का अंतः करण है । प्रज्ञा की अधिष्ठात्री गायत्री है और बुद्धि की संचारिणी सरस्वती । आवश्यकतानुसार दोनों में से जिसका आश्रय लिया जाता है उसी का प्रतिफल प्राप्त होता है ।
यह कुछ उदाहरण हैं। सभी प्रतिमाओं के पीछे ऐसे ही भावभरे संकेत सूत्र सन्निहित हैं । उन्हें बार- बार उल्लेख करने से मनुष्य में वे भाव विकसित और पुष्ट होते रहते हैं ।
वस्तुतो भगवानेक एव व वर्ततेऽस्ति नो । सहभागोऽपि वा कश्चित्तस्य नापि सहायक: ।। २३ ।। एकाको स समस्तं तज्जगत्स्थावरजंगमम् । सृजत्यवत्यथान्ते च संहरत्यात्मनैव च ।। २४।। सत्ये तथ्येऽपि चैतस्मिन्नेकं सद् बहुधा तु तत् । विप्रा वदन्ति चैकं तुच्छतावुक्तमनेकगम् ।। २५ ।। प्रत्यूर्मिसूर्यविम्बस्य स्वतन्त्रास्तित्वमुज्वलम् । इवास्तीदं विजानन्ति ये न ते भेदबोधिनः ।। २६ ।। परं विभिन्नताभिस्तु एताभिस्तत्वबोधजम् । रहस्यं विविधं ज्ञातुं सुविधाः प्राप्नुवन्त्यलम् ।। २७ ।।
भावार्थ- वस्तुतः भगवान एक है। उसका न कोई साझेदार है,न सहायक। अकेला ही सृष्टि का सृजन,पालन और संचालन करता है तथा अंत में संहार भी करता है। इतने पर भी 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति '' की श्रुति में एक को अनेक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वह हर लहर पर स्वतंत्र सूर्य चमकाने की तरह है, जो इस तथ्य को जानते हैं, वे भगवान की अनेक आकृतियों को देखकर भ्रम में नहीं पड़ते वरन इन विभिन्नताओं के माध्यम से तत्त्वज्ञान के अनेक रहस्यों को समझाने की सुविधा प्राप्त करते हैं ।। २३- २७।।
व्याख्या- भगवान को सर्व समर्थ एकमात्र सत्ता के रूप में व्यक्त करते हुए अनेक स्तुतियाँ की गई हैं । जैस- व्यापक व्याप्त अखण्ड अनंता। अखिल अमोघ शक्ति भगवंता ।। तथा- एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्मांध्यक्षाः सर्वभूताधिवासः, साक्षीचेता, केवलो निर्गुणश्च ।।
अर्थात, वह देव एक ही है, सर्वभूतों में व्याप्त है, गूढ़ है, सर्वव्यापी है, सभी जीवों का अंतरात्मा वही है, कर्मचेतना का संचालक वही है, सभी भूत उसी में निवास करते हैं, वही सबका साक्षी रूप है, एक मानव ही सब कुछ है और सभी गुणों से परे है। उसे अनेक नाम रूपों से समझाने- समझने का प्रयास किया गया है।
एक व्यक्ति अनेक भाव
विवकानंद जी से एक वेदांती ने पूछा- '' एक ही परमात्मा को अनेक नामों रूपों से संबोधित करना क्या मतिभ्रम नहीं है ?'' स्वामी जी बोले-'' भाई जी ! आप एक ही व्यक्ति हैं। आपकी माँ आपको बेटा कहती है उसी भाव से देखती है। पत्नी का भाव दूसरा है। पुत्र, पिता, मित्र के भाव से देखते हैं। आपके अनुयायी कोई आपको विद्वान, कोई धर्मप्रचारक तो दूसरे ढोंगी के भाव से देखते हैं। जब शरीरधारी मनुष्य के प्रति इतने संबोधन और भाव सही हो सकते हैं तो चेतनारूप परमात्मा के अनेक नाम रूपों में क्यों भ्रम दिखाई देता है ?''
धनुष यज्ञ में श्रीराम
एक ही व्यक्ति को अनेक भावों से देखने का सुंदर चित्रण रामायण में है। धनुष यज्ञ में भगवान राम को लोग अलग- अलग रूपों में देखते हैं। वीरों ने उन्हें साकार वीर रस के रूप में देखा, कुटिल लोगों को वे भयानक दिखे, असुरों को काल के समान लगे , विद्वानों, तत्वज्ञों को वे विराट् रूप में दिखे, सुनयना को वे भोले कोमल गात किशोर लगे। भगवान को अपनी ही भावना के, बिंब के रूप में देखा जाता है। कहा भी है- '' जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी ।। ।।
परब्रह्म बड़ा
विद्यालयों के शिष्यों में विवाद चला कि संसार में बड़ा कौन है ? एक ने कहा-'' पृथ्वी। '' दूसरे ने कहा- '' समुद्र । '' क्योंकि उसके जल ने पृथ्वी को घेर रखा है। तीसरे ने कहा-'' ब्रह्मांड। '' उस पर राजा बलि का शासन था । चौथे ने कहा-'' वामन बड़े थे जिनने तीन पगों में ही तीनों लोकों को नाप डाला था। ''
गुरु दूर बैठे यह सुन रहे थे उनने कहा- '' परब्रह्म सबसे बड़ा है जो समय- समय पर वामन जैसे अवतारों को जन्म देता और समाप्त करता रहता है। ''
अनेक नाम भ्रम नहीं, सहायक
आरुणि ने गुरुदेव से पूछा- '' गुरुवर ! '' एकं सद्विप्रा बहुधा वदिन्त '' के अनुसार, भगवान को अनेक नामों से व्यक्त करने वाले को सद्विप्र ,श्रेष्ठ जन कहा है । जबकि अनेक नामों के कारण उसके एक के बारे में भिन्नता का भ्रम हो सकता है । ''
गुरुदेव हँसे, बोले-'' बेटे ! तुम्हें माँ एक ही अन्न के अनेक पकवान तुम्हारी रुचि के अनुसार बना देती है । सब रुचिपूर्वक भोजन कर लेते हैं । अध्यापक एक ही प्रश्न का समाधान अनेक ढंग से देते हैं तो सभी छात्र समझ लेते हैं । गायनाचार्य एक ही गीत के भाव अनेक रागों में गा देते हैं, सभी लोगों तक भाव पहुँच जाते हैं । वे सर्वश्रेष्ठ कहे जाते है । इसी तरह अनेक रुचि के व्यक्तियों को उस चेतन तत्व का आभास कराने के लिए अनेक प्रयोग करने वालों को श्रेष्ठ विप्र माना गया । '' हे तात ! अध्यात्म में प्रवेश करने वाले हर साधक को पता है वह परमशक्ति एक ही है । उसमें शंका तो परममूढ़़ता का प्रमाण है । अनेक नामों- रूपों में उसकी बहुआयामी शक्ति का भास होने से साधक प्रसन्न ही होते हैं।
तरबूज के तीन नाम
किसी विद्यालय में तीन छात्रों को उनके सदाचार और उत्कृष्ट चिंतन के लिए पुरस्कृत किया गया । पुरस्कार में तीनों को सम्मिलित रूप से एक सिक्का दे दिया गया कि वे जाकर उसे आपस में बाँट लें । छात्रों में से एक भारतीय था, दूसरा पारसी और तीसरा अंग्रेज । वे एक दूसरे की भाषा समझ पाने में असमर्थ थे । सिक्के का बँटवारा करने में समस्या खड़ी हुई । अंग्रेज लड़के ने अपनी भाषा में कहा-'' मुझे अपने हिस्से का '' वाटरलेमन '' चाहिए । '' पारसी ने अपनी भाषा में कहा- ' हन्दुवाना '' होना, और भारतीय लड़के की माँग थी कि मुझे '' तरबूज '' मिलना चाहिए । एक दूसरे की भाषा से अपरिचित होने के कारण तीनों अपनी- अपनी माँग के लिए रट लगाते रहे । आपसी विवाद बढ़ता गया। तीनों की बातें मार्ग से गुजरने वाला एक ऐसा व्यक्ति सुन रहा था जो अंग्रेजी, पारसी तथा हिंदी तीनों ही भाषाओं का विद्वान था । उस व्यक्ति ने वह सिक्का अपने हाथ में ले लिया और बाजार से एक बड़ा तरबूज खरीद कर तीनों के सामने रख दिया । तीनों प्रसन्न थे कि उनकी मनचाही वस्तु मिल गई । पर अपनी इस अज्ञानता पर कि वस्तुतः तीनों की माँग एक थी पर एक दूसरे की भाषा न समझ सकने के कारण वे आपस में लड़ रहे थे, मन ही मन पश्चाताप करने लगे । ईश्वर के बारे में भी इसी प्रकार भ्रम होता है । पर जिन्होंने तत्व पहचान लिया उन्हें नाम भेद से जरा भी परेशानी नहीं होती ।
अदृश्य का दर्शन
श्वेतकेतु अपने गुरु उद्दालक से ईश्वर दर्शन के लिए आग्रह करने लगा । गुरु ने एक मुट्ठी नमक लेकर पानी में मिला दिया और कहा-'' चखो !'' वह नमकीन था । पर नमक दीखता न था । गुरु ने कहा-'' भगवान इस समस्त सृष्टि में घुल गया है । उसे अनुभव तो किया जा सकता है पर देखा नहीं जा सकता । ''
हम तीन- तुम तीन की
प्रार्थना में भावना प्रधान है, औपचारिकता नहीं, इस आशय की एक मार्मिक कथा रूसी संत टालस्टाय ने लिखी- एक पादरी जहाज से यात्रा कर रहे थे । जहाज ने एक द्वीप के पास लंगर डाला । पादरी ने सोचा इस द्वीप पर कोई होगा तो उसे प्रार्थना सिखा आएँ । वहाँ उन्हें केवल तीन साधु मिले । उनसे पूछा-'' कुछ प्रार्थना- उपासना करते हो ?'' उन्होंने बताया-'' हाँ ! हम तीनों ऊपर हाथ उठाकर कहते हैं- हम तीन हैं, तुम तीन हो । तुम तीनों हम तीनों की रक्षा करो । ''
पादरी हँसे, बोले-'' क्या पागलपन करते हो, तुम्हें प्रार्थना करनी भी नहीं आती । '' भोले साधुओं ने प्रार्थना सिखाने का आग्रह किया । पादरी ने उन्हें बाइबिल के आधार पर प्रार्थना करना सिखाया, अभ्यास हो जाने पर वैसा ही करने को कहकर जहाज पर आ गए । जहाज चल पड़ा । दूसरे दिन पादरी जहाज के डेक पर टहल रहे थे। पीछे से आवाज सुनाई दी-'' ओ पवित्र आत्मा ! रुको। '' पादरी ने देखा वे तीनों साधु पानी पर बेतहाशा दौड़ते पुकारते चले आ रहे थे। आश्चर्यचकित पादरी ने जहाज रुकवाना उनसे इस प्रकार आने का कारण पूछा। वे बोले-'' आप हमें प्रार्थना सिखा आए थे, रात में हम सोए तो भूल गए। सोचा आपसे ठीक विधि पूछ लें इसलिए दौड़ आए। '' पादरी ने पूछा- '' पर आप पानी में कैसे दौड़ सके ?'' उन्होंने कहा-'' हमने भगवान से प्रार्थना की, कहा- '' हम अनजान है, पवित्र पादरी जो सिखा गए थे भूल गए। दौड़ हम लेंगे, डूबने मत देना। बस, इतना ही कहा था। ''
पादरी ने घुटने टेक कर उनका अभिवादन किया। कहा- '' आप जैसी प्रार्थना करते हैं वही सही है, मैं ही आपको गलत समझा था। प्रभु आपसे प्रसन्न है। '' वे तीनों संतुष्ट होकर पादरी का आभार प्रकट करके जैसे आए थे वैसे ही लौट गए। सर्वव्यापी भगवान सबके भाव समझती है, उसी आधार पर मान्यता देता है।
ईश्वर का स्वरूप
राजा को विचित्र प्रश्न पूछकर पंडितों की परीक्षा लेने की आदत थी। एक दिन उनने राज पंडित से पूछा-'' ईश्वर कहाँ है ? क्या करता है ? उसका मुँह किस दिशा में रहता है ? आदि। ''
पंडित ने सोचकर कल उत्तर देने को कहा। एक कटोरा दूध साथ लाया। राजा से पूछा-'' इसमें मक्खन कहाँ है ?'' राजा ने कहा-'' सारे में घुला हुआ है। '' पंडित ने कहा-'' इसी प्रकार ईश्वर भी समस्त संसार में समाया हुआ है। '' अब पंडित ने एक मोमबत्ती जलाई और पूछा-'' इसकी लौ का मुँह किस दिशा में है ? '' राजा ने कहा- ' '' सब दिशाओं में। '' पंडित का उत्तर था-'' इसी प्रकार ईश्वर का मुँह सब दिशाओं में है। ''
तीसरे प्रश्न के उत्तर में पंडित ने कहा-'' जैसे आप कर्मचारियों की अदला- बदली किया करते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी गरीब को अमीर, अमीर को गरीब, सुखी को दुखी और दुखी को सुखी बनाने की उलट- पुलट में लगा रहता है। '' ईश्वर क्या है ? इसका भी उत्तर मिला। तीनों प्रश्नों का उत्तर सुनकर राजा ने पंडित की चतुरता को सराहा।
सर्वाऽपि प्रतिमा दृश्यं पाठ्यपुस्तकमस्ति हि । माध्यमेन च यस्यास्तु जीवनस्यात्र दर्शनम् ।। २८ ।। आत्मविज्ञानके सन्ति रहांस्येतानि यानि तु । बोद्धुंशक्यानि तान्याशु बालबोध इवाञ्जसा ।। २९ ।। वयस्काः शिक्षिता एव पठितुं पुस्तकानि तु । समर्थाः परमेतासां प्रतिमानां स्वरूपतः ।। ३० ।। सामान्याःपुरुषाश्च स्युर्बहु ज्ञातुं क्षमा स्वयम् । एतादृशं स्वरूपं हि प्रतिमानां तु वर्तते ।। ३१ ।। अनेकत्वे चैकताया दर्शनस्येयमुत्तमा । पद्धतिर्विद्यतेऽपीह मनोरञ्जनकारिणी ।। ३२ ।। सारगर्भा दूरदर्शिभावगा व्यवहारगा । मनोविज्ञानबोधस्य ध्यानं संस्थापने कृतम् ।। ३३ ।।
भावार्थ - हर देव प्रतिमा एक दृश्यमान पाठ्यपुस्तक है। जिसके माध्यम से जीवन दर्शन और आत्मविज्ञान के गूढ़ रहस्यों को बालबोध की तरह समझा और समझाया जा सकता है। पुस्तकें तो शिक्षित वयस्क ही पढ़- समझ सकते हैं पर प्रतिमा- प्रतीकों के दृश्य स्वरूप के सहारे सामान्यजन भी छत कुछ जान और सीख सकते हैं,प्रतिमाओं का स्वरूप ही ऐसा है। अनेकता के बीच एकता दीखने की यह पद्धति मनोरंजक भी है और सारगर्भित भी, व्यावहारिक और दूरदर्शितापूर्ण भी। इस स्थापना में मानव मनोविज्ञान का समुचित ध्यान रखा गया है ।। २८- ३३।।
व्याख्या- लिपि की अपेक्षा प्रतीक चिह्नों से चित्रण अधिक अच्छा होता है। चित्र कथाएँ इसीलिए लोकप्रिय हैं। चुनावों में चुनाव चिह्नों का क्रम भी इसीलिए है, कि पढ़े- बेपढ़े सभी उसके माध्यम से प्रत्याशी को पहचान लें। मार्गों पर मोड़ पुल आदि के लिए भी प्रतीक चिह्न या चित्र अधिक उपयोगी माने गए हैं। इसी प्रकार भारतीय तत्वज्ञों ने मूढ़ मर्मों को देवमूतियों के माध्यम से समझाया है।
भाव श्रद्धा और देव प्रतिमा
एक बार ब्रह्मचारी मित्रावसु ने अपने गुरु मैत्रेय जी से पूछा- '' सर्वव्यापी भगवान तो निराकार है, फिर उनकी प्रतिमाएँ क्यों बनती हैं। शिव की प्रतिमा तो और भी विचित्र है। उसके तो अंग- अवयव भी नहीं होते। ''
मैत्रेय जी ने कहा-'' निराकार का ध्यान नहीं हो सकता और न अर्चा ही संभव है। सामान्यजनों की इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए देव प्रतिमाएँ गढ़ी होती हैं। भगवान की एक एक विशेषता को एक एक देवता कहते हैं। उनमें उपासक के श्रद्धानुरूप ही समर्थता होती है। भावना से ही धातु और पाषाण में प्राण उत्पन्न होते हैं, अन्यथा वे खिलौना मात्र बनकर रह जाते हैं। ''
ब्रह्मांड और जीवाणु- परमाणु के गोल होने से शिव एवं शालिग्राम की प्रतिमाएँ तदनुरूप बनती हैं। अणु और विभु की संरचना एक जैसी है। उस गोलाई को स्मरण रखने के लिए शिव और विष्णु की प्रतिमाएँ गोलाकार पाषाण की बनती हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से भक्तजन अपनी भाव श्रद्धा का अभिवर्द्धन करते हैं।
देव प्रतिमा का दार्शनिक पक्ष
भारत कवियों- कलाकारों का देश है। यहाँ हर सूक्ष्म भाव को प्रत्यक्ष प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदान किया गया है। इससे जन साधारण को उसे समझने में सुविधा रहती है। छोटे बच्चों को 'क ' कबूतर तथा ' ख ' खरगोश के सहारे समझने तथा याद करने में सुविधा हाती है। इसी रूप में विभिन्न देव वृत्तियों को भावनात्मक प्रतीक के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया गया।
सामान्य रूप से भारतमाता के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। भारतमाता भारतभूमि अपने राष्ट्र के प्रति श्रद्धा जागरण के लिए निर्मित प्रतीक चित्र है। वह किसकी बेटी है, किसकी बहिन है, यह सब बातें निरर्थक हैं। सभी देवताओं के रूप विशेष देव वृत्तियों को समझने- समझाने के लिए बनाए गए हैं। उनके दार्शनिक रूप को समझा और समझाया जाना चाहिए, उन्हें भिन्न- भिन्न पुरुष मानकर अपने को भिन्न- भिन्न दलों का अनुयायी मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए। कुछ प्रचलित देवताओं के स्वरूपों की व्याख्या से यह तथ्य स्पष्ट किया जा सकता है।
शिव-शंकर,श्रेयस्कर विभूतियों के समुच्चय
भगवान की विभिन्न विभूतियों के समुच्चय देव रूप में प्रख्यात हुए हैं। जैसे शंकर के स्वरूप में भगवान के अनेक गुणों का आभास होता है। उसे इस प्रकार समझा जाय- मस्तक पर चंद्रमा- शांति, संतुलन। सिर से गंगा का उद्भव - ज्ञान गंगा का प्रवाह। नीलकंठ - विष को नन निगलना ,न उगलना , उसे ऐसे ही दबाए रहना। गले में मुण्डमाला- सदा मृत्यु का स्मरण। साथी भूत- प्रेत-पिछड़े दलित, दोषी, इन्हें साथ रखकर सुधारना। गले में सर्प- दुर्जन को भी अपना सहयोगी बनाना। त्रिशूल- अज्ञान, अभाव और आसक्ति को भेदना। वाहन नंदी- सज्जन, श्रमशील। कमर में व्याघ्र चर्म- दुष्टों की चमड़ी उधेड़ने का प्रतीक। तृतीय नेत्र- प्रज्ञा चक्षु। भस्म रमाए रहना तथा मरघट में निवास- अपरिग्रही जीवन तथा जीवन के साथ मृत्यु को भी स्मरण रखने का प्रतीक है। निर्जीवता आए नहीं तथा मृत्यु का स्मरण रखकर संतुलन बना रहे, यह आवश्यक है। शिवजी के स्वरूप की इस प्रकार भावनात्मक व्याख्या समझी जाय, तो उनकी उपासना का ठीक- ठीक लाभ भी मिले।
विष्णु- शेष शायी। संसार को सब आवश्यक वस्तुएँ देकर स्वयं शेष पर संतोष करते हैं। इतनी विशाल जिम्मेदारी निभाते हुए भी शांत रहते हैं। शंख उद्बोधन उद्घोष का प्रतीक श्रेष्ठ पुरुष, लोगों को उद्बोधित करते रहते हैं। साथ ही चक्र सतत क्रियाशीलता, गति का प्रतीक है। प्रेम का, सद्भावना का प्रतीक कमल का पुष्प तथा सामाजिक नियंत्रण, दंड व्यवस्था, न्याय का प्रतीक गदा उनके आयुध हैं।
ब्रह्मा- निर्माण की, नई रचना की शर्त उनके रूप से प्रकट होती है। नाभि से उत्पन्न कमल नाल तथा कमल अंतः प्रेरणा के प्रतीक हैं। संरचना अंतः प्रेरणा तथा उल्लास के सहारे ही होती है। उसी से रचना शक्ति जागृत होती है। चार मुख चतुर्मुखी प्रतिभा के प्रतीक हैं। निर्माण के लिए एकांगी रहने से काम नहीं चलता। पुस्तक और कमंडलु ज्ञान तथा पात्रता के प्रतीक हैं। ज्ञान का महत्त्व समझें तथा उसे धारण करने तथा व्यवहार में लाने की पात्रता हो, तभी निर्माण हो सकता है।'
गणेश- अर्थात् समूह के। मूर्ति में वही लक्षण दर्शाए गए हैं। बड़े कान - अधिक सुनने की क्षमता, बड़ा पेट- आंतरिक गंभीरता का प्रतीक। लंबी नाक- अक्षुण्य गौरव एवं प्रामाणिकता का प्रतीक है।
गणेश बुद्धि के देवता हैं। सद्ज्ञान ही गणेश है। विवेकरूपी गणेश का स्वरूप निर्माण करते समय तत्त्वदर्शियों ने उनकी दो दिव्य सहेलियों का भी चित्रण किया है। आत्मबल और भौतिक सफलताओं का सारा क्षेत्र विवेक पर आधारित है। इसी तथ्य को गणेश और उनकी सहचरी ऋद्धि- सिद्धि के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ऋद्धि अर्थात् आत्मज्ञान- आत्मबल, आत्मसंतोष, अंतरंग उल्लास,आत्मविस्तार, सुसंस्कारिता एवं ऐश्वर्य। सिद्धि अर्थात् प्रतिभा, स्फूर्ति, साहसिकता, समृद्धि, विद्या, समर्थता, सहयोग- संपादन एवं वैभव। लगभग यही विशेषताएँ गायत्री और सावित्री की हैं। गणेश पर दोनों को चँवर डुलाना पड़ता है। विवेकवान आत्मिक और भौतिक दोनों दृष्टियों से सुसंपन्न होते हैं। संक्षेप में गणेश के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई ऋद्धि- सिद्धियों के चित्रण का यही तात्पर्य है।
गणेश के एक हाथ में अंकुश, दूसरे में मोदक हैं। अंकुश अर्थात् अनुशासन, मोदक अर्थात् सुख- साधन। जो अनुशासन साधते हैं, वे अभीष्ट साधन भी जुटा लेते हैं। गणेश से संबद्ध इन दो उपकरणों का यही संकेत है। ऋद्धि अर्थात् आत्मिक उत्कृष्टता। सिद्धि अर्थात् भौतिक समर्थता। मर्यादाओं का अंकुश मानने वाले संयम साधने वाले, हर दृष्टि से समर्थ बनते हैं। उन्हें सुख- साधनों की, सुविधा संपन्नता की कमी नहीं रहती। उत्कृष्ट व्यक्तित्व संपन्न व्यक्ति सदा मुदित रहते हैं। प्रसन्नता बाँटते, बिखेरते देखे जाते है। यही मोदक हैं, जिससे हर घड़ी संतोष, आनंद का रसास्वादन मिलता है। विवेकवान का चुंबकीय व्यक्तित्व दृश्य और अदृश्य जगत से वे सब उपलब्धियाँ खींच लेता है, जो उसकी प्रगति एवं प्रसन्नता के लिए आवश्यक है।
प्रत्येकस्य समीपस्थं सेवाक्षेत्रमपि त्विह । यदुच्यते मण्डलं तज्जनजागृतिकारकः ।। ३४ ।। उत्तरदायित्वनिर्वाहकारणाद् धर्मधारणात्। मण्डलाधीश एवाथ मण्डलेश्वर एव वा ।। ३५ ।। कथ्यते, विस्तृतं यस्य क्षेत्रं स कथ्यते बुधैः। स महामण्डलेशस्तु बहुमण्डलशासकः ।। ३६ ।।
भावार्थ- हर देवालय का एक समीपवर्ती सेवाक्षेत्र भी निर्धारित होता है। इसे मंडल कहते हैं। मंडल क्षेत्र में जनजागृति और धर्मधारणा का उत्तरदायित्व संभालने वालों को मंडलाधीश या मंडलेश्वर कहते हैं। जिसका सेवाक्षेत्र बड़ा है, जो अनेक मंडलों की व्यवस्था संभालते हैं, उन्हें महामंडलेश्वर कहते हैं ।। ३४- ३६।।
व्याख्या- ऋषियों ने लोक चेतना जागरण के लिए एक व्यवस्थित तंत्र विकसित किया था। मंदिर और तीर्थ उसके संचालन केंद्र थे। जहाँ जैसे साधन तथा जिस प्रतिभा के लोकसेवी मिल जाते थे, वहाँ उसी स्तर का केंद्र विकसित कर दिया जाता था। निस्पृह लोकसेवियों द्वारा उस क्षेत्र का इतना हित साधन होता था कि ऐसे केन्द्र स्थापित करने के लिए होड़ लग जाती थी।
ऋषियों का दायित्व
भगवान राम वनवास काल में उत्तर अयोध्या से दक्षिण रामेश्वरम् तक गए। मार्ग में जगह- जगह दायित्व -ऋषि आश्रम मिलते थे। वे वंही उस क्षेत्र की परिस्थितियों की जानकारी लेते थे।
लक्ष्मण जी ने पूछा-'' प्रभु ! वनवासी ऋषियों को सामाजिक परिस्थितियों की इतनी गहरी जानकारी कैसे है ?'' भगवान बोले- '' भाई लक्ष्मण ! ऋषियों ने जन जन को दैवी अनुशासन के अनुरूप ढालने का उत्तरदायित्व संभाल रखा है। प्रत्येक आश्रम के ऋषि का निर्धारित क्षेत्र है। वहाँ वे जन साधारण का क्रम चलाते हैं। परिस्थितियों का ही नहीं, नागरिकों की मनः स्थितियों का भी अध्ययन न हो, तो उपचार कैसे करें ? अपने- अपने मंडल के प्रति पूरे जागरूक रहते हैं। ''
आदर्श संत हरिबाबा
संत परंपरा में सच्चे संत आज भी किसी न किसी एक क्षेत्र का उत्तरदायित्व संभालते हैं । हरिबाबा फूल से बनी एक कुटिया में रहते थे, तो भी जन जागरण के लिए गाँवों में जाते रहते थे। धर्मोपदेश के लिए कानपुर से अलीगढ़ तक के क्षेत्र में धर्म प्रचार के लिए भ्रमण किया करते थे।
गंगातट पर बने बवराला गाँव को बाढ़ से आए दिन क्षति उठानी पड़ती थी।बाबा ने इस महा विपदा से निपटने के लिए वहाँ एक बाँध का निर्माण कराया। आगंतुकों को ठहरने के लिए कितनी ही कुटियाएँ बनवाई। उस स्थान को बाबा ने सत्संग और धर्म प्रचार का केन्द्र बना दिया। ऐसे थे आदर्श और अनुकरणीय चरित्र वाले हरिबाबा।
आदिवासी गहिरा गुरु
मध्य-प्रदेश- रायगढ़ जिले के गहिरा गाँव में एक भील परिवार में एक संत जन्मे। उनने अपना कार्यक्षेत्र भील आदिवासियों को बनाया। उन्हें सुधारने, संगठित करने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए उन्होंने आजीवन भागीरथ प्रयत्न किया।
गहिरा गुरु अधिक पढ़े- लिखे न थे, तो भी उन्होंने रामायण कथा को आदिवासी भाषा में छंदबद्ध करके गायन और नृत्य के आधार पर उसे लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया। यही आकर्षक तरीका था, उस समुदाय को एकत्रित करने का, बिखराव को वे इसी आधार पर दूर कर सके। उन्होंने प्रमाणित लोगों से मद्य, मांस, चोरी, गंदगी आदि छोड़ने की प्रतिज्ञाएँ कराई।
गहिरा गुरु ने एक बहुत ऊँची पहाड़ी पर एक गुफा खोज निकाली। वे बहुत दिन उसमें रहकर साधना करते रहे। हिंस्र पशुओं के बीच उस बीहड़ में रहते हुए तनिक भी भय न लगा। बाद में उन्होंने आदिवासियों के श्रमदान से एक भव्य मंदिर बनवाया जहाँ हर शिवरात्रि को उस प्रदेश का मेला होता है। शिक्षा संवर्द्धन के लिए उन्होंने एक मुट्ठी चावल निकालने का अनुरोध किया। इस राशि को उस स्थान पर एक संस्कृत विद्यालय खोला गया। जिससे उस समाज का बहुत हित साधन हुआ। उन्होंने उस प्रांत के लाखों आदिवासियों में नई चेतना उत्पन्न की।