Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-4
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विज्ञानं भौतिकं लोके पदार्थस्य तदोजसः। उपयोगं प्रशास्त्लेव नियन्त्रणमथापि च ।। ६५ ।। आश्रित्याध्यात्मविज्ञानमन्तश्चैतन्यगं तथा । महाचैतन्यगं नूनं लभ्यतेऽत्रानुशासनम् ।। ६६ ।। नियन्त्रिता पदार्थाः स्युरन्तश्चेतनया तथा। जीवान्तश्चेतना स्याच्च परचैतन्यसंयुता ।। ६७।। विकासस्य सुखस्याथ शान्तेः श्रेष्ठ: क्रमत्वयम्। देवसंस्कृतिरेनं च सिद्धान्तं सुप्रतिष्ठितम् ।। ६८ ।। नरस्य चिन्तने कर्तुं चरित्रे सफला ह्यभूत्। लोकूकल्याणमत्यर्थमस्मादेवह्यभूत्तत: ।। ६९ ।। अतो विश्वस्तरेणेयं श्रेष्ठां याता च मान्यताम्। निर्माति मानवं यातु देवं वै देवसंस्कृति: ।। ७० ।।
भावार्थ- भौतिक विज्ञान पदार्थ एवं पदार्थगत ऊर्जा के नियंत्रण और उपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है। अध्यात्म विज्ञान के सहारे अंतःचेतना तथा महत् चेतना के अनुशासन हस्तगत होते हैं । पदार्थ पर अंतःचेतना का नियंत्रण रहे अंतःचेतना महत् चेतना से युक्त रहे । विकास और सुख -शांति का श्रेष्ठ क्रम यही है। यह महान् सिद्धांत देव संस्कृति ने जन- जन के चिंतन और चरित्र में उतार में सफलता पाई है। इसी से महान् लोक- कल्याण हुआ है । इसीलिए इसे विश्वस्तर पर श्रेष्ठतम संस्कृति के रूप में मान्यता मिली है। यह मानव को देवता बनाती है, अत: देव संस्कृति कहलाती है ।। ६५ -७० ।।
व्याव्या- भारतीय संस्कृति- देव संस्कृति ने चिर पुरातन काल 'से मानवता को अनेकानेक अनुदान दिए हैं। अपने स्वरूप, श्रेष्ठ उद्देश्यों, सार्वभौम रूप के कारण इसे विश्व संस्कृति का पर्याय माना जा सकता है। सभ्यता इसी के गर्भ से पनपी, जिससे ज्ञान- विज्ञान की अनेकानेक विधाओं ने जन्म लिया एवं सारे विश्व को उन उपलब्धियों से लाभान्वित किया। किसी देश, जाति, धर्म- संप्रदाय, वर्ग, समाज विशेष तक सीमित न रहकर यह संपूर्ण मानव जाति के विकास एवं कल्याण का पथ प्रशस्त करती रही। इसका मूल आधार है यहाँ की ऋषि परंपरा। ऋषियों की आध्यात्मिक एवं वैचारिक संपदा अब भी परोक्ष रूप से वातावरण में गुंजित पाई जा सकती है।
भौतिकी और आत्मिकी की परस्पर अन्योन्याश्रयता का प्रतिपादन देव संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। पदार्थ विज्ञान, भौतिकी स्थूल उपादानों से संबंधित है, जबकि चेतना विज्ञान, आत्मिकी, परोक्ष चेतना हलचलों से संबंधित हैं। पदार्थ में गति है तो चेतन में गति है। गति के पीछे कोई उद्देश्य न हो, वह गति से (प्रज्ञा- विवेक अंतर्दृष्टि) समन्वित न हो तो एक निरर्थक परिभ्रमण की खिलवाड़ ही चारों ओर नजर आएगी। साधनों के बिना गति, अंतश्चेतना भी अधूरी है। भौतिकी का अनुदान 'सुविधा' है तो आत्मिकी का वरदान है 'प्रतिभा'। दोनों की अपनी- अपनी उपयोगिता है, किन्तु इन्हें समन्वित रूप से प्रस्तुत करना संस्कृति का उत्तरदायित्व है। देव संस्कृति ने इन्हीं सूत्रों को जन सुलभ बनाकर जन- जन के मनों तक पहुँचाया है। इसी कारण इसके अनुयायी बाह्य सुख साधनों के उपभोग तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु अंत: के पुरुषार्थ में सतत संलग्न रहे। धर्म संस्कृति की प्राण चेतना का जीवंत रहना ही इसके अनुयायियों की चरित्र निष्ठा के मूल में रही है ।
सिकंदर संस्कृति की गारिमा से अभिभूत
मैकक्रिडल नामक एक पाश्चात्य विचारक ने मैगस्थनीज के इंदिक ग्रंथ का उदाहरण देते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि जब सिकंदर भारत पर आक्रमण हेतु निकला तब उसके गुरु अरस्तू ने उसे आदेश दिया था कि वह भारत से लौटते समय दो उपहार अवश्य लाए- एक गीता, दूसरा एक दार्शनिक संत जो वहाँ की थाती है। सिकंदर जब वापस लौटने को था तो उसने अपने सेनापति को आदेश दिया कि '' भारत के किसी संत को ढूँढ़कर ससम्मान ले आओ। '' सैनिक '' दंडी स्वामी '' जिसका उल्लेख ग्रीक भाषा में '' डैडी मींग '' के रूप में हुआ है, से मिला। दंडी स्वामी से सिकंदर के दूत ने मिलकर कहा- '' आप हमारे साथ चलें,सिकंदर महान् आपको मालोमाल कर देंगे। अपार वैभव आपके चरणों में होगा। '' अपनी सहज मुस्कान में दंडी स्वामी ने उत्तर दिया- '' हमारे रहने के लिए शस्य- श्यामला भारत की पावन, भूमि, पहनने के लिए वल्कल वस्त्र , पीने के लिए गंगा की अमृत धार तथा खाने के लिए एक पाव आटा पर्याप्त है। हमारे पास संसार की सबसे बड़ी संपत्ति आत्मधन है। इस धन की दृष्टि से तुम्हारा दरिद्र सिकंदर हमें क्या दे सकता है ?'' शक्ति एवं संपत्ति के दर्प से चूर सिकंदर ने सैनिक की वार्तालाप को जब सुना तो विस्मित रह गया। अहंकार चकनाचूर हो गया। आध्यात्मिक संपदा के धनी इस देश के समक्ष नतमस्तक होकर चला गया।
देव सुसंस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा
मैक्समूलर ने एक पुस्तक लिखी है- '' इंडिया व्हाट कैन इट टीच अस ''। इस पुस्तक को पढ़ने से उनकी भारत के प्रति अगाध श्रद्धा भाव का पता लगता है। वे लिखते हैं कि- '' मैं विश्व भर में उस देश को ढूँढ़ने के लिए चारों दिशाओं में दृष्टि दौड़ाऊँ, जिस पर प्रकृति देवी ने अपना संपूर्ण वैभव, पराक्रम एवं सौंदर्य मुक्त हाथों से लुटाकर उसे पृथ्वी का स्वर्ग बना दिया है तो मेरा इशारा भारत की ओर होगा। यदि मुझसे पूछा जाय कि अंतरिक्ष के नीचे वह कौन- सा स्थल है, जहाँ मनुष्य ने अपने अंतराल में सन्निहित ईश्वर प्रदत्त उदात्त भावों को पूर्णरूपेण विकसित किया है तथा जीवन की गहराई में उतार कर कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है। उनमें अधिकांश को सुलझाया है। यह सब जानकर 'कांट' एवं '' प्लेटो '' जैसे दार्शनिकों से प्रभावित मनीषी भी आश्चर्यचकित रह जाँय वह पूछें कि वह देश कौन सा है, तो मेरी अंगुली सहज ही भारत की ओर उठेंगी और यदि मैं अपने आपसे प्रश्न करूँ कि हम यूरोपवासी, जो अब तक केवल ग्रीक, यहूदी एवं रोमन विचारों में पलते रहे हैं, किस साहित्य से वह प्रेरणा ले सकते हैं , जो हमारे अंतरंग जीवन को परिशोधित करे, उसे उन्नति की ओर अग्रसर करे, व्यापक एवं विश्वजनीन बनाए, सही अर्थों में मानवीय गुणों से सुसंपन्न करे जिससे हमारे पंचभौतिक जीवन को ही नहीं, हमारी सनातन आत्मा को भी प्रेरणा मिले तो पुनः मेरी उँगली भारत की ओर उठ जाएगी। ''
प्राकृतिक सौंदर्य, संपदा एवं आत्मिक विचार संपदा का धनी यही वह देश है जिसके ज्ञान सागर में डुबकी लगाकर जर्मनी का प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर कह पड़ा कि- '' विश्व के संपूर्ण साहित्यिक भंडार में किसी ग्रंथ का अध्ययन मानव विकास के लिए इतना उपयोगी एवं ऊँचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शांति मिली है तथा मृत्यु के समय में भी शांति मिलेगी। ''
उपनिषदों की चेतना शक्ति
संप्रदाय, मजहब, जाति, वर्ग एवं राष्ट्रीय दीवारों से निकलकर मानवी सिद्धांतों एवं विश्व बंधुत्व को प्रोत्साहन देने वाली यहाँ की ज्ञान संपदा ने प्रत्येक धर्म एवं मजहब के व्यक्तियों को प्रभावित किया है। औरंगजेब का भाई दाराशिकोह उपनिषदों के एक बार रसास्वादन के उपरांत उसकी मस्ती में इतना डूबा कि निरंतर छू: माह तक काशी के पंडितों को बुलाकर उनकी व्याख्या सुनता रहा। दूसरों को भी उसका लाभ मिले- यह सोचकर उसने १६३६ में स्वयं फारसी में उपनिषदों का अनुवाद किया। दाराशिकोह के इस भाषांतर को फ्रैंच केविद्वान '' एन्क्विटिल ड्यूपैरो '' ने पढ़ा। उसकी रुचि इतनी बढ़ी कि सभी प्रमुख प्राच्य शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों का अध्ययन कर डाला। फारसी अनुवाद के आधार पर उसने १८०१ में इनका लैटिन भाषा में अनुवाद किया। दाराशिकोह का फारसी अनुवाद एवं एन्क्विटिल का ईसाई अनुवाद अब भी मुस्लिम एवं ईसाई जगत में अत्यंत श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक लुई जेकिलिमेट ने भाव भरे शब्दों में लिखा है- '' हे मानव जाति के आदर्शों की पोषक भारत भूमि! तुझे नमस्कार है। शताब्दियों तक अगणित आक्रमण सहते रहने पर भी तेरी गरिमा न तो मलिन हुई न कलुषित। तेरा स्वागत है। हे श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान की जन्मदात्री। तुझे शत- शत नमन !''
विकसन्ति महात्मानः संस्कृतिश्चापि कुत्रचित्। क्षेत्रे विशेष एवात्र परं बद्धा न सीम्नि ते ।। ७१ ।। विकासं भारते याता देवसंस्कृतिरित्यहो। सत्यं' परन्तु सा विश्वसंस्कृतौ चिन्तिता बुधैः ।। ७ २ ।। गौरवं चेदमेवेयं गता काले महत्तरे। तदा विश्वं सुखं शान्तिमन्वभूच्च निरन्तरम् ।। ७३ ।।
भावार्थ- संत और संस्कृति किसी क्षेत्र में विकसित तो होते हैं परंतु उन्हें किसी सीमा- बंधन में बाँधा नहीं जा सकता। देव- संस्कृति भारतभूमि में विकसित हुई , यह सत्य हुई, किन्तु वह वस्तुतः विश्वसंस्कृति के रूप में मनीषियों द्वारा गढ़ी गई थी और यही गौरव उसे दीर्घकाल तक प्राप्त भी रहा। उस समय विश्व ने महान् सुख- शांति अनुभव की ।। ७१ -७३ ।।
व्याख्या- यह सही है कि कोई भी विभूति अथवा विशिष्टता स्थान विशेष से जुड़ी होने के कारण वही नाम ले लेती है, पर वह उस सीमा में आबद्ध संकीर्ण बनी नहीं कही जा सकती। संत सार्वभौम होते हैं, सारी मानव जाति का कल्याण उनका मूल उद्देश्य होता है। भारत को सनातन काल से विश्व गुरु कहलाने का, वसुधा का मुकुटमणि कहे जाने का श्रेय इसलिए मिला कि यहाँ के ऋषियों- चिंतकों ने सदैव समग्र वसुधा के उत्कर्ष को ध्यान में रखते हुए अपनी गतिविधियाँ चलाई। उनके प्रतिपादन सार्वभौम हैं। वे विश्व एकता के लिए सारी वसुधा पर भ्रमण करते रहे हैं। उन्होंने स्नेह के बंधन मे सारी मानव जाति को सूत्रबद्ध करने का प्रयास किया एवं इसमें वे सफल रहे । व्यास- बाल्मीकि, बुद्ध- महावीर, शंकराचार्य- रामानुज, कुमारजीव-विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर- तुकाराम, नानक- कबीर एवं महात्मा गाँधी- अरविन्द जैसी विभूतियों ने संस्कृति की इस प्रगति यात्रा को आगे बढ़ाया है ।। भारतीय संस्कृति उपयोगिता की दृष्टि से विश्वधर्म, विश्वसंस्कृति के रूप में ही आरंभ से गठित की गई, इसीलिए इतनी अधिक विविधताओं का समावेश इसमें मिलता है।
देव संस्कृति- विश्व संस्कृति
भारतीय संस्कृति, मानव संस्कृति है। उसमें मानवता के सभी सद्गुणों को भली प्रकार विकसित करने वाले सभी तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। जिस प्रकार कश्मीर में, पैदा होने वाली केशर , कश्मीरी केशर के नाम से अपनी जन्मभूमि के नाम पर प्रसिद्ध है। इस नाम के अर्थ यह नहीं कि उसका उपयोग केवल काश्मीर निवासियों तक ही सीमित। भारतीय संस्कृति नाम ही इसीलिए पड़ा कि वह भारत में पैदा हुई है, वस्तुतः वह विश्व संस्कृति है, मानव संस्कृति है। सारे विश्व के मानवों की अंत प्रेरणा को श्रेष्ठ दिशा में प्रेरित करने की क्षमता उसमें कूट- कूट कर भरी है। संस्कृति का अर्थ है- वह, कार्य- पद्धति जो संस्कार संपन्न हो। ऊबड़- खाबड़ पैड़- पौधों को जिस प्रकार काट- छाँट कर उन्हें सुरम्य सुशोभित बनाया जाता है, वही कार्य व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित करके संस्कृति द्वारा संपन्न किया जाता है। किसान जैसे भूमि को खाद, पानी, जुताई आदि से उर्वरक बनाता है और बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक उन पौधों को सींचने, संभालने, निराने, रखाने की अनेक प्रक्रियाएँ करता है, वही कार्य संस्कृति द्वारा मानवीय मनोभूमि को उर्वर एवं फलित बनाने के लिए किया जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए '' कल्चर '' शब्द आता है। उसका शब्दार्थ भी उसी ध्वनि को प्रकट करता है। अस्त- व्यस्तता के निराकरण व्यवस्था के निर्माण के लिए जो प्रयत्न किए जाँय उन्हें '' कल्चर '' कहा जा सकता है। संस्कृति का यही प्रयोजन है। ''संस्कृति '' के साथ '' भारतीय '' शब्द जोड़ कर उसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह मात्र भारतीयों के लिए ही उपयोगी है। अन्वेषण का श्रेय देने के लिए कई बार नामकरण उनके कर्त्ताओं को दे दिया जाता है। कई ग्रह- नक्षत्रों की अभी- अभी नई खोज हुई है। उनके नाम शोधकर्ताओं के नाम पर रखे गए हैं। पहाड़ो की जिन ऊँची चोटियों पर जो यात्री पहले पहुँचे, इनके नाम भी उन साहसियों के नाम पर रख दिए गए। धर्म- संप्रदायों के संबंध में भी ऐसा ही होता है। उनके आचार्यों, संस्थापकों का नाम स्मरण बना रहे, इसलिए उनके नाम से भी संप्रदाय पुकारे जाते हैं। इसका अर्थ उन पदार्थों या मान्यताओं को उन्हीं की संपत्ति मान लेना नहीं है, जिनका कि नाम जोड़ दिया गया है। हिन्दुस्तान में '' वर्जीनिया '' तम्बाकू पैदा नहीं होती चूँकि उसका आरंभिक उत्पादन '' वर्जीनिया '' में हुआ था, इसलिए नामकरण उसी आधार पर हो गया। यह प्रतिबंध लगाने की कोई सोच भी नहीं सकता कि तंबाकू का उपयोग या उत्पादन मात्र वर्जीनिया के लिए ही सीमित रखा जाय। भारतीय संस्कृति का उद्भव, विकास, प्रयोग, पोषण एवं विस्तार भारत से हुआ, इसलिए उसे उस नाम से पुकारा जाता है, तो यह उचित ही है, पर इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसका प्रयोग इसी देश के निवासियों तक सीमित था अथवा रहना चाहिए।
यजुर्वेद ७/१४ में एक पद आता है- '' सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा '' अर्थात यह प्रथम संस्कृति है, जो विश्वव्यापी है। सृष्टि के आरंभ में संभव है ऐसी छुटपुट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो, जो वर्ग विशेष, काल विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी रही हों। उन सब को पीछे छोड़कर यह भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई कि उसे विश्व संस्कृति कहा जा सके। हुआ भी यही- जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ, तो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा और सर्वोच्च भी। फलस्वरूप यह विश्वव्यापी होती चली गई। इस स्थिति का उपरोक्त मंत्र भाग में संकेत है। इतिहास न भी माने, तो भी तथ्य के रूप में स्वीकार करना ही होगा, कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएँ इस भारतीय संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान हैं।
'' विश्वास '' शब्द का अर्थ होता है-'' जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके, स्वीकार की जा सके। '' दूसरे शब्दों में इसे '' सार्वभौम '' भी कह सकते हैं। संस्कृति के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में '' सोम '' आता है। सोम क्या है ? अमृतम् वै सोम: ( शतपथ) अर्थात अमृत ही सोम है। अमृत क्या है- ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनंद। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है, जो ज्ञान और तप की, विवेकयुक्त सत्पयत्रों की ओर हमारी भावना और क्रियाशीलता को अग्रसर करती है। इस संस्कृति को जब, जहाँ जितनी मात्रा में अपनाया गया है, वहाँ उतना ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव आस्वादन किया गया।
देव संस्कृति की उत्कृष्ट ऋषि परंपरा
भारत की समुन्नत परिस्थिति और परिष्कृत मनः स्थिति का श्रेय यहाँ के ऋषियों को दिया जाता है, यह उचित भी है। उज्ज्वल चरित्र, उत्कृष्ट चिंतन, और साहसिक पुरुषार्थ का त्रिविध समन्वय जिन व्यक्तित्वों में होगा, वे स्वयं तो ऊँचे होंगे ही, अपने साथ- साथ लोक मानस को और समस्त वातावरण को भी ऊँचा उठाएँगें।ऋषियों की क्रिया- प्रक्रिया यही थी। वे सार्वजनिक क्षेत्र के हर पक्ष को देखते और सँभालते थे। द्रोणाचार्य, विश्वामित्र, परशुराम जैसे ऋषि धनुर्वेद में पारंगत थे। ये शस्त्र निर्माण और संचालन की शोध एवं शिक्षा के कार्य में संलग्न थे, ताकि असुरता से सफलतापूर्वक जूझा जा सके। चरक, सुश्रुत, वागभट्ट, अश्विनी कुमार, धन्वन्तरि जैसे ऋषि स्वास्थ्य संबंधित और चिकित्सा के रहस्यों को ढूँढ़ने और उसे सर्वसाधारण के लिए प्रस्तुत करने में संलग्न थे। नागार्जुन, हारीत, सुषेण जैसे रसायन विद्या के विकास और विस्तार में जुटे हुए थे। विश्वकर्मा, शतोधन जैसे ऋषियों ने शिल्प एवं वास्तुकला के संबंध में जो खोजा, उससे विश्व- सौंदर्य में असाधारण वृद्धि हुई। नारद, उपमन्यु, उद्दालक जैसे ऋषि स्वर- शास्त्र के सामगान के पारंगत थे। उन्होंने गायन- वाद्य की कला के मर्मों से जन मानस को आंदोलित किया और उसके रसास्वादन का विधि- विधान समझाया।
उत्कच, विद्रुध, महानंद जैसे ऋषि कृषि और पशु- पालन का विज्ञान विकसित करने में जुटे थे। व्यास परंपरा के ऋषियों ने शास्त्र रचना की मुहिम सँभाली। सूत- परंपरा के ऋषि प्रवचनकर्ता थे। चाणक्य, याज्ञवल्क्य, कण्व, धौम्य जैसे ऋषियों द्वारा विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षा संस्थान चलाए जाते थे। छोटे- बड़े गुरुकुल तो प्राय: सभी ऋषि चलाते थे। कपिल, कणाद, गौतम, पतंजलि जैसे दार्शनिकों द्वारा विश्वमानव की बौद्धिक क्षुधा बुझाने के लिए बहुमूल्य प्रतिपादन किए जाते रहे।वशिष्ठ, शुक्राचार्य, विदुर आदि ऋषि राजतंत्र का मार्गदर्शन करने में निरत थे। च्यवन, दधीचि जैसे ऋषियों ने तप- साधना करके मानवी अंतस्तल में छिपी रहस्यमय शक्तियों के उपयोग का पथ प्रशस्त किया था। लोकमंगल के अनेकानेक प्रयोजनों में यह ऋषि वर्ग के लोग निरंतर संलग्न रहते थे।
व्यक्तिगत सुख- सुविधाओं को परमार्थ प्रयोजनों के लिए निछाबर करते रहने में हर व्यक्ति ने यहाँ अपने को सौभाग्यशाली माना हैं। दधीचि ने अपनी अस्थियाँ निकाल कर देवताओं को दे दीं। शुः नशेप नरमेध की प्रथम आहुति बुनने के लिए आगे आया। मोरध्वज को पुत्रदान में संकोच नहीं हुआ। शिवि ने अपना मांस निकाल कर दिया। हरिश्चंद्र ने अपनी सारी संपदा विश्वमित्र को सौंपी। संयमराय ने अपने स्वामी पृथ्वीराज के प्राण बचाने के लिए अपने अंग काट- काट कर गिद्धों को डाले थे और उस समय की स्वामी- सेवक के बीच बनी रहने वाली वफादारी का उदाहरण प्रस्तुत किया था।
तब हर घर में भामाशाह थे। संचित पूँजी को परमार्थ के लिए सुरक्षित अमानत भर माना जाता था, समय आने पर देने में किसी को कोई संकोच नहीं होता था।
भारत की सर्वतोमुखी प्रगति और गौरव- गरिमा के अंतराल में वस्तुतः यही महानता का भावनात्मक इतिहास छिपा पड़ा है। इसी के फलस्वरूप यह देश भौतिक संपदाओं से सुसंपन्न रहा। हर्षोल्लास के प्रचुर साधनों से भंडार भरे रहे। शारीरिक बलिष्ठता और मानसिक प्रबुद्धता का स्तर बहुत ऊँचा रहा। मनुष्य, मनुष्य के बीच सघन आत्मीयता बिखरी पड़ती थी। मिल- जुलकर कमाने और खाने की प्रवृत्ति ने हर क्षेत्र में संतोषजनक प्रगति का पथ प्रशस्त किया था, संयमशीलता सज्जनता, सादगी और शालीनता की विभूतियाँ हर व्यक्ति को उपलब्ध थीं। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता में एक- दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में व्यक्ति निरत था। उन परिस्थितियों में सर्वत्र सुख- शांति का साम्राज्य था। यहाँ के निवासी देवता कहे जाते थे और यह देश स्वर्ग माना जाता था। इस वैभव को भारतवासियों ने अपनी भौगोलिक सीमाओं में सीमित नहीं रखा, वरन् विश्व के कोने- कोने में जाकर बिखेरा।
संत-सार्वभौम संपदा
यही नहीं, विदेश के अनेकों मनीषी इस संस्कृति से अभिभूत होकर उसके अंग बन गए। जीवन भर वे इसकी महत्ता के प्रचार- प्रसार में लगे रहे। मैक्समूलर, कामिल बुल्के, डॉ ०विल्सन जैसे ऐसे अनेक उदाहरण उद्धृत किया जा सकते हैं।
यह सही है कि संत किसी राष्ट्र या समुदाय विशेष के नहीं होते। वे उत्कृष्टता के पक्षधर होते हैं।
रामायण के तत्वान्वेषी कामिल बुल्के
बेल्जियम में जन्मे कामिल बुल्के आरंभ से ही तत्त्वज्ञान में अभिरुचि रखते थे। अपने देश में इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट होने के उपरांत वे भारत आए और ऋषि प्रणीत अध्यात्म ज्ञान का गहरा अध्ययन करने लगे। उनने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में बी०ए० किया, बाद में बाल्मीकि रामायण तथा तुलसीकृत राम चरित्र मानस के गहन अध्ययन में लग गए। उनकी आत्मा भारत में रम गई। शाकाहारी संत की -तरह रहने लगे। उन्होंने रामायण के रहस्यमय प्रसंगों की जानकारी सर्वसाधारण को कराने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं।
जिस रामायण को हम कथा मात्र मानते हैं, उसे इस बुद्धिवादी और तत्वान्वेषी संत ने युग के लिए बहुत ही सारगर्भित ग्रंथ सिद्ध किया है।
विश्व नागरिक- मीरा बेन
विदेशों में गांधी जी के बारे में बहुत चर्चा होती थी। उनमें से कितने ही कौतूहलवश गांधी जी के साथ रहना चाहते थे। इनमें से कुछेक को थोड़े समय ठहरने की आज्ञा मिल जाती थी,पर आश्रमवासी के रूप में उन्हें ही स्वीकृति दी जाती थी जो आजीवन निर्धारित प्रयोजनों के लिए अपना जीवन अर्पण करें।
मिस स्लेड इंग्लैंड के एक सैनिक परिवार में जन्मीं। उनकी बहुत इच्छा गांधी जी के संपर्क में रहने की थी। उन्हें अपने घर पर ही आश्रम जीवन का अभ्यास करने के लिए कहा गया और बन पड़े तो हिन्दुस्तान आने के लिए कहा गया। मिस स्लेड हिन्दुस्तान आकर मीरा बेन के नाम से प्रख्यात हुईं। उनने भारत को अपना घर माना और इंग्लैंड निवासियों की नाराजी की परवाह न की। वह अपने को विश्व नागरिक बना चुकी थीं। उनने पशु-पक्षियों तक से आत्मीयता स्थापित की और ऋषिकेश के समीप पशुलोक स्थापित करके जनसाधारण का ध्यान पशुओं के साथ आत्मीयता बरतने के लिए आकर्षित किया। वे आजीवन कुमारी रहीं।
चिकित्सक से संस्कृति प्रेमी
विल्सन इंग्लैंड से भारत में चिकित्सा अधिकारी बनकर आए थे। वहाँ आकर उन्हें भारतीय संस्कृति की गंभीरता का बोध हुआ। उनने संस्कृत भाषा पढ़ी और अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया। सरकारी काम से बचा हुआ सारा समय वे इसी कार्य में लगाते थे। भारत से लौटने के बाद वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर रहे। तब उन्हें और भी अधिक पढ़ने का अवसर मिला । जर्मनी के मैक्समूलर को उनने अपना मानस पुत्र माना, अपना निष्कर्ष उसे समझाया। वेदों के भाष्यकार मैक्समूलर को इतना श्रम करने का साहस विल्सन की प्रेरणा से ही मिला था।
आसुरीषु सदा शक्तिष्वलमाकर्षणं जनैः। अन्वभावि भवत्येवानिष्टकारी समं तू तत् ।। ७४।। बाह्याकर्षणमेतासु देवशक्तिषु तादृशम्। जायते न परन्त्वन्तः सौन्दर्यं क्षमता च सा ।। ७५।। कल्याणकारिणी नूनमद्वितीयैव विद्यते। देवसंस्कृतिरित्यर्थं मानव तत्प्रपञ्चतः ।। ७६ ।। संरक्ष्य च सुरौपम्यविकासप्रेरणां तथा। विधिं देवोपमं लोके यच्छतीह निरन्तरम् ।। ७७।।
भावार्थ - आसुरी शक्तियों में आकर्षण विशेष होता है परंतु वे अनिष्टकारी होती हैं । देवशक्तियों में बाह्याकर्षण उतना नहीं होता, परंतु आंतरिक सुंदरता और कल्याणकारी क्षमता अद्वितीय होती है। देवसंस्कृति मानवमात्र को आसुरी प्रपंच से बचाकर देवोपम विकास की प्रेरणा और विधि- व्यवस्था प्रदान करती है।। ७४-७७।।
व्याख्या- आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता भोग प्रधान है। अधिक उपार्जन एवं उसका उपभोग, सुख- सुविधाएँ इत्यादि ही उनका लक्ष्य बनकर रह गया है। इससे समृद्धि तो बढ़ी है किन्तु सबसे बड़ी हानि यह हुई है कि उससे सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। नैतिकता के प्रति पदार्थ परक दृष्टिकोण होने से न केवल दुराचरण बढ़ा है अपितु पारस्परिक संबंधों में रूक्षता, संकीर्ण स्वार्थपरता एवं स्वच्छंद उपभोगवाद ने मनश्चेतना पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। आदर्शवादिता कहने- सुनने की चीज रह गई है। यह संस्कृति की अवमानना की ही परिणति है। देवशक्तियों को पोषण देने वाली संस्कृति ही उस महा विनाश को बचा सकती है जो आधुनिकता का भविष्यत् कहा जा सकता है।
देवसंस्कृति का इतिहास बताता है कि अंत: के विकास एवं मानवी गरिमा की स्थापना हेतु इसकी अवधारणाओं ने अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
देव देने वाले को और दैत्य लेने वाले को कहते हैं। जिसने संसार में लिया कम और दिया अधिक, वह देव है। जो लेता अधिक और देता कम है उसकी गणना दैत्यों में की जाएगी। संक्षेप में स्वार्थी को दैत्य और परमार्थी को देव कहते हैं। देवों को मान दिया जाता है और दैत्यों के लिए सहज ही घृणा उठती है। यह नितांत स्वाभाविक है। स्थिति को देखते हुए लोक मानस में इस प्रकार की प्रतिक्रिया उठाना उचित ही है। व्यक्ति का चिंतन और कार्य जिस स्तर का है उसी के अनुरूप तो उसे श्रेय दिया या हेय समझा जा सकता है।
तत्वदर्शन में मानव के लिए महानात्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने की दिशा को ही परम लक्ष्य माना गया है। इसी से इस जन्म की सार्थकता है। स्वर्गमुक्ति, सिद्धि, आत्म साक्षात्कार, प्रभु प्राप्ति जैसे दिव्य लाभ मात्र परमार्थ पक्ष पर चलते हुए देव संस्कृति अपनाते हुए ही प्राप्त किए जा सकते हैं। सांसारिक यश, गौरव, सम्मान, सहयोग जैसे उच्चस्तरीय लाभ इसी मार्ग पर चलने से मिलते हैं।
श्रेष्ठ मान्यताओं पर आधारित देव संस्कृति के सारे सिद्धांत अपने आप में इतने सही एवं युगानुकूल हैं कि आज भी उन्हें परीक्षित कर ऊँचा उठ सकना, देवमानव की स्थिति में जा खड़ा होना संभव है। इसका एकमात्र कारण यह है कि ऋषियों ने जो अध्यात्म सिद्धांत निर्धारित किए, उन्हें अपनी बहुमूल्य मानवी काया रूपी प्रयोगशाला में सत्यापित भी किया । आत्मापरमात्मा, कर्मफल, मरणोत्तर जीवन संबंधी आप्तमान्यताओं का, भारतीय दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों का इसीलिए युगों- युगों से सम्मान किया जाता रहा है । उनके आधार पर जीवन दर्शन बना है व भारत निवासी उन पर चलकर प्रगति पथ पर आगे बढ़े हैं। जब भी इन मान्यताओं को झुठलाया गया, उस समुदाय को प्रतिकूलताओं ने घेरा है एवं उसे अंधकार भूरे समय से गुजरना पड़ा है।
देव मानवों की प्रेरणा- गंगोत्री भारतीय संस्कृति
प्राचीन भारत का इतिहास इस देश में जन्मे नर- रत्नों का इतिहास है। भारत भूमि ने अन्न, वृक्ष , खनिज जैसी प्राकृतिक संपदाएँ उत्पन्न करके भौतिक संपदाओं के ही भंडार नहीं भरे वरन् देवमानवों का भी प्रचुर मात्रा में उत्पादन किया। घर- घर में नर- रत्नों की खान थी। किसकी चमक कितनी प्रखर है ,इसकी प्रतिस्पर्धा रहती थी। महानता की कसौटी पर किसका कितना बढ़ा- चढ़ा मूल्यांकन होता है , इसी महत्त्वाकांक्षा से हर किसी का मन उद्वेलित रहता था। शूरवीर उन दिनों तलवार चलाने वाले ही नहीं माने जाते थे, वरन् उन्हें योद्धा घोषित किया जाता था, जिनने अपनी पशु प्रवृत्तियों को, तृष्णा- वासना को पैरों तले रोंद कर सच्ची विजय प्राप्त की। ऐसे आत्मजयी वीर योद्धा ही अभिनंदन और अभिवादन के पात्र समझे जाते थे। हर वर्ग में, हर क्षेत्र में ऐसे आत्मजयी वीर योद्धा भरे पड़े थे, उनके गौरवशाली अस्तित्व भारत माता की कीर्ति ध्वजा दशों दिशाओं में उड़ाते थे। इस आधार पर सुविकसित भारत की गौरव- गरिमा के सामने समस्त विश्व श्रद्धान्वत मस्तिष्क झुकाए खड़ा रहता था। उनकी विजय दुंदुभि विश्व के कोने- कोने में गूँजती- प्रतिध्वनित होती सुनाई पड़ती थी। प्राचीन इतिहास के जितने पृष्ठ उलटे जायें उनमें भारत की इसी विशिष्टता का उल्लेख स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ मिलता चला जाएगा।
उन दिनों अभिभावक यह प्रयत्न करते थे कि गर्भावस्था में पहुँचते ही बालक महामानवों की भूमिका में अवतरित हो। इसलिए उसकी शिक्षा उसी दिन से आरंभ हो जाती थी , जिस दिन कि उसने गर्भ में प्रवेश किया। मदालसा ने अपने कुछ बालकों को ब्रह्मज्ञानी बनाया, जब तक वे गर्भ में रहे, उसने अपना चिंतन और चरित्र वैसा ही ढाला जैसी कि उसे संतान चाहिए थी। फलतः वे ब्रह्मवेत्ताओं के संस्कार लेकर जन्मे। एक बालक को उसने अपनी इच्छानुसार राज्याध्यक्ष बनने योग्य ढाला। कुंती ,अंजनी, सीता, शकुन्तला के रूप में नर- रत्नों को जन्म देने वाली ऐसी अनेक देवियों की गाथाओं से हमारा इतिहास भरा पड़ा है।
नचिकेता के उदाचेता पिता वाजिश्रवा जब समस्त धन- धान्य लोक मंगल के लिए दान दे चुके तो उसने पूछा- '' आप लोभ त्याग की परीक्षा में सफल हो चुके फिर मोह त्याग में क्यों असफल होते हैं ?मुझे खिलौना बनाकर अपने पास क्यों रखना चाहते हैं? लोक मंगल के लिए मुझे भी दान क्यों नहीं दे देते ?'' वाजिश्रवा ने पुत्र को अपने से बढ़कर आदर्शवादी देखा तो हर्षोल्लास से उनकी आँखें डबडबा आईं, उन्होंने तत्काल महा तपस्वी यमाचार्य के हाथ में अपने पुत्र नचिकेता का हाथ सौंप दिया और वह ब्रह्मवेत्ता बनकर इस विश्व वसुधा का गौरव बढ़ाने में समर्थ हुआ।
आद्य शंकराचार्य की माता अपने इकलौते पुत्र को भौतिक प्रगति में सुख- समृद्धि युक्त देखना चाहती थीं। पुत्र- वधू और पौत्र के साथ रहने के लिए लालायित थीं। माता की मोह- ममता को उनके दस वर्षीय बालक ने चतुरतापूर्वक तोड़- मोड़ कर फेंक दिया। प्रसिद्ध है कि वे नदी में नहाने के समय '' मगर ने पकड़ा '' चिल्ला करके बोले कि मुझे शंकर जी को दान करो अन्यथा मगर खा जाएगा। माता ने अपना बालक शिवजी को दान कर दिया। वे मगर के मुँह में से छूटकर बाहर आ गए और परिव्राजक बनकर भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुए।
कुंती अज्ञातवास की अवधि में अपने बालकों को लेकर एक ब्राह्मण परिवार में छिपी हुई दिन काट रही थीं। उस गाँव में हर घर से एक मनुष्य राक्षस द्वारा खाए जाने का क्रम चल रहा था। उस दिन आश्रयदाता ब्राह्मण के इकलौते पुत्र की बारी आ गई। पाँचों बच्चे मचल पड़े । हममें से एक राक्षस के सामने क्यों न चला जाय और ब्राह्मण बालक को क्यों न बचा लिया जाय ? उनके प्रबल आग्रह ने कुंती को बात मानने के लिए बाध्य कर दिया। अब इस सौभाग्य का लाभ कौन उठाए इस पर सब बच्चे आपस में लड़ने लगे। अंततः गोली निकाल कर भाग्य का फैसला कराया गया। निर्णय भीम के पक्ष में हुआ। वह राक्षस के सामने हँसता- उछलता चला गया और स्वयं शिकार बनने के स्थान पर उलटा उसे ही मार कर आया। बच्चे उन दिनों जानते थे कि मरना भी यदि उद्देश्य के लिए संभव हो सके, तो वह हजार बार जीने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है।
गृहस्थ जीवन में भी जन साधारण के बीच आदर्शों की घोर प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता ठनी रहती थी। कौन किससे आगे निकेलता है ? यह चुनौती अपने- अपने क्षेत्र, में हर कोई अपने साथियों को देता रहता था। राम और भरत में दोनों के सामने ऐसा ही धर्म संकट उत्पन्न था। दोनों ही चाहते थे कि त्याग और आदर्श के क्षेत्र में उनकी हेठी न होने पाए। ' राज्य हमें नहीं दूसरे को मिले '' इस प्रतिद्वंद्विता में कोई हारा नहीं। फैसला यह हुआ कि राम की तरह ही भरत भी चौदह वर्ष तक तपस्वी जीवन जिएँगें, राज्य सिंहासन पर राम की खड़ाऊँ स्थापित की जाएँगी।
विश्वामित्र उन दिनों नवयुग का सूत्रपात कर रहे थे, उन्हें साधनों की आवश्यकता थी। उनके शिष्य हरिश्चंद्र ने पूर्ण निस्पृहता का परिचय दिया, अपनी सारी संपदा ऋषि के हवाले कर दी । कमी पड़ी तो अपने को, स्री- बच्चों कों बेचकर प्रस्तुत आवश्यकता की पूर्ति का आदर्श प्रस्तुत किया। सुदामा के गुरुकुल की अभावग्रस्त स्थिति दूर करने के लिए कृष्ण ने अपनी द्वारिका की संपत्ति का अधिकांश भाग ऋषि सुदामा को सौंप दिया था। राजा कर्ण को विपुल वेतन मिलता था , वे अपनी दैनिक आय में से निर्वाह की न्यूनतम राशि लेकर शेष उसी दिन सत्प्रयोजनों के लिए दान कर देते थे। मरते समय दाँतों में लगा सोना तक दान कर जाने वाले कर्ण की परंपरा उन दिनों सभी सुसंपन्न व्यक्तियों में प्रचलित थी। कभी किसी के पास धन जमा हो गया, तो विशिष्ट अवसर सामने आते ही उसने भामाशाह की तरह अपनी सारी संपदा प्रताप जैसे प्रयोजनों के लिए सौंपते हुए अपना भार हलका लिया।
राजा जनक व्यक्तिगत निर्वाह के लिए कृषि करते थे और स्वयं हल चलाते थे। राज्यकोष प्रजा की अमानत था और उसी के लिए खर्च होता था। ऐसा ही आचरण अन्य राजा भी करते थे। रानी अहिल्याबाई के राज्यकोष में से अधिकांश धर्म प्रयोजनों के लिए खर्च होता रहा। राजनैतिक विकृतियों का निवारण करने के लिए प्रस्तुत अश्वमेध योजनाएँ और सामाजिक अव्यवस्थाओं के निराकरण के लिए प्रस्तुत वाजपेय यज्ञ अभियानों में न केवल राजाओं के राज्यकोष खाली होते थे वरन् संपन्न लोगों की संपन्नता भी झाडू- बुहार कर साफ कर दी जाती थी।
अभिभावकों के प्रति संतान के कर्तव्य के उदाहरण ढूँढ़ें तो श्रवण कुमार द्वारा अंधे माँ- बाप को कंधे पर काँवर में बिठा कर तीर्थ यात्रा कराना, भीष्म पितामह को अपने पिता की प्रसन्नता के लिए आजीवन अविवाहित रहना, ययाति पुत्र का अपना यौवन वृद्ध पिता को देना, सत्यवान का तपस्वी पिता की सेवा व्यवस्था, लकड़हारा बनकर करते रहना- उन दिनों की संतान की कर्तव्य परायणता के सामान्य उदाहरण हैं।
पतिव्रत धर्म निर्वाह करने वाली सावित्री, दमयंती, सीता, गान्धारी सर्वत्र मिलेंगीं।स्वयं कष्टमय जीवन स्वीकार करके पतियों को कर्तव्य पथ पर धकेलने वाली वीर नारियाँ घर- धर में मौजूद थीं। उन्हें नीचे नहीं गिराती थीं वरन् ऊँचा उठाती थीं। पुत्रों को गुरुकुल के लिए, पतियों को धर्मयुद्ध के लिए भेजते हुए वै मोहग्रस्तता के आँसू नहीं बहाती थीं, वरन् गर्व- गौरव के साथ आरती उतारते हुए विदा करती थीं। हाड़ा की रानी की तरह उन्हें अपना सिर काट कर पति को मोहग्रस्तता से उबारने में आपत्ति नहीं होती थी। पन्ना दाई को अपना बच्चा प्यारा तो था, पर सौंपे हुए कर्तव्य से बढ़कर नहीं। उसने स्वामी का बच्चा बचाने के लिए अपने लाड़ले की आहुति चढ़ाते हुए आघात तो सहा, पर मन हलका यह सोचकर कर लिया कि उसने नारी की गरिमा की एक उपयुक्त स्थापना करने में गौरवमयी परंपरा सही रूप में निबाही। चित्तौड़ की रानियों ने अपना शरीर नहीं, नारी का साहस जीवित रखना उचित समझा और वें जीवित जलने जैसे कष्ट को सहने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार हो गई।
उपर्युक्त उदाहरण देव संस्कृति के उस स्वर्णिम इतिहास की एक झलक देते हैं व बताते हैं कि कैसे इसके विभिन्न सूत्रों को अपनाकर इस देश के नागरिक देवमानव के रूप में विकसित हो सके। देव संस्कृति अपने इस आत्मोत्थान की रीति- नीति के कारण ही आराध्य बनी व श्रेष्ठता का गौरव पाती रही है।
सन्देशवाहकाश्चास्याः स्वसदाचारतो जनान्। प्रशिक्षितात् प्रकुर्वन्त: प्रेरितान् व्याचरन् भुवि ।। ७८ ।। केवलं न मनुष्याँस्ते प्राणिमात्रं तु सर्वदा। अन्वभूंवम् स्वतुल्यं च तेषामेषा मनःस्थिति: ।। ७९ ।। प्रचण्डात्मीयताधारमाध्रित्याभूत् फलान्वितः। उद्घोषो विश्वमाकर्तुं कुटुम्बमिव वर्द्धितम् ।। ८० ।।
भावार्थ- देव संस्कृति के महान् संदेशवाहक अपने- अपने आचरण से जन- जन को प्रेरणा- प्रशिक्षण देते सारे, भूमंडल पर विचरते रहे हैं। वे मनुष्यों को ही नहीं, प्राणिमात्र को ही आत्मवत् अनुभव करते रहे हैं, क्योंकि उनकी मनःस्थिति ही ऐसी थी। इस प्रचंड आत्मीयभाव के आधार पर ही सारे विश्व को एक कुटुम्ब के रूप में विकसित करने का उनका उद्घोष सफल होता रहा है ।। ७८- ८० ।।
व्याख्या- 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से प्रेरित होकर 'बहुजन हिताय' की दृष्टि से यहाँ के निवासी समय- समय पर देश की सीमाओं को लाँघते हुए अपने ज्ञान- विज्ञान की संपत्ति को उन्मुक्त हाथों से बाँटने के लिए दूसरे देशों में भी पहुँचते रहे हैं। तब आज जैसे यातायात के सुविकसित साधन भी न थे। दुर्गम पहाड़ों, नदियों, रेगिस्तान, बीहड़ों की कष्टसाध्य यात्राएँ उनको पावन मनोरथ से डिगा नहीं पाती थीं। बृहत्तर भारत की नींव उनके इन दुस्साहसी प्रयत्नों से ही पड़ी। कुमारजीव, कश्यप, मतंग, बुद्धयश तथा गुणवर्मन आदि बौद्ध भिशुओं ने प्राणों को हथेली पर रखकर चीन की पैदल यात्राएँ कीं। उनके भाषणों, उपदेशों से वहाँ के मनीषी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उस भूमि की चरणरज मस्तक पर लगाने चल पड़े जिसने अमृत तुल्य तत्त्वज्ञान को जन्म दिया। फाह्यान, ह्वेन साँग, इत्सिंग आदि चीनी विद्वान् भारत आए तथा वर्षों तक अपनी ज्ञान पिपासा शांत करते रहे जो अपने देशवासियों में बाँटने वापस लौटे। मंगोलिया, साईबेरिया, कोरिया आदि में भी भारतीय विद्वानों के पहुँचने तथा संस्कृति के प्रचार का उल्लेख मिलता है।
कलिंग युद्ध के बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ। प्रायश्चित के लिए बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर धर्म के लिए न केवल स्वयं कार्य करना आरंभ किया, वरन् अपने पुत्र- पुत्री को भी वैसे ही अनुकरण के लिए प्रेरित किया। श्रीलंका में उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को प्रचारार्थ भेजा। गया से बोधिवृक्ष की शाखा लेकर उन्होंने लंका में आरोपित की। बौद्ध धर्म के धार्मिक चिह्न, ग्रन्थों एवं प्रसादों के रूप में, जो लंका में दिखाई पड़ते हैं, वे महेन्द्र संघमित्रा के प्रयासों के ही पुण्य प्रतिफल हैं। वर्मा का पुरातन नाम ब्रह्मदेश है। जिस पर भारतीय प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। बौद्ध भिक्षु यहाँ भी पहुंचे।
कंबोडिया, तीसरी से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य रहा। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ही एक ब्राह्मण कौण्डिन्य के नाम पर पड़ा, जिसने यहाँ नाग कन्या से विवाह किया और अपना राज्य स्थापित किया। उनके बाद जयवर्मन, यशोवर्मन, सूर्यवर्मन आदि राजा हुए। यहाँ के प्रख्यात मंदिर हैं- अंगकोर के। जिनकी दीवारों के पत्थरों पर रामायण के दृश्य खुदे हुए हैं। लाओस के कुछ मंदिरों में भी रामकथा के दृश्य देखे जा सकते हैं।
इंडोनेशिया यों तो वर्तमान मुस्लिम देश है, किन्तु भारतीय संस्कृति की अमिट छाप इस पर आज भी है। इंडोनेशिया यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता हैं- भारत द्वीप। जावा, सुमात्रा, बोर्निया आदि इसके द्वीप हैं। प्राचीनकाल में वे सभी भारत के अंग रहे थे। रक्त एवं संस्कृति दोनों ही दृष्टियों से वहाँ के निवासी भारतीयों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। जावा के लोगों में विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा व्यास ऋषि वहाँ गए थे तथा बस्तियाँ बसाई थीं। शैलेंड राजवंश द्वारा बरोबुदुर जैसे मंदिर वहाँ बनवाए गए, जिसमें बुद्ध की ४३२ मूर्तियाँ हैं। उन मूर्तियों पर गुप्तकला की भी स्पष्ट छाप है। मंदिर का बौद्ध स्तूप कलाकृति एवं सौंदर्य की दृष्टि से संसार भर में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। जावा के जोग, जकार्ता की रामलीला एवं नाटक संसार भर में प्रसिद्ध हैं। वे मूलतः राम कथानक पर आधारित होते हैं। मंदिर की प्रस्तर भित्तियों पर संपूर्ण रामकथा का चित्रण किया गया है। सुमात्रा में हिन्दू राज्य की स्थापना तथा भारतीय संस्कृति का विस्तार चौथी शताब्दी में हुआ। पलेमर्वग नामक स्थान कभी सुमात्रा की राजधानी था जहाँ भारतीय धर्म संस्कृति एवं अध्यात्म विषयों का शिक्षण होता था। पाली एवं संस्कृत भाषा यहाँ पढ़ाई जाती थी। इंडोनेशिया के वाली द्वीप के विषय में चीनी कहते हैं कि चौथी शताब्दी में कौण्डिन्यवंशी भारतीय राजा ने हिंदू राज्य की स्थापना की थी, जो दशवीं शताब्दी तक कायम रहा। बाद में वह हालैंड के आधीन आ गया।
बोर्निया द्वीप सबसे बड़ा है। यहाँ हिंदू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गई थी। शिव, अगस्त्य, गणेश, ब्रह्मा, स्कंद आदि ऋषियों एवं देवताओं की मूर्तियाँ यहाँ प्राप्त हुईं तथा कितने ही पुरातन हिन्दू मंदिर आज भी मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि यह द्वीप भारतीय संस्कृति का गढ़ रह चुका है।
इतिहासकारों का मत है कि थाईलैंड का पुराना नाम स्याम देश था। तीसरी शताब्दी में वह भारत का उपनिवेश बना तथा बारहवीं शताब्दी तक भारत के अधीन रहा । स्याम की सभ्यता भारतीय संस्कृति से पूरी तरह अनुप्राणित है। उसकी लिपि का उद्गम पाली भाषा में हुआ है, जो भारत की देन है। उनके रीति- रिवाजों में भारतीय जैसा साम्य दिखाई पड़ता है। दशहरा जैसे पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं। थाई जीवन में राम एवं रामायण के कथानक की गहराई तक जड़ें जमाए हुई हैं। अष्टमी , पूर्णिमा, अमावस्था आदि पर्वों पर भारत की तरह वहाँ भी छुट्टियाँ रहती हैं। थाई रामायण का नाम 'रामकियेन' है, जिसका अर्थ होता है- राम कीर्ति। थार्डलैंड में अयोध्या और लोषपुरी जैसी नगरियाँ हैं।
तिब्बती साहित्य पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव है। वहाँ के राजा सांगचन गम्पो ने भारतीय लिपि के आधार पर तिब्बत की वर्णमाला का आविष्कार किया, नालंदा के आचार्य शांतरक्षित ने सन् ७४७ में तिब्बत पहुँचकर समये नामक पहला विहार बनवाया। तत्पश्चात् काश्मीर के भिक्षुक पद्मसंभव के प्रयत्नों से वहाँ महायान की तांत्रिक शाखा का प्रचार हुआ। लामावाद की उत्पत्ति उसी से हुई।
ऐसे अगणित प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो यह बताते हैं किं भारत समय- समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान सागर से इस वसुधा को अभिसिंचित करता रहा है।
जगद्गुरु भारत के अग्रदूत
लोकसेवी परिव्राजक संतों ने अपनी गतिविधियाँ भारत की भौगोलिक सीमाओं के भीतर अवरुद्ध नहीं कीं, वरन् समस्त विश्व को अपना घर और समस्त मानव-जाति को अपना परिवार माना । अस्तु, वे पिछड़ेपन से जूझने के लिए दुर्गमता को चुनौती देते हुए धरती के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रसन्नतापूर्वक गए और यदि लौटना आवश्यक न लगा, तो वहीं डेरा डालकर बस गए। जहाँ जन्मा जाय, वहीं रहा जाय, यदि यह आग्रह होता, तो हिमालय का बर्फ गलकर नदियों के रूप में शुष्क क्षेत्रों को सींचते हुए आत्म समर्पण करने के लिए समुद्र तक दौड़े जाने का कष्ट न उठाता। फिर समुद्र का जल बादल बनकर अन्यत्र बरसने को सहमत न होता और सृष्टि का सारा क्रम- संतुलन ही बिगड़ जाता। महामानवों का भूमि या परिधि से ऊँचा उठा हुआ चिंतन होता है। उनकी आत्मीयता किसी भूखंड से नहीं बँधती, वरन् वे अधिक विपन्नता से अधिक कड़ा संघर्ष करने का लक्ष्य सामने रखकर अपना कार्य क्षेत्र निर्धारित करते हैं। अस्तु, इस देश के महामानवों की दृष्टि इस बात पर जमी रही कि किस भूखंड में किस स्तर का पिछड़ापन अधिक है, वहाँ पहुँचकर किस पद्धति को अपनाकर किन समस्याओं को कैसे हल किया जाय ? यही थी उस जमाने की धर्म विस्तार पद्धति। इसमें केवल पूजा- पाठ, शास्त्र वाचन ही नहीं माना जाता था ,वरन् स्थानीय समस्याओं में से प्रत्येक के समाधान को धर्म सेवा में सम्मिलित किया जाता था। अधिक जटिल समस्या को सर्वप्रथम समाधान के लिए हाथ में लिया जाता था।
इस परिष्कृत दृष्टिकोण को लेकर भारतीय तीर्थ- धर्म प्रचारक लोक सेवी विश्व के विभिन्न क्षेत्रों, प्रदेशों में पहुँचे और वहाँ की शासन प्रक्रिया को दिशा, प्रेरणा देकर सुव्यवस्थित किया। स्पष्ट है कि सुशासन के बिना प्रजा को स्थिरता एवं प्रगति का लाभ मिल ही नहीं सकता। भारतीय धर्म प्रचारकों ने सुदूर देशों की कवाइली सामंत शाही को हटा कर वहाँ प्रजा द्वारा प्रजा के लिए शासन का लक्ष्य लेकर सुशासनों की स्थापना की। इस संस्थापना नेतृत्व के लिए उन्हें कृतज्ञतापूर्वक चक्रवर्ती कहा गया। जहाँ संपत्ति के अभाव से दरिद्रता का साम्राज्य था, वहाँ कृषि, पशु- पालन, शिल्प, उद्योग आदि की सुव्यवस्था बनाकर संपन्नता के साधन जुटाए, इस कारण उन्हें वरदानी भूदेव कहा गया। अशिक्षा और अविद्या से छुटकारा दिलाकर वैयक्तिक और सामाजिक समर्थता का पथ- प्रशस्त किया, इसलिए उन्हें '' जगद्गुरु '' का सम्मान मिला। यह सर्वतोमुखी सेवा साधना थी। भारतीय परिव्राजकों का ऐसा ही बहुमुखी लाभ समस्त संसार की जनता ने उठाया। उन दिनों धर्म शब्द का प्रयोजन मानव जाति की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए ही किया जाता था। उन दिनों राजतंत्र का नहीं, लोक मानस पर धर्म- तंत्र का शासन था। इसलिए देश की सीमा निर्धारित करते समय यह देखना पड़ता था कि कितना क्षेत्र किस सांस्कृतिक आलोक से प्रभावित और प्रकाशित हो रहा है। इस दृष्टि से भारत की सीमाएँ लगभग विश्व सीमा जितनी थी ,क्योंकि यहाँ के तत्त्वदर्शी विज्ञ मनीषी अपने मस्तिष्क में किसी छोटे क्षेत्र या वर्ग के हित साधने करने की बात न सोचकर समस्त विश्व की समृद्धि एवं प्रगति को ध्यान में रखकर अपने चिंतन एवं कर्तृत्व का निर्धारण करते थे। '' वसुधैव कुटुम्बकम् '' की भावना उन्हें किसी क्षेत्र विशेष के हित साधन तक सीमित रहने ही नहीं दे सकती थी।
विश्व- वसुधा में फैली संस्कृति चेतना
भारतीय प्रतिभाएँ 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को हृदयंगम करके जहाँ कहीं पिछड़ापन देखा , वहीं दौड़- दौड़कर पहुँचती रही। हमारे पूर्वजों का घर- परिवार कुछ व्यक्तियों या कुछ इमारतों तक सीमित न था। वे समस्त विश्व को अपनी घर मानते थे और अपने को विश्व नागरिक के रूप में समझकर समस्त संसार को समुन्नत करने का उत्तरदायित्व अनुभव करते थे। भारत की भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत तो उनके कल्याणकारी क्रिया- कलाप गतिशील रहते थे, पर वे उतनी छोटी परिधि में सीमित नहीं रहते थे। समस्त मानव जाति में आत्मीयता की भावना रखते हुए वे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रयाण करते थे और जहाँ कहीं पिछड़ापन देखते, वहीं उसे मिटाने के लिए डट जाते। अपने को पूरी तरह खपा करके भी अभावों को समुन्नत स्थिति में बदलते थे।
अज्ञान और अभावों की निवृत्ति के लिए, प्रगति तथा समृद्धि का संवर्द्धन करने के लिए भारतीय प्रतिभाएँ निरंतर विश्व के कोने- कोने में पहुँचती रहीं। इसका विवरण इतिहास के पृष्ठों पर भरा पड़ा है। भारतीय धर्म- पुराणों में भी उन प्रमाणों और प्रयासों का विस्तृत विवरण मिलता है। यथा- अमेरिका से व्यास ऋषि ने अपने पुत्र शुकदेव को मोक्षधर्म का उपदेश लेने के लिए भारत में मिथिलापुरी में राजा जनक के पास भेजा।
विद्वान् पीकाक के अनुसार मिश्र के प्राचीन निवासी अपने को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहते थे और अपने को आदि मनु की संतान मानते थे। सूर्य देवता उनका उपास्य था।
पुराणों के अनुसार महर्षि विश्वामित्र के पुत्र आस्ट्रेलिया चले गए थे और उस देश को नए सिरे से बसाया था। इसी प्रकार तृष्णविन्दु राजकुमार भी उस देश में जा बसे थे। ऋषि पुलस्त्य भी उस देश में धर्म संस्थापना के लिए गए थे। महाभारत में उद्दालक ऋषि के पाताल लोक में जाने और धर्म प्रचार- जन जागरण करने का वर्णन है। अमेरिका को ही भारतीय इतिहास- पुराणों में पाताल लोक कहा गया है।
भविष्य पुराण के अनुसार कण्व ऋषि मिश्र देश गए और उन्होंने दस हजार म्लेच्छों को सुसंस्कृत बनाया। इनमें से कुछ को शूद्र, कुछ को वैश्य और कुछ को क्षत्रिय की संज्ञा दी।
सरस्वत्या स या कण्वो मिश्रदेशमुपाययौ। म्लेच्छा संस्कृत्य चाभाप्यत्तदा दशसहस्त्रकान् । (भविष्य पुराण)
कर्नल अल्काट ने '' थियोसोफिस्ट '' में यह प्रमाणित किया था कि अब से कोई आठ हजार वर्ष पहले भारतवासी मिश्र पहुँचे और उन्होंने उस क्षेत्र को एक उपनिवेश की तरह बसाया। इतिहासवेत्ताओं का कथन है कि ईरान, सीरिया आदि मध्य- पश्चिमी एशिया में बसे हुए आर्य लोग समीपवर्ती छोटे से समुद्र को पार करके अफ्रीका महाद्वीप में पहुँचे और उन्होंने वहाँ बसने तथा सभ्यता विस्तार का उपक्रम चलाया।
भगवान् बुद्ध ने जन मानस में छाए हुए अज्ञानांधकार को हटाने और ज्ञानामृत से आलोकित करने के लिए धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान चलाया और उसे किसी देश- धर्म तक सीमित न रखकर विश्वव्यापी बनाने का कार्यक्रम निर्धारित किया। वाराणसी से छै मील दूर सारनाथ में अपने पाँच शिष्यों- कौडिन्य, वग्र, महानाभ, भद्र और अश्वजित को बुलाकर बुद्ध ने इन्हें प्रव्रज्या की दीक्षा दी और कहा- '' भिक्षुओं ! अब तुम जाओ और मनुष्यों तथा देवताओं की भलाई के लिए परिव्राजक बनो। तुम सारे विश्व में उच्च आदर्शों का प्रचार करो और पवित्र जीवन जीने की विद्या सिखाओ। ''
सम्राट् अशोक ने तो बौद्धिक क्रांति को विश्वव्यापी बनाने के लिए एक सुनिश्चित योजना तैयार की थी और नौ प्रचारक मंडल देश- देशांतरों को भेजे थे। इन नौ प्रचारकों- मज्झांतिक, महादेव, राकीवत, योनधम्म, राकीवत, महाधम्म, मज्झिम आदि महाराकीवत, सोण उत्तर और महिंद आदि के नेतृत्व में भिक्षु मंडलियाँ भारत के सुदूर प्रांतों और विश्व के विभिन्न भागों की यात्राओं को निकलीं थीं। गांधार, यूनान, अरब, मिश्र, पेगू, सालमीन, लंका, मध्य एशिया, पूर्वी द्वीप समूह आदि देशों में यह मंडलियाँ कष्टसाध्य यात्राएँ पूरी करती हुई पहुँचीं और वहाँ की भाषा संबंधी कठिनाइयों का सामना करते हुए धर्म- संस्थापन में, लोक मंगल के अपने विजय अभियान में आशातीत सफलताएँ प्राप्त कीं।
भारत से विदेशों में जाकर जिन विद्वानों ने बौद्ध- धर्म के प्रचार- विस्तार में अपने को खपा दिया , उनकी संख्या हजारों है। पर इतिहास में जिनका नाम विशेष कर्तृत्व के साथ जुड़ा है, उनमें आचार्य दीपंकर, श्रीज्ञान, कुमारजीव, परमार्थ, बोधि धर्म, बोधिरुचिका विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने अपनी शिष्य- मंडली इसी प्रयोजन के लिए प्रशिक्षित की थी। जिस देश में जिन्हें जाना था, उन्हें वहाँ की भाषा, संस्कृति, स्थिति, यात्रा, संभावना आदि के संबंध में सुविस्तृत ज्ञान कराने का विशेष प्रबंधक किया गया था। विक्रमशिला विहार में अध्ययन करने के उपरांत उन्होंने तिब्बत, सुवणद्वीप (आधुनिक सुमात्रा) ताम्रलिप्ति (आधुनिक तामलुक) की मुहिम सँभाली। वे १०८ शिक्षा केन्द्रों का संचालन करते थे। वे नालंदा, उदंतपुरी, वज्रासन और विक्रमशिला महाविहारों का अनुकरण करते हुए स्थान- स्थान पर धर्म- धारणा तथा प्रचार- प्रक्रिया करने में निरत थे। तिब्बत उनका कार्यक्षेत्र विशेष रूप से रहा।
चीन में कार्यरत परिव्राजक
कुमारजीव काश्मीरी पंडित थे। उनका काल ३४४ से ४१३ तक का माना जाता है। चीन उनका विशेष कार्य क्षेत्र था, यों उन्होंने मध्य एशिया के खोतान, काशगर, यारकंद तथा तुर्किस्तान के अन्य क्षेत्रों को भी बौद्ध प्रकाश से आलोकित किया था। उन्होंने अपने जीवन- काल में तीन हजार से अधिक सुयोग्य धर्म- प्रचारक और साहित्य सृजेता तैयार किए थे। उन्होंने वहाँ की भाषाएँ सीखीं और वहाँ के निवासियों को लेखनी तथा वाणी से धर्मनिष्ठ बनाने के लिए अनवरत श्रम किया। बौद्ध- धर्म के विस्तार में ऐसे ही नैष्ठिक धर्म- प्रचारकों का त्याग- बलिदान काम आया है।
उज्जैन विश्वविद्यालय के छात्र परमार्थ जिनका दूसरा नाम गुणरत था, चीन चले गए और उस देश की भाषा को संस्कृत तथा पाली में लिखे बौद्ध- साहित्य से समृद्ध करने में अनवरत रूप से आजीवन लगे रहे। वे सन् ५४८ में नानकिंग (चीन) पहुँचे। इक्कीस वर्ष कार्यरत रह कर वे ५६९ में उसी देश की भूमि में अपनी मिट्टी को मिला गए। इस अवधि में उन्होंने जितना अनुवाद कार्य किया वह २७५ बड़ी जिल्दों में संग्रहीत है।
इसी प्रकार बोधि- धर्म का कार्य है। उन्हें धर्म- बोधि भी कहते हैं। वे सन् ५२६ में चीन पहुँचे और दस वर्ष कार्य करके ५३६ में उसी भूमि में समा गए। उन्होंने साधनात्मक शिक्षा का बहुत प्रसार किया। चीन के अनेक सम्राटों तथा विभूतिवानों को उन्होंने असाधारण रूप से प्रभावित किया था और उनके द्वारा धर्म- प्रचार के अनेक महत्त्वपूर्ण साधन जुटाए जाने का पथ- प्रशस्त किया था।
इसी श्रृंखला में दक्षिण भारत से चीन पहुँचने वाले विद्वान बोधिरुचि को भी रखा जा सकता है। वे युवावस्था में ही चीन चले गए थे और शताधिक आयुष्य भोगकर सन्७२७ में वहीं स्वर्गवासी हुए। उन्होंने लेखनी, वाणी तथा प्रचार- प्रक्रिया से जो कार्य किया, उसने चीन को बुद्ध- दर्शन के चरणों में श्रद्धावनत बनाने में चिरस्मरणीय भूमिका प्रस्तुत की।
भारतीय बौद्ध भिक्षुओं का प्रवाह चीन की ओर अनवरत रूप से बहता ही रहा। उसमें कमी- वेशी के ज्वार- भाटे भले ही आते रहे हों, पर क्रम की निरंतरता अनवरत रूप से चलती ही रही। ईसा की पाँचवीं शताब्दी में संघदेव, बुद्धभद्र, बुद्धजीव, गुणवर्गा, गुणभद्र, धर्ममित्र, कालयशस, संघवर्मा, धर्मरक्ष, आदि के नाम इतिहास के पृष्ठों पर अविस्मरणीय रूप से अंकित है। इनके अतिरिक्त उन सहस्रों धर्म- प्रचारकों के नाम अविज्ञात हैं, जिन्होंने धर्म- चक्र प्रवर्तन के लिए अपनी मातृभूमि और स्वजन- संबंधियों का मोह छोड़कर दुर्गम यात्राएँ कीं और चीन में बस कर धर्म प्रचार करते हुए वहीं मर- खप गए।
गुणवर्मन के पूर्वज काश्मीर के राज परिवार में से थे। पर उसके पिता संघानंद बौद्ध-धर्म में दीक्षित होकर एकांत साधना में संलग्न थे। उन्हीं दिनों गुणवर्मन का जन्म हुआ। किशोरावस्था में उन्होंने बौद्ध- धर्म का गंभीर अध्ययन किया और २० वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करके धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। पहले वे लंका पहुँचे, इसके बाद जावा गए। उनके धर्मोपदेशों से प्रभावित होकर जावा नरेश बौद्ध बन गए और उन्होंने अपनी समस्त प्रजा को भी उसका अनुयायी बना दिया। राजाज्ञा प्रसारित हुई- '' सभी प्रजाजन गुणवर्मन का आदर करें, हिंसा न करें, धर्मात्मा बनें और भगवान् बुद्ध के बताए मार्ग पर चलें। ''
सन् ४३१ में गुणवर्मन चीन पहुंचे। राजा '' संगविनति '' उनसे स्वयं मिलने आया, उनका राजकीय स्वागत किया और दीक्षा ग्रहण की। उनके लिए जेतवन विहार बनवाया।गुणवर्मन असाधारण विद्वान्, तपस्वी और प्रतिभा संपन्न थे। उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया, पर उनका मुख्य कार्य घूम- घूमकर धर्मं प्रचार करना ही रहा ।। भारत में घर- घर कही- सुनी जाने वाली '' सत्यनारायण कथा '' की तरह उन्होंने उपदेश के लिए '' सद्धर्म पुण्डरीक '' कथा प्रचलित की, जिससे धर्म प्रचार का कार्य क्रमबद्ध रूप से चलने लगा। कितने ही धर्मोपदेशक उस कथा- प्रवचन को लेकर जनता में घर- घर अलख जगाने के लिए कटिबद्ध हो गए।
गुण वर्मन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था चीन में महिला भिक्षुणियों का उद्भव और संगठन। नारी जागरण के पिछड़े क्षेत्र में उनके इस प्रयास में भारी जागृति उत्पन्न हुई। उस देश में ५०० वर्ष से बौद्ध धर्म प्रचलित था, पर उसमें महिलाएँ केवल दर्शक या अनुगामिनी मात्र थीं। वे संगठित रूप से इस महान मिशन के लिए कुछ कर सकें, ऐसा कोई प्रयत्न तब तक नहीं किया गया था। गुणवर्मन ने उस अभाव की पूर्ति की। उन्होंने महिला संघ की स्थापना करके उन्हें भी भिक्षुणी बनकर धर्म- प्रचार कार्य में निरत होने का अवसर दिया। गुणवर्मन के बाद गुणभद्र, धर्म, जलाशय, धर्मरुचि, रत्नमति, गौतम प्रज्ञारुचि जैसे प्रतिभाशाली और उद्भट विद्वान् धर्म प्रचारक चीन पहुँचे और धर्म विजय अभियान की सफलता का पथ- प्रशस्त किया।
मय सभ्यता अमेरिका में
अमेरिका के पुरातत्ववेत्ता वहाँ प्राचीन काल में समुन्नत '' मय '' सभ्यता होने की बात स्वीकार करते हैं। महाभारत में मय सभ्यता का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। पाण्डवों का अनौखा राजप्रासाद मित्रता के नाते मय शिल्पी ने ही बनाया था। सूर्य सिद्धांत की रचना के लिए किए गए ज्योतिर्विदों के प्रयास के संदर्भ में लिखा है- '' अल्पावशिष्टे तु कृते, मय नामा महासुर:। '' अर्थात्- शेष बचा थोड़ा सा शोध कार्य मयासुर ने पूरा किया।
जम्बू द्वीप
महाभारत में द्रौपदी युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहती है-'' हे महाराज! आपने जम्बू द्वीप जीतकर उसे आवाद कर दिया। फिर क्रौंच द्वीप आदि अनेक द्वीप- उपद्वीपों को सागर पार जाकर बसाया।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि नए- नए स्थानों को बसाना भारतीय वीरों का लक्ष्य रहा है।
मानवीय सभ्यता का आदि स्त्रोत भारत
साम्बपुराण, अध्याय २५ में वर्णन है-'' लवण सागर से आगे क्षीर सागर से घिरा शाक द्वीप है। जम्बू द्वीप से काफी दूर है। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण के लोग बसते थे। वे सूर्य उपासक थे, उनके कुल अठारह वेदपाठी थे। भारत से पराक्रमी मग जाति मंगोलिया जाकर बसी थी, उसी आधार पर मंगोलिया नाम रखा गया था। इसी क्षेत्र को शाक द्वीप तथा निवासियों को शक भी कहा जाता है। मग और शक एक ही वंश के दो नाम थे शाक द्वीप में मग लोगों द्वारा निवास तथा शासन करने की स्पष्ट चर्चा महाभारत में भी की गई है।
अफ्रीका में पाए जाने वाले जुलू लोग '' झल्ल '' वंश के क्षत्रियों की संतानें है। प्रो. टेलर ने अपने ग्रंथ '' ओरिजन ऑफ आर्यन्स '' में ऐसे अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, जिससे वर्तमान योरोपियन्स नस्ल का, आर्यरक्त के साथ मंगोल जाति वाली महिलाओं का संकरण होने का उद्भव माना गया है। '' ऋग्वैदिक इंडिया '' नामक ग्रंथ में भी इसी तथ्य की पुष्टि की गई है। चीन, जापान, वर्मा, श्याम आदि देशों में बसने वाली जातियों का उद्भव आर्य जाति से होना उमेश चंद्र विद्यारत्न कृत '' मानवेर आदि जन्मभूमि '' नामक बंगला ग्रंथ में किया गया है।
प्रो. हीरन ने चीन निवासियों के अति प्राचीन उद्भव स्रोतों का वर्णन करते हुए लिखा है कि चीन को भारत का ही विकास- विस्तार कहा जा सकता है। स्कंद पुराण के अनुसार यवनों की उत्पत्ति तुर्वस से हुई। तुर्वस राजा ययाति का पुत्र था, जो वहाँ जाकर बस गया था। शक राजकुमार से शक जाति उत्पन्न हुई। यह शक राजा इक्ष्वाकु का पौत्र था। मिश्र, चीन, ग्रीक आदि के निवासी ही प्राचीन काल से यवन और शक के नाम से संबोधित किए जाते थे।
पारसी लोग फारस में जाकर बसने से पहले भारत के निवासी थे। ईरानी लोग आर्यान् शब्द के अपभ्रंश हैं, जो भारत के ही मूल निवासी थे। अरब देशों में बसने वाली शक जाति व्रतहीन ब्राह्मणों से उत्पन्न हुई है। उन्हीं में से एक को '' शेख '' भी कहते हैं। आस्ट्रेलिया की आदिम जातियों का मूल भारत ही है। मनुस्मृति में स्पष्ट उल्लेख है कि धरि- धीरे क्रियालोप हो जाने से ब्राह्मणों का संपर्क टूट जाने से संसार में फैली हुई क्षत्रिय जातियाँ वृषल और दस्यु बन गई । पौण्ड्र, ओड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, दरद, खस आदि जातियाँ इसी प्रकार बनीं। वे आर्य भाषा भूलकर म्लेच्छ भाषा तथा परंपरा अपना बैठीं।
विश्व के समस्त भूभाग में भारतीय धर्म एवं संस्कृति का वैभव- विस्तार का प्रमाण सिद्ध है। इन सभी महाद्वीपों में किसी समय भारतवासी पहुँचे हैं और उन क्षेत्रों के विकास में बहुमूल्य योगदान देते रहे है। यही कारण है कि इन देश के पुरुषार्थी एवं परमार्थ परायण महामानवों को विश्व नागरिकों द्वारा जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक, देव- मानव आदि के नाम से संबोधित किया जाता रहा है।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽ त्मविद्ययोः, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः, श्रीकात्यायन ऋषि प्रतिपादिते '' देवसंस्कृतिजिज्ञासे,'' ति प्रकरणो नाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
भावार्थ- भौतिक विज्ञान पदार्थ एवं पदार्थगत ऊर्जा के नियंत्रण और उपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है। अध्यात्म विज्ञान के सहारे अंतःचेतना तथा महत् चेतना के अनुशासन हस्तगत होते हैं । पदार्थ पर अंतःचेतना का नियंत्रण रहे अंतःचेतना महत् चेतना से युक्त रहे । विकास और सुख -शांति का श्रेष्ठ क्रम यही है। यह महान् सिद्धांत देव संस्कृति ने जन- जन के चिंतन और चरित्र में उतार में सफलता पाई है। इसी से महान् लोक- कल्याण हुआ है । इसीलिए इसे विश्वस्तर पर श्रेष्ठतम संस्कृति के रूप में मान्यता मिली है। यह मानव को देवता बनाती है, अत: देव संस्कृति कहलाती है ।। ६५ -७० ।।
व्याव्या- भारतीय संस्कृति- देव संस्कृति ने चिर पुरातन काल 'से मानवता को अनेकानेक अनुदान दिए हैं। अपने स्वरूप, श्रेष्ठ उद्देश्यों, सार्वभौम रूप के कारण इसे विश्व संस्कृति का पर्याय माना जा सकता है। सभ्यता इसी के गर्भ से पनपी, जिससे ज्ञान- विज्ञान की अनेकानेक विधाओं ने जन्म लिया एवं सारे विश्व को उन उपलब्धियों से लाभान्वित किया। किसी देश, जाति, धर्म- संप्रदाय, वर्ग, समाज विशेष तक सीमित न रहकर यह संपूर्ण मानव जाति के विकास एवं कल्याण का पथ प्रशस्त करती रही। इसका मूल आधार है यहाँ की ऋषि परंपरा। ऋषियों की आध्यात्मिक एवं वैचारिक संपदा अब भी परोक्ष रूप से वातावरण में गुंजित पाई जा सकती है।
भौतिकी और आत्मिकी की परस्पर अन्योन्याश्रयता का प्रतिपादन देव संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। पदार्थ विज्ञान, भौतिकी स्थूल उपादानों से संबंधित है, जबकि चेतना विज्ञान, आत्मिकी, परोक्ष चेतना हलचलों से संबंधित हैं। पदार्थ में गति है तो चेतन में गति है। गति के पीछे कोई उद्देश्य न हो, वह गति से (प्रज्ञा- विवेक अंतर्दृष्टि) समन्वित न हो तो एक निरर्थक परिभ्रमण की खिलवाड़ ही चारों ओर नजर आएगी। साधनों के बिना गति, अंतश्चेतना भी अधूरी है। भौतिकी का अनुदान 'सुविधा' है तो आत्मिकी का वरदान है 'प्रतिभा'। दोनों की अपनी- अपनी उपयोगिता है, किन्तु इन्हें समन्वित रूप से प्रस्तुत करना संस्कृति का उत्तरदायित्व है। देव संस्कृति ने इन्हीं सूत्रों को जन सुलभ बनाकर जन- जन के मनों तक पहुँचाया है। इसी कारण इसके अनुयायी बाह्य सुख साधनों के उपभोग तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु अंत: के पुरुषार्थ में सतत संलग्न रहे। धर्म संस्कृति की प्राण चेतना का जीवंत रहना ही इसके अनुयायियों की चरित्र निष्ठा के मूल में रही है ।
सिकंदर संस्कृति की गारिमा से अभिभूत
मैकक्रिडल नामक एक पाश्चात्य विचारक ने मैगस्थनीज के इंदिक ग्रंथ का उदाहरण देते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि जब सिकंदर भारत पर आक्रमण हेतु निकला तब उसके गुरु अरस्तू ने उसे आदेश दिया था कि वह भारत से लौटते समय दो उपहार अवश्य लाए- एक गीता, दूसरा एक दार्शनिक संत जो वहाँ की थाती है। सिकंदर जब वापस लौटने को था तो उसने अपने सेनापति को आदेश दिया कि '' भारत के किसी संत को ढूँढ़कर ससम्मान ले आओ। '' सैनिक '' दंडी स्वामी '' जिसका उल्लेख ग्रीक भाषा में '' डैडी मींग '' के रूप में हुआ है, से मिला। दंडी स्वामी से सिकंदर के दूत ने मिलकर कहा- '' आप हमारे साथ चलें,सिकंदर महान् आपको मालोमाल कर देंगे। अपार वैभव आपके चरणों में होगा। '' अपनी सहज मुस्कान में दंडी स्वामी ने उत्तर दिया- '' हमारे रहने के लिए शस्य- श्यामला भारत की पावन, भूमि, पहनने के लिए वल्कल वस्त्र , पीने के लिए गंगा की अमृत धार तथा खाने के लिए एक पाव आटा पर्याप्त है। हमारे पास संसार की सबसे बड़ी संपत्ति आत्मधन है। इस धन की दृष्टि से तुम्हारा दरिद्र सिकंदर हमें क्या दे सकता है ?'' शक्ति एवं संपत्ति के दर्प से चूर सिकंदर ने सैनिक की वार्तालाप को जब सुना तो विस्मित रह गया। अहंकार चकनाचूर हो गया। आध्यात्मिक संपदा के धनी इस देश के समक्ष नतमस्तक होकर चला गया।
देव सुसंस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा
मैक्समूलर ने एक पुस्तक लिखी है- '' इंडिया व्हाट कैन इट टीच अस ''। इस पुस्तक को पढ़ने से उनकी भारत के प्रति अगाध श्रद्धा भाव का पता लगता है। वे लिखते हैं कि- '' मैं विश्व भर में उस देश को ढूँढ़ने के लिए चारों दिशाओं में दृष्टि दौड़ाऊँ, जिस पर प्रकृति देवी ने अपना संपूर्ण वैभव, पराक्रम एवं सौंदर्य मुक्त हाथों से लुटाकर उसे पृथ्वी का स्वर्ग बना दिया है तो मेरा इशारा भारत की ओर होगा। यदि मुझसे पूछा जाय कि अंतरिक्ष के नीचे वह कौन- सा स्थल है, जहाँ मनुष्य ने अपने अंतराल में सन्निहित ईश्वर प्रदत्त उदात्त भावों को पूर्णरूपेण विकसित किया है तथा जीवन की गहराई में उतार कर कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है। उनमें अधिकांश को सुलझाया है। यह सब जानकर 'कांट' एवं '' प्लेटो '' जैसे दार्शनिकों से प्रभावित मनीषी भी आश्चर्यचकित रह जाँय वह पूछें कि वह देश कौन सा है, तो मेरी अंगुली सहज ही भारत की ओर उठेंगी और यदि मैं अपने आपसे प्रश्न करूँ कि हम यूरोपवासी, जो अब तक केवल ग्रीक, यहूदी एवं रोमन विचारों में पलते रहे हैं, किस साहित्य से वह प्रेरणा ले सकते हैं , जो हमारे अंतरंग जीवन को परिशोधित करे, उसे उन्नति की ओर अग्रसर करे, व्यापक एवं विश्वजनीन बनाए, सही अर्थों में मानवीय गुणों से सुसंपन्न करे जिससे हमारे पंचभौतिक जीवन को ही नहीं, हमारी सनातन आत्मा को भी प्रेरणा मिले तो पुनः मेरी उँगली भारत की ओर उठ जाएगी। ''
प्राकृतिक सौंदर्य, संपदा एवं आत्मिक विचार संपदा का धनी यही वह देश है जिसके ज्ञान सागर में डुबकी लगाकर जर्मनी का प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर कह पड़ा कि- '' विश्व के संपूर्ण साहित्यिक भंडार में किसी ग्रंथ का अध्ययन मानव विकास के लिए इतना उपयोगी एवं ऊँचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शांति मिली है तथा मृत्यु के समय में भी शांति मिलेगी। ''
उपनिषदों की चेतना शक्ति
संप्रदाय, मजहब, जाति, वर्ग एवं राष्ट्रीय दीवारों से निकलकर मानवी सिद्धांतों एवं विश्व बंधुत्व को प्रोत्साहन देने वाली यहाँ की ज्ञान संपदा ने प्रत्येक धर्म एवं मजहब के व्यक्तियों को प्रभावित किया है। औरंगजेब का भाई दाराशिकोह उपनिषदों के एक बार रसास्वादन के उपरांत उसकी मस्ती में इतना डूबा कि निरंतर छू: माह तक काशी के पंडितों को बुलाकर उनकी व्याख्या सुनता रहा। दूसरों को भी उसका लाभ मिले- यह सोचकर उसने १६३६ में स्वयं फारसी में उपनिषदों का अनुवाद किया। दाराशिकोह के इस भाषांतर को फ्रैंच केविद्वान '' एन्क्विटिल ड्यूपैरो '' ने पढ़ा। उसकी रुचि इतनी बढ़ी कि सभी प्रमुख प्राच्य शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों का अध्ययन कर डाला। फारसी अनुवाद के आधार पर उसने १८०१ में इनका लैटिन भाषा में अनुवाद किया। दाराशिकोह का फारसी अनुवाद एवं एन्क्विटिल का ईसाई अनुवाद अब भी मुस्लिम एवं ईसाई जगत में अत्यंत श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक लुई जेकिलिमेट ने भाव भरे शब्दों में लिखा है- '' हे मानव जाति के आदर्शों की पोषक भारत भूमि! तुझे नमस्कार है। शताब्दियों तक अगणित आक्रमण सहते रहने पर भी तेरी गरिमा न तो मलिन हुई न कलुषित। तेरा स्वागत है। हे श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान की जन्मदात्री। तुझे शत- शत नमन !''
विकसन्ति महात्मानः संस्कृतिश्चापि कुत्रचित्। क्षेत्रे विशेष एवात्र परं बद्धा न सीम्नि ते ।। ७१ ।। विकासं भारते याता देवसंस्कृतिरित्यहो। सत्यं' परन्तु सा विश्वसंस्कृतौ चिन्तिता बुधैः ।। ७ २ ।। गौरवं चेदमेवेयं गता काले महत्तरे। तदा विश्वं सुखं शान्तिमन्वभूच्च निरन्तरम् ।। ७३ ।।
भावार्थ- संत और संस्कृति किसी क्षेत्र में विकसित तो होते हैं परंतु उन्हें किसी सीमा- बंधन में बाँधा नहीं जा सकता। देव- संस्कृति भारतभूमि में विकसित हुई , यह सत्य हुई, किन्तु वह वस्तुतः विश्वसंस्कृति के रूप में मनीषियों द्वारा गढ़ी गई थी और यही गौरव उसे दीर्घकाल तक प्राप्त भी रहा। उस समय विश्व ने महान् सुख- शांति अनुभव की ।। ७१ -७३ ।।
व्याख्या- यह सही है कि कोई भी विभूति अथवा विशिष्टता स्थान विशेष से जुड़ी होने के कारण वही नाम ले लेती है, पर वह उस सीमा में आबद्ध संकीर्ण बनी नहीं कही जा सकती। संत सार्वभौम होते हैं, सारी मानव जाति का कल्याण उनका मूल उद्देश्य होता है। भारत को सनातन काल से विश्व गुरु कहलाने का, वसुधा का मुकुटमणि कहे जाने का श्रेय इसलिए मिला कि यहाँ के ऋषियों- चिंतकों ने सदैव समग्र वसुधा के उत्कर्ष को ध्यान में रखते हुए अपनी गतिविधियाँ चलाई। उनके प्रतिपादन सार्वभौम हैं। वे विश्व एकता के लिए सारी वसुधा पर भ्रमण करते रहे हैं। उन्होंने स्नेह के बंधन मे सारी मानव जाति को सूत्रबद्ध करने का प्रयास किया एवं इसमें वे सफल रहे । व्यास- बाल्मीकि, बुद्ध- महावीर, शंकराचार्य- रामानुज, कुमारजीव-विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर- तुकाराम, नानक- कबीर एवं महात्मा गाँधी- अरविन्द जैसी विभूतियों ने संस्कृति की इस प्रगति यात्रा को आगे बढ़ाया है ।। भारतीय संस्कृति उपयोगिता की दृष्टि से विश्वधर्म, विश्वसंस्कृति के रूप में ही आरंभ से गठित की गई, इसीलिए इतनी अधिक विविधताओं का समावेश इसमें मिलता है।
देव संस्कृति- विश्व संस्कृति
भारतीय संस्कृति, मानव संस्कृति है। उसमें मानवता के सभी सद्गुणों को भली प्रकार विकसित करने वाले सभी तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। जिस प्रकार कश्मीर में, पैदा होने वाली केशर , कश्मीरी केशर के नाम से अपनी जन्मभूमि के नाम पर प्रसिद्ध है। इस नाम के अर्थ यह नहीं कि उसका उपयोग केवल काश्मीर निवासियों तक ही सीमित। भारतीय संस्कृति नाम ही इसीलिए पड़ा कि वह भारत में पैदा हुई है, वस्तुतः वह विश्व संस्कृति है, मानव संस्कृति है। सारे विश्व के मानवों की अंत प्रेरणा को श्रेष्ठ दिशा में प्रेरित करने की क्षमता उसमें कूट- कूट कर भरी है। संस्कृति का अर्थ है- वह, कार्य- पद्धति जो संस्कार संपन्न हो। ऊबड़- खाबड़ पैड़- पौधों को जिस प्रकार काट- छाँट कर उन्हें सुरम्य सुशोभित बनाया जाता है, वही कार्य व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित करके संस्कृति द्वारा संपन्न किया जाता है। किसान जैसे भूमि को खाद, पानी, जुताई आदि से उर्वरक बनाता है और बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक उन पौधों को सींचने, संभालने, निराने, रखाने की अनेक प्रक्रियाएँ करता है, वही कार्य संस्कृति द्वारा मानवीय मनोभूमि को उर्वर एवं फलित बनाने के लिए किया जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए '' कल्चर '' शब्द आता है। उसका शब्दार्थ भी उसी ध्वनि को प्रकट करता है। अस्त- व्यस्तता के निराकरण व्यवस्था के निर्माण के लिए जो प्रयत्न किए जाँय उन्हें '' कल्चर '' कहा जा सकता है। संस्कृति का यही प्रयोजन है। ''संस्कृति '' के साथ '' भारतीय '' शब्द जोड़ कर उसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह मात्र भारतीयों के लिए ही उपयोगी है। अन्वेषण का श्रेय देने के लिए कई बार नामकरण उनके कर्त्ताओं को दे दिया जाता है। कई ग्रह- नक्षत्रों की अभी- अभी नई खोज हुई है। उनके नाम शोधकर्ताओं के नाम पर रखे गए हैं। पहाड़ो की जिन ऊँची चोटियों पर जो यात्री पहले पहुँचे, इनके नाम भी उन साहसियों के नाम पर रख दिए गए। धर्म- संप्रदायों के संबंध में भी ऐसा ही होता है। उनके आचार्यों, संस्थापकों का नाम स्मरण बना रहे, इसलिए उनके नाम से भी संप्रदाय पुकारे जाते हैं। इसका अर्थ उन पदार्थों या मान्यताओं को उन्हीं की संपत्ति मान लेना नहीं है, जिनका कि नाम जोड़ दिया गया है। हिन्दुस्तान में '' वर्जीनिया '' तम्बाकू पैदा नहीं होती चूँकि उसका आरंभिक उत्पादन '' वर्जीनिया '' में हुआ था, इसलिए नामकरण उसी आधार पर हो गया। यह प्रतिबंध लगाने की कोई सोच भी नहीं सकता कि तंबाकू का उपयोग या उत्पादन मात्र वर्जीनिया के लिए ही सीमित रखा जाय। भारतीय संस्कृति का उद्भव, विकास, प्रयोग, पोषण एवं विस्तार भारत से हुआ, इसलिए उसे उस नाम से पुकारा जाता है, तो यह उचित ही है, पर इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसका प्रयोग इसी देश के निवासियों तक सीमित था अथवा रहना चाहिए।
यजुर्वेद ७/१४ में एक पद आता है- '' सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा '' अर्थात यह प्रथम संस्कृति है, जो विश्वव्यापी है। सृष्टि के आरंभ में संभव है ऐसी छुटपुट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो, जो वर्ग विशेष, काल विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी रही हों। उन सब को पीछे छोड़कर यह भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई कि उसे विश्व संस्कृति कहा जा सके। हुआ भी यही- जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ, तो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा और सर्वोच्च भी। फलस्वरूप यह विश्वव्यापी होती चली गई। इस स्थिति का उपरोक्त मंत्र भाग में संकेत है। इतिहास न भी माने, तो भी तथ्य के रूप में स्वीकार करना ही होगा, कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएँ इस भारतीय संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान हैं।
'' विश्वास '' शब्द का अर्थ होता है-'' जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके, स्वीकार की जा सके। '' दूसरे शब्दों में इसे '' सार्वभौम '' भी कह सकते हैं। संस्कृति के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में '' सोम '' आता है। सोम क्या है ? अमृतम् वै सोम: ( शतपथ) अर्थात अमृत ही सोम है। अमृत क्या है- ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनंद। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है, जो ज्ञान और तप की, विवेकयुक्त सत्पयत्रों की ओर हमारी भावना और क्रियाशीलता को अग्रसर करती है। इस संस्कृति को जब, जहाँ जितनी मात्रा में अपनाया गया है, वहाँ उतना ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव आस्वादन किया गया।
देव संस्कृति की उत्कृष्ट ऋषि परंपरा
भारत की समुन्नत परिस्थिति और परिष्कृत मनः स्थिति का श्रेय यहाँ के ऋषियों को दिया जाता है, यह उचित भी है। उज्ज्वल चरित्र, उत्कृष्ट चिंतन, और साहसिक पुरुषार्थ का त्रिविध समन्वय जिन व्यक्तित्वों में होगा, वे स्वयं तो ऊँचे होंगे ही, अपने साथ- साथ लोक मानस को और समस्त वातावरण को भी ऊँचा उठाएँगें।ऋषियों की क्रिया- प्रक्रिया यही थी। वे सार्वजनिक क्षेत्र के हर पक्ष को देखते और सँभालते थे। द्रोणाचार्य, विश्वामित्र, परशुराम जैसे ऋषि धनुर्वेद में पारंगत थे। ये शस्त्र निर्माण और संचालन की शोध एवं शिक्षा के कार्य में संलग्न थे, ताकि असुरता से सफलतापूर्वक जूझा जा सके। चरक, सुश्रुत, वागभट्ट, अश्विनी कुमार, धन्वन्तरि जैसे ऋषि स्वास्थ्य संबंधित और चिकित्सा के रहस्यों को ढूँढ़ने और उसे सर्वसाधारण के लिए प्रस्तुत करने में संलग्न थे। नागार्जुन, हारीत, सुषेण जैसे रसायन विद्या के विकास और विस्तार में जुटे हुए थे। विश्वकर्मा, शतोधन जैसे ऋषियों ने शिल्प एवं वास्तुकला के संबंध में जो खोजा, उससे विश्व- सौंदर्य में असाधारण वृद्धि हुई। नारद, उपमन्यु, उद्दालक जैसे ऋषि स्वर- शास्त्र के सामगान के पारंगत थे। उन्होंने गायन- वाद्य की कला के मर्मों से जन मानस को आंदोलित किया और उसके रसास्वादन का विधि- विधान समझाया।
उत्कच, विद्रुध, महानंद जैसे ऋषि कृषि और पशु- पालन का विज्ञान विकसित करने में जुटे थे। व्यास परंपरा के ऋषियों ने शास्त्र रचना की मुहिम सँभाली। सूत- परंपरा के ऋषि प्रवचनकर्ता थे। चाणक्य, याज्ञवल्क्य, कण्व, धौम्य जैसे ऋषियों द्वारा विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षा संस्थान चलाए जाते थे। छोटे- बड़े गुरुकुल तो प्राय: सभी ऋषि चलाते थे। कपिल, कणाद, गौतम, पतंजलि जैसे दार्शनिकों द्वारा विश्वमानव की बौद्धिक क्षुधा बुझाने के लिए बहुमूल्य प्रतिपादन किए जाते रहे।वशिष्ठ, शुक्राचार्य, विदुर आदि ऋषि राजतंत्र का मार्गदर्शन करने में निरत थे। च्यवन, दधीचि जैसे ऋषियों ने तप- साधना करके मानवी अंतस्तल में छिपी रहस्यमय शक्तियों के उपयोग का पथ प्रशस्त किया था। लोकमंगल के अनेकानेक प्रयोजनों में यह ऋषि वर्ग के लोग निरंतर संलग्न रहते थे।
व्यक्तिगत सुख- सुविधाओं को परमार्थ प्रयोजनों के लिए निछाबर करते रहने में हर व्यक्ति ने यहाँ अपने को सौभाग्यशाली माना हैं। दधीचि ने अपनी अस्थियाँ निकाल कर देवताओं को दे दीं। शुः नशेप नरमेध की प्रथम आहुति बुनने के लिए आगे आया। मोरध्वज को पुत्रदान में संकोच नहीं हुआ। शिवि ने अपना मांस निकाल कर दिया। हरिश्चंद्र ने अपनी सारी संपदा विश्वमित्र को सौंपी। संयमराय ने अपने स्वामी पृथ्वीराज के प्राण बचाने के लिए अपने अंग काट- काट कर गिद्धों को डाले थे और उस समय की स्वामी- सेवक के बीच बनी रहने वाली वफादारी का उदाहरण प्रस्तुत किया था।
तब हर घर में भामाशाह थे। संचित पूँजी को परमार्थ के लिए सुरक्षित अमानत भर माना जाता था, समय आने पर देने में किसी को कोई संकोच नहीं होता था।
भारत की सर्वतोमुखी प्रगति और गौरव- गरिमा के अंतराल में वस्तुतः यही महानता का भावनात्मक इतिहास छिपा पड़ा है। इसी के फलस्वरूप यह देश भौतिक संपदाओं से सुसंपन्न रहा। हर्षोल्लास के प्रचुर साधनों से भंडार भरे रहे। शारीरिक बलिष्ठता और मानसिक प्रबुद्धता का स्तर बहुत ऊँचा रहा। मनुष्य, मनुष्य के बीच सघन आत्मीयता बिखरी पड़ती थी। मिल- जुलकर कमाने और खाने की प्रवृत्ति ने हर क्षेत्र में संतोषजनक प्रगति का पथ प्रशस्त किया था, संयमशीलता सज्जनता, सादगी और शालीनता की विभूतियाँ हर व्यक्ति को उपलब्ध थीं। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता में एक- दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में व्यक्ति निरत था। उन परिस्थितियों में सर्वत्र सुख- शांति का साम्राज्य था। यहाँ के निवासी देवता कहे जाते थे और यह देश स्वर्ग माना जाता था। इस वैभव को भारतवासियों ने अपनी भौगोलिक सीमाओं में सीमित नहीं रखा, वरन् विश्व के कोने- कोने में जाकर बिखेरा।
संत-सार्वभौम संपदा
यही नहीं, विदेश के अनेकों मनीषी इस संस्कृति से अभिभूत होकर उसके अंग बन गए। जीवन भर वे इसकी महत्ता के प्रचार- प्रसार में लगे रहे। मैक्समूलर, कामिल बुल्के, डॉ ०विल्सन जैसे ऐसे अनेक उदाहरण उद्धृत किया जा सकते हैं।
यह सही है कि संत किसी राष्ट्र या समुदाय विशेष के नहीं होते। वे उत्कृष्टता के पक्षधर होते हैं।
रामायण के तत्वान्वेषी कामिल बुल्के
बेल्जियम में जन्मे कामिल बुल्के आरंभ से ही तत्त्वज्ञान में अभिरुचि रखते थे। अपने देश में इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट होने के उपरांत वे भारत आए और ऋषि प्रणीत अध्यात्म ज्ञान का गहरा अध्ययन करने लगे। उनने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में बी०ए० किया, बाद में बाल्मीकि रामायण तथा तुलसीकृत राम चरित्र मानस के गहन अध्ययन में लग गए। उनकी आत्मा भारत में रम गई। शाकाहारी संत की -तरह रहने लगे। उन्होंने रामायण के रहस्यमय प्रसंगों की जानकारी सर्वसाधारण को कराने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं।
जिस रामायण को हम कथा मात्र मानते हैं, उसे इस बुद्धिवादी और तत्वान्वेषी संत ने युग के लिए बहुत ही सारगर्भित ग्रंथ सिद्ध किया है।
विश्व नागरिक- मीरा बेन
विदेशों में गांधी जी के बारे में बहुत चर्चा होती थी। उनमें से कितने ही कौतूहलवश गांधी जी के साथ रहना चाहते थे। इनमें से कुछेक को थोड़े समय ठहरने की आज्ञा मिल जाती थी,पर आश्रमवासी के रूप में उन्हें ही स्वीकृति दी जाती थी जो आजीवन निर्धारित प्रयोजनों के लिए अपना जीवन अर्पण करें।
मिस स्लेड इंग्लैंड के एक सैनिक परिवार में जन्मीं। उनकी बहुत इच्छा गांधी जी के संपर्क में रहने की थी। उन्हें अपने घर पर ही आश्रम जीवन का अभ्यास करने के लिए कहा गया और बन पड़े तो हिन्दुस्तान आने के लिए कहा गया। मिस स्लेड हिन्दुस्तान आकर मीरा बेन के नाम से प्रख्यात हुईं। उनने भारत को अपना घर माना और इंग्लैंड निवासियों की नाराजी की परवाह न की। वह अपने को विश्व नागरिक बना चुकी थीं। उनने पशु-पक्षियों तक से आत्मीयता स्थापित की और ऋषिकेश के समीप पशुलोक स्थापित करके जनसाधारण का ध्यान पशुओं के साथ आत्मीयता बरतने के लिए आकर्षित किया। वे आजीवन कुमारी रहीं।
चिकित्सक से संस्कृति प्रेमी
विल्सन इंग्लैंड से भारत में चिकित्सा अधिकारी बनकर आए थे। वहाँ आकर उन्हें भारतीय संस्कृति की गंभीरता का बोध हुआ। उनने संस्कृत भाषा पढ़ी और अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया। सरकारी काम से बचा हुआ सारा समय वे इसी कार्य में लगाते थे। भारत से लौटने के बाद वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर रहे। तब उन्हें और भी अधिक पढ़ने का अवसर मिला । जर्मनी के मैक्समूलर को उनने अपना मानस पुत्र माना, अपना निष्कर्ष उसे समझाया। वेदों के भाष्यकार मैक्समूलर को इतना श्रम करने का साहस विल्सन की प्रेरणा से ही मिला था।
आसुरीषु सदा शक्तिष्वलमाकर्षणं जनैः। अन्वभावि भवत्येवानिष्टकारी समं तू तत् ।। ७४।। बाह्याकर्षणमेतासु देवशक्तिषु तादृशम्। जायते न परन्त्वन्तः सौन्दर्यं क्षमता च सा ।। ७५।। कल्याणकारिणी नूनमद्वितीयैव विद्यते। देवसंस्कृतिरित्यर्थं मानव तत्प्रपञ्चतः ।। ७६ ।। संरक्ष्य च सुरौपम्यविकासप्रेरणां तथा। विधिं देवोपमं लोके यच्छतीह निरन्तरम् ।। ७७।।
भावार्थ - आसुरी शक्तियों में आकर्षण विशेष होता है परंतु वे अनिष्टकारी होती हैं । देवशक्तियों में बाह्याकर्षण उतना नहीं होता, परंतु आंतरिक सुंदरता और कल्याणकारी क्षमता अद्वितीय होती है। देवसंस्कृति मानवमात्र को आसुरी प्रपंच से बचाकर देवोपम विकास की प्रेरणा और विधि- व्यवस्था प्रदान करती है।। ७४-७७।।
व्याख्या- आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता भोग प्रधान है। अधिक उपार्जन एवं उसका उपभोग, सुख- सुविधाएँ इत्यादि ही उनका लक्ष्य बनकर रह गया है। इससे समृद्धि तो बढ़ी है किन्तु सबसे बड़ी हानि यह हुई है कि उससे सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। नैतिकता के प्रति पदार्थ परक दृष्टिकोण होने से न केवल दुराचरण बढ़ा है अपितु पारस्परिक संबंधों में रूक्षता, संकीर्ण स्वार्थपरता एवं स्वच्छंद उपभोगवाद ने मनश्चेतना पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। आदर्शवादिता कहने- सुनने की चीज रह गई है। यह संस्कृति की अवमानना की ही परिणति है। देवशक्तियों को पोषण देने वाली संस्कृति ही उस महा विनाश को बचा सकती है जो आधुनिकता का भविष्यत् कहा जा सकता है।
देवसंस्कृति का इतिहास बताता है कि अंत: के विकास एवं मानवी गरिमा की स्थापना हेतु इसकी अवधारणाओं ने अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
देव देने वाले को और दैत्य लेने वाले को कहते हैं। जिसने संसार में लिया कम और दिया अधिक, वह देव है। जो लेता अधिक और देता कम है उसकी गणना दैत्यों में की जाएगी। संक्षेप में स्वार्थी को दैत्य और परमार्थी को देव कहते हैं। देवों को मान दिया जाता है और दैत्यों के लिए सहज ही घृणा उठती है। यह नितांत स्वाभाविक है। स्थिति को देखते हुए लोक मानस में इस प्रकार की प्रतिक्रिया उठाना उचित ही है। व्यक्ति का चिंतन और कार्य जिस स्तर का है उसी के अनुरूप तो उसे श्रेय दिया या हेय समझा जा सकता है।
तत्वदर्शन में मानव के लिए महानात्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने की दिशा को ही परम लक्ष्य माना गया है। इसी से इस जन्म की सार्थकता है। स्वर्गमुक्ति, सिद्धि, आत्म साक्षात्कार, प्रभु प्राप्ति जैसे दिव्य लाभ मात्र परमार्थ पक्ष पर चलते हुए देव संस्कृति अपनाते हुए ही प्राप्त किए जा सकते हैं। सांसारिक यश, गौरव, सम्मान, सहयोग जैसे उच्चस्तरीय लाभ इसी मार्ग पर चलने से मिलते हैं।
श्रेष्ठ मान्यताओं पर आधारित देव संस्कृति के सारे सिद्धांत अपने आप में इतने सही एवं युगानुकूल हैं कि आज भी उन्हें परीक्षित कर ऊँचा उठ सकना, देवमानव की स्थिति में जा खड़ा होना संभव है। इसका एकमात्र कारण यह है कि ऋषियों ने जो अध्यात्म सिद्धांत निर्धारित किए, उन्हें अपनी बहुमूल्य मानवी काया रूपी प्रयोगशाला में सत्यापित भी किया । आत्मापरमात्मा, कर्मफल, मरणोत्तर जीवन संबंधी आप्तमान्यताओं का, भारतीय दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों का इसीलिए युगों- युगों से सम्मान किया जाता रहा है । उनके आधार पर जीवन दर्शन बना है व भारत निवासी उन पर चलकर प्रगति पथ पर आगे बढ़े हैं। जब भी इन मान्यताओं को झुठलाया गया, उस समुदाय को प्रतिकूलताओं ने घेरा है एवं उसे अंधकार भूरे समय से गुजरना पड़ा है।
देव मानवों की प्रेरणा- गंगोत्री भारतीय संस्कृति
प्राचीन भारत का इतिहास इस देश में जन्मे नर- रत्नों का इतिहास है। भारत भूमि ने अन्न, वृक्ष , खनिज जैसी प्राकृतिक संपदाएँ उत्पन्न करके भौतिक संपदाओं के ही भंडार नहीं भरे वरन् देवमानवों का भी प्रचुर मात्रा में उत्पादन किया। घर- घर में नर- रत्नों की खान थी। किसकी चमक कितनी प्रखर है ,इसकी प्रतिस्पर्धा रहती थी। महानता की कसौटी पर किसका कितना बढ़ा- चढ़ा मूल्यांकन होता है , इसी महत्त्वाकांक्षा से हर किसी का मन उद्वेलित रहता था। शूरवीर उन दिनों तलवार चलाने वाले ही नहीं माने जाते थे, वरन् उन्हें योद्धा घोषित किया जाता था, जिनने अपनी पशु प्रवृत्तियों को, तृष्णा- वासना को पैरों तले रोंद कर सच्ची विजय प्राप्त की। ऐसे आत्मजयी वीर योद्धा ही अभिनंदन और अभिवादन के पात्र समझे जाते थे। हर वर्ग में, हर क्षेत्र में ऐसे आत्मजयी वीर योद्धा भरे पड़े थे, उनके गौरवशाली अस्तित्व भारत माता की कीर्ति ध्वजा दशों दिशाओं में उड़ाते थे। इस आधार पर सुविकसित भारत की गौरव- गरिमा के सामने समस्त विश्व श्रद्धान्वत मस्तिष्क झुकाए खड़ा रहता था। उनकी विजय दुंदुभि विश्व के कोने- कोने में गूँजती- प्रतिध्वनित होती सुनाई पड़ती थी। प्राचीन इतिहास के जितने पृष्ठ उलटे जायें उनमें भारत की इसी विशिष्टता का उल्लेख स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ मिलता चला जाएगा।
उन दिनों अभिभावक यह प्रयत्न करते थे कि गर्भावस्था में पहुँचते ही बालक महामानवों की भूमिका में अवतरित हो। इसलिए उसकी शिक्षा उसी दिन से आरंभ हो जाती थी , जिस दिन कि उसने गर्भ में प्रवेश किया। मदालसा ने अपने कुछ बालकों को ब्रह्मज्ञानी बनाया, जब तक वे गर्भ में रहे, उसने अपना चिंतन और चरित्र वैसा ही ढाला जैसी कि उसे संतान चाहिए थी। फलतः वे ब्रह्मवेत्ताओं के संस्कार लेकर जन्मे। एक बालक को उसने अपनी इच्छानुसार राज्याध्यक्ष बनने योग्य ढाला। कुंती ,अंजनी, सीता, शकुन्तला के रूप में नर- रत्नों को जन्म देने वाली ऐसी अनेक देवियों की गाथाओं से हमारा इतिहास भरा पड़ा है।
नचिकेता के उदाचेता पिता वाजिश्रवा जब समस्त धन- धान्य लोक मंगल के लिए दान दे चुके तो उसने पूछा- '' आप लोभ त्याग की परीक्षा में सफल हो चुके फिर मोह त्याग में क्यों असफल होते हैं ?मुझे खिलौना बनाकर अपने पास क्यों रखना चाहते हैं? लोक मंगल के लिए मुझे भी दान क्यों नहीं दे देते ?'' वाजिश्रवा ने पुत्र को अपने से बढ़कर आदर्शवादी देखा तो हर्षोल्लास से उनकी आँखें डबडबा आईं, उन्होंने तत्काल महा तपस्वी यमाचार्य के हाथ में अपने पुत्र नचिकेता का हाथ सौंप दिया और वह ब्रह्मवेत्ता बनकर इस विश्व वसुधा का गौरव बढ़ाने में समर्थ हुआ।
आद्य शंकराचार्य की माता अपने इकलौते पुत्र को भौतिक प्रगति में सुख- समृद्धि युक्त देखना चाहती थीं। पुत्र- वधू और पौत्र के साथ रहने के लिए लालायित थीं। माता की मोह- ममता को उनके दस वर्षीय बालक ने चतुरतापूर्वक तोड़- मोड़ कर फेंक दिया। प्रसिद्ध है कि वे नदी में नहाने के समय '' मगर ने पकड़ा '' चिल्ला करके बोले कि मुझे शंकर जी को दान करो अन्यथा मगर खा जाएगा। माता ने अपना बालक शिवजी को दान कर दिया। वे मगर के मुँह में से छूटकर बाहर आ गए और परिव्राजक बनकर भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुए।
कुंती अज्ञातवास की अवधि में अपने बालकों को लेकर एक ब्राह्मण परिवार में छिपी हुई दिन काट रही थीं। उस गाँव में हर घर से एक मनुष्य राक्षस द्वारा खाए जाने का क्रम चल रहा था। उस दिन आश्रयदाता ब्राह्मण के इकलौते पुत्र की बारी आ गई। पाँचों बच्चे मचल पड़े । हममें से एक राक्षस के सामने क्यों न चला जाय और ब्राह्मण बालक को क्यों न बचा लिया जाय ? उनके प्रबल आग्रह ने कुंती को बात मानने के लिए बाध्य कर दिया। अब इस सौभाग्य का लाभ कौन उठाए इस पर सब बच्चे आपस में लड़ने लगे। अंततः गोली निकाल कर भाग्य का फैसला कराया गया। निर्णय भीम के पक्ष में हुआ। वह राक्षस के सामने हँसता- उछलता चला गया और स्वयं शिकार बनने के स्थान पर उलटा उसे ही मार कर आया। बच्चे उन दिनों जानते थे कि मरना भी यदि उद्देश्य के लिए संभव हो सके, तो वह हजार बार जीने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है।
गृहस्थ जीवन में भी जन साधारण के बीच आदर्शों की घोर प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता ठनी रहती थी। कौन किससे आगे निकेलता है ? यह चुनौती अपने- अपने क्षेत्र, में हर कोई अपने साथियों को देता रहता था। राम और भरत में दोनों के सामने ऐसा ही धर्म संकट उत्पन्न था। दोनों ही चाहते थे कि त्याग और आदर्श के क्षेत्र में उनकी हेठी न होने पाए। ' राज्य हमें नहीं दूसरे को मिले '' इस प्रतिद्वंद्विता में कोई हारा नहीं। फैसला यह हुआ कि राम की तरह ही भरत भी चौदह वर्ष तक तपस्वी जीवन जिएँगें, राज्य सिंहासन पर राम की खड़ाऊँ स्थापित की जाएँगी।
विश्वामित्र उन दिनों नवयुग का सूत्रपात कर रहे थे, उन्हें साधनों की आवश्यकता थी। उनके शिष्य हरिश्चंद्र ने पूर्ण निस्पृहता का परिचय दिया, अपनी सारी संपदा ऋषि के हवाले कर दी । कमी पड़ी तो अपने को, स्री- बच्चों कों बेचकर प्रस्तुत आवश्यकता की पूर्ति का आदर्श प्रस्तुत किया। सुदामा के गुरुकुल की अभावग्रस्त स्थिति दूर करने के लिए कृष्ण ने अपनी द्वारिका की संपत्ति का अधिकांश भाग ऋषि सुदामा को सौंप दिया था। राजा कर्ण को विपुल वेतन मिलता था , वे अपनी दैनिक आय में से निर्वाह की न्यूनतम राशि लेकर शेष उसी दिन सत्प्रयोजनों के लिए दान कर देते थे। मरते समय दाँतों में लगा सोना तक दान कर जाने वाले कर्ण की परंपरा उन दिनों सभी सुसंपन्न व्यक्तियों में प्रचलित थी। कभी किसी के पास धन जमा हो गया, तो विशिष्ट अवसर सामने आते ही उसने भामाशाह की तरह अपनी सारी संपदा प्रताप जैसे प्रयोजनों के लिए सौंपते हुए अपना भार हलका लिया।
राजा जनक व्यक्तिगत निर्वाह के लिए कृषि करते थे और स्वयं हल चलाते थे। राज्यकोष प्रजा की अमानत था और उसी के लिए खर्च होता था। ऐसा ही आचरण अन्य राजा भी करते थे। रानी अहिल्याबाई के राज्यकोष में से अधिकांश धर्म प्रयोजनों के लिए खर्च होता रहा। राजनैतिक विकृतियों का निवारण करने के लिए प्रस्तुत अश्वमेध योजनाएँ और सामाजिक अव्यवस्थाओं के निराकरण के लिए प्रस्तुत वाजपेय यज्ञ अभियानों में न केवल राजाओं के राज्यकोष खाली होते थे वरन् संपन्न लोगों की संपन्नता भी झाडू- बुहार कर साफ कर दी जाती थी।
अभिभावकों के प्रति संतान के कर्तव्य के उदाहरण ढूँढ़ें तो श्रवण कुमार द्वारा अंधे माँ- बाप को कंधे पर काँवर में बिठा कर तीर्थ यात्रा कराना, भीष्म पितामह को अपने पिता की प्रसन्नता के लिए आजीवन अविवाहित रहना, ययाति पुत्र का अपना यौवन वृद्ध पिता को देना, सत्यवान का तपस्वी पिता की सेवा व्यवस्था, लकड़हारा बनकर करते रहना- उन दिनों की संतान की कर्तव्य परायणता के सामान्य उदाहरण हैं।
पतिव्रत धर्म निर्वाह करने वाली सावित्री, दमयंती, सीता, गान्धारी सर्वत्र मिलेंगीं।स्वयं कष्टमय जीवन स्वीकार करके पतियों को कर्तव्य पथ पर धकेलने वाली वीर नारियाँ घर- धर में मौजूद थीं। उन्हें नीचे नहीं गिराती थीं वरन् ऊँचा उठाती थीं। पुत्रों को गुरुकुल के लिए, पतियों को धर्मयुद्ध के लिए भेजते हुए वै मोहग्रस्तता के आँसू नहीं बहाती थीं, वरन् गर्व- गौरव के साथ आरती उतारते हुए विदा करती थीं। हाड़ा की रानी की तरह उन्हें अपना सिर काट कर पति को मोहग्रस्तता से उबारने में आपत्ति नहीं होती थी। पन्ना दाई को अपना बच्चा प्यारा तो था, पर सौंपे हुए कर्तव्य से बढ़कर नहीं। उसने स्वामी का बच्चा बचाने के लिए अपने लाड़ले की आहुति चढ़ाते हुए आघात तो सहा, पर मन हलका यह सोचकर कर लिया कि उसने नारी की गरिमा की एक उपयुक्त स्थापना करने में गौरवमयी परंपरा सही रूप में निबाही। चित्तौड़ की रानियों ने अपना शरीर नहीं, नारी का साहस जीवित रखना उचित समझा और वें जीवित जलने जैसे कष्ट को सहने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार हो गई।
उपर्युक्त उदाहरण देव संस्कृति के उस स्वर्णिम इतिहास की एक झलक देते हैं व बताते हैं कि कैसे इसके विभिन्न सूत्रों को अपनाकर इस देश के नागरिक देवमानव के रूप में विकसित हो सके। देव संस्कृति अपने इस आत्मोत्थान की रीति- नीति के कारण ही आराध्य बनी व श्रेष्ठता का गौरव पाती रही है।
सन्देशवाहकाश्चास्याः स्वसदाचारतो जनान्। प्रशिक्षितात् प्रकुर्वन्त: प्रेरितान् व्याचरन् भुवि ।। ७८ ।। केवलं न मनुष्याँस्ते प्राणिमात्रं तु सर्वदा। अन्वभूंवम् स्वतुल्यं च तेषामेषा मनःस्थिति: ।। ७९ ।। प्रचण्डात्मीयताधारमाध्रित्याभूत् फलान्वितः। उद्घोषो विश्वमाकर्तुं कुटुम्बमिव वर्द्धितम् ।। ८० ।।
भावार्थ- देव संस्कृति के महान् संदेशवाहक अपने- अपने आचरण से जन- जन को प्रेरणा- प्रशिक्षण देते सारे, भूमंडल पर विचरते रहे हैं। वे मनुष्यों को ही नहीं, प्राणिमात्र को ही आत्मवत् अनुभव करते रहे हैं, क्योंकि उनकी मनःस्थिति ही ऐसी थी। इस प्रचंड आत्मीयभाव के आधार पर ही सारे विश्व को एक कुटुम्ब के रूप में विकसित करने का उनका उद्घोष सफल होता रहा है ।। ७८- ८० ।।
व्याख्या- 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से प्रेरित होकर 'बहुजन हिताय' की दृष्टि से यहाँ के निवासी समय- समय पर देश की सीमाओं को लाँघते हुए अपने ज्ञान- विज्ञान की संपत्ति को उन्मुक्त हाथों से बाँटने के लिए दूसरे देशों में भी पहुँचते रहे हैं। तब आज जैसे यातायात के सुविकसित साधन भी न थे। दुर्गम पहाड़ों, नदियों, रेगिस्तान, बीहड़ों की कष्टसाध्य यात्राएँ उनको पावन मनोरथ से डिगा नहीं पाती थीं। बृहत्तर भारत की नींव उनके इन दुस्साहसी प्रयत्नों से ही पड़ी। कुमारजीव, कश्यप, मतंग, बुद्धयश तथा गुणवर्मन आदि बौद्ध भिशुओं ने प्राणों को हथेली पर रखकर चीन की पैदल यात्राएँ कीं। उनके भाषणों, उपदेशों से वहाँ के मनीषी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उस भूमि की चरणरज मस्तक पर लगाने चल पड़े जिसने अमृत तुल्य तत्त्वज्ञान को जन्म दिया। फाह्यान, ह्वेन साँग, इत्सिंग आदि चीनी विद्वान् भारत आए तथा वर्षों तक अपनी ज्ञान पिपासा शांत करते रहे जो अपने देशवासियों में बाँटने वापस लौटे। मंगोलिया, साईबेरिया, कोरिया आदि में भी भारतीय विद्वानों के पहुँचने तथा संस्कृति के प्रचार का उल्लेख मिलता है।
कलिंग युद्ध के बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ। प्रायश्चित के लिए बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर धर्म के लिए न केवल स्वयं कार्य करना आरंभ किया, वरन् अपने पुत्र- पुत्री को भी वैसे ही अनुकरण के लिए प्रेरित किया। श्रीलंका में उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को प्रचारार्थ भेजा। गया से बोधिवृक्ष की शाखा लेकर उन्होंने लंका में आरोपित की। बौद्ध धर्म के धार्मिक चिह्न, ग्रन्थों एवं प्रसादों के रूप में, जो लंका में दिखाई पड़ते हैं, वे महेन्द्र संघमित्रा के प्रयासों के ही पुण्य प्रतिफल हैं। वर्मा का पुरातन नाम ब्रह्मदेश है। जिस पर भारतीय प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। बौद्ध भिक्षु यहाँ भी पहुंचे।
कंबोडिया, तीसरी से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य रहा। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ही एक ब्राह्मण कौण्डिन्य के नाम पर पड़ा, जिसने यहाँ नाग कन्या से विवाह किया और अपना राज्य स्थापित किया। उनके बाद जयवर्मन, यशोवर्मन, सूर्यवर्मन आदि राजा हुए। यहाँ के प्रख्यात मंदिर हैं- अंगकोर के। जिनकी दीवारों के पत्थरों पर रामायण के दृश्य खुदे हुए हैं। लाओस के कुछ मंदिरों में भी रामकथा के दृश्य देखे जा सकते हैं।
इंडोनेशिया यों तो वर्तमान मुस्लिम देश है, किन्तु भारतीय संस्कृति की अमिट छाप इस पर आज भी है। इंडोनेशिया यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता हैं- भारत द्वीप। जावा, सुमात्रा, बोर्निया आदि इसके द्वीप हैं। प्राचीनकाल में वे सभी भारत के अंग रहे थे। रक्त एवं संस्कृति दोनों ही दृष्टियों से वहाँ के निवासी भारतीयों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। जावा के लोगों में विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा व्यास ऋषि वहाँ गए थे तथा बस्तियाँ बसाई थीं। शैलेंड राजवंश द्वारा बरोबुदुर जैसे मंदिर वहाँ बनवाए गए, जिसमें बुद्ध की ४३२ मूर्तियाँ हैं। उन मूर्तियों पर गुप्तकला की भी स्पष्ट छाप है। मंदिर का बौद्ध स्तूप कलाकृति एवं सौंदर्य की दृष्टि से संसार भर में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। जावा के जोग, जकार्ता की रामलीला एवं नाटक संसार भर में प्रसिद्ध हैं। वे मूलतः राम कथानक पर आधारित होते हैं। मंदिर की प्रस्तर भित्तियों पर संपूर्ण रामकथा का चित्रण किया गया है। सुमात्रा में हिन्दू राज्य की स्थापना तथा भारतीय संस्कृति का विस्तार चौथी शताब्दी में हुआ। पलेमर्वग नामक स्थान कभी सुमात्रा की राजधानी था जहाँ भारतीय धर्म संस्कृति एवं अध्यात्म विषयों का शिक्षण होता था। पाली एवं संस्कृत भाषा यहाँ पढ़ाई जाती थी। इंडोनेशिया के वाली द्वीप के विषय में चीनी कहते हैं कि चौथी शताब्दी में कौण्डिन्यवंशी भारतीय राजा ने हिंदू राज्य की स्थापना की थी, जो दशवीं शताब्दी तक कायम रहा। बाद में वह हालैंड के आधीन आ गया।
बोर्निया द्वीप सबसे बड़ा है। यहाँ हिंदू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गई थी। शिव, अगस्त्य, गणेश, ब्रह्मा, स्कंद आदि ऋषियों एवं देवताओं की मूर्तियाँ यहाँ प्राप्त हुईं तथा कितने ही पुरातन हिन्दू मंदिर आज भी मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि यह द्वीप भारतीय संस्कृति का गढ़ रह चुका है।
इतिहासकारों का मत है कि थाईलैंड का पुराना नाम स्याम देश था। तीसरी शताब्दी में वह भारत का उपनिवेश बना तथा बारहवीं शताब्दी तक भारत के अधीन रहा । स्याम की सभ्यता भारतीय संस्कृति से पूरी तरह अनुप्राणित है। उसकी लिपि का उद्गम पाली भाषा में हुआ है, जो भारत की देन है। उनके रीति- रिवाजों में भारतीय जैसा साम्य दिखाई पड़ता है। दशहरा जैसे पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं। थाई जीवन में राम एवं रामायण के कथानक की गहराई तक जड़ें जमाए हुई हैं। अष्टमी , पूर्णिमा, अमावस्था आदि पर्वों पर भारत की तरह वहाँ भी छुट्टियाँ रहती हैं। थाई रामायण का नाम 'रामकियेन' है, जिसका अर्थ होता है- राम कीर्ति। थार्डलैंड में अयोध्या और लोषपुरी जैसी नगरियाँ हैं।
तिब्बती साहित्य पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव है। वहाँ के राजा सांगचन गम्पो ने भारतीय लिपि के आधार पर तिब्बत की वर्णमाला का आविष्कार किया, नालंदा के आचार्य शांतरक्षित ने सन् ७४७ में तिब्बत पहुँचकर समये नामक पहला विहार बनवाया। तत्पश्चात् काश्मीर के भिक्षुक पद्मसंभव के प्रयत्नों से वहाँ महायान की तांत्रिक शाखा का प्रचार हुआ। लामावाद की उत्पत्ति उसी से हुई।
ऐसे अगणित प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो यह बताते हैं किं भारत समय- समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान सागर से इस वसुधा को अभिसिंचित करता रहा है।
जगद्गुरु भारत के अग्रदूत
लोकसेवी परिव्राजक संतों ने अपनी गतिविधियाँ भारत की भौगोलिक सीमाओं के भीतर अवरुद्ध नहीं कीं, वरन् समस्त विश्व को अपना घर और समस्त मानव-जाति को अपना परिवार माना । अस्तु, वे पिछड़ेपन से जूझने के लिए दुर्गमता को चुनौती देते हुए धरती के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रसन्नतापूर्वक गए और यदि लौटना आवश्यक न लगा, तो वहीं डेरा डालकर बस गए। जहाँ जन्मा जाय, वहीं रहा जाय, यदि यह आग्रह होता, तो हिमालय का बर्फ गलकर नदियों के रूप में शुष्क क्षेत्रों को सींचते हुए आत्म समर्पण करने के लिए समुद्र तक दौड़े जाने का कष्ट न उठाता। फिर समुद्र का जल बादल बनकर अन्यत्र बरसने को सहमत न होता और सृष्टि का सारा क्रम- संतुलन ही बिगड़ जाता। महामानवों का भूमि या परिधि से ऊँचा उठा हुआ चिंतन होता है। उनकी आत्मीयता किसी भूखंड से नहीं बँधती, वरन् वे अधिक विपन्नता से अधिक कड़ा संघर्ष करने का लक्ष्य सामने रखकर अपना कार्य क्षेत्र निर्धारित करते हैं। अस्तु, इस देश के महामानवों की दृष्टि इस बात पर जमी रही कि किस भूखंड में किस स्तर का पिछड़ापन अधिक है, वहाँ पहुँचकर किस पद्धति को अपनाकर किन समस्याओं को कैसे हल किया जाय ? यही थी उस जमाने की धर्म विस्तार पद्धति। इसमें केवल पूजा- पाठ, शास्त्र वाचन ही नहीं माना जाता था ,वरन् स्थानीय समस्याओं में से प्रत्येक के समाधान को धर्म सेवा में सम्मिलित किया जाता था। अधिक जटिल समस्या को सर्वप्रथम समाधान के लिए हाथ में लिया जाता था।
इस परिष्कृत दृष्टिकोण को लेकर भारतीय तीर्थ- धर्म प्रचारक लोक सेवी विश्व के विभिन्न क्षेत्रों, प्रदेशों में पहुँचे और वहाँ की शासन प्रक्रिया को दिशा, प्रेरणा देकर सुव्यवस्थित किया। स्पष्ट है कि सुशासन के बिना प्रजा को स्थिरता एवं प्रगति का लाभ मिल ही नहीं सकता। भारतीय धर्म प्रचारकों ने सुदूर देशों की कवाइली सामंत शाही को हटा कर वहाँ प्रजा द्वारा प्रजा के लिए शासन का लक्ष्य लेकर सुशासनों की स्थापना की। इस संस्थापना नेतृत्व के लिए उन्हें कृतज्ञतापूर्वक चक्रवर्ती कहा गया। जहाँ संपत्ति के अभाव से दरिद्रता का साम्राज्य था, वहाँ कृषि, पशु- पालन, शिल्प, उद्योग आदि की सुव्यवस्था बनाकर संपन्नता के साधन जुटाए, इस कारण उन्हें वरदानी भूदेव कहा गया। अशिक्षा और अविद्या से छुटकारा दिलाकर वैयक्तिक और सामाजिक समर्थता का पथ- प्रशस्त किया, इसलिए उन्हें '' जगद्गुरु '' का सम्मान मिला। यह सर्वतोमुखी सेवा साधना थी। भारतीय परिव्राजकों का ऐसा ही बहुमुखी लाभ समस्त संसार की जनता ने उठाया। उन दिनों धर्म शब्द का प्रयोजन मानव जाति की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए ही किया जाता था। उन दिनों राजतंत्र का नहीं, लोक मानस पर धर्म- तंत्र का शासन था। इसलिए देश की सीमा निर्धारित करते समय यह देखना पड़ता था कि कितना क्षेत्र किस सांस्कृतिक आलोक से प्रभावित और प्रकाशित हो रहा है। इस दृष्टि से भारत की सीमाएँ लगभग विश्व सीमा जितनी थी ,क्योंकि यहाँ के तत्त्वदर्शी विज्ञ मनीषी अपने मस्तिष्क में किसी छोटे क्षेत्र या वर्ग के हित साधने करने की बात न सोचकर समस्त विश्व की समृद्धि एवं प्रगति को ध्यान में रखकर अपने चिंतन एवं कर्तृत्व का निर्धारण करते थे। '' वसुधैव कुटुम्बकम् '' की भावना उन्हें किसी क्षेत्र विशेष के हित साधन तक सीमित रहने ही नहीं दे सकती थी।
विश्व- वसुधा में फैली संस्कृति चेतना
भारतीय प्रतिभाएँ 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को हृदयंगम करके जहाँ कहीं पिछड़ापन देखा , वहीं दौड़- दौड़कर पहुँचती रही। हमारे पूर्वजों का घर- परिवार कुछ व्यक्तियों या कुछ इमारतों तक सीमित न था। वे समस्त विश्व को अपनी घर मानते थे और अपने को विश्व नागरिक के रूप में समझकर समस्त संसार को समुन्नत करने का उत्तरदायित्व अनुभव करते थे। भारत की भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत तो उनके कल्याणकारी क्रिया- कलाप गतिशील रहते थे, पर वे उतनी छोटी परिधि में सीमित नहीं रहते थे। समस्त मानव जाति में आत्मीयता की भावना रखते हुए वे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रयाण करते थे और जहाँ कहीं पिछड़ापन देखते, वहीं उसे मिटाने के लिए डट जाते। अपने को पूरी तरह खपा करके भी अभावों को समुन्नत स्थिति में बदलते थे।
अज्ञान और अभावों की निवृत्ति के लिए, प्रगति तथा समृद्धि का संवर्द्धन करने के लिए भारतीय प्रतिभाएँ निरंतर विश्व के कोने- कोने में पहुँचती रहीं। इसका विवरण इतिहास के पृष्ठों पर भरा पड़ा है। भारतीय धर्म- पुराणों में भी उन प्रमाणों और प्रयासों का विस्तृत विवरण मिलता है। यथा- अमेरिका से व्यास ऋषि ने अपने पुत्र शुकदेव को मोक्षधर्म का उपदेश लेने के लिए भारत में मिथिलापुरी में राजा जनक के पास भेजा।
विद्वान् पीकाक के अनुसार मिश्र के प्राचीन निवासी अपने को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहते थे और अपने को आदि मनु की संतान मानते थे। सूर्य देवता उनका उपास्य था।
पुराणों के अनुसार महर्षि विश्वामित्र के पुत्र आस्ट्रेलिया चले गए थे और उस देश को नए सिरे से बसाया था। इसी प्रकार तृष्णविन्दु राजकुमार भी उस देश में जा बसे थे। ऋषि पुलस्त्य भी उस देश में धर्म संस्थापना के लिए गए थे। महाभारत में उद्दालक ऋषि के पाताल लोक में जाने और धर्म प्रचार- जन जागरण करने का वर्णन है। अमेरिका को ही भारतीय इतिहास- पुराणों में पाताल लोक कहा गया है।
भविष्य पुराण के अनुसार कण्व ऋषि मिश्र देश गए और उन्होंने दस हजार म्लेच्छों को सुसंस्कृत बनाया। इनमें से कुछ को शूद्र, कुछ को वैश्य और कुछ को क्षत्रिय की संज्ञा दी।
सरस्वत्या स या कण्वो मिश्रदेशमुपाययौ। म्लेच्छा संस्कृत्य चाभाप्यत्तदा दशसहस्त्रकान् । (भविष्य पुराण)
कर्नल अल्काट ने '' थियोसोफिस्ट '' में यह प्रमाणित किया था कि अब से कोई आठ हजार वर्ष पहले भारतवासी मिश्र पहुँचे और उन्होंने उस क्षेत्र को एक उपनिवेश की तरह बसाया। इतिहासवेत्ताओं का कथन है कि ईरान, सीरिया आदि मध्य- पश्चिमी एशिया में बसे हुए आर्य लोग समीपवर्ती छोटे से समुद्र को पार करके अफ्रीका महाद्वीप में पहुँचे और उन्होंने वहाँ बसने तथा सभ्यता विस्तार का उपक्रम चलाया।
भगवान् बुद्ध ने जन मानस में छाए हुए अज्ञानांधकार को हटाने और ज्ञानामृत से आलोकित करने के लिए धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान चलाया और उसे किसी देश- धर्म तक सीमित न रखकर विश्वव्यापी बनाने का कार्यक्रम निर्धारित किया। वाराणसी से छै मील दूर सारनाथ में अपने पाँच शिष्यों- कौडिन्य, वग्र, महानाभ, भद्र और अश्वजित को बुलाकर बुद्ध ने इन्हें प्रव्रज्या की दीक्षा दी और कहा- '' भिक्षुओं ! अब तुम जाओ और मनुष्यों तथा देवताओं की भलाई के लिए परिव्राजक बनो। तुम सारे विश्व में उच्च आदर्शों का प्रचार करो और पवित्र जीवन जीने की विद्या सिखाओ। ''
सम्राट् अशोक ने तो बौद्धिक क्रांति को विश्वव्यापी बनाने के लिए एक सुनिश्चित योजना तैयार की थी और नौ प्रचारक मंडल देश- देशांतरों को भेजे थे। इन नौ प्रचारकों- मज्झांतिक, महादेव, राकीवत, योनधम्म, राकीवत, महाधम्म, मज्झिम आदि महाराकीवत, सोण उत्तर और महिंद आदि के नेतृत्व में भिक्षु मंडलियाँ भारत के सुदूर प्रांतों और विश्व के विभिन्न भागों की यात्राओं को निकलीं थीं। गांधार, यूनान, अरब, मिश्र, पेगू, सालमीन, लंका, मध्य एशिया, पूर्वी द्वीप समूह आदि देशों में यह मंडलियाँ कष्टसाध्य यात्राएँ पूरी करती हुई पहुँचीं और वहाँ की भाषा संबंधी कठिनाइयों का सामना करते हुए धर्म- संस्थापन में, लोक मंगल के अपने विजय अभियान में आशातीत सफलताएँ प्राप्त कीं।
भारत से विदेशों में जाकर जिन विद्वानों ने बौद्ध- धर्म के प्रचार- विस्तार में अपने को खपा दिया , उनकी संख्या हजारों है। पर इतिहास में जिनका नाम विशेष कर्तृत्व के साथ जुड़ा है, उनमें आचार्य दीपंकर, श्रीज्ञान, कुमारजीव, परमार्थ, बोधि धर्म, बोधिरुचिका विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने अपनी शिष्य- मंडली इसी प्रयोजन के लिए प्रशिक्षित की थी। जिस देश में जिन्हें जाना था, उन्हें वहाँ की भाषा, संस्कृति, स्थिति, यात्रा, संभावना आदि के संबंध में सुविस्तृत ज्ञान कराने का विशेष प्रबंधक किया गया था। विक्रमशिला विहार में अध्ययन करने के उपरांत उन्होंने तिब्बत, सुवणद्वीप (आधुनिक सुमात्रा) ताम्रलिप्ति (आधुनिक तामलुक) की मुहिम सँभाली। वे १०८ शिक्षा केन्द्रों का संचालन करते थे। वे नालंदा, उदंतपुरी, वज्रासन और विक्रमशिला महाविहारों का अनुकरण करते हुए स्थान- स्थान पर धर्म- धारणा तथा प्रचार- प्रक्रिया करने में निरत थे। तिब्बत उनका कार्यक्षेत्र विशेष रूप से रहा।
चीन में कार्यरत परिव्राजक
कुमारजीव काश्मीरी पंडित थे। उनका काल ३४४ से ४१३ तक का माना जाता है। चीन उनका विशेष कार्य क्षेत्र था, यों उन्होंने मध्य एशिया के खोतान, काशगर, यारकंद तथा तुर्किस्तान के अन्य क्षेत्रों को भी बौद्ध प्रकाश से आलोकित किया था। उन्होंने अपने जीवन- काल में तीन हजार से अधिक सुयोग्य धर्म- प्रचारक और साहित्य सृजेता तैयार किए थे। उन्होंने वहाँ की भाषाएँ सीखीं और वहाँ के निवासियों को लेखनी तथा वाणी से धर्मनिष्ठ बनाने के लिए अनवरत श्रम किया। बौद्ध- धर्म के विस्तार में ऐसे ही नैष्ठिक धर्म- प्रचारकों का त्याग- बलिदान काम आया है।
उज्जैन विश्वविद्यालय के छात्र परमार्थ जिनका दूसरा नाम गुणरत था, चीन चले गए और उस देश की भाषा को संस्कृत तथा पाली में लिखे बौद्ध- साहित्य से समृद्ध करने में अनवरत रूप से आजीवन लगे रहे। वे सन् ५४८ में नानकिंग (चीन) पहुँचे। इक्कीस वर्ष कार्यरत रह कर वे ५६९ में उसी देश की भूमि में अपनी मिट्टी को मिला गए। इस अवधि में उन्होंने जितना अनुवाद कार्य किया वह २७५ बड़ी जिल्दों में संग्रहीत है।
इसी प्रकार बोधि- धर्म का कार्य है। उन्हें धर्म- बोधि भी कहते हैं। वे सन् ५२६ में चीन पहुँचे और दस वर्ष कार्य करके ५३६ में उसी भूमि में समा गए। उन्होंने साधनात्मक शिक्षा का बहुत प्रसार किया। चीन के अनेक सम्राटों तथा विभूतिवानों को उन्होंने असाधारण रूप से प्रभावित किया था और उनके द्वारा धर्म- प्रचार के अनेक महत्त्वपूर्ण साधन जुटाए जाने का पथ- प्रशस्त किया था।
इसी श्रृंखला में दक्षिण भारत से चीन पहुँचने वाले विद्वान बोधिरुचि को भी रखा जा सकता है। वे युवावस्था में ही चीन चले गए थे और शताधिक आयुष्य भोगकर सन्७२७ में वहीं स्वर्गवासी हुए। उन्होंने लेखनी, वाणी तथा प्रचार- प्रक्रिया से जो कार्य किया, उसने चीन को बुद्ध- दर्शन के चरणों में श्रद्धावनत बनाने में चिरस्मरणीय भूमिका प्रस्तुत की।
भारतीय बौद्ध भिक्षुओं का प्रवाह चीन की ओर अनवरत रूप से बहता ही रहा। उसमें कमी- वेशी के ज्वार- भाटे भले ही आते रहे हों, पर क्रम की निरंतरता अनवरत रूप से चलती ही रही। ईसा की पाँचवीं शताब्दी में संघदेव, बुद्धभद्र, बुद्धजीव, गुणवर्गा, गुणभद्र, धर्ममित्र, कालयशस, संघवर्मा, धर्मरक्ष, आदि के नाम इतिहास के पृष्ठों पर अविस्मरणीय रूप से अंकित है। इनके अतिरिक्त उन सहस्रों धर्म- प्रचारकों के नाम अविज्ञात हैं, जिन्होंने धर्म- चक्र प्रवर्तन के लिए अपनी मातृभूमि और स्वजन- संबंधियों का मोह छोड़कर दुर्गम यात्राएँ कीं और चीन में बस कर धर्म प्रचार करते हुए वहीं मर- खप गए।
गुणवर्मन के पूर्वज काश्मीर के राज परिवार में से थे। पर उसके पिता संघानंद बौद्ध-धर्म में दीक्षित होकर एकांत साधना में संलग्न थे। उन्हीं दिनों गुणवर्मन का जन्म हुआ। किशोरावस्था में उन्होंने बौद्ध- धर्म का गंभीर अध्ययन किया और २० वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करके धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। पहले वे लंका पहुँचे, इसके बाद जावा गए। उनके धर्मोपदेशों से प्रभावित होकर जावा नरेश बौद्ध बन गए और उन्होंने अपनी समस्त प्रजा को भी उसका अनुयायी बना दिया। राजाज्ञा प्रसारित हुई- '' सभी प्रजाजन गुणवर्मन का आदर करें, हिंसा न करें, धर्मात्मा बनें और भगवान् बुद्ध के बताए मार्ग पर चलें। ''
सन् ४३१ में गुणवर्मन चीन पहुंचे। राजा '' संगविनति '' उनसे स्वयं मिलने आया, उनका राजकीय स्वागत किया और दीक्षा ग्रहण की। उनके लिए जेतवन विहार बनवाया।गुणवर्मन असाधारण विद्वान्, तपस्वी और प्रतिभा संपन्न थे। उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया, पर उनका मुख्य कार्य घूम- घूमकर धर्मं प्रचार करना ही रहा ।। भारत में घर- घर कही- सुनी जाने वाली '' सत्यनारायण कथा '' की तरह उन्होंने उपदेश के लिए '' सद्धर्म पुण्डरीक '' कथा प्रचलित की, जिससे धर्म प्रचार का कार्य क्रमबद्ध रूप से चलने लगा। कितने ही धर्मोपदेशक उस कथा- प्रवचन को लेकर जनता में घर- घर अलख जगाने के लिए कटिबद्ध हो गए।
गुण वर्मन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था चीन में महिला भिक्षुणियों का उद्भव और संगठन। नारी जागरण के पिछड़े क्षेत्र में उनके इस प्रयास में भारी जागृति उत्पन्न हुई। उस देश में ५०० वर्ष से बौद्ध धर्म प्रचलित था, पर उसमें महिलाएँ केवल दर्शक या अनुगामिनी मात्र थीं। वे संगठित रूप से इस महान मिशन के लिए कुछ कर सकें, ऐसा कोई प्रयत्न तब तक नहीं किया गया था। गुणवर्मन ने उस अभाव की पूर्ति की। उन्होंने महिला संघ की स्थापना करके उन्हें भी भिक्षुणी बनकर धर्म- प्रचार कार्य में निरत होने का अवसर दिया। गुणवर्मन के बाद गुणभद्र, धर्म, जलाशय, धर्मरुचि, रत्नमति, गौतम प्रज्ञारुचि जैसे प्रतिभाशाली और उद्भट विद्वान् धर्म प्रचारक चीन पहुँचे और धर्म विजय अभियान की सफलता का पथ- प्रशस्त किया।
मय सभ्यता अमेरिका में
अमेरिका के पुरातत्ववेत्ता वहाँ प्राचीन काल में समुन्नत '' मय '' सभ्यता होने की बात स्वीकार करते हैं। महाभारत में मय सभ्यता का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। पाण्डवों का अनौखा राजप्रासाद मित्रता के नाते मय शिल्पी ने ही बनाया था। सूर्य सिद्धांत की रचना के लिए किए गए ज्योतिर्विदों के प्रयास के संदर्भ में लिखा है- '' अल्पावशिष्टे तु कृते, मय नामा महासुर:। '' अर्थात्- शेष बचा थोड़ा सा शोध कार्य मयासुर ने पूरा किया।
जम्बू द्वीप
महाभारत में द्रौपदी युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहती है-'' हे महाराज! आपने जम्बू द्वीप जीतकर उसे आवाद कर दिया। फिर क्रौंच द्वीप आदि अनेक द्वीप- उपद्वीपों को सागर पार जाकर बसाया।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि नए- नए स्थानों को बसाना भारतीय वीरों का लक्ष्य रहा है।
मानवीय सभ्यता का आदि स्त्रोत भारत
साम्बपुराण, अध्याय २५ में वर्णन है-'' लवण सागर से आगे क्षीर सागर से घिरा शाक द्वीप है। जम्बू द्वीप से काफी दूर है। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण के लोग बसते थे। वे सूर्य उपासक थे, उनके कुल अठारह वेदपाठी थे। भारत से पराक्रमी मग जाति मंगोलिया जाकर बसी थी, उसी आधार पर मंगोलिया नाम रखा गया था। इसी क्षेत्र को शाक द्वीप तथा निवासियों को शक भी कहा जाता है। मग और शक एक ही वंश के दो नाम थे शाक द्वीप में मग लोगों द्वारा निवास तथा शासन करने की स्पष्ट चर्चा महाभारत में भी की गई है।
अफ्रीका में पाए जाने वाले जुलू लोग '' झल्ल '' वंश के क्षत्रियों की संतानें है। प्रो. टेलर ने अपने ग्रंथ '' ओरिजन ऑफ आर्यन्स '' में ऐसे अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, जिससे वर्तमान योरोपियन्स नस्ल का, आर्यरक्त के साथ मंगोल जाति वाली महिलाओं का संकरण होने का उद्भव माना गया है। '' ऋग्वैदिक इंडिया '' नामक ग्रंथ में भी इसी तथ्य की पुष्टि की गई है। चीन, जापान, वर्मा, श्याम आदि देशों में बसने वाली जातियों का उद्भव आर्य जाति से होना उमेश चंद्र विद्यारत्न कृत '' मानवेर आदि जन्मभूमि '' नामक बंगला ग्रंथ में किया गया है।
प्रो. हीरन ने चीन निवासियों के अति प्राचीन उद्भव स्रोतों का वर्णन करते हुए लिखा है कि चीन को भारत का ही विकास- विस्तार कहा जा सकता है। स्कंद पुराण के अनुसार यवनों की उत्पत्ति तुर्वस से हुई। तुर्वस राजा ययाति का पुत्र था, जो वहाँ जाकर बस गया था। शक राजकुमार से शक जाति उत्पन्न हुई। यह शक राजा इक्ष्वाकु का पौत्र था। मिश्र, चीन, ग्रीक आदि के निवासी ही प्राचीन काल से यवन और शक के नाम से संबोधित किए जाते थे।
पारसी लोग फारस में जाकर बसने से पहले भारत के निवासी थे। ईरानी लोग आर्यान् शब्द के अपभ्रंश हैं, जो भारत के ही मूल निवासी थे। अरब देशों में बसने वाली शक जाति व्रतहीन ब्राह्मणों से उत्पन्न हुई है। उन्हीं में से एक को '' शेख '' भी कहते हैं। आस्ट्रेलिया की आदिम जातियों का मूल भारत ही है। मनुस्मृति में स्पष्ट उल्लेख है कि धरि- धीरे क्रियालोप हो जाने से ब्राह्मणों का संपर्क टूट जाने से संसार में फैली हुई क्षत्रिय जातियाँ वृषल और दस्यु बन गई । पौण्ड्र, ओड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, दरद, खस आदि जातियाँ इसी प्रकार बनीं। वे आर्य भाषा भूलकर म्लेच्छ भाषा तथा परंपरा अपना बैठीं।
विश्व के समस्त भूभाग में भारतीय धर्म एवं संस्कृति का वैभव- विस्तार का प्रमाण सिद्ध है। इन सभी महाद्वीपों में किसी समय भारतवासी पहुँचे हैं और उन क्षेत्रों के विकास में बहुमूल्य योगदान देते रहे है। यही कारण है कि इन देश के पुरुषार्थी एवं परमार्थ परायण महामानवों को विश्व नागरिकों द्वारा जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक, देव- मानव आदि के नाम से संबोधित किया जाता रहा है।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽ त्मविद्ययोः, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः, श्रीकात्यायन ऋषि प्रतिपादिते '' देवसंस्कृतिजिज्ञासे,'' ति प्रकरणो नाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।