Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -4
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विद्यैवैषा मनुष्यस्य संस्कारित्वं स गौरवम्। विदधाति तदाधारात् समाजो व्यक्तिरेव च ।। २२ ।। श्रेय: सौभाग्ययोगं च प्राप्नुतो मानवेप्सितम्। अतः श्रेष्ठं धनं विद्या सौभाग्यं चाऽपि कीर्तिता ।। २३ ।।
भावार्थ- विद्या ही मनुष्य की सुसंस्कारिता को गरिमा प्रदान करती है और उसी आधार पर व्यक्ति तथा समाज को श्रेय सौभाग्य का सुयोग प्राप्त होता है,जो मानव मात्र का लक्ष्य है। अतः निश्चित रूप से विद्या एक श्रेष्ठ धन है व मानव मात्र का सौभाग्य स्वरूप है ।।२२ - २३ ।।
व्याख्या- आकृति-प्रकृति भिन्न होते हुए भी जन्मोपरांत सभी मनुष्य प्रतिभा, गुण- कर्म स्वाभाव की दृष्टि से एक ही स्तर के पाए जाते हैं। जैसा परिवेश होता है एवं जैसे व्यक्तियों का साथ मिलता है, वैसा ही उस व्यक्ति का विकास या अधःपतन होता है। अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमें जन्मजात प्रतिभा उच्चस्तरीय होते हुए भी वैसा पोषक वातावरण परिवार संस्था एवं समाज परिकर में न मिल पाने के कारण उनका विकास समुचित नहीं हो सका। उलटे उसके स्थान पर गलत दिशा मिलने के कारण प्रवाह उलटी दिशा में चला गया। इसके विपरीत ऐसे भी उदाहरण हैं, जिसमें सही संस्कार मिलते रहने की सतत व्यवस्था, सत्संगति एवं वातावरण की श्रेष्ठता ने श्रेष्ठ व्यक्तियों के निर्माण में मदद की, जबकि प्रतिभा व सुख- सुविधा के साधनों की दृष्टि से पूर्व में गई- बीती परिस्थितियों में थे।
शिक्षण के दो वर्ग हैं। एक भौतिक उपार्जन- उपभोग, दूसरा व्यक्तित्व का विकास- परिष्कार। समग्र शिक्षण के लिए दोनों ही वर्ग समुचित परिस्थितियाँ चाहते हैं। शिल्प- उद्योग भर सिखाने हों , भौतिक जानकारियाँ देनी हों, तो जिसे जहाँ सुविधा हो, वहाँ शिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। व्यक्तित्व निर्माण हेतु वातावरण की अनुकूलता चाहिए। अन्यथा शिक्षण के नाम पर व्यक्ति को जानकारियाँ भर मिलती रहेंगी, सुसंस्कारिता बढ़ाने वाली, मानव को उसकी गरिमा के अनुरूप श्रेय पद दिलाने वाली, विद्या रूपी संपदा मिलने का सुयोग न बन पड़ेगा।
वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव
वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव और महर्षि वाल्मीकि की शिक्षा, दीक्षा- दिशा निर्देश ने ही लव−कुश को महान् प्रतापी, वीर और सुयोग्य बनाया था। वातावरण के सूक्ष्म प्रभाव को देखकर ही श्रीकृष्ण भगवान् ने महाभारत युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र को रणक्षेत्र के लिए चुना था। मातृ- पितृभक्त श्रवण कुमार ने तीर्थयात्रा के समय एक स्थान पर रुककर अपने माता- पिता को कंधे पर से उतार कर पैदल चलने के लिए बाध्य कर दिया था। यह उस स्थान विशेष के वातावरण का प्रभाव था। भले- बुरे वातावरण के प्रभाव को सर्वत्र देखा जा सकता है। प्राचीन काल में ऋषि- मुनियों के आश्रमों में सिंह और गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे। यह उनकी ' आत्मवत् सर्वभूतेषु ' की भावना- मान्यता से उत्पन्न वातावरण का ही प्रभाव था।
जिज्ञासा, वातावरण और सत्संग की त्रिवेणी
विद्यार्थी की जिज्ञासा, वातावरण का प्रभाव और मूर्धन्यों के सत्संग का समन्वय गंगा -यमुना -सरस्वती का संगम बनाता और तीर्थराज जैसी उत्कृष्टता उत्पन्न करता है। ऐसे ही संगम में कौये-कोयल और बगुले-हंस बनने का कृत्य -उपक्रम करते देखे गए हैं। महर्षि व्यास ने गंगोत्री के निकट व्यास गुफा में महाभारत सहित अठारहों पुराण लिखे थे। महर्षि वशिष्ठ ने राम- लक्ष्मण- भरत- शत्रुघ्न समेत मूर्धन्यों को अलखनंदा- भागीरथी संगम पर योग- वशिष्ठ पढ़ाई थी। हिमालय की गोद और गंगा के तट पर ऐसे ही महान् प्रयोजन स्थान- स्थान पर होते रहे। चरक और बाग्भट्ट ने वनस्पतियों से रोगनिवृत्ति का महान् अनुसंधान यहीं किया था।
सप्त ऋषियों ने अपनी तपस्थली हिमालय की छाया और गंगा की गोद में ही बनाई थी। भगवान् राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न अयोध्या की सुविधाओं को छोड़कर गंगातट की दिव्य विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही इस क्षेत्र में तप करने के लिए आ गए थे। तपस्वियों- जिज्ञासुओं की परंपरा हिमालय क्षेत्र में पहुँचने और गंगा तट पर निवास करने की रही है। यह सब अकारण ही नहीं होता रहा है। तत्त्वदर्शी अध्यात्मविज्ञानियों ने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुकूलताओं, उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए ही इस प्रकार का चयन किया था। गंगा यों एक नदी भर है, पर सूक्ष्म दृष्टि से उसे प्रवाहमान देवसत्ता ही कहा जा सकता है। उसके स्थानः, दर्शन, जलपान आदि से सहज ही पवित्रता का संचार होता है। माता की गोदी में रहने के समान ही उसके सान्निध्य का भाव- भरा आनंद अभी भी भावनाशील लोग सहज ही उपलब्ध करते हैं।
काशी, उज्जैन आदि कभी प्रख्यात विद्या के केन्द्र रहे हैं। उसी आधार पर नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय भी विनिर्मित होते रहे हैं और उनसे निकलने वाले व्यक्ति नर- रत्नों, महामानवों की कोटि में गिने जाते रहे हैं। यह सब वातावरण और संकल्प का प्रतिफल था।
आइन्स्टीन की एकांत साधना
अमेरिका सरकार ने महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन की निवास व्यवस्था इस प्रकार की थी, जिसमें उन्हें मनचाही सुविधा तो रहे, किन्तु उनके एकांत- चिंतन में किसी को भी हस्तक्षेप करने का अवसर न रहे। वे जब चाहें, जिसे चाहें उसी से भेंट हो सके। अन्य लोग कितने इच्छुक- उत्सुक क्यों न हों, उन्हें शांति भंग करने और चिंतन प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करने की छूट नहीं मिलती थी। सुविधा ही नहीं, प्रतिबंध भी गंभीर चिंतन में अपेक्षित होते हैं। इसी उदाहरण को ऋषि कल्प महामनीषियों के साथ जोड़ा जा सकता है। वे स्वेच्छापूर्वक ऐसे वातावरण में रहते थे, जहाँ मात्र उपयोगी व्यक्ति ही उन तक पहुँचे।
दृष्टि का अंतर
संस्कृति और सभ्यता में मापदण्ड अलग- अलग हैं।
विवेकानन्द के गेरुए कपड़े देखकर सड़क पर चलने वाले हँस पडे़। स्वामी जी ने मुस्कराते हुए इतना ही कहा- '' आपके देश में मनुष्य को दर्जी सभ्य बनाता है, पर मैं उस देश से आया हूँ, जहाँ ज्ञान और त्याग से सभ्य बना जाता है। ''
बाल्यकाल के संस्कार
गांधी जी ने बचपन में दिन राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा। उसे देखकर वे इतने प्रभावित हुए कि उनने निश्चय कर डाला कि ऐसी ही सत्यनिष्ठा का अपने जीवन में समावेश करूँगा, चाहे कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़े।
बाल्यकाल में लिया हुआ वह व्रत उनका भली प्रकार निभा एवं इसी ने उन्हें विश्ववंद्य महात्मा बनाया।
ज्ञानियों के साथ नरक भी स्वर्ग बन जाता है।
नारद जी एक दिन अम्बरीष से पूछा कि आप पाँच मूर्ख आदमियों के साथ स्वर्ग जाना पसंद करेंगे या पाँच बुद्धिमान आदमियों के साथ नरक जाना ? अंबरीष ने उत्तर दिया- '' भगवन् ! बुद्धिमान- विद्या संपन्न आदमियों के साथ नरक में रहना भी स्वर्ग में- रहने के समान होगा। मूर्ख लोग तो स्वर्ग को भी नरक बनाकर रख देंगे। ''
जितने प्रशंसक उतना पतन
संगति किस प्रकृति के व्यक्तियों की है, इस पर विकास निर्भर करता है।
चापलूसों का जमघट व्यक्तित्व संवर्द्धन में किसी भी तरह सहायक सिद्ध नहीं होता। संत शिवली के गुरु उनके आश्रम का निरीक्षण करने आए। देखा, तो प्रशंसकों का जमघट लगा हुआ था। आशीर्वाद देकर उनकी मनोकामना जो पूर्ण की जाती थी।
गुरु बहुत अप्रसन्न हुए, बोले- ''प्रशंसक इतने अधिक और निंदक इतने कम। इससे तुम्हारा अहंकार बढ़ेगा और लोगों को सन्मार्ग पर चलाने की अपेक्षा तुम इनके हाथों की कठपुतली बन जाओगे। ''
शिवली की आँखें खुलीं। उनने धर्मोपदेश देना आरंभ किया, तो मनोकामना पूरी कराने वालों की भीड़ से उन्हें सहज ही छुटकारा मिल गया।
सही समय पर सही निर्देश
इंग्लैंड के बादशाह हेनरी पंचम जब युवराज थे, तब बड़े उजड्ड थे। एक बार न्यायाधीश ने किसी अपराधी को कानून के अनुसार दंड दिया। इस पर हेनरी ने न्यायाधीश से कहा- '' मैं युवराज की हैसियत से आदेश देता हूँ कि आप इसे छोड़ दें । ''
न्यायाधीश ने आदेश नहीं माना और कहा- '' कानून युवराज से बड़ा है। '' इस पर बौखलाए हेनरी ने न्यायाधीश को एक थप्पड़ जड़ दिया। जज ने तुरंत पुलिस बुलाकर उसे जेल में बंद करा दिया। साथ ही एक नोट लिखकर भेजा- '' आगे चलकर आपको इस देश का राजा बनना है। अगर आप ही राज्य के कानूनों का सम्मान न करेंगे, तो प्रजा आपकी आज्ञा क्यों मानेगी ?''
हेनरी ने अपनी भूल मानी और माफी माँगी। जब वह राजा बना। तब भी उस न्यायाधीश की घटना को सदा सराहता रहा।
राजा को सन्मार्ग दिखाया
एक राजा था। ज्ञानवान् होते हुए भी वह स्वार्थी था। एक दिन सिपाही ने गश्त लगाते हुए देखा एक आदमी कंधे पर पोटली लिए रात में घूम रहा है। उसने आदमी को बंदी बनाकर दूसरे दिन राज दरबार में प्रस्तुत किया। '' कौन हो तुम ? क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आए हो ? और क्या करते हो ?' -राजा ने एक ही साथ कई प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
'' राजन् ! कथा कहने वाला पंडित हूँ मैं। सत् मार्ग पर चलना और दूसरों को उपदेश देना मेरा व्यवसाय है। पास के एक छोटे गाँव में ही रहता हूँ।आपसे भेंट करने की इच्छा थी सो चला आया इस ओर। '' - पंडित ने बड़ी नम्रता के साथ अपनी बात कही।
'' तो फिर कंधे पर पड़ी इस पोटली में क्या है ?' -राजा ने उँगली के इशारे से पूछा।
'' इसमें तीन मूर्तियाँ हैं- स्व मिट्टी की, दूसरी लकड़ी की और तीसरी पत्थर की। पर आकृति एक सी ही है। फिर भी मूल्यों में अंतर है। एक दस रुपये की, दूसरी सौ रुपये की और तीसरी पाँच सौ रुपये की। ''
राजा ने पूछा-'' एक सी मूर्तियों के लिए कीमत अलग- अलग क्यों ?'' ब्राह्मण ने बताया- '' आर्य ! पत्थर की मूर्ति सौन्दर्य और स्थिरता का प्रतीक है। जिनका जीवन सुंदर होता है। वे शरीर से न रहें, तो भी उनका यश अजर- अमर रहता है। उनकी श्रद्धा- प्रतिष्ठा सामान्य लोगों से बहुत अधिक होती है। दूसरी लकड़ी की मूर्ति है। स्थिर तो है, पर गिरे तो टूट सकती है। जो सांसारिक परिस्थिति से भयभीत होकर घर छोड़कर आत्मकल्याण के लिए जंगल चले जाते हैं। परिस्थिति बनने पर कभी टूट भी जाते हैं। वह लकड़ी की मूर्ति की तरह है। तीसरी मिट्टी की मूर्ति- मनुष्य के निकृष्ट इंद्रिय परायण जीवन प्रतिदिन बनते- बिगड़ते रहते हैं। उनकी क्या कीमत ?''
पंडित की बात सुनकर राजा का विवेक जग पड़ा।
यह सच है कि इस संसार में श्रेष्ठ वस्तुएँ अनेक हैं। एक से एक उत्तम पदार्थ यहाँ विद्यमान हैं। पर सबसे महत्त्वपूर्ण सबसे पवित्र यदि कोई वस्तु है, तो वह ' ज्ञान ' है। ज्ञान की विशेषता ही नर- पशु को नर- नारायण की स्थिति तक पहुँचाने में समर्थ होती है। गीता में कहा गया है- '' नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। ''अर्थात् निःसंदेह इस संसार में ज्ञान के सदृश पवित्र अन्य कुछ नहीं है।
ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- ( १) शिक्षा, ( २) विद्या। शिक्षा से तात्पर्य है पढ़ना, लिखना, स्कूली ज्ञान, लौकिक प्रगति के आधार पर स्वरूप की जानकारी। ज्ञान, का अर्थ है- भावनात्मक स्तर को इस प्रकार उपयुक्त बनाना, जिससे व्यक्ति तथा समाज की आंतरिक सुख- शांति अक्षुण्ण रह सके। दोनों ही प्रकार का ज्ञान आवश्यक है। दोनों के लिए ही साथ- साथ प्रयत्न चलते रहना चाहिए। पढ़ना- लिखना यदि रोटी कमाने या सऊर- सलीका सीखने तक ही सीमित रह जाय, तो उसे पढ़ाई मात्र कहा जाएगा। पर जब वह पढ़ाई आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता को उपलब्ध करने में सहायक बनती है, तब उसे विद्या कहा जाने लगता है। विद्या ही आत्म- कल्याण का एक प्रधान साधन है। गायत्री महामंत्र के द्वारा हम उस विद्या की, ऋतम्भरा प्रज्ञा की ही आराधना करते हैं।
रावण विद्वान् था, सामर्थ्य और वैभव की भी कमी न थी। किंतु विवेक की कमी के कारण ही वह पतन की ओर स्वयं भी जा रहा था तथा अपने परिजनों को भी ले जा रहा था। विद्या प्राप्ति का उद्देश्य होता है- जीवन का सदुपयोग। यदि वह पूरा न हो सके, तो विद्या पढ़ने और पाने का जो श्रम हुआ, उसकी सार्थकता नहीं हो पाती। यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। जीवन के लक्ष्य को हम भूल जाते हैं। आत्मकल्याण की बात विस्मृत हो जाती है और कर्तव्य धर्म का पालन करने की गरिमा समझ में नहीं आती। इंद्रियों की वासना और मन की तृष्णा पूरी करने के लिए, अहंकार की पूर्ति के लिए निरर्थक कार्य करते हुए जीवन बीत जाता है और पाप की गठरी सिर पर लद जाती है। यह सब अज्ञान का फल है।
अज्ञान की भ्रांति
स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिष्य को एक कथा सुनाई। एक तत्व ज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, संध्या आने वाली है। काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है, जिससे डर कर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं। सिंह चिंता में डूब गया और संध्या का डर सताने लगा।
पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लाने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूँढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, समझा गधा है। तो लाठी से उसे पीटने लगा- धूर्त यहाँ छिपकर बैठा है। सिंह की पीठ पर लाठियाँ पड़ीं तो उसने समझा यही संध्या है, सो डर से थर- थर काँपने लगा, धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला, उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा- '' यह क्या हुआ ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो ?'' सिंह ने कहा- '' संध्या के चंगुल में फँस गए हैं। वह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है। ''
सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं उसकी भ्रांति थी, जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देवमानव समझ लिया गया और भार एवं प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार कर लिया गया। हमारी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ, जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह ताल- मेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है, जिनमें अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रांति को ही माया कहा गया है। माया को ही बंधन कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया हैं। यह माया और कुछ नहीं वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।
खुदा के नाम पर
एक बार एक अंधा फकीर चौराहे पर पल्ला बिछाए भीख माँग रहा था। निकलने वालों से खुदा के नाम पर एक पैसा देते जाओ ।'' निकलने वालों में से एक मसखरे स्वभाव का था। उसने पूँछा- '' फकीर साहब ! आपने खुदा को देखा है, जो उसके नाम पर भीख माँगते हैं ?'' फकीर भी हँसोड़ था। उसने बुरा न माना, वरन् उलट कर पूछा- '' अच्छा, तुम ही बताओ, तुमने खुदा देखा है ?'' उसने स्पष्ट मना कर दिया। इस पर फकीर ने कहा- '' जब तुम दोनों आँख वाले हो और तुमने उसे नहीं देखा, तो तुम ही बताओ मैं बिना आँख वाला उसे देख पाता ?'' आज बाहुल्य ऐसे ही अज्ञानियों का है और उसका कारण, विद्या की अवमानना।
एक सूत्र संकेत के अनेक अर्थ
दैवी संकेत सूत्र संक्षिप्त होते हैं, पर पात्रता के अनुरूप उनकी व्याख्या लोगों को स्वयं करनी पड़ती है। देवता, मनुष्य और असुरों को ब्रह्माजी ने एक ही शब्द कहा- ' द '। उनने अपनी- अपनी कमियों और आवश्यकताओं को देखते हुए व्याख्याएँ स्वयं ही कीं। देवताओं ने '' दान '' अर्थ निकाला। मनुष्यों ने '' दया '' और असुरों ने '' दमन ''।
सपनों की दुनियाँ
विद्या भी सूत्र संकेतों से हृदयंगम की जाती है। कौन सुसंस्कारिता को कितनी मात्रा में जीवन में, समावेश करता है, इसी पर उसका उत्थान निर्भर है।
विद्या अज्ञान के अंधकार का अनावरण कर सत्य का रहस्योद्घाटन करती है। गुरु इस तथ्य को सूत्र रूप में समझाने का प्रयास करते हैं। दार्शनिक च्वांगत्से एक दिन उदास बैठे थे। शिष्यों ने कहा- '' गुरुदेव! क्या असमंजस सामने आया ?'' च्वांग ने कहा- '' रात मैंने सपना देखा कि मैं तितली बन गया हूँ- रूप , सौंदर्य का धनी। स्वछ्न्दतापूर्वक अनेक प्रकार के फूलों के स्वाद और सौंदर्य पर प्रसन्न हो रहा हूँ। '' सबेरे आँख खुली तो उस स्थिति का कहीं अता- पता न था।
'' मैं इस द्विविधा में हूँ किं कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मैं वस्तुतः तितली हो रहा होऊँ और उसके सोचने पर यह दार्शनिक होने का सपना देख रहा होऊँ। ''
शिष्यों में से कुछ हँसे, कुछ गंभीर हो गए। च्वांगत्से ने समाधान किया कि ' वस्तुतः हम सपनों की दुनियाँ में ही उड़ते- फिरते हैं और वास्तविक के संबंध में भ्रमग्रस्त ही रहते हैं।
लगन ने ऊँचा उठाया
घोर गरीबी के कारण एच. जी. वेल्स को छोटी उम्र में ही एक दुकानदार के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। उसका मन पढ़ने में लगा रहता। दुकान से छूटते ही घर पर जाकर पढ़ने बैठ जाता और दुकान पर आने तक पढ़ता रहता। इस तरीके ने उसका ज्ञान बढ़ाया। उसका मन लेखक बनने का था। लिखता और काटता। कभी- कभी पड़ोसियों से गलती सुधरवाता।
इस लगन का परिणाम यह हुआ कि एच. जी. वेल्स एक माने हुए लेखक बन गए। उनके अनेक उपन्यास प्रकाशित हुए। लेखकों में वे संसार के मूर्धन्यों में गिने जाते हैं। साधनों का घोर अभाव रहते हुए भी लगन ने उन्हें ऐसी सफलता उपलब्ध कराई।
विद्या व्यक्ति की संकल्प शक्ति को प्रबल बनाती है, जबकि लौकिक शिक्षा मात्र लोकोपयोगी जानकारी बढ़ाती व सुखोपभोग की ओर प्रवृत्त करती है।
शिक्षा नहीं,विद्या का प्रचार- प्रसार
सहारनपुर जिले में जन्मे आचार्य जुगलकिशोर को बचपन में एनीबेसेंट के नेतृत्व में शिक्षण का अवसर मिला। पीछे वे ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी से अध्यापन की उच्च शिक्षा प्राप्त करके लौटे। यहाँ आते ही विवाह करने के स्थान पर वे विद्यालयों के माध्यम से देश के लिए नई क्रांतिकारी पीढी़ तैयार करने में लग गए। कुछ दिन उन्होंने अनुभव अर्जित करने के लिए राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं में कार्य किया। गुजरात विद्यापीठ को प्राणवान बनाने में उनको लंबा समय लगा। लाहौर के नेशनल कॉलेज की नींव डाली। वृन्दावन का प्रेम महाविद्यालय चलाया। लखनऊ विश्वविद्यालय और कानपुर विश्वविद्यालय के वायसचांसलर रहें। कांग्रेस आंदोलन में बार- बार जेल जाना पड़ा। वहाँ भी कैदियों के सिर पर चढ़कर उनके अध्यापक बनते रहे। उनके द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त लोगों में हजारों उच्चकोटि के मार्गदर्शक निकले। वे जहाँ भी रहे, सतत् सत्प्रवृत्तियों का शिक्षण देते रहे।
उत्तरप्रदेश सरकार के दो बार मंत्री रहे। पर उन्हें आजीवन एक ही लगन लगी रही कि छात्रों में चरित्र निष्ठा और देशभक्ति कैसे भरी जा सकती है। यह पाठ्यक्रमों पर नहीं ,अध्यापकों के व्यक्तिगत प्रयास पर निर्भर है। यह उनने अपने जीवन की प्रयोगशाला में भली प्रकार सिद्ध करके दिखा दिया।
अंतः के महाभारत के पात्र
विद्या अंतः की वृत्ति को सही दिशा देती है। इसे उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए परमहंस ने आन्तरिक महाभारत का प्रसंग सुनाते हुए कहा- अर्जुन जीव है, धर्म युधिष्ठिर है, बल भीम, नकुल- सहदेव हैं बुद्धि और ज्ञान। जीव अर्जुन निश्चित लक्ष्य वेध करके यज्ञ पुत्री द्रौपदी- परमार्थ वृत्ति को जीत लेते हैं। परमार्थ वृत्ति पाँचों के साथ रमण करती है।
धर्म को बड़ा मानने वाला जीवन अर्जुन परमार्थ वृत्ति द्रौपदी को सहधर्मिणी बनाता है, तभी भगवान् श्रीकृष्ण को अपने रथ की बागडोर सँभलवाने का साहस कर पाता है। धर्म की जगह धन को बड़ा मानने और परमार्थ के स्थान पर स्वार्थ को महत्त्व देने वाला दुर्योधन तो कृष्ण से भी चतुरंगिनी सेना लेना चाहता है, मार्गदर्शन नहीं। ''
ज्ञान बनाम सुख
जब स्वर्गलोक से विश्वकर्मा धरती पर आए, तो उन्हें भगवान् ने दो कलश दिए। एक में ज्ञान भरा था, दूसरे में सुख। उन्हें आदेश दिया गया था कि ज्ञान को अपने पास सँभाल कर रखना और सुख को बाँटना। ''
धरती पर आते ही भ्रम- जंजाल ने दोनों कलशों को बदल दिया। वे ज्ञान बाँटने लगे और सुख अपने पास रखने लगे । फलतः उन्हें जो सेवा कार्य सौंपा गया था, वह निरर्थक चला गया ।
भावार्थ- विद्या ही मनुष्य की सुसंस्कारिता को गरिमा प्रदान करती है और उसी आधार पर व्यक्ति तथा समाज को श्रेय सौभाग्य का सुयोग प्राप्त होता है,जो मानव मात्र का लक्ष्य है। अतः निश्चित रूप से विद्या एक श्रेष्ठ धन है व मानव मात्र का सौभाग्य स्वरूप है ।।२२ - २३ ।।
व्याख्या- आकृति-प्रकृति भिन्न होते हुए भी जन्मोपरांत सभी मनुष्य प्रतिभा, गुण- कर्म स्वाभाव की दृष्टि से एक ही स्तर के पाए जाते हैं। जैसा परिवेश होता है एवं जैसे व्यक्तियों का साथ मिलता है, वैसा ही उस व्यक्ति का विकास या अधःपतन होता है। अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमें जन्मजात प्रतिभा उच्चस्तरीय होते हुए भी वैसा पोषक वातावरण परिवार संस्था एवं समाज परिकर में न मिल पाने के कारण उनका विकास समुचित नहीं हो सका। उलटे उसके स्थान पर गलत दिशा मिलने के कारण प्रवाह उलटी दिशा में चला गया। इसके विपरीत ऐसे भी उदाहरण हैं, जिसमें सही संस्कार मिलते रहने की सतत व्यवस्था, सत्संगति एवं वातावरण की श्रेष्ठता ने श्रेष्ठ व्यक्तियों के निर्माण में मदद की, जबकि प्रतिभा व सुख- सुविधा के साधनों की दृष्टि से पूर्व में गई- बीती परिस्थितियों में थे।
शिक्षण के दो वर्ग हैं। एक भौतिक उपार्जन- उपभोग, दूसरा व्यक्तित्व का विकास- परिष्कार। समग्र शिक्षण के लिए दोनों ही वर्ग समुचित परिस्थितियाँ चाहते हैं। शिल्प- उद्योग भर सिखाने हों , भौतिक जानकारियाँ देनी हों, तो जिसे जहाँ सुविधा हो, वहाँ शिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। व्यक्तित्व निर्माण हेतु वातावरण की अनुकूलता चाहिए। अन्यथा शिक्षण के नाम पर व्यक्ति को जानकारियाँ भर मिलती रहेंगी, सुसंस्कारिता बढ़ाने वाली, मानव को उसकी गरिमा के अनुरूप श्रेय पद दिलाने वाली, विद्या रूपी संपदा मिलने का सुयोग न बन पड़ेगा।
वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव
वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव और महर्षि वाल्मीकि की शिक्षा, दीक्षा- दिशा निर्देश ने ही लव−कुश को महान् प्रतापी, वीर और सुयोग्य बनाया था। वातावरण के सूक्ष्म प्रभाव को देखकर ही श्रीकृष्ण भगवान् ने महाभारत युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र को रणक्षेत्र के लिए चुना था। मातृ- पितृभक्त श्रवण कुमार ने तीर्थयात्रा के समय एक स्थान पर रुककर अपने माता- पिता को कंधे पर से उतार कर पैदल चलने के लिए बाध्य कर दिया था। यह उस स्थान विशेष के वातावरण का प्रभाव था। भले- बुरे वातावरण के प्रभाव को सर्वत्र देखा जा सकता है। प्राचीन काल में ऋषि- मुनियों के आश्रमों में सिंह और गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे। यह उनकी ' आत्मवत् सर्वभूतेषु ' की भावना- मान्यता से उत्पन्न वातावरण का ही प्रभाव था।
जिज्ञासा, वातावरण और सत्संग की त्रिवेणी
विद्यार्थी की जिज्ञासा, वातावरण का प्रभाव और मूर्धन्यों के सत्संग का समन्वय गंगा -यमुना -सरस्वती का संगम बनाता और तीर्थराज जैसी उत्कृष्टता उत्पन्न करता है। ऐसे ही संगम में कौये-कोयल और बगुले-हंस बनने का कृत्य -उपक्रम करते देखे गए हैं। महर्षि व्यास ने गंगोत्री के निकट व्यास गुफा में महाभारत सहित अठारहों पुराण लिखे थे। महर्षि वशिष्ठ ने राम- लक्ष्मण- भरत- शत्रुघ्न समेत मूर्धन्यों को अलखनंदा- भागीरथी संगम पर योग- वशिष्ठ पढ़ाई थी। हिमालय की गोद और गंगा के तट पर ऐसे ही महान् प्रयोजन स्थान- स्थान पर होते रहे। चरक और बाग्भट्ट ने वनस्पतियों से रोगनिवृत्ति का महान् अनुसंधान यहीं किया था।
सप्त ऋषियों ने अपनी तपस्थली हिमालय की छाया और गंगा की गोद में ही बनाई थी। भगवान् राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न अयोध्या की सुविधाओं को छोड़कर गंगातट की दिव्य विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही इस क्षेत्र में तप करने के लिए आ गए थे। तपस्वियों- जिज्ञासुओं की परंपरा हिमालय क्षेत्र में पहुँचने और गंगा तट पर निवास करने की रही है। यह सब अकारण ही नहीं होता रहा है। तत्त्वदर्शी अध्यात्मविज्ञानियों ने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुकूलताओं, उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए ही इस प्रकार का चयन किया था। गंगा यों एक नदी भर है, पर सूक्ष्म दृष्टि से उसे प्रवाहमान देवसत्ता ही कहा जा सकता है। उसके स्थानः, दर्शन, जलपान आदि से सहज ही पवित्रता का संचार होता है। माता की गोदी में रहने के समान ही उसके सान्निध्य का भाव- भरा आनंद अभी भी भावनाशील लोग सहज ही उपलब्ध करते हैं।
काशी, उज्जैन आदि कभी प्रख्यात विद्या के केन्द्र रहे हैं। उसी आधार पर नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय भी विनिर्मित होते रहे हैं और उनसे निकलने वाले व्यक्ति नर- रत्नों, महामानवों की कोटि में गिने जाते रहे हैं। यह सब वातावरण और संकल्प का प्रतिफल था।
आइन्स्टीन की एकांत साधना
अमेरिका सरकार ने महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन की निवास व्यवस्था इस प्रकार की थी, जिसमें उन्हें मनचाही सुविधा तो रहे, किन्तु उनके एकांत- चिंतन में किसी को भी हस्तक्षेप करने का अवसर न रहे। वे जब चाहें, जिसे चाहें उसी से भेंट हो सके। अन्य लोग कितने इच्छुक- उत्सुक क्यों न हों, उन्हें शांति भंग करने और चिंतन प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करने की छूट नहीं मिलती थी। सुविधा ही नहीं, प्रतिबंध भी गंभीर चिंतन में अपेक्षित होते हैं। इसी उदाहरण को ऋषि कल्प महामनीषियों के साथ जोड़ा जा सकता है। वे स्वेच्छापूर्वक ऐसे वातावरण में रहते थे, जहाँ मात्र उपयोगी व्यक्ति ही उन तक पहुँचे।
दृष्टि का अंतर
संस्कृति और सभ्यता में मापदण्ड अलग- अलग हैं।
विवेकानन्द के गेरुए कपड़े देखकर सड़क पर चलने वाले हँस पडे़। स्वामी जी ने मुस्कराते हुए इतना ही कहा- '' आपके देश में मनुष्य को दर्जी सभ्य बनाता है, पर मैं उस देश से आया हूँ, जहाँ ज्ञान और त्याग से सभ्य बना जाता है। ''
बाल्यकाल के संस्कार
गांधी जी ने बचपन में दिन राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा। उसे देखकर वे इतने प्रभावित हुए कि उनने निश्चय कर डाला कि ऐसी ही सत्यनिष्ठा का अपने जीवन में समावेश करूँगा, चाहे कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़े।
बाल्यकाल में लिया हुआ वह व्रत उनका भली प्रकार निभा एवं इसी ने उन्हें विश्ववंद्य महात्मा बनाया।
ज्ञानियों के साथ नरक भी स्वर्ग बन जाता है।
नारद जी एक दिन अम्बरीष से पूछा कि आप पाँच मूर्ख आदमियों के साथ स्वर्ग जाना पसंद करेंगे या पाँच बुद्धिमान आदमियों के साथ नरक जाना ? अंबरीष ने उत्तर दिया- '' भगवन् ! बुद्धिमान- विद्या संपन्न आदमियों के साथ नरक में रहना भी स्वर्ग में- रहने के समान होगा। मूर्ख लोग तो स्वर्ग को भी नरक बनाकर रख देंगे। ''
जितने प्रशंसक उतना पतन
संगति किस प्रकृति के व्यक्तियों की है, इस पर विकास निर्भर करता है।
चापलूसों का जमघट व्यक्तित्व संवर्द्धन में किसी भी तरह सहायक सिद्ध नहीं होता। संत शिवली के गुरु उनके आश्रम का निरीक्षण करने आए। देखा, तो प्रशंसकों का जमघट लगा हुआ था। आशीर्वाद देकर उनकी मनोकामना जो पूर्ण की जाती थी।
गुरु बहुत अप्रसन्न हुए, बोले- ''प्रशंसक इतने अधिक और निंदक इतने कम। इससे तुम्हारा अहंकार बढ़ेगा और लोगों को सन्मार्ग पर चलाने की अपेक्षा तुम इनके हाथों की कठपुतली बन जाओगे। ''
शिवली की आँखें खुलीं। उनने धर्मोपदेश देना आरंभ किया, तो मनोकामना पूरी कराने वालों की भीड़ से उन्हें सहज ही छुटकारा मिल गया।
सही समय पर सही निर्देश
इंग्लैंड के बादशाह हेनरी पंचम जब युवराज थे, तब बड़े उजड्ड थे। एक बार न्यायाधीश ने किसी अपराधी को कानून के अनुसार दंड दिया। इस पर हेनरी ने न्यायाधीश से कहा- '' मैं युवराज की हैसियत से आदेश देता हूँ कि आप इसे छोड़ दें । ''
न्यायाधीश ने आदेश नहीं माना और कहा- '' कानून युवराज से बड़ा है। '' इस पर बौखलाए हेनरी ने न्यायाधीश को एक थप्पड़ जड़ दिया। जज ने तुरंत पुलिस बुलाकर उसे जेल में बंद करा दिया। साथ ही एक नोट लिखकर भेजा- '' आगे चलकर आपको इस देश का राजा बनना है। अगर आप ही राज्य के कानूनों का सम्मान न करेंगे, तो प्रजा आपकी आज्ञा क्यों मानेगी ?''
हेनरी ने अपनी भूल मानी और माफी माँगी। जब वह राजा बना। तब भी उस न्यायाधीश की घटना को सदा सराहता रहा।
राजा को सन्मार्ग दिखाया
एक राजा था। ज्ञानवान् होते हुए भी वह स्वार्थी था। एक दिन सिपाही ने गश्त लगाते हुए देखा एक आदमी कंधे पर पोटली लिए रात में घूम रहा है। उसने आदमी को बंदी बनाकर दूसरे दिन राज दरबार में प्रस्तुत किया। '' कौन हो तुम ? क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आए हो ? और क्या करते हो ?' -राजा ने एक ही साथ कई प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
'' राजन् ! कथा कहने वाला पंडित हूँ मैं। सत् मार्ग पर चलना और दूसरों को उपदेश देना मेरा व्यवसाय है। पास के एक छोटे गाँव में ही रहता हूँ।आपसे भेंट करने की इच्छा थी सो चला आया इस ओर। '' - पंडित ने बड़ी नम्रता के साथ अपनी बात कही।
'' तो फिर कंधे पर पड़ी इस पोटली में क्या है ?' -राजा ने उँगली के इशारे से पूछा।
'' इसमें तीन मूर्तियाँ हैं- स्व मिट्टी की, दूसरी लकड़ी की और तीसरी पत्थर की। पर आकृति एक सी ही है। फिर भी मूल्यों में अंतर है। एक दस रुपये की, दूसरी सौ रुपये की और तीसरी पाँच सौ रुपये की। ''
राजा ने पूछा-'' एक सी मूर्तियों के लिए कीमत अलग- अलग क्यों ?'' ब्राह्मण ने बताया- '' आर्य ! पत्थर की मूर्ति सौन्दर्य और स्थिरता का प्रतीक है। जिनका जीवन सुंदर होता है। वे शरीर से न रहें, तो भी उनका यश अजर- अमर रहता है। उनकी श्रद्धा- प्रतिष्ठा सामान्य लोगों से बहुत अधिक होती है। दूसरी लकड़ी की मूर्ति है। स्थिर तो है, पर गिरे तो टूट सकती है। जो सांसारिक परिस्थिति से भयभीत होकर घर छोड़कर आत्मकल्याण के लिए जंगल चले जाते हैं। परिस्थिति बनने पर कभी टूट भी जाते हैं। वह लकड़ी की मूर्ति की तरह है। तीसरी मिट्टी की मूर्ति- मनुष्य के निकृष्ट इंद्रिय परायण जीवन प्रतिदिन बनते- बिगड़ते रहते हैं। उनकी क्या कीमत ?''
पंडित की बात सुनकर राजा का विवेक जग पड़ा।
यह सच है कि इस संसार में श्रेष्ठ वस्तुएँ अनेक हैं। एक से एक उत्तम पदार्थ यहाँ विद्यमान हैं। पर सबसे महत्त्वपूर्ण सबसे पवित्र यदि कोई वस्तु है, तो वह ' ज्ञान ' है। ज्ञान की विशेषता ही नर- पशु को नर- नारायण की स्थिति तक पहुँचाने में समर्थ होती है। गीता में कहा गया है- '' नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। ''अर्थात् निःसंदेह इस संसार में ज्ञान के सदृश पवित्र अन्य कुछ नहीं है।
ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- ( १) शिक्षा, ( २) विद्या। शिक्षा से तात्पर्य है पढ़ना, लिखना, स्कूली ज्ञान, लौकिक प्रगति के आधार पर स्वरूप की जानकारी। ज्ञान, का अर्थ है- भावनात्मक स्तर को इस प्रकार उपयुक्त बनाना, जिससे व्यक्ति तथा समाज की आंतरिक सुख- शांति अक्षुण्ण रह सके। दोनों ही प्रकार का ज्ञान आवश्यक है। दोनों के लिए ही साथ- साथ प्रयत्न चलते रहना चाहिए। पढ़ना- लिखना यदि रोटी कमाने या सऊर- सलीका सीखने तक ही सीमित रह जाय, तो उसे पढ़ाई मात्र कहा जाएगा। पर जब वह पढ़ाई आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता को उपलब्ध करने में सहायक बनती है, तब उसे विद्या कहा जाने लगता है। विद्या ही आत्म- कल्याण का एक प्रधान साधन है। गायत्री महामंत्र के द्वारा हम उस विद्या की, ऋतम्भरा प्रज्ञा की ही आराधना करते हैं।
रावण विद्वान् था, सामर्थ्य और वैभव की भी कमी न थी। किंतु विवेक की कमी के कारण ही वह पतन की ओर स्वयं भी जा रहा था तथा अपने परिजनों को भी ले जा रहा था। विद्या प्राप्ति का उद्देश्य होता है- जीवन का सदुपयोग। यदि वह पूरा न हो सके, तो विद्या पढ़ने और पाने का जो श्रम हुआ, उसकी सार्थकता नहीं हो पाती। यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। जीवन के लक्ष्य को हम भूल जाते हैं। आत्मकल्याण की बात विस्मृत हो जाती है और कर्तव्य धर्म का पालन करने की गरिमा समझ में नहीं आती। इंद्रियों की वासना और मन की तृष्णा पूरी करने के लिए, अहंकार की पूर्ति के लिए निरर्थक कार्य करते हुए जीवन बीत जाता है और पाप की गठरी सिर पर लद जाती है। यह सब अज्ञान का फल है।
अज्ञान की भ्रांति
स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिष्य को एक कथा सुनाई। एक तत्व ज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, संध्या आने वाली है। काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है, जिससे डर कर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं। सिंह चिंता में डूब गया और संध्या का डर सताने लगा।
पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लाने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूँढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, समझा गधा है। तो लाठी से उसे पीटने लगा- धूर्त यहाँ छिपकर बैठा है। सिंह की पीठ पर लाठियाँ पड़ीं तो उसने समझा यही संध्या है, सो डर से थर- थर काँपने लगा, धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला, उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा- '' यह क्या हुआ ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो ?'' सिंह ने कहा- '' संध्या के चंगुल में फँस गए हैं। वह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है। ''
सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं उसकी भ्रांति थी, जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देवमानव समझ लिया गया और भार एवं प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार कर लिया गया। हमारी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ, जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह ताल- मेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है, जिनमें अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रांति को ही माया कहा गया है। माया को ही बंधन कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया हैं। यह माया और कुछ नहीं वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।
खुदा के नाम पर
एक बार एक अंधा फकीर चौराहे पर पल्ला बिछाए भीख माँग रहा था। निकलने वालों से खुदा के नाम पर एक पैसा देते जाओ ।'' निकलने वालों में से एक मसखरे स्वभाव का था। उसने पूँछा- '' फकीर साहब ! आपने खुदा को देखा है, जो उसके नाम पर भीख माँगते हैं ?'' फकीर भी हँसोड़ था। उसने बुरा न माना, वरन् उलट कर पूछा- '' अच्छा, तुम ही बताओ, तुमने खुदा देखा है ?'' उसने स्पष्ट मना कर दिया। इस पर फकीर ने कहा- '' जब तुम दोनों आँख वाले हो और तुमने उसे नहीं देखा, तो तुम ही बताओ मैं बिना आँख वाला उसे देख पाता ?'' आज बाहुल्य ऐसे ही अज्ञानियों का है और उसका कारण, विद्या की अवमानना।
एक सूत्र संकेत के अनेक अर्थ
दैवी संकेत सूत्र संक्षिप्त होते हैं, पर पात्रता के अनुरूप उनकी व्याख्या लोगों को स्वयं करनी पड़ती है। देवता, मनुष्य और असुरों को ब्रह्माजी ने एक ही शब्द कहा- ' द '। उनने अपनी- अपनी कमियों और आवश्यकताओं को देखते हुए व्याख्याएँ स्वयं ही कीं। देवताओं ने '' दान '' अर्थ निकाला। मनुष्यों ने '' दया '' और असुरों ने '' दमन ''।
सपनों की दुनियाँ
विद्या भी सूत्र संकेतों से हृदयंगम की जाती है। कौन सुसंस्कारिता को कितनी मात्रा में जीवन में, समावेश करता है, इसी पर उसका उत्थान निर्भर है।
विद्या अज्ञान के अंधकार का अनावरण कर सत्य का रहस्योद्घाटन करती है। गुरु इस तथ्य को सूत्र रूप में समझाने का प्रयास करते हैं। दार्शनिक च्वांगत्से एक दिन उदास बैठे थे। शिष्यों ने कहा- '' गुरुदेव! क्या असमंजस सामने आया ?'' च्वांग ने कहा- '' रात मैंने सपना देखा कि मैं तितली बन गया हूँ- रूप , सौंदर्य का धनी। स्वछ्न्दतापूर्वक अनेक प्रकार के फूलों के स्वाद और सौंदर्य पर प्रसन्न हो रहा हूँ। '' सबेरे आँख खुली तो उस स्थिति का कहीं अता- पता न था।
'' मैं इस द्विविधा में हूँ किं कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मैं वस्तुतः तितली हो रहा होऊँ और उसके सोचने पर यह दार्शनिक होने का सपना देख रहा होऊँ। ''
शिष्यों में से कुछ हँसे, कुछ गंभीर हो गए। च्वांगत्से ने समाधान किया कि ' वस्तुतः हम सपनों की दुनियाँ में ही उड़ते- फिरते हैं और वास्तविक के संबंध में भ्रमग्रस्त ही रहते हैं।
लगन ने ऊँचा उठाया
घोर गरीबी के कारण एच. जी. वेल्स को छोटी उम्र में ही एक दुकानदार के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। उसका मन पढ़ने में लगा रहता। दुकान से छूटते ही घर पर जाकर पढ़ने बैठ जाता और दुकान पर आने तक पढ़ता रहता। इस तरीके ने उसका ज्ञान बढ़ाया। उसका मन लेखक बनने का था। लिखता और काटता। कभी- कभी पड़ोसियों से गलती सुधरवाता।
इस लगन का परिणाम यह हुआ कि एच. जी. वेल्स एक माने हुए लेखक बन गए। उनके अनेक उपन्यास प्रकाशित हुए। लेखकों में वे संसार के मूर्धन्यों में गिने जाते हैं। साधनों का घोर अभाव रहते हुए भी लगन ने उन्हें ऐसी सफलता उपलब्ध कराई।
विद्या व्यक्ति की संकल्प शक्ति को प्रबल बनाती है, जबकि लौकिक शिक्षा मात्र लोकोपयोगी जानकारी बढ़ाती व सुखोपभोग की ओर प्रवृत्त करती है।
शिक्षा नहीं,विद्या का प्रचार- प्रसार
सहारनपुर जिले में जन्मे आचार्य जुगलकिशोर को बचपन में एनीबेसेंट के नेतृत्व में शिक्षण का अवसर मिला। पीछे वे ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी से अध्यापन की उच्च शिक्षा प्राप्त करके लौटे। यहाँ आते ही विवाह करने के स्थान पर वे विद्यालयों के माध्यम से देश के लिए नई क्रांतिकारी पीढी़ तैयार करने में लग गए। कुछ दिन उन्होंने अनुभव अर्जित करने के लिए राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं में कार्य किया। गुजरात विद्यापीठ को प्राणवान बनाने में उनको लंबा समय लगा। लाहौर के नेशनल कॉलेज की नींव डाली। वृन्दावन का प्रेम महाविद्यालय चलाया। लखनऊ विश्वविद्यालय और कानपुर विश्वविद्यालय के वायसचांसलर रहें। कांग्रेस आंदोलन में बार- बार जेल जाना पड़ा। वहाँ भी कैदियों के सिर पर चढ़कर उनके अध्यापक बनते रहे। उनके द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त लोगों में हजारों उच्चकोटि के मार्गदर्शक निकले। वे जहाँ भी रहे, सतत् सत्प्रवृत्तियों का शिक्षण देते रहे।
उत्तरप्रदेश सरकार के दो बार मंत्री रहे। पर उन्हें आजीवन एक ही लगन लगी रही कि छात्रों में चरित्र निष्ठा और देशभक्ति कैसे भरी जा सकती है। यह पाठ्यक्रमों पर नहीं ,अध्यापकों के व्यक्तिगत प्रयास पर निर्भर है। यह उनने अपने जीवन की प्रयोगशाला में भली प्रकार सिद्ध करके दिखा दिया।
अंतः के महाभारत के पात्र
विद्या अंतः की वृत्ति को सही दिशा देती है। इसे उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए परमहंस ने आन्तरिक महाभारत का प्रसंग सुनाते हुए कहा- अर्जुन जीव है, धर्म युधिष्ठिर है, बल भीम, नकुल- सहदेव हैं बुद्धि और ज्ञान। जीव अर्जुन निश्चित लक्ष्य वेध करके यज्ञ पुत्री द्रौपदी- परमार्थ वृत्ति को जीत लेते हैं। परमार्थ वृत्ति पाँचों के साथ रमण करती है।
धर्म को बड़ा मानने वाला जीवन अर्जुन परमार्थ वृत्ति द्रौपदी को सहधर्मिणी बनाता है, तभी भगवान् श्रीकृष्ण को अपने रथ की बागडोर सँभलवाने का साहस कर पाता है। धर्म की जगह धन को बड़ा मानने और परमार्थ के स्थान पर स्वार्थ को महत्त्व देने वाला दुर्योधन तो कृष्ण से भी चतुरंगिनी सेना लेना चाहता है, मार्गदर्शन नहीं। ''
ज्ञान बनाम सुख
जब स्वर्गलोक से विश्वकर्मा धरती पर आए, तो उन्हें भगवान् ने दो कलश दिए। एक में ज्ञान भरा था, दूसरे में सुख। उन्हें आदेश दिया गया था कि ज्ञान को अपने पास सँभाल कर रखना और सुख को बाँटना। ''
धरती पर आते ही भ्रम- जंजाल ने दोनों कलशों को बदल दिया। वे ज्ञान बाँटने लगे और सुख अपने पास रखने लगे । फलतः उन्हें जो सेवा कार्य सौंपा गया था, वह निरर्थक चला गया ।