Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4
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Language: HINDI
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।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-2
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आश्रमोऽस्ति विभाग: स जीवनक्रमगो ध्रुवम्। अस्य स्वीकरणाद् व्यक्ति: सुखं याति समुन्नतिम् ।। १३ ।। समाजश्चापि नो रुद्धो जायते प्रगतिक्रमः । सदा सन्तुलनं चात्र तिष्ठत्येव निरन्तरम् ।। १४ ।। आत्मिक्याः प्रगतेस्तत्र भौतिक्याश्चाप्यपावृतम्। द्वारं तिष्ठति सम्भक्ता चतुर्धा जीवनावधि: ।। १५ ।। एते चत्वार आख्याता आश्रमा यत्र च क्रमात्। शक्तिविद्यासु संस्कारोपार्जनं प्रथमं भवेत् ।। १६ ।। ब्रह्मचर्य इति ख्यात: संयमो यत्र पूर्णतः। मात्रं कामपरित्यागं ब्रह्मचर्यं वदन्ति न ।। १७ ।।
भावार्थ- आश्रम जीवन क्रम का विभाजन है। इसे अपनाने से व्यक्ति सुखी और समाज समुन्नत रहता है। प्रगति क्रम रुकने नहीं पाता। संतुलन बना रहता है। भौतिक और आत्मिक प्रगति के दोनों ही द्वार खुले रहते हैं। जीवन अवधि को, चार भागों में विभाजित किया है। यही चार आश्रम हैं। प्रथम चरण में- बलिष्ठता, विद्या और सुसंस्कारिता का उपार्जन होना चाहिए- यही ब्रह्मचर्य है, मात्र काम सेवन न करने को ही ब्रह्मचर्य नहीं कहते ।।१३- १७।।
व्याख्या- दूरदर्शी ऋषियों ने चार आश्रमों में जीवन को पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध में बाँटा है। आयुष्य के पूर्वार्द्ध में समर्थता एवं समृद्धि को बढ़ाने के लिए ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ, इन दो आश्रमों का प्रावधान है। उत्तरार्द्ध में वानप्रस्थ एवं संन्यास ये दो आश्रम आते हैं। इनमें भावना क्षेत्र को अधिक उत्कृष्ट बनाने तथा समय और श्रम को लोक मंगल में नियोजित रखने के लिए परंपरा बनाई गई है। जीवन को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए देव संस्कृति के ये निर्धारण बड़े महत्त्वपूर्ण मानने चाहिए। लौकिक प्रगति एवं आत्मिक उत्कर्ष दोनों ही प्रयोजन इस विभाजन से पूरे होते हैं। यह विशेषता हमें कहीं देखने को नहीं मिलती।
निर्वाह के लिए बल, ज्ञान, धन चाहिए। इन तीनों की पूर्ति ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थाश्रम के युग्म में पूरी की जाती है। उत्तरार्द्ध में सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को सुदृढ़- समुन्नत बनाने के लिए प्राण- पण से निरत रहा जाता है। वानप्रस्थ परिव्राजक होते हैं। स्वस्थ शरीर के रहते वे धर्म प्रचार की पद यात्रा करते एवं शरीर अशक्त होने पर किसी आरण्यक, स्थान, आश्रम में रहते हुए विद्यालय, उद्बोधन, प्रशिक्षण जैसे कार्य करते हैं। यही संन्यास है। पूर्वार्द्ध का प्रथम चरण ब्रह्मचर्य है। इसकी महत्ता- अनिवार्यता शास्त्रों में विशद् रूप से बताई गई है।
शास्त्रों की सम्मति ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति। आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ।। - अथर्व. ११/५/ १७
अर्थात्- ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो आचरण किया जाता है, वह ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के तप से राजा अपना राज्य पुष्ट रखता है और गुरुजन अपने शिष्यों को ज्ञानवान बनाते हैं।
ब्रह्मचारी ब्रह्मभाजद्विभर्ति तस्मिन्देवा अधिविश्वे समोताः। प्राणापानो जनयन्नाद् व्यानं वाचं मनो हदयं ब्रह्ममेधाम् ।। - अथर्व. १ १/५/२४
अर्थात्- ज्ञान और परमात्मा की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है। संपूर्ण दिव्य गुण ब्रह्मचारी में ही हो सकते हैं । ब्रह्मचारी प्राण, अपान और व्यान को, मन और हृदय को सभी ओर से हटाकर ब्रह्मज्ञान की ओर लगाता है। वह मेधावी होता है ।
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत। अर्थात्- ब्रह्मचर्य और तप के बल पर ही देवताओं ने मृत्यु को जीत लिया है।
आचरित्वा ब्रह्मचरियं अलद्धा योब्बने धनं । सेन्ति चापतिखीणा व पुराणानि अनुत्थुनं ।। -जरावग्गो ११/११
अर्थात्- जो लोग ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते और युवावस्था में धन अर्जित नहीं करते, उनका टूटी हुई कमानी की तरह पतन हो जाता है और बाद में सिर धुन- धुन कर पछताते हैं ।
यजुर्वेद में ऋषि आदेश देते हैं- परं मृत्यो अनु परेहि पन्था यस्ते अन्य इतरो देवयानात् ।चक्षुष्मते श्रृष्मते ते ब्रबीमि मा न: प्रजा- रीरिषो मोत वीरान् ।। -यजु. ३५/७
हे मनुष्यो ! जीवनपर्यंत श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण कर पूर्ण आयु प्राप्त करो। ब्रह्मचर्य से रहकर परिपक्व अवस्था में विवाह कर उत्तम संतान को जन्म दो। हमारी संतान भी ब्रह्मचर्य पालन से वियुक्त न हो।
वाल्मीकि रामायण में उद्धरण है- इन्द्रियां प्रदुष्टानां हयानामिव धावताम् । कुर्वीत धृत्या सारथ्यं संहृत्येन्द्रियमोचरम् ।। इंद्रियाँ दुष्ट घोड़ों की तरह दौड़ा करती है। अतः उन इंद्रिय रूपी घोड़ों को सारथी रूपी बुद्धि से अपने अधीन कर, उनको सन्मार्ग पर चलाना चाहिए।
हर धर्म में ब्रह्मचर्य की महत्ता गाई गई है ।
इन्द्रियों की रक्षा करो। अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करो ।
ब्रह्मचर्य की परिभाषा बड़े स्पष्ट शब्दों में ऋषि करते हुए कहते हैं कि बल, विद्या और संस्कारों की पूँजी को एकत्र करने के लिए बिखराव एवं क्षरण को रोककर विचारशक्ति का एकीकरण, सुनियोजन एवं शरीरबल का संवर्द्धन किया जाय। इसे परित्याग तक ही सीमित न माना जाय। क्योंकि परोक्ष रूप से कामुक चिंतन क्रिया न जुड़ी होते हुए भी, हानि उससे अधिक ही पहुँचाता है। अतः विचारों का संयम, इंद्रिय संयम से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ा मानना चाहिए।
संयम सुनियोजन
बिखराव को, अस्त- व्यस्तता को रोक कर अपनी शक्तियों को एक दिशा में लगा देने की महत्ता से सभी अवगत हैं।
बारूद बिखेर कर उसमें आग लगा दी जाय, तो भक् से जलकर राख हो जाएगा। पर यदि उसे बंदूक या तोप में भरकर एक दिशा में गोली समेत धकेला जाये, तो निशाने को तहस- नहस कर देगी।
सूर्य किरणें ऐसी ही बिखरी रहती हैं, पर यदि उन्हें आतिशी शीशे के द्वारा एकत्र किया जाए , तो थोड़े से दायरें का एकत्रीकरण देखते- देखते आग जलाने लगेगा। ढेरों भाप ऐसे ही उड़ती रहती है; पर यदि उसे रोक कर एक नली विशेष से निर्धारित प्रयोजन के लिए नियोजित किया जाय, तो रेलगाड़ी के इंजन दौड़ने लगते हैं। नदियों में पानी निरर्थक बहता रहता है, पर यदि बाँध बनाकर किसी नहर द्वारा बहाया जाय, तो लंबे क्षेत्र की सिंचाई होने और प्रचुर अन्न उपजने की संभावना बनती है। यह सब बिखराव को रोकने, एक दिशा में प्रयोग करने की एकाग्रता के चमत्कारी सत्परिणाम हैं ।
उत्थान- पतन का कारण
किसी मनुष्य ने पूछा-'' मनुष्य शक्तियों का भंडार है, फिर वह डूबता- गिरता क्यों है ?'' गुरु ने इसके उत्तर में अपना कमंडलु पानी पर फेंक दिया और दिखाया कि वह ठीक प्रकार तैर रहा है। दुबारा उसे लिया और तली में छेद करके फेंका, तो वह डूब गया।
गुरु ने बताया कि असंयम के छेद हो जाने से दुर्गुण घुस पड़ते हैं और मनुष्य को डुबा देते हैं। गाय का दूध यदि छलनी में दुहा जाय, तो वह जमीन पर गिरेगा, गंदगी उत्पन्न करेगा। गाय पालने का लाभ न मिलेगा। लाभ तभी है, जब दुहने का पात्र बिना छेद का हो। इंद्रिय शक्ति- मानसिक शक्ति को यदि कुमार्ग के छेदों से बहने दिया जाय, तो मनुष्य की क्षमता इसी प्रकार समाप्त होकर रहेगी। ''
वासना के विष से बचें
महाराजा ययाति वैसे तो बड़े ही विद्वान् और ज्ञानवान् राजा थे। किंतु दुर्भाग्यवश उन्हें वासनाओं का लग गया और वे उनकी तृप्ति में निंमग्न हो गए। स्वाभाविक था कि ज्यों- ज्यों वे इस अग्नि में आहुति देते गए, त्यों- त्यों वह और भी प्रचंड होती गई और शीघ्र ही वह समय आ गया, जब उनका शरीर खोखला हो गया और शक्तियाँ बूढ़ी हो गईं। सारे सुकृत खोए, बेटे के प्रति अत्याचारी प्रसिद्ध हुए, परमार्थ का अवसर खोया और मृत्यु के बाद युग- युग के लिए गिरगिट की योनि पाई, किंतु वासना की पूर्ति न हो सकी। पांडु जैसे बुद्धिमान् राजा पीलिया रोग के साथ वासना के कारण ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। शांतनु जैसे राजा ने बुढ़ापे में वासना के वशीभूत होकर अपने देवव्रत भीष्म जैसे महान् पुत्र को गृहस्थ सुख से वंचित कर दिया। विश्वामित्र जैसे तपस्वी और इंद्र जैसे देवता वासना के कारण ही व्यभिचारी और तप- भ्रष्ट होने के पातकी बने। वासना का विषय निः संदेह बड़ा भयंकर होता है, जिसके शरीर का शोषण हो जाता है, उसका लोक- परलोक पराकाष्ठा तक बिगाड़ देता है। इस विष से बचे रहने में ही मनुष्य का मंगल है।
ब्रह्मचर्य की महत्ता
हनुमान ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने के कारण कितने बलिष्ठ थे। लंका दहन के उपरांत समुद्र में कूदकर नहाए, तो उनका पसीना मछली निगल गई। इतने भर से मछली के गर्भ से महाप्रतापी मकरध्वज उत्पन्न हुए।
ब्रह्मचारी भीष्म पितामह छःमहीने शरशय्या पर लेटे रहे और उत्तरायण सूर्य उगने पर उनने इच्छापूर्वक शरीर त्यागा।
ब्रह्मचारी शुकदेव का ज्ञान, तप एवं तेज प्रख्यात है।
ब्रह्मचारी दयानंद
बाल ब्रह्मचारी दयानंद ने दो साँडों को आपस में लड़ते देखा। वे हटाए हट नहीं रहे थे। स्वामी जी ने दोनों के सींग दो हाथों से पकड़ा और मरोड़कर दो दिशाओं में फेंक दिया। डर कर वे दोनों भाग खड़े हुए। ऐसी ही एक घटना और है।
स्वामी दयानंद शाहपुरा में निवास कर रहे थे। जहाँ वे ठहरे थे, उस मकान के निकट ही एक नई कोठी बन रही थी। एक दिन अकस्मात् निर्माणाधीन भवन की छत टूट पड़ी। कई पुरुष उस खंडहर में बुरी तरह फँस गए। निकलने का कोई रास्ता नजर आता नहीं था। केवल चिल्लाकर अपने जीवित होने की सूचना भर बाहर वालों को दे रहे थे। मलबे की स्थिति ऐसी बेतरतीब और खतरनाक थी कि दर्शकों में से किसी की हिम्मत निकट जाने की नहीं हो रही थी।'' राहत कार्य के लिए पहुँचे लोग यह सोचकर किंकर्तव्यविमूढ़़ हो रहे थे कि कहीं थोड़ी- सी भी चूक हो जाय, तो बचाने वालों के साथ ही भीतर घिरे लोग भी भारी- भरकम दीवारों में पिस सकते, हैं। तभी स्वामी जी भीड़ देखकर कोतूहलवश उस स्थान पर जा पहुँचे, वस्तुस्थिति की जानकारी होते ही वे आगे बढे़ और अपने एकाकी भुजाबल से उस विशाल शिला को हटा दिया, जिसके नीचे लोग दूब गए थे।
आसपास एकत्रित लोग शारीरिक शक्ति का परिचय पाकर उनकी जयकार करने लगे। उनने सबको शांत करके समझाया कि यह शक्ति किसी अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए आप लोगों को नहीं दिखाई है। समय की साधना करने वाला हर मनुष्य अपने में इससे भी विलक्षण शक्तियों का विकास कर सकता है।
यौन उल्लास का सुनियोजन
नैपोलियन २५ वर्ष की आयु तक काम-सुख तो क्या नारी के प्रति भी आकृष्ट नहीं हुआ था। न्यूटन के मस्तिष्क में यौनाकर्षण उठा होता, तो अपना बुद्धि- कौशल सृष्टि के रहस्य जानने की अपेक्षा अपरिमित काम- सुख प्राप्त करने में झोंक दिया होता। भीष्म और हनुमान प्रतिज्ञाबद्ध हो सकते हैं ,पर न्यूटन के सामने तो वैसी कठिनाई थी ही नहीं। जन्मजात प्रतिभाएँ अधोमुखी ही नहीं, ऊर्ध्वमुखी भी होती हैं और उनसे काम- सुख की अपेक्षा अधिक सुख लोगों को मिलता रहा है। हमारे देश में तो सच्चे और शाश्वत सुख की प्राप्ति में काम- वासना को प्रधान बाधा माना गया है । रामकृष्ण परमहंस विवाहित होकर भी योगियों की तरह रहे। वे सदैव आनंद विह्वल रहते थे। स्वामी रामतीर्थ और भगवान् बुद्ध ने तो ऊर्ध्व सुख के लिए युवा तरुणी पत्नी का परित्याग तक कर दिया था। महात्मा गांधी ने ३६ वर्ष की अवस्था के बाद काम- वासना को बिलकुल नियंत्रित कर दिया था, तो भी उनके जीवन से प्रसन्नता का फव्वारा फूटता रहता था। वस्तुतः यौन-उल्लास को सही दिशा में मोड़ देना ही काम बीज का परिष्कार है। बलात् मन पर अंकुश लगाने के स्थान पर, कड़ी तितीक्षा का मार्ग अपनाने के बजाय अंत: की सामर्थ्य को सही दिशा दे दी जाय तो अनेक फलदायी परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं।
किशोर वय की प्रतिभाएँ
लूथर ने इक्कीस वर्ष की आयु में धार्मिक सुधारों के लिए क्रांतिकारी हलचल पैदा कर दी थी।नैपोलियन ने २५वर्ष की आयु में इटली पर विजय प्राप्त की थी। न्यूटन ने इक्कीस वर्ष का होने से पूर्व ही अपने महत्त्वपूर्ण आविष्कार कर डाले थे। चेस्टरटन ने, जब काव्य क्षेत्र में प्रवेश करके अपनी प्रतिभा से सबको आश्चर्य में डाला था,तब वह इक्कीस वर्ष का था। विक्टर ह्यगो जब १५ वर्ष के थे, तब उनने कई नाटक लिखे थे और तीन पुरस्कार जीते थे। सिकंदर जब दिग्विजय को निकली, तब कुल बाईस वर्ष का था। फ्रांस की क्रांति का नेतृत्व करने वाली देवीजॉन सत्रह वर्ष की थी। विवेकानंद व शंकराचार्य को अल्पायु में ही उपलब्धियाँ मिली थीं। यदि उत्कृष्ट इच्छा और अदम्य भावना जागृत हो जाय, तो किशोर आयु में भी मनुष्य अपनी शक्तियों के सुनियोजन द्वारा ऐसा कुछ कर सकता है, जिससे उसका जीवन भी धन्य हो एवं वह अनेक को पार लगा सके।
मनस्विता का चमत्कार
आत्मबल सबसे बड़ी संपदा है व इसका उपार्जन ब्रह्मचर्य पालन करके ही हो सकता है। चीन में उन दिनों कुछ थोड़े से शहर को छोड़कर शेष स्थानों में विदेशियों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी। कभी भूल से कोई विदेशी वहाँ पहुँच जाता, तो चीनी मरने- मारने को उतारू हो जाते, उसकी जान संकट में पड़ जाती।
एक बार स्वामी विवेकानंद चीन भ्रमण पर गए। उनकी किसी गांव के भ्रमण की इच्छा हुई। दो जर्मन पर्यटकों की भी इच्छा ग्राम्य जीवन देखने की थी, पर साहस के अभाव में उनकी प्रवेश की हिम्मत नहीं हो रही थी। उन्होंने यह बात स्वामी जी से कही, तो स्वामी जी ने कहा- '' सारी मनुष्य जाति एक है, हमें विश्वास है कि यदि हम सच्चे हृदय से वहाँ के लोगों से मिलने चलें, तो वे हमें मारने की अपेक्षा प्रेम से ही मिलेंगे। ''
वे जर्मन पर्यटकों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े। दुभाषिया उसके लिए तैयार नहीं हो रहा था, पर जब स्वामी जी नहीं रुके, तो वह भी साथ चला तो गया, पर अंत तक उसे यही भय बना रहा कि कहीं वे लोग उन्हें मारें नहीं।
गाँव वाले विदेशियों को देखकर लाठी मारने दौड़े। स्वामी विवेकानंद ने उनकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा- '' क्या आप लोग अपने भाइयों से प्रेम नहीं करते ? '' दुभाषियों ने यही प्रश्न उनकी भाषा में ग्रामीणों से पूछा- तो वे बेचारे लज्जित हुए और लाठी फेंककर स्वामी जी के स्वागत- सत्कार में जुट गए। आश्चर्यचकित जर्मन साथियों को संबोधित कर स्वामी जी बोले- '' यह आत्मबल की शक्ति का चमत्कार है। इसके माध्यम से किसी पर भी, यहाँ तक कि शत्रु पर भी विजय पाई जा सकती है।
गृहस्थश्चापरो पादो मात्रमुद्वाह एव न। गृहस्थः प्रोच्यतेऽप्यत्र संस्था तु परिवारगा ।। १८ ।। समर्था सफला चाऽपि क्रियते चेत्तदैव तु। गृहस्थ प्रोच्यते यत्र वर्गे निर्वाह आद्वत: ।। १९ ।। स एव परिवारश्च सदस्यास्तत्र दुर्बलाः। पोष्यास्तु सबला ये च विधातव्यास्तु ते स्वयम् ।। २० ।। स्वावलम्बिन एवं च संस्कारपरिसंस्कृताः। सहकारगताश्चाऽपि, विद्यालय इहोच्यते ।। २१ ।। परिवारस्य संस्थाया अस्योद्देश्यतया मता। समुन्नतिस्तथा चैषा भावना विकसिता भवेत् ।। २२ ।। वसुधैव कुटुम्बस्य भावनायां निरन्तरम् । समाजरचनायाश्च साऽऽधारत्वेन सम्मता ।। २३ ।। परिवारिकतैवैषा या विकास्या च सर्वतः । प्रत्येकं मनुजस्तिष्ठेत् सदस्यत्वेन सम्मत: ।। २४ ।। विश्वव्यापिकुटुम्बस्य स्व च मन्येत स स्वत: । सम्पूर्णस्य समाजस्याविच्छिन्नं ।। २५ ।।
भावार्थ - दूसरा चरण गृहस्थ है। गृहस्थ धर्म के पालन का अर्थ केवल विवाह करना नहीं, परिवार संस्था को समर्थ और सफल बनाना है। जिस समुदाय के बीच निर्वाह चलता है, वह परिवार है। परिवार के असमर्थ सदस्यों का भरण- पोषण और समर्थ सदस्यों को स्वावलंबी सुसंस्कारी एवं सहकारी बनाने की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। परिवार को सुसंस्कारिता की पाठशाला माना गया है। उसका उद्देश्य परिवार संस्था को समुन्नत बनाना है। यह पारिवारिकता "वसुधैव कुटुम्बकम् '' की भावना से विकसित होनी चाहिए । समाज संरचना का आधारभूत उद्देश्य पारिवारिकता ही है । इसे हर क्षेत्र में विकसित होना चाहिए। हर व्यक्ति विश्व- परिवार बनकर रहे। अपने को पूरे समाज का एक अविच्छिन्न अंग माने ।। १८- २५ ।।
व्याख्या- ऋषियों द्वारा निर्धारित विद्या एवं बल संपादन हेतु नियोजित ब्रह्मचर्य की अवधि के पश्चात् व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। यह मात्र दो कायाओं का गठबंधन ही नहीं, सुसंस्कारिता उपार्जन की प्रयोगशाला भी है, जिसमें सभी पारिवारिक जनों के साथ रहते हुए सहकारिता, अध्यवसाय एवं आत्मावलंबन का प्रशिक्षण लिया जाता है । वस्तुतः परिवार समस्त मानव समुदाय के रूप में फैले स्रष्टा के बृहत् परिवार की एक छोटी इकाई है। हर मनुष्य मात्र अपने परिवार तक ही सीमित न रहकर चिंतन को बृहत् विस्तार दे एवं विराट विश्व को अपना कार्यक्षेत्र माने, पारिवारिक भावना का विस्तार कर इस उद्यान को समुन्नत बनाए, ऐसी ऋषिगणों की इच्छा रही है। गुरुकुल से लेकर संयुक्त कुटुम्ब तक में इसी भावना के विकास का प्रावधान है। इसी कारण परिवार संस्था को सम्मानित किया गया है।
गृहस्थ- धर्म अन्य सभी धर्मों से अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया। महर्षि व्यास के शब्दों में '' गृहस्थ्येव हि धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते'' गृहस्थाश्रम ही सर्व धर्मों का आधार है। '' धन्यो गृहस्थाश्रम: '' चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम धन्य है। 'जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं ।'
श्रीराम को गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता बताते हुए चित्रकूट में भरत जी कहते हैं- धर्मेण चतुरो वर्णान्पालयम् क्लेशमाप्नुहि । चतुर्णामाश्रणां हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमाश्रमम् ।।
धर्मानुसार ब्राह्यणादि चारों वर्णों के पालन करने का कष्ट आप स्वीकार कीजिए क्योंकि हे धर्मज्ञ! चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम ही धर्मज्ञशील लोग सर्वोत्तम बतलाते हैं। (वाल्मीकि रामायण) अत्रि- अनुसूइया
यह कहना गलत है कि गृहस्थाश्रम साधना में किसी तरह बाधक है। प्राचीनकाल में बहुसंख्य ऋषि सपत्नीक रहकर गुरुकुल में वासकर साधना करते, शिक्षण शोध प्रक्रिया चलाते थे। एक बार अत्रि अपने आश्रम से चलकर एक गाँव में पहुँचे। आगे का मार्ग बहुत बीहड़ और हिंसक जीव- जंतुओं से भरा हुआ था, सो अत्रि रात को इसी गाँव में एक सद्गृहस्थ के घर टिक गए। गृहस्थ ने उन्हें ब्रह्मचारी वेष में देखकर उनकी आव- भगत की और भोजन के लिए आमंत्रित किया। अत्रि ने जब समझ लिया कि इस परिवार के सभी सदस्य ब्रह्मसंध्या का पालन करते है, किसी में कोई दोष- दुर्गुण नहीं है, तो उन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया।
भोजनोपरांत अत्रि ने गृहस्थ को प्रणाम कर प्रार्थना की '' देहि मे सुखदां कन्याम् '' अपनी सुखदा कन्या मुझे दीजिए, जिससे मैं अपना घर बसा सकूँ। उन दिनों वर ही कन्या ढूँढ़ने जाते थे। कन्याओं को वर तलाश नहीं करने पड़ते थे। उन दिनों नर से नारी की गरिमा अधिक थी। गृहस्थ ने अपनी पत्नी से परामर्श किया। अत्रि के प्रमाण पत्र देखे और वंश की श्रेष्ठता पूछी और वे जब इस पर संतुष्ट हो गए कि वर सब प्रकार से योग्य है, तो उन्होंने पवित्र अग्नि की साक्षी में अपनी कन्या का संबंध अत्रि के साथ कर दिया। अत्रि के पास तो कुछ था नहीं, इसलिए गृहस्थ संचालन के लिए- आरंभिक सहयोग के रूप में अन्न, वस्त्र , बिस्तर, थोड़ा धन और गाय भी दी। छोटी- सी किन्तु सब आवश्यक वस्तुओं से पूर्ण गृहस्थी लेकर अत्रि अपने घर पधारे और सुखपूर्वक रहने लगे। इन्हीं अत्रि और अनुसुइया के द्वारा दत्तात्रेय जैसी तेजस्वी संतान को जन्म मिला। भगवान् को भी एक दिन इनके सामने झुकना पड़ा था।
विवाह विद्या से
विवाह का अर्थ है दो आत्माओं का मिलन, काया का नहीं। जो शरीर देखते हैं , वे पछताते व बहुमूल्य अवसर खोते हैं।
महर्षि अत्रि की एक पुत्री थी। नाम था उसका अपाला। कुछ बड़ी हुई, तो उसके शरीर पर श्वेत कुष्ठ निकल आया। बहुत उपचार करने पर भी अच्छा न हुआ, वरन् बढ़ता गया।
पुत्री विवाह योग्य हुई। तो वर खोजा गया। उस विदुषी के ज्ञान की प्रशंसा सुन कर अनेक वर आए, पर श्वेत दागों को देखकर वापस लौट गए । ऋषि शिष्य वृताश्व ने बिना कुछ पूछताछ- देखभाल किए ही भावावेश में पाणिग्रहण कर लिया।
घर पहुँचने पर वृताश्व ने जब चर्म दोष देखा तो वे उदास हो गए। कभी ऋषि को, कभी अपाला को कभी अपने को दोष देने लगे। किसी पर भार बनने की अपेक्षा अपाला अपने पिता के यहाँ वापस लौट गई। उसने अपना समस्त ध्यान अध्ययन- तप के लिए नियोजित कर दिया।उसकी प्रवीणता ने उसकी गणना वरिष्ठ ऋषियों में कराई। चर्म दोष की तुलना में ज्ञान और चरित्र की गरिमा भारी बैठी।
एक पत्नीव्रत का न्याय
महाभारत के बाद पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया। उसमें चक्रवर्ती शासन की स्थापना के लिए चंपकपुरी का राजा हंसध्वज बड़ा धर्मात्मा था। उसने अपने राज्य में एक पत्नीव्रत पालन का कठोर कानून बनाया था। जो उसका उल्लंघन करता, उसे दंड दिया जाता। इस दृष्टि से कृष्ण भी उसकी आँखों में खटक रहे थे। उनकी कई रानियाँ थीं। वे कृष्ण को पकड़ बुलाना चाहते थे।
हंसध्वज के पुत्र सुधन्वा ने घोड़े को रोक लिया और अर्जुन को भी बाँध लिया। शर्त एक ही थी कृष्ण का आगमन होने पर घोड़े का छोड़ा जाना। समस्या की गंभीरता और न्यायप्रिय राजा की सामर्थ्य देखकर कृष्ण वहाँ गए और अपने पुरुषार्थ से घोड़े को तथा अर्जुन को छुड़ाकर लाए। किंतु आते समय उस वीर को साधुवाद देकर आए एवं वह आशीर्वाद जो उसके एक पत्नीव्रत के कारण था। उसे महाभारत में अर्जुन से युद्ध में मृत्यु के बाद सीधा स्वर्ग को ले जाया गया। सुधन्वा न्यायोचित प्रचलन की सामर्थ्य देखकर जहाँ मन ही मन बहुत प्रसन्न था। वहाँ भगवान् द्वारा जरासंध से छुड़ाई गई रानियों के पुनर्वास से फैली गलतफहमियों को जानकर उसकी भ्रांतियाँ मिटीं एवं भक्तिभाव और प्रगाढ़ हुआ।
दूसरा विवाह नहीं
एक -बार गृहस्थाश्रम में सहचर बनने पर दोनों साथियों का धर्म है कि परस्पर एक दूसरे के साथ निर्वाह करें। आज जो अग्नि की वेदी पर शपथ ली गई है, उसे कल नकार दिया जाय, यह तो धर्म की अवहेलना है। इन दिनों ऐसे प्रसंग जब ढेरों मिलते हैं, कुछ आदर्श हमें प्रेरणा देते हैं।
पुत्र का विवाह परंपरा के अनुसार कुछ कम वय में कर दिया गया। कन्या भी छोटी ही थी माता की देखरेख में ही लड़की का चुनाव किया गया था। किंतु कुछ दिन पश्चात् माता को अनुभव हुआ कि मैंने कन्या का चुनाव ठीक नहीं किया है। अत: उसने विचार किया कि दूसरी उत्तम गुणों वाली कन्या खोजकर पुत्र का दूसरा विवाह कर देना चाहिए।
पर तब तक पुत्र कुछ समझदार हो चला था। माता ने अपना मंतव्य प्रकट किया। पुत्र ने कहा- '' दूसरा विवाह नहीं हो सकेगा माँ। '' मां नाराज हुईं कहने लगीं- '' यह मेरे निर्णय का विषय है, तुम्हारा नहीं। तुम अभी बच्चे हो। इसमें मेरे मान- अपमान का प्रश्न है। मैं कन्या पक्ष वालों को आश्वस्ति दे चुकी हूँ। क्या तुम्हें इसीलिए पाल- पोसकर बड़ा किया था, कि तुम्हारे कारण यों लज्जित होना पड़े। ''
पुत्र ने समझाया-'' आपका मान मुझे प्राणों से भी प्यारा है। उस पर अपनी जीवन आहुति दे सकता हूँ। दूसरा विवाह करने से पत्नी का जीवन नष्ट हो जावेगा। '' माता फिर भी न मानी। तब पुत्र ने कहा-'' अच्छा एक बात बताइए। यदि मैं ही अयोग्य होता, तो क्या आप उस कन्या को दूसरा विवाह करने की अनुमति देतीं ?'' इस प्रश्न का माँ के पास कोई उत्तर न था। उन्होंने बेटे के ब्याह की बात बंद कर दी। वह साहसी बालक थे दादा भाई नौरोजी ! कांग्रेस के प्राणदाता, भारत के सच्चे समाज सेवक।
विकलांग बालक को अपनाया
कोई आवश्यक नहीं कि नई संतान हर गृहस्थ के यहाँ आनी ही चाहिए। जब परिवार संस्था का उद्देश्य समझ में आ जाए, तो कहीं असमंजस नहीं रहता। सारा विश्व अपना परिवार प्रतीत होता है। जान एड्रिन के घर विकलांग पक्षाघात से पीड़ित एक बच्ची थी। उसी को दंपत्ति ने पाला- पोसा और शिक्षित किया। दिमागी पक्षाघात से पीड़ित वही बच्ची अपने परिश्रम तथा माँ- बाप की जी तोड़ मेहनत और लगन के परिणाम स्वरूप एम०ए० तक पढ़ सकी।
पारिवारिकता के सच्चे पोषक जाकिर हुसैन
जाकिर हुसैन, धर्म से मुसलमान थे, पर उन्हें कट्टरता और संकीर्णता छू भी नहीं गई थी। वे हिन्दू-मुस्लिम दोनों को ही अपना परिवार मानते थे। जामिया, मिल्लिया और अलीगढ़ विश्वविद्यालय संचालन का सूत्र जब- तक उनके हाथ में रहा, छात्रों को अच्छा नागरिक और देश भक्त बनाने का भरसक प्रयत्न करते रहे। धर्मांधता का उन्होंने डटकर विरोध किया। वे सादगी पसंद थे। अपने परिवार और संपर्क क्षेत्र में सादगी, शालीनता एवं सहकारिता का पूरे मन से प्रचार करते रहे।
वे राष्ट्रीय कांग्रेस के मूर्धन्य नेता थे। उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। भारत के राष्ट्रपति भी वे रहे। उनकी विद्वता असाधारण थी। हिंदू- मुस्लिम एकता की जड़ें अधिकाधिक गहरी जमाने के लिए वे आजीवन प्रयत्न करते रहे।
सारा विश्व एक विराट् शरीर
आर्ष युग के स्वर में स्वर मिलाकर आधुनिक ऋषि मनीषियों ने भी '' उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् '' के अपने विचार व्यक्त किए है एवं पारिवारिकता की भावना के विस्तार की महत्ता प्रतिपादित की है। स्वामी रामतीर्थ कहते थे-
'' याद रखो ! संपूर्ण जगत् एक शरीर है। तुम्हारे शरीर में हाथ, नख एवं उँगली की तरह ही एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। यदि हाथ, उँगली या नाक शरीर से पृथक् होकर अलग कट जाते हैं, तो फिर उनका सारा महत्त्व ही नष्ट हो जाता है। आत्मा तभी सच्चे अर्थों में आत्मा है, जब वह अपने को परमात्मा का एक अंश अनुभव करे। विराट् विश्व का एक कण ही तो मनुष्य है।
अखिल विश्व की आत्मा से हम अपने को पृथक् न समझें। हाथ का कल्याण इसी में है कि वह अपना हित समस्त शरीर के हित के साथ जुड़ा रखे, किसी भी अंग को अभाव या -कष्ट हो, तो उसके निराकरण का उपाय करे। यदि हाथ अपना यह कर्तव्य धर्म छोड़ दे और कलाई तक ही अपने को सीमित कर ले, तो वह स्वयं नष्ट होगा और सारे शरीर को नष्ट करेगा। संकीर्णता ही पतन और विशालता ही उत्थान है। कोई वीराना नहीं, सब अपने ही हैं। सबके कल्याण में अपना कल्याण समाया हुआ है। यही शिक्षाएँ अध्यात्म का सार हैं।