Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं होते
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साधना से एक विशेष दिशा में मनोभूमि का निर्माण होता है। श्रद्धा, विश्वास तथा साधना विधि की कार्य- प्रणाली के अनुसार आन्तरिक क्रियायें उसी दिशा में प्रवाहित होती हैं, जिससे मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार- यह अन्त:करण चतुष्टय वैसा ही रूप धारण करने लगता है। भावनाओं के संस्कार अन्तर्मन में गहराई तक प्रवेश कर जाते हैं। गायत्री साधक की मानसिक गतिविधियों में आध्यात्मिकता एवं सात्त्विकता का प्रमुख स्थान बन जाता है, इसलिये जाग्रत् अवस्था की भाँति स्वप्रावस्था में भी उसकी क्रियाशीलता सारगर्भित ही होती है, उसे प्राय: सार्थक स्वप्न ही आते हैं।
गायत्री साधकों को साधारण व्यक्तियों की तरह निरर्थक स्वप्न प्राय: बहुत कम आते हैं। उनकी मनोभूमि ऐसी अव्यवस्थित नहीं होती, जिसमें चाहे जिस प्रकार के उलटे- सीधे स्वप्नों का उद्भव होता हो। जहाँ व्यवस्था स्थापित हो चुकी है, वहाँ की क्रियायें भी व्यवस्थित होती हैं। गायत्री साधकों के स्वप्नों को हम बहुत समय से ध्यानपूर्वक सुनते रहे हैं और उनके मूल कारणों पर विचार करते रहे हैं। तदनुसार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा है कि साधक लोगों के स्वप्न निरर्थक बहुत कम होते हैं, उनमें सार्थकता की मात्रा अधिक रहती है।
निरर्थक स्वप्न अत्यन्त अपूर्ण होते हैं। उनमें केवल किसी बात की छोटी- सी झाँकी होती है, फिर तुरन्त उनका तारतम्य बिगड़ जाता है। दैनिक व्यवहार की साधारण क्रियाओं की सामान्य स्मृति मस्तिष्क में पुन:- पुन: जाग्रत् होती रहती है और भोजन, स्नान, वायु सेवन जैसी साधारण बातों की दैनिक स्मृति के अस्तव्यस्त स्वप्न दिखाई देते हैं। ऐसे स्वप्नों को निरर्थक कहा जाता है। सार्थक स्वप्न कुछ विशेषता लिये हुए होते हैं। उनमें कोई विचित्रता, नवीनता, घटनाक्रम एवं प्रभावोत्पादक क्षमता होती है। उन्हें देखकर मन में भय, शोक, चिन्ता, क्रोध, हर्ष, विषाद, लोभ, मोह आदि के भाव उत्पन्न होते हैं। निद्रा त्याग देने पर भी उसकी छाप मन पर बनी रहती है और चित्त में बार- बार यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस स्वप्न का अर्थ क्या है?
साधकों के सार्थक स्वप्नों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है—(१) पूर्व संचित कुसंस्कारों का निष्कासन, (२) श्रेष्ठ तत्त्वों की स्थापना का प्रकटीकरण, (३) भविष्य- सम्भावना का पूर्वाभास, (४) दिव्य दर्शन। इन चार श्रेणियों के अन्तर्गत विविध प्रकार के सभी सार्थक स्वप्र आ जाते हैं।
(१) कुसंस्कारों का निष्कासन
कुसंस्कारों को नष्ट करने वाले स्वप्न पूर्व संचित कुसंस्कारों के निष्कासन में इसलिये होते हैं कि गायत्री साधना द्वारा आध्यात्मिक नये तत्त्वों की वृद्धि साधक के अन्त:करण में हो जाती है। जहाँ कोई वस्तु रखी जाती है, वहाँ से दूसरी को हटाना पड़ता है। गिलास में पानी भरा जाए, तो उसमें से पहले से भरी हुई वायु को हटाना पड़ेगा। रेल के डिब्बे में नये मुसाफिरों को स्थान मिलने के लिये यह आवश्यक है कि उसमें से बैठे हुए पुराने मुसाफिर उतरें ।। दिन का प्रकाश आने पर अन्धकार को भागना ही पड़ता है। इसी प्रकार गायत्री साधक के अन्तर्जगत् में जिन दिव्य तत्त्वों की वृद्धि होती है, उन सुसंस्कारों के लिये स्थान नियुक्त होने से पूर्व कुसंस्कारों का निष्कासन स्वाभाविक है। यह निष्कासन जाग्रत् अवस्था में भी होता रहता है और स्वप्न अवस्था में भी। विज्ञान के सिद्धान्तानुसार विस्फोट द्वारा उष्णवीर्य के पदार्थ जब स्थानच्युत होते हैं, तो वे एक झटका मारते हैं। बन्दूक जब चलाई जाती है, तो पीछे की ओर एक जोरदार झटका मारती है। बारूद जब जलती है, तो एक धड़ाके की आवाज करती है। दीपक के बुझते समय एक बार जोर से लौ उठती है। इसी प्रकार कुसंस्कार भी मानस लोक से प्रयाण करते समय मस्तिष्कीय तन्तुओं पर आघात करते हैं और उन आघातों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो विक्षोभ उत्पन्न होता है, उसे स्वप्नावस्था में भयंकर, अस्वाभाविक, अनिष्ट एवं उपद्रव के रूप में देखा जाता है।
भयानक हिंसक पशु, सर्प, सिंह, व्याघ्र, पिशाच, चोर, डाकू आदि का आक्रमण होना, सुनसान, एकान्त, डरावना जंगल दिखाई देना, किसी प्रियजन की मृत्यु, अग्रिकाण्ड, बाढ़, भूकम्प, युद्ध आदि के भयानक दृश्य दीखना, अपहरण, अन्याय, शोषण, विश्वासघात द्वारा अपना शिकार होना, कोई विपत्ति आना, अनिष्ट की आशंका से चित्त घबराना आदि भयंकर दिल धडक़ाने वाले ऐसे स्वप्न, जिनके कारण मन में चिन्ता, बेचैनी, पीड़ा, भय, क्रोध, द्वेष, शोक, कायरता, ग्लानि, घृणा आदि के भाव उत्पन्न होते हैं, वे पूर्व संचित इन्हीं कुसंस्कारों की अन्तिम झाँकी का प्रमाण होते हैं। यह स्वप्न बताते हैं कि जन्म- जन्मान्तरों की संचित यह कुप्रवृत्तियाँ अब अपना अन्तिम दर्शन और अभिवादन करती हुई जा रही हैं और मन ने स्वप्न में इस परिवर्तन को ध्यानपूर्वक देखने के साथ- साथ एक आलंकारिक कथा के रूप में किसी शृंखलाबद्ध घटना का चित्र गढ़ डाला है और उसे स्वप्न रूप में देखकर जी बहलाया है।
कामवासना अन्य सब मनोवृत्तियों से अधिक प्रबल है। काम भोग की अनियन्त्रित इच्छायें मन में उठती हैं। उन सबका सफल होना असम्भव है, इसलिये वे परिस्थितियों द्वारा कुचली जाती रहती हैं और मन मसोसकर वे अतृप्त, असंतुष्ट प्रेमिका की भाँति अन्तर्मन के कोपभवन में खटपाटी लेकर पड़ी रहती हैं। यह अतृप्ति चुपचाप पड़ी नहीं रहती, वरन् जब अवसर पाती है, निद्रावस्था में अपने मनसूबों को चरितार्थ करने के लिये, मन के लड्डू खाने के लिये मनचीते स्वप्न का अभिनय रचती है। दिन में घर के लोगों के जाग्रत् रहने के कारण चूहे डरते और बिलों में छिपे रहते हैं, पर रात्रि को जब घर के आदमी सो जाते हैं, तो चूहे अपने बिलों में से निकलकर निर्भयतापूर्वक उछलकूद मचाते हैं। कुचली हुई काम वासना भी यही करती है और ‘खयाली पुलाव’ खाकर किसी प्रकार अपनी क्षुधा को बुझाती है। स्वप्नावस्था में सुन्दर- सुन्दर वस्तुओं का देखना, उनसे खेलना, प्यार करना, जमा करना, रूपवती स्त्रियों को देखना, उनकी निकटता में आना, मनोहर नदी, तड़ाग, वन- उपवन, पुष्प, फल, नृत्य, गीत, वाद्य, उत्सव, समारोह जैसे दृश्यों को देखकर कुचली हुई वासनायें किसी प्रकार अपने को तृप्त करती हैं। धन की, पद की, महत्त्व प्राप्ति की अतृप्त आकांक्षाएँ भी अपनी तृप्ति के झूठे अभिनय रचा करती हैं। कभी- कभी ऐसा होता है कि अपनी अतृप्ति के दर्द को, घाव को, पीड़ा को स्पष्ट रूप में अनुभव करने के लिए ऐसे स्वप्न दिखाई देते हैं, मानो अतृप्ति भी बढ़ गयी। जो थोड़ा- बहुत सुख था, वह भी हाथ से चला गया अथवा मनोवाँछ पूरी होते- होते किसी आकस्मिक बाधा के कारण रुक गयी।
अतृप्ति को किसी अंश में या किसी अन्य प्रकार से तृप्त करने अथवा और भी उग्र रूप से अनुभव करने के लिये उपर्युक्त प्रकार के स्वप्र आया करते हैं। यह दबी हुई वृत्तियाँ गायत्री साधना के कारण उखडक़र अपने स्थान खाली करती हैं। इसलिए परिर्वतन काल में अपने गुप्त रूप को प्रकट करती हुई विदा होती हैं। तदनुसार साधना काल में प्राय: इस प्रकार के स्वप्न आते रहते हैं। किसी मृत प्रेमी का दर्शन, सुन्दर दृश्यों का अवलोकन, स्त्रियों से मिलना- जुलना, मनोवाँछाओं का पूरा होना आदि घटनाओं के स्वप्र भी विशेष रूप से दिखाई देते हैं। इनका अर्थ है कि अनेकों दबी हुई अतृप्त तृष्णायें, कामनाएँ, वासनाएँ धीरे- धीरे करके अपनी विदाई की तैयारी कर रही हैं। आत्मिक तत्त्वों की वृद्धि के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है।
(२) दिव्य तत्त्वों के वृद्धि सूचक स्वप्न
दूसरी श्रेणी के स्वप्न वे होते हैं, जिनसे इस बात का पता चलता है कि अपने अन्दर सात्त्विकता की मात्रा में लगातार वृद्धि हो रही है। सतोगुणी कार्यों को स्वयं करने या किसी अन्य के द्वारा होते हुए, स्वप्न ऐसा ही परिचय देते हैं। पीडि़तों की सेवा, अभावग्रस्तों की सहायता, दान, जप, यज्ञ, उपासना, तीर्थ, मन्दिर, पूजा, धार्मिक कर्मकाण्ड, कथा, कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, माता, पिता, साधु, महात्मा, नेता, विद्वान्, सज्जनों की समीपता, स्वाध्याय, अध्ययन, आकाशवाणी, देवी- देवताओं के दर्शन, दिव्य प्रकाश आदि आध्यात्मिक सतोगुणी शुभ स्वप्नों से अपने आप अन्दर आये हुए शुभ तत्त्वों को देखता है और उन दृश्यों से शान्ति लाभ प्राप्त करता है।
(३) भविष्य का आभास एवं दैवी सन्देश का स्वप्न
तीसरे प्रकार के स्वप्न भविष्य में होने वाली किन्हीं घटनाओं की ओर संकेत करते हैं। प्रात:काल सुर्योदय से एक- दो घण्टे पूर्व देखे हुए स्वप्न में सच्चाई का बहुत अंश होता है। ब्राह्ममुहूर्त में एक तो साधक का मस्तिष्क निर्मल होता है, दूसरे प्रकृति के अन्तराल का कोलाहल भी रात्रि की स्तब्धता के कारण बहुत अंशों में शान्त हो जाता है। उस समय सत् तत्त्व की प्रधानता के कारण वातावरण स्वच्छ रहता है और सूक्ष्म जगत् में विचरण करते हुए भविष्य का, भावी विधानों का बहुत कुछ आभास मिलने लगता है।
कभी- कभी अस्पष्ट और उलझे हुए ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं, जिनसे मालूम होता है कि भविष्य में होने वाले किसी लाभ या हानि के सकेंत हैं, पर स्पष्ट रूप से यह विदित नहीं हो पाता कि इनका वास्तविक तात्पर्य क्या है? ऐसे उलझन भरे स्वप्नों के कारण होते हैं-
(१) भविष्य का विधान प्रारब्ध कर्मों से बनता है, पर वर्तमान कर्मों से उस विधान में हेर- फेर हो सकता है। कोई पूर्व निर्धारित विधि का विधान साधक के वर्तमान कर्मों के कारण कुछ परिवर्तित हो जाता है तो उसका निश्चित और स्पष्ट रूप दिखाकर अनिश्चित और अस्पष्ट हो जाता है, तदनुसार स्वप्न में उलझी हुई बात दिखाई पड़ती है।
(२) कुछ भावी विधान ऐसे हैं जो नये कर्मों के, नयी परिस्थिति के अनुसार बनते और परिवर्तित होते रहते हैं। तेजी, मन्दी, सट्टा, लाटरी आदि के बारे में जब तक भविष्य का भ्रूण ही तैयार हो पाता है, पूर्ण रूप से उसकी स्पष्टता नहीं हो पाती, तब तक उसका पूर्वाभास साधक को स्वप्न में मिले तो वह एकांगी एवं अपूर्ण होता है।
(३) अपनेपन की सीमा जितने क्षेत्र में होती है, वह व्यक्ति के ‘अहम्’ के सीमा क्षेत्र तक अपने को दिखाई पड़ सकते हैं, इसलिए ऐसा भी हो जाता है कि जो सन्देश स्वप्न में मिला है, वह अपनेपन की मर्यादा में आने वाले किसी कुटुम्बी, पड़ोसी, रिश्तेदार या मित्र के लिए हो।
(४) साधक की मनोभूमि पूर्णरूप से निर्मल न हो गयी हो, तो आकाश के सूक्ष्म अन्तराल में बहते हुए तथ्य अधूरे या रूपान्तरित होकर दिखाई पड़ते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपने घर से हमसे मिलने के लिए रवाना हो चुका हो तो उस व्यक्ति के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति के आने का आभास मिले। होता यह है कि साधक की दिव्यदृष्टि धुँधली होती है। जैसे दृष्टिदोष होने पर दूर चलने वाले मनुष्य पुतले से दिखाई पड़ते हैं, पर उनकी शक्ल नहीं पहचानी जाती है, वैसे ही दिव्यदृष्टि धुँधली होने के कारण स्पष्ट आभास के ऊपर हमारी स्वप्न- माया एक कल्पित आवरण चढ़ा कर कोई झूठ- मूठ की आकृति जोड़ देती है और रस्सी को सर्प बना देती है। ऐसे स्वप्न आधे असत्य होते हैं; परन्तु जैसे- जैसे साधक की मनोभूमि अधिक निर्मल होती जाती है, वैसे ही वैसे उसकी दिव्यदृष्टि स्वच्छ होती जाती है और उसके स्वप्न अधिक सार्थकतायुक्त होने लगते हैं।
(४) जाग्रत् स्वप्न या दिव्य दर्शन
स्वप्र केवल रात्रि में या निद्राग्रस्त होने पर ही नहीं आते, वे जाग्रत् अवस्था में भी आते हैं। ध्यान को एक प्रकार का जाग्रत् स्वप्न ही समझना चाहिये। कल्पना के घोड़े पर चढक़र हम सुदूर स्थानों के विविध- विधि सम्भव और असम्भव दृश्य देखा करते हैं, यह एक प्रकार के स्वप्न ही हैं। निद्राग्रस्त स्वप्नों में क्रियायें प्रधान होती हैं, जाग्रत् स्वप्नों में बहिर्मन की क्रियायें प्रमुख रूप से काम करती हैं। इतना अन्तर तो अवश्य है, पर इसके अतिरिक्त निद्रा- स्वप्र और जाग्रत् स्वप्रों की एक- सी प्रणाली है। जाग्रत् अवस्था में साधक के मनोलोक में नाना प्रकार की विचारधाराये और कल्पनायें घुड़दौड़ मचाती हैं। यह भी तीन प्रकार की होती हैं- पूर्व कुसंस्कारों के निष्कासन, श्रेष्ठतत्त्वों के प्रकटीकरण तथा भविष्य के पूर्वाभास की सूचना देने के लिये मस्तिष्क में विविध प्रकार के विचार, भाव एवं कल्पना चित्र आते हैं।
कभी- कभी जाग्रत् अवस्था में भी कोई चमत्कारी, दैवी, अलौकिक दृश्य किसी- किसी को दिखाई दे जाते हैं। इष्टदेव का किसी- किसी को चर्मचक्षुओं से दर्शन होता है, कोई- कोई भूत- प्रेतों को प्रत्यक्ष देखते हैं, किन्हीं- किन्हीं को दूसरों के चेहरे पर तेजोवलय और मनोगत भावों का आकार दिखाई देता है, जिसके आधार पर दूसरों की आन्तरिक स्थिति को पहचान लेते हैं। रोगी का अच्छा होना न होना, संघर्ष में जीतना, चोरी में गयी वस्तु, आगामी लाभ- हानि, विपत्ति- सम्पत्ति आदि के बारे में कई मनुष्यों के अन्त:करण में एक प्रकार की आकाशवाणी- सी होती है और वह कई बार इतनी सच्ची निकलती है कि आश्चर्य से दंग रह जाना पड़ता है।
गायत्री साधकों को साधारण व्यक्तियों की तरह निरर्थक स्वप्न प्राय: बहुत कम आते हैं। उनकी मनोभूमि ऐसी अव्यवस्थित नहीं होती, जिसमें चाहे जिस प्रकार के उलटे- सीधे स्वप्नों का उद्भव होता हो। जहाँ व्यवस्था स्थापित हो चुकी है, वहाँ की क्रियायें भी व्यवस्थित होती हैं। गायत्री साधकों के स्वप्नों को हम बहुत समय से ध्यानपूर्वक सुनते रहे हैं और उनके मूल कारणों पर विचार करते रहे हैं। तदनुसार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा है कि साधक लोगों के स्वप्न निरर्थक बहुत कम होते हैं, उनमें सार्थकता की मात्रा अधिक रहती है।
निरर्थक स्वप्न अत्यन्त अपूर्ण होते हैं। उनमें केवल किसी बात की छोटी- सी झाँकी होती है, फिर तुरन्त उनका तारतम्य बिगड़ जाता है। दैनिक व्यवहार की साधारण क्रियाओं की सामान्य स्मृति मस्तिष्क में पुन:- पुन: जाग्रत् होती रहती है और भोजन, स्नान, वायु सेवन जैसी साधारण बातों की दैनिक स्मृति के अस्तव्यस्त स्वप्न दिखाई देते हैं। ऐसे स्वप्नों को निरर्थक कहा जाता है। सार्थक स्वप्न कुछ विशेषता लिये हुए होते हैं। उनमें कोई विचित्रता, नवीनता, घटनाक्रम एवं प्रभावोत्पादक क्षमता होती है। उन्हें देखकर मन में भय, शोक, चिन्ता, क्रोध, हर्ष, विषाद, लोभ, मोह आदि के भाव उत्पन्न होते हैं। निद्रा त्याग देने पर भी उसकी छाप मन पर बनी रहती है और चित्त में बार- बार यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस स्वप्न का अर्थ क्या है?
साधकों के सार्थक स्वप्नों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है—(१) पूर्व संचित कुसंस्कारों का निष्कासन, (२) श्रेष्ठ तत्त्वों की स्थापना का प्रकटीकरण, (३) भविष्य- सम्भावना का पूर्वाभास, (४) दिव्य दर्शन। इन चार श्रेणियों के अन्तर्गत विविध प्रकार के सभी सार्थक स्वप्र आ जाते हैं।
(१) कुसंस्कारों का निष्कासन
कुसंस्कारों को नष्ट करने वाले स्वप्न पूर्व संचित कुसंस्कारों के निष्कासन में इसलिये होते हैं कि गायत्री साधना द्वारा आध्यात्मिक नये तत्त्वों की वृद्धि साधक के अन्त:करण में हो जाती है। जहाँ कोई वस्तु रखी जाती है, वहाँ से दूसरी को हटाना पड़ता है। गिलास में पानी भरा जाए, तो उसमें से पहले से भरी हुई वायु को हटाना पड़ेगा। रेल के डिब्बे में नये मुसाफिरों को स्थान मिलने के लिये यह आवश्यक है कि उसमें से बैठे हुए पुराने मुसाफिर उतरें ।। दिन का प्रकाश आने पर अन्धकार को भागना ही पड़ता है। इसी प्रकार गायत्री साधक के अन्तर्जगत् में जिन दिव्य तत्त्वों की वृद्धि होती है, उन सुसंस्कारों के लिये स्थान नियुक्त होने से पूर्व कुसंस्कारों का निष्कासन स्वाभाविक है। यह निष्कासन जाग्रत् अवस्था में भी होता रहता है और स्वप्न अवस्था में भी। विज्ञान के सिद्धान्तानुसार विस्फोट द्वारा उष्णवीर्य के पदार्थ जब स्थानच्युत होते हैं, तो वे एक झटका मारते हैं। बन्दूक जब चलाई जाती है, तो पीछे की ओर एक जोरदार झटका मारती है। बारूद जब जलती है, तो एक धड़ाके की आवाज करती है। दीपक के बुझते समय एक बार जोर से लौ उठती है। इसी प्रकार कुसंस्कार भी मानस लोक से प्रयाण करते समय मस्तिष्कीय तन्तुओं पर आघात करते हैं और उन आघातों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो विक्षोभ उत्पन्न होता है, उसे स्वप्नावस्था में भयंकर, अस्वाभाविक, अनिष्ट एवं उपद्रव के रूप में देखा जाता है।
भयानक हिंसक पशु, सर्प, सिंह, व्याघ्र, पिशाच, चोर, डाकू आदि का आक्रमण होना, सुनसान, एकान्त, डरावना जंगल दिखाई देना, किसी प्रियजन की मृत्यु, अग्रिकाण्ड, बाढ़, भूकम्प, युद्ध आदि के भयानक दृश्य दीखना, अपहरण, अन्याय, शोषण, विश्वासघात द्वारा अपना शिकार होना, कोई विपत्ति आना, अनिष्ट की आशंका से चित्त घबराना आदि भयंकर दिल धडक़ाने वाले ऐसे स्वप्न, जिनके कारण मन में चिन्ता, बेचैनी, पीड़ा, भय, क्रोध, द्वेष, शोक, कायरता, ग्लानि, घृणा आदि के भाव उत्पन्न होते हैं, वे पूर्व संचित इन्हीं कुसंस्कारों की अन्तिम झाँकी का प्रमाण होते हैं। यह स्वप्न बताते हैं कि जन्म- जन्मान्तरों की संचित यह कुप्रवृत्तियाँ अब अपना अन्तिम दर्शन और अभिवादन करती हुई जा रही हैं और मन ने स्वप्न में इस परिवर्तन को ध्यानपूर्वक देखने के साथ- साथ एक आलंकारिक कथा के रूप में किसी शृंखलाबद्ध घटना का चित्र गढ़ डाला है और उसे स्वप्न रूप में देखकर जी बहलाया है।
कामवासना अन्य सब मनोवृत्तियों से अधिक प्रबल है। काम भोग की अनियन्त्रित इच्छायें मन में उठती हैं। उन सबका सफल होना असम्भव है, इसलिये वे परिस्थितियों द्वारा कुचली जाती रहती हैं और मन मसोसकर वे अतृप्त, असंतुष्ट प्रेमिका की भाँति अन्तर्मन के कोपभवन में खटपाटी लेकर पड़ी रहती हैं। यह अतृप्ति चुपचाप पड़ी नहीं रहती, वरन् जब अवसर पाती है, निद्रावस्था में अपने मनसूबों को चरितार्थ करने के लिये, मन के लड्डू खाने के लिये मनचीते स्वप्न का अभिनय रचती है। दिन में घर के लोगों के जाग्रत् रहने के कारण चूहे डरते और बिलों में छिपे रहते हैं, पर रात्रि को जब घर के आदमी सो जाते हैं, तो चूहे अपने बिलों में से निकलकर निर्भयतापूर्वक उछलकूद मचाते हैं। कुचली हुई काम वासना भी यही करती है और ‘खयाली पुलाव’ खाकर किसी प्रकार अपनी क्षुधा को बुझाती है। स्वप्नावस्था में सुन्दर- सुन्दर वस्तुओं का देखना, उनसे खेलना, प्यार करना, जमा करना, रूपवती स्त्रियों को देखना, उनकी निकटता में आना, मनोहर नदी, तड़ाग, वन- उपवन, पुष्प, फल, नृत्य, गीत, वाद्य, उत्सव, समारोह जैसे दृश्यों को देखकर कुचली हुई वासनायें किसी प्रकार अपने को तृप्त करती हैं। धन की, पद की, महत्त्व प्राप्ति की अतृप्त आकांक्षाएँ भी अपनी तृप्ति के झूठे अभिनय रचा करती हैं। कभी- कभी ऐसा होता है कि अपनी अतृप्ति के दर्द को, घाव को, पीड़ा को स्पष्ट रूप में अनुभव करने के लिए ऐसे स्वप्न दिखाई देते हैं, मानो अतृप्ति भी बढ़ गयी। जो थोड़ा- बहुत सुख था, वह भी हाथ से चला गया अथवा मनोवाँछ पूरी होते- होते किसी आकस्मिक बाधा के कारण रुक गयी।
अतृप्ति को किसी अंश में या किसी अन्य प्रकार से तृप्त करने अथवा और भी उग्र रूप से अनुभव करने के लिये उपर्युक्त प्रकार के स्वप्र आया करते हैं। यह दबी हुई वृत्तियाँ गायत्री साधना के कारण उखडक़र अपने स्थान खाली करती हैं। इसलिए परिर्वतन काल में अपने गुप्त रूप को प्रकट करती हुई विदा होती हैं। तदनुसार साधना काल में प्राय: इस प्रकार के स्वप्न आते रहते हैं। किसी मृत प्रेमी का दर्शन, सुन्दर दृश्यों का अवलोकन, स्त्रियों से मिलना- जुलना, मनोवाँछाओं का पूरा होना आदि घटनाओं के स्वप्र भी विशेष रूप से दिखाई देते हैं। इनका अर्थ है कि अनेकों दबी हुई अतृप्त तृष्णायें, कामनाएँ, वासनाएँ धीरे- धीरे करके अपनी विदाई की तैयारी कर रही हैं। आत्मिक तत्त्वों की वृद्धि के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है।
(२) दिव्य तत्त्वों के वृद्धि सूचक स्वप्न
दूसरी श्रेणी के स्वप्न वे होते हैं, जिनसे इस बात का पता चलता है कि अपने अन्दर सात्त्विकता की मात्रा में लगातार वृद्धि हो रही है। सतोगुणी कार्यों को स्वयं करने या किसी अन्य के द्वारा होते हुए, स्वप्न ऐसा ही परिचय देते हैं। पीडि़तों की सेवा, अभावग्रस्तों की सहायता, दान, जप, यज्ञ, उपासना, तीर्थ, मन्दिर, पूजा, धार्मिक कर्मकाण्ड, कथा, कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, माता, पिता, साधु, महात्मा, नेता, विद्वान्, सज्जनों की समीपता, स्वाध्याय, अध्ययन, आकाशवाणी, देवी- देवताओं के दर्शन, दिव्य प्रकाश आदि आध्यात्मिक सतोगुणी शुभ स्वप्नों से अपने आप अन्दर आये हुए शुभ तत्त्वों को देखता है और उन दृश्यों से शान्ति लाभ प्राप्त करता है।
(३) भविष्य का आभास एवं दैवी सन्देश का स्वप्न
तीसरे प्रकार के स्वप्न भविष्य में होने वाली किन्हीं घटनाओं की ओर संकेत करते हैं। प्रात:काल सुर्योदय से एक- दो घण्टे पूर्व देखे हुए स्वप्न में सच्चाई का बहुत अंश होता है। ब्राह्ममुहूर्त में एक तो साधक का मस्तिष्क निर्मल होता है, दूसरे प्रकृति के अन्तराल का कोलाहल भी रात्रि की स्तब्धता के कारण बहुत अंशों में शान्त हो जाता है। उस समय सत् तत्त्व की प्रधानता के कारण वातावरण स्वच्छ रहता है और सूक्ष्म जगत् में विचरण करते हुए भविष्य का, भावी विधानों का बहुत कुछ आभास मिलने लगता है।
कभी- कभी अस्पष्ट और उलझे हुए ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं, जिनसे मालूम होता है कि भविष्य में होने वाले किसी लाभ या हानि के सकेंत हैं, पर स्पष्ट रूप से यह विदित नहीं हो पाता कि इनका वास्तविक तात्पर्य क्या है? ऐसे उलझन भरे स्वप्नों के कारण होते हैं-
(१) भविष्य का विधान प्रारब्ध कर्मों से बनता है, पर वर्तमान कर्मों से उस विधान में हेर- फेर हो सकता है। कोई पूर्व निर्धारित विधि का विधान साधक के वर्तमान कर्मों के कारण कुछ परिवर्तित हो जाता है तो उसका निश्चित और स्पष्ट रूप दिखाकर अनिश्चित और अस्पष्ट हो जाता है, तदनुसार स्वप्न में उलझी हुई बात दिखाई पड़ती है।
(२) कुछ भावी विधान ऐसे हैं जो नये कर्मों के, नयी परिस्थिति के अनुसार बनते और परिवर्तित होते रहते हैं। तेजी, मन्दी, सट्टा, लाटरी आदि के बारे में जब तक भविष्य का भ्रूण ही तैयार हो पाता है, पूर्ण रूप से उसकी स्पष्टता नहीं हो पाती, तब तक उसका पूर्वाभास साधक को स्वप्न में मिले तो वह एकांगी एवं अपूर्ण होता है।
(३) अपनेपन की सीमा जितने क्षेत्र में होती है, वह व्यक्ति के ‘अहम्’ के सीमा क्षेत्र तक अपने को दिखाई पड़ सकते हैं, इसलिए ऐसा भी हो जाता है कि जो सन्देश स्वप्न में मिला है, वह अपनेपन की मर्यादा में आने वाले किसी कुटुम्बी, पड़ोसी, रिश्तेदार या मित्र के लिए हो।
(४) साधक की मनोभूमि पूर्णरूप से निर्मल न हो गयी हो, तो आकाश के सूक्ष्म अन्तराल में बहते हुए तथ्य अधूरे या रूपान्तरित होकर दिखाई पड़ते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपने घर से हमसे मिलने के लिए रवाना हो चुका हो तो उस व्यक्ति के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति के आने का आभास मिले। होता यह है कि साधक की दिव्यदृष्टि धुँधली होती है। जैसे दृष्टिदोष होने पर दूर चलने वाले मनुष्य पुतले से दिखाई पड़ते हैं, पर उनकी शक्ल नहीं पहचानी जाती है, वैसे ही दिव्यदृष्टि धुँधली होने के कारण स्पष्ट आभास के ऊपर हमारी स्वप्न- माया एक कल्पित आवरण चढ़ा कर कोई झूठ- मूठ की आकृति जोड़ देती है और रस्सी को सर्प बना देती है। ऐसे स्वप्न आधे असत्य होते हैं; परन्तु जैसे- जैसे साधक की मनोभूमि अधिक निर्मल होती जाती है, वैसे ही वैसे उसकी दिव्यदृष्टि स्वच्छ होती जाती है और उसके स्वप्न अधिक सार्थकतायुक्त होने लगते हैं।
(४) जाग्रत् स्वप्न या दिव्य दर्शन
स्वप्र केवल रात्रि में या निद्राग्रस्त होने पर ही नहीं आते, वे जाग्रत् अवस्था में भी आते हैं। ध्यान को एक प्रकार का जाग्रत् स्वप्न ही समझना चाहिये। कल्पना के घोड़े पर चढक़र हम सुदूर स्थानों के विविध- विधि सम्भव और असम्भव दृश्य देखा करते हैं, यह एक प्रकार के स्वप्न ही हैं। निद्राग्रस्त स्वप्नों में क्रियायें प्रधान होती हैं, जाग्रत् स्वप्नों में बहिर्मन की क्रियायें प्रमुख रूप से काम करती हैं। इतना अन्तर तो अवश्य है, पर इसके अतिरिक्त निद्रा- स्वप्र और जाग्रत् स्वप्रों की एक- सी प्रणाली है। जाग्रत् अवस्था में साधक के मनोलोक में नाना प्रकार की विचारधाराये और कल्पनायें घुड़दौड़ मचाती हैं। यह भी तीन प्रकार की होती हैं- पूर्व कुसंस्कारों के निष्कासन, श्रेष्ठतत्त्वों के प्रकटीकरण तथा भविष्य के पूर्वाभास की सूचना देने के लिये मस्तिष्क में विविध प्रकार के विचार, भाव एवं कल्पना चित्र आते हैं।
कभी- कभी जाग्रत् अवस्था में भी कोई चमत्कारी, दैवी, अलौकिक दृश्य किसी- किसी को दिखाई दे जाते हैं। इष्टदेव का किसी- किसी को चर्मचक्षुओं से दर्शन होता है, कोई- कोई भूत- प्रेतों को प्रत्यक्ष देखते हैं, किन्हीं- किन्हीं को दूसरों के चेहरे पर तेजोवलय और मनोगत भावों का आकार दिखाई देता है, जिसके आधार पर दूसरों की आन्तरिक स्थिति को पहचान लेते हैं। रोगी का अच्छा होना न होना, संघर्ष में जीतना, चोरी में गयी वस्तु, आगामी लाभ- हानि, विपत्ति- सम्पत्ति आदि के बारे में कई मनुष्यों के अन्त:करण में एक प्रकार की आकाशवाणी- सी होती है और वह कई बार इतनी सच्ची निकलती है कि आश्चर्य से दंग रह जाना पड़ता है।