Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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यह दिव्य प्रसाद औरों को भी बाँटिये
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पुण्य कर्मों के साथ प्रसाद बाँटना एक आवश्यक धर्मकृत्य माना गया है। सत्यनारायण की कथा के अन्त में पंचामृत, पँजीरी बाँटी जाती है। यज्ञ के अन्त में उपस्थित व्यक्तियों को हलुआ या अन्य मिष्ठान्न बाँटते हैं। गीत- मङ्गल, पूजा- कीर्तन आदि के पश्चात् प्रसाद बाँटा जाता है। देवता, पीर- मुरीद आदि की प्रसन्नता के लिए बतासे, रेवड़ी या अन्य प्रसाद बाँटा जाता है। मन्दिरों में जहाँ अधिक भीड़ होती है और अधिक धन खर्चने को नहीं होता, वहाँ जल में तुलसी पत्र डालकर चरणामृत को ही प्रसाद के रूप में बाँटते हैं। तात्पर्य यह है कि शुभ कार्यों के पश्चात् कोई न कोई प्रसाद बाँटना आवश्यक होता है। इसका कारण यह है कि शुभ कार्य के साथ जो शुभ वातावरण पैदा होता है, उसे खाद्य पदार्थों के साथ सम्बन्धित करके उपस्थित व्यक्तियों को देते हैं, ताकि वे भी उन शुभ तत्त्वों को ग्रहण करके आत्मसात् कर सकें। दूसरी बात यह है कि उस प्रसाद के साथ दिव्य तत्त्वों के प्रति श्रद्धा की धारणा होती है और मधुर पदार्थों को ग्रहण करते समय प्रसन्नता का आविर्भाव होता है। इन तत्त्वों की अभिवृद्धि से प्रसाद ग्रहण करने वाला अध्यात्म की ओर आकर्षित होता है और यह आकर्षण अन्तत: उसके लिए सर्वतोमुखी कल्याण को प्राप्त कराने वाला सिद्ध होता है। यह परम्परा एक से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में चलती रहे और धर्मवृद्धि का यह क्रम बराबर बढ़ता रहे, इस लाभ को ध्यान में रखते हुए अध्यात्म विद्या के आचार्यों ने यह आदेश किया कि प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में प्रसाद बाँटना आवश्यक है। शास्त्रों में ऐसे आदेश मिलते हैं, जिनमें कहा गया है कि अन्त में प्रसाद वितरण न करने से यह कार्य निष्फल हो जाता है। इसका तात्पर्य प्रसाद के महत्त्व की ओर लोगों को सावधान करने का है।
गायत्री साधना भी एक यज्ञ है। यह असाधारण यज्ञ है। अग्नि में सामग्री की आहुति देना स्थूल कर्मकाण्ड है, पर आत्मा में परमात्मा की स्थापना सूक्ष्म यज्ञ है जिसकी महत्ता स्थूल अग्निहोत्र की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक होती है। इतने महान् धर्मकृत्य के साथ- साथ प्रसाद का वितरण भी ऐसा होना चाहिये जो उसकी महत्ता के अनुरूप हो। रेवड़ी, बतासे, लड्डू या हलुआ- पूरी बाँट देने मात्र से यह कार्य पूरा नहीं हो सकता। गायत्री का प्रसाद तो ऐसा होना चाहिये, जिसे ग्रहण करने वाले को स्वर्गीय स्वाद मिले, जिसे खाकर उसकी आत्मा तृप्त हो जाए। गायत्री ब्राह्मशक्ति है, उसका प्रसाद भी ब्राह्मी प्रसाद होना चाहिए, तभी वह उपयुक्त गौरव का कार्य होगा। इस प्रकार का प्रसाद हो सकता है- ब्रह्मदान, ब्राह्मस्थिति की ओर चलाने का आकर्षण, प्रोत्साहन। जिस व्यक्ति को ब्रह्म- प्रसाद लेना है, उसे आत्मकल्याण की दिशा में आकर्षित करना और उस ओर चलने के लिए उसे प्रोत्साहित करना ही प्रसाद है।
यह प्रकट है कि भौतिक और आत्मिक आनन्द के समस्त स्रोत मानव प्राणी के अन्त:करण में छिपे हुए हैं। सम्पत्तियाँ संसार में बाहर नहीं हैं; बाहर तो पत्थर, धातुओं के टुकड़े और निर्जीव पदार्थ भरे पड़े हैं। सम्पत्तियों के समस्त कोष आत्मा में सन्निहित हैं, जिनके दर्शन मात्र से मनुष्य को तृप्ति मिल जाती है और उसके उपयोग करने पर आनन्द का पारावार नहीं रहता। उन आनन्द भण्डारों को खोलने की कुञ्जी आध्यात्मिक साधनाओं में है और उन समस्त साधनाओं में गायत्री साधना सर्वश्रेष्ठ है। यह श्रेष्ठता अतुलनीय है, असाधारण है। उनकी सिद्धयों और चमत्कारों का कोई पारावार नहीं। ऐसे श्रेष्ठ साधना के मार्ग पर यदि किसी को आकर्षित किया जाए, प्रोत्साहित किया जाए और जुटा दिया जाए, तो इससे बढक़र उस व्यक्ति का और कोई उपकार नहीं हो सकता। जैसे- जैसे उसके अन्दर सात्त्विक तत्त्वों की वृद्धि होगी, वैसे- वैसे उसके विचार और कार्य पुण्यमय होते जायेंगे और उसका प्रभाव दूसरों पर पडऩे से वे भी सन्मार्ग का अवलम्बन प्राप्त करेंगे। यह शृंखला जैसे- जैसे बढ़ेगी, वैसे ही वैसे संसार में सुख- शान्ति की, पुण्य की मात्रा बढ़ेगी और इस कर्म के पुण्य फल में उस व्यक्ति का भी भाग होगा, जिसने किसी को आत्म- मार्ग में प्रोत्साहित किया था।
जो व्यक्ति गायत्री की साधना करे, उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि मैं भगवती को प्रसन्न करने के लिए उसका महाप्रसाद, ब्रह्म- प्रसाद अवश्य वितरण करूँगा। यह वितरण इस प्रकार का होना चाहिये, जिनमें पहले से कुछ शुभ संस्कारों के बीज मौजूद हों, उन्हें धीरे- धीरे गायत्री का माहात्म्य, रहस्य, लाभ समझाते रहा जाए। जो लोग आध्यात्मिक उन्नति के महत्त्व को नहीं समझते, उन्हें गायत्री से होने वाले भौतिक लाभों का सविस्तार वर्णन किया जाए, ‘गायत्री तपोभूमि, मथुरा’ द्वारा प्रकाशित गायत्री साहित्य पढ़ाया जाए। इस प्रकार उनकी रुचि को इस दिशा में मोड़ा जाए, जिससे वे आरम्भ में भले ही सकाम भावना से ही सही, वेदमाता का आश्रय ग्रहण करें, पीछे तो स्वयं ही इस महान् लाभ पर मुग्ध होकर छोडऩे का नाम न लेंगे। एक बार रास्ते पर डाल देने से गाड़ी अपने आप ठीक मार्ग पर चलती जाती है।
यह ब्रह्म- प्रसाद अन्य साधारण स्थूल पदार्थों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आइये, इसे धन से ही नहीं, प्रयत्न से ही वितरण हो सकने वाले ब्रह्म प्रसाद को वितरण करके वेदमाता की कृपा प्राप्त कीजिये और अक्षय पुण्य के भागीदार बनिये।
गायत्री साधना भी एक यज्ञ है। यह असाधारण यज्ञ है। अग्नि में सामग्री की आहुति देना स्थूल कर्मकाण्ड है, पर आत्मा में परमात्मा की स्थापना सूक्ष्म यज्ञ है जिसकी महत्ता स्थूल अग्निहोत्र की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक होती है। इतने महान् धर्मकृत्य के साथ- साथ प्रसाद का वितरण भी ऐसा होना चाहिये जो उसकी महत्ता के अनुरूप हो। रेवड़ी, बतासे, लड्डू या हलुआ- पूरी बाँट देने मात्र से यह कार्य पूरा नहीं हो सकता। गायत्री का प्रसाद तो ऐसा होना चाहिये, जिसे ग्रहण करने वाले को स्वर्गीय स्वाद मिले, जिसे खाकर उसकी आत्मा तृप्त हो जाए। गायत्री ब्राह्मशक्ति है, उसका प्रसाद भी ब्राह्मी प्रसाद होना चाहिए, तभी वह उपयुक्त गौरव का कार्य होगा। इस प्रकार का प्रसाद हो सकता है- ब्रह्मदान, ब्राह्मस्थिति की ओर चलाने का आकर्षण, प्रोत्साहन। जिस व्यक्ति को ब्रह्म- प्रसाद लेना है, उसे आत्मकल्याण की दिशा में आकर्षित करना और उस ओर चलने के लिए उसे प्रोत्साहित करना ही प्रसाद है।
यह प्रकट है कि भौतिक और आत्मिक आनन्द के समस्त स्रोत मानव प्राणी के अन्त:करण में छिपे हुए हैं। सम्पत्तियाँ संसार में बाहर नहीं हैं; बाहर तो पत्थर, धातुओं के टुकड़े और निर्जीव पदार्थ भरे पड़े हैं। सम्पत्तियों के समस्त कोष आत्मा में सन्निहित हैं, जिनके दर्शन मात्र से मनुष्य को तृप्ति मिल जाती है और उसके उपयोग करने पर आनन्द का पारावार नहीं रहता। उन आनन्द भण्डारों को खोलने की कुञ्जी आध्यात्मिक साधनाओं में है और उन समस्त साधनाओं में गायत्री साधना सर्वश्रेष्ठ है। यह श्रेष्ठता अतुलनीय है, असाधारण है। उनकी सिद्धयों और चमत्कारों का कोई पारावार नहीं। ऐसे श्रेष्ठ साधना के मार्ग पर यदि किसी को आकर्षित किया जाए, प्रोत्साहित किया जाए और जुटा दिया जाए, तो इससे बढक़र उस व्यक्ति का और कोई उपकार नहीं हो सकता। जैसे- जैसे उसके अन्दर सात्त्विक तत्त्वों की वृद्धि होगी, वैसे- वैसे उसके विचार और कार्य पुण्यमय होते जायेंगे और उसका प्रभाव दूसरों पर पडऩे से वे भी सन्मार्ग का अवलम्बन प्राप्त करेंगे। यह शृंखला जैसे- जैसे बढ़ेगी, वैसे ही वैसे संसार में सुख- शान्ति की, पुण्य की मात्रा बढ़ेगी और इस कर्म के पुण्य फल में उस व्यक्ति का भी भाग होगा, जिसने किसी को आत्म- मार्ग में प्रोत्साहित किया था।
जो व्यक्ति गायत्री की साधना करे, उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि मैं भगवती को प्रसन्न करने के लिए उसका महाप्रसाद, ब्रह्म- प्रसाद अवश्य वितरण करूँगा। यह वितरण इस प्रकार का होना चाहिये, जिनमें पहले से कुछ शुभ संस्कारों के बीज मौजूद हों, उन्हें धीरे- धीरे गायत्री का माहात्म्य, रहस्य, लाभ समझाते रहा जाए। जो लोग आध्यात्मिक उन्नति के महत्त्व को नहीं समझते, उन्हें गायत्री से होने वाले भौतिक लाभों का सविस्तार वर्णन किया जाए, ‘गायत्री तपोभूमि, मथुरा’ द्वारा प्रकाशित गायत्री साहित्य पढ़ाया जाए। इस प्रकार उनकी रुचि को इस दिशा में मोड़ा जाए, जिससे वे आरम्भ में भले ही सकाम भावना से ही सही, वेदमाता का आश्रय ग्रहण करें, पीछे तो स्वयं ही इस महान् लाभ पर मुग्ध होकर छोडऩे का नाम न लेंगे। एक बार रास्ते पर डाल देने से गाड़ी अपने आप ठीक मार्ग पर चलती जाती है।
यह ब्रह्म- प्रसाद अन्य साधारण स्थूल पदार्थों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आइये, इसे धन से ही नहीं, प्रयत्न से ही वितरण हो सकने वाले ब्रह्म प्रसाद को वितरण करके वेदमाता की कृपा प्राप्त कीजिये और अक्षय पुण्य के भागीदार बनिये।