Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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त्राटक - मनोमय कोश की साधना
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त्राटक भी ध्यान का एक अंग है अथवा यों कहिए कि त्राटक का ही एक अंग ध्यान है। आन्तर त्राटक और बाह्य त्राटक दोनों का उद्देश्य मन को एकाग्र करना है। नेत्र बन्द करके किसी एक वस्तु पर भावना को जमाने और उसे आन्तरिक नेत्रों से देखते रहने की क्रिया आन्तर त्राटक कहलाती है। पीछे जो दस ध्यान लिखे गए हैं, वे सभी आन्तर त्राटक हैं। मेस्मरेज्म ढंग से जो लोग आन्तर त्राटक करते हैं, वे केवल प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करते हैं। इससे एकांगी लाभ होता है। प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करने से मन तो एकाग्र होता है, पर उपासना का आत्मलाभ नहीं मिल पाता। इसलिए भारतीय योगी सदा ही आन्तर त्राटक का इष्ट- ध्यान के रूप में प्रयोग करते रहे हैं।
बाह्य त्राटक का उद्देश्य बाह्य साधनों के आधार पर मन को वश में करना एवं चित्त- प्रवृत्तियों का एकीकरण करना है। मन की शक्ति प्रधानतया नेत्रों द्वारा बाहर आती है। दृष्टि को किसी विशेष वस्तु पर जमाकर उसमें मन को तन्मयतापूर्वक प्रवेश कराने से नेत्रों द्वारा विकीर्ण होने वाला मनःतेज एवं विद्युत् प्रवाह एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने लगता है। इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है, दूसरे नेत्रों का प्रवाह- चुम्बकत्व बढ़ जाता है। ऐसी बढ़ी हुई आकर्षण शक्ति वाली दृष्टि को ‘बेधक दृष्टि’ कहते हैं।
बेधक दृष्टि से देखकर किसी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। मेस्मरेज्म करने वाले अपने नेत्रों में त्राटक द्वारा ही इतना विद्युत् प्रवाह उत्पन्न कर लेते हैं कि उसे जिस किसी शरीर में प्रवेश कर दिया जाए, वह तुरन्त बेहोश एवं वशवर्ती हो जाता है। उस बेहोश या अर्द्धनिद्रित व्यक्ति के मस्तिष्क पर बेधक दृष्टि वाले व्यक्ति का कब्जा हो जाता है और उससे जो चाहे वह काम ले सकता है। मेस्मरेज्म करने वाले किसी व्यक्ति को अपनी त्राटक शक्ति से पूर्णनिद्रित या अर्द्धनिद्रित करके उसे नाना प्रकार के नाच नचाते हैं।
मेस्मरेज्म द्वारा सत्सङ्कल्प, दान, रोग निवारण, मानसिक त्रुटियों का परिमार्जन आदि लाभ हो सकते हैं और उससे ऊँची अवस्था में जाकर अज्ञात वस्तुओं का पता लगाना, अप्रकट बातों को मालूम करना आदि कार्य भी हो सकते हैं। दुष्ट प्रकृति के बेधक दृष्टि वाले अपने दृष्टि- तेज से किन्हीं स्त्री- पुरुषों के मस्तिष्क पर अपना अधिकार करके उन्हें भ्रमग्रस्त कर देते हैं और उनका सतीत्व तथा धन लूटते हैं। कई बेधक दृष्टि से खेल- तमाशे करके पैसा कमाते हैं। यह इस महत्त्वपूर्ण शक्ति का दुरुपयोग है।
बेधक दृष्टि द्वारा किसी के अन्तःकरण में भीतर तक प्रवेश करके उसकी सारी मनःस्थिति को, मनोगत भावनाओं को जाना जा सकता है। बेधक दृष्टि फेंककर दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है। नेत्रों में ऐसा चुम्बकत्व त्राटक द्वारा पैदा हो सकता है। मन की एकाग्रता, चूँकि त्राटक के अभ्यास में अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है, इसलिए उसका साधन साथ- साथ होते चलने से मन पर बहुत कुछ काबू हो सकता है।
(१) एक हाथ लम्बा- एक हाथ चौड़ा चौकोर कागज का पुट्ठा लेकर उसके बीच में रुपए के बराबर एक काला गोल निशान बना लो। स्याही एक सी हो, कहीं कम- ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर निशान छोड़ दो और उसमें पीला रंग भर दो। अब उससे चार फीट की दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आँखों के सामने, सीध में रहे।
साधना का एक कमरा ऐसा होना चाहिए जिसमें न अधिक प्रकाश रहे, न अँधेरा; न अधिक सर्दी हो, न गर्मी। पालथी मारकर, मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान हो, उस पर दृष्टि जमाओ। चित्त की सारी भावनाएँ एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार देखो, मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है। कुछ देर इस प्रकार देखने से आँखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास बन्द कर दो।
अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय ठीक है। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आँखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है। पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है, प्रतिदिन उससे एक या आधी मिनट बढ़ाते जाओ।
दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह- तरह की आकृतियाँ पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जाएगा तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, कभी चिनगारियाँ- सी उड़़ती दीखेंगी, कभी बादल- से छाए हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा, किन्तु जैसे- जैसे दृष्टि स्थिर होना शुरू हो जाएगी, उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियाँ बन्द हो जाएँगी और बहुत देर तक देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा।
(२) एक फुट लम्बे- चौड़े दर्पण के बीच चाँदी की चवन्नी के बराबर काले रंग के कागज का एक गोल टुकड़ा काटकर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर पीला बिन्दु बनाते हैं। इस बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करते हैं। इस अभ्यास को एक- एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह की दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू हो जाता है। दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुँह देखते हुए अपनी बाईं आँख की पुतली पर दृष्टि जमाते हैं और उस पुतली में ध्यानपूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।
(३) गो- घृत का दीपक जलाकर नेत्रों की सीध में चार फुट की दूरी पर रखिए। दीपक की लौ आधा इञ्च से कम उठी हुई न हो, इसलिए मोटी बत्ती डालना और पिघला हुआ घृत भरना आवश्यक है। बिना पलक झपकाए इस अग्निशिखा पर दृष्टिपात कीजिए और भावना कीजिए कि आपके नेत्रों की ज्योति दीपक की लौ से टकराकर उसी में घुली जा रही है।
(४) प्रातःकाल के सुनहरे सूर्य पर या रात्रि को चन्द्रमा पर भी त्राटक किया जाता है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में होंगे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण कि उस समय तो सिर ऊपर को करना पड़ेगा या लेटकर ऊपर को आँखें करनी पड़ेंगी; ये दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक हैं, इसलिए उदय होता सूर्य या चन्द्रमा ही त्राटक के लिए उपयुक्त माना जाता है।
(५) त्राटक के अभ्यास के लिए स्वस्थ नेत्रों का होना आवश्यक है। जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हो, उन्हें बाह्य त्राटक की अपेक्षा अन्तः- त्राटक उपयुक्त है, जो कि ध्यान प्रकरण में लिखा जा चुका है। अन्तः- त्राटक को पाश्चात्य योगी इस प्रकार करते हैं कि दीपक की अग्निशिखा, सूर्य- चन्द्रमा आदि कोई चमकता प्रकाश पन्द्रह सेकेण्ड खुले नेत्रों से देखा, फिर आँखें बन्द कर लीं और ध्यान किया कि वह प्रकाश मेरे सामने मौजूद है। एकटक दृष्टि से मैं उसे घूर रहा हूँ तथा अपनी सारी इच्छाशक्ति को तेज नोंकदार कील की तरह उसमें घुसाकर आर- पार कर रहा हूँ।
अपनी सुविधा, स्थिति और रुचि के अनुरूप इन त्राटकों में से किसी को चुन लेना चाहिए और उसे नियत समय पर नियम पूर्वक करते रहना चाहिए। इससे मन एकाग्र होता है और दृष्टि में बेधकता, पारदर्शिता एवं प्रभावोत्पादकता की अभिवृद्धि होती है।
त्राटक पर से उठने के पश्चात् गुलाब जल से आँखों को धो डालना चाहिए। गुलाब जल न मिले तो स्वच्छ छना हुआ ताजा पानी भी काम में लाया जा सकता है। आँख धोने के लिए छोटी काँच की प्यालियाँ अंग्रेजी दवा बेचने वालों की दुकान पर मिलती हैं, वह सुविधाजनक होती हैं। न मिलने पर कटोरी में पानी भरके उसमें आँखें खोलकर डुबाने और पलक हिलाने से आँखें धुल जाती हैं। इस प्रकार के नेत्र स्नान से त्राटक के कारण उत्पन्न हुई आँखों की उष्णता शान्त हो जाती है। त्राटक का अभ्यास समाप्त करने के उपरान्त साधना के कारण बढ़ी हुई मानसिक गर्मी के समाधान के लिए दूध, दही, लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शर्बत, ठण्डाई आदि कोई ठण्डी पौष्टिक चीजें, ऋतु का ध्यान रखते हुए सेवन करनी चाहिए। जाड़े के दिनों में बादाम का हलुवा, च्यवनप्राश अवलेह आदि वस्तुएँ भी उपयोगी होती हैं।
बाह्य त्राटक का उद्देश्य बाह्य साधनों के आधार पर मन को वश में करना एवं चित्त- प्रवृत्तियों का एकीकरण करना है। मन की शक्ति प्रधानतया नेत्रों द्वारा बाहर आती है। दृष्टि को किसी विशेष वस्तु पर जमाकर उसमें मन को तन्मयतापूर्वक प्रवेश कराने से नेत्रों द्वारा विकीर्ण होने वाला मनःतेज एवं विद्युत् प्रवाह एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने लगता है। इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है, दूसरे नेत्रों का प्रवाह- चुम्बकत्व बढ़ जाता है। ऐसी बढ़ी हुई आकर्षण शक्ति वाली दृष्टि को ‘बेधक दृष्टि’ कहते हैं।
बेधक दृष्टि से देखकर किसी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। मेस्मरेज्म करने वाले अपने नेत्रों में त्राटक द्वारा ही इतना विद्युत् प्रवाह उत्पन्न कर लेते हैं कि उसे जिस किसी शरीर में प्रवेश कर दिया जाए, वह तुरन्त बेहोश एवं वशवर्ती हो जाता है। उस बेहोश या अर्द्धनिद्रित व्यक्ति के मस्तिष्क पर बेधक दृष्टि वाले व्यक्ति का कब्जा हो जाता है और उससे जो चाहे वह काम ले सकता है। मेस्मरेज्म करने वाले किसी व्यक्ति को अपनी त्राटक शक्ति से पूर्णनिद्रित या अर्द्धनिद्रित करके उसे नाना प्रकार के नाच नचाते हैं।
मेस्मरेज्म द्वारा सत्सङ्कल्प, दान, रोग निवारण, मानसिक त्रुटियों का परिमार्जन आदि लाभ हो सकते हैं और उससे ऊँची अवस्था में जाकर अज्ञात वस्तुओं का पता लगाना, अप्रकट बातों को मालूम करना आदि कार्य भी हो सकते हैं। दुष्ट प्रकृति के बेधक दृष्टि वाले अपने दृष्टि- तेज से किन्हीं स्त्री- पुरुषों के मस्तिष्क पर अपना अधिकार करके उन्हें भ्रमग्रस्त कर देते हैं और उनका सतीत्व तथा धन लूटते हैं। कई बेधक दृष्टि से खेल- तमाशे करके पैसा कमाते हैं। यह इस महत्त्वपूर्ण शक्ति का दुरुपयोग है।
बेधक दृष्टि द्वारा किसी के अन्तःकरण में भीतर तक प्रवेश करके उसकी सारी मनःस्थिति को, मनोगत भावनाओं को जाना जा सकता है। बेधक दृष्टि फेंककर दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है। नेत्रों में ऐसा चुम्बकत्व त्राटक द्वारा पैदा हो सकता है। मन की एकाग्रता, चूँकि त्राटक के अभ्यास में अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है, इसलिए उसका साधन साथ- साथ होते चलने से मन पर बहुत कुछ काबू हो सकता है।
(१) एक हाथ लम्बा- एक हाथ चौड़ा चौकोर कागज का पुट्ठा लेकर उसके बीच में रुपए के बराबर एक काला गोल निशान बना लो। स्याही एक सी हो, कहीं कम- ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर निशान छोड़ दो और उसमें पीला रंग भर दो। अब उससे चार फीट की दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आँखों के सामने, सीध में रहे।
साधना का एक कमरा ऐसा होना चाहिए जिसमें न अधिक प्रकाश रहे, न अँधेरा; न अधिक सर्दी हो, न गर्मी। पालथी मारकर, मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान हो, उस पर दृष्टि जमाओ। चित्त की सारी भावनाएँ एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार देखो, मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है। कुछ देर इस प्रकार देखने से आँखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास बन्द कर दो।
अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय ठीक है। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आँखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है। पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है, प्रतिदिन उससे एक या आधी मिनट बढ़ाते जाओ।
दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह- तरह की आकृतियाँ पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जाएगा तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, कभी चिनगारियाँ- सी उड़़ती दीखेंगी, कभी बादल- से छाए हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा, किन्तु जैसे- जैसे दृष्टि स्थिर होना शुरू हो जाएगी, उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियाँ बन्द हो जाएँगी और बहुत देर तक देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा।
(२) एक फुट लम्बे- चौड़े दर्पण के बीच चाँदी की चवन्नी के बराबर काले रंग के कागज का एक गोल टुकड़ा काटकर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर पीला बिन्दु बनाते हैं। इस बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करते हैं। इस अभ्यास को एक- एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह की दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू हो जाता है। दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुँह देखते हुए अपनी बाईं आँख की पुतली पर दृष्टि जमाते हैं और उस पुतली में ध्यानपूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।
(३) गो- घृत का दीपक जलाकर नेत्रों की सीध में चार फुट की दूरी पर रखिए। दीपक की लौ आधा इञ्च से कम उठी हुई न हो, इसलिए मोटी बत्ती डालना और पिघला हुआ घृत भरना आवश्यक है। बिना पलक झपकाए इस अग्निशिखा पर दृष्टिपात कीजिए और भावना कीजिए कि आपके नेत्रों की ज्योति दीपक की लौ से टकराकर उसी में घुली जा रही है।
(४) प्रातःकाल के सुनहरे सूर्य पर या रात्रि को चन्द्रमा पर भी त्राटक किया जाता है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में होंगे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण कि उस समय तो सिर ऊपर को करना पड़ेगा या लेटकर ऊपर को आँखें करनी पड़ेंगी; ये दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक हैं, इसलिए उदय होता सूर्य या चन्द्रमा ही त्राटक के लिए उपयुक्त माना जाता है।
(५) त्राटक के अभ्यास के लिए स्वस्थ नेत्रों का होना आवश्यक है। जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हो, उन्हें बाह्य त्राटक की अपेक्षा अन्तः- त्राटक उपयुक्त है, जो कि ध्यान प्रकरण में लिखा जा चुका है। अन्तः- त्राटक को पाश्चात्य योगी इस प्रकार करते हैं कि दीपक की अग्निशिखा, सूर्य- चन्द्रमा आदि कोई चमकता प्रकाश पन्द्रह सेकेण्ड खुले नेत्रों से देखा, फिर आँखें बन्द कर लीं और ध्यान किया कि वह प्रकाश मेरे सामने मौजूद है। एकटक दृष्टि से मैं उसे घूर रहा हूँ तथा अपनी सारी इच्छाशक्ति को तेज नोंकदार कील की तरह उसमें घुसाकर आर- पार कर रहा हूँ।
अपनी सुविधा, स्थिति और रुचि के अनुरूप इन त्राटकों में से किसी को चुन लेना चाहिए और उसे नियत समय पर नियम पूर्वक करते रहना चाहिए। इससे मन एकाग्र होता है और दृष्टि में बेधकता, पारदर्शिता एवं प्रभावोत्पादकता की अभिवृद्धि होती है।
त्राटक पर से उठने के पश्चात् गुलाब जल से आँखों को धो डालना चाहिए। गुलाब जल न मिले तो स्वच्छ छना हुआ ताजा पानी भी काम में लाया जा सकता है। आँख धोने के लिए छोटी काँच की प्यालियाँ अंग्रेजी दवा बेचने वालों की दुकान पर मिलती हैं, वह सुविधाजनक होती हैं। न मिलने पर कटोरी में पानी भरके उसमें आँखें खोलकर डुबाने और पलक हिलाने से आँखें धुल जाती हैं। इस प्रकार के नेत्र स्नान से त्राटक के कारण उत्पन्न हुई आँखों की उष्णता शान्त हो जाती है। त्राटक का अभ्यास समाप्त करने के उपरान्त साधना के कारण बढ़ी हुई मानसिक गर्मी के समाधान के लिए दूध, दही, लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शर्बत, ठण्डाई आदि कोई ठण्डी पौष्टिक चीजें, ऋतु का ध्यान रखते हुए सेवन करनी चाहिए। जाड़े के दिनों में बादाम का हलुवा, च्यवनप्राश अवलेह आदि वस्तुएँ भी उपयोगी होती हैं।