Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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गायत्री की गुरु दीक्षा
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मनुष्य में अन्य प्राणियों की अपेक्षा जहाँ कितनी ही विशेषताएँ हैं, वहाँ कितनी ही कमियाँ भी हैं। एक सबसे बड़ी कमी यह है कि पशु-पक्षियों के बच्चे बिना किसी के सिखाये अपनी जीवनचर्या की साधारण बातें अपने आप सीख जाते हैं, पर मनुष्य का बालक ऐसा नहीं करता है। यदि उसका शिक्षण दूसरे के द्वारा न हो, तो वह उन विशेषताओं को प्राप्त नहीं कर सकता जो मनुष्य में होती हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व की बात है, दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में मादा भेड़िया मनुष्य के दो छोटे बच्चों को उठा ले गई। कुछ ऐसी विचित्र बात हुई कि उसने उन्हें खाने के बजाय अपना दूध पिलाकर पाल लिया, वे बड़े हो गये। एक दिन शिकारियों का दल भेड़िये की तलाश में इधर से निकला तो हिंसक पशु की माँद में मनुष्य के बालक देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें पकड़ लाये। ये बालक भेड़ियों की तरह चलते थे, वैसे ही गुर्राते थे, वही सब खाते थे और उनकी सारी मानसिक स्थिति भेड़िये जैसी थी। कारण यही था कि उन्होंने जैसा देखा, वैसा सीखा और वैसे ही बन गये।
जो बालक जन्म से बहरे होते हैं, वे जीवनभर गूंगे भी रहते हैं; क्योंकि बालक दूसरे के मुँह से निकलने वाले शब्दों को सुनकर उसकी नकल करना सीखता है। यदि कान बहरे होने की वजह से वह दूसरों के शब्द सुन नहीं सकता, तो फिर यह असम्भव है कि शब्दोच्चारण कर सके। धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा, वेश-भूषा, शिष्टाचार, आहार-विहार आदि बातें बालक अपने निकटवर्ती लोगों से सीखता है। यदि कोई बालक जन्म से ही अकेला रखा जाए, तो वह उन सब बातों से वञ्चित रह जायेगा, जो मनुष्य में होती हैं।
पशु-पक्षियों के बच्चों में यह बात नहीं है। बया पक्षी का छोटा बच्चा पकड़ लिया जाय और वह माँ-बाप से कुछ न सीखे तो भी बड़ा होकर अपने लिए वैसा ही सुन्दर घोंसला बना लेगा जैसा कि अन्य बया पक्षी बनाते हैं; पर अकेला रहने वाला मनुष्य का बालक भाषा, कृषि, शिल्प, संस्कृति, धर्म, शिष्टाचार, लोक-व्यवहार, श्रम-उत्पादन आदि सभी बातों से वञ्चित रह जायेगा। पशुओं के बालक जन्म से ही चलने फिरने लगते हैं और माता का पय पान करने लगते हैं, पर मनुष्य का बालक बहुत दिन में कुछ समझ पाता है। आरम्भ में तो वह करवट बदलना, दूध का स्थान तलाश करना तक नहीं जानता, अपनी माता तक को नहीं पहचानता, इन बातों में पशुओं के बच्चे अधिक चतुर होते हैं।
मनुष्य कोरे कागज के समान है। कागज पर जैसी स्याही से जैसे अक्षर बनाये जाते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। कैमरे ही प्लेट पर जो छाया पड़ती है, वैसा ही चित्र अंकित हो जाता है। मानव मस्तिष्क की रचना भी कोरे कागज एवं फोटो-प्लेट की भाँति है। वह निकटवर्ती वातावरण में से अनेक बातें सीखता है। उसके ऊपर जिन बातों का विशेष प्रभाव पड़ता है, उन्हें वह अपने मानस क्षेत्र में जमा कर लेता है। मनुष्य गीली मिट्टी के समान है, जैसे साँचे में ढाल दिया जाए, वैसा ही खिलौना बन जाता है। उच्च परिवारों में पलने वाले बालकों में वैसी ही विशेषताएँ होती हैं और निकृष्ट श्रेणी के बीच रहकर जो बालक पलते हैं, उनमें वैसी क्षुद्रताएँ बहुधा पाई जाती हैं।
हमारे पारदर्शी पूर्वज मनुष्य की कमजोरी को भली प्रकार समझते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यदि बालकों पर अनियन्त्रित प्रभाव पड़ता रहा, उनके सुधार और परिवर्तन का प्रारम्भ से ही ध्यान न रखा गया, तो यह बहुत मुश्किल है कि वे अपनी मनोभूमि को वैसी बना सकें जैसी कि मानव प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है। आमतौर से सब माता-पिता उतने सुसंस्कृत नहीं होते कि अपने बच्चों पर केवल अच्छा प्रभाव ही पड़ने दें और बुरे प्रभाव से उन्हें बचाते रहें। दूसरे यह भी है कि माँ-बाप में बालक के प्रति लाड़-प्यार का भाव स्वभावत: अधिक होता है, वे उनके प्रति अधिक उदार एवं मोहग्रस्त होते हैं। ऐसी दशा में अपने बालकों की बुराइयाँ उन्हें सूझ भी नहीं पड़तीं। फिर इतने सूक्ष्मदर्शी माँ-बाप कहाँ होते हैं, जो अपनी सन्तान की मानसिक स्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण एवं विश्लेषण करके कुसंस्कारों का परिमार्जन तत्काल करने को उद्यत रहें।
सत् शिक्षण की आवश्यकता
मनुष्य की यह कमजोरी है कि वह दूसरों से ही सब कुछ सीखता है, जो कि उसके उच्च विकास में बाधक होती है। कारण कि साधारण वातावरण में भले तत्त्वों की अपेक्षा बुरे तत्त्व अधिक होते हैं। उन बुरे तत्त्वों में ऐसा आकर्षण होता है कि कच्चे दिमाग उनकी ओर बड़ी आासनी से खिंच जाते हैं। फलस्वरूप वे बुराइयाँ अधिक सीख लेने के कारण आगे चलकर बुरे मनुष्य साबित होते हैं। छोटी आयु में यह पता नहीं चलता कि बालक किन संस्कारों को अपनी मनोभूमि में जमा रहा है। बड़ा होने पर जब वे संस्कार एवं स्वभाव प्रकट होते हैं, तब उन्हें हटाना कठिन हो जाता है; क्योंकि दीर्घकाल तक वे संस्कार बालक के मन में जमे रहने एवं पकते रहने के कारण ऐसे सुदृढ़ हो जाते हैं कि उनका हटाना कठिन होता है।
ऋषियों ने इस भारी कठिनाई को देखकर एक अत्यन्त ही सुन्दर और महत्त्वपूर्ण उपाय यह निश्चित किया कि प्रत्येक बालक पर माँ-बाप के अतिरिक्त किसी ऐसे व्यक्ति का भी नियन्त्रण रहना चाहिए जो मनोविज्ञान की सूक्ष्मताओं को समझता हो ।दूरदर्शी तत्त्वज्ञानी और पारदर्शी होने के कारण बालक के मन में रहने वाले संस्कार-बीजों को अपनी पैनी दृष्टि से तत्काल देख लेने और उनमें आवश्यक सुधार करने की योग्यता रखता हो। ऐसे मानसिक नियन्त्रणकर्ता की उनने प्रत्येक बालक को अनिवार्य आवश्यकता घोषित की।
शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य के तीन प्रत्यक्ष देव हैं-(१) माता, (२) पिता, (३) गुरु। इन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपाधि दी है। माता जन्म देती है इसलिए ब्रह्मा है, पिता पालन करता है इसलिए विष्णु है और गुरु कुसंस्कारों का संहार करता है इसलिए शंकर है। गुरु का स्थान माता-पिता के समकक्ष है। कोई यह कहे कि मैं बिना माता के पैदा हुआ, तो उसे ‘झूठा’ कहा जायेगा, क्योंकि माता के गर्भ में रहे बिना कोई किस प्रकार जन्म ले सकता है? इसी प्रकार कोई यह कहे कि मैं बिना बाप का हूँ, तो वह ‘वर्णसंकर’ कहा जायेगा, क्योंकि जिसके बाप का पता न हो, ऐसे बच्चे तो वेश्याओं के यहाँ पैदा होते हैं। उसी प्रकार कोई कहे कि मेरा कोई गुरु नहीं है, तो समझा जायेगा कि यह असभ्य एवं असंस्कारित है, क्योंकि जिसके मस्तिष्क पर विचार, स्वभाव, ज्ञान, गुण, कर्म पर किसी दूरदर्शी का नियन्त्रण नहीं रहा, उसके मानसिक स्वास्थ्य का क्या भरोसा किया जा सकता है? ऐसे असंस्कृत व्यक्तियों को ‘निगुरा’ कहा जाता है। ‘निगुरा’ का अर्थ है बिना गुरु का। किसी समय में ‘निगुरा’ कहना भी वर्णसंकर या मिथ्याचारी कहलाने के समान गाली समझी जाती थी।
बिना माता का, बिना पिता का, बिना गुरु का भी कोई मनुष्य हो सकता है, यह बात प्राचीनकाल में अविश्वस्त समझी जाती थी। कारण कि भारतीय समाज के सुसम्बद्ध विकास के लिए ऋषियों की यह अनिवार्य व्यवस्था थी कि प्रत्येक कार्य का गुरु होना चाहिए, जिससे वह महान् पुरुष बन सके। उस समय प्रत्येक माता-पिता को अपने बालकों को महापुरुष बनाने की अभिलाषा रहती थी। इसके लिए यह आवश्यकता रहती थी कि उनके बालक किसी सुविज्ञ आचार्य के शिष्य हों।
गुरुकुल प्रणाली का उस समय आम रिवाज था। पढ़ने की आयु होते ही बालक ऋषियों के आश्रम में भेज दिये जाते थे। राजा महाराजाओं तक के बालक गुरुकुलों का कठोर जीवन बिताने जाते थे, ताकि वे कुशल नियन्त्रण में रहकर सुसंस्कृत बन सकें और आगे चलकर मनुष्यों के महान् गौरव की रक्षा करने वाले महापुरुष सिद्ध हो सकें। मैं अमुक आचार्य का शिष्य हूँ, यह बात बड़े गौरव के साथ कही जाती थी। प्राचीन परिपाटी के अनुसार जब कोई मनुष्य किसी दूसरे को परिचय देता था तो कहता था, ‘‘मैं अमुक आचार्य का शिष्य, अमुक पिता का पुत्र, अमुक गोत्र का, अमुक नाम का व्यक्ति हूँ।’’ संकल्पों में, प्रतिज्ञाओं में, साक्षी में, राजदरबार में अपना परिचय इसी आधार पर दिया जाता था।
मनोभूमि का परिष्कार
बगीचा को यदि सुन्दर बनाना है, तो इसके लिए किसी कुशल माली की नियुक्ति आवश्यक है। जब आवश्यकता हो तब सींचना, जब अधिक पानी भर गया हो तो उसे बाहर निकाल देना, समय पर गोड़ना, निराई करना, अनावश्यक टहनियों को छाँटना, खाद देना, पशुओं को चरने न देने की रखवाली करना आदि बातों के सम्बन्ध में माली सदा सजग रहता है, फलस्वरूप बगीचा हरा-भरा, फला-फूला, सुन्दर और समुन्नत रहता है।
मनुष्य का मस्तिष्क एक बगीचा है; इसमें नाना प्रकार के मनोभाव, विचार, संकल्प, इच्छा, वासना, योजना रूपी वृक्ष उगते हैं, उनमें से कितने ही अनावश्यक और कितने ही आवश्यक होते हैं। बगीचे में कितने ही पौधे झाड़-झंखाड़ जैसे अपने आप उग आते हैं, वे बढ़ें तो बगीचे को नष्ट कर सकते हैं, इसलिए माली उन्हें उखाड़ देता है और दूर-दूर से लाकर अच्छे-अच्छे बीज उसमें बोता है। गुरु अपने शिष्य के मस्तिष्क रूपी बगीचे का माली होता है। वह अपने क्षेत्र में से जंगली झाड़-झंखाड़ जैसे अनावश्यक संकल्पों, संस्कारों, आकर्षण और प्रभावों को उखाड़ता रहता है और अपनी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता एवं चतुरता के साथ ऐसे संस्कार बीज जमाता रहता है, जो उस मस्तिष्क रूपी बगीचे को बहुमूल्य बनाएँ।
कोई व्यक्ति यह सोचे कि मैं स्वयं ही अपना आत्मनिर्माण करूँगा, अपने आप अपने को सुसंस्कृत बनाऊँगा, मुझे किसी गुरु की आवश्यकता नहीं, तो ऐसा किया जा सकता है। आत्मा में अनन्त शक्ति है। अपना कल्याण करने की शक्ति उसमें मौजूद है, परन्तु ऐसे प्रयत्नों में कोई मनस्वी व्यक्ति ही सफल होते हैं। सर्व साधारण के लिए यह बात बहुत कष्टसाध्य है, क्योंकि बहुधा अपने दोष अपने को नहीं दीखते, जैसे अपनी आँखें अपने आपको स्वयं दिखाई नहीं देतीं। किसी दूसरे मनुष्य या दर्पण की सहायता से ही अपनी आँखों को देखा जा सकता है। जब कोई वैद्य, डॉक्टर बीमार होते हैं तो स्वयं अपना इलाज आप नहीं करते, क्योंकि अपनी नाड़ी स्वयं देखना, अपना निदान आप कर लेना साधारणतया बहुत कठिन होता है, इसलिए वे किसी दूसरे वैद्य या डॉक्टर से अपनी चिकित्सा कराते हैं।
कोई सुयोग्य व्यक्ति भी आत्मनिरीक्षण में सफल नहीं होते हैं। हम दूसरों की जैसी अच्छी आलोचना कर सकते हैं, दूसरों को जैसी नेक सलाह दे सकते हैं, वैसी अपने लिए नहीं कर पाते, कारण यह है कि अपने सम्बन्ध में आप निर्णय करना कठिन होता है। कोई अपराधी ऐसा नहीं जिसे यदि मजिस्ट्रेट बना दिया जाए, तो अपने अपराध के सम्बन्ध में उचित फैसला लिखे। निष्पक्ष फैसला करना हो तो किसी दूसरे जज का ही आश्रय लेना पड़ेगा। आत्मनिर्माण का कार्य भी ऐसा ही है जिसके लिए दूसरे सुयोग्य सहायक की, गुरु की आवश्यकता होती है।
समुचित बौद्धिक विकास की सुव्यवस्था के लिए ‘गुरु’ की नियुक्ति को भारतीय धर्म में आवश्यक माना गया है, ताकि मनुष्य की विचारधारा, स्वभाव, संस्कार, गुण, प्रकृति, आदतें, इच्छाएँ, महत्त्वाकांक्षायें, कार्य पद्धति आदि का प्रवाह उत्तम दिशा में हो सके, जिससे मनुष्य अपने आप में सन्तुष्ट, प्रसन्न, पवित्र और परिश्रमी रहे एवं दूसरों को अपनी उदारता तथा सद्व्यवहार से सुख पहुँचाए। इस प्रकार के सुसंस्कारित मनुष्य जिस देश में अधिक होंगे, वहाँ निश्चयपूर्वक सुख-शान्ति की, सुव्यवस्था की, पारस्परिक सहयोग की, प्रेम की, साथी-सहयोगियों की बहुलता रहेगी। हमारा पूर्व इतिहास साक्षी है कि सुसंस्कारित मस्तिष्क के भारतीय महापुरुषों ने कैसे महान् कार्य किये थे और इस भूमि पर किस प्रकार स्वर्ग को अवतरित कर दिया था।
हमारे पूर्वकालीन महान् गौरव की नींव में ऋषियों की दूरदर्शिता छिपी हुई है, जिसके अनुसार प्रत्येक भारतीय को अपना मानसिक परिष्कार कराने के लिए किसी उच्च चरित्र, आदर्शवादी, सूक्ष्मदर्शी विद्वान् के नियन्त्रण में रहना आवश्यक होता था। जो व्यक्ति मानसिक परिष्कार करने की आवश्यकता से जी चुराते थे, उन्हे ‘निगुरा’ की गाली दी जाती थी। ‘निगुरा’ शब्द का अपमान करीब-करीब ‘बिना बाप का’ या ‘वर्णसंकर’ कहे जाने के बराबर समझा जाता था। धन कमाना, विद्या पढ़ना, अस्त्र चलाना सभी बातें आवश्यक थीं, पर मानसिक परिष्कार तो सबसे अधिक आवश्यक था, क्योंकि असंस्कृत मनुष्य तो समाज का अभिशाप बनकर ही रहता है, भले ही उसके पास कितनी ही अधिक भौतिक सम्पदा क्यों न हो। गुरु को प्रत्यक्ष तीन देवों में, तीन परम पूज्यों में स्थान देने का यही कारण था।
दूषित वातावरण का प्रभाव
आज यह प्रथा टूट चली है। गुरु कहलाने के अधिकारी व्यक्तियों का मिलना मुश्किल है। जिनमें गुरु बनने की योग्यता है, वे अपने व्यक्तिगत, आत्मिक या भौतिक लाभों के सम्पादन में लगे हुए हैं। लोक सेवा, राष्ट्र-निर्माण की रचनात्मक प्रवृत्ति की ओर, सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व सिर पर लेने की ओर उनका ध्यान नहीं है। वे इसमें स्वल्प लाभ, अधिक झंझट और भारी बोझ अनुभव करते हैं। इसकी अपेक्षा वे दूसरे सरल तरीकों से अधिक धन और यश कमा लेने के अनेक मार्ग जब सामने देखते हैं, तो ‘गुरु’ का गहन उत्तरदायित्व ओढ़ने से कन्नी काट जाते हैं।
दूसरी ओर ऐसे अयोग्य व्यक्ति जिनका चरित्र, ज्ञान, अनुभव, विवेक आदि कुछ भी नहीं, जिनमें दूसरों को सुसंस्कृत करने की क्षमता होना तो दूर, अपने को सुसंस्कृत नहीं बना सके, ऐसे लोग पैर पुजाने और दक्षिणा लेने के लोभ में कान फूँकने लगे, खुशामद, दीनता और भिक्षावृत्ति का आश्रय लेकर शिष्य तलाश करने लगे, तो गुरुत्व की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। जिस काम को कुपात्र लोग हाथों में लेते हैं, वह अच्छा काम भी बदनाम हो जाता है और जिस साधारण काम को यदि भले व्यक्ति करने लगें, तो वह अच्छा हो जाता है। दीन-दुखियों के हाथ में रहने से चरखा ‘दुर्भाग्य’ का चिह्न समझा जाता था, पर गाँधीजी जैसे महापुरुष के हाथ का वही चरखा दीन-दुखियों के हाथ में पहुँचकर यज्ञ बन जाता है। ऋषियों के हाथ में जब तक ‘गुरुत्व’ था, तब तक उस पद की प्रतिष्ठा रही, पर आज जबकि कुपात्र, भिखारी और क्षुद्र लोग गुरु बनने का दुस्साहस करने लगे तो वह महान् पद ही बदनाम हो गया। आज ‘गुरु’ या ‘गुरुघण्टाल’ शब्द किसी पुराने पापी या धूर्तराज के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
लोगों ने देखा कि एक आदमी दक्षिणा भी लेता है, पैर भी पुजवाता है, पर वह किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं पहुँचाता, तो उनने भी इस व्यर्थ के झंझट को तोड़ देना उचित समझा। गुरु शिष्य की परम्परा शिथिल होने लगी और धीरे-धीरे उसका लोप होने लगा है। निष्प्रयोजन, निष्प्राण, निरुपायी होने पर जो परम्परायें खर्चीली हैं, वे देर तक जीवित नहीं रह सकतीं। अब बहुत कम मनुष्य रह गये हैं जो गुरु की नियुक्ति आवश्यक समझते हों या ‘निगुरा’ कहलाने में अपना अपमान समझते हों।
आज के दूषित वातावरण ने सभी दिशाओं में गड़बड़ी पैदा कर दी है। असली सोना कम है, पर नकली सोना बेहिसाब तैयार हो रहा है। असली घी मिलना मुश्किल है, पर वेजीटेबल घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। असली मोती, असली जवाहरात कम है, पर नकली मोती और इमीटेशन रत्न ढेरों बिकते हैं। इतना होते हुए भी असली चीजों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। लोग घासलेट घी को खूब खरीदते-बेचते हैं, पर इससे असली घी की उपयोगिता घट नहीं जाती। असंख्यों बड़बड़ियाँ होते रहने पर भी असली घी के गुण वही रहेंगे और उसके लाभों में कोई कमी न होगी। असली सोना, असली रत्न आदि भी इसलिए निरुपयोगी नहीं हो जाते कि नकली चीजों ने उस क्षेत्र को बदनाम कर दिया है। मिलावट, नकलीपन, धोखेधड़ी के हजार पर्वत मिलकर भी वास्तविकता का, वस्तुस्थिति का महत्त्व राई भर भी नहीं घटा सकते।
व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का निर्माण एक सच्चाई है, जो आज की विषम स्थिति में तो क्या, किसी भी बुरी से बुरी स्थिति में भी गलत सिद्ध नहीं हो सकती। रोटी बनानी होगी तो आटे की, पानी की, आग की जरुरत पड़ेगी। चाहे कैसा भी भला या बुरा समय हो, इस अनिवार्य आवश्यकता में कोई अन्तर नहीं आ सकता। अच्छे मनुष्य, सच्चे मनुष्य, प्रतिष्ठित मनुष्य, सुखी मनुष्य की रचना के लिए यह आवश्यक है कि अच्छे, सुयोग्य और दूरदर्शी मनुष्यों द्वारा हमारे मस्तिष्क का नियन्त्रण, संशोधन, निर्माण और विकास किया जाए। मनुष्य कोरे कागज के समान है। वह जैसा ग्रहण करेगा, जैसा सीखेगा वैसा करेगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित है कि यदि आरम्भिक अवस्था में प्रयत्नपूर्वक सद्गुण नहीं सिखाये जायेंगे, तो वह सामान्यत: बुराई की ओर ही झुकेगा। यदि बुराई से बचना है तो अच्छाई से सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक है। मनुष्य का मन खाली नहीं रह सकता; उसे अच्छाई का प्रकाश न मिलेगा, तो निश्चय ही बुराई के अन्धकार में रहना होगा।
शिक्षा और विद्या का महत्त्व
मनुष्य को सुयोग्य बनाने के लिए उसके मस्तिष्क को दो प्रकार से उन्नत किया जाता है- (1) शिक्षा द्वारा, (2) विद्या द्वारा। शिक्षा के अन्तर्गत वे सब बातें आती हैं, जो स्कूलों में, कॉलेजों में, ट्रेनिंग कैम्पों में, हाट-बाजारों में, घर में, दुकान में, समाज में सिखाई जाती हैं। गणित, भूगोल, इतिहास, भाषा, शिल्प, व्यायाम, रसायन, चिकित्सा, निर्माण, व्यापार, कृषि, संगीत, कला आदि बातें सीखकर मनुष्य व्यवहार कुशल, चतुर, कमाऊ, लोकप्रिय एवं शक्ति सम्पन्न बनता है। विद्या द्वारा मनोभूमि का निर्माण होता है। मनुष्य की इच्छा, भावना, श्रद्धा, मान्यता, रुचि एवं आदतों को अच्छे ढाँचे में ढालना विद्या का काम है। चौरासी लाख योनियों में घूमते हुए आने का कारण पिछले पाशविक संस्कारों में मन भरा रहता है, उनका संशोधन करना विद्या का काम है। यदि मनुष्य इससे वञ्चित रह जाये तो फिर उसका जीवन अविकसित, अनुपयोगी और अपने तथा समाज के लिए भार स्वरूप बना जाता है।
शिक्षक शिक्षा देता है। शिक्षा का अर्थ है-सांसरिक ज्ञान। विद्या का अर्थ है-मनोभूमि की सुव्यवस्था। शिक्षा आवश्यक है, पर विद्या उससे भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा बढ़नी चाहिए, पर विद्या का विस्तार उससे भी अधिक होना चाहिए, अन्यथा दूषित मनोभूमि रहते हुए यदि सांसारिक सामर्थ्य बढ़ी तो उसका परिणाम भयंकर होगा। धन की, चतुरता की, विज्ञान की इन दिनों बहुत उन्नति हुई है, पर यह स्पष्ट है कि उन्नति के साथ-साथ हम सर्वनाश की ओर बढ़ रहे हैं। कम साधन होते हुए भी विद्वान् मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु केवल बौद्धिक या सांसारिक शक्तियाँ होने पर दूषित मनोभूमि का मनुष्य अपने लिये तथा दूसरों के लिए केवल विपत्ति, चिन्ता, कठिनाई, क्लेश एवं बुराई ही उत्पन्न कर सकता है। इसलिए विद्या पर उतना ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक जोर दिया जाना चाहिए जितना कि शिक्षा पर दिया जाता है।
आज हम अपने बालकों को गे्रजुएट बना देने के लिए ढेरों पैसा खर्च करते हैं, पर उनकी आन्तरिक भूमिका को सुव्यवस्थित करने की शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं करते। फलस्वरूप शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भी वे बालक अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति कोई आदर्श व्यवहार नहीं कर पाते। किसी भी ओर उनकी प्रगति ऐसी नहीं होती, जो प्रसन्नतादायक हो। शिक्षा के साथ उनमें जो अनेक दुर्गुण आ जाते हैं, उन दुर्गुणों में ही उनकी योग्यता द्वारा होने वाली कमाई बर्बाद होती रहती है।
इस तथ्य को हमारे पूर्वज जानते थे कि शिक्षा से भी विद्या का महत्त्व अधिक है, इसलिए वे छोटी सी आयु में अपने बच्चों को गुरु का नियन्त्रण स्थापित करा देते थे। गुरु लोग अपने गम्भीर ज्ञान, विशाल अनुभव, सूक्ष्मदर्शी विवेक और उज्ज्वल चरित्र द्वारा शिष्य को प्रभावित करके उनकी मनोभूमि का निर्माण करते थे। अपनी प्रचण्ड शक्ति-किरणों द्वारा उनके अन्त:करण में ऐसे बीज अंकुरित कर देते थे, जो फलने-फूलने पर उस व्यक्ति को महापुरुष सिद्ध करें।
गायत्री द्वारा द्विजत्व की प्राप्ति
भारतीय धर्म के अनुसार गुरु की आवश्यकता प्रत्येक भारतीय के लिए है। जैसे ईश्वर के प्रति, शास्त्रों के प्रति, भारतीय आचार के प्रति, ऋषियों और देवताओं के प्रति आस्था एवं आदर बुद्धि का होना भारतीय धर्म के अनुयायियों के लिए आवश्यक है, वैसे ही यह आवश्यक है कि वह ‘निगुरा’ न हो। उसे किसी सुयोग्य सत्पुरुष का ऐसा पथ-प्रदर्शन प्राप्त होना चाहिए, जो उनके सर्वांगीण विकास में सहायता दे सके। किसी भी मनुष्य के सुसंस्कृत, सभ्य होने का मार्ग यही है कि योग्य शिक्षक या गुरु से सद्गुणों और सत्कर्मों का प्रशिक्षण प्राप्त करे। इसके बिना मानव पद की सार्थकता कठिन ही रहती है।
सम्भ्र्रान्त भारतीय धर्मानुयायी को द्विज कहते हैं। द्विज वह है जिसका दो बार जन्म हुआ है। एक बार माता-पिता के रज-वीर्य से सभी का जन्म होता है। इस तरह मनुष्य जन्म पा लेने से कोई मनुष्य प्रतिष्ठित आर्य नहीं बन सकता। केवल जन्म मात्र से मनुष्य का गौरव नहीं। कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो पशुओं से भी गये बीते हैं। स्वभावत: जन्मजात पशुता तो प्राय: सभी में होती है। इस पशुता का मनोविज्ञान द्वारा परिष्कार किया जाता है, इस परिष्कार की पद्धति को द्विजत्व या दूसरा जन्म कहते हैं।
शास्त्रों द्वारा बताया गया है कि ‘‘जन्मना जायते शूद्र:, संस्कारात् द्विज उच्यते।’’ अर्थात् जन्म से सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं, संस्कारों द्वारा, प्रभावों द्वारा मनुष्य का दूसरा जन्म होता है। यह दूसरा जन्म माता गायत्री और पिता आचार्य द्वारा होता है। गायत्री के २४ अक्षरों में ऐसे सिद्धान्त और आदर्श सन्निहित हैं, जो मानव अन्त:करण को उच्च स्तर पर विकसित करने के प्रधान आधार हैं। समस्त वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र आदि गन्थों में जो कुछ भी शिक्षा है, वह गायत्री के अक्षरों में सन्निहित शिक्षाओं की व्याख्या मात्र है। समस्त भारतीय धर्म, समस्त भारतीय आदर्श, समस्त भारतीय संस्कृति का सर्वस्व गायत्री के २४ अक्षरों में बीज रूप में मौजूद है, इसलिए द्विज के लिए, दूसरे जन्म के लिए गायत्री माता को माना गया है।
पर ये शिक्षाएँ केवल मन्त्र याद कर लेने या पुस्तकों में लिखी हुई बातें पढ़ लेने मात्र से हृदयंगम नहीं हो सकतीं। पढ़ने से किसी बात की जानकारी तो हो जाती है, पर हृदय में उनका प्रवेश करा देना किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा ही हो सकता है। दीपक को दीपक से जलाया जाता है, अग्रि से अग्रि उत्पन्न होती है, साँचे में वस्तुएँ ढाली जाती हैं, व्यक्तियों से व्यक्तियों का निर्माण होता है। इसलिए गायत्री की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप से जीवन में घुला देने का कार्य न तो अपने आप किया जा सकता है और न उसके पढ़ने मात्र से होता है, उसके लिए किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति की आवश्यकता होती है। ऐसे व्यक्ति को गुरु कहते हैं। दूसरे जन्म का, द्विजत्व का, आदर्श जीवन का पिता गुरु को माना गया है।
गुरु द्वारा गायत्री की जो शिक्षायें दी जाती हैं, उनको भली प्रकार हृदयंगम करने, सदा छाती से चिपकाये रहने, उसका पूरी तरह प्रयोग करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर रखा हुआ अनुभव करने की बात हर समय आँखों के आगे रहे, इसके लिए द्विजत्व का प्रतीक यज्ञोपवीत पहना दिया जाता है। यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है। गायत्री में नौ पद हैं— १- तत्, २-सवितुर्, ३-वरेण्यं, ४-भर्गो, ५-देवस्य, ६-धीमहि, ७-धियो, ८-यो न:, ९-प्रचोदयात्। यज्ञोपवीत में ९ धागे हैं, प्रत्येक धागा गायत्री के एक-एक पद का प्रतीक है। यज्ञोपवीत में तीन ग्रन्थियाँ और एक अन्तिम ब्रह्मग्रन्थि होती है। बड़ी ग्रन्थि ‘ॐ’ की और शेष तीन ‘भू:’, ‘भुव:’, ‘स्व:’ की प्रतीक हैं। जैसे पत्थर या धातु की मूर्ति में देवता की प्रतिष्ठा करके उसकी पूजा की जाती है, वैसे ही गायत्री की मूर्ति सूत की बनाकर हृदय-मन्दिर पर प्रतिष्ठित की जाती है। मन्दिर में मूर्ति के सम्मुख हर घड़ी नहीं रहा जा सकता, पर गायत्री की प्रतिमा, यज्ञोपवीत का तो हर घड़ी पास रहना आवश्यक है, उसे तो क्षण भर के लिए भी अलग नहीं किया जा सकता। वह तो हर घड़ी हृदय के ऊपर झूलता रहता है। उसका बोझ तो हर घड़ी कन्धे पर रखा रहता है। इस प्रकार गायत्री पूजा को, गायत्री की प्रतिमा को, गायत्री की शिक्षा को जीवन-संगिनी बनाया गया है। कोई प्रतिष्ठित भारतीय धर्मानुयायी यज्ञोपवीत को छोड़ नहीं सकता, उसकी महत्ता की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता।
कहा जाता है गायत्री का अधिकार केवल द्विजों को हैं। द्विजत्व का तात्पर्य-गुरु द्वारा गायत्री को ग्रहण करना। जो लोग अश्रद्धालु हैं, आत्मनिर्माण से जी चुराते हैं, आदर्श जीवन बिताने से उदासीन हैं, जिनकी सन्मार्ग में प्रवृत्ति नहीं, ऐसे लोग ‘शूद्र’ कहे जाते हैं। जो दूसरे जन्म का, आदर्श जीवन का, मनुष्य की महानता का, सन्मार्ग का अवलम्बन नहीं करना चाहते, ऐसे लोगों का जन्म पाशविक ही कहा जायेगा, ऐसे लोग गायत्री में क्या रुचि लेंगे? जिनकी जिस मार्ग में श्रद्धा न होगी, वह उसमें क्या सफलता प्राप्त करेगा? इसलिए ठीक ही कहा गया है कि शूद्रों को गायत्री का अधिकार नहीं। इस महाविद्या का अधिकारी वही है, जो आत्मिक कायाकल्प का लक्ष्य रखता है, जिसे पाशविक जीवन की अपेक्षा उच्च जीवन पर आस्था है और जो द्विज बनकर सैद्धान्तिक जन्म लेकर सत्पुरुष बनना चाहता है। वर्तमान समय में इस सिद्धान्त को भूलकर लोंगो ने जाति परम्परा के आधार पर द्विजत्व मानना आरम्भ कर दिया है, इसी से अनेक दोष उत्पन्न हो रहे हैं।
उत्कीलन और शाप विमोचन
शास्त्रों में बताया गया है कि गायत्री मन्त्र कीलित है, उसका जब तक उत्कीलन न हो जाए, तब तक वह फलदायक नहीं होता। यह कहा गया है कि गायत्री को शाप लगा हुआ है। उस शाप का जब तक ‘अभिमोचन’ न कर लिया जाए, तब तक उससे कुछ लाभ नहीं होता। कीलित होने और शाप लगने के प्रतिबन्ध क्या हैं और उत्कीलन एवं अभिमोचन क्या हैं? यह विचारणीय बात है।
जैसे यह कहा जा सकता है कि-‘‘औषधि विद्या कीलित है।’’ क्योंकि अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो शरीर शास्त्र, निदान, निघण्टु, चिकित्सा विज्ञान की बारीकियों को नहीं समझता और अपनी अधूरी जानकारी के आधार पर अपनी चिकित्सा आरम्भ कर दे, तो उससे कुछ भी लाभ न होगा, उलटी हानि हो सकती है। यदि औषधि से कोई लाभ लेना हो तो किसी अनुभवी वैद्य की सलाह लेना आवश्यक है। आयुर्वेद ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा हुआ है, उन्हें पढ़कर बहुत सी बातें जानी जा सकती हैं, फिर भी वैद्य की आवश्यकता तो है ही। वैद्य के बिना हजारों रुपये के चिकित्सा ग्रन्थ और लाखों रुपये का औषधालय भी रोगी को कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकता। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि ‘‘औषधि विद्या कीलित है।’’ गायत्री महाविद्या के बारे में भी यही बात है। साधक की मनोभूमि के आधार पर साधना विधान में, नियम-उपनियमों में, आदर्शों में अनेक हेर-फेर करने होते हैं, सबकी साधना एक-सी नहीं हो सकती, ऐसी दशा में उस व्यक्ति का पथ-प्रदर्शन आवश्यक है जो इस विद्या का ज्ञाता एवं अनुभवी हो। जब तक ऐसा निर्देशक न मिले, तब तक औषधि विद्या की तरह गायत्री विद्या भी साधक के लिए कीलित ही रहेगी। उपयुक्त निर्देशक का मिल जाना ही उत्कीलन है। ग्रन्थों में बताया गया है कि गुरु द्वारा ग्रहण करायी गई गायत्री ही उत्कीलित होती है, वही सफल होती है।
स्कन्द पुराण में वर्णन है कि एक बार वसिष्ठ, विश्वामित्र और ब्रह्मा ने क्रुद्ध होकर गायत्री को शाप दिया कि ‘उसकी साधना निष्फल होगी।’ इतनी बड़ी शक्ति के निष्फल होने से हाहाकर मच गया। तब देवताओं ने प्रार्थना की कि इन शापों का विमोचन होना चाहिये। अन्त में ऐसा मार्ग निकाला गया कि जो शाप विमोचन विधि को पूरा करके गायत्री की साधना करेगा, उसका प्रयत्न सफल होगा और शेष लोंगो का श्रम निरर्थक जायेगा। इस कथन में एक भारी रहस्य छिपा हुआ है जिसे न जानने वाले केवल ‘‘शापमुक्तो भव’’ वाले मन्त्र को पढ़ लेने मात्र से यह मान लेते हैं कि हमारी साधना शापमुक्त हो गई।
विश्वामित्र का अर्थ है-संसार का मित्र, लोकसेवी, परोपकारी। वसिष्ठ का अर्थ है-विशेष रूप से श्रेष्ठ, ब्रह्मा का अर्थ है-ब्रह्मपरायण। इन तीन गुणों वाले पथ-प्रदर्शक के आदेशानुसार होने वाले आध्यात्मिक प्रयत्न ही सफल एवं कल्याणकारी होते हैं।
स्वार्थी, दूसरे का बुरा करने को उद्यत, वाममार्गी मनोवृत्ति का मनुष्य यदि साधक को वैसी ही साधना सिखायेगा, तो वह अपना और शिष्य दोनों का नाश करेगा। जिसका चरित्र उच्च नहीं, जो उदार नहीं, जिसमें महानता और प्रतिभा नहीं, वह दूसरों का नया निर्माण क्या करेगा? इसी प्रकार जो ब्रह्मपरायण नहीं, जिसकी साधना एवं तपस्या नहीं, ऐसा गुरु किसी की आत्मा में क्या प्रकाश दे सकेगा? तात्पर्य यह है कि विश्वामित्र- उदार, वसिष्ठ-महानता युक्त, ब्रह्मा-ब्रह्मपरायण, इन तीनों गुणों से युक्त निर्देशक जब किसी व्यक्ति का निर्माण करेगा, तो उसका प्रयत्न निष्फल नहीं जा सकता। इसके विपरीत कुपात्र, अयोग्य और अनुभवहीन व्यक्तियों की शिक्षानुसार की गई साधना तो इसी प्रकार व्यर्थ रहेगी, मानो किसी ने शाप देकर उसे निष्फल कर दिया हो। शाप लगने और उसके विमोचन करने का गुप्त रहस्य उपयुक्त मार्गदर्शक की अध्यक्षता में अपनी कार्यपद्धति का निर्माण करना ही है।
गायत्री मानव जीवन की जन्मदात्री, आधारशिला एवं बीज शक्ति है। भारतीय संस्कृति रूपी ज्ञान-गंगा की उद्गम भूमि गंगोत्री यह गायत्री ही है, इसलिए इसे द्विजों की माता कहा गया है। माता के पेट में रहकर मनुष्य देह का जन्म होता है, गायत्री माता के पेट में रहकर मनुष्य का आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक, दिव्य विशेषताओं वाला दूसरा जन्म होता है। परन्तु यह माता सर्वसम्पन्न होते हुए भी पिता के अभाव में अपूर्ण है। द्विजत्व का दूसरा शरीर माता और पिता दोनों के ही तत्त्वबिन्दुओं से निर्मित होता है। गायत्री माता की अदृश्य सत्ता को गुरु द्वारा ही ठीक प्रकार से शिष्य की मनोभूमि में आरोपित किया जाता है। इसीलिए जब द्विजत्व का संस्कार होता है, तो इस दूसरे आध्यात्मिक जन्म में गायत्री को माता और आचार्य को पिता घोषित किया जाता है।
उच्च आदर्शों की शिक्षा न तो अपने आप ही प्राप्त होती है, न केवल आधार ग्रन्थों से। हीन चरित्र के अयोग्य व्यक्ति उच्च आदर्शों की ओर दूसरों को आकर्षित नहीं कर सकते। बढ़िया धनुष-बाण पास होते हुए भी कोई व्यक्ति स्वयं शब्दवेधी बाण चलाने वाला नहीं बन सकता और न अनाड़ी शिक्षक द्वारा बाण-विद्या में पारंगत बना जा सकता है। अच्छा शिक्षक और अच्छा धनुष-बाण दोनों मिलकर ही सफल परिणाम उपस्थित करते हैं। गायत्री के कीलित एवं शापित होने का और उसके उत्कीलन एवं शाप विमोचन करने का यही रहस्य है।
अभी कुछ दिन पूर्व की बात है, दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में मादा भेड़िया मनुष्य के दो छोटे बच्चों को उठा ले गई। कुछ ऐसी विचित्र बात हुई कि उसने उन्हें खाने के बजाय अपना दूध पिलाकर पाल लिया, वे बड़े हो गये। एक दिन शिकारियों का दल भेड़िये की तलाश में इधर से निकला तो हिंसक पशु की माँद में मनुष्य के बालक देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें पकड़ लाये। ये बालक भेड़ियों की तरह चलते थे, वैसे ही गुर्राते थे, वही सब खाते थे और उनकी सारी मानसिक स्थिति भेड़िये जैसी थी। कारण यही था कि उन्होंने जैसा देखा, वैसा सीखा और वैसे ही बन गये।
जो बालक जन्म से बहरे होते हैं, वे जीवनभर गूंगे भी रहते हैं; क्योंकि बालक दूसरे के मुँह से निकलने वाले शब्दों को सुनकर उसकी नकल करना सीखता है। यदि कान बहरे होने की वजह से वह दूसरों के शब्द सुन नहीं सकता, तो फिर यह असम्भव है कि शब्दोच्चारण कर सके। धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा, वेश-भूषा, शिष्टाचार, आहार-विहार आदि बातें बालक अपने निकटवर्ती लोगों से सीखता है। यदि कोई बालक जन्म से ही अकेला रखा जाए, तो वह उन सब बातों से वञ्चित रह जायेगा, जो मनुष्य में होती हैं।
पशु-पक्षियों के बच्चों में यह बात नहीं है। बया पक्षी का छोटा बच्चा पकड़ लिया जाय और वह माँ-बाप से कुछ न सीखे तो भी बड़ा होकर अपने लिए वैसा ही सुन्दर घोंसला बना लेगा जैसा कि अन्य बया पक्षी बनाते हैं; पर अकेला रहने वाला मनुष्य का बालक भाषा, कृषि, शिल्प, संस्कृति, धर्म, शिष्टाचार, लोक-व्यवहार, श्रम-उत्पादन आदि सभी बातों से वञ्चित रह जायेगा। पशुओं के बालक जन्म से ही चलने फिरने लगते हैं और माता का पय पान करने लगते हैं, पर मनुष्य का बालक बहुत दिन में कुछ समझ पाता है। आरम्भ में तो वह करवट बदलना, दूध का स्थान तलाश करना तक नहीं जानता, अपनी माता तक को नहीं पहचानता, इन बातों में पशुओं के बच्चे अधिक चतुर होते हैं।
मनुष्य कोरे कागज के समान है। कागज पर जैसी स्याही से जैसे अक्षर बनाये जाते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। कैमरे ही प्लेट पर जो छाया पड़ती है, वैसा ही चित्र अंकित हो जाता है। मानव मस्तिष्क की रचना भी कोरे कागज एवं फोटो-प्लेट की भाँति है। वह निकटवर्ती वातावरण में से अनेक बातें सीखता है। उसके ऊपर जिन बातों का विशेष प्रभाव पड़ता है, उन्हें वह अपने मानस क्षेत्र में जमा कर लेता है। मनुष्य गीली मिट्टी के समान है, जैसे साँचे में ढाल दिया जाए, वैसा ही खिलौना बन जाता है। उच्च परिवारों में पलने वाले बालकों में वैसी ही विशेषताएँ होती हैं और निकृष्ट श्रेणी के बीच रहकर जो बालक पलते हैं, उनमें वैसी क्षुद्रताएँ बहुधा पाई जाती हैं।
हमारे पारदर्शी पूर्वज मनुष्य की कमजोरी को भली प्रकार समझते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यदि बालकों पर अनियन्त्रित प्रभाव पड़ता रहा, उनके सुधार और परिवर्तन का प्रारम्भ से ही ध्यान न रखा गया, तो यह बहुत मुश्किल है कि वे अपनी मनोभूमि को वैसी बना सकें जैसी कि मानव प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है। आमतौर से सब माता-पिता उतने सुसंस्कृत नहीं होते कि अपने बच्चों पर केवल अच्छा प्रभाव ही पड़ने दें और बुरे प्रभाव से उन्हें बचाते रहें। दूसरे यह भी है कि माँ-बाप में बालक के प्रति लाड़-प्यार का भाव स्वभावत: अधिक होता है, वे उनके प्रति अधिक उदार एवं मोहग्रस्त होते हैं। ऐसी दशा में अपने बालकों की बुराइयाँ उन्हें सूझ भी नहीं पड़तीं। फिर इतने सूक्ष्मदर्शी माँ-बाप कहाँ होते हैं, जो अपनी सन्तान की मानसिक स्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण एवं विश्लेषण करके कुसंस्कारों का परिमार्जन तत्काल करने को उद्यत रहें।
सत् शिक्षण की आवश्यकता
मनुष्य की यह कमजोरी है कि वह दूसरों से ही सब कुछ सीखता है, जो कि उसके उच्च विकास में बाधक होती है। कारण कि साधारण वातावरण में भले तत्त्वों की अपेक्षा बुरे तत्त्व अधिक होते हैं। उन बुरे तत्त्वों में ऐसा आकर्षण होता है कि कच्चे दिमाग उनकी ओर बड़ी आासनी से खिंच जाते हैं। फलस्वरूप वे बुराइयाँ अधिक सीख लेने के कारण आगे चलकर बुरे मनुष्य साबित होते हैं। छोटी आयु में यह पता नहीं चलता कि बालक किन संस्कारों को अपनी मनोभूमि में जमा रहा है। बड़ा होने पर जब वे संस्कार एवं स्वभाव प्रकट होते हैं, तब उन्हें हटाना कठिन हो जाता है; क्योंकि दीर्घकाल तक वे संस्कार बालक के मन में जमे रहने एवं पकते रहने के कारण ऐसे सुदृढ़ हो जाते हैं कि उनका हटाना कठिन होता है।
ऋषियों ने इस भारी कठिनाई को देखकर एक अत्यन्त ही सुन्दर और महत्त्वपूर्ण उपाय यह निश्चित किया कि प्रत्येक बालक पर माँ-बाप के अतिरिक्त किसी ऐसे व्यक्ति का भी नियन्त्रण रहना चाहिए जो मनोविज्ञान की सूक्ष्मताओं को समझता हो ।दूरदर्शी तत्त्वज्ञानी और पारदर्शी होने के कारण बालक के मन में रहने वाले संस्कार-बीजों को अपनी पैनी दृष्टि से तत्काल देख लेने और उनमें आवश्यक सुधार करने की योग्यता रखता हो। ऐसे मानसिक नियन्त्रणकर्ता की उनने प्रत्येक बालक को अनिवार्य आवश्यकता घोषित की।
शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य के तीन प्रत्यक्ष देव हैं-(१) माता, (२) पिता, (३) गुरु। इन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपाधि दी है। माता जन्म देती है इसलिए ब्रह्मा है, पिता पालन करता है इसलिए विष्णु है और गुरु कुसंस्कारों का संहार करता है इसलिए शंकर है। गुरु का स्थान माता-पिता के समकक्ष है। कोई यह कहे कि मैं बिना माता के पैदा हुआ, तो उसे ‘झूठा’ कहा जायेगा, क्योंकि माता के गर्भ में रहे बिना कोई किस प्रकार जन्म ले सकता है? इसी प्रकार कोई यह कहे कि मैं बिना बाप का हूँ, तो वह ‘वर्णसंकर’ कहा जायेगा, क्योंकि जिसके बाप का पता न हो, ऐसे बच्चे तो वेश्याओं के यहाँ पैदा होते हैं। उसी प्रकार कोई कहे कि मेरा कोई गुरु नहीं है, तो समझा जायेगा कि यह असभ्य एवं असंस्कारित है, क्योंकि जिसके मस्तिष्क पर विचार, स्वभाव, ज्ञान, गुण, कर्म पर किसी दूरदर्शी का नियन्त्रण नहीं रहा, उसके मानसिक स्वास्थ्य का क्या भरोसा किया जा सकता है? ऐसे असंस्कृत व्यक्तियों को ‘निगुरा’ कहा जाता है। ‘निगुरा’ का अर्थ है बिना गुरु का। किसी समय में ‘निगुरा’ कहना भी वर्णसंकर या मिथ्याचारी कहलाने के समान गाली समझी जाती थी।
बिना माता का, बिना पिता का, बिना गुरु का भी कोई मनुष्य हो सकता है, यह बात प्राचीनकाल में अविश्वस्त समझी जाती थी। कारण कि भारतीय समाज के सुसम्बद्ध विकास के लिए ऋषियों की यह अनिवार्य व्यवस्था थी कि प्रत्येक कार्य का गुरु होना चाहिए, जिससे वह महान् पुरुष बन सके। उस समय प्रत्येक माता-पिता को अपने बालकों को महापुरुष बनाने की अभिलाषा रहती थी। इसके लिए यह आवश्यकता रहती थी कि उनके बालक किसी सुविज्ञ आचार्य के शिष्य हों।
गुरुकुल प्रणाली का उस समय आम रिवाज था। पढ़ने की आयु होते ही बालक ऋषियों के आश्रम में भेज दिये जाते थे। राजा महाराजाओं तक के बालक गुरुकुलों का कठोर जीवन बिताने जाते थे, ताकि वे कुशल नियन्त्रण में रहकर सुसंस्कृत बन सकें और आगे चलकर मनुष्यों के महान् गौरव की रक्षा करने वाले महापुरुष सिद्ध हो सकें। मैं अमुक आचार्य का शिष्य हूँ, यह बात बड़े गौरव के साथ कही जाती थी। प्राचीन परिपाटी के अनुसार जब कोई मनुष्य किसी दूसरे को परिचय देता था तो कहता था, ‘‘मैं अमुक आचार्य का शिष्य, अमुक पिता का पुत्र, अमुक गोत्र का, अमुक नाम का व्यक्ति हूँ।’’ संकल्पों में, प्रतिज्ञाओं में, साक्षी में, राजदरबार में अपना परिचय इसी आधार पर दिया जाता था।
मनोभूमि का परिष्कार
बगीचा को यदि सुन्दर बनाना है, तो इसके लिए किसी कुशल माली की नियुक्ति आवश्यक है। जब आवश्यकता हो तब सींचना, जब अधिक पानी भर गया हो तो उसे बाहर निकाल देना, समय पर गोड़ना, निराई करना, अनावश्यक टहनियों को छाँटना, खाद देना, पशुओं को चरने न देने की रखवाली करना आदि बातों के सम्बन्ध में माली सदा सजग रहता है, फलस्वरूप बगीचा हरा-भरा, फला-फूला, सुन्दर और समुन्नत रहता है।
मनुष्य का मस्तिष्क एक बगीचा है; इसमें नाना प्रकार के मनोभाव, विचार, संकल्प, इच्छा, वासना, योजना रूपी वृक्ष उगते हैं, उनमें से कितने ही अनावश्यक और कितने ही आवश्यक होते हैं। बगीचे में कितने ही पौधे झाड़-झंखाड़ जैसे अपने आप उग आते हैं, वे बढ़ें तो बगीचे को नष्ट कर सकते हैं, इसलिए माली उन्हें उखाड़ देता है और दूर-दूर से लाकर अच्छे-अच्छे बीज उसमें बोता है। गुरु अपने शिष्य के मस्तिष्क रूपी बगीचे का माली होता है। वह अपने क्षेत्र में से जंगली झाड़-झंखाड़ जैसे अनावश्यक संकल्पों, संस्कारों, आकर्षण और प्रभावों को उखाड़ता रहता है और अपनी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता एवं चतुरता के साथ ऐसे संस्कार बीज जमाता रहता है, जो उस मस्तिष्क रूपी बगीचे को बहुमूल्य बनाएँ।
कोई व्यक्ति यह सोचे कि मैं स्वयं ही अपना आत्मनिर्माण करूँगा, अपने आप अपने को सुसंस्कृत बनाऊँगा, मुझे किसी गुरु की आवश्यकता नहीं, तो ऐसा किया जा सकता है। आत्मा में अनन्त शक्ति है। अपना कल्याण करने की शक्ति उसमें मौजूद है, परन्तु ऐसे प्रयत्नों में कोई मनस्वी व्यक्ति ही सफल होते हैं। सर्व साधारण के लिए यह बात बहुत कष्टसाध्य है, क्योंकि बहुधा अपने दोष अपने को नहीं दीखते, जैसे अपनी आँखें अपने आपको स्वयं दिखाई नहीं देतीं। किसी दूसरे मनुष्य या दर्पण की सहायता से ही अपनी आँखों को देखा जा सकता है। जब कोई वैद्य, डॉक्टर बीमार होते हैं तो स्वयं अपना इलाज आप नहीं करते, क्योंकि अपनी नाड़ी स्वयं देखना, अपना निदान आप कर लेना साधारणतया बहुत कठिन होता है, इसलिए वे किसी दूसरे वैद्य या डॉक्टर से अपनी चिकित्सा कराते हैं।
कोई सुयोग्य व्यक्ति भी आत्मनिरीक्षण में सफल नहीं होते हैं। हम दूसरों की जैसी अच्छी आलोचना कर सकते हैं, दूसरों को जैसी नेक सलाह दे सकते हैं, वैसी अपने लिए नहीं कर पाते, कारण यह है कि अपने सम्बन्ध में आप निर्णय करना कठिन होता है। कोई अपराधी ऐसा नहीं जिसे यदि मजिस्ट्रेट बना दिया जाए, तो अपने अपराध के सम्बन्ध में उचित फैसला लिखे। निष्पक्ष फैसला करना हो तो किसी दूसरे जज का ही आश्रय लेना पड़ेगा। आत्मनिर्माण का कार्य भी ऐसा ही है जिसके लिए दूसरे सुयोग्य सहायक की, गुरु की आवश्यकता होती है।
समुचित बौद्धिक विकास की सुव्यवस्था के लिए ‘गुरु’ की नियुक्ति को भारतीय धर्म में आवश्यक माना गया है, ताकि मनुष्य की विचारधारा, स्वभाव, संस्कार, गुण, प्रकृति, आदतें, इच्छाएँ, महत्त्वाकांक्षायें, कार्य पद्धति आदि का प्रवाह उत्तम दिशा में हो सके, जिससे मनुष्य अपने आप में सन्तुष्ट, प्रसन्न, पवित्र और परिश्रमी रहे एवं दूसरों को अपनी उदारता तथा सद्व्यवहार से सुख पहुँचाए। इस प्रकार के सुसंस्कारित मनुष्य जिस देश में अधिक होंगे, वहाँ निश्चयपूर्वक सुख-शान्ति की, सुव्यवस्था की, पारस्परिक सहयोग की, प्रेम की, साथी-सहयोगियों की बहुलता रहेगी। हमारा पूर्व इतिहास साक्षी है कि सुसंस्कारित मस्तिष्क के भारतीय महापुरुषों ने कैसे महान् कार्य किये थे और इस भूमि पर किस प्रकार स्वर्ग को अवतरित कर दिया था।
हमारे पूर्वकालीन महान् गौरव की नींव में ऋषियों की दूरदर्शिता छिपी हुई है, जिसके अनुसार प्रत्येक भारतीय को अपना मानसिक परिष्कार कराने के लिए किसी उच्च चरित्र, आदर्शवादी, सूक्ष्मदर्शी विद्वान् के नियन्त्रण में रहना आवश्यक होता था। जो व्यक्ति मानसिक परिष्कार करने की आवश्यकता से जी चुराते थे, उन्हे ‘निगुरा’ की गाली दी जाती थी। ‘निगुरा’ शब्द का अपमान करीब-करीब ‘बिना बाप का’ या ‘वर्णसंकर’ कहे जाने के बराबर समझा जाता था। धन कमाना, विद्या पढ़ना, अस्त्र चलाना सभी बातें आवश्यक थीं, पर मानसिक परिष्कार तो सबसे अधिक आवश्यक था, क्योंकि असंस्कृत मनुष्य तो समाज का अभिशाप बनकर ही रहता है, भले ही उसके पास कितनी ही अधिक भौतिक सम्पदा क्यों न हो। गुरु को प्रत्यक्ष तीन देवों में, तीन परम पूज्यों में स्थान देने का यही कारण था।
दूषित वातावरण का प्रभाव
आज यह प्रथा टूट चली है। गुरु कहलाने के अधिकारी व्यक्तियों का मिलना मुश्किल है। जिनमें गुरु बनने की योग्यता है, वे अपने व्यक्तिगत, आत्मिक या भौतिक लाभों के सम्पादन में लगे हुए हैं। लोक सेवा, राष्ट्र-निर्माण की रचनात्मक प्रवृत्ति की ओर, सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व सिर पर लेने की ओर उनका ध्यान नहीं है। वे इसमें स्वल्प लाभ, अधिक झंझट और भारी बोझ अनुभव करते हैं। इसकी अपेक्षा वे दूसरे सरल तरीकों से अधिक धन और यश कमा लेने के अनेक मार्ग जब सामने देखते हैं, तो ‘गुरु’ का गहन उत्तरदायित्व ओढ़ने से कन्नी काट जाते हैं।
दूसरी ओर ऐसे अयोग्य व्यक्ति जिनका चरित्र, ज्ञान, अनुभव, विवेक आदि कुछ भी नहीं, जिनमें दूसरों को सुसंस्कृत करने की क्षमता होना तो दूर, अपने को सुसंस्कृत नहीं बना सके, ऐसे लोग पैर पुजाने और दक्षिणा लेने के लोभ में कान फूँकने लगे, खुशामद, दीनता और भिक्षावृत्ति का आश्रय लेकर शिष्य तलाश करने लगे, तो गुरुत्व की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। जिस काम को कुपात्र लोग हाथों में लेते हैं, वह अच्छा काम भी बदनाम हो जाता है और जिस साधारण काम को यदि भले व्यक्ति करने लगें, तो वह अच्छा हो जाता है। दीन-दुखियों के हाथ में रहने से चरखा ‘दुर्भाग्य’ का चिह्न समझा जाता था, पर गाँधीजी जैसे महापुरुष के हाथ का वही चरखा दीन-दुखियों के हाथ में पहुँचकर यज्ञ बन जाता है। ऋषियों के हाथ में जब तक ‘गुरुत्व’ था, तब तक उस पद की प्रतिष्ठा रही, पर आज जबकि कुपात्र, भिखारी और क्षुद्र लोग गुरु बनने का दुस्साहस करने लगे तो वह महान् पद ही बदनाम हो गया। आज ‘गुरु’ या ‘गुरुघण्टाल’ शब्द किसी पुराने पापी या धूर्तराज के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
लोगों ने देखा कि एक आदमी दक्षिणा भी लेता है, पैर भी पुजवाता है, पर वह किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं पहुँचाता, तो उनने भी इस व्यर्थ के झंझट को तोड़ देना उचित समझा। गुरु शिष्य की परम्परा शिथिल होने लगी और धीरे-धीरे उसका लोप होने लगा है। निष्प्रयोजन, निष्प्राण, निरुपायी होने पर जो परम्परायें खर्चीली हैं, वे देर तक जीवित नहीं रह सकतीं। अब बहुत कम मनुष्य रह गये हैं जो गुरु की नियुक्ति आवश्यक समझते हों या ‘निगुरा’ कहलाने में अपना अपमान समझते हों।
आज के दूषित वातावरण ने सभी दिशाओं में गड़बड़ी पैदा कर दी है। असली सोना कम है, पर नकली सोना बेहिसाब तैयार हो रहा है। असली घी मिलना मुश्किल है, पर वेजीटेबल घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। असली मोती, असली जवाहरात कम है, पर नकली मोती और इमीटेशन रत्न ढेरों बिकते हैं। इतना होते हुए भी असली चीजों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। लोग घासलेट घी को खूब खरीदते-बेचते हैं, पर इससे असली घी की उपयोगिता घट नहीं जाती। असंख्यों बड़बड़ियाँ होते रहने पर भी असली घी के गुण वही रहेंगे और उसके लाभों में कोई कमी न होगी। असली सोना, असली रत्न आदि भी इसलिए निरुपयोगी नहीं हो जाते कि नकली चीजों ने उस क्षेत्र को बदनाम कर दिया है। मिलावट, नकलीपन, धोखेधड़ी के हजार पर्वत मिलकर भी वास्तविकता का, वस्तुस्थिति का महत्त्व राई भर भी नहीं घटा सकते।
व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का निर्माण एक सच्चाई है, जो आज की विषम स्थिति में तो क्या, किसी भी बुरी से बुरी स्थिति में भी गलत सिद्ध नहीं हो सकती। रोटी बनानी होगी तो आटे की, पानी की, आग की जरुरत पड़ेगी। चाहे कैसा भी भला या बुरा समय हो, इस अनिवार्य आवश्यकता में कोई अन्तर नहीं आ सकता। अच्छे मनुष्य, सच्चे मनुष्य, प्रतिष्ठित मनुष्य, सुखी मनुष्य की रचना के लिए यह आवश्यक है कि अच्छे, सुयोग्य और दूरदर्शी मनुष्यों द्वारा हमारे मस्तिष्क का नियन्त्रण, संशोधन, निर्माण और विकास किया जाए। मनुष्य कोरे कागज के समान है। वह जैसा ग्रहण करेगा, जैसा सीखेगा वैसा करेगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित है कि यदि आरम्भिक अवस्था में प्रयत्नपूर्वक सद्गुण नहीं सिखाये जायेंगे, तो वह सामान्यत: बुराई की ओर ही झुकेगा। यदि बुराई से बचना है तो अच्छाई से सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक है। मनुष्य का मन खाली नहीं रह सकता; उसे अच्छाई का प्रकाश न मिलेगा, तो निश्चय ही बुराई के अन्धकार में रहना होगा।
शिक्षा और विद्या का महत्त्व
मनुष्य को सुयोग्य बनाने के लिए उसके मस्तिष्क को दो प्रकार से उन्नत किया जाता है- (1) शिक्षा द्वारा, (2) विद्या द्वारा। शिक्षा के अन्तर्गत वे सब बातें आती हैं, जो स्कूलों में, कॉलेजों में, ट्रेनिंग कैम्पों में, हाट-बाजारों में, घर में, दुकान में, समाज में सिखाई जाती हैं। गणित, भूगोल, इतिहास, भाषा, शिल्प, व्यायाम, रसायन, चिकित्सा, निर्माण, व्यापार, कृषि, संगीत, कला आदि बातें सीखकर मनुष्य व्यवहार कुशल, चतुर, कमाऊ, लोकप्रिय एवं शक्ति सम्पन्न बनता है। विद्या द्वारा मनोभूमि का निर्माण होता है। मनुष्य की इच्छा, भावना, श्रद्धा, मान्यता, रुचि एवं आदतों को अच्छे ढाँचे में ढालना विद्या का काम है। चौरासी लाख योनियों में घूमते हुए आने का कारण पिछले पाशविक संस्कारों में मन भरा रहता है, उनका संशोधन करना विद्या का काम है। यदि मनुष्य इससे वञ्चित रह जाये तो फिर उसका जीवन अविकसित, अनुपयोगी और अपने तथा समाज के लिए भार स्वरूप बना जाता है।
शिक्षक शिक्षा देता है। शिक्षा का अर्थ है-सांसरिक ज्ञान। विद्या का अर्थ है-मनोभूमि की सुव्यवस्था। शिक्षा आवश्यक है, पर विद्या उससे भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा बढ़नी चाहिए, पर विद्या का विस्तार उससे भी अधिक होना चाहिए, अन्यथा दूषित मनोभूमि रहते हुए यदि सांसारिक सामर्थ्य बढ़ी तो उसका परिणाम भयंकर होगा। धन की, चतुरता की, विज्ञान की इन दिनों बहुत उन्नति हुई है, पर यह स्पष्ट है कि उन्नति के साथ-साथ हम सर्वनाश की ओर बढ़ रहे हैं। कम साधन होते हुए भी विद्वान् मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु केवल बौद्धिक या सांसारिक शक्तियाँ होने पर दूषित मनोभूमि का मनुष्य अपने लिये तथा दूसरों के लिए केवल विपत्ति, चिन्ता, कठिनाई, क्लेश एवं बुराई ही उत्पन्न कर सकता है। इसलिए विद्या पर उतना ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक जोर दिया जाना चाहिए जितना कि शिक्षा पर दिया जाता है।
आज हम अपने बालकों को गे्रजुएट बना देने के लिए ढेरों पैसा खर्च करते हैं, पर उनकी आन्तरिक भूमिका को सुव्यवस्थित करने की शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं करते। फलस्वरूप शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भी वे बालक अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति कोई आदर्श व्यवहार नहीं कर पाते। किसी भी ओर उनकी प्रगति ऐसी नहीं होती, जो प्रसन्नतादायक हो। शिक्षा के साथ उनमें जो अनेक दुर्गुण आ जाते हैं, उन दुर्गुणों में ही उनकी योग्यता द्वारा होने वाली कमाई बर्बाद होती रहती है।
इस तथ्य को हमारे पूर्वज जानते थे कि शिक्षा से भी विद्या का महत्त्व अधिक है, इसलिए वे छोटी सी आयु में अपने बच्चों को गुरु का नियन्त्रण स्थापित करा देते थे। गुरु लोग अपने गम्भीर ज्ञान, विशाल अनुभव, सूक्ष्मदर्शी विवेक और उज्ज्वल चरित्र द्वारा शिष्य को प्रभावित करके उनकी मनोभूमि का निर्माण करते थे। अपनी प्रचण्ड शक्ति-किरणों द्वारा उनके अन्त:करण में ऐसे बीज अंकुरित कर देते थे, जो फलने-फूलने पर उस व्यक्ति को महापुरुष सिद्ध करें।
गायत्री द्वारा द्विजत्व की प्राप्ति
भारतीय धर्म के अनुसार गुरु की आवश्यकता प्रत्येक भारतीय के लिए है। जैसे ईश्वर के प्रति, शास्त्रों के प्रति, भारतीय आचार के प्रति, ऋषियों और देवताओं के प्रति आस्था एवं आदर बुद्धि का होना भारतीय धर्म के अनुयायियों के लिए आवश्यक है, वैसे ही यह आवश्यक है कि वह ‘निगुरा’ न हो। उसे किसी सुयोग्य सत्पुरुष का ऐसा पथ-प्रदर्शन प्राप्त होना चाहिए, जो उनके सर्वांगीण विकास में सहायता दे सके। किसी भी मनुष्य के सुसंस्कृत, सभ्य होने का मार्ग यही है कि योग्य शिक्षक या गुरु से सद्गुणों और सत्कर्मों का प्रशिक्षण प्राप्त करे। इसके बिना मानव पद की सार्थकता कठिन ही रहती है।
सम्भ्र्रान्त भारतीय धर्मानुयायी को द्विज कहते हैं। द्विज वह है जिसका दो बार जन्म हुआ है। एक बार माता-पिता के रज-वीर्य से सभी का जन्म होता है। इस तरह मनुष्य जन्म पा लेने से कोई मनुष्य प्रतिष्ठित आर्य नहीं बन सकता। केवल जन्म मात्र से मनुष्य का गौरव नहीं। कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो पशुओं से भी गये बीते हैं। स्वभावत: जन्मजात पशुता तो प्राय: सभी में होती है। इस पशुता का मनोविज्ञान द्वारा परिष्कार किया जाता है, इस परिष्कार की पद्धति को द्विजत्व या दूसरा जन्म कहते हैं।
शास्त्रों द्वारा बताया गया है कि ‘‘जन्मना जायते शूद्र:, संस्कारात् द्विज उच्यते।’’ अर्थात् जन्म से सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं, संस्कारों द्वारा, प्रभावों द्वारा मनुष्य का दूसरा जन्म होता है। यह दूसरा जन्म माता गायत्री और पिता आचार्य द्वारा होता है। गायत्री के २४ अक्षरों में ऐसे सिद्धान्त और आदर्श सन्निहित हैं, जो मानव अन्त:करण को उच्च स्तर पर विकसित करने के प्रधान आधार हैं। समस्त वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र आदि गन्थों में जो कुछ भी शिक्षा है, वह गायत्री के अक्षरों में सन्निहित शिक्षाओं की व्याख्या मात्र है। समस्त भारतीय धर्म, समस्त भारतीय आदर्श, समस्त भारतीय संस्कृति का सर्वस्व गायत्री के २४ अक्षरों में बीज रूप में मौजूद है, इसलिए द्विज के लिए, दूसरे जन्म के लिए गायत्री माता को माना गया है।
पर ये शिक्षाएँ केवल मन्त्र याद कर लेने या पुस्तकों में लिखी हुई बातें पढ़ लेने मात्र से हृदयंगम नहीं हो सकतीं। पढ़ने से किसी बात की जानकारी तो हो जाती है, पर हृदय में उनका प्रवेश करा देना किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा ही हो सकता है। दीपक को दीपक से जलाया जाता है, अग्रि से अग्रि उत्पन्न होती है, साँचे में वस्तुएँ ढाली जाती हैं, व्यक्तियों से व्यक्तियों का निर्माण होता है। इसलिए गायत्री की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप से जीवन में घुला देने का कार्य न तो अपने आप किया जा सकता है और न उसके पढ़ने मात्र से होता है, उसके लिए किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति की आवश्यकता होती है। ऐसे व्यक्ति को गुरु कहते हैं। दूसरे जन्म का, द्विजत्व का, आदर्श जीवन का पिता गुरु को माना गया है।
गुरु द्वारा गायत्री की जो शिक्षायें दी जाती हैं, उनको भली प्रकार हृदयंगम करने, सदा छाती से चिपकाये रहने, उसका पूरी तरह प्रयोग करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर रखा हुआ अनुभव करने की बात हर समय आँखों के आगे रहे, इसके लिए द्विजत्व का प्रतीक यज्ञोपवीत पहना दिया जाता है। यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है। गायत्री में नौ पद हैं— १- तत्, २-सवितुर्, ३-वरेण्यं, ४-भर्गो, ५-देवस्य, ६-धीमहि, ७-धियो, ८-यो न:, ९-प्रचोदयात्। यज्ञोपवीत में ९ धागे हैं, प्रत्येक धागा गायत्री के एक-एक पद का प्रतीक है। यज्ञोपवीत में तीन ग्रन्थियाँ और एक अन्तिम ब्रह्मग्रन्थि होती है। बड़ी ग्रन्थि ‘ॐ’ की और शेष तीन ‘भू:’, ‘भुव:’, ‘स्व:’ की प्रतीक हैं। जैसे पत्थर या धातु की मूर्ति में देवता की प्रतिष्ठा करके उसकी पूजा की जाती है, वैसे ही गायत्री की मूर्ति सूत की बनाकर हृदय-मन्दिर पर प्रतिष्ठित की जाती है। मन्दिर में मूर्ति के सम्मुख हर घड़ी नहीं रहा जा सकता, पर गायत्री की प्रतिमा, यज्ञोपवीत का तो हर घड़ी पास रहना आवश्यक है, उसे तो क्षण भर के लिए भी अलग नहीं किया जा सकता। वह तो हर घड़ी हृदय के ऊपर झूलता रहता है। उसका बोझ तो हर घड़ी कन्धे पर रखा रहता है। इस प्रकार गायत्री पूजा को, गायत्री की प्रतिमा को, गायत्री की शिक्षा को जीवन-संगिनी बनाया गया है। कोई प्रतिष्ठित भारतीय धर्मानुयायी यज्ञोपवीत को छोड़ नहीं सकता, उसकी महत्ता की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता।
कहा जाता है गायत्री का अधिकार केवल द्विजों को हैं। द्विजत्व का तात्पर्य-गुरु द्वारा गायत्री को ग्रहण करना। जो लोग अश्रद्धालु हैं, आत्मनिर्माण से जी चुराते हैं, आदर्श जीवन बिताने से उदासीन हैं, जिनकी सन्मार्ग में प्रवृत्ति नहीं, ऐसे लोग ‘शूद्र’ कहे जाते हैं। जो दूसरे जन्म का, आदर्श जीवन का, मनुष्य की महानता का, सन्मार्ग का अवलम्बन नहीं करना चाहते, ऐसे लोगों का जन्म पाशविक ही कहा जायेगा, ऐसे लोग गायत्री में क्या रुचि लेंगे? जिनकी जिस मार्ग में श्रद्धा न होगी, वह उसमें क्या सफलता प्राप्त करेगा? इसलिए ठीक ही कहा गया है कि शूद्रों को गायत्री का अधिकार नहीं। इस महाविद्या का अधिकारी वही है, जो आत्मिक कायाकल्प का लक्ष्य रखता है, जिसे पाशविक जीवन की अपेक्षा उच्च जीवन पर आस्था है और जो द्विज बनकर सैद्धान्तिक जन्म लेकर सत्पुरुष बनना चाहता है। वर्तमान समय में इस सिद्धान्त को भूलकर लोंगो ने जाति परम्परा के आधार पर द्विजत्व मानना आरम्भ कर दिया है, इसी से अनेक दोष उत्पन्न हो रहे हैं।
उत्कीलन और शाप विमोचन
शास्त्रों में बताया गया है कि गायत्री मन्त्र कीलित है, उसका जब तक उत्कीलन न हो जाए, तब तक वह फलदायक नहीं होता। यह कहा गया है कि गायत्री को शाप लगा हुआ है। उस शाप का जब तक ‘अभिमोचन’ न कर लिया जाए, तब तक उससे कुछ लाभ नहीं होता। कीलित होने और शाप लगने के प्रतिबन्ध क्या हैं और उत्कीलन एवं अभिमोचन क्या हैं? यह विचारणीय बात है।
जैसे यह कहा जा सकता है कि-‘‘औषधि विद्या कीलित है।’’ क्योंकि अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो शरीर शास्त्र, निदान, निघण्टु, चिकित्सा विज्ञान की बारीकियों को नहीं समझता और अपनी अधूरी जानकारी के आधार पर अपनी चिकित्सा आरम्भ कर दे, तो उससे कुछ भी लाभ न होगा, उलटी हानि हो सकती है। यदि औषधि से कोई लाभ लेना हो तो किसी अनुभवी वैद्य की सलाह लेना आवश्यक है। आयुर्वेद ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा हुआ है, उन्हें पढ़कर बहुत सी बातें जानी जा सकती हैं, फिर भी वैद्य की आवश्यकता तो है ही। वैद्य के बिना हजारों रुपये के चिकित्सा ग्रन्थ और लाखों रुपये का औषधालय भी रोगी को कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकता। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि ‘‘औषधि विद्या कीलित है।’’ गायत्री महाविद्या के बारे में भी यही बात है। साधक की मनोभूमि के आधार पर साधना विधान में, नियम-उपनियमों में, आदर्शों में अनेक हेर-फेर करने होते हैं, सबकी साधना एक-सी नहीं हो सकती, ऐसी दशा में उस व्यक्ति का पथ-प्रदर्शन आवश्यक है जो इस विद्या का ज्ञाता एवं अनुभवी हो। जब तक ऐसा निर्देशक न मिले, तब तक औषधि विद्या की तरह गायत्री विद्या भी साधक के लिए कीलित ही रहेगी। उपयुक्त निर्देशक का मिल जाना ही उत्कीलन है। ग्रन्थों में बताया गया है कि गुरु द्वारा ग्रहण करायी गई गायत्री ही उत्कीलित होती है, वही सफल होती है।
स्कन्द पुराण में वर्णन है कि एक बार वसिष्ठ, विश्वामित्र और ब्रह्मा ने क्रुद्ध होकर गायत्री को शाप दिया कि ‘उसकी साधना निष्फल होगी।’ इतनी बड़ी शक्ति के निष्फल होने से हाहाकर मच गया। तब देवताओं ने प्रार्थना की कि इन शापों का विमोचन होना चाहिये। अन्त में ऐसा मार्ग निकाला गया कि जो शाप विमोचन विधि को पूरा करके गायत्री की साधना करेगा, उसका प्रयत्न सफल होगा और शेष लोंगो का श्रम निरर्थक जायेगा। इस कथन में एक भारी रहस्य छिपा हुआ है जिसे न जानने वाले केवल ‘‘शापमुक्तो भव’’ वाले मन्त्र को पढ़ लेने मात्र से यह मान लेते हैं कि हमारी साधना शापमुक्त हो गई।
विश्वामित्र का अर्थ है-संसार का मित्र, लोकसेवी, परोपकारी। वसिष्ठ का अर्थ है-विशेष रूप से श्रेष्ठ, ब्रह्मा का अर्थ है-ब्रह्मपरायण। इन तीन गुणों वाले पथ-प्रदर्शक के आदेशानुसार होने वाले आध्यात्मिक प्रयत्न ही सफल एवं कल्याणकारी होते हैं।
स्वार्थी, दूसरे का बुरा करने को उद्यत, वाममार्गी मनोवृत्ति का मनुष्य यदि साधक को वैसी ही साधना सिखायेगा, तो वह अपना और शिष्य दोनों का नाश करेगा। जिसका चरित्र उच्च नहीं, जो उदार नहीं, जिसमें महानता और प्रतिभा नहीं, वह दूसरों का नया निर्माण क्या करेगा? इसी प्रकार जो ब्रह्मपरायण नहीं, जिसकी साधना एवं तपस्या नहीं, ऐसा गुरु किसी की आत्मा में क्या प्रकाश दे सकेगा? तात्पर्य यह है कि विश्वामित्र- उदार, वसिष्ठ-महानता युक्त, ब्रह्मा-ब्रह्मपरायण, इन तीनों गुणों से युक्त निर्देशक जब किसी व्यक्ति का निर्माण करेगा, तो उसका प्रयत्न निष्फल नहीं जा सकता। इसके विपरीत कुपात्र, अयोग्य और अनुभवहीन व्यक्तियों की शिक्षानुसार की गई साधना तो इसी प्रकार व्यर्थ रहेगी, मानो किसी ने शाप देकर उसे निष्फल कर दिया हो। शाप लगने और उसके विमोचन करने का गुप्त रहस्य उपयुक्त मार्गदर्शक की अध्यक्षता में अपनी कार्यपद्धति का निर्माण करना ही है।
गायत्री मानव जीवन की जन्मदात्री, आधारशिला एवं बीज शक्ति है। भारतीय संस्कृति रूपी ज्ञान-गंगा की उद्गम भूमि गंगोत्री यह गायत्री ही है, इसलिए इसे द्विजों की माता कहा गया है। माता के पेट में रहकर मनुष्य देह का जन्म होता है, गायत्री माता के पेट में रहकर मनुष्य का आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक, दिव्य विशेषताओं वाला दूसरा जन्म होता है। परन्तु यह माता सर्वसम्पन्न होते हुए भी पिता के अभाव में अपूर्ण है। द्विजत्व का दूसरा शरीर माता और पिता दोनों के ही तत्त्वबिन्दुओं से निर्मित होता है। गायत्री माता की अदृश्य सत्ता को गुरु द्वारा ही ठीक प्रकार से शिष्य की मनोभूमि में आरोपित किया जाता है। इसीलिए जब द्विजत्व का संस्कार होता है, तो इस दूसरे आध्यात्मिक जन्म में गायत्री को माता और आचार्य को पिता घोषित किया जाता है।
उच्च आदर्शों की शिक्षा न तो अपने आप ही प्राप्त होती है, न केवल आधार ग्रन्थों से। हीन चरित्र के अयोग्य व्यक्ति उच्च आदर्शों की ओर दूसरों को आकर्षित नहीं कर सकते। बढ़िया धनुष-बाण पास होते हुए भी कोई व्यक्ति स्वयं शब्दवेधी बाण चलाने वाला नहीं बन सकता और न अनाड़ी शिक्षक द्वारा बाण-विद्या में पारंगत बना जा सकता है। अच्छा शिक्षक और अच्छा धनुष-बाण दोनों मिलकर ही सफल परिणाम उपस्थित करते हैं। गायत्री के कीलित एवं शापित होने का और उसके उत्कीलन एवं शाप विमोचन करने का यही रहस्य है।