Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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देवियों की गायत्री साधना
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प्राचीनकाल में गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, अनसूया, अरुन्धती, देवयानी, अहल्या, कुन्ती, सतरूपा, वृन्दा, मन्दोदरी, तारा, द्रौपदी, दमयन्ती, गौतमी, अपाला, सुलभा, शाश्वती, उशिजा, सावित्री, लोपामुद्रा, प्रतिशेयी, वैशालिनी, बैंदुला, सुनीति, शकुन्तला, पिङ्गला, जरुत्कार, रोहिणी, भद्रा, विदुला, गान्धारी, अञ्जनी, सीता, देवहूति, पार्वती, अदिति, शची, सत्यवती, सुकन्या, शैव्या अदि महासतियाँ वेदज्ञ और गायत्री उपासक रही हैं। उन्होंने गायत्री शक्ति की उपासना द्वारा अपनी आत्मा को समुन्नत बनाया था और यौगिक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उन्होंने सधवा और गृहस्थ रहकर सावित्री की आराधना में सफलता प्राप्त की थी। इन देवियों का विस्तृत वृत्तान्त, उनकी साधनाओं और सिद्धियों का विर्णन करना यहाँ सम्भव नहीं है। जिन्होंने भारतीय पुराण- इतिहासों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि उपर्युक्त देवियाँ विद्वत्ता, साहस, शौर्य, दूरदर्शिता, नीति, धर्म, साधना, आत्मोन्नति आदि पराक्रमों में अपने ढंग की अनोखी जाज्वल्यमान तारिकाएँ थीं। उन्होंने समय- समय पर ऐसे चमत्कार उपस्थित किये हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्य में रह जाना पड़ता है।
प्राचीनकाल में सावित्री ने एक वर्ष तक गायत्री जप करके वह शक्ति प्राप्त की थी जिससे वह अपने मृत पति सत्यवान् के प्राणों को यमराज से लौटा सकी। दमयन्ती का तप ही था जिसके प्रभाव ने कुचेष्टा करने का प्रयत्न करने वाले व्याध को भस्म कर दिया था। गान्धारी आँखों से पट्टी बाँधकर ऐसा तप करती थी, जिससे उसके नेत्रों में वह शक्ति उत्पन्न हो गयी थी कि उसके दृष्टिपात मात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया था। अनसूया ने तप से ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नन्हें बालक बना दिया था। सती शाण्डिली के तपोबल ने सूर्य का रथ रोक दिया था। सुकन्या की तपस्या से जीर्ण- शीर्ण च्यवन ऋषि तरुण हो गये थे। स्त्रियों की तपस्या का इतिहास पुरुषों से कम शानदार नहीं है। यह स्पष्ट है कि स्त्री और पुरुष सभी के लिए तप का प्रमुख मार्ग गायत्री ही है।
वर्तमान समय में भी अनेक नारियों की गायत्री साधना का हमें भलीभाँति परिचय है और वह भी पता है कि इसके द्वारा उन्होंने कितनी बड़ी मात्रा में आत्मिक और सांसारिक सुख- शान्ति की प्राप्ति की है।
एक सुप्रसिद्ध इंजीनियर की धर्मपत्नी श्रीमती प्रेमप्यारी देवी को अनेक प्रकार की पारिवारिक कठिनाइयों से होकर गुजरना पड़ा है। उनने अनेक संकटों के समय गायत्री का आश्रय लिया और विषम परिस्थितियों से छुटकारा पाया है।
दिल्ली के एक अत्यन्त उच्च परिवार की सुशिक्षित देवी श्रीमती चन्द्रकान्ता जेरथ बी. ए. गायत्री की अनन्य साधिका हैं। इन्होंने इस साधना द्वारा बीमारियों की पीड़ा दूर करने में विशेष सफलता प्राप्त की है। दर्द से बेचैन रोगी इनके अभिमन्त्रित हस्त स्पर्श से आराम अनुभव करता है। इन्हें गायत्री में इतनी तन्मयता है कि सोते हुए भी जप अपने आप होता रहता है।
नगीना के प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री की धर्मपत्नी श्रीमती मेधावती देवी को बचपन में गायत्री साधना के लिए अपने पिताजी से प्रोत्साहन मिला था। तब से अब तक वे इस साधना को प्रेमपूर्वक चला रही हैं। कई चिन्ताजनक अवसरों पर गायत्री की कृपा से उनकी मनोकामना पूर्ण हुई है।
शिलोंग की एक सती साध्वी महिला श्रीमती गुणवन्ती देवी के पतिदेव की मृत्यु २० वर्ष की आयु में हो गयी थी। गोदी में डेढ़ वर्ष का पुत्र था। उनको तथा उनके श्वसुर को इस मृत्यु का भारी आघात लगा और दोनों ही शोक से पीडि़त होकर अस्थि- पिंजर मात्र रह गये। एक दिन एक ज्ञानी ने उनके श्वसुर को गायत्री जप का उपदेश किया। शोक निवारणार्थ वे उस जप को करने लगे। कुछ दिन बाद गुणवन्ती देवी को स्वप्र में एक तपस्विनी ने दर्शन दिए और कहा, किसी प्रकार की चिन्ता न करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी, मेरा नाम गायत्री है। कभी आवश्यकता हुआ करे, तो मेरा स्मरण किया करो। स्वप्न टूटने पर दूसरे ही दिन से उन्होंने गायत्री साधना आरम्भ कर दी। पिछले १३ वर्षों से अनेक आपत्तियाँ उन पर आयीं और वे सब टल गयीं।
हैदराबाद (सिन्ध) की श्रीमती विमलादेवी की सास बड़ी कर्कश स्वभाव की थी और पतिदेव शराब, वेश्यागमन आदि बुरी लतों में डूबे रहते थे। विमला देवी को आये दिन सास एवं पति की गाली- गलौज तथा मार- पीट का सामना करना पड़ता था। इससे वे बड़ी दुःखी रहतीं और कभी- कभी आत्महत्या करने को सोचतीं। विमला की बुआ ने उसे विपत्ति निवारिणी गायत्री माता की उपासना करने की शिक्षा दी। वह गायत्री माता की उपासना करने लगी। फल आशातीत हुआ। थोड़े दिनों में सास और पति को बड़ा भयंकर स्वप्र हुआ कि उसके कुकर्मों के लिए कोई देवदूत उसे मृत्युतुल्य कष्ट दे रहे हैं। जब स्वप्न टूटा तो उस भय का आतंक कई महीनों तक उन पर रहा और उसी दिन से स्वभाव सीधा हो गया। अब वह परिवार पूर्ण प्रसन्न और सन्तुष्ट है। विमला का दृढ़ विश्वास है कि उसके घर को आनन्दमय बनाने वाली माता गायत्री ही हैं। वर्षों से उनका नियम है कि जप किये बिना भोजन नहीं करतीं।
वारीसाल (बंगाल) के उच्च अफसर की धर्मपत्नी श्रीमती हेमलता चटर्जी को तैंतीस वर्ष की आयु तक कोई सन्तान न हुई। उसके पतिदेव तथा घर के अन्य व्यक्ति इससे बड़े दु:खी रहते थे और कभी- कभी उसके पतिदेव का दूसरा विवाह होने की चर्चा होती रहती थी। हेमलता को इससे अधिक मानसिक कष्ट रहता था और उन्हें मूर्छा का रोग हो गया था। किसी साधक ने उन्हें गायत्री साधना की विधि बताई। वे श्रद्धापूर्वक उपासना करने लगीं। ईश्वर की कृपा से एक वर्ष बाद उनकी एक कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम ‘गायत्री’ रखा गया। इसके बाद दो- दो वर्ष के अन्तर से दो पुत्र और हुए। तीनों बालक स्वस्थ हैं। इस परिवार में गायत्री की बड़ी मान्यता है।
गुजरानवाला की सुन्दरी बाई को पहले कण्ठमाला रोग था। वह थोड़ा अच्छा हुआ तो प्रदर रोग भयंकर रूप से हो गया। हर घड़ी लाल पानी बहता रहता। कई साल इस प्रकार बीमार पड़े रहने के कारण उनका शरीर अस्थि मात्र रह गया था। चमड़ी और हड्डियों के बीच मांस का नाम भी दिखाई नहीं पड़ता था। आँखें गड्ढे में धँस गयी थीं। घर के लोग उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे थे। ऐसी स्थिति में उन्हें एक पड़ोसिन ब्राह्मणी ने बताया कि गायत्री माता तरणतारिणी हैं, उनका ध्यान करो। सुन्दरी बाई के मन में बात जँच गयी। वे चारपाई पर पड़े- पड़े जप करने लगी। ईश्वर की कृपा से वे धीरे- धीरे स्वस्थ होने लगीं और बिलकुल नीरोग हो गईं। दो वर्ष बाद उनके पुत्र उत्पन्न हुआ, जो भला चंगा और स्वस्थ है।
गोदावरी जिले की बसन्ती देवी को भूतोन्माद था। भूत- प्रेत उनके सिर पर चढ़े रहते थे। १२ वर्ष की आयु में वे बिलकुल बुढ़िया हो गई थीं। उसके पिता इस व्याधि से अपनी पुत्री को छुटाकारा दिलाने के लिए काफी खर्च, परेशानी उठा चुके थे, पर कोई लाभ नहीं होता था। अन्त में उन्होंने गायत्री पुरश्चरण कराया और उससे लड़की की व्याधि दूर हो गई।
भार्थू के डाक्टर राजाराम शर्मा की पुत्री सावित्री देवी गायत्री की श्रद्धालु उपासिका हैं। उसने देहात में रहकर आयुर्वेद का उच्च अध्ययन किया और परीक्षा के दिनों में बीमार पड़ जाने पर भी आयुर्वेदाचार्य की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई।
कानपुर के पं० अयोध्या प्रसाद दीक्षित की धर्मपत्नी शान्तिदेवी मिडिल पास थीं। ११ वर्ष तक पढ़ाई छोडक़र परिवार के झंझटों में लगी रहीं। एक वर्ष अचानक उन्होंने मैट्रिक का फार्म भर दिया और गायत्री उपासना के बल से थोड़ी सी तैयारी में उत्तीर्ण हो गयीं।
बालापुर की सावित्री दुबे के पति की मृत्यु अठारह वर्ष की आयु में हो गयी थी। वे अत्यधिक रोगग्रस्त रहती थीं। सूखकर काँटा हो गयी थीं। एक दिन उनके पति ने स्वप्न में उनसे कहा कि तुम गायत्री उपासना किया करो, इससे मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी और तुम्हारा वैधव्य परम शान्तिपूर्वक व्यतीत हो जायेगा। उसने पति की आज्ञानुसार वैसा ही किया, तो परिवार में रहते हुए भी उच्चकोटि के महात्मा की स्थिति को प्राप्त हो गईं। वह जो बात जबान से कह देती थी, वह सत्य होकर रहती थी।
कटक जिले के रामपुर ग्राम में एक लुहार की कन्या सोनाबाई को स्वप्न में नित्य और जाग्रत् अवस्था में कभी- कभी गायत्री के दर्शन होते हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ प्राय: ठीक उतरती हैं।
मुरीदपुर की सन्तोषकुमारी बचपन में बड़ी मन्दबुद्धि थी। उनके पिता ने उनको पढ़ाने के लिए बहुत प्रयत्न किए, पर सफलता न मिली। भाग्यदोष समझकर सब लोग चुप हो गए। विवाह हुआ, विवाह के चार वर्ष बाद वह विधवा हो गई। वैधव्य को काटने के लिए उसने ग गायत्री की आराधना आरम्भ कर दी। एक रात को स्वप्न में गायत्री ने दर्शन दिए ओर कहा- ‘मैंने तेरी बुद्धि तीक्ष्ण कर दी है। विद्या पढ़, तेरा जीवन सफल होगा।’ दूसरे दिन उसे पढऩे में उत्साह आया। बुद्धि तीक्ष्ण हो गयी थी, सो कुछ ही वर्षों में मैट्रिक पास कर लिया। आज वह स्त्री शिक्षा के प्रचार में बड़ी तत्परता से लगी हुई हैं।
रंगपुर बंगाल की श्रीमती सरला चौधरी के कई बच्चे मर चुके थे। एक भी बच्चा जीवित न रहने से वे बहुत दु:खी रहती थीं। उन्हें गायत्री साधना बतायी गयी, जिसको अपनाकर उसने तीन पुत्रों की माता कहलाने का सुख पाया।
टेहरी की एक अध्यापिका गुलाबदेवी को प्रसवकाल में मृत्युतुल्य कष्ट होता था। एक बार उन्होंने गायत्री की प्रशंसा सुनी और उसे अपनाकर साधना करने लगीं। बाद में उन्हें चार प्रसव हुए और सभी सुखपूर्वक हो गये।
मूलतान की सुन्दरीबाई स्वयं बहुत कमजोर थीं। उनके बच्चे भ कमजोर थे और उनमें से कोई न कोई बीमार पड़ा रहता था। अपनी दुर्बलता और बच्चों की बीमारी से रोना- खीझना उन्हें कष्टकर होता था। इस विपत्ति से उन्हें गायत्री ने छुड़ाया। बाद में वे सपरिवार स्वस्थ रहने लगीं।
उदयपुर की मारवाड़ी महिला ज्ञानवती रूप- रंग की अधिक सुन्दर न होने के कारण पति को प्रिय न थीं। पति का व्यवहार उनसे सदा रूखा, कर्कश, उपेक्षापूर्ण रहता था और घर रहते हुए भी परदेश के समान दोनों में बेलगाव रहता था। ज्ञानवती की मौसी ने गायत्री का पूजन और रविवार का व्रत रखने का उपाय बताया। वह तपश्चर्या निरर्थक नहीं गयी। साधिका को आगे चलकर पति का प्रेम प्राप्त हुआ और उसका दाम्पत्य जीवन सुखमय बीता।
भीलवाड़ा में एक सरमणि नामक स्त्री बड़ी तान्त्रिक थी। उसे वहाँ के लोग डायन समझते थे। एक वयोवृद्ध संन्यासी ने उसे गायत्री की दीक्षा दी। तब से उसने सब छोडक़र भगवान् की भक्ति में चित्त लगाया और साधु जीवन व्यतीत करने लगी।
बहरामपुर के पास एक कुँआरी कन्या गुफा बनाकर दस वर्ष की आयु से तपस्या कर रही थी। चालीस वर्ष की आयु में भी उसके चेहरे का तेज ऐसा था कि आँखें झपक जाती थीं। उसके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग आते थे। इस देवी की इष्ट गायत्री थी। वह सदा गायत्री का जप करती रहती थी।
मीराबाई, सहजोबाई, रन्तिवती, लीलावती, दयाबाई, अहल्याबाई, सखूबाई, मुक्ताबाई प्रभृति अनेकों ईश्वर भक्त वैरागिनी हुई हैं, जिनका जीवन विरक्त और परमार्थ पूर्ण रहा। इनमें से कइयों ने गायत्री की उपासना करके अपने भक्ति भाव और वैराग्य को बढ़ाया था।
इस प्रकार अनेक देवियाँ इस श्रेष्ठ साधना से अपनी आध्यात्मिक उन्नति करती आई हैं और सांसारिक सुख- समृद्धि की प्राप्ति एवं आपत्तियों से छुटकारा पाने की प्रसन्नता का अनुभव करती रही हैं। विधवा बहिनों के लिए तो गायत्री साधना एक सर्वोपरि तपश्चर्या है। इससे शोक- वियोग की जलन बुझती है, बुद्धि में सात्त्विकता आती है, चित्त ईश्वर की ओर लगता है। नम्रता, सेवा, शील, सदाचार, निरालस्यता, सादगी, धर्मरुचि, स्वाध्यायप्रियता, आस्तिकता एवं परमार्थपरायणता के तत्त्व बढ़ते हैं। गायत्री साधना की तपश्चर्या का आश्रय लेकर अनेक ऐसी बाल- विधवाओं ने अपना जीवन सती- साध्वी जैसा बिताया है, जिनकी कम आयु देखकर अनेक आशंकाएँ की जाती थीं। जब ऐसी बहिनों को गायत्री में तन्मयता होने लगती है, तो वे वैधव्य दु:ख को भूल जाती हैं और अपने को तपस्विनी, साध्वी, ब्रह्मवादिनी, उज्ज्वल चरित्र, पवित्र आत्मा अनुभव करती हैं। ब्रह्मचर्य तो उनका जीवन सहचर बनकर रहता है।
स्त्री और पुरुष, नर और नारी दोनों ही वर्ग वेदमाता गायत्री के कन्या- पुत्र हैं। दोनों आँखों के तारे हैं। वे किसी से भेद भाव नहीं करतीं। माता को पुत्र से कन्या अधिक प्यारी होती है। वेदमाता गायत्री की साधना पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के लिए अधिक सरल और अधिक शीघ्र फलदायिनी है।
नोट :— इस प्रसङ्ग में दिये गये सभी उदाहरण पुराने (५० के दशक के) हैं। अब तो शोध करने पर इस प्रकार के लाखों प्रामाणिक उदाहरण उपलब्ध हो सकते हैं। अपने साधना- अनुभव के आधार पर तेजस्वी देवियों ने बड़े- बड़े धर्माचार्यों को निरुत्तर करके गायत्री साधना को घर- घर पहुँचाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है।
प्राचीनकाल में सावित्री ने एक वर्ष तक गायत्री जप करके वह शक्ति प्राप्त की थी जिससे वह अपने मृत पति सत्यवान् के प्राणों को यमराज से लौटा सकी। दमयन्ती का तप ही था जिसके प्रभाव ने कुचेष्टा करने का प्रयत्न करने वाले व्याध को भस्म कर दिया था। गान्धारी आँखों से पट्टी बाँधकर ऐसा तप करती थी, जिससे उसके नेत्रों में वह शक्ति उत्पन्न हो गयी थी कि उसके दृष्टिपात मात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया था। अनसूया ने तप से ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नन्हें बालक बना दिया था। सती शाण्डिली के तपोबल ने सूर्य का रथ रोक दिया था। सुकन्या की तपस्या से जीर्ण- शीर्ण च्यवन ऋषि तरुण हो गये थे। स्त्रियों की तपस्या का इतिहास पुरुषों से कम शानदार नहीं है। यह स्पष्ट है कि स्त्री और पुरुष सभी के लिए तप का प्रमुख मार्ग गायत्री ही है।
वर्तमान समय में भी अनेक नारियों की गायत्री साधना का हमें भलीभाँति परिचय है और वह भी पता है कि इसके द्वारा उन्होंने कितनी बड़ी मात्रा में आत्मिक और सांसारिक सुख- शान्ति की प्राप्ति की है।
एक सुप्रसिद्ध इंजीनियर की धर्मपत्नी श्रीमती प्रेमप्यारी देवी को अनेक प्रकार की पारिवारिक कठिनाइयों से होकर गुजरना पड़ा है। उनने अनेक संकटों के समय गायत्री का आश्रय लिया और विषम परिस्थितियों से छुटकारा पाया है।
दिल्ली के एक अत्यन्त उच्च परिवार की सुशिक्षित देवी श्रीमती चन्द्रकान्ता जेरथ बी. ए. गायत्री की अनन्य साधिका हैं। इन्होंने इस साधना द्वारा बीमारियों की पीड़ा दूर करने में विशेष सफलता प्राप्त की है। दर्द से बेचैन रोगी इनके अभिमन्त्रित हस्त स्पर्श से आराम अनुभव करता है। इन्हें गायत्री में इतनी तन्मयता है कि सोते हुए भी जप अपने आप होता रहता है।
नगीना के प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री की धर्मपत्नी श्रीमती मेधावती देवी को बचपन में गायत्री साधना के लिए अपने पिताजी से प्रोत्साहन मिला था। तब से अब तक वे इस साधना को प्रेमपूर्वक चला रही हैं। कई चिन्ताजनक अवसरों पर गायत्री की कृपा से उनकी मनोकामना पूर्ण हुई है।
शिलोंग की एक सती साध्वी महिला श्रीमती गुणवन्ती देवी के पतिदेव की मृत्यु २० वर्ष की आयु में हो गयी थी। गोदी में डेढ़ वर्ष का पुत्र था। उनको तथा उनके श्वसुर को इस मृत्यु का भारी आघात लगा और दोनों ही शोक से पीडि़त होकर अस्थि- पिंजर मात्र रह गये। एक दिन एक ज्ञानी ने उनके श्वसुर को गायत्री जप का उपदेश किया। शोक निवारणार्थ वे उस जप को करने लगे। कुछ दिन बाद गुणवन्ती देवी को स्वप्र में एक तपस्विनी ने दर्शन दिए और कहा, किसी प्रकार की चिन्ता न करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी, मेरा नाम गायत्री है। कभी आवश्यकता हुआ करे, तो मेरा स्मरण किया करो। स्वप्न टूटने पर दूसरे ही दिन से उन्होंने गायत्री साधना आरम्भ कर दी। पिछले १३ वर्षों से अनेक आपत्तियाँ उन पर आयीं और वे सब टल गयीं।
हैदराबाद (सिन्ध) की श्रीमती विमलादेवी की सास बड़ी कर्कश स्वभाव की थी और पतिदेव शराब, वेश्यागमन आदि बुरी लतों में डूबे रहते थे। विमला देवी को आये दिन सास एवं पति की गाली- गलौज तथा मार- पीट का सामना करना पड़ता था। इससे वे बड़ी दुःखी रहतीं और कभी- कभी आत्महत्या करने को सोचतीं। विमला की बुआ ने उसे विपत्ति निवारिणी गायत्री माता की उपासना करने की शिक्षा दी। वह गायत्री माता की उपासना करने लगी। फल आशातीत हुआ। थोड़े दिनों में सास और पति को बड़ा भयंकर स्वप्र हुआ कि उसके कुकर्मों के लिए कोई देवदूत उसे मृत्युतुल्य कष्ट दे रहे हैं। जब स्वप्न टूटा तो उस भय का आतंक कई महीनों तक उन पर रहा और उसी दिन से स्वभाव सीधा हो गया। अब वह परिवार पूर्ण प्रसन्न और सन्तुष्ट है। विमला का दृढ़ विश्वास है कि उसके घर को आनन्दमय बनाने वाली माता गायत्री ही हैं। वर्षों से उनका नियम है कि जप किये बिना भोजन नहीं करतीं।
वारीसाल (बंगाल) के उच्च अफसर की धर्मपत्नी श्रीमती हेमलता चटर्जी को तैंतीस वर्ष की आयु तक कोई सन्तान न हुई। उसके पतिदेव तथा घर के अन्य व्यक्ति इससे बड़े दु:खी रहते थे और कभी- कभी उसके पतिदेव का दूसरा विवाह होने की चर्चा होती रहती थी। हेमलता को इससे अधिक मानसिक कष्ट रहता था और उन्हें मूर्छा का रोग हो गया था। किसी साधक ने उन्हें गायत्री साधना की विधि बताई। वे श्रद्धापूर्वक उपासना करने लगीं। ईश्वर की कृपा से एक वर्ष बाद उनकी एक कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम ‘गायत्री’ रखा गया। इसके बाद दो- दो वर्ष के अन्तर से दो पुत्र और हुए। तीनों बालक स्वस्थ हैं। इस परिवार में गायत्री की बड़ी मान्यता है।
गुजरानवाला की सुन्दरी बाई को पहले कण्ठमाला रोग था। वह थोड़ा अच्छा हुआ तो प्रदर रोग भयंकर रूप से हो गया। हर घड़ी लाल पानी बहता रहता। कई साल इस प्रकार बीमार पड़े रहने के कारण उनका शरीर अस्थि मात्र रह गया था। चमड़ी और हड्डियों के बीच मांस का नाम भी दिखाई नहीं पड़ता था। आँखें गड्ढे में धँस गयी थीं। घर के लोग उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे थे। ऐसी स्थिति में उन्हें एक पड़ोसिन ब्राह्मणी ने बताया कि गायत्री माता तरणतारिणी हैं, उनका ध्यान करो। सुन्दरी बाई के मन में बात जँच गयी। वे चारपाई पर पड़े- पड़े जप करने लगी। ईश्वर की कृपा से वे धीरे- धीरे स्वस्थ होने लगीं और बिलकुल नीरोग हो गईं। दो वर्ष बाद उनके पुत्र उत्पन्न हुआ, जो भला चंगा और स्वस्थ है।
गोदावरी जिले की बसन्ती देवी को भूतोन्माद था। भूत- प्रेत उनके सिर पर चढ़े रहते थे। १२ वर्ष की आयु में वे बिलकुल बुढ़िया हो गई थीं। उसके पिता इस व्याधि से अपनी पुत्री को छुटाकारा दिलाने के लिए काफी खर्च, परेशानी उठा चुके थे, पर कोई लाभ नहीं होता था। अन्त में उन्होंने गायत्री पुरश्चरण कराया और उससे लड़की की व्याधि दूर हो गई।
भार्थू के डाक्टर राजाराम शर्मा की पुत्री सावित्री देवी गायत्री की श्रद्धालु उपासिका हैं। उसने देहात में रहकर आयुर्वेद का उच्च अध्ययन किया और परीक्षा के दिनों में बीमार पड़ जाने पर भी आयुर्वेदाचार्य की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई।
कानपुर के पं० अयोध्या प्रसाद दीक्षित की धर्मपत्नी शान्तिदेवी मिडिल पास थीं। ११ वर्ष तक पढ़ाई छोडक़र परिवार के झंझटों में लगी रहीं। एक वर्ष अचानक उन्होंने मैट्रिक का फार्म भर दिया और गायत्री उपासना के बल से थोड़ी सी तैयारी में उत्तीर्ण हो गयीं।
बालापुर की सावित्री दुबे के पति की मृत्यु अठारह वर्ष की आयु में हो गयी थी। वे अत्यधिक रोगग्रस्त रहती थीं। सूखकर काँटा हो गयी थीं। एक दिन उनके पति ने स्वप्न में उनसे कहा कि तुम गायत्री उपासना किया करो, इससे मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी और तुम्हारा वैधव्य परम शान्तिपूर्वक व्यतीत हो जायेगा। उसने पति की आज्ञानुसार वैसा ही किया, तो परिवार में रहते हुए भी उच्चकोटि के महात्मा की स्थिति को प्राप्त हो गईं। वह जो बात जबान से कह देती थी, वह सत्य होकर रहती थी।
कटक जिले के रामपुर ग्राम में एक लुहार की कन्या सोनाबाई को स्वप्न में नित्य और जाग्रत् अवस्था में कभी- कभी गायत्री के दर्शन होते हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ प्राय: ठीक उतरती हैं।
मुरीदपुर की सन्तोषकुमारी बचपन में बड़ी मन्दबुद्धि थी। उनके पिता ने उनको पढ़ाने के लिए बहुत प्रयत्न किए, पर सफलता न मिली। भाग्यदोष समझकर सब लोग चुप हो गए। विवाह हुआ, विवाह के चार वर्ष बाद वह विधवा हो गई। वैधव्य को काटने के लिए उसने ग गायत्री की आराधना आरम्भ कर दी। एक रात को स्वप्न में गायत्री ने दर्शन दिए ओर कहा- ‘मैंने तेरी बुद्धि तीक्ष्ण कर दी है। विद्या पढ़, तेरा जीवन सफल होगा।’ दूसरे दिन उसे पढऩे में उत्साह आया। बुद्धि तीक्ष्ण हो गयी थी, सो कुछ ही वर्षों में मैट्रिक पास कर लिया। आज वह स्त्री शिक्षा के प्रचार में बड़ी तत्परता से लगी हुई हैं।
रंगपुर बंगाल की श्रीमती सरला चौधरी के कई बच्चे मर चुके थे। एक भी बच्चा जीवित न रहने से वे बहुत दु:खी रहती थीं। उन्हें गायत्री साधना बतायी गयी, जिसको अपनाकर उसने तीन पुत्रों की माता कहलाने का सुख पाया।
टेहरी की एक अध्यापिका गुलाबदेवी को प्रसवकाल में मृत्युतुल्य कष्ट होता था। एक बार उन्होंने गायत्री की प्रशंसा सुनी और उसे अपनाकर साधना करने लगीं। बाद में उन्हें चार प्रसव हुए और सभी सुखपूर्वक हो गये।
मूलतान की सुन्दरीबाई स्वयं बहुत कमजोर थीं। उनके बच्चे भ कमजोर थे और उनमें से कोई न कोई बीमार पड़ा रहता था। अपनी दुर्बलता और बच्चों की बीमारी से रोना- खीझना उन्हें कष्टकर होता था। इस विपत्ति से उन्हें गायत्री ने छुड़ाया। बाद में वे सपरिवार स्वस्थ रहने लगीं।
उदयपुर की मारवाड़ी महिला ज्ञानवती रूप- रंग की अधिक सुन्दर न होने के कारण पति को प्रिय न थीं। पति का व्यवहार उनसे सदा रूखा, कर्कश, उपेक्षापूर्ण रहता था और घर रहते हुए भी परदेश के समान दोनों में बेलगाव रहता था। ज्ञानवती की मौसी ने गायत्री का पूजन और रविवार का व्रत रखने का उपाय बताया। वह तपश्चर्या निरर्थक नहीं गयी। साधिका को आगे चलकर पति का प्रेम प्राप्त हुआ और उसका दाम्पत्य जीवन सुखमय बीता।
भीलवाड़ा में एक सरमणि नामक स्त्री बड़ी तान्त्रिक थी। उसे वहाँ के लोग डायन समझते थे। एक वयोवृद्ध संन्यासी ने उसे गायत्री की दीक्षा दी। तब से उसने सब छोडक़र भगवान् की भक्ति में चित्त लगाया और साधु जीवन व्यतीत करने लगी।
बहरामपुर के पास एक कुँआरी कन्या गुफा बनाकर दस वर्ष की आयु से तपस्या कर रही थी। चालीस वर्ष की आयु में भी उसके चेहरे का तेज ऐसा था कि आँखें झपक जाती थीं। उसके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग आते थे। इस देवी की इष्ट गायत्री थी। वह सदा गायत्री का जप करती रहती थी।
मीराबाई, सहजोबाई, रन्तिवती, लीलावती, दयाबाई, अहल्याबाई, सखूबाई, मुक्ताबाई प्रभृति अनेकों ईश्वर भक्त वैरागिनी हुई हैं, जिनका जीवन विरक्त और परमार्थ पूर्ण रहा। इनमें से कइयों ने गायत्री की उपासना करके अपने भक्ति भाव और वैराग्य को बढ़ाया था।
इस प्रकार अनेक देवियाँ इस श्रेष्ठ साधना से अपनी आध्यात्मिक उन्नति करती आई हैं और सांसारिक सुख- समृद्धि की प्राप्ति एवं आपत्तियों से छुटकारा पाने की प्रसन्नता का अनुभव करती रही हैं। विधवा बहिनों के लिए तो गायत्री साधना एक सर्वोपरि तपश्चर्या है। इससे शोक- वियोग की जलन बुझती है, बुद्धि में सात्त्विकता आती है, चित्त ईश्वर की ओर लगता है। नम्रता, सेवा, शील, सदाचार, निरालस्यता, सादगी, धर्मरुचि, स्वाध्यायप्रियता, आस्तिकता एवं परमार्थपरायणता के तत्त्व बढ़ते हैं। गायत्री साधना की तपश्चर्या का आश्रय लेकर अनेक ऐसी बाल- विधवाओं ने अपना जीवन सती- साध्वी जैसा बिताया है, जिनकी कम आयु देखकर अनेक आशंकाएँ की जाती थीं। जब ऐसी बहिनों को गायत्री में तन्मयता होने लगती है, तो वे वैधव्य दु:ख को भूल जाती हैं और अपने को तपस्विनी, साध्वी, ब्रह्मवादिनी, उज्ज्वल चरित्र, पवित्र आत्मा अनुभव करती हैं। ब्रह्मचर्य तो उनका जीवन सहचर बनकर रहता है।
स्त्री और पुरुष, नर और नारी दोनों ही वर्ग वेदमाता गायत्री के कन्या- पुत्र हैं। दोनों आँखों के तारे हैं। वे किसी से भेद भाव नहीं करतीं। माता को पुत्र से कन्या अधिक प्यारी होती है। वेदमाता गायत्री की साधना पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के लिए अधिक सरल और अधिक शीघ्र फलदायिनी है।
नोट :— इस प्रसङ्ग में दिये गये सभी उदाहरण पुराने (५० के दशक के) हैं। अब तो शोध करने पर इस प्रकार के लाखों प्रामाणिक उदाहरण उपलब्ध हो सकते हैं। अपने साधना- अनुभव के आधार पर तेजस्वी देवियों ने बड़े- बड़े धर्माचार्यों को निरुत्तर करके गायत्री साधना को घर- घर पहुँचाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है।