Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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कल्याण मन्दिर का प्रवेश द्वार - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
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तीन दीक्षाओं से तीन वर्णों मे प्रवेश मिलता है। दीक्षा का अर्थ है- विधिवत्, व्यवस्थित कार्यक्रम और निश्चित श्रद्धा। यों कोई विद्यार्थी नियत कोर्स न पढ़कर, नियत कक्षा में न बैठकर कभी कोई, कभी कोई पुस्तक पढ़ता रहे, तो भी धीरे-धीरे उसका ज्ञान बढ़ता ही रहेगा और क्रमश: उसके ज्ञान में उन्नति होती ही जायेगी। सम्भव है वह अव्यवस्थित क्रम से ग्रेजुएट हो जाय, पर यह मार्ग है कष्टसाध्य और लम्बा। कमश: एक-एक कक्षा पार करते हुए, एक-एक कोर्स पूरा करते हुए निर्धारित क्रम से यदि पढ़ाई जारी रखी जाए, तो अध्यापक को भी सुविधा रहती है और विद्यार्थी को भी। यदि कोई विद्यार्थी आज कक्षा ५ की, कल कक्षा १० की, आज संगीत की, कल डॉक्टरी की पुस्तकों को पढ़े तो उसे याद करने में और शिक्षक को पढ़ाने में असुविधा होगी। इसलिए ऋषियों ने आत्मोन्नति की तीन भूमिकायें निर्धारित कर दी हैं, द्विजत्व को तीन भागों में बाँट दिया है। क्रमश: एक-एक कक्षा में प्रवेश करना और नियम, प्रतिबन्ध, आदेश एवं अनुशासन को श्रद्धापूर्वक मानना, इसी का नाम दीक्षा है। तीन कक्षाओं को उत्तीर्ण करने के लिए तीन बार भर्ती होना पड़ता है। कई जगह एक ही अध्यापक तीन कक्षाओं को पढ़ाते हैं, कई जगह हर कक्षा के लिए अलग-अलग अध्यापक होते हैं। कई बार तो स्कूल ही बदलने पड़ते हैं। प्रायमरी स्कूल उत्तीर्ण करके हाईस्कूल में भर्ती होना पड़ता है और हाईस्कूल, इण्टर पास करके कॉलेज में नाम लिखाना पड़ता है। तीन विद्यालयों की पढ़ाई पूरी करने पर एम. ए. की पूर्णता प्राप्त होती है।
इन तीन कक्षाओं के अध्यापकों की योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। प्रथम कक्षा में सद्विचार और सत् आचार सिखाया जाता है। इसके लिए कथा, प्रवचन, सत्संग, भाषण, पुस्तक, प्रचार, शिक्षण, सलाह, तर्क आदि साधन काम में लाये जाते हैं। इनके द्वारा मनुष्य की विचार भूमिका का सुधार होता है, कुविचारों के स्थान पर सद्विचार स्थापित होते हैं, जिनके कारण साधक अनेक शूलों और क्लेशों से बचता हुआ सुख शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर लेता है। इस प्रथम कक्षा के विद्यार्थी को गुरु के प्रति श्रद्धा रखना आवश्यक है। श्रद्धा न होगी तो उनके वचनों का, उपदेशों का न तो महत्त्व समझ में आयेगा और न उन पर विश्वास होगा। प्रत्यक्ष है कि उसी बात को कोई महापुरुष कहे तो लोग उसे बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं और उसी बात को यदि तुच्छ मनुष्य कहे, तो कोई कान नहीं देता। दोनों ने एक ही बात कही, पर एक के कहने पर उपेक्षा की गई, दूसरे के कहने पर ध्यान दिया गया। इसमें कहने वाले के ऊपर सुनने वालों की श्रद्धा या अश्रद्धा का होना ही प्रधान कारण है। किसी व्यक्ति पर विशेष श्रद्धा हो, तो उसकी साधारण बातें भी असाधारण प्रतीत होती हैं। श्रद्धा में अपरिमित शक्ति होती है और जिस किसी में यह पर्याप्त मात्रा में होगी, उसे जीवन में सफलता प्राप्त होना निश्चित है।
रोज सैकड़ों कथा, प्रवचन, व्याख्यान होते हैं। अखबारों में, पर्चों, पोस्टरों में तरह-तरह की बातें सुनाई जाती हैं, रेडियो से नित्य ही उपदेश सुनाये जाते हैं, पर उन पर कोई कान नहीं देता। कारण यही है कि सुनने वालों को सुनाने वालों के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा नहीं होती, इसलिए ये महत्त्वपूर्ण बातें भी निरर्थक एवं उपेक्षणीय मालूम देती हैं। कोई उपदेश तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका देने वाला, सुनने वालों का श्रद्धास्पद हो। वह श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी, उतना ही अधिक उसका प्रभाव पड़ेगा। प्र्रथम कक्षा के मन्त्र दीक्षित, गायत्री का समुचित लाभ उठा सकें, इस दृष्टि से साधक को, दीक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा रखेगा। उसे वह देवतुल्य या परमात्मा का प्रतीक मानेगा। इसमें कुछ विचित्रता भी नहीं है। श्रद्धा के कारण जब मिट्टी, पत्थर और धातु की मूर्तियाँ हमारे लिए देव बन जाती हैं तो कोई कारण नहीं कि एक जीवित मनुष्य में देवत्व का आरोपण करके अपनी श्रद्धानुसार उसे अपने लिए देव न बना लिया जाए।
श्रद्धा का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता
एकलव्य भील ने मिट्टी के द्रोणाचार्य बनाकर उससे बाण-विद्या सीखी थी और उस मूर्ति ने उस भील को बाण-विद्या में इतना पारंगत कर दिया था कि उसके द्वारा बाणों से कुत्ते का मुँह सी दिये जाने पर द्रोणाचार्य से प्रत्यक्ष पढ़ने वाले पाण्डवों को भी ईर्ष्या हुई थी। स्वामी रामानन्द के मना करते रहने पर भी कबीर उनके शिष्य बन बैठे और अपनी तीव्र श्रद्धा के कारण वह लाभ प्राप्त किया, जो उनके विधिवत् दीक्षित शिष्यों में से एक भी प्राप्त न कर सका था। रजोधर्म होने पर गर्भाशय में एक बूँद वीर्य का पहुँच जाना गर्भ धारण कर देता है, पर जिसे रजोदर्शन न होता हो, उस बन्ध्या स्त्री के लिए पूर्ण पुंसत्व शक्ति वाला पति भी गर्भ स्थापित नहीं कर सकता। श्रद्धा एक प्रकार का रजोधर्म है जिससे साधक के अन्त:करण में सदुपदेश जमते और फलते-फूलते हैं। अश्रद्धालु के मन पर ब्रह्मा का उपदेश भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा के अभाव में किसी महापुरुष के दिन-रात साथ रहने पर भी कोई व्यक्ति कुछ लाभ नहीं उठा सकता और श्रद्धा होने पर दूरस्थ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। इसलिए आरम्भिक कक्षा के मन्त्र दीक्षित को गुरु के प्रति तीव्र श्रद्धा की धारणा करनी पड़ती है।
विचारों को मूर्त रूप देने के लिए उनको प्रकट रूप से व्यवहार में लाना पड़ता है। जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड, दान, पुण्य, व्रत, उपवास, हवन, पूजन, कथा, कीर्तन आदि हैं, वे सब इसी प्रयोजन के लिए हैं कि आन्तरिक श्रद्धा व्यवहार में प्रकट होकर साधक के मन में परिपुष्ट हो जाए। गुरु के प्रति मन्त्रदीक्षा में ‘श्रद्धा’ की शर्त होती है। श्रद्धा न हो या शिथिल हो तो वह दीक्षा केवल चिह्न पूजा मात्र है। अश्रद्धालु की गुरु दीक्षा से कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। दीक्षा के समय स्थापित हुई श्रद्धा कर्मकाण्ड के द्वारा सजग रहे, इसी प्रयोजन के लिए समय-समय पर गुरु पूजन किया जाता है। दीक्षा के समय वस्त्र, पात्र, पुष्प, भोजन, दक्षिणा द्वारा गुरु का पुजन करते हैं। गुरुपूर्णिमा (आषाढ़ सुदी १५) को यथा शक्ति गुरु के चरणों में श्रद्धांजलि के रूप में कुछ भेंट पूजा अर्पित करते हैं। यह प्रथा अपनी आन्तरिक श्रद्धा को मूर्त रूप देने, बढ़ाने एवं परिपुष्ट करने के लिए है। केवल विचार मात्र से कोई भावना परिपक्व नहीं होती; क्रिया और विचार दोनों के सम्मिश्रण से एक संस्कार बनता है जो मनोभूमि में स्थिर होकर आशाजनक परिणाम उपस्थित करता है।
प्राचीनकाल में यह नियम था कि गुरु के पास जाने पर शिष्य कुछ वस्तु भेंट के लिए ले जाता था, चाहे वह कितने ही स्वल्प मूल्य की क्यों न हो? समिधा की लकड़ी को हाथ में लेकर शिष्य गुरु के सम्मुख जाते थे, इसे ‘समित्पाणि’ कहते थे। वे समिधायें उनकी श्रद्धा की प्रतीक होती हैं चाहे उनका मूल्य कितना ही कम क्यों न हो। शुकदेव जी जब राजा जनक के पास ब्रह्मविद्या की शिक्षा लेने गये, तो राजा जनक मौन रहे, उनने एक शब्द भी उपदेश नहीं दिया। शुकदेव जी वापस लौट आये। पीछे उन्हें ध्यान आया कि भले ही मैं सन्यासी हूँ और राजा जनक गृहस्थ हैं, पर जबकि मैं उनसे कुछ सीखने गया, तो अपनी श्रद्धा का प्रतीक साथ लेकर जाना चाहिए था। दूसरी बार शुकदेवजी हाथ में समिधायें लेकर नम्र भाव से उपस्थित हुए, तो उनको विस्तार पूर्वक ब्रह्म का रहस्य समझाया।
श्रद्धा न हो तो सुनने वाले का और कहने वाले का श्रम तथा समय निरर्थक जाता है। इसलिए शिक्षण के समान ही श्रद्धा बढ़ाने का भी प्रयत्न जारी रखना चाहिए। निर्धन व्यक्ति भले ही न्यूनतम मूल्य की वस्तुयें ही क्यों न भेंट करें, उन्हें सदैव गुरु को बार-बार अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह भेंट पूजन एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है, जिससे श्रद्धा रूपी ‘ग्रहण शक्ति’ का तीव्र विकास होता है। श्रद्धा ही वह अस्त्र है, जिससे परमात्मा को पकड़ा जा सकता है। भगवान् और किसी वस्तु से वश में नहीं आते, वे केवल मात्र श्रद्धा के ब्रह्मपाश में फँसकर भक्त के गुलाम बनते हैं। ईश्वर को परास्त करने का एटम बम श्रद्धा ही है। इस महानतम दैवी सम्मोहनास्त्र को बनाने और चलाने का प्रारम्भिक अभ्यास गुरु से ही किया जाता है। जब यह भली प्रकार हाथ में आ जाता है, तो उससे भगवान् को वश में कर लेना साधक के बायें हाथ का खेल हो जाता है।
प्रारंम्भिक कक्षा का रसास्वादन करने पर साधक की मनोभूमि काफी सुदृढ़ और परिपक्व हो जाती है। वह भौतिकवाद की तुच्छता और आत्मिकवाद की महानता व्यावहारिक दृष्टि से, वैज्ञानिक दृष्टि से, दार्शनिक दृष्टि से समझ लेता है, तब उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि मेरा लाभ आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने में ही है। श्रद्धा परिपक्व होकर जब निष्ठा के रूप में परिणत हो जाती है, तो वह भीतर से काफी मजबूत हो जाता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसमें इतनी दृढ़ता होती है कि वह कष्ट सह सके, तप कर सके, त्याग की परीक्षा का अवसर आये तो विचलित न हो। जब ऐसी पक्की मनोभूमि होती है तो ‘गुरु’ द्वारा उसे अग्रि-दीक्षा देकर कुछ और गरम किया जाता है जिससे उसके मैल जल जायें, कीर्ति का प्रकाश हो तथा तप की अग्रि में पककर वह पूर्णता को प्राप्त हो।
तपस्वी की गुरुदक्षिणा
गीली लकड़ी को केवल धूप में सुखाया जा सकता है। उसे थोड़ी सी गर्मी पहुँचाई जाती है। धीरे-धीरे उसकी नमी सुखाई जाती है। जब वह भली प्रकार सुख जाती है, तो अग्रि में देकर मामूली लकड़ी को महाशक्तिशालिनी प्रचण्ड अग्रि के रूप मे परिणत कर दिया जाता है। गीली लकड़ी को चूल्हे में दिया जाए, तो उसका परिणाम अच्छा न होगा। प्रथम कक्षा के साधक पर केवल गुरु की श्रद्धा की जिम्मेदारी है और दृष्टिकोण को सुधार कर अपना प्रत्यक्ष जीवन सुधारना होता है। यह सब प्रारम्भिक छात्र के उपयुक्त है। यदि आरम्भ में तीव्र साधना में नये साधक को फँसा दिया जाय तो वह बुझ जायेगा, तप की कठिनाई देखकर वह डर जायेगा और प्रयत्न छोड़ बैठेगा। दूसरी कक्षा का छात्र चूँकि धूप में सूख चुका है, इसलिए उसे कोई विशेष कठिनाई मालूम नहीं देती, वह हँसते-हँसते साधना के श्रम का बोझ उठा लेता है।
अग्नि-दीक्षा के साधक को तपाने के लिए कई प्रकार के संयम, व्रत, नियम, त्याग आदि करने-कराने होते हैं। प्राचीन काल में उद्दालक, धौम्य, आरुणि, उपमन्यु, कच, श्लीमुख, जरुत्कार, हरिश्चन्द्र, दशरथ, नचिकेता, शेष, विरोचन, जाबालि, सुमनस, अम्बरीष, दिलीप आदि अनेक शिष्यों ने अपने गुरुओं के आदेशानुसार अनेक कष्ट सहे और उनके बताये हुए कार्यों को पूरा किया। स्थूल दृष्टि से इन महापुरुषों के साथ गुरुओं का जो व्यवहार था, वह ‘हृदयहीनता’ का कहा जा सकता है। पर सच्ची बात यह है कि उन्होंने स्वयं निन्दा और बुराई को अपने ऊपर ओढ़कर शिष्यों को अनन्त काल के लिए प्रकाशवान् एवं अमर कर दिया। यदि कठिनाइयों में होकर राजा हरिश्चन्द्र को न गुजरना पड़ा होता, तो वे भी असंख्यों राजा, रईसों की भाँति विस्मृति के गर्त में चले गये होते।
अग्नि-दीक्षा पाकर शिष्य गुरु से पूछता है कि-‘‘आदेश कीजिए, मैं आपके लिए क्या गुरुदक्षिणा उपस्थित करुँ?’’ गुरु देखता है कि शिष्य की मनोभूमि, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा और त्याग वृत्ति कितनी है, उसी आधार वह उससे गुरुदक्षिणा माँगता है। यह याचना अपने लिए रुपया, पैसा, धन, दौलत देने के रूप में कदापि नहीं हो सकती। सद्गुरु सदा परम त्यागी, अपरिग्रही, कष्टसहिष्णु एवं स्वल्प सन्तोषी होते हैं। उन्हें अपने शिष्य से या किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं होती। जो गुरु अपने लिए कुछ माँगता है वह गुरु नहीं; ऐसे लोग गुरु जैसे परम पवित्र पद के अधिकारी कदापि नहीं हो सकते। अग्नि-दीक्षा देकर गुरु जो कुछ माँगता है, वह शिष्य को अधिक उज्ज्वल, अधिक सुदृढ़, अधिक उदार, अधिक तपस्वी बनाने के लिए होता है। यह याचना उसके यश का विस्तार करने के लिए, पुण्य को बढ़ाने के लिए एवं उसे त्याग का आत्मसन्तोष देने के लिए होती है।
‘गुरुदक्षिणा माँगिये’ शब्दों में शिष्य कहता है कि ‘‘मैं सुदृढ़ हूँ, मेरी आत्मिक स्थिति की परीक्षा लीजिए।’’ स्कूल कालेजों में परीक्षा ली जाती है। उत्तीर्ण छात्र की योग्यता एवं प्रतिष्ठा को वह उत्तीर्णता का प्रामाण पत्र अनेक गुना बढ़ा देता है। परीक्षा न ली जाए तो योग्यता का क्या पता चले? किसी व्यक्ति की महानता का पुण्य प्रसार करनेे के लिए, उसके गौरव को सर्वसाधारण पर प्रकट करने के लिए, साधक को अपनी महानता पर आत्म विश्वास कराने के लिए गुरु अपने शिष्य से गुरुदक्षिणा माँगता है। शिष्य उसे देकर धन्य हो जाता है।
प्रारम्भिक कक्षा में मन्त्र-दीक्षा का शिष्य सामार्थ्यानुसार गुरु पूजन करता है। श्रद्धा रखना और उनकी सलाहों से अपने दृष्टिकोण को सुधारना, बस इतना ही उसका कार्यक्षेत्र है। न वह शिष्य दक्षिणा माँगने के लिए गुरु से कहता है और न गुरु उससे माँगता ही है। दूसरी कक्षा का शिष्य अग्नि दीक्षा लेकर ‘गुरु दक्षिणा’ माँगने के लिए, उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रार्थना करता है।
गुरु इस कृपा को करना स्वीकार करके शिष्य की प्रतिष्ठा, महानता, कीर्ति एवं प्रामाणिकता में चार चाँद लगा देता है। गुरु की याचना सदैव ऐसी होती है जो सबके लिए, सब दृष्टियों से परम कल्याणकारी हो, उस व्यक्ति का तथा समाज का उससे भला होता हो। कई बार निर्बल मनोभूमि के लोग भी आगे बढ़ाए जाते हैं, उनसे गुरुदक्षिणा में ऐसी छोटी चीज माँगी जाती है जिसे सुनकर हँसी आती है। अमुक फल, अमुक शाक, अमुक मिठाई आदि का त्याग कर देने जैसी याचना कुछ अधिक महत्त्व नहीं रखती। पर शिष्य का मन हलका हो जाता है, वह अनुभव करता है कि मैंने त्याग किया, गुरु के आदेश का पालन किया, गुरु दक्षिणा चुका दी, ऋण से उऋण हो गया और परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। बुद्धिमान् गुरु साधक की मनोभूमि और आन्तरिक स्थिति देखकर ही उसे तपाते हैं।
इन तीन कक्षाओं के अध्यापकों की योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। प्रथम कक्षा में सद्विचार और सत् आचार सिखाया जाता है। इसके लिए कथा, प्रवचन, सत्संग, भाषण, पुस्तक, प्रचार, शिक्षण, सलाह, तर्क आदि साधन काम में लाये जाते हैं। इनके द्वारा मनुष्य की विचार भूमिका का सुधार होता है, कुविचारों के स्थान पर सद्विचार स्थापित होते हैं, जिनके कारण साधक अनेक शूलों और क्लेशों से बचता हुआ सुख शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर लेता है। इस प्रथम कक्षा के विद्यार्थी को गुरु के प्रति श्रद्धा रखना आवश्यक है। श्रद्धा न होगी तो उनके वचनों का, उपदेशों का न तो महत्त्व समझ में आयेगा और न उन पर विश्वास होगा। प्रत्यक्ष है कि उसी बात को कोई महापुरुष कहे तो लोग उसे बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं और उसी बात को यदि तुच्छ मनुष्य कहे, तो कोई कान नहीं देता। दोनों ने एक ही बात कही, पर एक के कहने पर उपेक्षा की गई, दूसरे के कहने पर ध्यान दिया गया। इसमें कहने वाले के ऊपर सुनने वालों की श्रद्धा या अश्रद्धा का होना ही प्रधान कारण है। किसी व्यक्ति पर विशेष श्रद्धा हो, तो उसकी साधारण बातें भी असाधारण प्रतीत होती हैं। श्रद्धा में अपरिमित शक्ति होती है और जिस किसी में यह पर्याप्त मात्रा में होगी, उसे जीवन में सफलता प्राप्त होना निश्चित है।
रोज सैकड़ों कथा, प्रवचन, व्याख्यान होते हैं। अखबारों में, पर्चों, पोस्टरों में तरह-तरह की बातें सुनाई जाती हैं, रेडियो से नित्य ही उपदेश सुनाये जाते हैं, पर उन पर कोई कान नहीं देता। कारण यही है कि सुनने वालों को सुनाने वालों के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा नहीं होती, इसलिए ये महत्त्वपूर्ण बातें भी निरर्थक एवं उपेक्षणीय मालूम देती हैं। कोई उपदेश तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका देने वाला, सुनने वालों का श्रद्धास्पद हो। वह श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी, उतना ही अधिक उसका प्रभाव पड़ेगा। प्र्रथम कक्षा के मन्त्र दीक्षित, गायत्री का समुचित लाभ उठा सकें, इस दृष्टि से साधक को, दीक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा रखेगा। उसे वह देवतुल्य या परमात्मा का प्रतीक मानेगा। इसमें कुछ विचित्रता भी नहीं है। श्रद्धा के कारण जब मिट्टी, पत्थर और धातु की मूर्तियाँ हमारे लिए देव बन जाती हैं तो कोई कारण नहीं कि एक जीवित मनुष्य में देवत्व का आरोपण करके अपनी श्रद्धानुसार उसे अपने लिए देव न बना लिया जाए।
श्रद्धा का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता
एकलव्य भील ने मिट्टी के द्रोणाचार्य बनाकर उससे बाण-विद्या सीखी थी और उस मूर्ति ने उस भील को बाण-विद्या में इतना पारंगत कर दिया था कि उसके द्वारा बाणों से कुत्ते का मुँह सी दिये जाने पर द्रोणाचार्य से प्रत्यक्ष पढ़ने वाले पाण्डवों को भी ईर्ष्या हुई थी। स्वामी रामानन्द के मना करते रहने पर भी कबीर उनके शिष्य बन बैठे और अपनी तीव्र श्रद्धा के कारण वह लाभ प्राप्त किया, जो उनके विधिवत् दीक्षित शिष्यों में से एक भी प्राप्त न कर सका था। रजोधर्म होने पर गर्भाशय में एक बूँद वीर्य का पहुँच जाना गर्भ धारण कर देता है, पर जिसे रजोदर्शन न होता हो, उस बन्ध्या स्त्री के लिए पूर्ण पुंसत्व शक्ति वाला पति भी गर्भ स्थापित नहीं कर सकता। श्रद्धा एक प्रकार का रजोधर्म है जिससे साधक के अन्त:करण में सदुपदेश जमते और फलते-फूलते हैं। अश्रद्धालु के मन पर ब्रह्मा का उपदेश भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा के अभाव में किसी महापुरुष के दिन-रात साथ रहने पर भी कोई व्यक्ति कुछ लाभ नहीं उठा सकता और श्रद्धा होने पर दूरस्थ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। इसलिए आरम्भिक कक्षा के मन्त्र दीक्षित को गुरु के प्रति तीव्र श्रद्धा की धारणा करनी पड़ती है।
विचारों को मूर्त रूप देने के लिए उनको प्रकट रूप से व्यवहार में लाना पड़ता है। जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड, दान, पुण्य, व्रत, उपवास, हवन, पूजन, कथा, कीर्तन आदि हैं, वे सब इसी प्रयोजन के लिए हैं कि आन्तरिक श्रद्धा व्यवहार में प्रकट होकर साधक के मन में परिपुष्ट हो जाए। गुरु के प्रति मन्त्रदीक्षा में ‘श्रद्धा’ की शर्त होती है। श्रद्धा न हो या शिथिल हो तो वह दीक्षा केवल चिह्न पूजा मात्र है। अश्रद्धालु की गुरु दीक्षा से कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। दीक्षा के समय स्थापित हुई श्रद्धा कर्मकाण्ड के द्वारा सजग रहे, इसी प्रयोजन के लिए समय-समय पर गुरु पूजन किया जाता है। दीक्षा के समय वस्त्र, पात्र, पुष्प, भोजन, दक्षिणा द्वारा गुरु का पुजन करते हैं। गुरुपूर्णिमा (आषाढ़ सुदी १५) को यथा शक्ति गुरु के चरणों में श्रद्धांजलि के रूप में कुछ भेंट पूजा अर्पित करते हैं। यह प्रथा अपनी आन्तरिक श्रद्धा को मूर्त रूप देने, बढ़ाने एवं परिपुष्ट करने के लिए है। केवल विचार मात्र से कोई भावना परिपक्व नहीं होती; क्रिया और विचार दोनों के सम्मिश्रण से एक संस्कार बनता है जो मनोभूमि में स्थिर होकर आशाजनक परिणाम उपस्थित करता है।
प्राचीनकाल में यह नियम था कि गुरु के पास जाने पर शिष्य कुछ वस्तु भेंट के लिए ले जाता था, चाहे वह कितने ही स्वल्प मूल्य की क्यों न हो? समिधा की लकड़ी को हाथ में लेकर शिष्य गुरु के सम्मुख जाते थे, इसे ‘समित्पाणि’ कहते थे। वे समिधायें उनकी श्रद्धा की प्रतीक होती हैं चाहे उनका मूल्य कितना ही कम क्यों न हो। शुकदेव जी जब राजा जनक के पास ब्रह्मविद्या की शिक्षा लेने गये, तो राजा जनक मौन रहे, उनने एक शब्द भी उपदेश नहीं दिया। शुकदेव जी वापस लौट आये। पीछे उन्हें ध्यान आया कि भले ही मैं सन्यासी हूँ और राजा जनक गृहस्थ हैं, पर जबकि मैं उनसे कुछ सीखने गया, तो अपनी श्रद्धा का प्रतीक साथ लेकर जाना चाहिए था। दूसरी बार शुकदेवजी हाथ में समिधायें लेकर नम्र भाव से उपस्थित हुए, तो उनको विस्तार पूर्वक ब्रह्म का रहस्य समझाया।
श्रद्धा न हो तो सुनने वाले का और कहने वाले का श्रम तथा समय निरर्थक जाता है। इसलिए शिक्षण के समान ही श्रद्धा बढ़ाने का भी प्रयत्न जारी रखना चाहिए। निर्धन व्यक्ति भले ही न्यूनतम मूल्य की वस्तुयें ही क्यों न भेंट करें, उन्हें सदैव गुरु को बार-बार अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह भेंट पूजन एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है, जिससे श्रद्धा रूपी ‘ग्रहण शक्ति’ का तीव्र विकास होता है। श्रद्धा ही वह अस्त्र है, जिससे परमात्मा को पकड़ा जा सकता है। भगवान् और किसी वस्तु से वश में नहीं आते, वे केवल मात्र श्रद्धा के ब्रह्मपाश में फँसकर भक्त के गुलाम बनते हैं। ईश्वर को परास्त करने का एटम बम श्रद्धा ही है। इस महानतम दैवी सम्मोहनास्त्र को बनाने और चलाने का प्रारम्भिक अभ्यास गुरु से ही किया जाता है। जब यह भली प्रकार हाथ में आ जाता है, तो उससे भगवान् को वश में कर लेना साधक के बायें हाथ का खेल हो जाता है।
प्रारंम्भिक कक्षा का रसास्वादन करने पर साधक की मनोभूमि काफी सुदृढ़ और परिपक्व हो जाती है। वह भौतिकवाद की तुच्छता और आत्मिकवाद की महानता व्यावहारिक दृष्टि से, वैज्ञानिक दृष्टि से, दार्शनिक दृष्टि से समझ लेता है, तब उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि मेरा लाभ आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने में ही है। श्रद्धा परिपक्व होकर जब निष्ठा के रूप में परिणत हो जाती है, तो वह भीतर से काफी मजबूत हो जाता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसमें इतनी दृढ़ता होती है कि वह कष्ट सह सके, तप कर सके, त्याग की परीक्षा का अवसर आये तो विचलित न हो। जब ऐसी पक्की मनोभूमि होती है तो ‘गुरु’ द्वारा उसे अग्रि-दीक्षा देकर कुछ और गरम किया जाता है जिससे उसके मैल जल जायें, कीर्ति का प्रकाश हो तथा तप की अग्रि में पककर वह पूर्णता को प्राप्त हो।
तपस्वी की गुरुदक्षिणा
गीली लकड़ी को केवल धूप में सुखाया जा सकता है। उसे थोड़ी सी गर्मी पहुँचाई जाती है। धीरे-धीरे उसकी नमी सुखाई जाती है। जब वह भली प्रकार सुख जाती है, तो अग्रि में देकर मामूली लकड़ी को महाशक्तिशालिनी प्रचण्ड अग्रि के रूप मे परिणत कर दिया जाता है। गीली लकड़ी को चूल्हे में दिया जाए, तो उसका परिणाम अच्छा न होगा। प्रथम कक्षा के साधक पर केवल गुरु की श्रद्धा की जिम्मेदारी है और दृष्टिकोण को सुधार कर अपना प्रत्यक्ष जीवन सुधारना होता है। यह सब प्रारम्भिक छात्र के उपयुक्त है। यदि आरम्भ में तीव्र साधना में नये साधक को फँसा दिया जाय तो वह बुझ जायेगा, तप की कठिनाई देखकर वह डर जायेगा और प्रयत्न छोड़ बैठेगा। दूसरी कक्षा का छात्र चूँकि धूप में सूख चुका है, इसलिए उसे कोई विशेष कठिनाई मालूम नहीं देती, वह हँसते-हँसते साधना के श्रम का बोझ उठा लेता है।
अग्नि-दीक्षा के साधक को तपाने के लिए कई प्रकार के संयम, व्रत, नियम, त्याग आदि करने-कराने होते हैं। प्राचीन काल में उद्दालक, धौम्य, आरुणि, उपमन्यु, कच, श्लीमुख, जरुत्कार, हरिश्चन्द्र, दशरथ, नचिकेता, शेष, विरोचन, जाबालि, सुमनस, अम्बरीष, दिलीप आदि अनेक शिष्यों ने अपने गुरुओं के आदेशानुसार अनेक कष्ट सहे और उनके बताये हुए कार्यों को पूरा किया। स्थूल दृष्टि से इन महापुरुषों के साथ गुरुओं का जो व्यवहार था, वह ‘हृदयहीनता’ का कहा जा सकता है। पर सच्ची बात यह है कि उन्होंने स्वयं निन्दा और बुराई को अपने ऊपर ओढ़कर शिष्यों को अनन्त काल के लिए प्रकाशवान् एवं अमर कर दिया। यदि कठिनाइयों में होकर राजा हरिश्चन्द्र को न गुजरना पड़ा होता, तो वे भी असंख्यों राजा, रईसों की भाँति विस्मृति के गर्त में चले गये होते।
अग्नि-दीक्षा पाकर शिष्य गुरु से पूछता है कि-‘‘आदेश कीजिए, मैं आपके लिए क्या गुरुदक्षिणा उपस्थित करुँ?’’ गुरु देखता है कि शिष्य की मनोभूमि, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा और त्याग वृत्ति कितनी है, उसी आधार वह उससे गुरुदक्षिणा माँगता है। यह याचना अपने लिए रुपया, पैसा, धन, दौलत देने के रूप में कदापि नहीं हो सकती। सद्गुरु सदा परम त्यागी, अपरिग्रही, कष्टसहिष्णु एवं स्वल्प सन्तोषी होते हैं। उन्हें अपने शिष्य से या किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं होती। जो गुरु अपने लिए कुछ माँगता है वह गुरु नहीं; ऐसे लोग गुरु जैसे परम पवित्र पद के अधिकारी कदापि नहीं हो सकते। अग्नि-दीक्षा देकर गुरु जो कुछ माँगता है, वह शिष्य को अधिक उज्ज्वल, अधिक सुदृढ़, अधिक उदार, अधिक तपस्वी बनाने के लिए होता है। यह याचना उसके यश का विस्तार करने के लिए, पुण्य को बढ़ाने के लिए एवं उसे त्याग का आत्मसन्तोष देने के लिए होती है।
‘गुरुदक्षिणा माँगिये’ शब्दों में शिष्य कहता है कि ‘‘मैं सुदृढ़ हूँ, मेरी आत्मिक स्थिति की परीक्षा लीजिए।’’ स्कूल कालेजों में परीक्षा ली जाती है। उत्तीर्ण छात्र की योग्यता एवं प्रतिष्ठा को वह उत्तीर्णता का प्रामाण पत्र अनेक गुना बढ़ा देता है। परीक्षा न ली जाए तो योग्यता का क्या पता चले? किसी व्यक्ति की महानता का पुण्य प्रसार करनेे के लिए, उसके गौरव को सर्वसाधारण पर प्रकट करने के लिए, साधक को अपनी महानता पर आत्म विश्वास कराने के लिए गुरु अपने शिष्य से गुरुदक्षिणा माँगता है। शिष्य उसे देकर धन्य हो जाता है।
प्रारम्भिक कक्षा में मन्त्र-दीक्षा का शिष्य सामार्थ्यानुसार गुरु पूजन करता है। श्रद्धा रखना और उनकी सलाहों से अपने दृष्टिकोण को सुधारना, बस इतना ही उसका कार्यक्षेत्र है। न वह शिष्य दक्षिणा माँगने के लिए गुरु से कहता है और न गुरु उससे माँगता ही है। दूसरी कक्षा का शिष्य अग्नि दीक्षा लेकर ‘गुरु दक्षिणा’ माँगने के लिए, उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रार्थना करता है।
गुरु इस कृपा को करना स्वीकार करके शिष्य की प्रतिष्ठा, महानता, कीर्ति एवं प्रामाणिकता में चार चाँद लगा देता है। गुरु की याचना सदैव ऐसी होती है जो सबके लिए, सब दृष्टियों से परम कल्याणकारी हो, उस व्यक्ति का तथा समाज का उससे भला होता हो। कई बार निर्बल मनोभूमि के लोग भी आगे बढ़ाए जाते हैं, उनसे गुरुदक्षिणा में ऐसी छोटी चीज माँगी जाती है जिसे सुनकर हँसी आती है। अमुक फल, अमुक शाक, अमुक मिठाई आदि का त्याग कर देने जैसी याचना कुछ अधिक महत्त्व नहीं रखती। पर शिष्य का मन हलका हो जाता है, वह अनुभव करता है कि मैंने त्याग किया, गुरु के आदेश का पालन किया, गुरु दक्षिणा चुका दी, ऋण से उऋण हो गया और परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। बुद्धिमान् गुरु साधक की मनोभूमि और आन्तरिक स्थिति देखकर ही उसे तपाते हैं।