Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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गायत्री का अर्थ चिन्तन
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ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
ऊँ ब्रह्म भू:— प्राणस्वरूप
भुव:— दु:खनाशक स्व:— सुख स्वरूप
तत्— उस सवितु:— तेजस्वी, प्रकाशवान्
वरेण्यं— श्रेष्ठ भर्गो— पापनाशक
देवस्य— दिव्य को, देने वाले को धीमहि— धारण करें
धियो— बुद्धि को यो— जो
न:— हमारी प्रचोदयात् करे।
गायत्री मन्त्र के इस अर्थ पर मनन एवं चिन्तन करने से अन्तःकरण में उन तत्त्वों की वृद्धि होती है, जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाते हैं। यह भाव बड़े ही शक्तिदायक, उत्साहप्रद, सतोगुणी, उन्नायक एवं आत्मबल बढ़ाने वाले हैं। इन भावों का नित्यप्रति कुछ समय मनन करना चाहिए।
१- ‘‘भू: लोक, भुव: लोक, स्व: लोक- इन तीनों लोकों में ऊँ परमात्मा समाया हुआ है। यह जितना भी विश्व ब्रह्माण्ड है, परमात्मा की साकार प्रतिमा है। कण- कण में भगवान् समाये हुए हैं। सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए मुझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिए एवं संसार की सुख- शान्ति तथा शोभा बढ़ाने में सहयोग देकर प्रभु की सच्ची पूजा करनी चाहिए।’’
२- ‘‘तत् परमात्मा, सवितु:- तेजस्वी, वरेण्यं- श्रेष्ठ, भर्गो- पापरहित और देवस्य- दिव्य है, उसको अन्त:करण में- धीमहि करता हूँ। इन गुणवाले भगवान् मेरे अन्त:करण में प्रविष्ट होकर मुझे भी तेजस्वी, श्रेष्ठ, पापरहित एवं दिव्य बनाते हैं। मैं प्रतिक्षण इन गुणों से युक्त होता जाता हूँ। इन दोनों की मात्रा मेरे मस्तिष्क तथा शरीर के कण- कण में बढ़ती है। इन गुणों से ओत- प्रोत होता जाता हूँ।’’
३- ‘‘वह परमात्मा, न:- हमारी, धियो- बुद्धि को, प्रचोदयात्- सन्मार्ग में प्रेरित करे। हम सबकी, हमारे परिजनों की बुद्धि सन्मार्गगामी हो। संसार की सबसे बड़ी विभूति, सुखों की आदि माता सद्बुद्धि को पाकर हम इस जीवन में ही स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करें, मानव जन्म को सफल बनाएँ।’’
उपर्युक्त तीनों चिन्तन- संकल्प धीरे- धीरे मनन करते जाना चाहिए। एक- एक शब्द पर कुछ क्षण रुकना चाहिए और उस शब्द का कल्पना चित्र मन में बनाना चाहिए।
जब यह शब्द पढ़े जा रहे हों कि परमात्मा भू: भुव: स्व: तीनों लोकों में व्याप्त है, तब ऐसी कल्पना करनी चाहिए, जैसे हम पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग को भली प्रकार देख रहे हैं और उसमें गर्मी, प्रकाश, बिजली, शक्ति या प्राण की तरह परमात्मा सर्वत्र समाया हुआ है। यह विराट् ब्रह्माण्ड ईश्वर की जीवित- जाग्रत् साकार प्रतिमा है। गीता में अर्जुन को जिस प्रकार भगवान् ने अपना विराट् रूप दिखाया है, वैसे ही विराट् पुरुष के दर्शन अपने कल्पनालोक में मानस चक्षुओं से करने चाहिए। जी भरकर इस विराट् ब्रह्म के, विश्वपुरुष के दर्शन करने चाहिए कि मैं इस विश्वपुरुष के पेट में बैठा हूँ। मेरे चारों ओर परमात्मा ही परमात्मा है। ऐसी महाशक्ति की उपस्थिति में कुविचारों और कुकर्मों को मैं किस प्रकार अङ्गीकार कर सकता हूँ। इस विश्वपुरुष का कण- कण मेरे लिए पूजनीय है। उसकी सेवा, सुरक्षा एवं शोभा बढ़ाने में प्रवृत्त रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।
संकल्प के दूसरे भाग का चिन्तन करते हुए अपने हृदय को भगवान् का सिंहासन अनुभव करना चाहिए और तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ, निर्विकार, दिव्य गुणों वाले परमात्मा को विराजमान देखना चाहिए। भगवान् की झाँकी तीन रूप में की जा सकती है- (१) विराट् पुरुष के रूप में (२) राम, कृष्ण, विष्णु, गायत्री, सरस्वती आदि के रूप में (३) दीपक की ज्योति के रूप में। यह अपनी भावना, इच्छा और रुचि के ऊपर है। परमात्मा का पुरुष रूप में, गायत्री का मातृ रूप में अपनी रुचि के अनुसार ध्यान किया जा सकता है। परमात्मा स्त्री भी है और पुरुष भी। गायत्री साधकों को माता गायत्री के रूप में ब्रह्म का ध्यान करना अधिक रुचता है। सुन्दर छवि का ध्यान करते हुए उसमें सूर्य के समान तेजस्विता, सर्वोपरि श्रेष्ठता, परम पवित्र निर्मलता और दिव्य सतोगुण की झाँकी करनी चाहिए। इस प्रकर गुण और रूप वाली ब्रह्मशक्ति को अपने हृदय में स्थायी रूप से बस जाने की, अपने रोम- रोम में रम जाने की भावना करनी चाहिए।
संकल्प के तीसरे भाग का चिन्तन करते हुए ऐसा अनुभव करना चाहिए कि वह गायत्री ब्रह्मशक्ति हमारे हृदय में निवास करने वाली भावना तथा मस्तिष्क में रहने वाले बुद्धि को पकडक़र सात्त्विकता के, धर्म- कर्त्तव्य के, सेवा के सत्पथ पर घसीटे लिए जा रही हैं। बुद्धि और भावना को इसी दिशा में चलाने का अभ्यास तथा प्रेम उत्पन्न कर रही है और वे दोनों बड़े आनन्द, उत्साह तथा सन्तोष का अनुभव करते हुए माता गायत्री के साथ- साथ चल रही हैं।
गायत्री के अर्थ चिन्तन में दी हुई यह तीनों भावनाएँ क्रमश: ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग की प्रतीक हैं। इन्हीं तीन भावनाओं का विस्तार होकर योग के ज्ञान, भक्ति और कर्म यह तीन आधार बने हैं। गायत्री का अर्थ चिन्तन, बीज रूप से अपनी अन्तरात्मा को तीनों योगों की त्रिवेणी में स्नान कराने के समान है।
इस प्रकार चिन्तन करने से गायत्री मन्त्र का अर्थ भली प्रकार हृदयंगम हो जाता है और उसकी प्रत्येक भावना मन पर अपनी छाप जमा लेती है, जिससे यह परिणाम कुछ ही दिनों में दिखाई पडऩे लगता है कि मन कुविचारों और कुकर्मों की ओर से हट गया है और मनुष्योचित सद्विचारों और सत्कर्मों में उत्साहपूर्वक रस लेने लगा है। यह प्रवृत्ति आरम्भ में चाहे कितनी ही मन्द क्यों न हो, यह निश्चित है कि यदि वह बनी रहे, बुझने न पाए, तो निश्चय ही आत्मा दिन- दिन समुन्नत होती जाती है और जीवन का परम लक्ष्य समीप खिसकता चला आता है।
ऊँ ब्रह्म भू:— प्राणस्वरूप
भुव:— दु:खनाशक स्व:— सुख स्वरूप
तत्— उस सवितु:— तेजस्वी, प्रकाशवान्
वरेण्यं— श्रेष्ठ भर्गो— पापनाशक
देवस्य— दिव्य को, देने वाले को धीमहि— धारण करें
धियो— बुद्धि को यो— जो
न:— हमारी प्रचोदयात् करे।
गायत्री मन्त्र के इस अर्थ पर मनन एवं चिन्तन करने से अन्तःकरण में उन तत्त्वों की वृद्धि होती है, जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाते हैं। यह भाव बड़े ही शक्तिदायक, उत्साहप्रद, सतोगुणी, उन्नायक एवं आत्मबल बढ़ाने वाले हैं। इन भावों का नित्यप्रति कुछ समय मनन करना चाहिए।
१- ‘‘भू: लोक, भुव: लोक, स्व: लोक- इन तीनों लोकों में ऊँ परमात्मा समाया हुआ है। यह जितना भी विश्व ब्रह्माण्ड है, परमात्मा की साकार प्रतिमा है। कण- कण में भगवान् समाये हुए हैं। सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए मुझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिए एवं संसार की सुख- शान्ति तथा शोभा बढ़ाने में सहयोग देकर प्रभु की सच्ची पूजा करनी चाहिए।’’
२- ‘‘तत् परमात्मा, सवितु:- तेजस्वी, वरेण्यं- श्रेष्ठ, भर्गो- पापरहित और देवस्य- दिव्य है, उसको अन्त:करण में- धीमहि करता हूँ। इन गुणवाले भगवान् मेरे अन्त:करण में प्रविष्ट होकर मुझे भी तेजस्वी, श्रेष्ठ, पापरहित एवं दिव्य बनाते हैं। मैं प्रतिक्षण इन गुणों से युक्त होता जाता हूँ। इन दोनों की मात्रा मेरे मस्तिष्क तथा शरीर के कण- कण में बढ़ती है। इन गुणों से ओत- प्रोत होता जाता हूँ।’’
३- ‘‘वह परमात्मा, न:- हमारी, धियो- बुद्धि को, प्रचोदयात्- सन्मार्ग में प्रेरित करे। हम सबकी, हमारे परिजनों की बुद्धि सन्मार्गगामी हो। संसार की सबसे बड़ी विभूति, सुखों की आदि माता सद्बुद्धि को पाकर हम इस जीवन में ही स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करें, मानव जन्म को सफल बनाएँ।’’
उपर्युक्त तीनों चिन्तन- संकल्प धीरे- धीरे मनन करते जाना चाहिए। एक- एक शब्द पर कुछ क्षण रुकना चाहिए और उस शब्द का कल्पना चित्र मन में बनाना चाहिए।
जब यह शब्द पढ़े जा रहे हों कि परमात्मा भू: भुव: स्व: तीनों लोकों में व्याप्त है, तब ऐसी कल्पना करनी चाहिए, जैसे हम पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग को भली प्रकार देख रहे हैं और उसमें गर्मी, प्रकाश, बिजली, शक्ति या प्राण की तरह परमात्मा सर्वत्र समाया हुआ है। यह विराट् ब्रह्माण्ड ईश्वर की जीवित- जाग्रत् साकार प्रतिमा है। गीता में अर्जुन को जिस प्रकार भगवान् ने अपना विराट् रूप दिखाया है, वैसे ही विराट् पुरुष के दर्शन अपने कल्पनालोक में मानस चक्षुओं से करने चाहिए। जी भरकर इस विराट् ब्रह्म के, विश्वपुरुष के दर्शन करने चाहिए कि मैं इस विश्वपुरुष के पेट में बैठा हूँ। मेरे चारों ओर परमात्मा ही परमात्मा है। ऐसी महाशक्ति की उपस्थिति में कुविचारों और कुकर्मों को मैं किस प्रकार अङ्गीकार कर सकता हूँ। इस विश्वपुरुष का कण- कण मेरे लिए पूजनीय है। उसकी सेवा, सुरक्षा एवं शोभा बढ़ाने में प्रवृत्त रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।
संकल्प के दूसरे भाग का चिन्तन करते हुए अपने हृदय को भगवान् का सिंहासन अनुभव करना चाहिए और तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ, निर्विकार, दिव्य गुणों वाले परमात्मा को विराजमान देखना चाहिए। भगवान् की झाँकी तीन रूप में की जा सकती है- (१) विराट् पुरुष के रूप में (२) राम, कृष्ण, विष्णु, गायत्री, सरस्वती आदि के रूप में (३) दीपक की ज्योति के रूप में। यह अपनी भावना, इच्छा और रुचि के ऊपर है। परमात्मा का पुरुष रूप में, गायत्री का मातृ रूप में अपनी रुचि के अनुसार ध्यान किया जा सकता है। परमात्मा स्त्री भी है और पुरुष भी। गायत्री साधकों को माता गायत्री के रूप में ब्रह्म का ध्यान करना अधिक रुचता है। सुन्दर छवि का ध्यान करते हुए उसमें सूर्य के समान तेजस्विता, सर्वोपरि श्रेष्ठता, परम पवित्र निर्मलता और दिव्य सतोगुण की झाँकी करनी चाहिए। इस प्रकर गुण और रूप वाली ब्रह्मशक्ति को अपने हृदय में स्थायी रूप से बस जाने की, अपने रोम- रोम में रम जाने की भावना करनी चाहिए।
संकल्प के तीसरे भाग का चिन्तन करते हुए ऐसा अनुभव करना चाहिए कि वह गायत्री ब्रह्मशक्ति हमारे हृदय में निवास करने वाली भावना तथा मस्तिष्क में रहने वाले बुद्धि को पकडक़र सात्त्विकता के, धर्म- कर्त्तव्य के, सेवा के सत्पथ पर घसीटे लिए जा रही हैं। बुद्धि और भावना को इसी दिशा में चलाने का अभ्यास तथा प्रेम उत्पन्न कर रही है और वे दोनों बड़े आनन्द, उत्साह तथा सन्तोष का अनुभव करते हुए माता गायत्री के साथ- साथ चल रही हैं।
गायत्री के अर्थ चिन्तन में दी हुई यह तीनों भावनाएँ क्रमश: ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग की प्रतीक हैं। इन्हीं तीन भावनाओं का विस्तार होकर योग के ज्ञान, भक्ति और कर्म यह तीन आधार बने हैं। गायत्री का अर्थ चिन्तन, बीज रूप से अपनी अन्तरात्मा को तीनों योगों की त्रिवेणी में स्नान कराने के समान है।
इस प्रकार चिन्तन करने से गायत्री मन्त्र का अर्थ भली प्रकार हृदयंगम हो जाता है और उसकी प्रत्येक भावना मन पर अपनी छाप जमा लेती है, जिससे यह परिणाम कुछ ही दिनों में दिखाई पडऩे लगता है कि मन कुविचारों और कुकर्मों की ओर से हट गया है और मनुष्योचित सद्विचारों और सत्कर्मों में उत्साहपूर्वक रस लेने लगा है। यह प्रवृत्ति आरम्भ में चाहे कितनी ही मन्द क्यों न हो, यह निश्चित है कि यदि वह बनी रहे, बुझने न पाए, तो निश्चय ही आत्मा दिन- दिन समुन्नत होती जाती है और जीवन का परम लक्ष्य समीप खिसकता चला आता है।