Books - गायत्री महाविज्ञान
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महिलाओं के लिये विशेष साधनाएँ
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पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी वेदमाता गायत्री की साधना का अधिकार है। गतिहीन व्यवस्था को गतिशीलता में परिणत करने के लिये दो भिन्न जाति के पारस्परिक आकर्षक करने वाले तत्त्वों की आवश्यकता होती है। ऋण (निगेटिव) और धन (पोजेटिव) शक्तियों के पारस्परिक आकषर्ण- विकर्षण द्वारा ही विद्युत् गति का सञ्चार होता है। परमाणु के इलेक्ट्रोन और प्रोटोन भाग पारस्परिक आदान- प्रदान के कारण गतिशील होते हैं। शाश्वत चैतन्य को क्रियाशील बनाने के लिये सजीव सृष्टि को नर और मादा के दो रूपों में बाँटा गया है, क्योंकि ऐसा विभाजन हुए बिना विश्व निश्चेष्ट अवस्था में ही पड़ा रहता। ‘रयि’ और ‘प्राण’ शक्ति का सम्मिलन ही तो चैतन्य है। नर- तत्त्व और नारी- तत्त्व का पारस्परिक सम्मिलन न हो, तो चैतन्य, आनन्द, स्फुरणा, चेतना, गति, क्रिया, वृद्धि आदि का लोप होकर एक जड़ स्थिति रह जाएगी।
नर- तत्त्व और नारी- तत्त्व एक- दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दोनों का महत्त्व, उपयोग, अधिकार और स्थान समान है। वेदमाता गायत्री की साधना का अधिकार भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही है। जो यह कहते हैं कि गायत्री वेदमन्त्र होने से उसका अधिकार स्त्रियों को नहीं है, वे भारी भूल करते हैं। प्राचीन काल में स्त्रियाँ मन्त्रद्रष्ट्री रही हैं। वेदमन्त्रों का उनके द्वारा अवतरण हुआ है। गायत्री स्वयं स्त्रीलिंग है, फिर उसके अधिकार न होने का कोई कारण नहीं। हाँ, जो स्त्रियाँ अशिक्षित, हीनमति, अपवित्र हैं, वे स्वयमेव प्रवृत्ति नहीं रखतीं, न महत्त्व समझती हैं, इसलिये वे अपनी निज की मानसिक अवस्था से ही अधिकार- वञ्चित होती हैं।
स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति गायत्री- साधनाएँ कर सकती हैं। जो साधनाएँ इस पुस्तक में दी गयी हैं, वे सभी उनके अधिकार क्षेत्र में हैं। परन्तु देखा गया है कि सधवा स्त्रियाँ जिन्हें घर के काम में विशेष रूप से व्यस्त रहना पड़ता है अथवा जिनके छोटे- छोटे बच्चे हैं और वे उनके मल- मूत्र के अधिक सम्पर्क में रहने के कारण उतनी स्वच्छता नहीं रख सकतीं, उनके लिये देर में पूरी हो सकने वाली साधनाएँ कठिन हैं। वे संक्षिप्त पञ्चाक्षरी गायत्री मन्त्र ( ऊँ भूर्भुव: स्व:) से काम चला सकती हैं। रजस्वला होने के दिनों में उन्हें विधिपूर्वक साधना बन्द रखनी चाहिए। कोई अनुष्ठान चल रहा हो, तो इन दिनों में रोककर रज- स्नान के पश्चात् उसे फिर चालू किया जा सकता है।
निस्सन्तान महिलाएँ गायत्री साधना को पुरुषों की भाँति ही सुविधापूर्वक कर सकती हैं। अविवाहित या विधवा देवियों के लिये तो वैसी ही सुविधाएँ हैं जैसी कि पुरुषों को। जिनके बच्चे बड़े हो गये हैं, गोदी में कोई छोटा बालक नहीं है या जो वयोवृद्ध हैं, उन्हें भी कुछ असुविधा नहीं हो सकती। साधारण दैनिक साधना में कोई विशेष नियमोपनियम पालन करने की आवश्यकता नहीं है। दाम्पत्य जीवन के साधारण धर्म- पालन करने में उसमें कोई बाधा नहीं। यदि कोई विशेष साधना या अनुष्ठान करना हो, तो उतनी अवधि के लिये ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक होता है।
विविध प्रयोजनों के लिये कुछ साधनायें नीचे दी जाती हैं —
मनोनिग्रह और ब्रह्म- प्राप्ति के लिये
विधवा बहिनें आत्मसंयम, सदाचार, विवेक, ब्रह्मचर्य पालन, इन्द्रिय निग्रह एवं मन को वश में करने के लिये गायत्री साधना का ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग कर सकती हैं। जिस दिन से यह साधना आरम्भ की जाती है, उसी दिन से मन में शान्ति, स्थिरता, सद्बुद्धि और आत्मसंयम की भावना पैदा होती है। मन पर अपना अधिकार होता है, चित्त की चञ्चलता नष्ट होती है, विचारों में सतोगुण बढ़ जाता है। इच्छायें, रुचियाँ, क्रियायें, भावनायें सभी सतोगुणी, शुद्ध और पवित्र रहने लगती हैं। ईश्वर प्राप्ति, धर्मरक्षा, तपश्चर्या, आत्मकल्याण और ईश्वर आराधना में मन विशेष रूप से लगता है। धीरे- धीरे उसकी साध्वी, तपस्विनी, ईश्वरपरायण एवं ब्रह्मवादिनी जैसी स्थिति हो जाती है। गायत्री के वेश में उसे भगवान् का साक्षात्कार होने लगता है और ऐसी आत्मशान्ति मिलती है, जिसकी तुलना में सधवा रहने का सुख उसे नितान्त तुच्छ दिखाई पड़ता है।
प्रात:काल ऐसे जल से स्नान करे जो शरीर को सह्य हो। अति शीतल या अति उष्ण जल स्नान के लिये अनुपयुक्त है। वैसे तो सभी के लिये, पर स्त्रियों के लिये विशेष रूप से असह्य तापमान का जल स्नान के लिये हानिकारक है। स्नान के उपरान्त गायत्री साधना के लिये बैठना चाहिये। पास में जल भरा हुआ पात्र रहे। जप के लिये तुलसी की माला और बिछाने के लिये कुशासन ठीक है। वृषभारूढ़, श्वेत वस्त्रधारी, चतुर्भुजी, प्रत्येक हाथ में- माला, कमण्डल, पुस्तक और कमल पुष्प लिये हुए प्रसन्न मुख प्रौढ़ावस्था गायत्री का ध्यान करना चाहिये। ध्यान सद्गुणों की वृद्धि के लिये, मनोनिग्रह के लिये बड़ा लाभदायक है। मन को बार- बार इस ध्यान में लगाना चाहिये और मुख से जप इस प्रकार करते जाना चाहिये कि कण्ठ से कुछ ध्वनि हो, होंठ हिलते रहें, परन्तु मन्त्र को निकट बैठा हुआ मनुष्य भी भली प्रकार सुन न सके। प्रात: और सायं दोनों समय इस प्रकार का जप किया जा सकता है। एक माला तो कम से कम जप करना चाहिये। सुविधानुसार अधिक संख्या में भी जप करना चाहिये। तपश्चर्या प्रकरण में लिखी हुई तपश्चर्याएँ साथ में की जायें तो और भी उत्तम है। किस प्रकार के स्वास्थ्य और वातावरण में कौन- सी तपश्चर्या ठीक रहेगी, इस सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से सलाह ली जा सकती है।
कुमारियों के लिये आशाप्रद भविष्य की साधना
कुमारी कन्याएँ अपने विवाहित जीवन में सब प्रकार के सुख शान्ति की प्राप्ति के लिये भगवती की उपासना कर सकती हैं। पार्वती जी ने मनचाहा वर पाने के लिये नारद जी के आदेशानुसार तप किया था और वे अन्त में सफल मनोरथ हुई थीं। सीता जी ने मनोवाँछित पति पाने के लिये गौरी (पार्वती) की उपासना की थी। नवदुर्गाओं में आस्तिक घरानों की कन्यायें भगवती की आराधना करती हैं। गायत्री की उपासना उनके लिये सब प्रकार मंगलमयी है।
गायत्री के चित्र अथवा मूर्ति को किसी छोटे आसन या चौकी पर स्थापित करके उनकी पूजा वैसे ही करनी चाहिये, जैसे अन्य देव- प्रतिमाओं की होती है। प्रतिमा के आगे एक छोटी तस्वीर रख लेनी चाहिये और उसी पर चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, जल, भोग आदि पूजा सामग्री चढ़ानी चाहिये। मूर्ति के मस्तक पर चन्दन लगाया जा सकता है, पर यदि चित्र है तो उसमें चन्दन आदि नहीं लगाना चाहिए, जिससे उसमें मैलापन न आए। नेत्र बन्द करके ध्यान करना चाहिये और मन ही मन कम से कम २४ मन्त्र गायत्री के जपने चाहिये। गायत्री का चित्र या मूर्ति अपने यहाँ प्राप्त न हो सके, तो ‘गायत्री तपोभूमि मथुरा’ अथवा ‘शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार’ से मँगवा लेनी चाहिए। इस प्रकार की गायत्री साधना कन्याओं को उनके लिये अनुकूल वर, अच्छा घर तथा सौभाग्य प्रदान करने में सहायक होती है।
सधवाओं के लिये मंगलमयी साधना
अपने पतियों को सुखी, समृद्ध, स्वस्थ, सम्पन्न, प्रसन्न, दीर्घजीवी बनाने के लिए सधवा स्त्रियों को गायत्री की शरण लेनी चाहिये। इससे पतियों के बिगड़े हुए स्वभाव, विचार और आचरण शुद्ध होकर इनमें ऐसी सात्त्विक बुद्धि आती है कि वे अपने गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्य- धर्मों को तत्परता एवं प्रसन्नतापूर्वक पालन कर सकें। इस साधना से स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा स्वभाव में एक ऐसा आकर्षण पैदा होता है, जिससे वे सभी को परमप्रिय लगती हैं और उनका समुचित सत्कार होता है। अपना बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य, घर के अन्य लोगों का बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य, आर्थिक तंगी, दरिद्रता, बढ़ा हुआ खर्च, आमदनी की कमी, पारिवारिक क्लेश, मनमुटाव, आपसी राग- द्वेष एवं बुरे दिनों के उपद्रव को शान्त करने के लिये महिलाओं को गायत्री उपासना करनी चाहिये। पिता के कुल एवं पति के कुल दोनों ही कुलों के लिये यह साधना उपयोगी है, पर सधवाओं की उपासना विशेष रूप से पतिकुल के लिये ही लाभदायक होती है।
प्रात:काल से लेकर मध्याह्नकाल तक उपासना कर लेनी चाहिये। जब तक साधना न की जाए, भोजन नहीं करना चाहिये। हाँ, जल पिया जा सकता है। शुद्ध शरीर, मन और शुद्ध वस्त्र से पूर्व की ओर मुँह करके बैठना चाहिये। केशर डालकर चन्दन अपने हाथ से घिसें और मस्तक, हृदय तथा कण्ठ पर तिलक छापे के रूप मे लगायें। तिलक छोटे से छोटा भी लगाया जा सकता है। गायत्री की मूर्ति अथवा चित्र की स्थापना करके उनकी विधिवत् पूजा करें। पीले रंग का पूजा के सब कार्यों में प्रयोग करें। प्रतिमा का आवरण पीले वस्त्रों का रखें। पीले पुष्प, पीले चावल, बेसन के लड्डू आदि पीले पदार्थ का भोग, केशर मिले चन्दन का तिलक, आरती के लिए पीला गो- घृत, गो- घृत न मिले तो उपलब्ध शुद्ध घृत में केशर मिलाकर पीला कर लेना, चन्दन का चूरा, धूप। इस प्रकार पूजा में पीले रंग का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिये। नेत्र बन्द करके पीतवर्ण आकाश में पीले सिंह पर सवार पीतवस्त्र पहने गायत्री का ध्यान करना चाहिये ।। पूजा के समय सब वस्त्र पीले न हो सकें, तो कम से कम एक वस्त्र पीला अवश्य होना चाहिये। इस प्रकार पीतवर्ण गायत्री का ध्यान करते हुए कम से कम २४ मन्त्र गायत्री के जपने चाहिए। जब अवसर मिले, तभी मन ही मन भगवती का ध्यान करती रहें। महीने की हर एक पूर्णमासी को व्रत रखना चाहिये। अपने नित्य आहार में एक चीज पीले रंग की अवश्य लें। शरीर पर कभी- कभी हल्दी का उबटन कर लेना अच्छा है। यह पीतवर्ण साधना दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने के लिये परम उत्तम है।
सन्तान सुख देने वाली उपासना
जिनकी सन्तान बीमार रहती है, अल्प आयु में ही मर जाती हैं, केवल पुत्र या कन्यायें ही होती हैं, गर्भपात हो जाते हैं, गर्भ स्थापित ही नहीं होता, बन्ध्यादोष लगा हुआ है अथवा सन्तान दीर्घसूत्री, आलसी, मन्दबुद्धि, दुर्गुणी, आज्ञा उल्लंघनकारी, कटुभाषी या कुमार्गगामी है, वे वेदमाता गायत्री की शरण में जाकर इन कष्टों से छुटकारा पा सकती हैं। हमारे सामने ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिन स्त्रियों ने वेदमाता गायत्री के चरणों में अपना आँचल फैलाकर सन्तान- सुख माँगा है, उन्हें भगवती ने प्रसन्नतापूर्वक दिया है। माता के भण्डार में किसी वस्तु की कमी नहीं है। उनकी कृपा को पाकर मनुष्य दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर सकता है। कोई वस्तु ऐसी नहीं, जो माता की कृपा से प्राप्त न हो सकती हो, फिर सन्तान- सुख जैसी साधारण बात की उपलब्धि में कोई बड़ी अड़चन नहीं हो सकती।
जो महिलायें गर्भवती हैं, वे प्रात: सूर्योदय से पूर्व या रात्रि को सूर्य अस्त के पश्चात् अपने गर्भ में गायत्री के सूर्य सदृश प्रचण्ड तेज का ध्यान किया करें और मन ही मन गायत्री जपें, तो उनका बालक तेजस्वी, बुद्धिमान्, चतुर, दीर्घजीवी तथा तपस्वी होता है।
प्रात:काल कटि प्रदेश में भीगे वस्त्र रखकर शान्त चित्त से ध्यानावस्थित होना चाहिये और अपने योनि मार्ग में होकर गर्भाशय तक पहुँचता हुआ गायत्री का प्रकाश सूर्य किरणों जैसा ध्यान करना चाहिये। नेत्र बन्द रहें। यह साधना शीघ्र गर्भ स्थापित करने वाली है। कुन्ती ने इस साधना के बल से गायत्री के दक्षिण भाग (सूर्य भगवान्) को आकर्षित करके कुमारी अवस्था में ही कर्ण को जन्म दिया था। यह साधना कुमारी कन्याओं को नहीं करनी चाहिये।
साधना से उठकर सूर्य को जल चढ़ाना चाहिये और अघ्र्य से बचा हुआ एक चुल्लू जल स्वयं पीना चाहिये। इस प्रयोग से बन्ध्यायें गर्भ धारण करती हैं, जिनके बच्चे मर जाते हैं या गर्भपात हो जाता है, उनका यह कष्ट मिटकर सन्तोषदायी सन्तान उत्पन्न होती है।
रोगी, कुबुद्धि, आलसी, चिड़चिड़े बालकों को गोद में लेकर मातायें हंसवाहिनी, गुलाबी कमल पुष्पों से लदी हुई, शंख, चक्र हाथ में लिये गायत्री का ध्यान करें और मन ही मन जप करें। माता के जप का प्रभाव गोदी में लिये बालक पर होता है और उसके शरीर तथा मस्तिष्क में आश्चर्यजनक प्रभाव होता है। छोटा बच्चा हो तो इस साधना के समय माता दूध पिलाती रहे, बड़ा बच्चा हो तो उसके शरीर पर हाथ फिराती रहे। बच्चों की शुभकामना के लिये गुरुवार का व्रत उपयोगी है। साधना से उठकर जल का अघ्र्य सूर्य को चढ़ाएँ और पीछे बचा हुआ थोड़ा- सा जल बच्चों पर मार्जन की तरह छिडक़ दें।
किसी विशेष आवश्यकता के लिए
अपने परिवार पर, परिजनों पर, प्रियजनों पर आयी हुई किसी आपत्ति के निवारण के लिये अथवा किसी आवश्यक कार्य में आई हुई किसी बड़ी रुकावट एवं कठिनाई को हटाने के लिये गायत्री साधना के समान दैवी सहायता के माध्यम कठिनाई से मिलेंगे। कोई विशेष कामना मन में हो और उसके पूर्ण होने में भारी बाधायें दिखाई पड़ रही हों, तो सच्चे हृदय से वेदमाता गायत्री को पुकारना चाहिये। माता जैसे अपने प्रिय बालक की पुकार सुनकर दौड़ी आती है, वैसे ही गायत्री की उपासिकाएँ भी माता की अमित करुणा का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करती हैं।
नौ दिन का लघु अनुष्ठान, चालीस दिन का पूर्ण अनुष्ठान इसी पुस्तक में अन्यत्र वर्णित है। तत्कालीन आवश्यकता के लिये उनका उपयोग करना चाहिये। तपश्चर्या प्रकरण में लिखी हुई तपश्चर्याएँ भगवती को प्रसन्न करने के लिये प्राय: सफल होती हैं। एक वर्ष का ‘गायत्री उद्यापन’ सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला है, उसका उल्लेख आगे किया जायेगा। जैसे पुरुष के लिये गायत्री अनुष्ठान एक सर्वप्रधान साधन है, उसी प्रकार महिलाओं के लिये गायत्री उद्यापन की विशेष महिमा है। उसे आरम्भ कर देने में विशेष कठिनाई भी नहीं है और विशेष प्रतिबन्ध भी नहीं हैं। सरलता की दृष्टि से यह स्त्रियों के लिये विशेष उपयोगी है। माता को प्रसन्न करने के लिये उद्यापन की पुष्पमाला उसका एक परमप्रिय उपहार है।
नित्य की साधना में गायत्री चालीसा का पाठ महिलाओं के लिये बड़ा हितकारी है। जनेऊ की जगह पर कण्ठी गले में धारण करके महिलायें द्विजत्व प्राप्त कर लेती हैं और गायत्री अधिकारिणी बन जाती हैं। साधना आरम्भ करने से पूर्व उत्कीलन कर लेना चाहिए। इसी पुस्तक के पिछले पृष्ठों में गायत्री उत्कीलन के सम्बन्ध में सविस्तार बताया गया है।
नर- तत्त्व और नारी- तत्त्व एक- दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दोनों का महत्त्व, उपयोग, अधिकार और स्थान समान है। वेदमाता गायत्री की साधना का अधिकार भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही है। जो यह कहते हैं कि गायत्री वेदमन्त्र होने से उसका अधिकार स्त्रियों को नहीं है, वे भारी भूल करते हैं। प्राचीन काल में स्त्रियाँ मन्त्रद्रष्ट्री रही हैं। वेदमन्त्रों का उनके द्वारा अवतरण हुआ है। गायत्री स्वयं स्त्रीलिंग है, फिर उसके अधिकार न होने का कोई कारण नहीं। हाँ, जो स्त्रियाँ अशिक्षित, हीनमति, अपवित्र हैं, वे स्वयमेव प्रवृत्ति नहीं रखतीं, न महत्त्व समझती हैं, इसलिये वे अपनी निज की मानसिक अवस्था से ही अधिकार- वञ्चित होती हैं।
स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति गायत्री- साधनाएँ कर सकती हैं। जो साधनाएँ इस पुस्तक में दी गयी हैं, वे सभी उनके अधिकार क्षेत्र में हैं। परन्तु देखा गया है कि सधवा स्त्रियाँ जिन्हें घर के काम में विशेष रूप से व्यस्त रहना पड़ता है अथवा जिनके छोटे- छोटे बच्चे हैं और वे उनके मल- मूत्र के अधिक सम्पर्क में रहने के कारण उतनी स्वच्छता नहीं रख सकतीं, उनके लिये देर में पूरी हो सकने वाली साधनाएँ कठिन हैं। वे संक्षिप्त पञ्चाक्षरी गायत्री मन्त्र ( ऊँ भूर्भुव: स्व:) से काम चला सकती हैं। रजस्वला होने के दिनों में उन्हें विधिपूर्वक साधना बन्द रखनी चाहिए। कोई अनुष्ठान चल रहा हो, तो इन दिनों में रोककर रज- स्नान के पश्चात् उसे फिर चालू किया जा सकता है।
निस्सन्तान महिलाएँ गायत्री साधना को पुरुषों की भाँति ही सुविधापूर्वक कर सकती हैं। अविवाहित या विधवा देवियों के लिये तो वैसी ही सुविधाएँ हैं जैसी कि पुरुषों को। जिनके बच्चे बड़े हो गये हैं, गोदी में कोई छोटा बालक नहीं है या जो वयोवृद्ध हैं, उन्हें भी कुछ असुविधा नहीं हो सकती। साधारण दैनिक साधना में कोई विशेष नियमोपनियम पालन करने की आवश्यकता नहीं है। दाम्पत्य जीवन के साधारण धर्म- पालन करने में उसमें कोई बाधा नहीं। यदि कोई विशेष साधना या अनुष्ठान करना हो, तो उतनी अवधि के लिये ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक होता है।
विविध प्रयोजनों के लिये कुछ साधनायें नीचे दी जाती हैं —
मनोनिग्रह और ब्रह्म- प्राप्ति के लिये
विधवा बहिनें आत्मसंयम, सदाचार, विवेक, ब्रह्मचर्य पालन, इन्द्रिय निग्रह एवं मन को वश में करने के लिये गायत्री साधना का ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग कर सकती हैं। जिस दिन से यह साधना आरम्भ की जाती है, उसी दिन से मन में शान्ति, स्थिरता, सद्बुद्धि और आत्मसंयम की भावना पैदा होती है। मन पर अपना अधिकार होता है, चित्त की चञ्चलता नष्ट होती है, विचारों में सतोगुण बढ़ जाता है। इच्छायें, रुचियाँ, क्रियायें, भावनायें सभी सतोगुणी, शुद्ध और पवित्र रहने लगती हैं। ईश्वर प्राप्ति, धर्मरक्षा, तपश्चर्या, आत्मकल्याण और ईश्वर आराधना में मन विशेष रूप से लगता है। धीरे- धीरे उसकी साध्वी, तपस्विनी, ईश्वरपरायण एवं ब्रह्मवादिनी जैसी स्थिति हो जाती है। गायत्री के वेश में उसे भगवान् का साक्षात्कार होने लगता है और ऐसी आत्मशान्ति मिलती है, जिसकी तुलना में सधवा रहने का सुख उसे नितान्त तुच्छ दिखाई पड़ता है।
प्रात:काल ऐसे जल से स्नान करे जो शरीर को सह्य हो। अति शीतल या अति उष्ण जल स्नान के लिये अनुपयुक्त है। वैसे तो सभी के लिये, पर स्त्रियों के लिये विशेष रूप से असह्य तापमान का जल स्नान के लिये हानिकारक है। स्नान के उपरान्त गायत्री साधना के लिये बैठना चाहिये। पास में जल भरा हुआ पात्र रहे। जप के लिये तुलसी की माला और बिछाने के लिये कुशासन ठीक है। वृषभारूढ़, श्वेत वस्त्रधारी, चतुर्भुजी, प्रत्येक हाथ में- माला, कमण्डल, पुस्तक और कमल पुष्प लिये हुए प्रसन्न मुख प्रौढ़ावस्था गायत्री का ध्यान करना चाहिये। ध्यान सद्गुणों की वृद्धि के लिये, मनोनिग्रह के लिये बड़ा लाभदायक है। मन को बार- बार इस ध्यान में लगाना चाहिये और मुख से जप इस प्रकार करते जाना चाहिये कि कण्ठ से कुछ ध्वनि हो, होंठ हिलते रहें, परन्तु मन्त्र को निकट बैठा हुआ मनुष्य भी भली प्रकार सुन न सके। प्रात: और सायं दोनों समय इस प्रकार का जप किया जा सकता है। एक माला तो कम से कम जप करना चाहिये। सुविधानुसार अधिक संख्या में भी जप करना चाहिये। तपश्चर्या प्रकरण में लिखी हुई तपश्चर्याएँ साथ में की जायें तो और भी उत्तम है। किस प्रकार के स्वास्थ्य और वातावरण में कौन- सी तपश्चर्या ठीक रहेगी, इस सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से सलाह ली जा सकती है।
कुमारियों के लिये आशाप्रद भविष्य की साधना
कुमारी कन्याएँ अपने विवाहित जीवन में सब प्रकार के सुख शान्ति की प्राप्ति के लिये भगवती की उपासना कर सकती हैं। पार्वती जी ने मनचाहा वर पाने के लिये नारद जी के आदेशानुसार तप किया था और वे अन्त में सफल मनोरथ हुई थीं। सीता जी ने मनोवाँछित पति पाने के लिये गौरी (पार्वती) की उपासना की थी। नवदुर्गाओं में आस्तिक घरानों की कन्यायें भगवती की आराधना करती हैं। गायत्री की उपासना उनके लिये सब प्रकार मंगलमयी है।
गायत्री के चित्र अथवा मूर्ति को किसी छोटे आसन या चौकी पर स्थापित करके उनकी पूजा वैसे ही करनी चाहिये, जैसे अन्य देव- प्रतिमाओं की होती है। प्रतिमा के आगे एक छोटी तस्वीर रख लेनी चाहिये और उसी पर चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, जल, भोग आदि पूजा सामग्री चढ़ानी चाहिये। मूर्ति के मस्तक पर चन्दन लगाया जा सकता है, पर यदि चित्र है तो उसमें चन्दन आदि नहीं लगाना चाहिए, जिससे उसमें मैलापन न आए। नेत्र बन्द करके ध्यान करना चाहिये और मन ही मन कम से कम २४ मन्त्र गायत्री के जपने चाहिये। गायत्री का चित्र या मूर्ति अपने यहाँ प्राप्त न हो सके, तो ‘गायत्री तपोभूमि मथुरा’ अथवा ‘शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार’ से मँगवा लेनी चाहिए। इस प्रकार की गायत्री साधना कन्याओं को उनके लिये अनुकूल वर, अच्छा घर तथा सौभाग्य प्रदान करने में सहायक होती है।
सधवाओं के लिये मंगलमयी साधना
अपने पतियों को सुखी, समृद्ध, स्वस्थ, सम्पन्न, प्रसन्न, दीर्घजीवी बनाने के लिए सधवा स्त्रियों को गायत्री की शरण लेनी चाहिये। इससे पतियों के बिगड़े हुए स्वभाव, विचार और आचरण शुद्ध होकर इनमें ऐसी सात्त्विक बुद्धि आती है कि वे अपने गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्य- धर्मों को तत्परता एवं प्रसन्नतापूर्वक पालन कर सकें। इस साधना से स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा स्वभाव में एक ऐसा आकर्षण पैदा होता है, जिससे वे सभी को परमप्रिय लगती हैं और उनका समुचित सत्कार होता है। अपना बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य, घर के अन्य लोगों का बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य, आर्थिक तंगी, दरिद्रता, बढ़ा हुआ खर्च, आमदनी की कमी, पारिवारिक क्लेश, मनमुटाव, आपसी राग- द्वेष एवं बुरे दिनों के उपद्रव को शान्त करने के लिये महिलाओं को गायत्री उपासना करनी चाहिये। पिता के कुल एवं पति के कुल दोनों ही कुलों के लिये यह साधना उपयोगी है, पर सधवाओं की उपासना विशेष रूप से पतिकुल के लिये ही लाभदायक होती है।
प्रात:काल से लेकर मध्याह्नकाल तक उपासना कर लेनी चाहिये। जब तक साधना न की जाए, भोजन नहीं करना चाहिये। हाँ, जल पिया जा सकता है। शुद्ध शरीर, मन और शुद्ध वस्त्र से पूर्व की ओर मुँह करके बैठना चाहिये। केशर डालकर चन्दन अपने हाथ से घिसें और मस्तक, हृदय तथा कण्ठ पर तिलक छापे के रूप मे लगायें। तिलक छोटे से छोटा भी लगाया जा सकता है। गायत्री की मूर्ति अथवा चित्र की स्थापना करके उनकी विधिवत् पूजा करें। पीले रंग का पूजा के सब कार्यों में प्रयोग करें। प्रतिमा का आवरण पीले वस्त्रों का रखें। पीले पुष्प, पीले चावल, बेसन के लड्डू आदि पीले पदार्थ का भोग, केशर मिले चन्दन का तिलक, आरती के लिए पीला गो- घृत, गो- घृत न मिले तो उपलब्ध शुद्ध घृत में केशर मिलाकर पीला कर लेना, चन्दन का चूरा, धूप। इस प्रकार पूजा में पीले रंग का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिये। नेत्र बन्द करके पीतवर्ण आकाश में पीले सिंह पर सवार पीतवस्त्र पहने गायत्री का ध्यान करना चाहिये ।। पूजा के समय सब वस्त्र पीले न हो सकें, तो कम से कम एक वस्त्र पीला अवश्य होना चाहिये। इस प्रकार पीतवर्ण गायत्री का ध्यान करते हुए कम से कम २४ मन्त्र गायत्री के जपने चाहिए। जब अवसर मिले, तभी मन ही मन भगवती का ध्यान करती रहें। महीने की हर एक पूर्णमासी को व्रत रखना चाहिये। अपने नित्य आहार में एक चीज पीले रंग की अवश्य लें। शरीर पर कभी- कभी हल्दी का उबटन कर लेना अच्छा है। यह पीतवर्ण साधना दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने के लिये परम उत्तम है।
सन्तान सुख देने वाली उपासना
जिनकी सन्तान बीमार रहती है, अल्प आयु में ही मर जाती हैं, केवल पुत्र या कन्यायें ही होती हैं, गर्भपात हो जाते हैं, गर्भ स्थापित ही नहीं होता, बन्ध्यादोष लगा हुआ है अथवा सन्तान दीर्घसूत्री, आलसी, मन्दबुद्धि, दुर्गुणी, आज्ञा उल्लंघनकारी, कटुभाषी या कुमार्गगामी है, वे वेदमाता गायत्री की शरण में जाकर इन कष्टों से छुटकारा पा सकती हैं। हमारे सामने ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिन स्त्रियों ने वेदमाता गायत्री के चरणों में अपना आँचल फैलाकर सन्तान- सुख माँगा है, उन्हें भगवती ने प्रसन्नतापूर्वक दिया है। माता के भण्डार में किसी वस्तु की कमी नहीं है। उनकी कृपा को पाकर मनुष्य दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर सकता है। कोई वस्तु ऐसी नहीं, जो माता की कृपा से प्राप्त न हो सकती हो, फिर सन्तान- सुख जैसी साधारण बात की उपलब्धि में कोई बड़ी अड़चन नहीं हो सकती।
जो महिलायें गर्भवती हैं, वे प्रात: सूर्योदय से पूर्व या रात्रि को सूर्य अस्त के पश्चात् अपने गर्भ में गायत्री के सूर्य सदृश प्रचण्ड तेज का ध्यान किया करें और मन ही मन गायत्री जपें, तो उनका बालक तेजस्वी, बुद्धिमान्, चतुर, दीर्घजीवी तथा तपस्वी होता है।
प्रात:काल कटि प्रदेश में भीगे वस्त्र रखकर शान्त चित्त से ध्यानावस्थित होना चाहिये और अपने योनि मार्ग में होकर गर्भाशय तक पहुँचता हुआ गायत्री का प्रकाश सूर्य किरणों जैसा ध्यान करना चाहिये। नेत्र बन्द रहें। यह साधना शीघ्र गर्भ स्थापित करने वाली है। कुन्ती ने इस साधना के बल से गायत्री के दक्षिण भाग (सूर्य भगवान्) को आकर्षित करके कुमारी अवस्था में ही कर्ण को जन्म दिया था। यह साधना कुमारी कन्याओं को नहीं करनी चाहिये।
साधना से उठकर सूर्य को जल चढ़ाना चाहिये और अघ्र्य से बचा हुआ एक चुल्लू जल स्वयं पीना चाहिये। इस प्रयोग से बन्ध्यायें गर्भ धारण करती हैं, जिनके बच्चे मर जाते हैं या गर्भपात हो जाता है, उनका यह कष्ट मिटकर सन्तोषदायी सन्तान उत्पन्न होती है।
रोगी, कुबुद्धि, आलसी, चिड़चिड़े बालकों को गोद में लेकर मातायें हंसवाहिनी, गुलाबी कमल पुष्पों से लदी हुई, शंख, चक्र हाथ में लिये गायत्री का ध्यान करें और मन ही मन जप करें। माता के जप का प्रभाव गोदी में लिये बालक पर होता है और उसके शरीर तथा मस्तिष्क में आश्चर्यजनक प्रभाव होता है। छोटा बच्चा हो तो इस साधना के समय माता दूध पिलाती रहे, बड़ा बच्चा हो तो उसके शरीर पर हाथ फिराती रहे। बच्चों की शुभकामना के लिये गुरुवार का व्रत उपयोगी है। साधना से उठकर जल का अघ्र्य सूर्य को चढ़ाएँ और पीछे बचा हुआ थोड़ा- सा जल बच्चों पर मार्जन की तरह छिडक़ दें।
किसी विशेष आवश्यकता के लिए
अपने परिवार पर, परिजनों पर, प्रियजनों पर आयी हुई किसी आपत्ति के निवारण के लिये अथवा किसी आवश्यक कार्य में आई हुई किसी बड़ी रुकावट एवं कठिनाई को हटाने के लिये गायत्री साधना के समान दैवी सहायता के माध्यम कठिनाई से मिलेंगे। कोई विशेष कामना मन में हो और उसके पूर्ण होने में भारी बाधायें दिखाई पड़ रही हों, तो सच्चे हृदय से वेदमाता गायत्री को पुकारना चाहिये। माता जैसे अपने प्रिय बालक की पुकार सुनकर दौड़ी आती है, वैसे ही गायत्री की उपासिकाएँ भी माता की अमित करुणा का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करती हैं।
नौ दिन का लघु अनुष्ठान, चालीस दिन का पूर्ण अनुष्ठान इसी पुस्तक में अन्यत्र वर्णित है। तत्कालीन आवश्यकता के लिये उनका उपयोग करना चाहिये। तपश्चर्या प्रकरण में लिखी हुई तपश्चर्याएँ भगवती को प्रसन्न करने के लिये प्राय: सफल होती हैं। एक वर्ष का ‘गायत्री उद्यापन’ सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला है, उसका उल्लेख आगे किया जायेगा। जैसे पुरुष के लिये गायत्री अनुष्ठान एक सर्वप्रधान साधन है, उसी प्रकार महिलाओं के लिये गायत्री उद्यापन की विशेष महिमा है। उसे आरम्भ कर देने में विशेष कठिनाई भी नहीं है और विशेष प्रतिबन्ध भी नहीं हैं। सरलता की दृष्टि से यह स्त्रियों के लिये विशेष उपयोगी है। माता को प्रसन्न करने के लिये उद्यापन की पुष्पमाला उसका एक परमप्रिय उपहार है।
नित्य की साधना में गायत्री चालीसा का पाठ महिलाओं के लिये बड़ा हितकारी है। जनेऊ की जगह पर कण्ठी गले में धारण करके महिलायें द्विजत्व प्राप्त कर लेती हैं और गायत्री अधिकारिणी बन जाती हैं। साधना आरम्भ करने से पूर्व उत्कीलन कर लेना चाहिए। इसी पुस्तक के पिछले पृष्ठों में गायत्री उत्कीलन के सम्बन्ध में सविस्तार बताया गया है।